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धर्मध्यान
४. धर्मध्यानके भेद
१. आश, अपाय, विचय आदि ध्यान
रा.सू./६/३६ आज्ञापायविपाक संस्थान विषयास धर्म्य । २६ - आशा. आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान, इनकी विचारणाके लिए मनको एकाग्र करना धर्म्मध्यान है (भ.आ./५/१००८/१२३६ (सू. आ./२६०), (शा./१३/५) (. १३/४४.२६/००/१२) ( म.पू./२९/१२४) (ज्ञा./ २३/५); (अनु./१८); (द्र.सं./टी./४८/२०२३) (भा. पा./टी./ १९४ / २६६/२४); (का. अ./टी./४८०/२६६/४) | रा. बा./१/७/१४/४०/९६ धर्मध्यानं दशविध पासा /१०२/४ स्वसंवेद्यमाध्यात्मिक तदशविधं अपायविचर्य, उपायविषयं जीवविचर्य, अजोवविचर्य, विपाकविचर्य, विरागविषयं भवविषयं संस्थानविचर्य, आज्ञा विचयं हेतुविषयं चेति। -आध्यात्मिक धर्मध्यान दश प्रकारका है-अपायनिचय उपायविचय, जीवविचय, अजीवविचय, विपाकविचय, विरागविषय भवविषय, संस्थानविषय, आचाविषय और हेतुविषय | (ह.पु./६०३०५०), (भा. पा. टी. ११६/२७०/२) ।
२. निश्चय व्यवहार या बाह्य व आध्यात्मिक आदि नेद
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चा. सा./१७२ / ३ धर्म्यध्यानं बाह्याध्यात्मिकभेदेन द्विप्रकारस् । धर्म्यध्यान बाह्य और आध्यात्मिकके भेदसे दो प्रकारका है। (ह. पु. /५६/३६ ) ।
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त. अनु. /४७-४६,६६ मुख्योपचारभेदेन धर्म्यध्यानमिह द्विधा ॥४७ ध्यानाम्यपि ॥४८॥ उत्तम...मध्यम ४६|नियाद व्यवहाराच ध्यानं द्विविधा मुख्य और उपचारके भेदसे धर्म्यध्यान दो प्रकारका है |४७| अथवा उत्कृष्ट मध्यम व जघन्य के भेदसे तीन प्रकारका है | ४६ | अथवा निश्चय व व्यवहारके भेदसे दो प्रकारका है ||
५. आज्ञा विषय आदि ध्यानोंके लक्षण १. अजीव विचय
४. पू. २६/४४ द्रव्याणामप्यजीवानां धर्माधर्मादिसंहिताम्। स्वभावचिन्तनं धर्म्य जीवविचयं मतम् ॥४४॥ धर्म-अधर्म आदि अजीव द्रव्योंके स्वभावका चिन्तवन करना, सो अजीव विचय नामका धध्यान है ४४
२-३ अपाय व उपाय विचय
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भ.आ./नू./१०९२/९५४४ वाण उपाये विचिणादि जिनमदमुवेच्च । विचिणादि व अवाए जीवाण सुभे य असुभे य । १७१२ । - जिनमतको प्राप्त कर कल्याण करनेवाले जो उपाय हैं उनका चिन्तवन करता है, अथवा जीवोंके जो शुभाशुभ भाव होते हैं, उनसे अपायका चिन्तवन करता है। (मु.आ./ ४००); (ध. १३/५,४,२६/ गा. ४०/७२) ।
घ. १३/१४.२६/गा. ३१/०२ रामद्दोस कसा वासनादिकिरिया महमाणाणं । इहपरलोगावा जो बजपरिवजी ॥ ३६१] - पापीयाग करने वाला साधु राग, द्वेष, कषाय और आस्रव आदि क्रियाओं में विद्यमान जीनोंके इहलोक और परलोकसे अपायका चिन्तन करें।
स.सि./ ६ / २६ / ४४६ / ११ जारयन्धवमिध्यादृष्टय सर्वज्ञप्रणतमार्गाद्व मुखमोक्षार्थिन मार्गपरिज्ञानात् सुदूरमेापयन्तीति सम्मागया चिन्तनमपायविषय अथवा मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रेभ्य कथं नाम श्मे प्राणिनोऽपेयुरिति स्मृतिसमन्वाहारोऽपायनिचयः ॥ - मिध्यादृष्टि जीन जन्मान्ध पुरुष समान सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग विमुख होते हैं, उन्हें सम्मार्गका परिज्ञान न होनेसे वे मोक्षार्थी
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१. धर्मध्यान व उसके भेदोंका सामान्य निर्देश
पुरुषों को दूरसे ही त्याग देते हैं, इस प्रकार सन्मार्ग के अपायका चिन्तन करना अपायविचय धर्म्यध्यान है । अथवा - ये प्राणी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रसे कैसे दूर होंगे इस प्रकार निरन्तर चिन्तन करना अपाय विचय धर्मध्यान है । (रा.वा / ६/३६/६-०/६३०/१६). ( म.पू./२१ / १४१-१४२) (भ.आ./वि/१००/१५३६/१८) (रा.सा./०/४१); (झा./३४/१-१०) ।
