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करण
४. अध.प्रवृत्तकरण निर्देश
है। सो अधकरण माडै कोई जीवको स्तोक काल भया. कोई जीवको बहुत काल भया। तिनिके परिणाम इस करणविषै संख्या व विशुद्धताकरि (अर्थात दोनों ही प्रकारसे) समान भी हो है ऐसा जानना। क्योंकि इहाँ निचले समयवर्ती कोई जीवके परिणाम ऊपरले समयवर्ती कोई जीवके परिणामके सदृश हो हैं तातें याका नाम अधःप्रवृत्तकरण है। ( यद्यपि वहाँ परिणाम असमान भी होते हैं, परन्तु 'अध प्रवृत्त करण' इस संज्ञा में कारण नीचले व ऊपरले परिणामों की समानता ही है असमानता नहीं)। (गो, जी./मू./४८॥ १००), (गो. क./म./८१८/१०७६ ) । और भी दे० अध प्रवृत्तिकरण
५. तीनों करणोंकी परिणाम विशुद्धियों में तरतमता ध.६/१,६-८,५/२२३।४ अधापवत्तकरणपढमसमयदिदिबंधादो चरिमसमयदिदिबंधो संखेज्जगुणहीनो। एत्थेव पढमसम्मत्तसंजमासंजमाभिमुहस्स दिदिबंधो संखेज्जगुणहीणो, पढ़मसम्मत्तसंजमाभिमुहस्स अधापवत्तकरण चरिमसमयट्ठिदिबंधो संखेज्जगुणहीणो। · एवमधापवत्तकरणस्स कज्जपरूपणं कदं। ध.६/१,६-८,१४/२६६/५ तत्थतण अणियट्टीकरणट्टिदिघादादो वि एत्थतणअपुव्यकरणट्ठिदिपादस्स बहुवयरत्तादो बा। ण चेदमपुवकरणं पढमसम्मत्ताभिमुहमिच्छाइटिअपुवकरणेण तुम्लं, सम्मत्त-संजमसंजमासंजमफलाणं तुल्लत्तविरोहा। ण चापुवकरणाणि सब्वअणियट्टी करणे हितो अणतगुणहीणाणि त्ति नवोत्तुं जुत्तं तदुप्पायणमुत्ताभावा। -१ अध प्रवृत्तिकरणके प्रथम समय सम्बन्धी स्थिति-बन्धसे उसीका अन्तिम समय सम्बन्धी स्थितिबन्ध संख्यात गुणाहीन होता है। यहाँपर ही अर्थात अवःप्रवृत्तकरणके चरम समयमें ही प्रथमसम्यक्त्वके अभिमुख जीवके जो स्थितिबन्ध होता है, उससे प्रथम सम्यक्त्व सहित संयमासंयमके अभिमुख जीवका स्थितिबन्ध संख्यातगुणा होन होता है । इससे प्रथम सम्यक्त्व सहित सकलसंयमके अभिमुख जीवका अध प्रवृत्तकरणके अन्तिम समय सम्बन्धी स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन होता है। .. इस प्रकार अध प्रवृत्तकरणके कार्यों का निरूपण किया। २. वहाँके अर्थात प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टिके, अनिवृत्तिकरणसे होनेवाले स्थितिघातकी अपेक्षा यहाँके अर्थात् संयमासंयमके अभिमुख मिथ्यादृष्टिके, अपूर्वकरणसे होनेवाला स्थितिधात बहुत अधिक होता है । तथा, यह अपूर्वकरण, प्रथमोपशम सम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टिके अपूर्वकरण के साथ समान नही है क्योंकि सम्यक्त्व, संयम और संयमासंयमरूप फलवाले विभिन्न परिणामों के समानता होनेका विरोध है। तथा, सर्व अपूर्वकरण परिणाम सभी अनिवृत्तिकरण परिणामोसे अनन्त गुणहीन होते है, ऐसा कहना भी युक्त नही है; क्योंकि, इस यातका प्रतिपादन करनेवाले सूत्रका अभाव है। भावार्थ -( यद्यपि सम्यक्त्व, संयम या संयमासंयम आदि रूप किसी एक ही स्थानमें प्राप्त तीनों परिणामों की विशुद्धि उत्तरोत्तर अनन्तगुणा अधिक होती है, परन्तु विभिन्न स्थानोंमें प्राप्त परिणामों में यह नियम नहीं है। वहाँ तो निचले स्थानके अनिवृत्तिकरणकी अपेक्षा भी ऊपरले स्थानका अधःप्रवृत्त करण अनन्तगुणा अधिक होता है।) ६. तीनों करणोंका कार्य मिन्न कैसे है ध. ६/१,६-८.१४/२८६/२ कथं ताणि चेव तिण्णि करणाणि पुध-पुध
कज्जुप्पायणाणि । ण एस दोसो, लक्रवणसमाणत्तेण एयत्तमावण्णाणं भिण्णकामविरोहितणेग भेदमुवगयाणं जोवपरिणामाणं पुध पृध कज्जुवपायणे विरोहाभावा ।-प्रश्न-वे हो तोन करण पृथक-पृथक कार्योंके (सम्यक्त्व, संयम, संयमासंयम आदिके) उत्पादक कैसे हो सकते हैं। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, लक्षणकी समानतासे एकत्वको प्राप्त, परन्तु भिन्न कर्मोंके विरोधी होनेसे भेदको भी प्राप्त हुए जोव परिणामोके पृथक्-पृथक् कार्यके उत्पादनमें कोई विरोध
