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कदंब
करण
कदंब-गन्धव नामा व्यन्तर देवोंका एक भेद-दे० गधर्व। कदब वश-कर्णाटकके उत्तरीय भागमें, जिसका नाम पहिले बनवास
था, कदम्ब वश राज्य करता था, जिसको चालुक्यवंशी राजा कीर्तिवर्मने श-५०० (ई.५७८ ) में नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। समय लगभग-(ई ४५०-५७८ ) (घ. १/प्र.३२/ H-L. Jain ) कदलीघात-दे० मरण/४। कनक-दक्षिण क्षौद्रवर द्वीप तथा घृतवर समुद्रके रक्षक व्यन्तर ।
देव-दे० व्यन्तर/४। कनककट-रुचक पर्वत, कुण्डल पर्वत, सौमनस पर्वत, तथा
मानुषोत्तर पर्वतपर स्थित कूट-दे० लोक ५/१३,१२,४,१०) कनकचित्रा-रुचक पर्वतके नित्यालोक कूटकी निवासिनी विद्यु
स्कुमारी देवी-दे० लोक /१/१३ । कनकध्वज-(पा.पु/१७/ श्लोक) दुर्योधन द्वारा घोषित आधे
राज्यके लालचसे इसने कृत्या नामक विद्याको सिद्ध करके ( १५०१५२) उसके द्वारा पाण्डवोंको मारनेका प्रयत्न किया, परन्तु उसी
विद्यासे स्वयं मारा गया (२०६-१६) । कनकनन्दि-१. आप इन्द्रनन्दि सिद्वान्त चक्रवर्तीके शिष्य तथा
नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीके सहधर्मा थे।कृति-५० गाथा प्रमाण सत्व स्थान त्रिभंगी नामक ग्रन्थ । समय- इन्द्र नन्दि के अनुसार लगभग वि०६६ (ई. १३६) दे० इन्द्रनन्दि (गो.क. ३६६) (ती./२/४५०) (जै/१/१८३, ४४२) २. नन्दि मंधके देशीय गणके अनुसार आप माघनन्दि कोल्लापुरीयके शिष्य थे। इन्होने बौद्र चार्वाक व मोमांसकों को अनेकों बादोंमें परास्त किया। समय-ई. ११३३-११६३।-दे० इतिहास /७/५। (प. ख. २/मा ४/
H. L. Jan). कनकप्रभ-कुण्डल पर्वतका एक कूट- दे० लोक/७/१२ ॥ कनकसेन-आप आ बलदेवके गुरु थे। उनके अनुसार आपका
समय लगभग वि०६८२ ( ई.६२६) आता है । (श्रवणबेलगोलाके शिलालेख नं ०१५ के आधारपर, भ. आ./प्र.१६/प्रेमी जो ). कनका-रुचक पर्वत निवासिनी एक दिनकुमारी-दे० लोक/१३ । कनकाभ-उत्तर क्षौद्रवर द्वीप तथा घृतवर समुद्रके रक्षक व्यन्तर
देव-दे० व्यन्तर/४। कनकावला-१.(ह. पु/३४/७४-७१) समय ५२२ दिन; उपवास४३४, पारणा-८८ । यंत्र-१,२, ६ बार ३./१, वृद्धिक्रमसे १ से लेकर १६ तक, ३४ बार ३. एक हानिक्रमसे १५से लेकर १तक, हवार३,२.१ । विधि-उपरोक्त यंत्रके अनुसार एक-एक बार में इतने-इतने उपमास करे। प्रत्येक अन्तराल में एक पारणा करे। नमस्कार मंत्रका त्रिकाल जाप्य करे । यह बृहद् विधि है। (बत विधान संग्रह/पृ.७८)। २. समय एक वर्ष । उपवास ७२। विवि-एक वर्ष तक बराबर प्रतिमासकी शु०१,५.१० तथा कृ०२,६,१२ इन ६ तिथियों में उपवास करे। नमस्कार मंत्रका त्रिकाल जाप्य रे। (व्रत-विधान संग्रह/.७८) (किशन सिंह/क्रियाकोश)। कनकोज्जत्रल-म.पू/७४/२२०-२२६). महावीर भगवान्का
पूर्वका नवमा भव । एक विद्याधर था। कनिष्क-इतिहासकारोके अनुसार कुशान वंश (भृत्य वंश) का
तृतीय राजा था । बड़ा पराक्रमी था। इसने शकोको जीतकर भारतमें एकच्छत्र गणतन्त्र राज्य स्थापित किया था। समय वी. नि/६४६६८ (ई. १२०-१६२)-(दे० इतिहास/३/४)।
कन्नाज-कुरुक्षेत्र देशका एक नगर । पूर्व में इसका नाम कान्यकुब्ज
