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कारण (सामान्य निर्देश )
रा.वा/१/६/१४/३७/२५ सर्वेषामेव तेषां पूर्वोत्तरकालभाव्यवस्था विशेषार्पणाभेदादेकस्य कार्यकारणशक्तिसमन्वयो न विरोधस्यास्पदमित्यविरोधसिद्धिः । = सभी वादी पूर्वावस्थाको कारण और उत्तरावस्थाको कार्य मानते है अतः एक ही पदार्थ में अमनी पूर्व और उत्तर पर्यायकी दृष्टिसे कारण कार्य व्यवहार निर्विरोध रूपसे होता ही है । अष्टसहस्री / श्लो. १० टीकाका भावार्थ (इम्पाधिक उपहार नयसे मिट्टी घटका उपादान कारण है। सूत्र नयसे पूर्व पर्याय घटका उपादान कारण है। तथा प्रमाणसे पूर्व पर्याय विशिष्ट मिट्टी घटका उपादान कारण है । ) श्लो. वा. २/१/७/१२/५३६/५ तथा सति रूपरसयोरेकार्थात्मिकयोरेकद्रव्यस्यासतिरेव लिहा. कार्यकारणभावस्यानि नियतस्य तदभावेऽनुपपत्ते संतानान्तरवत् । - आप बौद्धोके यहाँ मान्य अर्थ क्रियामें नियत रहना रूप कार्यकारण भाव भी एक द्रव्य प्रत्यासत्ति नामक सम्बन्धके बिना नहीं बन सकता है। किसी एक द्रव्य में पूर्व समय के रस आदि उत्तरवर्ती पर्यायोंके उपादान कारण हो आते हैं। (रजोना ५.२/१/८/१०/५१६) अष्टसहसो / पृ. २९१ की टिप्पणी नियतवक्षणवतित्वं कारणलक्षणम्। नियतोरक्षणवतिरवं कार्यलक्षणम् नियतपूर्वक्षणवर्ती तो कारण होता है और नियत उत्तरक्षणवर्ती कार्य होता है ।
क पा.१/३२४५/२८१/३ पागभावो कारणं । पागभावस्स विणासो वि दव्वखेत्त-काल- भवावेक्खाए जायदे | (जिस कारण से द्रव्य कर्म सर्वदा विशिष्टपनेको प्राप्त नहीं होते है ) वह कारण प्रागभाव है। प्रागभाव की विनाश हुए बिना कार्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है और प्रागभावका विनाश द्रव्य क्षेत्र काल और भवको अपेक्षा लेकर होता है. (इसलिए द्रव्य कर्म सर्वदा अपने कार्यको उत्पन्न नहीं करते हैं ।) का. अ/मू./२२२-२२३ पुव्त्रपरिणामजुत कारणभावेण वट्टदे दव्वं । उत्तरपरिणामजुद तं चित्र हवेमा | २१ | कारणकज्जविसेसा ती विकास हुंति वत्थूणं । एक्केम्मि य समए पृथ्वुत्तर- भावमासिज्ज | २२३ | = पूर्व परिणाम सहित द्रव्य कारण रूप है और उत्तर परिणाम सहित द्रव्य नियमसे कार्य रूप है | २२२] वस्तुके पूर्व और उत्तर परिणामों को लेकर तीनों ही कालोंमें प्रत्येक समयमें कारणकार्य भाव होता है | २२३॥
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सा./ता.वृ / ११६/१६८/२० मुक्तात्मनां य एव... मोक्षपर्यायेण भव उत्पाद: स एव निश्चयमोक्षमार्गपर्याय मिल्यो विनाशस्तीच मोक्षमोक्षमार्गपर्यायी कार्यकारणरूपेण भिन्नौ मुक्तात्माओं की जो मोक्ष पर्यायका उत्पाद है वह निश्चयमोक्षमार्गपर्यायका विलय है । इस प्रकार अभिन्न होते हुए भी मोक्ष और मोक्षमार्गरूप दोनों पर्यायों में कार्यकारणरूपसे भेद पाया जाता है (प्र. सा. ता. वृ /८/१०/११ ) ( और भी देखो ) – 'समयसार' व 'मोक्षमार्ग/३/३'
५. एक वर्तमानमात्र पर्याय स्वयं ही कारण है और स्वयं ही कार्य है
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रा.वा./१/३३/१/१५/६ पर्याय एवार्थ' कार्यमस्य न द्रव्यम् । अतीतानाग
योनिष्टत्वेन व्यवहारामावाद, स एवैकः कार्यकारणव्यप देशमा पर्यायार्थिक पर्याय ही है अर्थ या कार्य जिसका सो पर्यायार्थिक नय है । उसकी अपेक्षा करनेपर अतीत और अनागत पर्याय विनष्ट व अनुत्पन्न होनेके कारण व्यवहार योग्य ही नहीं हैं । एक वर्तमान पर्यायही कारणकार्यका व्यपदेश होता है।
६. कारणकार्य में कथंचित् भेदाभेद
आम. मी./५८ नियम लक्षणात्पृथक् । पूर्वोत्तर पर्याय विशिष्ट वे उत्पाद व विनाशरूप कार्यकारण क्षेत्रादि से एक होते हुए भी अपने-अपने लक्षणो से पृथक है ।
