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क्षुल्लक
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क्षुल्लक
६. क्षुल्लक घरमें भी रह सकता है म पु/१०/१५८ नृपस्तु सुविधि' पुत्रस्नेहाद गार्हस्थ्यमत्यजन् । उत्कृष्टो
पासकस्थाने तपस्तेपे सुदुश्चरम् ।१५८। = राजा सुविधि ( ऋषभ भगवान्का पूर्वका पाँचवाँ भाव ) केशव पुत्रके स्नेहसे गृहस्थ अवस्थाका परित्याग नही कर सका था, इसलिए श्रावकके उत्कृष्ट पदमें स्थित रहकर कठिन तप तपता था ।१५८। (सा. ध /9/२६ का विशेषार्थ)
७. क्षुल्लक गृहत्यागी ही होता है र क. श्रा./१४७ गृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य ।।
भेक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधर. ।१४७१ == जो घरसे निकलकर मुनिबनको प्राप्त होकर गुरुसे व्रत धारण कर तप तपता हुआ भिक्षाचारी होता है और वह खण्डवस्त्रका धारक उत्कृष्ट श्रावक होता है। सा. ध /७/४७ बसेन्मुनिवने नित्यं, शुश्रूषेत गुरुश्चरेत् । तपो द्विधापि दशधा, वैयावृत्यं विशेषत.। क्षुल्लक सदा मुनियोके साथ उनके निवास भूत वनमें निवास करे। तथा गुरुओको सेवे, अन्तरंग व बहिरंग दोनों प्रकार तपको आचरे। तथा खासकर दश प्रकार वैयावृत्यको आचरण करे।४७१
८. पाणिपात्र में या पात्र में भी भोजन कर सकता है सू. पा./मू./२१ । भिक्ख भमेइ पत्ते समिदीभासेण मोणेण ।२। उत्कृष्ट श्रावक भ्रम करि भोजन करै है, बहुरि पत्ते कहिये पात्रमैं भोजन कर तथा हाथमै कर बहुरि समितिरूप प्रवर्त्तता भाषा समितिरूप बोले
अथवा मौनकरि प्रवर्ते । (व.सु.श्रा /३०३ ); ( सा. ध./७/४०) ला, सं./७/६४ भिक्षापात्रं च गृहणीयारकास्यं यद्वाप्ययोमयम् । एषणादोषनिमुक्तं भिक्षाभोजनमेकशः ६४। यह क्षुल्लक श्रावक भिक्षाके लिए कॉसेका अथवा लोहेका पात्र रखता है तथा शास्त्रोमें जो भोजनके दोष बताये है, उन सबसे रहित एक बार भिक्षा भोजन करता है।
९. क्षुल्लककी केश उतारने की विधि म. पु/१००/३४ प्रशान्तबदनो धीरो लुञ्चरञ्जितमस्तक. । . 1३४। -लक,
कुशका विद्या गुरु सिद्धार्थ नामक क्षुल्लक, प्रशान्त मुख था, धीर-वीर __ था, केशलुंच करनेसे उसका मस्तक सुशोभित था। व.सु. श्रा./३०२ धम्मिल्लाणं चयणं करेइ कत्तरि छरेण वा पढमो। ठाणा
इसु पडिलेहइ उवयरणेण पयडप्पा ।३०२१ - प्रथम उत्कृष्ट श्रावक (जिसे क्षुल्लक कहते है) धम्मिलोका चयन अर्थात, हजामत कैंचीसे अथवा उस्तरेसे कराता है।...१३०२२ (सा. ध./७/३८); (ला. सं.
तो वह मुनियों की गोचरी जानेके पश्चात् चर्याके लिए प्रवेश करे, अर्थात् एक भिक्षाके नियमवाला उत्कृष्ट श्रावक चर्याके लिए किसी श्रावक जनके घर जावे और यदि इस प्रकार भिक्षा न मिले तो उसे प्रवृत्तिनियमन करना चाहिए।३०। पश्चात गुरुके समीप जाकर विधिपूर्वक चतुर्विध प्रत्याख्यान ग्रहणकर पुन: प्रयत्नके साथ सर्व दोषोकी आलोचना करे ।३१०। (सा.ध./७/४६ ) और भी दे० शीर्षक नं०७।
१३. अनेकगृहभोजी क्षुल्लकका स्वरूप वसु. श्रा./३०४-३०८ पक्वालिऊण पत्त पविसइ चरियाय पंगणे ठिच्चा ।
