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चारित्र
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२. मोक्षमार्गमें चारित्रकी प्रधानता
शुभोपयोग इति यावदेकार्थः । वीतराग चारित्रमे असमर्थ पुरुष शुद्वात्म भावनाके सहकारीभूत जो कुछ प्रासुक आहार तथा ज्ञानादि के उपकरणोंका ग्रहण करता है, वह अपवाद मार्ग,-व्यवहार नय या व्यवहार चारित्र, एकदेश परित्याग, अपहृत सयम, सराग चारित्र या शुभोपयोग कहलाता है। यह सब शब्द एकार्थवाची है।
नोट'-और भी-दे० चारित्र/१/१२ मे व्यवहार चारित्रसंयम/१ मे अपहृत संयम, 'अपवाद' मे अपवादमार्ग। १५. वीतराग चारित्रका लक्षण न. च.व./३७८ सुहअसुहाण णि वित्ति चरणं साहूस्स वीयरायरस । - शुभ
और अशुभ दोनो प्रकारके योगोसे निवृत्ति, वीतराग साधुका चारित्र है। नि. सा/ता वृ./१५२ स्वरूपविश्रान्तिलक्षणे परमवीतरागचारित्रे। ___ =स्वरूपमे विश्रान्ति सो ही परम वीतराग चारित्र है। द्र सं./टी./५२/२१९/१ रागादिपिकल्पोपाधिरहितस्वाभाविकसुखस्वादेन निश्चलचित्तं वीतरागचारित्रं तत्राचरणं परिणमनं निश्चयचारित्राचार'= उस शुद्धात्मामें रागादि विकल्परूप उपाधिसे रहित स्वाभाविक सुरखके आस्वादनसे निश्चल चित्त होना वीतराग चारित्र है। उसमे जो आचरण करना सो निश्चय चारित्राचार है। (स.सा/ता.
वृ/२/८/१०) (द्र. सं./टी./२२/६७/१)। प्र. सा./ता वृ./२३०/३१५/८ शुद्धात्मन' सकाशादन्यबाह्याभ्यन्तरपरिग्रह
रूपं सर्व त्याज्यमित्युत्सर्गो 'निश्चय नयः' सर्वपरित्याग' परमोपेक्षासंयमो वीतरागचारित्तं शुद्धोपयोग इति यावदेकार्थ · । शुद्धात्मा के अतिरिक्त अन्य बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह रूप पदार्थोका त्याग करना उत्सर्ग मार्ग है। उसे ही निश्चयनय या निश्चयचारित्र व शुद्धोपयोग भी कहते है, इन सब शब्दोका एक ही अर्थ है।
नोटः-और भी देखे चारित्र/१/११ में निश्चय चारित्र; संयम/१ मे उपेक्षा संयम; अपवाद में उत्सर्ग मार्ग ।
१८. क्षायिकादि चारित्र निर्देश ध.६/१,१-८,१४/२८१/१ सयल चारित्तं तिविह खओवसमियं, ओबसमियं खइयं चेदि । क्षयोपशमिक, औपशमिक व क्षायिकके भेदसे सकल चारित्र तीन प्रकारका है । ( ल. सा./म् /१८६/२४३ ) । ११. औपशमिक चारित्रका लक्षण रा. वा /२/२/३/१०५/१७ अष्टाविश तिमोहविकल्पोपशमादौपशमिक
चारित्रम् अनन्तानुबन्धी आदि १६ कषाय और हास्य आदि नव नोकषाय, इस प्रकार २५ तो चारित्रमोहकी और मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व व सम्यकप्रकृति ये तीन दर्शनमोहनीयकी-ऐसे मोहनीयकी कुल २८ प्रकृतियोंके उपशमसे औपशमिक चारित्र होता है । ( स. सि./२/३/१५३/७ ) । २०. क्षायिक चारित्रका लक्षण रा. वा /२/४/७/१०७/११ पूर्वोक्तस्य दर्शनमोहत्रिकस्य चारित्रमोहस्य च पञ्चविंशतिविकल्पस्य निरवशेषक्षया क्षायिके सम्यक्त्वचारित्रे भवत.। पूर्वोक्त ( देखो ऊपर औपशमिक चारित्रका लक्षण ) दर्शन मोहको तीन और चारित्रमोहकी २५; इन २८ प्रकृतियों के निरवशेष विनाशसे क्षायिक चारित्र होता है । ( स. सि./२/४/१५५/१) २१. क्षायोपशमिक चारित्रका लक्षण
