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कृतिकर्म
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४. कृतिकर्म-विधि
२. श्रुत भक्ति, ३. चारित्र भक्ति, ४. योग भक्ति, ५. आचार्य भक्ति, ६. निर्वाण भक्ति, ७. नन्दीश्वर भक्ति, ८. वीर भक्ति ६. चतुर्विंशति तीर्थकर भक्ति, १०. शान्ति भक्ति, ११ चैत्य भक्ति, १२. पंचमहागुरु भक्ति व १३. समाधि भक्ति। इनके अतिरिक्त ईर्यापथ शुद्धि, सामायिक दण्डक व थोस्सामि दण्डक ये तीन पाठ और भी है। दैनिक अथवा नैमित्तिक सर्व क्रियाओंमे इन्हीं भक्तियोंका उलटपलट कर पाठ किया जाता है, किन्हीं क्रियाओं में किन्हींका और किन्हीं में किन्हींका । इन छहों क्रियाओं में तीन ही वास्तबमें मूल हैं-देव या आचार्य बन्दना, प्रत्याख्यान, स्वाध्याय या प्रतिक्रमण । शेष तीनका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। उपरोक्त तीन मूल क्रियाओंके क्रियाकाण्डमें ही उनका प्रयोग किया जाता है। यही कृतिकर्मका विधि विधान है जिसका परिचय देना यहाँ अभीष्ट है। प्रत्येक भक्ति के पाठके साथ मुखसे सामायिक दण्डक ३ थोस्सामि दण्डक (स्तव) का उच्चारण; तथा कायसे दो नमस्कार, ४ नति व १२ आवर्त करने होते है। इनका क्रम निम्न प्रकार है-(चा. सा /१५७/१ का भावार्थ )। (१) पूर्व या उत्तराभिमुख खडे होकर या योग्य आसनसे बैठकर "विवक्षित भक्तिका प्रतिष्ठापन या निष्ठापन क्रियायां अमुक भक्ति कायोत्सग करोम्यहम्" ऐसे वाक्यका उच्चारण । (२) पंचांग नमस्कार; (३) पूर्व प्रकार खड़े होकर या बैठकर तीन आवर्त व एक नति; (४) 'सामायिक दण्डक'का उच्चारण: (1) तीन आवत व एक मतिः (६) कायोत्सर्ग: (७) पंचांग नमस्कारः (८) ३ आवर्त व एक मति: (8) थोस्सामि दण्डकका उच्चारण ; (१०) ३ आवर्त व एक नति : (११) विवक्षित भक्ति के पाठका उच्चारण; (१२) उस भक्ति पाठको अंचलिका जो उस पाठके साथ ही दी गयी है। इसीको दूसरे प्रकारसे यों भी समझ सकते हैं कि प्रत्येक भक्ति पाठसे पहिले प्रतिज्ञापन करनेके । पश्चात् सामायिक व थोस्सामि दण्डक पढ़ने आवश्यक हैं। प्रत्येक सामायिक व थोस्सामि दण्डकसे पूर्व ब अन्तमें एक एक शिरोनति की जाती है । इस प्रकार चार नति होती हैं। प्रत्येक नति तीन-तीन आवर्त पूर्वक ही होनेसे १२ आवर्त होते है। प्रतिज्ञापनके पश्चात् एक नमस्कार होता है और इसी प्रकार दोनों दण्डकोंकी सन्धिमें भी। इस प्रकार २ नमस्कार होते है। कहीं कहीं तीन नमस्कारोंका निर्देश मिलता है। तहाँ एक नमस्कार वह भी जोड़ लिया गया समझना जो कि प्रतिज्ञापन आदिसे भी पहिले बिना कोई पाठ बोले देव या आचार्यके समक्ष जाते ही किया जाता है। (दे० आवर्त व नमस्कार ) किस क्रियाके साथ कौन कौन-सी भक्तियाँ की जाती हैं, उसका निर्देश आगे किया जाता है । ( दे नमस्कार 1५)
(II) अपूर्व चैत्य क्रिया--सिद्ध भक्ति, श्रुत भक्ति, सालोचना
चारित्र भक्ति, चैत्य भक्ति, पंचगुरु भक्ति । अष्टमी आदि क्रियाओंमें या पाक्षिक प्रतिक्रमणमें दर्शनपूजा अर्थात अपूर्व चैत्य क्रियाका योग हो तो सिद्ध भक्ति, चारित्र भक्ति, चैत्य भक्ति, पंचगुरु भक्ति करे। अन्तमें शान्तिभक्ति करे। (केवल क्रि० क०) (III) अभिषेक धन्दना क्रिया--सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, पंचगुरु
भक्ति, शान्ति भक्ति। (IV) अष्टमी क्रिया--सिद्ध-भक्ति, श्रुतभक्ति, सालोचना चारित्रभक्ति, शान्ति भक्ति । (विधि नं०१), सिद्ध भक्ति, श्रुत्तभक्ति, चारित्रभक्ति,
चैत्य भक्ति, पंचगुरु भक्ति, शान्तिभक्ति । (विधि नं०२) (V) अष्टाह्निक क्रिया-सिद्धभक्ति, नन्दीश्वर 'चैत्यभक्ति, पंचगुरु
