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निक्षेप
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१. निक्षेप सामान्य निर्देश ३. प्रमाण नय व निक्षेपमें अन्तर
तो प्रकृत वस्तुके निर्णयके लिए सम्पूर्ण निक्षेपोका कथन किया जाता
__ है। (और भी दे० आगे निक्षेप/१/५) । ति, प./१/८३ णाणं होदि पमाणं णओ वि णादुस्स हिदियभावस्थो।
___स. सि./१/५/११/१ निक्षेपविधिना शब्दार्थ प्रस्तीर्यते । = किस शब्दका णिखेओ वि उवाओ जुत्तीए अस्थपडिगहणं ।। -सम्यग्ज्ञानको
__ क्या अर्थ है, यह निक्षेपविधिके द्वारा विस्तारसे बताया जाता है । प्रमाण और ज्ञाताके हृदयके अभिप्रायको नय कहते है । निक्षेप उपाय
रा, वा./१/१/२०/३०/२१ लोके हि सर्व मादिभि सव्यवहारः।स्वरूप है। अर्थात् नामादिके द्वारा वस्तुके भेद करनेके उपायको
एक ही वस्तुमें लोक व्यवहार में नामादि चारों व्यवहार देखे जाते हैं। निक्षेप कहते है। युक्तिसे अर्थात् नय व निक्षेपसे अर्थका प्रतिग्रहण
(जैसे- 'इन्द्र' शब्दको भी इन्द्र कहते हैं। इन्द्रकी मूर्तिको भी इन्द्र करना चाहिए ।८३। (ध. १/१,१.१/गा. ११/१७);
कहते है, इन्द्रपदसे च्युत होकर मनुष्य होनेवालेको भी इन्द्र कहते हैं न. च. वृ./१७२ वत्थू पमाण विसयं णयविसयं हवइ वत्थुपयंसं । जं और शचीपतिको भी इन्द्र कहते है )(विशेष दे० आगे शीर्षक.नं.६) दोहि णिण्णयट्टं तं णिक्वेवे हवे विसयं ।१२। सम्पूर्ण वस्तु प्रमाण- ध. १/१,१,१/३१/१ निक्षेपविस्पृष्ट सिद्वान्तो वर्ण्यमानो वक्तुः श्रोतुश्चोका विषय है और उसका एक अंश नयका विषय है। इन दोनोंसे
स्थानं कुर्यादिति बा। = अथवा निक्षेपोको छोडकर वर्णन किया - निर्णय किया गया पदार्थ निक्षेपमे विषय होता है।
गया सिद्धान्त सम्भव है, कि वक्ता और श्रोता दोनोंको कुमार्गमें ले प.ध./पू./७३६-७४० ननु निक्षेपो न नयो न च प्रमाण न चांशकं तस्य ।
जावे, इसलिए भी निक्षेपोंका कथन करना चाहिए। (ध. १/१,२,१३॥ पृथगुददेश्यत्वादपि पृथगिव लक्ष्य स्वलक्षणादिति चेत् ।७३६। सत्य
१२६/६)। गुणसापेक्षो सविपक्ष स च नय' स्वयं क्षिपति। य इह गुणाक्षेपः
न. च. वृ./२७०,२८१,२८२ दव्वं विविहसहावं जेण सहावेण होइ तं स्यादुपचरित' केवलं स निक्षेप १७४०/-प्रश्न-निक्षेप न तो नय है
ज्झेयं । तस्स णिमित्तं कीरइ एक्कं पिय दव्वं चउभेयं ।२७०। णिक्खेवऔर न प्रमाण है तथा न प्रमाण व नयका अंश है, किन्तु अपने लक्षण- णयपमाणं णादूणं भावयंत्ति जे तच्चं। ते तत्थतञ्चमग्गे लहंति लग्गा से वह पृथक् ही लक्षित होता है, क्योंकि उसका उद्देश पृथक् है ।
हु तत्थयं तच्च ।२८११ गुणपब्जयाण लक्षण सहाव णिक्खेवणयपमाणं उत्तर-ठीक है, किन्तु गुणोकी अपेक्षासे उत्पन्न होनेवाला और वा । जाणदि जदि सवियप दब्बसहावं स्तु बुझेदि ।२२। - द्रव्य विपक्षकी अपेक्षा रखनेवाला जो नय है, वह स्वयं जिसका आक्षेप विविध स्वभाववाला है। उनमें से जिस जिस स्वभावरूपसे वह ध्येय करता है, ऐसा केवल उपचरित गुणाक्षेप ही निक्षेप कहलाता है। होता है, उस उसके निमित्त ही एक द्रव्यको नामादि चार भेद रूप (नय और निक्षेपमें विषय-विषयी भाव है। नाम, स्थापना, द्रव्य कर दिया जाता है ।२७०। जो निक्षेप नय व प्रमाणको जानकर तत्त्वऔर भावरूपसे जो नयोंके द्वारा पदार्थो में एक प्रकारका आरोप किया
को भाते है वे तथ्यतत्त्वमार्ग में संलग्न होकर तथ्य तत्त्वको प्राप्त करते जाता है उसे निक्षेप कहते हैं। जैसे-शब्द नयसे 'घट' शब्द ही है।२८१२ जो व्यक्ति गुण व पर्यायोके लक्षण, उनके स्वभाव, निक्षेप, मानी घट पदार्थ है।)
नय व प्रमाणको जानता है वही सर्व विशेषोसे युक्त द्रव्यस्वभावको
जानता है ।२२। ४. निक्षेप निर्देशका कारण व प्रयोजन ति.प./१/८२ जो ण पमाणणयेहि णिक्खेवेणं णिरक्खदे अस्थ । तस्साजुत्त
