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पुति
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इदं पुनर्दशविधधर्माख्यानं समितिषु प्रवर्तमानस्य प्रमादपरिहारार्थ वेदितव्यम् । प्रश्न-यह (दशधर्मविषयक सूत्र) किसलिए कहा है : उत्तर-संवरका प्रथम कारण गुप्ति आदि प्रवृत्तिका निग्रह करनेके लिए कहा गया है जो वैसा करने में असमर्थ है उन्हें प्रवृत्तिका उपाय दिखलानेके लिए दूसरा कारण (ऐषणा आदि समिति) कहा गया है। किन्तु यह दश प्रकारके धर्मका कथन समितियों में प्रवृत्ति करनेवाले के प्रमादका परिहार करनेके लिए कहा गया है। (रा.वा/8/4/१/ ५६५/१८) ७.गुप्ति व ईर्याभाषा समितिमें अन्तर रा.वा/8/V8/५६४/३० स्यान्मतम् ईर्यासमित्यादिलक्षणावृत्तिः वाक्कायगुप्तिरेव, गोपनं गुप्तिः रक्षणं प्राणिपीडापरिहार इत्यनान्तरमिति। तन्न; किं कारणम् । तत्र कालविशेषे सर्व निग्रहोपपत्तेः । परिमितकालविषयो हि सर्वयोगनिग्रहो गुप्तिः। तत्रासमर्थस्य कुशलेषु वृत्ति. समिति. प्रश्न-ईर्या समिति आदि लक्षणवाली वृत्ति ही वचन व काय गुप्ति है, क्योंकि गोपन करना, गुप्ति, रक्षण, प्राणीपीडा परिहार इन सबका एक अर्थ है। उत्तर-नहीं; क्योंकि; वहाँ कालविशेषमें सर्व निग्रहकी उपपत्ति है अर्थात् परिमित कालपर्यंत सर्व योगोंका निग्रह करना गुप्ति है। और वहाँ असमर्थ हो जानेवालों के लिए कुशल कर्मों में प्रवृत्ति करना समिति है। भ.आ/वि/१९८७/११७८/९ अयोग्यवचनेऽप्रवृत्तिः प्रेक्षापूर्वकारितया योग्यं तु वक्ति वा न वा । भाषासमितिस्तु योग्यवचसः कतृता ततो महान्भेदो गुप्तिसमित्योः। मौनं वाग्गुप्तिरत्र स्फुटतरो वचोभेदः । योग्यस्य वचसः प्रवर्तकता। वाचः कस्याश्चित्तदनुत्पादकतेति । (वचन गुप्तिके दो प्रकार लक्षण किये गये हैं-कर्कशादि वचनोंका त्याग करना व मौन धारना) तहाँ-१.जो आत्मा अयोग्य वचनमें प्रवृत्ति नहीं करता परन्तु विचार पूर्वक योग्य भाषण बोलता है अथवा नहीं भी बोलता है यह उसकी वाग्गुप्ति है। परन्तु योग्य भाषण बोलना यह भाषा समिति है । इस प्रकार गुप्ति और समितिमें अन्तर है। २. मौन धारण करना यह वचन गुप्ति है। यहाँ-योग्य भाषणमें प्रवृत्ति करना समिति है। और किसी भाषाको उत्पन्न न करना यह गुप्ति है । ऐसा इन दोनों में स्पष्ट भेद है।
८.गुति पालनेका आदेश यू.आ/३३४-३३९ खेत्तस्स वई णयरस्स खाइया अहव होइ पायारो। तह पापस्स णिरोहो ताओ गुत्तीओ साहुस्स १३३४॥ तम्हा तिविहेण तुम णिच्च मणवयणकायजोगेहि। होहिमु समाहिदमई णिरंतर माणसज्माए ३३९१-- जैसे खेतकी रक्षाके लिए बाड होती है, अथवा नगरकी रक्षारूप खाई तथा कोट होता है, उसी तरह पापके रोकनेके लिए संयमी साधुके ये गुप्तियाँ होती हैं ।३३४। इस कारण हे साधु ! तू कृत कारित अनुमोदना सहित मन वचन कायके योगोंसे हमेशा ध्यान और स्वाध्यायमें सावधानीसे चित्तको लगा।३३॥ (भ.आ/ मू/११८६-११६०/११८४)
[ऋद्धि-पुन्नाटसंघकी गुर्वावलीके अनुसार आप गुप्तिश्रुतिके शिष्य तथा शिवगुप्तिके गुरु थे। समय-बी. नि. ५५० (ई० २३)
