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तप ऋद्धि
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तमक
संभव हैं । उत्तर-यथाशक्ति तपमें तीर्थ कर नामकर्म के बन्धके सभी शेष कारण सम्भव है, क्योकि, यथाथाम तप ज्ञान, दर्शनसे युक्त सामान्य बलवान और धीर व्यक्तिके होता है, और इसलिए उसमे दर्शनविशुद्धतादिकोंका अभाव नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा होनेपर यथाथाम तप बन नहीं सकता।
३. तपप्रायश्चित्तका लक्षण ध.८/५,४,२६/६९/५ खवणायं विलणि वियडि न पुरिमंडलेयट्ठाणाणि तवो णाम ।उपवास, आचाम्ल, निविकृति, और दिवसके पूर्वार्ध में एकासन तप (प्रायश्चित्त) है। चा, सा /१४२/५ सव्वादिगुणालंकृतैन कृतापराधेनोपवासैकस्थानाचाम्लनिर्षिकृत्यादिभिः क्रियमाणं तप इत्युच्यते। जो शारीरिक व मानसिक बल आदि गुणोंसे परिपूर्ण है, और जिनसे कुछ अपराध हुआ है ऐसे मुंनि उपवास, एकासन, आचाम्ल आदिके द्वारा जो तपश्चरण करते है उसे तप प्रायश्चित्त कहते हैं। स. सि./६/२२/४४०/८ अनशनावमौदर्यादिलक्षणं तपः। = अनशन,
अवमौदर्य आदि करना तप प्रायश्चित्त है। (रा. वा./९/२२/७/६२१/२६ )। तप ऋद्धि-दे० ऋद्धि/५ । तपन-१.तीसरे नरकका तीसरा पटल-देनरक/४/११
२ विद्युत्भ गजदन्त का कूट तथा देव-दे० लोक/
३. रुचक पर्वत का कूट-दे लोक/५/१३ । तपनतापि-आकाशोपपन्न देव-दे० देव/II/३ ॥ तपनीय-१. मानुषोत्तर पर्वतस्थ एक कूट -दे० लोक/५/१० ।
२. सौधर्म स्वर्गका १वॉ पटल व इन्द्रक-दे० स्वर्ग/१/३ । तप प्रायश्चित्त-दे० तप/६। तपमद-दे० मद । तपविद्या-दे० विद्या। तपविनय-दे० विनय/१। तपस्वीर क. श्रा./१०विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ।१०।- जो विषयोंकी आशाके वशसे रहित हो, चौबीस प्रकार के परिग्रहसे रहित और ज्ञान-ध्यान
नपमें लवलीन हो, वह तपस्वी गुरु प्रशंसाके योग्य है। स.सि./१२४/४४२/८ महोपवासाद्यनुष्ठायी तपस्वी। -महोपवासादिका
अनुष्ठान करनेवाला तपस्वी कहलाता है । (रा.वा./६/२४/५/६२३); (चा.सा./१५१/१) तपाचार-दे० आचार । तपाराधना-दे० आराधना। तपित-तीसरे नरकका द्वितीय पटल-दे० नरक/५/११ । तपोनिधि व्रत-इस व्रतकी दो प्रकार विधि वर्णन की गयी है -बृहद व लघु।
बृहविधि-ह.पु./३४/१२-६५ १ उपवास, १ ग्रास, २ ग्रास । इसी प्रकार एक ग्रास वृद्धि क्रमसे सातवें दिन ७ ग्रास। आठ दिनोंका यह क्रम ७ बार दोहराएँ। पीछेसे अन्तमें एक उपवास करें और अगले दिन पारणा। यह 'सप्त सप्त' तपो विधि हई। इसी प्रकार अष्टम अष्टम, नवम नवम आदि रूपसे द्वात्रिंशत द्वात्रिंशत् (३२-३२) पर्यंत करना। जेतवीं तप विधि हो उतने ही ग्रास तक वृद्धि करे, और उतनी ही बार क्रमको दोहराये।
इस प्रकार करते करते सप्तम सप्तमके (Ex७)+१-५७ दिन; अष्टम अष्टमके (EXE)+१-७३ दिन; नवम नवमके (१०x४)+१११ दिन"द्वात्रिशत्तम द्वात्रिंशत्तमके (३३४३२)+१=१०५७ दिन ।
