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ज्ञान
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III सम्यक मिथ्या ज्ञान
अन.ध./३/१५/२६४ आराध्य दर्शनं ज्ञानमाराध्यं तत्फलत्वतः । सहभावेऽपि ते हेतुफले दीपप्रकाशवत् ।१५। -सम्यग्दर्शनकी आराधना करके ही सम्यग्ज्ञान की आराधना करनी चाहिए, क्योंकि ज्ञान सम्यग्दर्शनका फल है। जिस प्रकार प्रदीप और प्रकाश साथ ही उत्पन्न होते हैं, फिर भी प्रकाश प्रदीपका कार्य है, उसी प्रकार यद्यपि सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान साथ साथ होते है, फिर भी सम्यरज्ञान कार्य है और सम्यग्दर्शन उसका कारण ।
५. सम्यग्दर्शन भी कथंचित् ज्ञानपूर्वक होता है स.सा./मू./१७-१८ जह णाम को वि पुरिसो रायाणं जाणिऊण सदहदि । तोतं अणुचरदि पुणो अस्थत्थीओ पयत्तेण ।१७। एवं हि जीवराया णादव्यो तह य सद्दहदब्बो । अणुचरिदव्यो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण ।१८। जैसे कोई धनका अर्थी पुरुष राजाको जानकर (उसकी) श्रद्धा करता है और फिर प्रयत्नपूर्वक उसका अनुचरण करता है अर्थात उसकी सेवा करता है, उसी प्रकार मोक्षके इच्छुकको जीव रूपी राजाको जानना चाहिए, और फिर इसी प्रकार उसका श्रद्धान करना चाहिए। और तत्पश्चात् उसी का अनुचरण करना चाहिए अर्थात अनुभवके द्वारा उसमें तन्मय होना चाहिए । न.च.वृ/२४८ सामण्ण अह विसेस दठवे गाणं हवेइ अबिरोहो । साहइ तं सम्मत्तं णहू पुण तं तस्स विवरीयं ।२४८१= सामान्य तथा विशेष द्रव्य सम्बन्धी अविरुद्धज्ञान ही सम्यक्त्वकी सिद्धि करता है। उससे विपरीत ज्ञान नहीं। ६. सम्यग्दर्शनके साथ सम्यग्ज्ञानकी व्याप्ति है पर
ज्ञानके साथ सम्यक्त्वकी नहीं। भ.आ./म् /४/२२ दंसणमाराहतेण णाणमाराहिद भवे णियमा ।...। णाणं
आराहतस्स देसणं होइ भयणिज्जं ।४। -सम्यग्दशनकी आराधना करनेवाले नियमसे ज्ञानाराधना करते हैं, परन्तु ज्ञानाराधना करनेबालेको दर्शनकी आराधला हो भी अथवा न भी हो।
विपर्ययः। तथा हि, सम्यग्दृष्टिर्यथा चक्षुरादिभी रूपादीनुपलभते तथा मिथ्यादृष्टिरपि मत्यज्ञानेन यथा च सम्यग्दृष्टिः श्रुतेन रूपादीन जानाति निरूपयति च तथा मिथ्यावृष्टिरपि श्रुताज्ञानेन। यथा चावधिज्ञानेन सम्यग्दृष्टिः रूपिणोऽनिवगच्छति तथा मिथ्यादृष्टिविभज्ञानेनेति। अत्रोच्यते-"सदसतोरविशेषाद्यहच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत (त.सू./१/३२)"...तथा हि, कश्चिन्मिथ्यादर्शनपरिणाम आरमन्यवस्थितो रूपाद्य पलब्धौ सत्यामपि कारण विपर्यासं भेदाभेदविपर्यासं स्वरूपविपर्यासं च जानाति । ...एवमन्यानपि परिकल्पनाभेदान् दृष्टेष्टविरुद्धान्मिथ्यादर्शनोदयात्कल्पयन्ति तत्र च श्रद्धानमुत्पादयन्ति । ततस्तन्मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभंगज्ञानं च भवति । सम्यग्दर्शनं पुनस्तत्त्वार्थाधिगमे श्रद्धानमुत्पादयति । ततस्तन्मतिज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं च भवति । -प्रश्न-यह (मति, श्रुत व अवधिज्ञान ) विपर्यय क्यों है। उत्तर~-क्योकि मिथ्यादर्शनके साथ एक आत्मामें इनका समवाय पाया जाता है । जिस प्रकार रजसहित कडवी तू बडीमें रखा गया दूध कडवा हो जाता है, उसी प्रकार मिथ्यादर्शनके निमित्तसे यह विपर्यय होता है। प्रश्न-कडवी तूंबडीमे आधारके दोषसे दूधका रस मीठेसे कडवा हो जाता है यह स्पष्ट है, किन्तु इस प्रकार मत्यादि ज्ञानोंकी विषयके ग्रहण करनेमें विपरीता नहीं मालूम होती। खुलासा इस प्रकार हैजिस प्रकार सम्यग्दृष्टि चक्षु आदिके द्वारा रूपादिक पदार्थोको ग्रहण करता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि भी मतिज्ञानके द्वारा ग्रहण करता है। जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि श्रुतके द्वारा रूपादि पदार्थोंको जानता है
