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गुरु
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२. गुरु शिष्य सम्बन्ध
अग्नि एक प्रकारकी होकर भी तृणकी, पत्रकी तथा लकडीकी अग्नि इस प्रकार तीन प्रकारकी कही जाती है । ६३७॥ * आचार्य उपाध्याय व साधु-दे० वह वह नाम । ३. संग्रत साधुके अतिरिक्त अन्यको गरु संज्ञा प्राप्त नहीं अ.ग. श्रा/१/४३ ये ज्ञानिनश्चारुचारित्रभाजो ग्राह्या गुरूणां बचनेन
तेषा। संदेहमत्यस्य बुधेन धर्मो विकल्पनीयं वचनं परेषां ॥४३जे ज्ञानवान सुन्दर चारित्रके धरनेवाले हैं, तिनि गुरूनिके वचननिकरि सन्देह छोड धर्म ग्रहण करना योग्य है। बहुरि ऐसे गुरुनि बिना
औरनिका वचन सन्देह योग्य है। पं ध/उ./६५८ इत्युक्तवततप.शीलसंयमादिधरो गणी। नमस्यः स गुरुः साक्षादन्यो न तु गुरुर्गणी ६५८१ = इस प्रकार जो आचार्य पूर्वोक्त तपशील और संयमादिको धारण करनेवाले है, वही साक्षात् गुरु है,
और नमस्कार करने योग्य है, किन्तु उससे भिन्न आचार्य गुरु नहीं हो सकता। र. क आ/टी./१/१०६. सदासुखदास-जो विषयनिका लम्पटी होय
सो ओर निकू विषयनित छडाय वीतराग मार्गमे नाही प्रवर्तावै । ससारमार्गमे लगाय संसार समुद्र में डुबोय देय है । तातै विषयनिकी आशाकै बश नही होय सोही गुरु आराधन करने व बन्दने योग्य है। जातै विषयनिमे जाकै अनुराग होय सो तो आत्मज्ञानरहित बहिरात्मा है, गुरु कैसे होय । बहुरि जिसके त्रस स्थावर जीवनिका घातक आरम्भ होय तिसकै पापका भय नहीं, तदि पापिष्ठकै गुरुपना कैसे सम्भबे । बहुरि जो चौदह प्रकार अन्तरंग परिग्रह और दस प्रकार बहिरंग परिग्रहकरि सहित होय सो गुरु कैसै होय ! परिग्रही तो आप ही संसारमे फंस रह्या, सो अन्यका उद्धार करनेवाला गुरु कैसे होय। दे. विनय/४ असंयत सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि साधु आदि बन्दने योग्य नहीं है। * मिथ्यादृष्टि साधुको गुरु मानना मूढ़ता है-दे० मूढता। * कुगुरु निषेध-दे० कुदेव ।
स. श./७५ नयत्यात्मानमात्मैव जन्म निर्वाणमेव च । गुरुरात्मात्मनस्तस्मान्नान्योऽस्ति परमार्थतः ।७।-आत्मा ही आत्माको देहादिमें ममत्व करके जन्म मरण कराता है, और आत्मा ही उसे मोक्ष प्राप्त कराता है। इसलिए निश्चयसे आत्माका गुरु आत्मा ही है, दूसरा कोई नहीं। ज्ञा /३२/८१ आत्मात्मना भव मोक्षमात्मन' कुरुते यत.। अतो रिपुर्गुरुश्चायमात्मैव स्फुटमात्मनः।। -यह आत्मा अपने ही द्वारा अपने संसारको या मोक्षको करता है। इसलिए आप ही अपना शत्रु
और आप ही अपना गुरु है। प.ध./उ./६२८ निर्जरादिनिदानं यः शुद्धो भावश्चिदात्मनः । परमाई:
स एवास्ति तद्वानात्मा परं गुरुः ॥६२८=वास्तवमें आत्माका शुद्धभाव ही निर्जरादिका कारण है, वही परमपूज्य है, और उस शुद्धभावसे युक्त आत्मा ही केवल गुरु कहलाता है।
७. उपकारी जनोंको भी कदाचित् गुरु माना जाता है ह पु./२१/१२८-१३१ अक्रमस्य तदा हेतुं खेचरौ पर्यपृच्छताम् । देवा