इ. पु. / ५६ / ३६-४१ संसारहेतवः प्रायस्त्रियोगानां प्रवृत्तय अायो वर्जनं तासां स मे स्यात्कथमित्यलम् | ३ | चिन्ता प्रबन्ध संबन्धः शुभलेश्मानुरञ्जितः । अपायविचमाख्यं तत्प्रथमं धर्म्यमभीप्सितम् |४०| उपायविचयं तासां पुण्यानामात्मसात्क्रिया । उपायः स कथं मे स्यादिति संकल्प संततिः ।४१। मन, वचन और काय इन तीन योगों की प्रवृत्ति हो, प्रायः संसारमा कारण है सो इन प्रवृत्तियोंका मेरे अपाय अर्थात् त्याग किस प्रकार हो सकता है, इस प्रकार शुभश्यामे अनुरंजित जो चिन्ताका प्रबन्ध है वह अपायविचय नामका प्रथम धर्म्यध्यान माना गया है । ३६-४०| पुण्य रूप योगप्रवृत्तियोको अपने आधीन करना उपाय कहलाता है, वह उपाय मेरे किस प्रकार हो सकता है, इस प्रकारके संकल्पोंकी जो सन्तति है वह उपाय faar नामका दूसरा धर्म्यध्यान है ।४१। (चा.सा./१७३/३), (भ.आ./ वि/१७०८/१५३६/१७): (द्र.सं./टी./४८/२०२/१) ।
४. आज्ञाविचय
भ.आ./मू./१७९१/१५४३ पंचैव अस्थिकाया छज्जीवणिकाए दव्वमण्णे य। आणागन्भे भावे आणाविचरण विचिणादि । पाँच अस्तिकाय, छह जीवनिकाय, काल, द्रव्य तथा इसी प्रकार आज्ञाग्राह्य अन्य जितने पदार्थ हैं, उनका यह आज्ञाविचय ध्यानके द्वारा चितवन करता है । ( मू.आ./३६६), (ध.१३/५,४,२६/गा. ३८/७१ ) (म.पु. २९/१२५-१४०) ।
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घ. १३/५,४,२६/गा. ३५-३०/०१ यतम्बिजारियविरहदो वावि । यगहत्तणेण य णाणावरदिएणं च । ३५। हेदूदाहरणासंभवे य सरिसुट हुज्जाणबुज्भेज्जो । सव्वणुसयमवितथं तहाविहं चितए मदिमं | ३६ | अणुवगहपराग्गहपरायणा जं जिणा जयप्पवरा । जियराममोहाण जन्महाबाहो ते ३०० मतिकी दुर्बलता होनेसे, अध्यात्मविद्याके जानकार आचार्योंका विरह होनेसे ज्ञेयकी गह नता होनेसे ज्ञानको आवरण करनेवाले कर्म की तोता होनेसे, और हेतु तथा उदाहरण सम्भव न होनेसे, नदी और सुखोद्यान आदि चिन्तन करने योग्य स्थानमें मतिमान् ध्याता 'सर्वज्ञ प्रतिपादित मत सत्य है' ऐसा चिन्तवन करे । ३५-३६ । यस जगत् में श्रेष्ठ जिनभगवान्, जो उनको नहीं प्राप्त हुए ऐसे अन्य जीवोंका भी अनुग्रह करनेमें तत्पर रहते हैं. और उन्होने राग-द्वेष और मोहपर विजय प्राप्त कर ली है, इसलिए वे अन्यथा वादी नहीं हो सकते । ३७॥ स.सि./१/३६/४४६/६ उपदेष्टुरभावान्मन्दबुद्धित्वात्कर्मोदयात्सूक्ष्मत्वाच्च पदार्थानां हेतुदृष्टान्तीपरमे सति सर्वज्ञप्रणीतमागमं प्रमाणीकृत्य इत्थमेवेदं नान्यथावादिनो जिना" इति गहनपदार्थ श्रद्धानादर्थाउधारणमाज्ञाविषय | अथवा स्वयं विदितपदार्थतत्त्वस्य सत परं प्रति पिपादयिष स्वसिद्धान्ताविरोधेन तत्त्वसमर्थनार्थ तर्कप्रमाणयोजनपर स्मृतिसमन्याहार सर्वज्ञाशाप्रकाशनार्थ त्वादाज्ञाविचय इत्युच्यते |४४१| = उपदेष्टा आचार्योंका अभाव होनेसे, स्वयं मन्दबुद्धि होने से, कर्मोंका उदय होनेसे और पदार्थोंके सूक्ष्म होनेसे, तथा तत्त्वके समर्थन में हेतु तथा दृष्टान्तका अभाव होनेसे सर्वज्ञनीत आगमको प्रमाण करके, 'यह इसी प्रकार है, क्योंकि जिन अन्यथावादी नहीं होते, इस प्रकार गहनपदार्थ के श्रद्धान द्वारा अर्थका अवधारण करना आज्ञा विचय धर्मध्यान है । अथवा स्वयं पदार्थोंके रहस्यको जानता है, और दूसरोंके प्रति उसका प्रतिपादन करना चाहता है, इसलिए स्वसिद्धान्त के अविरोध
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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