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दर्शन
४. दर्शनोपयोग सिद्धि
वचनके साथ (दे० दर्शन/१/३/२) विरोध आता है। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योकि, आत्मा सम्पूर्ण बाह्य पदार्थों में साधारण रूपसे पाया जाता है ( अर्थात् सर्व पदार्थ प्रतिभासात्मक है), इसलिए उक्तवचनमें सामान्य संज्ञाको प्राप्त आत्माका ही सामान्य पदसे ग्रहण किया है। (ध. १/१,१,१३१/३८०/५); (ध. ७/२, १, ५६/१००/७); (ध. १३/१,६,८५/३५४/११); ( क पा १/१-२०/६३२६/३६०/३); (द्र. सं./टी/४४/१६१/६)-(विशेष दे० दर्शन/२/३,४) ।
ध.१/१,१,४/१४७/४ आत्मनः सकलबाह्यार्थसाधारणत्वतः सामान्यव्यपदेशभाजा। -आत्मा सम्पूर्ण बाह्य पदार्थों में साधारण रूपसे पाया जाता है, इसलिए 'सामान्य' शब्दसे आत्माका व्यपदेश किया गया है। ध. ७/२,१.५६/१००/५ ण च जीवस्स सामण्णत्तमसिद्धं णियमेण विणा विसईकयत्तिकालगोयराणं तत्थवेंजणपज्जओवचियबझंतरंगाणं तत्थ सामणत्ताविरोहादो। -जीवका सामान्यत्व असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि नियमके बिना ज्ञानके विषयभूत किये गए त्रिकाल गोचर अनन्त अर्थ और व्यंजन पर्यायोंसे संचित बहिरंग और अन्तरंग पदार्थोंका, जीवमें सामान्यत्व मानने में विरोध नहीं आता।
२. सामान्य शब्दका अर्थ निर्विकल्प रूपसे सामान्य. विशेषात्मक ग्रहण है ध. १/१,१,४/१४७/४ तदपि कथमवसीयत इति चेन्न, 'भावाणं णेव । कटु आयार" इति वचनात् । तद्यथा भावाना बाह्यार्थानामाकार प्रतिकर्मव्यवस्थामकृत्वा यद्ग्रहणं तदर्शनम्। अस्यैवार्थस्य पुनरपि दृढीकरणार्थ, 'अविसेसिऊण उ?' इति, अर्थानविशेष्य यद् ग्रहणं तद्दर्शनमिति । न बाह्यार्थगतसामान्यग्रहणं दर्शनमित्याशङ्कनीयं तस्यावस्तुन कर्मत्वाभावात् । न च तदन्तरेण विशेषो ग्राह्यत्वमास्कन्दतीत्यतिप्रसङ्गात् । प्रश्न -- यह कैसे जाना जाये कि यहाँपर सामान्य पदसे आत्माका ही ग्रहण किया है। उत्तर-ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि, ‘पदार्थों के आकार अर्थात् भेदको नहीं करके' सूत्रमें कहे गये इस वचनसे उक्त कथनकी पुष्टि होती है। इसीको स्पष्ट करते हैं, भावोंके अर्थात बाह्य पदार्थोके, आकाररूप प्रति कर्म व्यवस्थाको नहीं करके, अर्थात् भेदरूपसे प्रत्येक पदार्थको ग्रहण नहीं करके, जो ( सामान्य ) ग्रहण होता है, उसको दर्शन कहते है। फिर भी इसी अर्थको दृढ करने के लिए सूत्रकार कहते हैं (दे० दर्शन/१/३/२) कि 'यह अमुक पदार्थ है, यह अमुक पदार्थ है' इत्यादि रूपसे पदार्थोंकी विशेपता न करके जो ग्रहण होता है, उसे दर्शन कहते हैं। इस कथनसे यदि कोई ऐसी आशंका करे कि बाह्य पदार्थों में रहनेवाले सामान्यको ग्रहण करना दर्शन है, तो उसकी ऐसा आशंका करनी भी ठीक नहीं है, क्योकि विशेषकी अपेक्षा रहित केवल सामान्य अवस्तुरूप है, इसलिए वह दर्शनके विषयभावको नहीं प्राप्त कर सकता है। उसी प्रकार सामान्यके बिना केवल विशेष भी ज्ञानके द्वारा ग्राह्य नहीं हो सकता, क्योंकि, अवस्तुरूप केवल सामान्य अथवा केवल विशेषका ग्रहण मान लिया जाये तो अतिप्रसंग दोष आता है। (और भी दे० दर्शन/२/३ )।