वृषिमतिक्रम्य प्राग्नतौ श्रावकं कुत ।१२। त्रिदशाबूचतुर्हेतुं जिनधर्मोपदेशकः । चारुदत्तो गुरु. साक्षादावयोरिति बुध्यताम् ।१२।। तत्कथं कथमित्युक्तं छागपूर्व' सुरोऽभणीत । श्रूयतां मे कथा तावत् कथ्यते खेचरौ । स्फुटम् ।१३०। -( उस रत्नद्वीपमें जब चारण मुनिराजके समक्ष चारुदत्त व दो विद्याधर विनय पूर्वक बैठे थे, तब स्वर्गलोकसे दो देव आये जिन्होने मुनिको छोड़कर पहिले चारुदत्सको नमस्कार किया) विद्याधरोंने उस समय उस अक्रमका कारण पूछा कि हे देवो, तुम दोनों ने मुनिराजको छोडकर श्रावकको पहिले नमस्कार क्यों किया? देवोंने इसका कारण कहा कि इस चारुदत्तने हम दोनोंको जिन धर्मका उपदेश दिया है, इसलिए यह हमारा साक्षात गुरु है । यह समझिए ।१२८-१२६॥ यह कैसे ? इस प्रकार पूछने पर जो पहिले मकराका जीव था वह बोला कि हे विद्याधरो। सुनिए मैं अपनी कथा स्पष्ट कहता हूँ।१३०॥ म.पु./६/१७२ महाबलभवेऽप्यासीत् स्वयंबुद्धो गुरो स नः । वितीर्य दर्शनं
सम्यक् अधुना तु विशेषतः ।१७२१= महाबलके भवमें भी वे मेरे स्वयंबुद्ध (मन्त्री) नामक गुरु हुए थे और आज इस भव में भी सम्यग्दर्शन देकर (प्रीतंकर मुनिराजके रूपमें ) विशेष गुरु हुए हैं ।१७२। * अणुव्रती श्रावक भी गृहस्थाचार्य या गुरु संज्ञाको प्राप्त हो जाता है।
-दे० आचार्य । * गुरुकी विशेषता-दे० वक्ता/४ । २. गुरु शिष्य सम्बन्ध 1. शिष्यके दोषोंके प्रति उपेक्षित मृदु भी 'गुरु' गुरु नहीं मू.आ./१६८ जदि इदरो सोऽजोग्गो छेदमुवठ्ठावणं च कादव्वं । अदि
णेच्छदि छडेज्जो अह गेहादि सोवि छेदरिहो ।१६८ -आगन्तुक साधु या चरणकरणसे अशुद्ध हो तो संघके आचार्यको उसे प्रायश्चित्तादि देकर छेदोपस्थापना करना योग्य है। यदि वह छेदोपस्थापना स्वीकार न करे तो उसका त्याग कर देना योग्य है। यदि अयोग्य साधुको भी मोहके कारण ग्रहण करे और उसे प्रायश्चित्त न दे तो वह
आचार्य भी प्रायश्चित्तके योग्य है। भ.आ./मू./४८१/७०३ जिन्भाए वि लिहतो ण भद्दओ जत्थ सारणा णत्थि। - जो शिष्यों के दोष देखकर भी उन दोषोंको निवारण नहीं करते और जिह्वासे मधुर भाषण बोलते हैं तो भी वे भद्र नहीं है अर्थात उत्तम गुरु नहीं है। आ.अनु /१४२ दोषान् काश्चन तान्प्रवर्तकतया प्रच्छाद्य गच्छत्ययं, साधं तैः सहसा प्रियेद्यदि गुरुः पश्चात् करोत्येष किम् । तस्माम्मे न
४. सदोष साधु मी गुरु नहीं है पं. ४ |उ./६५७ यता मोहात्प्रमादाद्वा कुर्याद्यो लौकिकी क्रियाम्।। तावत्काल सनाचार्योऽप्यस्ति चान्त ताच्च्युत' १६५७/ जो मोहसे अथवा प्रमादसे जितने काल तक लौकिक क्रियाको करता है, उतने काल तक वह आचार्य नहीं है और अन्तरंगमें व्रतोंसे च्युत भी है ।६५७४
५. निर्यापकाचार्यको शिक्षा गरु कहते हैं प्र. सा/ता, वृ/२१०/२८४/१५ छेदयोर्ये प्रायश्चित्तं दत्वा संवेगवैराग्यजनकपरमागमवचन' संवरणं कुर्वन्ति ते निर्यापकाः शिक्षागुरवः श्रुतगुरवश्चेति भण्यते ।- देश व सकल इन दोनों प्रकारके संयमके छेदकी शुद्धिके अर्थ प्रायश्चित्त देकर संवेग व वैराग्य जनक परमागमके वचनो द्वारा साधुका संवरण करते हैं वे निर्यापक हैं। उन्हें ही शिक्षा गुरु या श्रुत गुरु भी कहते हैं।
१. निश्चयसे अपना आत्मा ही गुरु है इ. उ./३४ स्वस्मिन्सदाभिलाषित्वादभीष्टज्ञापकत्वतः । स्वयं हि प्रयोक्तृत्वादात्मैव गुरुरात्मनः ।३४। वास्तवमें आत्माका गुरु आत्मा ही है, क्योकि वही सदा मोक्षकी अभिलाषा करता है, मोक्ष सुखका ज्ञान करता है और स्वयं ही उसे परम हितकर जान उसकी प्राप्तिमें अपनेको लगाता है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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