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काल
४. उत्सर्पिणी आदि काल निर्देश
अर्थात् एकसा रहता है ।१७०३१ उस ( हरि ) क्षेत्रका अवशेष वर्णन सुषमाकालके समान है। विशेष यह है कि वह क्षेत्र हानि-वृद्धिसे रहित होता हुआ सस्थितरूप अर्थात एक-सा ही रहता है ।१७४४। सुषमसुषमाकालके विषयमें जो विचित्रतर वर्णन किया गया है. वही वर्णन हानिसे रहित-देवकुरुमे भी समझना चाहिए ।२१४५॥ रमणीय रम्यकविजय भी हरिवर्ष के समान उत्तम वर्णनोसे युक्त है ।२३३५॥ हैरण्यवतक्षेत्र हैमवतक्षेत्रके समान वर्णनसे युक्त है ।२३५०। (त्रि.सा./
७७६) ज. प./२/१६६-१७४ तदिओ दुकालसमओ असंखदीवे य हाँति णियमेण।
मणुसुत्तरादु परदो णगिंदवरपव्वदो णाम ।१६६। जलणिहिसयंभूरवणे सयंभुरवणवणस्स दोवमज्झम्मि। भ्रहरणगिदपरदो दुस्समकालो समुहिट्ठो ।१७४।-मानुषोत्तर पर्वतसे आगे नगेन्द्र (स्वयंप्रभ) पर्वततक असंख्यात द्वीपों में नियमतः तृतीयकालका समय रहता है ।१६६। नगेन्द्र पर्वतके परे स्वयंभूरमण द्वीप और स्वयंभूरमण समुद्रमें दुषमाकाल कहा गया है ।१७४ (कुमानुष द्वीपों में जघन्य भोगभूमि है। ज. प./११/५४-५५)
१५. छहों कालों में सुख-दुःख आदिका सामान्य कथन
भेदोंको लिये हुए नाना प्रकारके दोष इस हुण्डावसपिणी कालमें हुआ करते हैं ।१६२१-१६२३। घ.३/१,२,१४/१८/४ पउमप्पहभडारओ बहसीसपरिवारो...पुठिवलगाहाए
वृत्तसंजशणं पमाणं ण पावेति । तदो गाहा ण भदिएत्ति । एत्थ परिहारो बुच्चदे-सब्बोसप्पिणीहितो अहमा हुँडोसप्पिणी। तत्थतण तित्थयरसिस्सपरिवार जुगमाहप्पेण ओहट्टिय डहरभावमापणं घेत्तूण ण गाहामुत्तं दुसिदं सक्किज्जदि, सेसोसप्पिणी तित्थयरेसु बहुसोसपरिवारुवलं भादो । -प्रश्न-पद्मप्रभ भट्टारकका शिष्य परिवार...(की) संख्या पूर्व गाथामें कहे गये संयतोके प्रमाणको प्राप्त नहीं होती, इसलिए पूर्व गाथा ठीक नहीं' उत्तर-आगे पूर्वशंका का परिहार करते हैं कि सम्पूर्ण अवसपिणियोंकी अपेक्षा यह हुंडावसर्पिणो है, इसलिए युगके माहात्म्यसे घटकर ह्रस्वभावको प्राप्त हुए हुण्डावसर्पिणी काल सम्बन्धी तीर्थकरोंके शिष्य परिवारको ग्रहणकरके गाथा सूत्रको दूषित करना शक्य नहीं है, क्योकि शेष अवसर्पिणियोंके तोथंकरोंके बड़ा शिष्य परिवार पाया जाता है। १३. ये उत्सर्पिणी आदि षटकाल भरत च ऐरावत
क्षेत्रों में ही होते हैं त.सू./३/२७-२८ भरतैरावतयोवृद्धिह्रासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यव
सर्पिणीभ्याम् ।२७. ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः ।२८१ =भरत और ऐरावत क्षेत्रमें उत्सर्पिणीके और अवसर्पिणीके छह समयोंकी अपेक्षा वृद्धि और ह्रास होता रहता है ।२७१ भरत और ऐरावतके सिवा शेष
भूमियॉ अवस्थित हैं ।२८ ति.प./४/३१३ भरहस्खेत्तमिम इमे अज्जाख डम्मि कालपरिभागा।
अवसप्पिणिउस्सप्पिणिपज्जाया दोण्णि होति पुढं ।३१३-भरत क्षेत्रके आर्य खण्डों में ये काल के विभाग हैं। यहाँ पृथक्-पृथक् अवसर्पिणी और उत्सर्पिणोरूप दोनों ही कालको पर्यायें होती हैं ।३१३॥
और भी विशेष-दे० भूमि/५। १४. मध्यलोकमें सुषमा दुषमा आदि काल विभाग ति प./४/गा, नं. भरहस्खेत्तम्मि इमे अज्जाखंडम्मि कालपरिभागा।
अक्सप्पिणिउस्सपिणिपज्जाया दोणि होति पुढं (३१३ ) दोणि वि मिलिदे कप्पं छठभेदा होति तत्थ एक्केक्कं ।... (३१६) पणमेच्छखयरसेढिसु अवसप्पुस्सप्पिणीए तुरिमम्मि । तदियाए हाणिञ्चयं कमसो पढमादु चरिमोत्ति (१६०७) अवसेसवण्णणाओ सरि साओ सुसमदुस्समेणं पि। णवरि यवट्ठिदरूवं परिहीणं हाणिबड्डीहिं (१७०३) असेसवण्णणाओ सुसमस्स व होति तस्स