५. दर्शन सामान्यके अस्तित्वकी सिद्धि ध.७/२,१.१६/पृष्ठ/पंक्ति ण दंसणमस्थि विसयाभावादो। ण वज्जत्थसामण्णग्गहणं दंसणं, केवलदसणस्साभावप्पसंगादो। कुदो। केवलणाणेण तिकालगोयराणं तत्थवेंजणपज्जयसरूवस्स सव्वदम्वेसु अवगएसु केवलदसणस्स विसयाभावा (६६।८) । ण चासेसविसेग्गाही केवलणाणं जेण सयलत्थसामण्णं केवलदंसणस्स विसओ होज्ज । (६७।१) तम्हा ण दंसणमत्थि त्ति सिद्ध (६७१०) । ___एत्थ परिहारो उच्चदे-अस्थि दसणं, अट्ठकम्मणिदेसादो ।...ण चासते आवरणिज्जे आवयरमत्थि, अण्णत्थतहाणुवलं भादो ।...ण चावरणिज्जं णत्थि, चवखुदसणी अचवखूदंसणी ओहिदंसणी खवोसमियाए, केवलदंसणी खइयाए लद्धीए त्ति तद स्थिपटुप्पायणजिणक्यणदंसणादो -(१)।
एओ मे सस्सदो अप्पा णाणदसण लक्वणो ।१६। इच्चादि उवसंहारसुत्तदंसणादो च (६८१०)।
आगमपमाणेण होदु णाम दंसणस्स अत्थितं, ण जुत्तीए च । ण, जुत्ती हि आमस्स बाहाभावादो। आगमेण वि जच्चा जुत्ती ण बाहिज्ज तिचे। सच्चं ण बाहिज्जदि जच्चा जुत्ती, कितु इमा बाहिज्जदि जच्चदाभावादो। तं जहा-ण णाणेण विसेसो चेव घेप्पदि सामण्णविसेसप्पयत्तणेण पत्तजच्चतरदव्युवलंभादो (६८११०)। ___ण च एवं संते दंसणस्स अभावो, वज्झत्थे मोत्तूण तस्स अंतरंगत्थे बाबारादो। ण च केवलणाणमेव सत्तिदुवसंजुत्तत्तादो बहिरंतरंगत्थपरिच्छेदयं,' तम्हा अंतरंगोबजोगादो बहिरंगुवजोगेण पुधभूदेण होदव्वमण्णहा सव्वण्हुत्ताणुववत्तीदो। अंतरंग बहिरंगुवजोगसण्णिददुसत्तीजुत्तो अप्पा इच्छिदव्यो। 'जं सामण्णं गहणं...' ण च एदेण सुत्तेणेदं वक्रवाणं विरुज्झदे, अप्पत्थम्मि पउत्तसामण्णसद्दग्गणादो (६६७)
होदु णाम सामण्णेण दसणस्स सिद्धी, केवलदसणस्स सिद्धीच, ण सेस दंसणाणं ।(१००१६)। -प्रश्न-दर्शन है ही नहीं, क्योंकि, उसका कोई विषय नहीं है। बाह्य पदार्थों के सामान्यको ग्रहण करना दर्शन नहीं हो सक्ता, क्योंकि वैसा माननेपर केवलदर्शनके अभावका प्रसंग आ जायेगा। इसका कारण यह है कि जब केवलज्ञानके द्वारा त्रिकाल गोचर अनन्त अर्थ और व्यंजन पर्याय स्वरूप समस्त द्रव्योंको जान लिया जाता है, तब केवल दर्शनके ( जाननेके ) लिए कोई विषय ही ( शेष ) नहीं रहता । यह भी नहीं हो सकता कि समस्त विशेषमात्रका ग्रहण करनेवाला ही केवलज्ञान हो, जिससे कि समस्त पदाथोंका सामान्य धर्म दशनका विषय हो जाये (क्यों कि इसका पहले ही निराकरण कर दिया गया-दे० दर्शन/२/३) इसलिए दर्शनकी कोई पृथक् सत्ता है ही नहीं यह सिद्ध हुआ ! उत्तर-१. अब यहाँ उक्त शंकाका परिहार करते हैं । दर्शन है, क्योंकि सूत्रमें आठकोंका निर्देश किया गया है। आवरणीयके अभाव में आवरण हो नही सक्ता, क्योकि अन्यत्र वैसा
४. सामान्य विशेषात्मक आत्मा केवल सामान्य कैसे कहा जा सकता है क. पा. १/१-२०/६ ३२६/६६०/४ सामगविसेसप्पओ जीवो कधं सामण्णं । ण असेसत्थपयासभावेण रायदोसाणमभावेण य तस्स समाणत्तदंसणादो । प्रश्न-जीव सामान्य विशेषात्मक है, वह केवल सामान्य कैसे हो सकता है । उत्तर-१. क्योंकि जीव समस्त पदार्थोंको बिना किसी भेद-भावके जानता है और उसमें राग-द्वेषका अभाव है, इसलिए जीवमें समानता देखी जाती है। (ध. १२/५,५, ८५/३५५/१)। द्र. सं./टो./४४/१६१/८ आत्मा बस्तुपरिच्छित्ति कुर्वन्निदं जानामौदं न
जानामीति विशेषपक्षपात न करोति; किन्तु सामान्येन वस्तु परिछिनत्ति, तेन कारणेन सामान्यशब्देन आत्मा भण्यते। -वस्तुका ज्ञान करता हुआ जो आत्मा है वह 'मैं इसको जानता हूँ और 'इसको नहीं जानता हूँ', इस प्रकार विशेष पक्षपातको नहीं करता है किन्तु सामान्य रूपसे पदार्थको जानता है। इस कारण 'सामान्य' इस शब्दसे आत्मा कहा जाता है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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