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I कारण (सामान्य निर्देश)
३. निमित्त कारणकार्य निर्देश
भावको बद्ध कहते हैं और एक दूसरेसे नहीं अँधे हुए दोनोके भावको अबद्ध कहते हैं, क्योंकि, जीवमें बन्धक शक्ति तथा कर्म में बन्धनेकी शक्तिकी परस्पर अनुकूलताई से बन्ध होता है, और दोनों के प्रतिकूल होनेपर बन्ध नहीं होता है ।१०२। अर्थात अँधे हुए कर्म ही उदय आनेपर विभावमें निमित्त होते है, विस्रसोपचयरूप अबद्ध कर्म नही।
णामाभिमुख्ये मतिज्ञानं निमित्तमात्रं भवति.. अतो बाह्यमतिज्ञानादिनिमित्तापेक्ष आत्मैव...श्रुतभवनपरिणामाभिमुख्यात श्रुतीभवति, न मतिज्ञानस्य श्रुतीभवनमस्ति तस्य निमित्तमात्रत्वात् ।
प्रश्न-जैसे मिट्टीके पिण्डसे बना हुआ धड़ा मिट्टी रूप होता है, उसी तरह मतिपूर्वक श्रुत भी मतिरूप ही होना चाहिए अन्यथा उसे मतिपूर्वक नहीं कह सकते। उत्तर-मतिज्ञान श्रुतज्ञानमें निमित्तमात्र है, उपादान नहीं। उपादान तो श्रुत पर्यायसे परिणत होनेवाला आत्मा है। जैसे मिट्टी ही बाह्य दण्डादि निमित्तोंकी अपेक्षा रखकर अभ्यन्तर परिणामके सान्निध्यसे घड़ा बनती है, परन्तु दण्ड आदिक घडा नहीं बन जाते और इसलिए दण्ड आदिकोंको निमित्तमात्रपना प्राप्त होता है। उसी प्रकार पर्यायी व पर्यायमें कथंचित अन्यत्व होनेके कारण आत्मा स्वयं ही जब अपने अन्तरंग श्रुतज्ञानरूप परिणामके अभिमुख होता है तब मतिज्ञान निमित्तमात्र होता है। इसलिए बाह्य मतिज्ञानादि निमित्तोंकी अपेक्षा रखकर आरमा ही श्रुतज्ञानरूप परिणामके अभिमुख होनेसे श्रुतरूप होता है, मतिज्ञान नहीं होता। इसलिए उसको निमित्तपना प्राप्त होता है। (स. सि./१/२०/१२०/८) श्लो. वा./२/१/७/१३/१६३/१६ सहकारिकारणेण कार्यस्य कथं तत्स्यादेकद्रव्यप्रत्यासत्तेरभावादिति चेत् कालप्रत्यासत्तिविशेषात् तसिद्धि यदनन्तरं हि यदवश्यं भवति तत्तस्य सहकारिकारणमन्यत्कार्यमिति प्रतीतम् । प्रश्न-सहकारी कारणोके साथ पूर्वोक्त कार्यकारण भाव कैसे ठहरेगा, क्योंकि तहाँ एक द्रव्यकी पर्याय न होनेके कारण एक द्रव्य नामके सम्बन्धका तो अभाव है। उत्तर-काल प्रत्यासत्ति नामके विशेष सम्बन्धसे तहाँ कार्यकारणभाव सिद्ध हो सकता है। जिससे अव्यवहित उत्तरकालमें नियमसे जो अवश्य उत्पन्न हो जाता है, वह उसका सहकारी कारण है और शेष दूसरा कार्य है, इस प्रकार कालिक सम्बन्ध समको प्रतीत हो रहा है।
३. कार्यानुसरण निरपेक्ष बाह्य वस्तु मात्रको कारण नहीं
कह सकते। ध.२/१, १/४४४/३ "दव्वे दियाण णिप्पत्ति पङ्गच्च के वि दस पाणे भणति । तण्ण घडदे। कुदो। भाविदियाभावादो।" -कितने ही आचार्य द्रव्येन्द्रियों की पूर्णताको (केवली भगवान्के) दश प्राण कहते हैं, परन्तु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता है, क्योंकि
संयोगि जिनके भावेन्द्रिय नहीं पायी जाती है। प. मु./३/६१.६३ न च पूर्वोत्तरचारिणोस्तादात्म्यं तदुत्पत्तिर्वा कालव्यवधाने तदनुपलब्धे ।६१॥ तद्वयापाराश्रितं हि तद्भावभावित्वम् ।६३। - पूर्वचर व उत्तरचर हेतु साध्यके काल में नहीं रहते इसलिए उनका तादात्म्य सम्बन्ध न होनेसे तो वे स्वभाव हेतु नहीं कहे जा सकते और तदुत्पत्ति सम्बन्ध न रहनेसे कार्य हेतु भी नहीं कहे जा सकते ६१. कारणके सद्भावमें कार्यका होना कारणके व्यापारके आधीन है।६। दे. मिथ्याष्टि/२/६ (कार्यकालमें उपस्थित होने मात्रसे कोई पदार्थ कारण नहीं बन जाता)
२. उचित ही द्रव्यको कारण कहा जाता है, जिस किसी
को नहीं श्लो. वा. ३/१/१३/४८/२२१/२४ तथा २२२/१६ स्मरणस्य हि न अनुभव
