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निक्षेप
५. द्रव्य निक्षेपके भेद व लक्षण
असदृश द्रव्य है वह असद्भावस्थापना है। प्रश्न-सब द्रव्यों मे सत्त्व ६.तद्वयतिरिक्त नो आगम द्रव्य निक्षेप दो प्रकार है-कर्म व नोकमा
और प्रमेयत्व आदिके द्वारा समानता पायी जाती है 1 उत्तर-द्रव्योमें इन धर्मोकी अपेक्षा समानता भले ही रहे, किन्तु विवक्षित वर्ण
(स. सि./१/५/१८/७); (रा. वा./१/३/७/२६/११); (श्लो. वा. २/२/ हाथ और पैर आदिको अपेक्षा समानता न देखकर असमानता कही
१/श्लो.६३/२६%); (ध.१/१,१,१/२६/४); (ध.३/१.२,२/११/१); (ध. जाती है।
४/१,३१/६/8); (गो.क /मू/६३/५४)। ध. १३/५,३,१०/१०/१२ कथमत्र स्पृश्यस्पर्शकभावः। ण, बुद्रीए एयत्त
७. नोकर्म तद्वयतिरिक्त दो प्रकारका है-लौकिक व लोकोत्तर ।-(ध. मावण्णेसु तवरोहादो सत्त-पमेयत्तादीहि सव्यस्स सबबिसयफोसणु
१/१,१,२/२६/६); (ध.४/१,३.१/७/१)। बलं भादो वा । प्रश्न-यहाँ ( असद्भाव स्थापनामें ) स्पी-स्पर्शक
८. लौकिक व लोकोत्तर दोनों ही तद्वयतिरिक्त तीन तीन प्रकारके है-- भाव कैसे हो सकता है। उत्तर-नहीं, क्योकि, बुद्धिसे एकत्वको
सचित्त, अचित्त व मिश्र :-(ध.१/१,१,१/२७/१७. २८/१). (ध.६॥ प्राप्त हुए उनमें स्पर्श्व-स्पर्शक भावके होनेमे कोई विरोध नहीं १,७,१/१८४/७)। आता। अथवा सत्व और प्रमेयत्व आदिकी अपेक्षा सर्वका सर्व
६. आगम द्रव्य निक्षेपके ह भेद है-स्थित, जित, परिचित, वाचनोपगत. विषयक स्पर्शन पाया जाता है।
सूत्रसम, अर्थसम, ग्रंथसम, नामसम और घोषसम।-(ष खं. ६/४,१
सू.५४/२५१); (ष, वं.१४/५.६/सू. २५/२७) । ५. द्रव्य निक्षेपके भेद व लक्षण
१०.ज्ञायक शरीरके भी उपरोक्त प्रकार स्थित जित आदि भेद है
(ष खं.१/४,१/सू. ६२/२६८)। ..द्रव्य निक्षेप सामान्यका लक्षण
११. तद्वयतिरिक्त नो आगमके अनेक भेद हैं- १. ग्रन्थिम, २. वाइम, रा, वा.१/५/३-४/२८/२१ यद् भाविपरिणामप्राप्ति प्रति योग्यतामाद- ३. वेदिम, ४. पूरिम, ५. सघातिम, ६. अहोदिम, ७. णिवखेदिम, ८. धानं तद् द्रव्यमित्युच्यते। .. अथवा अतद्भाव वा द्रव्य मित्युच्यते । ओव्वेलिम, ६. उद्वेलिम, १०. वर्ण, ११. चूर्ण, १२. गन्ध, १३. विले. यथेन्द्रमानीत काष्ठमिन्द्रप्रतिमापर्यायप्राप्ति प्रत्यभिमुखम् इन्द्रः पन, इत्यादि । (ष.ख/४,१/सू.६५/२७२) । इत्युच्यते। आगामी पर्यायकी योग्यतावाले उस पदार्थको द्रव्य नोट-(इन सब भेद प्रभेदों को तालिका दे० निक्षेप/१/२). कहते है, जो उस समय उस पर्यायके अभिमुख हो, अथवा अतद्भावको द्रव्य कहते हैं। जैसे-इन्द्रप्रतिमाके लिए लाये गये काष्ठको भी
३. आगम द्रव्य निक्षेपका लक्षण इन्द्र कहना । (क्योकि, जो अपने गुणो व पर्यायो को प्राप्त होता है, स, सि./१/५/१८/२ जीवप्राभृतज्ञायी मनुष्यजीवप्राभृतज्ञायी वा अनुपहुआ था और होगा उसको ही द्रव्य कहते है दे० द्रव्य/१/१) (श्लो. युक्त आत्मा आगमद्रव्यजीवः। - जो जीवविषयक या मनुष्य जीव
वा.२/१/२श्लो.६०/२६६); (ध.१/१,१,१/२०१६); (त. सा./१/१२)। विषयक शास्त्रको जानता है, किन्तु वर्तमानमें उसके उपयोग प.ध./पू./७४३ अजुसूत्रनिरपेक्षतया, सापेक्ष भाविनै गमादिनयै । छद्म- रहित है वह आगम द्रव्यजीव है। ( इसी प्रकार अन्य भी जिस जिस
