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कर्म
कर्ममें जीवोंकी प्रार्थता संज्ञा है, और उन्हीं जीवोंमें स्थित... कर्म परमाणुओंकी प्रदेशार्थता संज्ञा है । अधः कर्म में औदारिक शरीरके नोकर्मस्कन्धों की प्रत्यार्थता संज्ञा है और उन्हीं शरीरोंमें स्थित परमाणुओंकी प्रदेशार्थता संज्ञा है।
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२. द्रव्य भाव व नोकर्म रूप भेद व लक्षण
१. कर्म सामान्यका लक्षण
रा.वा./६/१/७/५०४/२६ कर्मशब्दस्य कर्त्रादिषु साधनेषु संभवत्सु इच्छातो विशेषोऽव्ययः । भीर्यान्तरायज्ञानावरणक्षमक्षयोपशमापेक्षेण आत्मनात्मपरिणामः पुद्गलेन च स्वपरिणामः व्यत्ययेन च निश्चयव्यवहारयापेक्षया क्रियत इति कर्मकरणमा विवक्षायां - धर्माध्यारोपे सति स परिणामः कुशलमकुशलं मा द्रव्यभावरूपं करोंतीति कर्म आत्मनः प्राधान्यविवक्षायां तु सति परिणामस्य करणरवोपपत्ते' बहुतापेक्षया क्रियतेऽनेन कर्मेत्यपि भवति । साध्याधन भावानभिधित्सायां स्वरूपावस्थिततत्त्वकथनात् कृति: कर्मेत्यपि भवति । एवं शेषकारकोपपत्तिश्च योज्या । - कर्म शब्द कर्ता कर्म और भाव तीनों साधनोंने निष्पन्न होता है और विवक्षानुसार तीनों यहाँ (कर्मा के प्रकरणने ) परिगृहीत हैं। १. वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण के क्षयोपशमकी अपेक्षा रखनेवाले आरमाके द्वारा निश्चय नमसे आत्मपरिणाम और पुदगलके द्वारा डुगल परिणाम तथा व्यवहारनयसे आत्मा द्वारा मतपरिणाम और पुदगलके द्वारा आत्मपरिणाम भी जो किये जायें वह कर्म हैं। २ कारणभूत परि णामों की प्रशंसाकी विवक्षामें कर्तृ धर्म आरोप करनेपर वही परिणाम स्वयं द्रव्य और भावरूप कुशल अकुशल कर्मोंको करता है अतः वही कर्म है। 9 आमाकी प्रधानता में वह कर्ता होता है और परिणाम करण तब 'जिनके द्वारा किया जाये वह कर्म' यह विग्रह भी होता है। ४. साध्यसाधन भावको विवक्षा न होनेपर स्वरूपमात्र कथन करनेसे कृतिको भी कर्म कहते है। इसी तरह अन्य कारक भी लगा लेने चाहिए ।
आठप./टी./११३/६२६६ जीवं परतन्त्रीकुर्वन्ति स परसन्त्री क्रियते वा यस्यानि कर्माणि जीवन या मिथ्यादर्शनादिपरिणामः क्रियन्ते इि कर्माणि । १ जीवको परतन्त्र करते है अथवा जीव जिनके द्वारा परतन्त्र किया जाता है उन्हे कर्म कहते हैं । २ अथवा जीवके द्वारा मिथ्यादर्शनादि परिणामोंसे जो किये जाते हैं-पति होते है वे कर्म हैं। (भ.आ./वि./२०/७१/८ ) केवल लक्षण नं. २ ।
२. कर्मके भेद-प्रभेद
स.सा./मू./मिच्छतं पृप दुहिं जीवनजीव सहेब अण्णा अभिरदि जोगो मोहो कोहादीया इमे भावा | ७| = मिथ्यात्व अज्ञान, अविरति, योग, मोह तथा क्रोधादि कषाय ये भाव जीव और अजीव के भेद दो-दो प्रकार के हैं।
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आप./मू./११३ कर्माणि द्विविधान्यत्र इन्यभावविकल्पतः। कर्म दो प्रकार के है-कर्म और भावकर्म
घ. १४/५,६,७१/५२/५ दव्त्रवग्गणा दुविहा -- कम्म वग्गणा, णोकम्मवग्गणा चेति द्रव्य वर्गगा दो प्रकारकी है कर्मवगंगा और नोकमर्गणा ।
गो.क./मू./६/६ कम्मत्तणेण एक्कं दव्वं भावोन्ति होदि दुविहं तु । = कर्म सामान्य भावरूप कर्मत्वकरि एक प्रकारका है। बहुरि सोई कर्म द्रव्य व भावके भेद से दो प्रकारका है।
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२. द्रव्य भाव व नोकर्म रूप भेद व लक्षण