मात्रं कारणं सर्वस्य सर्वत्र स्वानुभूतेऽर्थे स्मरण-प्रसंगात् । नापि दृष्टसजातीयदर्शनं सर्वस्य दृष्टस्य हेतोर्व्यभिचाराद। तदविद्यावासनाप्रहाणं तत्कारणमिति चेत्, सैव योग्यता स्मरणावरणक्षयोपशमलक्षणा तस्यां च सत्यो सदुपयोगविशेषा वासना प्रबोध इति नाममात्रं भिद्यते। = पदार्थोंका मात्र अनुभव कर लेना ही स्मरणका कारण नहीं है, क्योंकि इस प्रकार सभी जीवोंको सर्वत्र सभी अपने अनुभूत विषयोंके स्मरण होनेका प्रसंग होगा। देखे हुए पदार्थोंके सजातीय पदार्थोंको देखनेसे वासना उद्बोध मानो सो भी ठीक नहीं है; क्योंकि, इस प्रकार अन्वय व व्यतिरेको व्यभिचार आता है। यदि उस स्मरणीय पदार्थकी लगी हुई अविद्यावासनाका प्रकृष्ट नाश हो जाना उस स्मरणका कारण मानते हो तब तो उसीका नाम योग्यता हमारे यहाँ कहा गया है। वह योग्यता स्मरणावरण कर्मका क्षयोपशम स्वरूप इष्ट की गयी है, और उस योग्यताके होते संत श्रेष्ठ उपयोग विशेषरूप वासना ( लन्धि ) को प्रबोध कहा जाता है। तब तो
हमारे और तुम्हारे यहाँ केवल नामका ही भेद है। पं. ध /उ./8६,१०२ वैभाविकस्य भावस्य हेतुः स्यात्संनिकर्षतः। तत्रस्थोऽप्यपरो हेतुर्न स्यात्किवा वतेति चेताबद्ध' स्यादबद्धयोर्भाव: स्यादबद्धोऽज्यबद्धयोः । सानुकूलतया बन्धो न अन्धः प्रतिकूलयोः १०२। -प्रश्न- यदि एकक्षेत्रावगाहरूप होनेसे वह मृत द्रव्य जीवके वैभाविक भावमें कारण हो जाता है तो खेद है कि वहीं पर रहनेवाला विस्रसोपचय रूप अन्य द्रव्य समुदाय भी विभाव परिणमनका कारण क्यों नहीं हो जाता ? उत्तर-एक दूसरेसे बंधे हुए दोनोंके
४. कार्यानुसरण सापेक्ष ही बाह्य वस्तु कारण कह
लाती है आप्त. मी./४२ यद्यसत्सर्वथा कार्य तन्मा जनि खपुष्पवत् । मोपादाननियामो भून्माश्वास' कार्यजन्मनि ।४२। कार्यको सर्वथा असत् माननेपर 'यही इसका कारण है अन्य नहीं' यह भी घटित नहीं होता, क्योंकि इसका कोई नियामक नहीं है। और यदि कोई नियामक हो तो वह कारणमें कार्यके अस्तित्वको छोड़कर दूसरा भला कौन सा हो सकता है। (ध. १२/४, २,८,३/२८०/५) (ध १३/५२१) रा. वा /९/९/११/४६/८ दृष्टो हि लोके छेत्तुर्देवदत्ताद अर्थान्तरभूतस्य परशोः काठिन्यादिविशेषलक्षणोपेतस्य सत' करणभाव' । न च तथा ज्ञानस्य स्वरूपं पृथगुपलभामहे ।...दृष्टो हि परशोः देवदत्ताधिष्ठितोद्यमाननिपातनापेक्षस्य करणभावः, न च तथा ज्ञानेन किचिवकत साध्यं क्रियान्तरमपेक्ष्यमस्ति । किंच तत्परिणामाभावात् । होदनक्रियापरिणतेन हि देवदत्तेन तरिक्रयायाः साचिव्ये नियुज्यमानः परशु' 'करणम्' इत्येतदयुक्तम्, न च तथा आत्मा ज्ञानक्रियापरिणतः । -जिस प्रकार छेदनेवाले देवदत्तसे करणभूत फरसा कठोर तीक्ष्ण आदि रूपसे अपना पृथक् अस्तित्व रखता है, उस प्रकार ( आप बौद्धोंके यहाँ) ज्ञानका पृथक् सिद्ध कोई स्वरूप उपलब्ध नहीं होता जिससे कि उसे करण बनाया जाये। फरसा भी तम करण बनता है जब वह देवदत्तकृत ऊपर उठने और नीचे गिरकर लकड़ीके भीतर घुसने रूप व्यापारकी अपेक्षा रखता है, किन्तु ( आपके यहाँ) ज्ञानमें कर्ताक द्वारा की जानेवाली कोई क्रिया दिखाई नहीं देती, जिसकी अपेक्षा रखनेके कारण उसे करण कहा जा सके ।
स्वयं छेदन कियामें परिणत देवदत्त अपनी सहायताके लिए फरसेको लेता है और इसीलिए फरसा करण कहलाता है। पर ( आपके यहाँ) आत्मा स्वयं ज्ञान क्रिया रूपसे परिणति ही नहीं करता (क्योंकि वे दोनों भिन्न स्वीकार किये गये हैं)।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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