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ज्ञानावरण
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२. ज्ञानावरणीय विषयक शंका-समाधान
रा.वा./६/१०/२०/५१६/१० अपि च, आचार्योपाध्यायप्रत्यनीकत्वअकालाध्ययन-श्रद्धाभाव-अभ्यासालस्य-अनादरार्थ-श्रावण-शीर्थोपरोधबहुश्रुतगर्व-मिथ्योपदेश-बहुश्रुतावमान-स्वपक्षपरिग्रहपण्डितत्वस्व - पक्षपरित्याग-अवद्धप्रलाप-उत्सूत्रवाद-साध्यपूर्व कज्ञानाधिगमशारत्रविक्रय-प्राणातिपातादय ज्ञानावरणस्यास्रवा' । दर्शनमात्स
र्यान्तराय-नेत्रोत्पाटनेन्द्रियप्रत्यनीकत्व-दृष्टिगौरव-आयतस्वापितादिवाशयनालस्य-नास्तिक्यपरिग्रह-सम्यग्दृष्टिसंदूषण-कृतीर्थ प्रशंसा, प्राणव्यपरोपण-यतिजनजुगुप्सादयो दर्शनावरणस्यास्रवाः, इत्यस्ति आस्रवभेदः।-( उपरोक्तसे अतिरिक्त और भी ज्ञानावरण व दर्शनाधरणके कुछ आसवोंका निर्देश निम्न प्रकार है ) ७. आचार्य और उपाध्यायके प्रतिकूल चलना;८. अकाल अध्ययनः ६. अश्रद्धा: १० अभ्यासमें आलस्यः ११. अनादरसे अर्थ सुनना; १२. तीर्थोपरोध अर्थात दिव्यध्वनिके समय स्वयं व्याख्या करने लगनाः १३. बहुश्रुतपनेका गर्वः १४. मिथ्योपदेश:१५ बहुश्रुतका अपमान करना; १६. स्वपक्षका दुराग्रहः १७. दुराग्रहवश असम्बद्ध प्रलाप करना १८ स्वपक्ष परित्याग या सूत्र विरुद्धबोलना:१६असिद्धसे ज्ञानप्राप्ति २० शास्त्रविक्रय और २ १.हिंसादिज्ञानावरणके आसबके कारण हैं। ७. दर्शन मात्सर्य: ८ दर्शन अन्तरायःह. आँखें फोडना;१०.इन्द्रियोंके 'विपरीत प्रवृत्ति;११.दृष्टिका गर्व,१२.दीर्घ निद्रा:१३.दिनमेंसोना; १४. आलस्य; १५. नास्तिकता; १६. सम्यग्दृष्टिमे दूषण लगाना; १७. कुतीर्थकी प्रशंसा; १८. हिंसा; और १६. यतिजनों के प्रति ग्लानिके भाव आदि भी दर्शनावरणीयके आसबके कारण है। इस प्रकार इन दोनोंके आस्रवमें भेद भी है। (त. सा./४/१३-१६) । * ज्ञानावरण प्रकृतिकी बन्ध उदय सत्व प्ररूपणा
-दे० वह वह नाम * ज्ञानावरणका सर्व व देशघातीपना-दे० अनुभाग
आवरणं भवेत, असतो वेति । किं चात' यदि सतामः परिप्राप्तात्मलाभत्वाव सत्त्वादेव आवृत्तिर्नोपपद्यते। अथासताम: नन्वावरणाभावः । न हि खरविषाणवदसदात्रियते ।४। न वैष दोषः। कि कारणम् । आदेशवचनात् ।...द्रव्यार्थादेशेन सतां मत्यादीनामावरणम्, पर्यायादिशेनासताम् ।...न कुटोभूतानि मत्यादीनि कानिचित् सन्ति येषामावरणात् मत्याद्यावरणानाम् आवरणत्वं भवेत् किन्तु मत्याद्यावरणसनिधाने आत्मा मत्यादिज्ञानपर्याय!त्पद्यते इत्यतो मत्याद्यावरणानाम् आवरणत्वम् ।६।-प्रश्न-कर्म विद्यमान मत्यादिका आवरण करता है या अविद्यमानका यदि विद्यमानका तो जब वह स्वरूपलाभ करके विद्यमान ही है तो आवरण कैसा ! और यदि अविद्यमानका तो भी खरविषाणकी तरह उसका आवरण कैसा उत्तर-द्रव्यार्थदृष्टिसे सत और पर्यायदृष्टिसे असद मति आदिका आवरण होता है। अथवा मति आदिका कहीं प्रत्यक्षीभूत ढेर नहीं लगा है जिसको ढक देनेसे मत्यावरण आदि कहे जाते हों, किन्तु मत्यावरण आदिके उदयसे आत्मामें मति आदि ज्ञान उत्पन्न नही होते इसलिए उन्हे आवरण संज्ञा दो गयी है। (प्रत्याख्यानाबरणकी भॉति)। (ध.६/१,६-१,५/७/३)। * आवृत व अनावृत ज्ञानांशोंमें एकत्व कैसे
--दे० ज्ञान//४/३॥ * भभव्यमें केवल व मनःपर्यय ज्ञानावरणका सश्व कैसे
-दे० भव्य/३/१।
३. सात ज्ञानोंके सात ही आवरण क्यों नहीं ध, ७/२,१,४५/८७/७ सत्तण्हं णाणाणं सत्त चेव आवरणाणि किण्ण होदि
चे। ण, पंचणाणवदिरित्तणाणाणुवलंभा । मदि अण्णाण-सुदअण्णाणविभंगणाणमभावो वि णस्थि, जहाकमेण आभिणियोहिय-सुद