३. द्रव्य भाव या जीव अजीव कर्मोंके लक्षण स.सा.// पुगलकम्मं मिच्छे जोगो अविरदि अण्णापमजीवं । उवओगो अण्णाणं अविरह मिच्छं च जीवो दु । ८८/५ जो मिथ्यात्व योग अनिरति और अज्ञान अजीम है सो तो कर्म हैं और जो मिथ्यात्व अविरति और अज्ञान जीव है वह उपयोग है । ( पुद्गल या द्रव्य भाये गये कर्म अर्थात् उन फार्मन स्कन्धौकी अवस्था अजीव कर्म है और जीवके द्वारा भाये गये अर्थात् उपयोगस्वरूप राग-द्वेषादिक जीव कर्म - ( स.सा./आ./८०), (प्र.सा./त.प्र / ११७, १२४ ) । स.सि./२/२३/१०२/८ सर्वशरीरवरोहणमजतं कार्मण शरीरं कर्णेरयुच्यते राब शरीरोंकी उत्पत्ति मूलकारण कार्मण शरीरको कर्म (द्रव्यधर्म) कहते है (रा.वा./२/२२/२/१३०/६) (रा.मा./५/२४/ ६/४८८/२०) |
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आप्त.प./ /१९३-१९४ प्रव्यकर्माणि जीवस्य त्तात्मान्यनेकधा । ११३० भावकर्माणि चैतन्यविवर्त्तात्मनि भान्ति नुः । क्रोधादीनि स्ववेद्यानि कथंचिदभेदतः । ११४॥ जीवके जो द्रव्यकर्म हैं वे पौगलिक हैं। और उनके अनेक भेद हैं ।११३ ॥ तथा जो भावकर्म हैं वे आत्मा चैतन्य परिणामात्मक है, क्योंकि आत्मासे कनिय अभिन्न रूपसे स्ववेद्य प्रतीत होते हैं और वे क्रोधादि रूप हैं । ११४ | ( पं. ध. /उ. /१०५८ - १०६०)
६. १४/५.६,७९/५२/५ तथ कम्मरम्गणा णाम अडुकंम्मधविवरण। - उनमें से आठ प्रकारके कर्मस्कन्धोंके भेद कर्म वर्गणा ( द्रव्य कर्मवर्गणा ) है । (नि.सा /ता.वृ./१०७)
और भी (दे० कर्म /३/५)
४. नोकर्मका लक्षण .१४/५.६/०९/२६ सेस एकोणवीसवग्गगाओ लोकम्मवग्गणाओ। कार्मग वर्गणाको छोडकर शेष उनीस प्रकारको वर्गणाएँ मोकर्म वर्गणाएँ हैं (अर्थात कुल २३ प्रकारकी वर्गणाओ में से कार्माण, भाषा, मनोव से जस इन चारको छोड़कर शेष १६ वर्गगाएँ नोकर्म वर्गगाएँ हैं ।। गो.जी./मू./२४४/५०० ओरालियवेगुब्बिय आहारयामकम्मुदये। चणकम्मसरीरा कम्मे य होदि कम्म औदारिक, वैकि बिक, आहारक और तेजस नामकर्मके उदयसे चार प्रकार के शरीर होते हैं। वे नोकर्म शरीर हैं पाँचों जो कार्मण शरीर सो कर्म रूप ही है। नि.सा./ता.वृ./१०७ औदारिकवै किविकाहारकरी जसकार्मणानि शरीराणि हि नोकर्माणि । औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर (1) वे नोकर्म है। गो.जी./जी.प्र./२४४/५०८/२ नोशब्दस्य विपर्यये ईषदर्थे च वृत्तेः । तेषां
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शरीराणां कर्मवदात्मगुणघातित्वगत्यादिपारतन्त्र्यहेतुत्वाभावेन कर्म - विपर्ययवाद कर्म सहकारित्वेन ईथरकर्मस्याश्च नोकर्मशरीरत्वसंभवात् नोइन्द्रियमत्। -नो शब्दका दोष अर्थ है- एक तो निषेधरूप और एक ईषद अर्थात् स्तोकरूप। सो इहाँ कार्माणको ज्यों से चार शरीर आमाके गुणोंको पाठे नाहीं वा त्पादिक रूप पराधीन न कर सकें तातें कर्मते विपरीत लक्षण धरनेकरि इनको अर्मशरीर कहिए । अथवा कर्मशरीरके ए सहकारी हैं तातें ईषत् कर्मशरीर कहिए । ऐसे इनिको नोकर्म शरीर कसे मनको गोन्द्र कहिए है।
५. कर्मफलका अर्थ
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प्र.सा./त.प्र./ १२४ तस्य कर्मणो यज्ञियाय सुदु तत्कर्म फलम् । उस कर्म से उत्पन्न किया जानेवाला सुख-दुख कर्मफल है (विशेष देखो 'उदय' )
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