५. नयोंसे पृथक् निक्षेपोका निर्देश क्यों जुत्तं जुत्तमजुत्तं च पडिहादि ।२। -जो प्रमाण तथा निक्षेपसे अर्थ- रा, वा./१/३/३२-३३/३२/१० द्रव्यार्थिकपर्यायाथिकान्तर्भावानामादीनां का निरीक्षण नहीं करता है उसको अयुक्त पदार्थ युक्त और युक्त तयोश्च नयशब्दाभिधेयत्वात पौनुरुक्त्यप्रसङ्ग. ३२॥ न वा एष दोषः । पदार्थ अयुक्त ही प्रतीत होता है ।८। (ध. १/१,१.११ गा. १०/१६) ." ये सुमेधसो विनेयास्तेषां द्वाभ्यामेव द्रव्याथिकपर्यायाथिकाभ्यां (ध. ३/१,२,१५/गा. ६१/१२६)।
सर्व नयवक्तव्यार्थप्रतिपत्ति' तदन्तर्भावात । ये त्वतो मन्दमेधसः तेषां व. १/१,१,१/गा. १५/३१ अवगयणिवारणटूट पयदस्स परूवणा णिमित्तं
ध्यादिनय विकल्प निरूपणम् । अतो विशेषोपपत्ते मादीनामपुनरुक्तच । संसयविणासण तच्चत्त्यवधारणठं च ॥१॥
त्वम्।-प्रश्न-द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नयोमें अन्तर्भाव हो जानेध, १/१.१,१/३०-३१ त्रिविधा श्रोतारः, अव्युत्पन्नः अवगताशेषविव
के कारण-दे निक्षेप/२, और उन नयोंको पृथक्से कथन किया क्षितपदार्थ : एकदेशतोऽवगतविवक्षितपदार्थ इति ।"तत्र यद्यव्युत्पन्न:
जानेके कारण, इन नामादि निक्षेपोंका पृथक् कथन करनेसे पुनरुक्ति पर्यायाथिको भवेन्निक्षेप क्रियते अव्युत्पादनमुखेन अप्रकृतनिराकर
होती है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जो विद्वान् शिष्य णाय । अथ द्रव्यार्थिकः तद्वारेण प्रकृतप्ररूपणायाशेषनिक्षेपा उच्यन्ते।
है वे दो नयोंके द्वारा ही सभी नयोंके वक्तव्य प्रतिपाद्य अर्थों को जान
लेते हैं, पर जो मन्दबुद्धि शिष्य हैं, उनके लिए पृथक् 'नय और "द्वितीयतृतीययो संशयितयो' संशयविनाशायाशेषनिक्षेपकथनम् । तयोरेव विपर्यस्यतोः प्रकृतार्थावधारणार्थ निक्षेपः क्रियते । - अप्रकृत
निक्षेपका कथन करना ही चाहिए। अत विशेष ज्ञान करानेके कारण विषयके निवारण करनेके लिए, प्रकृत विषयके प्ररूपणके लिए, संशय
नामादि निक्षेपोका कथन पुनरुक्त नहीं है। का विनाश करनेके लिए और तत्त्वार्थका निश्चय करनेके लिए निक्षेपोका कथन करना चाहिए। (ध. ३/१,२,२/गा.१२/१७), (घ.
६. चारों निक्षेपोंका सार्थक्य व विरोधका निरास ४/१,३,१/गा. १/२); (ध. १४/५,६.७१/गा. १/५१) (स.सि./१/५// रा, वा./१/१/१९-३०/३०/१६ अत्राह नामादिचतुष्टयस्णभावः । कुतः । ११) (इसका खुलासा इस प्रकार है कि-) श्रोता तीन प्रकारके होते विरोधात। एकस्य शब्दार्थस्य नामादिचतुष्टयं विरुध्यते। यथा हैं---अव्युत्पन्न श्रोता, सम्पूर्ण विवक्षित पदार्थको जाननेवाला श्रोता, नामैके नामैव न स्थापना । अथ नाम स्थापना इष्यतेन नामेदं नाम । एकदेश विवक्षित पदार्थ को जाननेवाला श्रोता (विशेष दे० श्रोता)। स्थापना तहिः न चेयं स्थापना, नामेदम् । अतो नामार्थ एको बिरोतहाँ अव्युत्पन्न श्रोता यदि पर्याय (विशेष) का अर्थी है तो उसे धान्न स्थापना। तथै कस्य जीवादेरर्थस्य सम्यग्दर्शनादेर्वा विरोधाप्रकृत विषयकी व्युत्पत्तिके द्वारा अप्रकृत विषयके निराकरण करनेके नामाद्यभाव इति ।१॥ न वैष दोषः। किं कारणम् । सर्वेषां संव्यवलिए निक्षेपका कथन करना चाहिए। यदि वह श्रोता द्रव्य (सामान्य) हार प्रत्यविरोधान् । लोके हि सर्वैर्नामादिभिष्टः संव्यवहारः। इन्द्रो का अर्थी है तो भी प्रकृत पदार्थ के प्ररूपणके लिए सम्पूर्ण निक्षेप कहे देवदत्तः इति नाम। प्रतिमादिषु चेन्द्र इति स्थापना। इन्द्रार्थे च काष्ठे जाते है। दूसरी व तीसरी जातिके श्रोताओंको यदि सन्देह हो तो द्रव्ये इन्द्रसंव्यवहारः 'इन्द्र आनीत' इति वचनात् । अनागतपरिणामे उनके मन्देहको दूर करनेके लिए अथवा यदि उन्हे विपर्यय ज्ञान हो चार्थे द्रव्यसंव्यवहारो लोके दृष्टः--द्रव्यमय माणवक', आचार्य श्रेष्ठी
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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