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३. निमित्त कारणकार्य निर्देश
आप्त. मी./ १-१४ ( कार्य के सर्वथा भाव या अभाव का निरास ) आप्त. मी./२४-३६ ( सर्वथा अद्वैत या पृथक्त्वका निराकरण ) आ. मी १०-४५ (सर्वथा निता व अनित्यत्वका निराकरण) आप्त. मी./५७-६० (सामान्यरूपसे उत्पाद व्ययरहित है, विशेषरूपसे वही उत्पाद व्ययसहित है )
आप्त. मी / ६१-७२ ( सर्वथा एक व अनेक पक्षका निराकरण ) श्लोमा / २/९/७/१२/२२६/६ न हि कचिद पूर्वे रसादिपर्याणा पर रसादिपर्यायामुपादानं नान्यत्र द्रव्ये वर्तमाना इति नियमस्तेषामेकद्रव्यादरम्यविरहे कयंचिदुपप किसी एक दव्यमें पूर्व समयके रस आदि पर्याय उत्तरवर्ती समयमें होनेवाले रसादिपर्यायोंके उपादान कारण हो जाते है. किन्तु दूसरे ज्योंमें वर्त रहे पूर्वसमय रस आदि पर्याय इस प्रत द्रव्यमें होनेवाले रसादिक उपादान कारण नहीं है। इस प्रकार नियम करना उन-उन रूपादिकों के एक द्रव्य तादात्म्यके बिना कैसे भी नही हो सकता ।
ध. १२/४, २, ८, ३/२८० / ३ सव्वस्स कज्जकलावस्त कारणादो अभेदो सत्तादीहितो त्ति गए अवलं बिज्जमाणे कारणादो कज्जमभिण्णं, कज्जादो कारण पि, असदकरणाद् उपादानग्रहणात्, सर्व संभवाभावात्, शक्तस्य शक्यकरणात, कारणभावाच्च । = सत्ता आदिकी अपेक्षा सभी कार्यकलाप कारण से अभेद है । इस ( द्रव्यार्थिक ) नयका अवलम्बन करनेपर कारणसे कार्य अभिन्न है तथा कार्यसे कारण भी अभिन्न है, क्योंकि असत् कार्य कभी किया नहीं जा सकता, २. नियत उपादानकी अपेक्षा की जाती है, ३. किसी एक कारणसे सभी कार्य उत्पन्न नही हो सकते, ४ समर्थकारणके द्वारा शक्य कार्य ही किया जाता है, ५ तथा असत् कार्यके साथ कारणका सम्बन्ध भी नहीं बन सकता
नोट- ( इन सभी का ग्रहण उपरोक्त आप्तमीमांसा उद्धरणों में तथा उसीके आधारपर (ध. १५/१७-३१) में विशद रीतिसे या गया है )
न. च. वृ / ३६५ उप्पज्जेतो कज्जं कारणमप्पा णियं तु जणयंतो । तम्हा इह ण विरुद्ध एकस्स वि कारणं कज्जं । ३६५ । उत्पद्यमान पर्याय तो कार्य है और उसको उत्पन्न करनेवाला आत्मा कारण है. इसलिए एक ही द्रव्यमें कारणकार्य भावका भेद विरुद्ध नहीं है । द्र.सं./टी./३७/६७-६८ उपादानकारणमपि मृन्मयकलशकार्यस्य मृत्पि*स्थाको कुलोपादानकारणवदिति च कार्यादेकदेशेन भिन्न भवति । यदि पुनरेकान्तेनोपादानकारणस्य कार्येष सहाभेदो भेदो वा भवति तर्हि पूर्वोर्ण मृत्तिकान्त कार्यकारणभावो न घटते । = उपादान कारण भी मिट्टीरूप घट कार्य के प्रति मिट्टीका पिण्ड, स्थास, कोश तथा कुशूलरूप उपादान कारण के समान (अथवा सुवर्णकी अधस्तन व अपरितन पाक अवस्थाओंवत् ) कार्यसे एकदेश भिन्न होता है। यदि सर्वथा उपादान कारणका कार्यके साथ अभेद या भेद हो तो उपरोक्त सुवर्ण और मिट्टी के दो दृष्टान्तोंकी भाँति कार्य और कारण भाव सिद्ध नहीं होता ।
३. निमित्त कारणकार्य निर्देश
१. मित्र गुणों व द्रव्यों में भी कारणकार्य भाव होता है रा.वा./१/२०/३-४/००/३३ कश्चिदाह- मतिपूर्व भूतं तदपि मध्यात्मक प्राप्नोति कारणगुणानुविधानं हि कार्य दृष्ट यथा मृन्निमित्तो घटो मृदात्मक अथातदात्मकमिष्यते तत्पूर्वकवं तहि तस्य हीयते इति ॥३॥ न ष दोष किं कारणम्। निमित्तमात्रा दण्डाविनद... मृत्पिण्ड एवमाह्मदण्डादिनिमित्तापेक्ष आम्यन्तरपरिणामसां निध्याद घटो भवति न दण्डादयः इति दण्डादीनां निमित्तमात्रम् तथा पर्यायपर्याययो' स्यादन्यत्वाद् आत्मन स्वयमन्त श्रुतभवनपरि
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