स.सि./२/५/१५७/८ अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानद्वादशकषायोदयक्षयात्सदुपशमाच्च संज्वलनकषायचतुष्टयान्यतमदेशघातिस्पधकोदये नोकषायनवकस्य यथासंभवोदये च निवृत्तिपरिणाम आत्मनः क्षायोपशामिकं चारित्रम्- अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यान और प्रत्यारण्यानावरण इन बारह कषायोके उदयाभावी क्षय होनेसे और इन्हीं के सदवस्थारूप उपशम होनेसे तथा चार संज्वलन कषायोंमेसे किसी एक देशघाती प्रकृतिके उदय होनेपर और नव नोकषायोंका यथा सम्भव उदय होनेपर जो त्यागरूप परिणाम होता है, वह क्षायोपशमिक चारित्र है । (रा. वा./२/१/८/१०८/३) इस विषयक विशेषताएंव तर्क आदि । दे० क्षयोपशम ।
२२. सामायिकादि चारित्र पञ्चक निर्देश त. सू./8/१८ सामायिकछेदोपस्थानापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसापराययथा
ख्यातमिति चारित्रम् = सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथास्यात-ऐसे चारित्र पॉच प्रकारका है। (और भी-दे० संयम/१।
१६. स्वरूपाचरण व सयमाचरण चारित्र निर्देश चा. पा./मू ५ जिणाणाण दिद्विसुद्धपढम सम्मत्तं चरणचारित्तं । विदियं संजमचरणं जिणणाणसदेसियं तं पि ।। - पहला तो, जिनदेवके ज्ञान दर्शन व श्रद्धाकरि शुद्ध ऐसा सम्यक्त्वाचरण चारित्र है और दूसरा संयमाचरण चारित्र है। चा. पा/टो./३/३२/३ द्विविधं चारित्रं-दर्शनाचारचारित्राचारलक्षणं ।
दर्शनाचार और चारित्राचार लक्षणवाला चारित्र दो प्रकारका है। जैन सिद्धान्त प्रवेशिका/२२३ शुद्धात्मानुभवनसे अविनाभावी चारित्रविशेषको स्वरूपाचरण चारित्र कहते है। १७. अधिगत व अनधिगत चारित्र निर्देश व लक्षण रा, वा./३/३६/२/२०१/८ चारित्रार्या द्वेधा अधिगतचारित्रार्या अनधिगतचारित्रार्याश्चेति । तद्भेद' अनुपदेशोपदेशापेक्षभेदकृतः । चारित्रमोहस्योपशमात क्षयाच्च बाह्योपदेशानपेक्षा आत्मप्रसादादेव चारित्रपरिणामास्कन्दिन' उपशान्तकषायाः क्षीणकषायाश्चाधिगतचारित्रार्याः अन्तश्चारित्रमोहक्षयोपशमसद्भावे सति बाह्योपदेश निमित्तविरतिपरिणामा अनधिगमचारित्रार्याः । =असावद्यकर्यि दो प्रकार के हैं-अधिगत चारित्रार्य और अनधिगत चारित्रार्य। जो बाह्य उपदेशके बिना स्वयं ही चारित्रमोहके उपशम वा क्षयसे प्राप्त आत्म प्रसादसे चारित्र परिणामको प्राप्त हुए है, ऐसे उपशान्तकषाय और क्षीण कषाय गुणस्थानवी जीव अधिगत चारित्रार्य हैं। और जो अन्दरमें चारित्रमोहका क्षयोपशम होनेपर बाह्योपदेशके निमित्तसे विरति परिणामको प्राप्त हुए हैं वे अनधिगत चारित्रार्य है। तात्पर्य यह है कि उपशम व क्षायिकचारित्र तो अधिगत कहलाते हैं और क्षयोपशम चारित्र अनधिगत ।
२. मोक्षमार्गमें चारित्रको प्रधानता
१. चारित्र ही धर्म है प्र. सा./मू/७ चारित्तं खलु धम्मो-चारित्र वास्तवमे धर्म है ( मो. __ पा./मू./५०) (पं. का./मू०/१०७ )।
२. चारित्र साक्षात् मोक्षका कारण है चा. पा./मू०८-६ तं चेच गुण विसुद्ध जिणसम्मत्तं मुमुकवठाणाय । जं चरइ णाणजुत्त पढम सम्मत्त चरण चारित्तं ॥८॥ सम्मत्तचरणसुद्धा संजमचरणस्स जइ व सुपसिद्धा। णाणी अमूढदिट्ठी अचिरे पावं ति णिव्वाणं ॥६॥- प्रथम सम्यक्त्व चरणचारित्र मोक्षस्थानके अर्थ है ॥८॥ जो अमूढष्टि होकर सम्यक्त्वचरण और संयमाचरण दोनोंसे विशुद्ध होता है, वह शीघ्र ही निर्वाणको प्राप्त करता है। स सि./१/१८/४३६/४ चारित्रमन्ते गृह्यन्ते मोक्षप्राप्ते. साक्षात्करणमिति ज्ञापनार्थ चारित्र मोक्षका साक्षात् कारण है यह बात जाननेके लिए सूत्रमें इसका ग्रहण अन्तमें किया है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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