२. अधःप्रवृत्तकरणका काल गो. जी //४६/१०२ अंतोमुहुत्त मेत्तो तत्कालो होदि तत्थ परिणामा। गो. जी./जो.प्र./४६।१०२/५ स्तोकान्तर्मुहूर्तमात्रात अनिवृत्तिकरणकालात संख्यातगुण' अपूर्वकरणकाल'; अतः संख्यातगुणः अधःप्रवृत्तकरणकालः सोऽप्यन्तर्मुहूर्त मात्र एव। तीनों करणनिविषै स्तोक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अनिवृत्तिकरणका कान है। यातें संख्यातगुणा अपूर्वकरणका काल है। यात संख्यातगुणा इस अध प्रवृत्तकरणका काल है। सो भी अन्तर्मुहर्त मात्र ही है। जात अन्तर्मुहूर्तके भेद बहुत है। (गो. क./म्./८88/१०७६ ) । ३. प्रति समय सम्भव परिणामोंकी संख्या संदृष्टि व
यन्त्र गो. जो./जी. प्र./४६/१०२-१०६/६ तस्मिन्नध प्रवृत्तकरणकाले त्रिकालगोचरनानाजीवसंबन्धिनो विशुद्धपरिणामाः सर्वेऽपि असंख्यातलोकमात्राः सन्ति । २। तेषु प्रथमसमयसंबन्धिनो यावन्त सन्ति द्वितीयादिसमयेषु उपर्युपरि चरमसमयपर्यन्तं सदृशवृद्धया वर्धिताः सन्ति ते च तावदसंदृष्ट या प्रदर्यते-तत्र परिणामा' वासप्तत्युत्तरत्रिसहस्त्री ३०७२।अध प्रवृत्तकरणकाल षोडशसमया ।१६। प्रतिसमयपरिणामवृद्धिप्रमाणं चत्वारः ।४।...एकस्मिन् प्रचये ४ वर्धिते सति द्वितीयतृतीयादिसमयवर्तिपरिणामाना संख्या भवति । ताः इमा'-१६६,१७०,१७४, १७८,१२,१८६,१६०,१६४,१६८,२०२,२०६.२१०,२१४,२१८,२२२ । एतान्युक्तधनानि अध प्रवृत्तकरणप्रथमसमयाञ्चरमसमयपर्यन्तमुपर्युपरि स्थापयितव्यानि । अथानुकृष्टिरचनोच्यते-तत्र अनुकृष्टि म अधस्तनसमयपरिणामखण्डाना उपरितनसमयपरिणामखण्डैः सादृश्यं भवति (१००६) अब सर्वजधन्यखण्डपरिणामानां ३६ सर्वोत्कृष्टखण्डपरिणामानां ५७ च कैरपि सादृश्यं नास्ति शेषाणामेवोपर्यधस्तनसमयवर्तिपरिणामपुञ्जानां यथासंभवं तथासंभवात् । .. अथ अर्थसंदृष्ट्या विन्यासो दृश्यते-तद्यथा-त्रिकालगोचरनानाजीवसंबन्धिनः अधःप्रवृत्तकरणकालसमस्तसमयसंभविन' सर्वपरिणामा असंख्यातलोकमात्राः सन्ति । ।अधःप्रवृत्तकरणकालो गच्छ: (१०३/४)। अथाध:प्रवृत्तकरणकालस्य प्रथमादिसमयपरिणामानां मध्ये त्रिकालगोचरनानाजीवसंबन्धिप्रथमसमयजघन्यमध्यमोत्कृष्टपरिणामसमूहस्याध प्रवृत्त । करणकालसंख्यातकभागमात्रनिर्वर्गणकाण्डकसमयसमानानि २२२ रखण्डानि क्रियन्ते तानि चयाधिकानि भवन्ति । अव॑रचनाचये अनुकृष्टिपदेन भक्ते लग्धमनुकृष्टि चयप्रमाणं भवति । (१०४/१३)। पुनः द्वितीयसमयपरिणामप्रथमखण्डप्रथमसमयप्रथमरवण्डाद्विशेषाधिकम् । (१०५/१४)। द्वितीयसमयप्रथमवंडप्रथमसमयद्वितीयरवण्डं च द्वे सहशे तथा द्वितीयसमयद्वितीयादिरखण्डानि प्रथमसमयतृतीयादिखण्डैः सह सहशानि किंतु द्वितोयसमयचरमखण्डप्रथमसमयखण्डेषु केनापि सह सदशं नास्ति। अतोऽ...अधःप्रवृत्तकरणकालचरमसमयपर्यन्तं नेतव्यानि(२०६/११) - "तोहि अधःप्रवृत्त करणके कालविर्ष अतीत अनागत वर्तमान त्रिकालवर्ती नानाजीव सम्बन्धी विशुद्धतारूप इस करणके सर्व परिणाम असंख्यात लोक प्रमाण हैं।...बहुरि तिनि परिणामनिविर्षे
४. अधःप्रवृत्तकरण निर्देश
१. अधःप्रवृत्तकरणका लक्षण ल. सा./म. व. जी. प्र./३५/७० जह्मा हेट्ठिमभावा उवरिमभावेहिं सरिसगा
होति । तसा पढमं करणं अधापत्तोत्ति णिहिटुं ।३५॥ संख्यया विशुवया च सदृशा भवन्ति तस्मात्कारणात्प्रथम' करणपरिणामः अध:प्रवृत्त इत्पन्वर्थतो निर्दिष्टः । करणनिका नाम नाना जीव अपेक्षा
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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