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ध्येय
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ध्रुव मतिज्ञान
५. भावरूप ध्येय निर्देश
१. भावरूप ध्येयका लक्षण त.अनु /१००,१३२ भावः स्याद्गुणपर्ययौ ।१०। भावध्येयं पुनध्येयसंनिभध्यानपर्यय' ।१३२॥ =गुण व पर्याय दोनों भावरूप ध्येय है ।१००। ध्येयके सदृश्य ध्यानकी पर्याय भावध्येयरूपसे परिगृहीत है ।१३२॥
२. सभी द्रव्योंके यथावस्थित गुणपर्याय ध्येय हैं ध.१३/१,४,२६/७० बारसअणुपेकरवाओ उपसमसेडिखवगसेडिचडविहाणं तेवीसवग्गणाओ पंचपरिसट्टाणि द्विदिअणुभागपयडिपदेसादि सव्वं पि ज्झेयं हो दि त्ति दट्ठव्वं । -बारह अनुप्रेक्षाएँ, उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणीपर आरोहणविधि, तेईस वर्गणाएँ. पाँच परिवर्तन, स्थिति
अनुभाग प्रकृति और प्रदेश आदि ये सब ध्यान करने योग्य हैं। त-अनु./११६ अर्थव्यञ्जनपर्याया. मूर्तामूर्ता गुणाश्च ये। यत्र द्रव्ये
यथावस्थास्तांश्च तत्र तथा स्मरेत् ।१९६१ =जो अर्थ तथा व्यंजनपर्यायें और मूर्तीक तथा अमूर्तीक गुण जिस द्रव्यमें जैसे अवस्थित हैं, उनको वहाँ उसी रूपमें ध्याता चिन्तन करे ।
३. रत्नत्रय व वैराग्यकी भावनाएँ ध्येय हैं ध.१३/५,४,२६/२३/६८ पुबकयब्भासो भावणाहि झाणस्स जोग्गदमुवेदि । ताओ य णाणदं सणचरित्तवेरग्गजणियाओ।२३।-जिसने पहले उत्तम प्रकारसे अभ्यास किया है, वह पुरुष ही भावनाओं द्वारा ध्यानको योग्यताको प्राप्त होता है। और वे भावनाएँ ज्ञान दर्शन चारित्र
और वैराग्यसे उत्पन्न होती हैं । (म.पु./२१/१४-६५) नोट-(सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्रकी भावनाएँ-दे० वह वह नाम
और वैराग्य भावनाएँ-दे० अनुप्रेक्षा) ४. ध्यान में माने योग्य कुछ भावनाएँ मो.पा./मू./८१ उद्घद्धमज्मलोए केइ मज्म ण अहमेगागी। इह भावणाए जोई पावंति हु सासयं ठाणं ।८१1 -ऊर्ध्व मध्य और अधो इन तीनों लोकोंमें, मेरा कोई भी नहीं, मैं एकाकी आत्मा हूँ। ऐसी भावना
करनेसे योगी शाश्वत स्थानको प्राप्त करता है। (ति.प./६/३५) र.क.श्रा./१०४ अशरणमशुभमनित्यं दु.खमनात्मानमावसामि भव । मोक्षस्तद्विपरीतारमेति ध्यायं तु सामयिके ।१०४। - मैं अशरणरूप, अशुभरूप, अनित्य, दुखमय और पररूप संसारमें निवास करता हूँ
और मोक्ष इससे 'विपरीत है, इस प्रकार सामायिकमें धयान करना चाहिए। इ उ./२७ एकोऽहं निर्ममः शुद्धो ज्ञानी योगीन्द्रगोचरः । बाह्याः संयोगजा
भावा मत्तः सर्वेऽपि सर्वथा ।२७१ =मैं एक हूँ, निर्मम हूँ, शुद्ध हूँ, ज्ञानी हूँ, ज्ञानी योगीन्द्रोके ज्ञानका विषय हूँ। इनके सिवाय जितने भी स्त्री धन आदि संयोगीभाव हैं वे सब मुझसे सर्वथा भिन्न हैं। (सामायिक पाठ/अ./२६), (स.सा /ता.वृ./१८७/२५७/१४ पर उद्धृत) ति.प./६/२४-६५ अहमेक्को रबलु सुद्धो दंसणणाप्पगो सदारूबी णवि
अस्थि मज्झि किचिवि अण्णं परमाणुमेत्तं पि।२४। णाहं होमि परेसिं ण मे परे संति णाणमहमेक्को। इदि जो झायदि झाणे सो मुच्चइ अठकम्भेहिं ।२६। णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कारण तेसिं । एवं खलु जो भाओ सो पाबइ सासयं ठाणं ।२८। णाई होमि परेसिं ण मे परे णत्थि मज्झमिह किं पि । एवं खलु जो भावइ सो पाबइ सव्वकल्लाणं ॥३४॥ केवलणाणसहावो केवलदसणसहावो सुहमइओ। केवलविरियसहाओ सोहं इदि चिंतए जाणी।४६ - मै निश्चयसे सदा एक, शुद्ध, दर्शनज्ञानात्मक और अरूपी हूँ । मेरा परमाणुमात्र भी अन्य कुछ नहीं है ।२४। मै न परपदार्थोंका हूँ, और न परपदार्थ मेरे हैं, मैं
