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नय
V निश्चय व्यवहार नय
किया जाता है-पहिला तो अभेद द्रव्यमें गुण गुणी रूप अंश या भेद कल्पनाके द्वारा तथा दूसरा सोपाधिक अर्थात् भिन्न द्रव्यों में अभेदरूप। ये दोनों ही द्वैत औपचारिक हैं। और भी देखो उपचार/५ (उपचार कोई पृथक् नय नहीं है । व्यवहारका
नाम ही उपचार है)। मो. मा. प्र./७/३६६/३ उपचार निरूपण सो व्यवहार । ( मो. मा. / ७/३६६/११):
३. व्यवहारनय व्यभिचारी है स. सा./पं. जयचन्द/१२/क. ६ व्यवहारनय जहाँ आत्माको अनेक भेद
रूप कहकर सम्यग्दर्शनको अनेक भेदरूप कहता है, वहाँ व्यभिचार दोष आता है, नियम नहीं रहता। और भी देखो नय/V/८/२ व्यभिचारी होनेके कारण व्यवहारनय निषिद्ध
४. व्यवहारनय लौकिक रूढ़ि है स. सा./आ./८४ कुलाल कलशं करोत्यनुभवति चेति लोकानामनादि
रूढोऽस्ति तावद्व्यवहार'। कुम्हार कलशको बनाता है तथा भोगता है ऐसा लोगोंका अनादिसे प्रसिद्ध व्यवहार है। पं. घ./पू./५६७ अस्ति व्यवहारः किल लोकानामयमलब्धबुद्धित्वात् । योऽयं मनुजादिवपुर्भवति सजीवस्ततोऽप्यनन्यत्वात् । =अलब्धबुद्धि होनेके कारण लोगोंका यह व्यवहार होता है, कि जो ये मनुष्यादिका शरीर है, वह जीव है । (पं.ध./3/५६३)। और भो देखो नयVIR/७ में स.म-(व्यवहार लोकानुसार प्रवर्तता है)।
५. व्यवहारनय अध्यवसान है स.सा./आ./२७२ निश्चयनयेन पराश्रितं समस्तमध्यवसान बन्धहेतुत्वे मुमुक्षोःप्रतिषेधयता व्यवहारनय एव किल प्रतिषिद्ध', तस्यापि पराश्रितत्वाविशेषात् । बन्धका हेतु होनेके कारण, मुमुच जनोंको को नश्चयनयके द्वारा पराश्रित समस्त अध्यवसानका त्याग करनेको कहा गया है, सो उससे वास्तवमें व्यवहारनयका ही निषेध कराया है क्योंकि, (अध्यवसान की भाँति) व्यवहारनयके भी पराश्रितता समान ही है।
६. व्यवहारनय कथन मात्र है स.सा./मू./गा. ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स चरितदसणं णाणं । णविणाणं ण चरित सणं जाणगो सुद्धो ७१ पंथे मुस्सत पस्सिदूण लोगा भणं ति ववहारी। मुस्सदि एसो पंथो ण य पंथो मुस्सदे कोई। तह...जीवस्स एस वण्णो जिणेहि ववहारदो उत्तो।। -ज्ञानीके चारित्र है, दर्शन है, ज्ञान है, ऐसा व्यवहारसे कहा जाता है। निश्चयसे तो न ज्ञान है, न दर्शन है और म चारित्र है 11 मार्ग में जाते हुए पथिकको लुटता देखकर ही व्यवहारी जन ऐसा कहते हैं कि यह मार्ग लुटता है। वास्तव में मार्ग तो कोई लुटता नहीं है ।।८। (इसी प्रकार जीवमें कर्म नोकमौके वर्णादिका संयोग देखकर ) जिनेन्द्र भगवान्ने व्यवहारनयसे ऐसा कह दिया है कि यह वर्ण (तथा देहके संस्थान
आदि) जीवके है।५। स. सा./आ./४१४ द्विविधं द्रव्यलिङ्ग भवति मोक्षमार्ग इति प्ररूपणप्रकारः, स केवल व्यवहार एव न परमार्थः। श्रावक व श्रमणके लिंगके भेदसे दो प्रकारका मोक्षमार्ग होता है, यह केवल प्ररूपण करनेका प्रकार या विधि है । वह केवल व्यवहार ही है. परमार्थ नहीं।
.. व्यवहारनय साधकतम नहीं है प्र. सा./त.प्र./१८१ निश्चयनय एव साधकतमो न पुनरशुद्धद्योतको व्यवहारनयः। -निश्चयनय ही साधकतम है, अशुद्धका द्योतन करनेवाला व्यवहारनय नहीं। देखो नय/V/E/R(व्यवहारनयसे परमार्थवस्तुकी सिद्धि नहीं होती।