-दे० इतिहास /७/८ । गुप्तिगुप्त-श्रूतावतार में कथित अर्ह वलीका अपर नाम जिनका स्मरण नन्दिसघ बलात्कार गणकी गुर्वावली में आ भद्रबाहू द्वि० के पश्चात और माघनन्दि से पूर्व किया गया है। वास्तव में नन्दि संध के साथ इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। विशेष दे० कोश खण्ड १ परिशिष्ट/२/७। समय बी. नि. ५६५-५७५ (ई ३८-४८) (दे० इतिहास/७/२)। समय-शक सं २६-३६ (ई० १०४-११४)- दे० इतिहास /५/१३ । गुप्तिश्रुति-पुन्नाटसंघको गुर्वावलीके अनुसार आप विनयंधरके शिष्य तथा गुप्तिऋद्धिके गुरु थे। समय-वी. नि. ५४० (ई० १३)
दे० इतिहास /७/८ । ग्रमानाराम-पं. टोडरमलजीके पुत्र थे । गुमानी पन्थकी अति
१३ पन्थ शुद्धाम्नायकी स्थापना की। समय–वि. १८३७ (ई १७८०)। गुरु-गुरु शब्दका अर्थ महान होता है। लोकमें अध्यापकों को गुरु कहते हैं । माता पिता भी गुरु कहलाते हैं। परन्तु धार्मिक प्रकरणमें आचार्य, उपाध्याय व साधु गुरु कहलाते हैं, क्योंकि वे जीवको उपदेश देकर अथवा विना उपदेश दिये ही केवल अपने जीवनका दर्शन कराकर कल्याणका वह सच्च। मार्ग बताते हैं, जिसे पाकर वह सदाके लिए कृतकृत्य हो जाता है। इसके अतिरिक्त विरक्त चित्त सभ्यग्दृष्टि श्रावक भी उपरोक्त कारणवश हो गुरु संज्ञाको प्राप्त होते है। दीक्षा गुरु, शिक्षा गुरु, परम गुरु आदिके भेदसे गुरु कई प्रकारके होते है।
१.गुरु निर्देश
१. अर्हन्त भगवान् परम गुरु हैं प्र. सा./ता. वृ./७४/ प्रक्षेपक गाथा २/१००/२४ अनन्तज्ञानादिगुरुगुणैस्त्रैलोकस्यापि गुरुस्तं त्रिलोकगुरु, तमित्थंभूतं भगवंतं...1=अनन्तज्ञानादि महान गुणों के द्वारा जो तीनों लोकों में भी महान है वे भगवान् अर्हन्त त्रिलोक गुरु हैं । (प.ध./उ /६२०) । २. आचार्य उपाध्याय साधु गुरु हैं भ. आ /वि /३००/५११/१३ सुस्सुसया गुरूणं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैगुरुतया गुरव इत्युच्यन्ते आचार्योपाध्यायसाधवः ।- सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र इन गुणों के द्वारा जो बड़े बन चुके हैं उनको गुरु कहते हैं। अर्थात् आचार्य उपाध्याय और साधु ये तीन परमेष्ठी गुरु कहे जाते हैं। ज्ञा, सा./५ पञ्चमहावतकलितो मदमथनः क्रोधलोभभयत्यक्तः । एष गुरुरिति भण्यते तस्माज्जानीहि उपदेशं । पाँच महाव्रतधारी, मदका मथन करनेवाले, तथा क्रोध लोभ व भयको त्यागने वाले गुरु कहे जाते हैं। पं.ध./उ/६२१,६३७ तेभ्योऽगिपि छद्मस्थरूपास्तद् रूपधारिणः । गुरवः स्युर्गुरोायान्नान्योऽवस्थाविशेषभाक् ।६२१॥ अथास्त्येक स सामान्यात्सद्विशेष्यस्त्रिधा मतः। एकोऽप्यग्निर्यथा तार्यः पार्यो दाळस्त्रिधोच्यते ।६३७१ =उन सिद्ध और अर्हन्तोंकी अवस्थाके पहिले की अवस्थावाले उसी देवके रूपधारी छठे गुणस्थानसे लेकर बारहवें गुणस्थान तक रहनेवाले मुनि भी गुरु कहलाते हैं, क्योंकि वे भी भावी नैगम नयकी अपेक्षासे उक्त गुरुकी अवस्था-विशेषको धारण करनेवाले हैं, अगुरु नहीं हैं ।६३१। वह गुरु यद्यपि सामान्य रूपसे एक प्रकारका है परन्तु सत्की विशेष अपेक्षासे तीन प्रकारका माना गया है-(आचार्य, उपाध्याय व साधु) जैसे कि अग्नित्व सामान्यसे
२. अन्य सम्बन्धित विषय १. श्रावकको भी यथा शक्ति गुप्ति रखनी चाहिए-दे० श्रावक/४।। २. संयम व गुप्तिमें अन्तर-दे० संयम्/२।। ३. गुप्ति व सामायिक चारित्रमें अन्तर-दे० सामायिक /४ । ४. गुप्ति व सूक्ष्म साम्परायिक चारित्रमें अन्तर
-दे० सूक्ष्म साम्पराय /४ । ५, कायोत्सर्ग व काय गुप्तिमें अन्तर-दे० गुप्ति /१/८ ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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