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चतुष्टय
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चरम
२. स्वपरचतुष्टयके लक्षण व उनको योजना विधि रा. वा./४/४२/१५/२५४/१५ यदस्ति तत् स्वायत्तद्रव्यक्षेत्रभावरूपेण भवति नेतरेण तस्याप्रस्तुतत्वात । यथा घटो द्रव्यतः पार्थिवत्वेन, क्षेत्रतया इहत्यतया, कालतो वर्तमानकालसंबन्धितया, भावतो रक्तत्वादिना, न परायत्त व्या दिभिस्तेषामप्रसक्तत्वात् इति ।... कथम् १... -जो अस्ति है वह अाने द्रव्य क्षेत्रकाल भावसे ही है, इतर द्रव्यादिसे नही क्यो कि वे अप्रस्तुत है। जेसे घडा पार्थिवरूपसे, इस क्षेत्रसे, वर्तमानकाल या पर्यायरूपसे तथा रक्तादि वर्तमान भावोसे है पर अन्यसे नहीं क्योंकि वे अपरस्तुत हैं। (अर्थात् जलरूपसे, अन्यक्षेत्रसे, अतीतानागत पर्यायोरूप पिण्ड कपाल आदिसे तथा श्वेतादि भावोंसे नहीं है। यहाँ पृथिवी उसका स्व द्रव्य है और जलादि पर द्रव्य, उसका अपना क्षेत्र स्वक्षेत्र है और उससे अतिरिक्त अन्य क्षेत्र पर क्षेत्र, वर्तमान पर्याय स्वकाल है और अतीतानागत पर्याय पर काल, रक्तादि भाव स्वभाव है और श्वेतादि भाव परभाव)। (विशेष देखो 'द्रव्य', 'क्षेत्र', 'काल' व 'भाव' ।)। ३. स्वपरचतुष्टय की अपेक्षा वस्तमें भेदाभेद तथा अस्तित्व नास्तित्व-दे० सप्तभंगी/५ ।
४. स्वकाल और स्वभाव में भिन्नत्व एकत्व ध.६/१,१,२/२७/११ तीदाणागदपज्जायाणं किण्ण भावववएसो । ण, तेसिं कालत्तभुवगमादो । = प्रश्न-अतीत और अनागत पर्यायोकी भाव संज्ञा क्यों नहीं है । उत्तर नहीं है, क्योकि, उन्हें काल स्वीकार किया गया है। ध.१/४,१,३/४३/४ होदु कालपत्रणा एसा, ण भावपरूवणा; कालभावाणमेयत्तविरोहादो। ण एस दोसो, अदीदाणागयपज्जया तीदाणागयकालो बट्टमाणपज्जया बट्टमाणकालो। तेसिं चेत्र भावसण्णा वि, वर्तमानपर्यायो पलक्षितं द्रव्यं भाव.' इदि पओअसणादो । तोदाणागएकाले हितो बट्टमाणकालो भावसण्णिदो कालत्तणेण अभिग्णो त्ति काल-भावाणमेयत्ताविहादो । प्रश्न-यह काल प्ररूपणा भले ही हो, किन्तु भाव प्ररूपणा नहीं हो सक्ती, क्योकि, काल और भावकी एकताका विरोध है । उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्यो कि, अतीत और अनागत पर्यायें अतीत अनागत काल है, तथा वर्तमान पर्यायें वर्तमान काल हैं। उन्हीं पर्यायोकी ही भाव संज्ञा भी है, क्योंकि 'वर्तमान पर्यायसे उपलक्षित द्रव्य भाव है। ऐसा प्रयोग देखा जाता है.। अतीत और अनागतकालसे चूकि भाव संज्ञा वाला वर्तमान कालस्वरूपसे अभिन्न है, अत: काल और भावकी एकतामें कोई विरोध नहीं है। ५. स्वपर चतुष्टय ग्राहक द्रव्यार्थिक नय (दे० नय/IV/२) ६. युग्मचतुष्टय निर्देश व उनकी योजना विध
-दे० अनेकान्त/४, ५ । ७. कारण कार्यरूप अनन्त चतुष्टय निर्देश नि. सा/ता. वृ. १५ सहजशुदनिश्चयेन अनाद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसहजज्ञान-सह जदर्शन-सहजचारित्र-सहजपरमवीतरागसुखात्मकशुद्धान्तस्तस्वस्वरूपस्वभावानन्त चतुष्टयस्वरूपेण । साद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसभूतव्यवहारैण केवलज्ञानकेवलदर्शनकेवलसुरखकेबलशक्तियुक्तफलरूपानन्तचतुष्टयेन... सहज शुद्ध निश्चयनयसे, अनादि-अनन्त, अमूर्त-अतीन्द्रिय स्वभाववाले और शुद्ध ऐसे सहजज्ञान, सहजदर्शन, सहजचारित्र और सहजपरमवीतरागसुखात्मकशुद्ध अन्त.तत्त्वस्वरूप जो स्वभाव अनन्तचतुष्टयका स्वरूप...। तथा सादि, अनन्त, अमूर्त, अतोन्द्रियस्वभाववाले शुद्धसभूत व्यवहारसे
केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलमुख, केवलशक्तियुक्त फलरूप अनन्त चतुष्टयः ।
८. अनन्त चतुष्टयमें अनन्तत्व कैसे है-दे अनन्त/२। चमकदशमी व्रत-चमक दशमि और चमकाय । जो भोजन
नहि तो अन्तराय । (यह बत श्वेताम्बर व स्थानकवासी आम्नायमें प्रचलित है। (बत विधान संग्रह/पृ० १३०) ( नवलसाह कुत बर्द्धमान पुराण)। चमत्कार-२. लौकिक चमत्कारोंसे विमोहित होना सम्यग्दर्शनका दोष है-दे० 'अमूढदृष्टि' का व्यवहार लक्षण । २. लौकिक चमत्कारोंके प्रति आकर्षित होना लोकमूढता है-दे० मूढता। चमर-विजयाको उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । चमरन्द्र-(प.प./सर्ग/श्लोक नं ) शत्रघ्न द्वारा राजा मधुके मारे जाने पर अपने शूलरत्नको विफल हुआ देख । (६०/३) इसने क्रोधवश मथुरामें महामारो रोग फैलाया था। (६०/२२)। जो पीछे सप्त
ऋषियोके आगमनके प्रभावसे नष्ट हुआ। (६२/६)। चमू-सेनाका एक अंग-दे० सेना। चय-( Common difference ) (ज. प./प्र १०६) विशेष देखो
गणित/II/५/३)। चयधन-दे० गणित/1/५३ । चरण-दे० चारित्र। चरणसार-आ० पद्मनन्दि (ई. श. ११ उत्तरार्ध) कृत प्राकृत ग्रन्थ ।
ग-दे० अनुयोग/१। चरम-१. चरमोत्तम देह स.सि./२/५३/२०१/४ चरमशब्दोऽन्दयवाची । उत्तम उत्कृष्टः । चरम
उत्तमो देहो येषां ते चरमोत्तमदेहाः । परीतसंसारास्तज्जन्मनिर्वाणाऱ्या इत्यर्थः। चरम शब्द अन्त्यवाची है। उत्तम शब्दका अर्थ उत्कृष्ट है। जिनका शरीर चरम और उत्तम है वे चरमोत्तम देहवाले कहे जाते हैं। जिनका संसार निकट है अर्थात उसी भवसे मोक्षको प्राप्त होनेवाले जीव चरमोत्तम देहवाले कहलाते है। (रा. वा/२/५३/ २/१५७/१६)। २.द्विचरम देह
रा. वा./४/२६/२-५/२४४/२० चरमशब्द उक्तार्थः । द्वौ चरमौ देही येषां ते द्विचरमाः, तेषां भावो द्विचरमत्वम् । एतन्मनुष्यदेहद्वयापेक्षमवगन्तव्यम् । विजयादिभ्य' च्युता अप्रतिपतितसम्यक्त्वा मनुष्येषूत्पद्य सयममाराध्य पुनर्विजयादिषुत्पद्य च्युता मनुष्यभवमवाप्य सिद्धयन्ति इति द्विचरमदेहत्वम् । कुतः पुनः मनुष्यदेहस्य चरमत्व मिति चेत् । उच्यते ॥२॥ यतो मनुष्यभवाप्य देवनारकतैर्यग्योना. सिध्यन्ति न तेभ्य एवेति मनुष्यदेहस्य चरमत्वम् ।३। स्यान्मतम्-एकस्य भवस्य चरमत्वम् अन्त्यत्वात, न द्वयोस्ततो द्विचरमत्वमयुक्तमिति: तन्न; कि कारणमः औपचारिकत्वात् । येन देहेन साक्षान्मोक्षोऽवाप्यते स मुख्यश्चरमः तस्य प्रत्यासन्नो मनुष्यभवः तत्प्रत्यासत्तेश्चरम इत्युपचर्यते 14 - स्यान्मतम्-विजयादिषु द्विचरमत्वमार्षविरोधि । कुतः । त्रिचरमत्वात ।...सर्वार्थ सिद्धाः च्युता मनुष्येषत्पद्य तेनैव भवेन सिध्यन्तीति, न लौकान्तिकवदेकभविका एवेति विजयादिषु द्विचरमत्वं नार्षविरोधि, कल्पान्तरोत्पत्त्यनपेक्षत्वाद, प्रश्नस्येति ।। -चरमका अर्थ कह दिया गया है अर्थात् अन्तिम । दो अन्तिम देह हो सो द्विचरम है। दो मनुष्य देहों की अपेक्षा यहाँ द्विचरमत्व समझना
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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