८. व्यवहारनय सिद्धान्त विरद्ध है तथा नयामास है पं.ध./पू/श्लोक नं० ननु चासद्भूतादिर्भवति स यत्रेत्यतद्गुणारोप.। दृष्टान्तादपि च यथा जीवो वर्णादिमानिहास्त्विति चेत् ।२५२। तन्न यतो न नयास्ते किन्तु नयाभाससंज्ञका. सन्ति । स्वयमप्यतहगुणत्वादव्यवहाराविशेषतो न्यायात् ।५५३३ सोऽयं व्यवहारः स्यादव्यवहारो यथापसिद्धान्ताव । अप्यपसिद्धान्तत्वं नासिद्ध स्यादनेकधर्मित्वात ५६८॥ अथ चेद्धटकर्तासौ घटकारो जनपदोक्तिलेशोऽयम् । दुरो भवतु तदा का नो हानिर्यदा नयाभासः१५७६।-प्रश्नदूसरी वस्तुके गुणोको दूसरी वस्तुमें आरोपित करनेको असदभूत व्यवहारनय कहते हैं (दे० नय/V/५/४-६)। जैसे कि जीवको वर्णादिमान कहना १५५२। उत्तर-यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि स्वयं अतद्गुण होनेसे, न्यायानुसार अव्यवहारके साथ कोई भी विशेषता न रखने के कारण, वे नय नहीं हैं, किन्तु नयाभास संज्ञक है ।५५३। ऐसा व्यवहार क्योंकि सिद्धान्त विरुद्ध है, इसलिए अब्यवहार है। इसका अपसिद्धान्तपना भी असिद्ध नहीं है, क्योंकि यहाँ उपरोक्त दृष्टान्तमें जीव व शरीर ये दो भिन्न-भिन्न धर्मी हैं पर इन्हें एक कहा जा रहा है ।५६८। प्रश्न-कुम्भकार घड़ेका कर्ता है, ऐसा जो लोकव्यवहार है वह दुनिवार हो जायेगा अर्थात उसका लोप हो जायेगा । १५७१। उत्तर-दुर्निवार होता है तो होओ. इसमें हमारी क्या हानि है ; क्योकि वह लोकव्यवहार तो नयाभास है। (५७१)
९. व्यवहारनयका विषय सदा गौण होता है स.सि./५/२२/२६२/४ अध्यारोप्यमाणः कालव्यपदेशस्तव्यपदेशनिामत्तस्य कालस्यास्तित्वं गमयति । कुतः; गौणस्य मुख्यापेक्षत्वात । -(ओदनपाक काल इत्यादि रूपसे) जो काल संज्ञाका अध्यारोप होता है, वह उस संज्ञाके निमित्तभूत मुख्यकालके अस्तित्वका
ज्ञान कराता है। क्योंकि गौण व्यवहार मुख्यकी अपेक्षा रखता है। ध.४/१,५,१४५/४०३/३ के वि आइरिया.. कज्जे कारणोवयारमवलंबिय बादरट्ठिदीए चेय कम्मट्टिदिसण्णमिच्छति, तन्न घटते, 'गौणमुख्ययोर्मुल्ये संप्रत्यय' इति न्यायात् । = कितने ही आचार्य कार्य में कारणका उपचारका अवलम्बन करके बादरस्थितिकी ही 'कर्मस्थिति' यह संज्ञा मानते हैं; किन्तु यह कथन घटित नहीं होता है। क्योंकि, 'गौण और मुख्यमें विवाद होनेपर मुख्यमें ही संप्रत्यय होता है' ऐसा न्याय है। न. दी./२/१२/३४ इदं चामुख्यप्रत्यक्षम् उपचारसिद्धत्वात । वस्तुतस्तु परोक्षमेव मतिज्ञानत्वात् । =यह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष अमुख्य अर्थात् गौण प्रत्यक्ष है; क्योंकि उपचारसे ही इसके प्रत्यक्षपनेकी सिद्धि है। वस्तुतः तो यह परोक्ष ही है; क्योंकि यह मतिज्ञानरूप है। (जिसे इन्द्रिय व बाह्यपदार्थ सापेक्ष होनेके कारण परोक्ष कहा गया है।) न.दी./३/३०/७५ परोपदेशवाक्यमेव परार्थानुमानमिति केचिदा त एवं प्रष्टव्याः; .तरिक मुख्यानुमानम् । अथ गौणानुमानम् । इति, न तावन्मुख्यानुमानम् वाक्यस्याज्ञानरूपत्वात् । गौणानुमानं तवाक्यमिति त्वनुमन्यामहे, तत्कारणे तद्वचपदेशोपपत्तेरायुर्घ तमित्यादिबत् । - (पंचावयव समवेत ) परोपदेश वाक्य ही परार्थानुमान है', ऐसा किन्हीं (नैयायिकों) का कहना है। पर उनका यह कहना ठीक नहीं है। हम उनसे यह पूछते हैं वह वाक्य मुख्य अनुमान है या कि गौण अनुमान है। मुख्य तो वह हो नहीं सकता, क्योंकि वाक्य अज्ञानरूप है। यदि उसे गौण कहते हो तो, हमें स्वीकार है क्योंकि ज्ञानरूप मुख्य अनुमानके कारण ही उसमें ( उपचार या व्यवहारसे) यह व्यपदेश हो सकता है। जैसे 'घी आयु है' ऐसा व्यपदेश होता है। प्रमाणमीमांसा (सिंघी ग्रन्थमाला कलकत्ता/ २/१/२)। और भी दे० नय/VIE/R/३ (निश्चय मुख्य है और व्यवहार गौण)।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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