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जन्म
३ मनुष्य बतियंचगतिसे चयकर देवगति में उत्पत्ति सम्बन्धी । नरकगति उत्पत्तिकी विशेष प्ररूपणा ।
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गतियों में प्रवेश व निर्गमन सम्बन्धी गुणस्थान । गतिमार्गणाकी अपेक्षा गति प्राप्ति । इन्द्रिय काय व योगकी अपेक्षा गति प्राप्ति । -दे० जन्म / ६/६ में चिति । जन्न /६/५।
वेद मार्गणाको अपेक्षा गति मासि कषाय मार्गणाकी अपेक्षा गति प्राप्ति
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- दे० जन्म /५/६१
ज्ञान व संगम मार्गणाकी अपेक्षा गति प्राप्ति
- दे० जन्म /६/३।
लेश्याको अपेक्षा गति प्राप्ति सम्यक्त्न मार्गणाकी अपेक्षा गति माप्त
- दे० जन्म /३/४ भव्यत्व, संज्ञित्व व आहारकत्वकी अपेक्षा गति प्राप्ति -दे० जन्म /६/६ ।
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संहननकी अपेक्षा गति प्राप्ति शलाका पुरुषोंकी अपेक्षा गति प्राप्ति ।
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१० नरकगति पुनः पुनः भयधारणको सीमा
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पर्यातको पुनः पुनः भवधारणकी सीमा -दे० आयु/७ सम्यग्दृष्टिकी भवधारण सीमा - ३० सम्यग्दर्शन ॥ सल्लेखनागत जीवकी भवधारण सीमा - दे० सल्लेखना / १ । ११ गुणोत्पादन तालिका किस गतिसे किस गतिमें उत्पन्न होकर कौन गुण उत्पन्न करे
१. जन्म सामान्य निर्देश
१. जन्मका लक्षण
रा. वा / २ / ३४/१/५ देवादिशरीरनिवृत्तौ हि देवादिजन्मेष्टम् | = = देव आदिकोंके शरीरकी निवृत्तिको जन्म कहा जाता है। रा. वा/४/४२/४/२५०/१५ उभयनिमित्तवशादात्मापयमान भावः जायत इत्यस्य विषयः । यथा मनुष्य गत्यादिनामकर्मोदयापेक्षया आत्मा मनुष्यादित्वेन जायत इत्युच्यते । बाह्य आभ्यन्तर दोनों निमित्तों से आत्मलाभ करना जन्म है, जैसे मनुष्यगति आदिके उदयसे जीव मनुष्य पर्यायरूपसे उत्पन्न होता है । भ, आ / वि / २५/०५/१४ प्राणग्रहणं जन्म प्राणोंको ग्रहण करना जन्म है।
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२. जन्म धारणमे पहिले जीवप्रदेशों के संकोचका नियम ध. ४ / १.३,२/२९/६ उववादो एयविहो । सो कि उप्पण्णपढमसमए चैव होदित्य उगदीए उपमा सेन्तं बहु सम्यदि, संको चिदासेसजीवपदेसादो । उपपाद एक प्रकारका है, और वह भी
२. गर्भज आदि जन्म विशेषोंका निर्देश
उत्पन्न होनेके पहिले समयमें ही होता है । उपपाद में ऋजुगतिसे उत्पन्न हुए जीवोंका क्षेत्र बहुत नहीं पाया जाता है, क्योंकि इसमें जीव के समस्त प्रदेशोंका संकोच हो जाता है ।
३. विग्रहगति में ही जीवका नवीन जन्म नहीं मान सकते
रा. या/२/३४/९/१४२/३ मनुष्यस्तैर्यग्योनो या विनायुः कार्मणकामयोगस्थो देवादिगत्युदयाद् देवादिव्यपदेशभागिति कृत्वा तदेवास्य जन्मेति मतमिति तत्र किं कारणम् शरीरनिर्वा देवानिवृती हि देवादिष्टम् पश्नमनुष्य व सि पायुके चिन्न हो जानेपर कार्मगकाययोगमे स्थित अर्थात् विग्रह गति में स्थित जीवको देवगतिका उदय हो जाता है; और इस कारण उसको देवसंज्ञा भी प्राप्त हो जाती है। इसलिए उस अवस्थामे ही उसका जन्म मान लेना चाहिए। उत्तर- ऐसा नहीं है, क्योंकि शरीरयोग्य पुद्गलोंका ग्रहण न होनेसे उस समय जन्म नहीं माना जाता। देवादिकों के शरीरकी निष्पत्तिको ही जन्म संज्ञा प्राप्त है ।
२. गर्भज आदि जन्म विशेषोंका निर्देश
१. जन्मके भेद
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रा.सू / २ / ११ सम्म नगद जन्म ३१ स.सि./ २ / ३१/२८७/५ एते त्रयः संसारिणां जीवानां जन्मप्रकाराः । = सम्मूर्च्छन, गर्भज और उपपादज ये ( तीन ) जन्म है । संसारी जीवों में तीनों जन्म के भेद है (रा. वा/२/३१/४/१४०/३०).
२. बोये गये बीज बीजवाला ही जीव या अन्य कोई जीव उत्पन्न हो सकता है गो.जी./मू./१००/४२८ भीजे जोगी जीवो चंकमदि सो व अग्गो था। जेवि यमुनादीया ते पसेमा पदमदार मूलको आदि देवर जिसने वीज कहे गये हैं वे जीवके उपजनेके योनिभूत स्थान हैं। उसमें जल व काल आदिका निमित्त पाकर या तो उस बीज वाला ही जीव और या कोई अन्य जीव उत्पन्न हो जाता है।
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२. उपपादन व गर्भज जन्मोंका स्वामित्व सि./४/२४ पती मन्जसम्म
खुद मेदा
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ति.प./५/२१३ उत्पत्ती तिरियाणं गन्भजसम्मुच्छिम त्ति पत्तेक्कं । मनुष्यों का जन्म गर्भ व सम्मान के मेदसे दो प्रकारका है १२१४ तिर्यचौकी उत्पत्ति गर्म और सम्मान जन्मने होती है ११६३१ गो.जी.सु / १०-१२ /२१२ वादा सुरणिरिया गन्जसमुचिमा पर तिरिया |... | पंचितिरिगन्जसम्मुचिश्मा तिरिक्वाणं । भोगभूमा गन्भभवा णरपुण्णा गन्भजा चैव ॥११॥ उबवादगन्भजेसु य लद्विअप्पज्जत्तगा ण नियमेण ।...|हरा = देव और नारकी उपपाद जन्मसंयुक्त है | मनुष्य और तियंच 'यथासम्भव गर्भज और सम्पूर्च्छन होता है। पंचेन्द्रिय तिरंच गर्भय और सम्फन दोनों प्रकारके होते हैं (विकलेन्द्रिय व एकेन्द्रिय सम्मूर्च्छन ही होते हैं ) तिर्यञ्च योनिमें भोगभूमिया तियंच गर्भज ही होते हैं और पर्याप्त मनुष्य भी गर्भज ही होते हैं। उपपादण और गर्भज जीवों में नियमसे नहीं है सम्मोही होते हैं। सू./२/३४ देवनारकाणामुपपादः १३४) - देव व नारकियोंका जन्म उपपाद ही होता है। ( मू. आ / ११३१ )
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