भणिऊण धम्मलाई जायइ भिवं सयं चेव ।३०४। सिग्धं लाहालाहे अदीणवयणो णियत्तिऊण तओ। अण्णमि गिहे बच्चइ दरिसइ मोणेण कार्य वा ।३०। जइ अद्भवहे कोइ वि भणइ पत्थेइ भोयणं कुणह । भोत्तूण णियम भिवरवं तस्सएण भुंजए सेसं ।३०६। अहं ण भणइ तो भिरवं भमेज्ज णियपोट्टपुरणपमाणं। पच्छा एयम्मि गिहे जारज्ज पासुगं सलिलं ।३०७। जं कि पि पडिय भिक्खं भूजिज्जो सोहिऊण जत्तेण । पक्रवालिऊण पत्तं गच्छिज्जो गुरुसयासम्मि ।३०।- ( अनेक गृहभोजी उत्कृष्टश्रावक) पात्रको प्रक्षालन करके चर्याक लिए श्रावकके घरमे प्रवेश करता है, और आँगनमें ठहरकर 'धर्म लाभ' कहकर ( अथवा अपना शरीर दिखाकर) स्वयं भिक्षा मांगता है।३०४। भिक्षा-लाभके अलाभमें अर्थात् भिक्षा न मिलनेपर, अदीन मुख हो वहाँसे शीघ निकलकर दूसरे घरमें जाता है और मौनसे अपने शरीरको दिखलाता है ।३०। यदि अर्ध-पथमें-यदि मार्गके बीचमें ही कोई श्रावक मिले और प्रार्थना करे कि भोजन कर लीजिए तो पूर्व घरसे प्राप्त अपनी भिक्षाको खाकर, शेष अर्थात् जितना पेट खाली रहे, तत्प्रमाण उस श्रावकके अन्नको खाये ३०६। यदि कोई भोजनके लिए न कहे, तो अपने पेटको पूरण करनेके प्रमाण भिक्षा प्राप्त करने तक परिभ्रमण करे, अर्थात् अन्य-अन्य श्रावकोंके घर जाबे । आवश्यक भिक्षा प्राप्त करनेके पश्चात किसी एक घर में जाकर प्रामुक जल मॉगे ।३०७। जो कुछ भी भिक्षा प्राप्त हुई हो, उसे शोधकर भोजन करे और यत्नके साथ अपने पात्रको प्रक्षालन कर गुरुके पास जावे ।३०८, (प, पु./१००/३३-४१); (सा. ध./७/४०-४३); (ल. सं०७)। १४. अनेकगृहभोजीको आहारदानका निर्देश ला.स./६७-६८ तत्राप्यन्यतमगेहे दृष्ट वा प्रासुकमम्बुकम् । क्षणं चातिथिभागाय संप्रक्ष्याध्वं च भोजयेत् ।६७। दैवात्पात्रं समासाद्य दद्यादानं गृहस्थवत् । तच्छेषं यत्स्वयं भुक्ते नोचेत्कुर्यादुपोषितम् 1६८ वह क्षुल्लक उन पाँच घरोमेसे ही किसी एक घर में जहाँ प्रासुक जल दृष्टिगोचर हो जाता है, उसी घरमे भोजनके लिए ठहर जाता है तथा थोडी देर तक वह किसी भी मुनिराजको आहारदान देनेके लिए प्रतीक्षा करता है, यदि आहार दान देनेका किसी मुनिराजका समागम नहीं मिला तो फिर वह भोजन कर लेता है । ६७ यदि देवयोगसे आहार दान देनेके लिए किसी मुनिराजका समागम मिल जाये अथवा अन्य किसी पात्रका समागम मिल जाये, तो बह क्षुल्लक श्रावक गृहस्थके समान अपना लाया हुआ भोजन उन मुनिराजको दे देता है। पश्चात् जो कुछ बच रहता है उसको स्वय भोजन कर लेता है, यदि कुछ न बचे तो उस दिन नियमसे उपवास करता है ।६८। १५. क्षुल्लकको पात्रप्रक्षालनादि क्रिया करनेका विधान सा,ध /७/४४ आकाड्भन्स यमं भिक्षा-पात्रप्रक्षालनादिषु । स्वयं यतेत चादर्प., परथासंयमो महान् ।४४। -वह क्षुल्लक संयमकी इच्छा करता हुआ, अपने भोजनके पात्रको धोने आदिके कार्य मे अपने तप
और विद्या आदिका गर्व नहीं करता हुआ स्वयं ही यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करे नही तो बड़ा भारी असंयम होता है।
१०. क्षुल्लकको एकभुक्ति व पर्वोपवासका नियम वसु श्रा./३०३ भंजेइ पाणिपत्तम्मि भायणे वा सइ समुबइहो । उपवास पुण णियमा नउबिह कुणइ पव्वेसु ३०३। क्षुल्लक एक बार बैठकर भोजन करता है किन्तु पोंमे नियमसे उपवास करता है।
११. क्षुल्लक श्रावकके भेद सा. ध./७/४०-४६ भावार्थ, क्षुल्लक भी दो प्रकारका है, एक तो एकगृहभोजी और दूसरा अनेकगृह भोजी । (ला.सं./७/६५)
१२. एकगृहमोजी क्षुल्लकका स्वरूप वसु. श्रा/३०४-३१० जइ एवं ण रअज्जो काउंरिस गिहम्मि चरियाए । पविसति एतभिक्ख पवित्तिणियमणं ता कुज्जा ।३०६। गंतूण गुरुसमीवं पञ्चक्रवाणं चउबिहं विहिणा । गहिऊण तओ सव्वं आलोचेन्जा पयत्तेण ।३१०। - यदि किसीको अनेक गृहगोचरी न रुचे,
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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