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गड्डी
. १४/२६.४१/८/१० हरदीपनाओं पण्णादिद
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माओ गड़ीओ नाम जिनके दो चक्के होते है, और जो धान्यादि हलके भार के ढोनेमे समर्थ है वे गड्डी कहलाती है। गण - स. सि /९/२४/४४२/६ गण स्थविरसंतति । स्थविरों की सन्ततिको गण कहते है । (रा. वा /६/२४/८/६२३/२०/ ). ( चा सा /१५१/३)
गड्डो
घ. १२/१४.२६/६३/- रिओ गणो तीन पुरुषो के समुदायको गण कहते है ।
२. निज परगणानुपस्थापना प्रायश्चित्त दे० परिहार
प्रायश्चित्त ।
गणधर - १. गणधर देवोंके गुण व ऋदियाँ ति./१६७ वे गणधरदेवा सज्ये मिहु अहरिद्विपणा ये सही गणधर अष्टद्धियों सहित होते है। (घ १/४.१.४४/गा. ४२ / १२८ ) ६. ३/४ १.४४/१२७/० पंचमहन्वपचारओ तिगुसित पंचसमिदो
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मदो मुकसत्तभओ बीजकोट्ठ पदानुसारि स भिण्णसोदारत्तुवलविओ उकर ठोहिणा पण उत्सबलादो नीहारविवजिओ दिततत्तद्विगुणेग सरकारलोपवासो वि संतो सरीरतेोयदस दिसो सोहि द्धिगुणेण सह तलादो कर गुलिया तिहूगणतो अमियासयोगले अंजखिणविताहारे अमियम परिमलमो महात्वगुणेपण कप्पर महाण सक्लीगल मिलेग सुगृहस्थ णिम दिदाहाराणामुपाय अघोरतवमाहप्पेण जीवाणं मण वयण कायगया सेस दुत्थियत्तणिवारओ सयलविज्जाहि सवियपादमूला आयासचारणगुणेण रक्खियासेसजीवशिवो वायाए गणेश व संयतत्वसंपादक्खनो अणिमादिअट्टगुणेहि जयदेव वायाए मणेण य समत्तसंपादन] अणिमादि
गुणेहि जियासेस देवविहो तिहुणजगजेठओ परोसेगविणा अक्खराणक्खरसरूवासेसभासतरकुसली समवसरणजणमेत्तत्रधारित
अम्हम्हाणं भासाहि अम्हम्हाणं चैव कहदित्ति सव्वेसि पच्चउपाय समवसरणजणसोदिदिए सगमुहविणिग्गयायभासाणं संकरेण पवेसस्स विणिवारओ गणहरदेवो गंथकत्तारी, अण्णहा गंथस्स पाणविरोहाद धम्मरसायणेण समोसरपणावतीदो
पाँच महावती धारक, दोन गुझियोसे रक्षित, पाँच समितियों से युक्त, आठ मासे रहित, सत भयों से मुक्त, मीज, कोष्ठ, पदानुसारी
भिन्नतृत्व बुद्धियो से उपलक्षित, प्रत्यक्षभूत उत्कृष्ट अवधिज्ञानसे युक्त तप्त तपलब्धि प्रभावसे मल, मूत्र रहित, दीप्त तपलब्धि के मलले सर्वकाल उपवासयुक्त होकर भी शरीरके तेजसे दशों दिशाओंको प्रकाशित करनेवाले, सर्वोषधि सन्धिके निमित्त समस्त औष धियों स्वरूप, अनन्त बलयुक्त होनेसे हाथकी कनिष्ठ अंगुली द्वारा तीनों लोकों को चलायमान करने में समर्थ अमृत आसनादिद्धियों के बलसे हस्तपुटमें गिरे हुए सर्व आहारोंको अमृतस्वरूपसे परिणामे में समर्थ, महातप गुणसे कल्पवृक्षके समान, अक्षीणमहानस लब्धि के बल से अपने हाथ गिरे आहारकी अक्षयताके उत्पादक अोरत के माहात्म्यसे जीवोके मन, वच एवं कायगत समस्त कष्टोंके 'दूर करनेमाले सम्पूर्ण विद्याओके द्वारा सेमित चरण से संयुक्त आकाशचारण गुणसे सब जीव समूहकी रक्षा करनेवाले, वचन और मनसे समस्त पदार्थो के सम्पादन करनेमें समर्थ, अणिमादिक आठ गुणों के द्वारा सब देव समूहको जीतनेवाले, तीनो लोको के जनों में श्रेष्ठ, परोपदेशके बिना अक्षर व अनक्षर रूप सब भाषाओं में कुशल, समपसरणमें स्थित जनमात्रके रूपके धारी होनेसे 'हमारी हमारी भाषाओ से हम हमको ही कहते हैं" इस प्रकार सबको विश्वास करानेबाले, तथा समवसरणस्थ जनोंके कर्ण इन्द्रियों में अपने मुँह से निकली हुई अनेक भाषाओंके सम्मिश्रित प्रवेशके निवारक ऐसे गणधरदेव