स्थो जिनजीवो जिन इव मान्यो यथात्र तद्रव्यम्। -ऋजुसूत्रनय- विषय सम्बन्धी शास्त्रको जानता हुआ उसके उपयोगसे रहित रहनेकी अपेक्षा न करके और भाविनैगमादिक नयोकी अपेक्षासे जो कहा वाला आत्मा उस उस नामवाला ही आगम द्रब्य है। जैसे मगल जाता है, वह द्रव्य निक्षेप है। जैसे कि छद्मस्थ अवस्थामें वर्तमान विषयक शास्त्रको जाननेवाला आत्मा आगम द्रव्य मंगल है।) (रा. जिन भगवान के जीवको जिन कहना।
वा./२/2/1/२६/३); (श्लो, वा. २/१/५/श्लो. ६१/२६७); (ध.३/१,२, नय/11/३ जैसे-आगे सेठ बननेवाले बालकको अभीसे सेठ कहना २/१२/११); (ध.४/१,३,१११/२); (ध. १/१,१,१/८३/३); (गो.क./अथवा जो राजा दीक्षित होकर श्रमण अवस्थामें विद्यमान है उसे भी मू./५४/५३); (न, च, वृ./२७४)। राजा कहना)।
ध.१/१,११/२१/१ तत्थ आगमदो दवमंगलं णाम मंगलपाहुडजाणओं २. द्रव्य निक्षेपके भेद-प्रभेद
अणुवजुत्तो, मंगल-पाहुड़-सद्द-रयणा वा, तस्सत्थ-वणवखर-रयणा
वा। मंगल प्राभृत अर्थात् मंगल विषयका प्रतिपादन करनेवाले १. द्रव्य निक्षेपके दो भेद हैं-आगम व नोआगम (प.खं/४.१/स.
शास्त्रको जाननेवाला, किन्तु वर्तमानमे उसके उपयोगसे रहित जीव५३/२५०); (ष रवं. १४/५,६/सूत्र ११/७); ( स.सि./१/५/१८१); (रा.
को आगम द्रव्यमंगल कहते हैं। अथवा मंगलविषयके प्रतिपादक वा./१/१/५/२६/३); (श्लो.वा,२/१/५/श्लो,६०/२६६); (ध.१/१,१,२/
शास्त्रको शब्द रचनाको आगम द्रव्यमंगल कहते है। अथवा मंगल२०/७); (ध. ३/१,२,२/१२/३); (घ. ४/१,३,१/५/१); (गो.क./मू./ विषयके प्रतिपादक शास्त्रकी स्थापनारूप अक्षरोकी रचनाको भी ५४/५३); (न. च.व./२७४ )।
आगम द्रव्य मंगल कहते है । (ध. ५/१,६,१/२/३)। २. नो आगम द्रव्यनिक्षेप तीन प्रकारका है-ज्ञायक शरीर, भावी व ४. नोआगम द्रव्य निक्षेपका लक्षण तद्वयतिरिक्त । (प.वं.१/४.१/सूत्र ६१/२६७) (स.सि./२/५/१८/३), (रा. वा./१/५/७/२६/८); (श्लो.वा. २/१/५/श्लो .६२/२६७), (ध.१/
(पूर्वोक्त आगमद्रव्यकी आत्माका आरोप उसके शरीरमें करके
उस जोवके शरीरको ही नोआगम द्रव्य जीव या नोआगम द्रव्य १,१,१/२१/२); (ध.३/१,२,२/१३/२); (ध.४/१,३,१/६/१); (गो.
मगल आदि कह दिया जाता है। और वह शरीर ही तोन प्रकारका क.मू.५५/५४); (न. च. वृ./२७५) । ३. ज्ञायक शरीर तीन प्रकारका है-भूत, वर्तमान, व भात्री।-(श्लो.
है भूत, भावि व वर्तमान । अथवा उसके शरीरसे सम्बन्ध रखनेवाले
अन्य जो कर्म या नोकर्म रूप पदार्थ हैं उनको भी नोआगम द्रव्य वा. २/१//श्लो.६२/२६७); (ध. १/१,१,१/२१/३), (ध.४/१.३.१/
कह दिया जाता है। इसोका नाम तद्वयतिरिक्त है। इनके पृथक्६/२); (गो.क/मू./५५/५४)।
पृथक् लक्षण आगे दिये जाते हैं । ) ४. भूत ज्ञायक शरीर तीन प्रकारका है-च्युत, च्यावित व त्यक्त ।
५. ज्ञायक शरीर सामान्य व विशेष लक्षण (ष. ख.६/४,१/ सू.६३/२६६); ( श्लो. वा. २/१/५/श्लो.६२/२६७); (ध.१/१,१,१/२२/३); (ध.४/१/३,१/६/३); (गो.क./मू./५६/५४)।
१. ज्ञायक शरीर सामान्य ५. त्यक्त ज्ञायकशरीर तीन प्रकारका है-भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी ब स.सि./१/५/१८/४ तत्र ज्ञातुर्यच्छरीरं त्रिकालगोचर तज्ज्ञायकशरीरमा प्रायोपगमन | -(ध.१/११,१/२३/३); (गो.क./म् /५६/५६)।
-ज्ञाताका जो त्रिकाल गोचर शरीर है वह ज्ञायकशरीर नोआगम
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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