और उनका निरूपण करता है, उसी प्रकार मिथ्याष्टि भी श्रुत अज्ञानके द्वारारूपादि पदार्थों को जानता है और उनका निरूपण करता है । जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि अवधिज्ञानके द्वारारूपी पदार्थोंकोजानता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि भी विभंग ज्ञानके द्वारा रूपी पदार्थोंको जानता है। उत्तर-इसीका समाधान करनेके लिए यह अगला सूत्र कहा गया है कि "वास्तविक और अवास्तविकका अन्तर जाने बिना, जब जैसा जीमे आया उस रूप ग्रहण होनेके कारण, उन्मत्तवन उसका ज्ञान भी अज्ञान ही है।" ( अर्थात वास्तवमें सत क्या है और असत क्या है, चैतन्य क्या है और जड क्या है, इन बातोका स्पष्ट ज्ञान न होनेके कारण कभी सतको असद और कभी असतको सत् कहता है । कभी चैतन्यको जड़ और कभी जड ( शरीर ) को चैतन्य कहता है। कभी कभी सतको सत और चैतन्यको चैतन्य इस प्रकार भी. कहता है। उसका यह सब प्रलाप उन्मत्तकी भॉति है। जैसे उन्मत्त माताको कभी स्त्री और कभी स्त्रीको माता कहता है। वह यदि कदाचित माताको माता भी कहे तो भी उसका कहना समीचीन नहीं समझा जाता उसी प्रकार मिथ्याष्टिका उपरोक्त प्रलाप भले ही ठीक क्यों न हो समीचीन नहीं समझा जा सकता है) खुलासा इस प्रकार है कि आत्मामें स्थित कोई मिथ्यादर्शनरूप परिणाम रूपादिककी उपलब्धि होनेपर भी कारणविपर्यास, भेदाभेद विपर्यास और स्वरूपविपर्यासको उत्पन्न करता रहता है । इस प्रकार मिथ्यादर्शनके उदयसे ये जीव प्रत्यक्ष और अनुमानके विरुद्ध नाना प्रकारकी कल्पनाएँ करते है, और उनमे श्रद्धान उत्पन्न करते हैं। इसलिए इनका यह ज्ञान मतिअज्ञान. श्रुत-अज्ञान और विभंग ज्ञान होता है। किन्तु सम्यग्दर्शन तत्त्वार्थ के ज्ञानमे श्रद्धान उत्पन्न करता है, अत: इस प्रकारका ज्ञान मति ज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान होता है। (रा.वा./१/३१/२-३/ १२/१ ) तथा ( रा.वा./१/१२/पृ.१२); (विशेषावश्यक भाष्य/११५ से स्याद्वाद मंजरी/२३/२७४ पर उद्धृत) (पं.वि./१/७७)। ध.७/२,१,४४/८५/५ किमट्ठं पुण सम्माइट्ठीणाणस्स पडिसेहो ण कीरदे विहि-पडिसेहभावेण दोण्हणाणणं विसेसाभावा । ण परदो वदिरिभावसामण्णमवेविरवय एस्थ पडिरहो होज्ज, 'क्तुि अप्पणो अवगयरेथे जम्हि जीवे सद्दहण ण बुप्पज्जदि अवगयत्यविवरीयसइधुप्पायणमिच्छत्तुदयमलेण तत्थ ज णाणं तमण्णाणमिदि भण्णइ,णाणफलाभावादो।
७. सम्यक्त्व हो जाने पर पूर्वका ही मिथ्याज्ञान सम्यक हो जाता है
स.सि /१/१/६/७ ज्ञानग्रहणमादौ न्याय्य, दर्शनस्य तत्पूर्वकत्वात् अल्पाक्षरत्वाच्च । नैतद्य क्तं, युगपदुत्पत्ते. । यदा. आत्मा सम्यग्दर्शनपर्यायेणाविर्भवति तदैव तस्य मत्यज्ञानश्रुताज्ञाननिवृत्तिपूर्वकं मतिज्ञानं श्रतज्ञानं चाविभवति घनपटल विगमे सवितु. प्रतापप्रकाशाभिव्यक्तिवद । = प्रश्न-सूत्रमें पहिले ज्ञानका ग्रहण करना उचित है, क्योकि एक तो दर्शन ज्ञानपूर्वक होता है और दूसरे ज्ञानमें दर्शन शब्दकी अपेक्षा कम अक्षर हैं। उत्तर-यह कहना युक्त नहीं है, क्योंकि दर्शन और ज्ञान युगपत् उत्पन्न होते हैं। जैसे मेघ पटलके दूर हो जाने पर सूर्य के प्रताप और प्रकाश एक साथ प्रगट होते है, उसी प्रकार जिस समय आत्माकी सम्यग्दर्शन पर्याय उत्पन्न होती है उसी समय उसके मति-अज्ञान और श्रुत अज्ञानका निराकरण होकर मति ज्ञान और श्रुत ज्ञान प्रगट होते है। (रा.वा/१/१/२८-३०/६/१६) (पं.ध./३/
१. वास्तव में ज्ञान मिथ्या नहीं होता. मिथ्यात्वके कारण
ही मिथ्या कहलाता है। स.सि./१/३१२/१३७/४ कथं पुनरेषां विपर्ययः । मिथ्यादर्शनेन सहकार्य
समवायात् सरजस्ककटुकालाबुगतदुग्धवत् । ननु च तत्राधारदोषाद दुग्धस्य रसविपर्ययो भवति । न च तथा मत्यज्ञानादीनां विषयग्रहणे
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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