खेत्तस्स । णवरि य संठिदरूवं परिहीणं हाणिवड ढीहि (१७४४ ) रम्मकविजओ रम्मो हरिवरिसो व वरवण्णणाजुत्तो ।...(२३३५) सुसमसुसमम्मि काले जा मणिदावण्णा विचित्तपरा। सा हाणीए विहीणा एदस्सि णिसहसेले य (२१४५ ) । विजओ हेरण्णवदो हेमवदो वप्पवण्णणाजुतो ।...(२३५०)-भरत क्षेत्रके [वैसे ही ऐरावत क्षेत्रके ] आर्यखण्डमें...उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दोनों ही कालकी पर्याय होती हैं ।३१३॥ उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में से प्रत्येकके छहछह भेद हैं ।३१६। पाँच म्लेक्षरखण्ड और विद्याधरों की श्रेणियों में अवसर्पिणी एवं उत्सर्पिणी कालमें क्रमसे चतुर्थ और तृतीय कालके प्रारम्भसे अन्ततक हानि-वृद्धि होती रहती हैं। [अर्थात इन स्थानों में अवसर्पिणीकालमें चतुर्थकालके प्रारम्भसे अन्ततक हानि और उत्सपिणी कालमें तृतीयकालके प्रारम्भसे अन्ततक वृद्धि होती रहती है। यहाँ अन्य कालौकी प्रवृत्ति नहीं होती। १६०७। इसका (हेमवत क्षेत्र )का शेष वर्णन सुषमदुषमा कालके सदृश है। विशेषता केवल यह है कि यह क्षेत्र हानिवृद्धिसे रहित होता हुआ अवस्थितरूप
ज. प./२/१६०-१६१ पढमे विदये दिये काले जे होति माणुसा पवरा । ते अवमिच्चुविहूणा एयंतसुहेहिं संजुत्ता १६०। चउथे पंचमकाले मणुया सुहदुक्रवसंजुदा णेया। छट्ठमकाले सव्वे णाणाविहदुक्खस जुत्ता ।१६१- प्रथम, द्वितीय और तृतीय कालों में जो श्रेष्ठ मनुष्य होते हैं वे अपमृत्युसे रहित और एकान्त सुरवसे संयुक्त होते हैं ।१६० चतुर्थ और पंचमकालमें मनुष्य सुख-दुःखसे संयुक्त तथा छठेकालमें सभी मनुष्य नानाप्रकारके दुखों से संयुक्त होते है, ऐसा जानना चाहिए ।११। और भी-दे० भूमि/8।
१३. चतुर्थकालकी कुछ विशेषताएँ ज. प./२/१७६-१८५ एदम्मि कालसमये तित्थयरा सयलचक्कवट्टीया। मलदेववासुदेवा पडिसत्तू ताण जायं ति १७६३ रुद्दा य कामदेवा गणहरदेवा य चरमदेहधरा। दुस्समसुसमे काले उष्पत्ती ताण मोद्धव्वा १९८१-इस कालके समयमें तीर्थंकर, सकलचक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव और उनके प्रतिशत्रु उत्पन्न होते हैं ।१७१। रुद्र, कामदेव, गणधरदेव, और जो चरमशरीरी मनुष्य है. उनकी उत्पत्ति दुषमसुषमा कालमें जाननी चाहिए ।१८॥
१७. पंचमकालकी कुछ विशेषताएँ म. पु./४१/६३-७६ का भावार्थ-भगवान ऋषभदेवने भरत महाराजको उनके १६ स्वप्नोका फल दर्शाते हुए यह भविष्यवाणी की–२३वें तीर्थकरतक मिथ्या मतोंका प्रचार अधिक न होगा।६३॥ २४वें तीर्थकरके कालमें कुलिंगी उत्पन्न हो जायेंगे।६। साधु तपश्चरणका भार बहन न कर सकेंगे।६६। मूल व उत्तरगुणोंको भी साधु भंग कर देंगे १६॥ मनुष्य दुराचारी हो जायेगे।६८ नीच कुलीन राजा होंगे।६। प्रजा जैनमुनियोंको छोड़कर अन्य साधुओंके पास धर्म श्रवण करने लगेगी ७० व्यन्तर देवोंकी उपासनाका प्रचार होगा ७१। धर्म म्लेक्ष खण्डों में रह जायेगा ।७२। ऋद्धिधारी मुनि नहीं होंगे।७३। मिथ्या ब्राह्मणोंका सत्कार होगा 1७४। तरुण अवस्थामें ही मुनिपदमें ठहरा जा सकेगा 1७५॥ अवधि व मनःपर्यय ज्ञान न होगा।७६। मुनि एकल विहारी न होंगे ७७ केवलज्ञान उत्पन्न न होगा ७८ प्रजा चारित्रभ्रष्ट हो जायेगी, औषधियोंके रस नष्ट हो जायेगे ७६॥
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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