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निक्षेप
ध. १४/५ ६,७/४/१ कधं णामबंधस्स तत्थ संभवो ण णामेण विणा इच्छिदत्थपरूवणाए अणुववत्तीदो। प्रश्न- इन दोनों (ऋजुसून्न व शब्द ) नयो में नामबन्ध कैसे सम्भव है ? उत्तर - नहीं; क्योंकि, नामके बिना इच्छित पदार्थका कथन नहीं किया जा सकता; इस अपेक्षा नामबन्धको इन दोनों पार्थक) नयोका विषय स्वीकार किया है। (च. ११/५४.८/५०/५)।
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क. पा./१/१.१२-१४२२१/२०१० अणे
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घर-खेस-कालभावेहि पुधभूदेसु एक्को घडसद्दो वट्टमाणो उबलब्भदे, एवमुवलभमाणे कथं सक्षणए पज्जवट्ठिए णामणिक्खेवस्स संभवो त्ति । ण; एदम्मि गए सि सदा दव्य प्रेस काल भावनायिभावेण भिष्णमन्याभावादो तत्व के दुग्ध होगा कितु यस्स विसओ परूविज्जदे ण च सुणएसु किं पि दुग्धमत्थि । प्रश्न- द्रव्य क्षेत्र काल और भावकी अपेक्षा भिन्न-भिन्न अनेक घटरूप पदार्थों में ( सादृश्य सामान्य रूप ) एक घट शब्द प्रवृत्त होता हुआ पाया जाता है। जबकि 'घट' शब्द इस प्रकार उपलब्ध होता है तब पर्यायार्थिक शब्दनयमें नाम निक्षेप कैसे सम्भव है; ( क्योकि पर्यायार्थिक नयोंमें सामान्यका ग्रहण नहीं होता दे० नय / IV / ३ ) | उत्तर - नहीं; क्योकि, इस नयमें द्रव्य-क्षेत्र -काल और भावरूप वाच्यसे भेदको प्राप्त हुए उन अनेक घट शब्दोका परस्पर अन्वय नहीं पाया जाता है, अर्थात् वह नय द्रव्य क्षेत्रादिके भेदसे प्रवृत्त होनेवाले घट शब्दोको भिन्न मानता है और इसलिए उसमें नामनिक्षेप बन जाता है। प्रश्न- यदि ऐसा है तो शब्दनयमें संकेतका ग्रहण करना कठिन हो जायेगा उत्तर ऐसा होता है तो होजा, किन्तु यहाँ तो शब्दtय विषयका कथन किया है।
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दूसरे सुनयोंकी प्रवृत्ति, क्योंकि, सापेक्ष होती है, इसलिए उनमें कुछ भी कठिनाई नहीं है। ( विशेष दे० आगम /४/४ ) ।
७. शब्दनयोंमें द्रव्य निक्षेप क्यों नहीं
ध. १०/४,२,२,४/१२/१ किमिदि दव्वं णेच्छदि । पज्जायंतरसंकंतिविरोहादी सभेपण अत्थपढणवावदम्मि वत्युविसेसाणे णाम-भावं मोण पहाणत्ताभावादो । प्रश्न- शब्दनय द्रव्य निक्षेपको स्वीकार क्यो नहीं करता ? उत्तर- एक तो शब्दनयकी अपेक्षा दूसरी पर्यायका संक्रमण मामनेने विरोध आता है। दूसरे, वह शब्दभेद अर्थ के कथन करनेमें व्याप्त रहता है (दे० नय/I/४/५ ), अत: उसमें नाम और भावकी ही प्रधानता रहती है, पदार्थोंके भेदोंकी प्रधानता नहीं रहती; इसलिए शब्दनय द्रव्य निक्षेपको स्वीकार नहीं करता । घ. १३/०९/२००/३ मा दव्वाविणाभावे संते वितत्य दहि तत्स सक्ष्णयस्स अस्थिन्ताभावादी सदुवारेण जवारेण च अत्यभेदमिच्छंतर सद्दणए दो चेत्र णिवखेवा संभवंति त्ति भणिद होदि । = यद्यपि नाम द्रव्यका अविनाभावी है ( और वह शब्दनयका विषय भी है ) तो भी द्रव्य में शब्दनयका अस्तित्व नहीं स्वीकार किया गया है । अतः शब्द द्वारा और पर्याय द्वारा अर्थभेदको स्वीकार करनेवाले (शब्दभेदसे अर्थ भेद और अर्थभेदसे शब्दभेदको स्वीकार करनेवाले ) शब्द नय में दो ही निक्षेप सम्भव है ।
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क. पा. १/१,१३-१४/२९४ / २६४/४ दव्य गरियो। लिंगादे (1) सहवाचियाणमेयत्ताभावे दव्वाभावादो। वंजणपज्जाए पच्च शुद्ध निउजु अस्थि दवं लिगसंख्याका कारय पुरसोब गाणं पादेयत भुभगमादो शब्द नय प्रत्यनिक्षेप भी सम्भव नहीं है क्योंकि, इस नयकी में लिगादिकी अपेक्षा शब्दक वाच्यभूत पदार्थों में एकत्व नहीं पाया जाता है। किन्तु व्यंजनपर्यायकी अपेक्षा शुद्धसूत्रयमें भी द्रव्यनिक्षेप पाया जाता है, क्योंकि, ऋजुसूत्रनय लिग, संख्या, काल, कारक, पुरुष और उपग्रहमेंसे प्रत्येकका अभेद स्वीकार करता है (अर्थात् में द्रव्य निक्षेप बन जाता है परन्तु शब्द नयमें नहीं ) ।