था। (म.पु./प्र.४६/पं. पन्नालाल )। कपाटसमुद्घात-दे० केवली/७ । कपित्थमुष्टि--कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे० व्युत्सर्ग/१ । कापल--१. ( प. पु./३५/श्लोक) एक ब्राह्मण था, जिसने बनवासी
रामको अपने घरमे आया देखकर अत्यन्त क्रोध किया था (८-१३)। पीछे जङ्गलमें रामका अतिशय देखकर अपने पूर्व कृत्यके लिए रामसे क्षमा मांगी ( ८४,१४५,१७७ ) । अन्तमें दीक्षा धार ली (१९०-१६२)। २. सांख्य दर्शनके गुरु-दे० सारख्य। कपिशा-वर्तमान 'कोसिया' नामक नदी (म. पु./४६/५०
पन्नालाल)। कपीवती-पूर्वी मध्य आर्यखण्डकी नदी-दे० मनुष्य/४! कफ-शरीरमें कफ नामक धातुका निर्देश-दे० औदारिक/१ । कमठ--(म.पू./७३/श्लोक ) भरतक्षेत्रमें पोदनपुर निवासी विश्वभूति ब्राह्मणका पुत्र था । (७-६)। अपने छोटे भाई मरुभूतिको मारकर उसकी स्त्रीके साथ व्यभिचार किया (११)। तत्पश्चात-प्रथम भवमें कुक्कुट सर्प हुआ (२३)। द्वितीय भवमे धूमप्रभा नरकमे गया (२६) तीसरे भवमें अजगर हुआ (३०) चौथे भवमें छठे नरकमे गया (३३) पाँचवे भवमें कुरंग नामक भील हुआ (३७) छठे भवमें सप्तम नरकका नारकी हुआ (६७) सातवें भवमें सिंह हुआ (६७) आठवें भवमें महीपाल नामक राजा हुआ (१७.११५) और नवें भवमे शम्बर नामक ज्योतिष देव हुआ, जिसने भगवान् पार्श्वनाथ पर घोर उपसर्ग किया। ( इन नौ भवोंका युगपत कथन-म.पु./७२/१७०) । कमल-~१. लोककी रचनामें प्रत्येक बावडीमें अनेकों कमलाकार द्वीप स्थित है, जिन्हें कमल कहा गया है। इनपर देवियाँ व उनके परिवारके देव निवास करते हैं। इनका अवस्थान व विस्तार आदि-देनोका/ ये कमल बनस्पतिकायके नहीं बल्कि पृथिवी कायके हैं-दे० वृक्ष ।
२ काल का एक प्रमाण-दे० गणित /I/१/४॥ कमलभव--ई. १२३५ के एक कवि थे, जिन्होने शान्तीश्वर पराणको
रचना की थी। ( वरांग चरित्र/प्र.२२/पं. खुशालचन्द ) (ती./४/३९९) कमलांग--कालका एक प्रमाण-दे० गणित /I/१/४ । कमेकुर--मध्य आर्यखण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । करकंड चरित्र--१. मुनि कन काम (ई० १६५-१०५१) कृत
अपभ्रंश काव्य (ती०४/१६१।२.आ.शुभचन्द्र (ई० १५५४)की एक रचना ती० ३/३६६)। करण--१. अंतरकरण व उपशमकरण आदि-दे० वह वह नाम ।
२. अवधिज्ञानके करण चिह्न-दे० अवधिज्ञान/। ३. कारणके अर्थ में करण-दे०निमित्त/१। ४. प्रमाके करणको प्रमाण कहने सम्बन्धीदे० प्रमाण । ५. मिथ्यात्वका त्रिधा करण-दे० उपशम/२। ६.अधः करण आदि त्रिकरण व दशकरण-दे० आगे करण करण-जीवके शुभ-अशुभ आदि परिणामोंकी करण संज्ञा है।
सम्यक्त्व व चारित्रकी प्राप्तिमें सर्वत्र उत्तरोत्तर तरतमता लिये तीन प्रकारके परिणाम दर्शाये गये हैं-अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण । इन तीनोंमें उत्तरोत्तर विशुद्धिकी वृद्धिके कारण कर्मोके मन्धमें हानि तथा पूर्व सत्तामें स्थित कर्मोंकी निर्जरा आदिमें भी विशेषता होनो स्वाभाविक है। इनके अतिरिक्त कर्म सिद्धान्तमें बन्ध उदयसत्व आदि जो दस मूल अधिकार हैं उनको भी दशकरण कहते हैं।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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