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ग्रन्थकर्ता है, क्योंकि ऐसे स्वरूप बिना इन्धकी प्रामाणिक्साका विरोध होनेसे धर्म रसायन द्वारा समवसरण के जनोंका पोषण बन नहीं
गणधर
सक्ता ।
म. ४२ / ६० पतुर्भिरधिकाशीतिरिति सष्टुर्गणाधिपा एते संयुक्ताः सर्वे वेनुमादिनः ॥६०॥ ऋषभदेव के सर्व (४) गणधर सातो ऋद्धियो से सहित थे और सर्वज्ञ देवके अनुरूप थे । ( ह. पु /
३ / ४४ )
२. गणधरोंकी ऋद्धियोंका सद्भाव कैसे जाना जाता है
घ ६/४, १,७/५८ /६ गणहरदेवेसु चत्तारि बुद्धिओ, अण्णहा दुवालसँगाणमष्यसिप गावो कई तावत्थ को बुद्धीअभावो उप्पण्ण दणाणस्स अट्ठाणेण विणा विणा सप्पस गादो । विमाययत्ययस्वणविनिमय अनख राममखरपयमनिसिगिय बीजपदा मगहर देवाणं दुवाल संगाभावप्पस गादीच त्य पदानुसारिसणिदणाणाभावो, बीजबुद्धीए अवगयसरूवेहितो कोट्टबुद्धि पत्ताट्टाणे हितो बीजपदेहितो ईहावाएहि विणा बीजपदुभयदिसावर पदमरायवाप्पती अयमतोदो। ण सम्भिण्णसोदारत्तस्स अभावो, तेण विणा अवखराणक्वप्पाए सत्तसदट्ठारसकुभास - भाससरूवाए णाणाभेद भिण्णबीजपदसरूवाए पक्खिण मण्णष्णभावसुवगच्छंतीए दिव्वज्भुणीए गहणाभावादो दुवासंगुप्पत्तीए अभावप्यसंगो त्ति । गणधर देवोंके चार बुद्धियों होती है, क्योंकि, उनके बिना बारह अंगोकी उत्पत्ति न हो सकने ' का प्रसंग आवेगा । प्रश्न - बारह अंगोकी उत्पत्ति न हो सकनेका 'प्रसंग कैसे आवेगा ? उत्तर- गणधरदेवो में कोष्ठ बुद्धिका अभाव नहीं हो सकता, क्योकि ऐसा होनेपर अवस्थानके मिना उत्पन्न हुए त ज्ञानके विनाशका प्रसंग आवेगा। क्योकि उसके बिना गणधर देवोको तीर्थकर से निकले हुए और अनहार स्वरूप महुत लिगादिक बीज पदोका ज्ञान न हो सक्नेसे द्वादशांगके अभावका प्रसंग आयेगा। भीमबुद्धिके बिना भी द्वादशांगको उत्पत्ति न हो सक्ती कोकि ऐसा मानने में अतिप्रसंग योग आयेगा उनमें पादानुसारी नामक ज्ञानका अभाव नहीं है, क्योकि बीजबुद्धिसे जाना गया है स्वरूप जिनका तथा कोष्ठबुद्धिसे प्राप्त किया है अवस्थान जिन्होंने ऐसे भीजपदो ईहा और अमायके बिना पदकी उम दिशा विषयक श्रुतज्ञान तथा अक्षर, पद, वाक्य और उनके अर्थ विषकश्रुतज्ञानकी उत्पत्ति बन नही सकती । उनमें संभिन्नश्रोतृत्वका अभाव नहीं है, क्योंकि उसके बिना अक्षरानक्षरात्मक, सात सौ कुभाषा और अठारह भाषा स्वरूप, नाना भेदोंसे भिन्न बीजपदरूप, व प्रत्येक क्षण में भिन्न-भिन्न स्वरूपको प्राप्त होनेवाली ऐसी दिव्यध्वनिका ग्रहण न हो सकनेसे द्वादशांगकी उत्पत्तिके अभावका प्रसंग होगा (अतः उनमें उपरोक्त बुद्धियाँ हैं)
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
३. भगवान् ऋषभदेवके चौरासी गणधरोंके नाम म. पु. / ४३/५४-६६ से उदधृत - ९. वृषभसेन; २. कुम्भ; ३. दृढरथ; ४. शतधनुः ५. देवशर्मा; ६. देवभाव; ७ नन्दन सोमदत्त; ६. सूरत: १०. वायुशर्मा ११. शोमा १२. देवा १३. अग्निदेव; १४. अग्निगुप्त १५. मित्राग्नि; १६. हलभृत; १७. महीधर; १८. महेन्द्र; १६. वसुदेव; २०. वसुंधर; २१. अचल; २२. मेरु; २३. मेरु
२४. मेरुति १५ सर्व २८ सर्वतः २७ सर्वप्रियः २८. सर्वदेवः २१ सर्वयज्ञ ३० सर्वविजय ३१. विजय, १२. विजय मित्र; ३३. विजयिल; ३४, अपराजित; ३५ वसुमित्र ३६. विश्वसेन; ३७. साधुसेन; ३८. सत्यदेव; ३६. देवसत्य; ४०. सत्यगुप्त; ४१. सत्यमित्र. ४२. निर्मल; ४३. विनीत ४४ संवर; ४५. मुनिगुप्त; ४६. मुनिदत्त ४७ मुनियज्ञः ४८. मुनिदेव ४६. गुप्तयज्ञः ५०. मित्रयज्ञ:
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ताए
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