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४. स्थापना निक्षेप निर्देश
४. स्थापना निक्षेप निर्देश
१. स्थापना निक्षेप सामान्यका लक्षण
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स.सि./१/१/१७/४ काष्ठचित्रकर्मा निक्षेपादिषु सोऽयं हति स्थाप्यमाना स्थापना कष्टकर्म पुस्तकर्म, चित्रकर्म और अक्ष निक्षेप आदिमें 'यह वह है' इस प्रकार स्थापित करनेको स्थापना कहते है ( रा. मा./१/२/२/२०/१८) ।
रा. वा / १/५/२/२८/१८ सोऽयमित्यभिसंबन्धत्वेन अन्यस्य व्यवस्थापनामात्र स्थापना | = 'यह वही है' इस प्रकार अन्य वस्तुमें बुद्धिके द्वारा अन्यका आरोपण करना स्थापना है । (ध. ४/१.५, १/३१४/१); (गो.क./ मृ. २३/५३) (ता/१/११) (पं. ७/१/०४२ ) ।
श्लो. वा./२/१/५/श्लो. ५४/२६३ वस्तुनः कृतसंज्ञस्य प्रतिष्ठा स्थापना मता । = कर लिया गया है नाम निक्षेप या संज्ञाकरण जिसका ऐसी बस्तुकी उन वास्तविक धर्मो के बयारोपसे 'यह वही है ऐसी प्रतिष्ठा करना स्थापनानिक्षेप माना गया है।
२. स्थापना निक्षेपके भेद
१. सद्भाव व असद्भाव स्थापना रूप दो भेद
रतो. मा २/१/१/रलो. २४/२६२ सद्भावेतरभेदेन द्विधा तखाधिशेषतः ।
= वह सद्भावस्थापना और असद्भावस्थापनाके भेदसे दो प्रकारका है । (ध. १/१.१.१/२०/१)
न. च वृ./ २०३ सायार इयर ठवणा । साकार व अनाकारके भेद से स्थापना दो प्रकार है ।
२. काष्ठ कर्म आदि रूप अनेक भेद
.. १/४.१/ सूत्र ५२ / २४८ जा साठवणकी गाम सा कट्टकम्मे वा चिचकम्मे वा पोतकम्मे वा लेप्यकम्मे मा कम्मे वा सेलकम्मेसु वा गिहम्मेसु वा भित्तिकम्मेसु वा दंतकम्मेसु वा भेंडक मे वा अक्खो वा वराडओ वा जे चामण्णे एवमादिया ठेवणार ठविज्जति कदित्ति सा सव्वा ण कदी णाम १५२ - जो वह स्थापनाकृति है। यह काष्ठकमोंमें, अथनः चित्रर्मोने, अथवा पोतकमोंमें, अथवा सेप्यकमोंमें, अथवा मोंगे अपन शेलक्योंमे अथवा गृहफर्मोंमें, अथवा भिशियमोंमें, अथमा दन्तकमोंमें, अथवा भडकम अथवा अक्ष या वराटक ( कौडी व शतर जका पासा); तथा इनको आदि लेकर अन्य भी जो 'कृति' इस प्रकार स्थापना में स्थापित किये जाते हैं, वह सब स्थापना कृति कही जाती है ।
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नोट - (धवलामे सर्वत्र प्रत्येक विषय में इसी प्रकार निक्षेप किये गये हैं ।) (ष. वं. १३/५.३ / सूत्र १० /१), (ष खं, १४ / ५,६ / सू. ६/५)
२. सद्भाव असद्भाव स्थापनाके लक्षण
श्लो. वा. २/१/५/५४/२६३/१७ तत्राध्यारोप्यमाणेन भावेन्द्रादिना समाना प्रतिमा सद्भाव स्थापना मुख्यदर्शिनः स्वयं तस्यास्तद बुद्धिस भवाद । कथञ्चित् सादृश्य सद्भावात् । मुख्याकारशून्या वस्तुमात्रा पुनरसद्भावस्थापना परोपदेशादेव तत्र सोऽयमिति सप्रत्ययात् । भाव निक्षेपके द्वारा कहे गये अर्थाद वास्तविक पर्यायसे परिणत इन्द्र आदिके समान बनी हुई काष्ठ आदिकी प्रतिमामें आरोपे हुए उन इन्द्रादिकी स्थापना करना सद्भावस्थापना है; क्योंकि, किसी अपेक्षासे इन्द्रआदिका साहस्य यहाँ विद्यमान है, तभी तो मुख्य पदार्थको जीवकी तिस प्रतिमा के अनुसार साहस्यसे स्वयं 'यह वही है ऐसी बुद्धि हो जाती है। मुख्य आाकारोंसे शुन्य केवल वस्तुमें 'यह वही है ऐसी स्थापना कर लेना असद्भाव स्थापना है; क्योकि मुख्य पदार्थको देखनेवाजे भी जीवको दूसरोंके उपदेश से ही 'यह वही है' ऐसा समीचीन
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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