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कथा
कथाकोश
६. संवेजनी कथाका लक्षण भ, आ./भू. व. वि./६५७/८५४ संवेयणी पुण कहा णाणचरित्तं तबवीरिय इगिदा /६५७/...संवेजनी पुन' कथा ज्ञामचारित्रतपोभावनाजनितशक्तिसंपनिरूपणपरा ।- ज्ञान, चारित्र, तप व वीर्य इनका अभ्यास करने से आत्मामें कैसी-कैसी अलौकिक शक्तियों प्रगट होती हैं इनका खुलासेवार वर्णन करनेवाली कथाको संवेजनी कथा कहते हैं। ध.१/१,१,२/१०/४ तथा श्लो. ७५/१०६ संवेयणी णाम पुण्य-फल
संकहा। काणि पुण्य-फलाणि। तिस्थयर-गणहर-रिसिचक्कवट्टिबलदेव-वासुदेव-सुर-विज्जाहररिद्धीओ...उक्त च-'संवेगनी धर्मफलप्रपश्चा...१७॥ - पुण्यके फलका कथन करनेवाली कथाको संवेदनी कथा कहते हैं। पुण्यके फल कौनसे हैं 1 तीर्थकर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ति, बलदेव, वासुदेव, देव और विद्याधरोंकी ऋद्धियाँ पुण्यके फल हैं। कहा भी है-विस्तारसे धर्मके फलका वर्णन करनेवाली संवेगिनी कथा है। (गो.जी./जी. प्र./३५७/७६६/१) (अन, ध/ ७/८/७१६ )।
७.निर्वजनी कथाका लक्षण भ. आ.मू.व.वि./६५७/८५४ णिवेयणी पुण कहा सरीरभोगे भवोधे य । १६५७१...निर्वजनी पुनः कथा सा। शरीरेभोगे, भवसंततौ च परा
मुखताकारिणी शरीराण्यशुचीनि...अनित्यकायस्वभावाः प्राणप्रभृतः इति शरीरतत्त्वाश्रयणात् । तथा भोगा दुर्लभा'.. लब्धा अपि कथं चिन्न तृप्ति जनयन्ति । अलाभे तेषां, लब्धायां वा विनाशे शोको महानुदेति । देवमनुजभवावपि दुर्लभौ, दुःखबहुलौ अल्पमुखौ इति निरूपणात ।-शरीर. भोग और जन्म परम्परामें विरक्ति उत्पन्न करनेवाली कथाका निर्वेजनो कथा ऐसा नाम है। इसका खुलासाशरीर अपवित्र है, शरीरके आश्रयसे आत्माकी अनित्यता प्राप्त होती है। भोग पदार्थ दुर्लभ हैं। इनकी प्राप्ति होनेपर आत्मा तृप्त होता नहीं। इनका लाभ नहीं होनेसे अथवा लाभ होकर विनष्ट हो जानेसे महात् दुःख उत्पन्न होता है। देव व मनुष्य जन्मकी प्राप्ति होना दुर्लभ है। ये बहुत दुखोंसे भरे हैं तथा अल्प मात्र सुख देनेवाले हैं। इस प्रकारका वर्णन जिसमें किया जाता है वह कथा निर्वेजनी कथा कहलाती है ( अन. ध./9/८८/७१६) । घ. १/१,१,२/१०५/५ तथा श्लोक ७/१०६ णिब्वेयणी णाम पावफल
संकहा। काणि पावफलाणि । णिरय-तिरय-कुमाणुस-जोणीसु जाइजरा-मरण-बाहि-वेयणा-दालिद्दादीणि। संसार-सरीर-भोगेसु वेरम्गुप्पाइणी णिन्वेयणी णाम। उक्तं च-निर्वे गिनी चाह कथा विरागाम् ॥७१-पापके फलका वर्णन करनेवाली कथाको निर्वेदनी कथा कहते हैं। पापके फल कौनसे हैं 1 नरक, तिथंच और कुमानुषकी योनियों में जन्म, जरा, मरण, व्याधि, वेदना और दारिद्र आदिकी प्राप्ति पापके फल हैं। -अथवा संसार, शरीर और भोगोंमें वैराग्यको उत्पन्न करनेवाली कथाको निर्वेदनी कथा कहते हैं। कहा भी हैवैराग्य उत्पन्न करनेवाली निर्वेगिनी कथा है। (गो.जी./जी.प्र./३५७/ ७६६/१)।
८. विकथाके भेद नि. सा./मू./६७ थीराजचोरभत्तकहादिवयणस्स पावहे उस्स ।...|-पाप के हेतुभूत ऐसे स्त्रीकथा, राजकथा. चोरकथा, भक्तकथा इत्यादिरूप वचनोंका त्याग करना वचनगुप्ति है। मू. आ./मू./८५५-८५६ इत्थिकहा अत्थकहा भत्तकहा खेडकबडाणं च ।
रायकहा चोरकहा जणवदणयरायरकहाओ।८५ णडभडमल्लकहाओ मायाकरजल्लमुट्ठियाणं च। अजउललं घियाण कहासु ण विरज्जए धीराः ८५६-स्त्रीकथा, धनकथा, भोजनकथा, नदी पर्वतसे घिरे हुए स्थानकी कथा, केवल पर्वतसे घिरे हुए स्थानकी कथा, राजकथा, चोरकथा, देश-नगरकथा, खानि सम्बन्धी कथा1८५॥ नटकथा, भाटकथा, मल्लकथा, कपदजीवी व्याध व ज्वारीकी कथा, हिसकोंकी