लघुविथि-ह.पु./३४/१२-१५ उपरोक्तवव ही विधि है। अन्तर केवल इतना है कि यहाँ उपवास का ग्रहण न करने। केवल ग्रासोंका वृद्धिक्रम ग्रहण करना। तपो भावना-दे० भावना/१ । तपोशुद्धि व्रत-ह.पु./३४/१०० मन्त्र-२,१,११५.१,१+१६,३०,१०, १,२,१। विधि-अनशनके २, अवमौदर्यका १, वृति परिसंख्यानका १; रसपरित्यागके, विविक्त शय्यासनका १; कायक्लेशका १: इस प्रकार बाह्य तपके ११ उपवास । प्रायश्चित्तके १६, विनयके ३०, वैयावृत्तिके १०, स्वाध्यायके व्युत्सर्गके २; ध्यानका १: इस प्रकार अन्तरंग तपके ६७ उपवास । कुल-७८ उपवास बीचके १२ स्थानों में एक पारणा। तप्त-१. प्रथम नरकका नवाँ पटल-देनरक/६/११ तथा रत्नप्रभा
२. तृतीय पृथिवीका प्रथम पटल-दे० नरक/ तथा लोक/२/८ । तप्तजला-पूर्व विदेहकी एक विभंगा नदी-दे० लोक/५/८। तप्ततप्त ऋद्धि-दे० ऋद्धि । तम-स.सि./५/२५/२६६/८ तमो दृष्टिप्रतिबन्धकारणं प्रकाशविरोधि ।
=जिससे दृष्टि में प्रतिबन्ध होता और जो प्रकाशका विरोधी है वह तम कहलाता है। (रा.वा./५/२४/१५/४८६/७); (त.सा./२/६८/१६१); (द्र.सं /१६/५३/११) रा. वा./५/२४/१/४८५/१४ पूर्वोपात्ताशुभकर्मोदयात ताम्यति आत्मा, तम्यतेऽनेन, तमनमात्र वा तमः । -पूर्वोपात्त अशुभकर्मके उदयसे जो स्वरूपको अन्धकारावृत करता है या जिसके द्वारा किया जाता है, या तमन मात्रको तम कहते हैं। तमःप्रभा-क्षण व नामकी सार्थकता स.सि./३/१/२०१/8 तम प्रभासहचरिता भूमिस्तम प्रभा.। = जिसकी प्रभा अन्धकारके समान है वह तम प्रभा भूमि है। (ति.पं./२/२१); (रा.वा/३/१/३/१५६/१६) रा.वा./३/१/४-६/१५६/२१ तमः प्रभेति विरुद्धमिति चेत्, न; स्वात्मप्रभोपपत्ते पहा...न दीप्तिरूपैव प्रभा द्रव्याण स्वात्मैव मृजा प्रभा यरसंनिधानात् मनुष्यादीनामयं संव्यवहारो भवति स्निग्धकृष्णभ्रमिदं रूक्षकृष्णप्रभामिद मिति, ततस्तमसोऽपि स्वात्मैव कृष्णा प्रभा अस्तीति नास्ति विरोधः। बाह्यप्रकाशापेक्षा सेति चेत; अविशेषप्रसङ्गः स्यात् । अनादिपारिणामिकसंज्ञानिर्दशाद्वा इन्द्रगोपवत ।। भेदरूढिशब्दानामगमकत्वमवयवार्थाभावादिति चेतः नः सूत्रस्य प्रतिपादनोपायत्वात् । -प्रश्न-तमः और प्रभा कहना यह विरुद्ध है ? उत्तर-नहीं; तमकी एक अपनी आभा होती है। केवल दीप्तिका नाम ही प्रभा नहीं है, किन्तु द्रव्योंका जो अपना विशेष विशेष सलोनापन होता है, उसीसे कहा जाता है कि यह स्निग्ध कृष्णप्रभावाला है, यह रूक्ष कृष्ण प्रभावाला है। जैसे-मखमली कीड़ेकी 'इन्द्रगोप' संज्ञा रूढ है, इसमें व्युत्पत्ति अपेक्षित नहीं है । उसी तरह तमःप्रभा आदि संज्ञाएँ अनादि पारिणामिकी रूढ समझनी चाहिए । यद्यपि ये रूढ शब्द हैं फिर भी ये अपने प्रतिनियत अर्थोंको रखती है। * तमःप्रमा पृथिवीका आकार व विस्तारादि
-दे. नरक/५/११। * तम.प्रभा पृथिवीका नकशा-० लोक/२/11 * अपर नाम मघवा-देनरक/५। तमक-१. चतुर्थ नरकका पंचम पटल-दे० नरक/१/११२.पाँचवें नरकका पहला पदल-दे. नरक/५/११ ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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