तो ज्ञानस्वरूप अकेला ही हूँ।२६ न मैं देह हूँ, न मन हूँ, न वाणी हूँ और न उनका कारण ही हूँ ।२८। (प्र.सा/१६०); (आराधनासार/ १०१)। न मैं परपदार्थोका हूँ, और न परपदार्थ मेरे है। यहाँ मेरा कुछ भी नहीं है ।३४। जो केवलज्ञान व केवलदर्शन स्वभावसे युक्त, सुखस्वरूप और केवल वीर्यस्वभाव हैं वही मैं हूँ, इस प्रकार ज्ञानी जीवको विचार करना चाहिए।४६। (न.च.व./३६१-३६७,४०४-४०८); (सामायिक पाठ/अ./२४); (ज्ञा./१८/२९): (त.अनु./१४७-१५६) ज्ञा./३१/१-१६ स्वविभ्रमसमुद्भुतै रागाद्यतुलबन्धनैः । बद्धो विडम्बितः कालमनन्तं जन्मदुर्गमे १२६ परमात्मा परंज्योतिर्जगज्ज्येष्ठोऽपि वचितः । आपातमात्ररम्यैस्तै विषयैरन्तनीरसैः 1) मम शक्त्या गुणग्रामो व्यक्त्या च परमेष्ठिनः । एतावानानयो दः शक्तिव्यक्तिस्वभावतः ११०१ अहं न नारको नाम न तिर्यग्नापि मानुषः । न देवः किन्तु सिद्धात्मा सर्वोऽयं कर्मविक्रमः ।१२। अनन्तवीर्यविज्ञानदृगानन्दात्मकोऽम्यहम् । किं न प्रोन्मूलयाम्यद्य प्रतिपक्षविषद्रुमम् ॥१३॥ -मैंने अपने ही विभ्रमसे उत्पन्न हुए रागादिक अतुलबन्धनोंसे बंधे हुए अनन्तकाल पर्यन्त संसाररूप दुर्गम मार्गमें विडम्बनारूप होकर विपरीताचरण किया ।२। यद्यपि मेरा आत्मा परमात्मा है, परंज्योति है, जगत्प्रेष्ठ है, महान है, तो भी वर्तमान देखनेमात्रको रमणीक और अन्तमें नीरस ऐसे इन्द्रियोंके विषयोंसे ठगाया गया हूँ ।। अनन्त चतुष्टयादि गुणसमूह मेरे तो शक्तिकी अपेक्षा विद्यमान है और अहंत सिद्धों में वे ही व्यक्त हैं। इतना ही हम दोनोंमें भेद है ।१०। न तो मैं नारकी हूँ, न तिर्यच हूँ और न मनुष्य या देव ही हूँ किन्तु सिद्धस्वरूप हूँ। ये सब अवस्थाएँ तो कर्मविपाकसे उत्पन्न हुई है ।१२। मैं अनन्तवीर्य, अनन्तविज्ञान, अनन्तदर्शन व अनन्तआनन्दस्वरूप हूँ। इस कारण क्या विषवृक्षके समान इन कर्मशत्रुओंको जड़मूलसे न उखाड़ १श स.सा./ता.व./२८५/३६५/१३ बंधस्य विनाशार्थ विशेषभावनामाहसहजशुद्धज्ञानानन्दै कस्वभावोऽहं, निर्विकल्पोऽहं, उदासीनोऽहं, निरंजननिजशुद्धात्मसम्यश्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपनिश्चयरत्नत्रयात्म - कनिर्विकल्पसमाधिसंजातवीतरागसहजानन्दरूपसुखानुभूतिमात्रलक्ष - णेन स्वसंवेदनज्ञानेन संवेद्यो, गम्यः, प्राप्यो, भरितावस्थोऽहं, रागद्वेषमोहकोधमानमायालोभ-पन्चेन्द्रियविषयव्यापारः, मनोवचनकायव्यापार-भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्मख्यातिपूजालाभदृष्टश्रुतानुभूतभोगाकाङ्क्षारूपनिदानमायामिथ्याशल्यत्रयादि सर्व विभावपरिणामरहितः । शून्योऽहं जगत्त्रये कालत्रयेऽपि मनोवचनकायैः कृतकारितानुमतैश्च शुद्धनिश्चयेन, तथा सर्वे जीवाः इति निरन्तर' भावना कर्तव्या । बन्धका विनाश करनेके लिए विशेष भावना कहते हैंमैं तो सहजशुद्धज्ञानानन्दस्वभावी हूँ, निर्विकल्प तथा उदासीन हूँ। निरंजन निज शुद्ध आत्माके सम्यक् श्रद्धान ज्ञान व अनुष्ठानरूप निश्चय रत्नत्रयात्मक निविकल्प समाधिसे उत्पन्न वीतरागसहजानन्दरूप मुखानुभूति ही है लक्षण जिसका, ऐसे स्वसंवेदनज्ञानके गम्य हूँ। भरितावस्था व परिपूर्ण हूँ। राग द्वेष मोह क्रोध मान माया व लोभसे तथा पंचेन्द्रियोंके विषयोंसे, मनोवचनकायके व्यापारसे, भावकर्म द्रव्यकर्म व नोकर्मसे रहित हूँ। ख्याति पूजा लाभसे देखे सुने व अनुभव किये हुए भोगोंकी आकांक्षारूप निदान तथा माया मिथ्या इन तीन शल्यौंको आदि लेकर सर्व विभाव परिणामोंसे रहित हूँ। तिहुँलोक तिहुँकालमें मन वचन काय तथा कृत कारित अनुमोदनाके द्वारा शुद्ध निश्चयसे मैं शून्य हूँ। इसी प्रकार सब जीवोंको भावना करनी चाहिए । (स.सा./ता.व./परि. का अन्त) ध्रुव-१. उत्पाद व्यय ध व विषयक दे० उत्पाद व्यय धौव्य । ध्रुवबन्धी प्रकृतियां-दे० प्रकृतिबंध/२ ।
तिज्ञान-दे० मतिज्ञान/४।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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