ओहिणाणेसु तेसिमंतभावादो।प्रश्न-इन सातो ज्ञानोके सात हो आवरण क्यों नही । उत्तर नहीं होते, क्योकि, पाँच ज्ञानोके अतिरिक्त अन्य कोई ज्ञान पाये नहीं जाते। किन्तु इससे मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान और विभंगज्ञानका अभाव नहीं हो जाता, क्योंकि, उनका यथाक्रमसे आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, और अवधिज्ञानमे अन्तर्भाव होता है।
२. ज्ञानावरणीय विषयक शंका-समाधान
१. ज्ञानावरणको ज्ञान विनाशक कहें तो? ध.६/१,६-१,५/६/६ णाणविणासयभिदि किण्ण उच्चदे । ण, जीवलक्ख
णाणं णाणद सणाणं विणासाभावा। विणासे वा जीवस्स वि विणासो होज्ज, लक्खणरहियलक्खाणुवलं भा। णाणस्स विणासाभावे सठबजीवाणं णाण त्थित्तं पसज्जदे चे, होदु णाम विरोहाभावा; अक्खरस्स अणतभाओ णिच्चुग्घाडियओ इदि सुत्ताणुकूलत्तादो वा । ण सव्वाबयवेहि णाणस्मुवलं भोहोदु त्ति बोत्तं जुत्तं, आव रिदणाणभागाणमुवलंभविरोहा ।-प्रश्न-'ज्ञानावरण' नामके स्थानपर 'ज्ञानविनाशक' ऐसा नाम क्यों नहीं कहा • उत्तर-नहीं, क्योंकि, जीवके लक्षणस्वरूप ज्ञान और दर्शनका विनाश नहीं होता है। यदि ज्ञान और दर्शनका विनाश माना जाये, तो जीवका भी विनाश हो जायेगा, क्योंकि, लक्षणसे रहित लक्ष्य पाया नहीं जाता। प्रश्न-ज्ञानका विनाश नहीं माननेपर सभी जीवोंके ज्ञानका अस्तित्व प्राप्त होता है ? उत्तरज्ञानका विनाश नहीं माननेपर यदि सर्व जीवोके ज्ञानका अस्तित्व प्राप्त होता है तो होने दो, उसमें कोई विरोध नहीं है। अथवा 'अक्षरका अनन्तवॉ भाग ज्ञान नित्य उद्घाटित रहता है' इस सूत्रके अनुकूल होनेसे सर्व जीवों के ज्ञानका अस्तित्व सिद्ध है। प्रश्न-तो फिर सर्व अवयवोंके साथ ज्ञानका उपलम्भ होना चाहिए (होन ज्ञानका नहीं)। उत्तर-यह कहना उपयुक्त नहीं है. क्योंकि, आवरण किये गये ज्ञानके भागोंका उपलम्भ मानने में विरोध आता है। २. ज्ञानावरण कम सद्भूतज्ञानांशका आवरण करता है या असदुभूतका रा. वा./८/६/४-६/५७१/४ इदमिह संप्रधार्यम्-सां मत्यादीनां कर्म
४. ज्ञानावरण और दर्शनावरणके आस्रवों में समानता कैसे हो सकती है रा.वा./७/१०-१२/५१८/४ स्यान्मतम्-तुल्यास्रवत्वादनयारेकरवं प्राप्नोति, तुल्यकारणानां हि लोके एकत्वं दृष्टमिति; तन्न; किं कारणम् । तुल्यहेतुत्वेऽपि वचनं स्वपक्षस्य साधकमेव परपक्षस्य दूषकमेवेति न साधकदूषकधर्मयोरेकत्वमिति मतम् ।१०... यस्य तुल्यहेतुकानामेकत्वं यस्य मृत्पिडादितुल्यहेतुकाना घटशरावादीना नानात्वं व्याहन्यत इति दृष्टव्याघात १२.. आवरणात्यन्तसंक्षये केवलिनि युगपत् केवलज्ञानदर्शनयोः साहचर्य भास्करे प्रतापप्रकाशसाहचर्यबत् । ततश्चानयोस्तुल्य हेतुत्वं युक्तम् ॥१३॥- प्रश्न-ज्ञानावरण और दर्शनावरणके आस्रवके कारण तुल्य है, अतः दोनों को एक ही कहना चाहिए, क्योंकि, जिनके कारण तुल्य होते हैं वे एक देखे जाते हैं। उत्तर-- तुल्य कारण होनेसे कार्यक्य माना जाये तो एक हेतुक होनेपर भी वचन स्वपक्षके हो साधक तथा परपक्षके ही दूषक होते हैं इस प्रकार साधक और दूषक दोनों धर्मोमे एकत्व प्राप्त होता है। एक मिट्टी रूप कारणसे ही घट घटी शराव शकोरा आदि अनेक कार्योंकी प्रत्यक्ष सिद्धि है। आवरणके अत्यन्त संक्षय होनेपर केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों, सूर्य के प्रताप और प्रकाशकी तरह प्रगट हो जाते हैं, अत' इनमें तुल्य कारणोंसे आस्रव मानना उचित है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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