भक्ति, शान्ति कि। (VI) आचार्य पद प्रतिष्ठान क्रिया-सिद्धभक्ति, आचार्यभक्ति, शान्ति
भक्ति । (VII) आचार्य वन्दना.--लघु सिद्ध, श्रुत व आचार्य भक्ति । (विशेष
दे० वन्दना) केश लोंच क्रिया-ल. सिद्ध-ल. योगि भक्ति । अन्त
में योगिभक्ति। (VIII) चतुर्दशी क्रिया-सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, श्रुतभक्ति, पंचगुरु
भक्ति, शान्तिभक्ति, (विधि नं०१)। अथवा चैत्य भक्ति, श्रुतभक्ति, पंचगुरु भक्ति, शान्तिभक्ति (विधि नं०२) (IX) तीर्थकर जन्म क्रिया-दे० आगे पाक्षिको क्रिया। (X) दीक्षा विधि ( सामान्य ) (१) सिद्ध भक्ति, योगि भक्ति, लोंचकरण (केशलूंचण), नामकरण, नाग्न्य प्रदान, पिच्छिका प्रदान, सिद्ध भक्ति। (२)-उसी दिन या कुछ दिन पश्चात बतदान प्रतिक्रमण। (XI) दीक्षा विधि (क्षुल्लक), सिद्ध भक्ति, योगि भक्ति, शान्ति भक्ति, समाधि भक्ति, 'ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अहं नमः' इस मंत्रका २१ मार
या १०८ बार जाप्य । विशेष दे० ( क्रि० क०/पृ०३३७) (XII) दीक्षा विधि (बृहत):--शिष्य-(१) बृहत्प्रत्याख्यान क्रियामें सिद्ध भक्ति, योगि भक्ति, गुरुके समक्ष सोपवास प्रत्याख्यान ग्रहण । आचार्य भक्ति, शान्ति भक्ति, गुरुको नमस्कार । (२)-गणधर बलय पूजा। (३)-श्वेत वस्त्र पर पूर्वाभिमुख बैठना। (४) केश लोंच क्रियामें सिद्ध भक्ति, योगि भक्ति । आचार्य-मन्त्र विशेषों के उच्चारण पूर्वक मस्तकपर गन्धोदक घ भस्म क्षेपण व केशोरपाटन । शिष्य-केश लोच निष्ठापन क्रियामें सिद्ध भक्ति, दीक्षा याचना । आचार्य-विशेष मव विधान पूर्वक सिर पर 'श्री' लिखे व अंजलीमें तन्दुलादि भरकर उस पर नारियल रखे। फिर व्रत दान क्रियामें सिद्ध भक्ति, चारित्र भक्ति, योगि भक्ति, व्रत दान, १६ संस्कारारोपण, नामकरण, उपकरण प्रदान, समाधि भक्ति । शिष्य- सर्व मुनियोको वन्दना। आचार्य-वतारोपण क्रियामें रत्नत्रय पूजा, पाक्षिक प्रतिक्रमण । शिष्य-मुख शुद्धि मुक्त करण पाठ क्रियामें सिद्ध भक्ति, समाधि भक्ति ।
विशेष दे० (क्रि.क./पृ. ३३३) । देव बन्दनाः-ईर्यापथ विशुद्धि पाठ, चैत्य भक्ति, पंचगुरु भक्ति, शान्ति
भक्ति । ( विशेष दे०वंदना)। पाक्षिकी क्रियाः-सिद्ध भक्ति चारित्र भक्ति, और शान्ति भक्ति । यदि धर्म व्यासंगसे चतुर्दशीके रोज क्रिया न कर सके तो पूर्णिमा और
अमावसको अष्टमी क्रिया करनी चाहिए। (विधि नं.१)। सालोचना चारित्र भक्ति, चैत्य पंचगुरु भक्ति, शान्ति भक्ति ( विधि
नं.२)। (XIII) पूर्व जिन चैत्य क्रियाः-विहार करते करते छः महीने पहले उसी प्रतिमाके पुनः दर्शन हो तो उसे पूर्व जिन चैत्य कहते हैं। उस पूर्व जिन चैत्यका दर्शन करते समय पाक्षिकी क्रिया करनी चाहिए। (केवल क्रि. क.)।
३. प्रत्येक क्रियाके साथ मक्ति पाठोंका निर्देश (चाल्सा/१६०-१६६/६; क्रि०क०/४ अध्याय) (अन० ध०/६/४५-७४;
८२-८५) संकेत-ल-लघु; जहाँ कोई चिह्न नहीं दिया वहाँ वह बृहत् भक्ति समझना।
१. नित्य व नैमित्तिक क्रियाकी अपेक्षा (1) अनेक अपूर्व चैत्य दर्शन क्रिया-अनेक अपूर्व जिन प्रतिमाओं
को देखकर एक अभिरुचित जिनप्रतिमामें अनेक अपूर्व जिन चैत्य वन्दना करे। छठे महीने उन प्रतिमाओंमें अपूर्वता सुनी जाती है। कोई नयी प्रतिमा हो या छह महीने पीछे पुनः दृष्टिगत हुई प्रतिमा हो उसे अपूर्व चैत्य कहते हैं। ऐसी अनेक प्रतिमाएँ होनेपर स्व रुचिके अनुसार किसी एक प्रतिमाके प्रति यह क्रिया करे। ( केवल क्रि० के०)
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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