कथा, ये सब लौकिकी कथा (विकथा) हैं। इनमें वैरागी मुनिराज रागभाव नहीं करते।८५६। गो. जी./जी प्र./४४/८४/१७ तद्यथा-स्त्रीकथा अर्थ कथा भोजनकथा
राजकथा चोरकथा वैरकथा परपारखण्डकथा देशकथा भाषाकथा गुणबन्धकथा देवीकथा निष्ठुरकथा परपैशुन्यकथा कन्दर्पकथा देशकालानुचितकथा भंडकथा मूर्खकथा आत्मप्रशंसाकथा परपरिवाद कथा परजुगुप्साकथा परपीडाकथा कलहकथा परिग्रहकथा कृष्याद्यारम्भकथा सगीतवाद्यकथा चेति विकथा पञ्चविंशति--स्त्रीकथा. अर्थ (धन) कथा, भोजनकथा, राजकथा, चोरकथा, वैरकथा, परपाखंडकथा, देशकथा. भाषा कथा ( कहानी इत्यादि ), गुणप्रतिबन्धकथा, देवीकथा. निष्ठुरकथा, परपैशुन्य (चुगली) कथा, कन्दर्प (काम) कथा, देशकालके अनुचित कथा, भंड (निर्लज्ज ) कथा, मूर्खकथा, आत्मप्रशंसा कथा, परपरिवाद (परनिन्दा) कथा, पर जुगुप्सा (घृणा) कथा, परपीड़ाकथा, कलहकथा, परिग्रहकथा, कृषि आदि आरम्भ कथा, संगीत वादित्रादि कथा-ऐसे विकथा २५ भेद संयुक्त हैं।
९. स्त्री कथा आदि चार विकथाओंके लक्षण नि. सा./ता. वृ./६७ अतिप्रवृद्धकामै कामुकजनैः स्त्रीणां संयोगविप्र
लम्भजनितविविधवचनरचना कर्त्तव्या श्रोतव्या च सैव स्त्रीकथा। राज्ञा युद्धहेतूपन्यासो राजकथाप्रपञ्चः। चौराणां चौरप्रयोगकथनं चौरकथाविधानम् । अतिप्रवृद्धभोजनप्रीत्या विचित्रमण्डकावलीखण्डदधिखण्डसिताशनपानप्रशंसा भक्तकथा।-जिन्होके काम अति वृद्धिको प्राप्त हुआ हो ऐसे कामी जनों द्वारा की जानेवाली और सुनी जानेवाली ऐसी जो स्त्रियोंकी संयोग वियोगजनित विविधवचन रचना, वही स्त्रीकथा है। राजाओंका युद्धहेतुक कथन राजकथा प्रपंच है। चोरोका चोर प्रयोग कथन चोरकथाविधान है। अति वृद्धिको प्राप्त भोजनकी प्रीति द्वारा मैदाकी पूरी और शकर, दहीशक्कर, मिसरी इत्यादि अनेक प्रकारके अशन-पानकी प्रशंसा भक्त कथा या भोजन कथा है। १०.अर्थ व काम कथाओंमें धर्मकथा व विकथापना म पु/१/११६ तत्फलाभ्युदयाङ्गत्वादर्थकामकथा । अन्यथा विकथैवासावपुण्याखवकारणम् ।११६। धर्मके फलस्वरूप जिन अभ्युदयोकी प्राप्ति होती है, उनमें अर्थ और काम भी मुख्य हैं, अत' धर्मका फल दिखानेके लिए अर्थ और कामका वर्णन करना भी कथा (धर्म कथा ) कहलाती है। यदि यही अर्थ और कामकी कथा धर्मकथासे रहित हो तो विकथा ही कहलावेगी और मात्र पापासवका ही कारण होगी ।११६॥ * किसको कब कौन कथाका उपदेश देना चाहिएदे० उपदेश ३ कथाकोश-१.आ. हरिषेण (ई: ६३१)कृत 'बृहद कथा कोश' नामका मूल संस्कृत ग्रन्थ है। इसमें विभिन्न१५७कथाएँ निबद्ध हैं। २. आ. प्रभा- चन्द्र (ई. १५०-१०२०) की भी 'गद्य कथाकोश' नामकी ऐसी ही एक रचना है । ३.आ. क्षेमन्धर (ई. १०००) द्वारा संस्कृत छन्दोंमें रची 'बृहद् कथामञ्जरी' भी एक है। ४, आ. सोमदेव (ई. १०६१-१०८१) कृत 'बृहत्कथासरित्सागर' है । ५. आ. ब्रह्मदेव (ई० श०१६मध्य ) ने एक 'कथा कोश' रचा था। ६. आ. श्रुतसागर (ई. १४८७.१४६६) कृत दो कथा कोश प्राप्त है-वत कथा कोश और बृहद् कथा कोश । ७.नं.१ वाले कथा कोशके आधार पर ब. नेमिदत्त (ई. १५१८) ने 'आराधना कथा कोश' की रचना की थी। इसमें १४४ कथाएँ निबद्ध हैं। ८ आ. देवेन्द्रकीति (ई. १५८३-१६०५) कृत कथाकोष। अपभ्रंश कवि मुनि श्रीचन्द (ई०२०१९ उत्तरार्ध) कृत ५३ कथाओं वाला कथाकोष । (ती०४/१३५) ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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