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जीव
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१. भेद, लक्षण व निर्देश
१. भेद, लक्षण व निर्देश
१. जीव सामान्यका लक्षण १. दश प्राणोंसे जीवे सो जीव प्र. सा./मू./१४७ पाणेहि चदुहिं जीवदि जी विस्सदि जो हि जीविदो पुन्च । सो जीवो पाणा पुण पोग्गलदम्वेहि णिवत्ता १४७ । - जो चार प्राणोंसे (या दश प्राणोंसे ) जीता है, जियेगा, और पहले जीता था वह जीव है, फिर भी प्राण तो पुद्गल द्रव्योंसे निष्पन्न है। (पं. का./मू/३०); (ध./१/१,१,२/११४/३); (म.पु/२४/१०४); (न. च. वृ./११०); (द्र. सं./मू/३); (नि. सा./ता/वृ.78); (पं. का./ता, वृ/२७/१६/१७); (द्र.सं./टी./२/८/६); (स्या० म./२६/ ३२६/१६)। रा. वा./१/४/७/२५/२७ दशसु प्राणेषु यथोपात्तप्राणपर्यायेण त्रिषु कालेषु जीवनानुभवनात 'जीवति, अजीवीव, जीविष्यति' इति वा जीवः । -दश प्राणोंमेंसे अपनी पर्यायानुसार गृहीत यथायोग्य प्राणोंके द्वारा जो जीता है. जीता था व जीवेगा इस त्रैकालिक जीवनगुणवालेको जीव कहते हैं।
२. उपयोग, चैतन्य, कर्ता, भोक्ता आदि पं. का./मू./२७ जोवो त्ति हवदि चेदा उवोगविसेसिदो... आत्मा
जीव है, चेतयिता है, उपयोग विशेष वाला है। (पं. का.मू-/१०६)
(प्र. सा./मू./१२७ )। स. सा./मू./४६ अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसह । जाण अलिगग्गहणं जीवमणिहिट्ठसंट्ठाणं ।४।। हे भव्य ! तू जीवको रस रहित रूप रहित, गन्ध रहित, अव्यक्त अर्थात् इन्द्रियसे अगोचर, चेतनागुणवाला, शब्द रहित, किसी भी चिह्नको अनुमान ज्ञानसे ग्रहण न होनेवाला और आकार रहित जान । (प.का./भू/१२७); (प्र. सा
मू/१७२ ); ( भा. पा./मू /६४ ) (ध. ३/१,२,१/गा.१/२ ) । भा. पा./मू./१४८ कत्ता भोइ अमुत्तो सरीरमित्तो अणाइणिहणो य । दसणणाणुवओगो णिद्दिवो जिणबरिंदेहि ।१४।-जोध कर्ता है, भोक्ता है, अमूर्तीक है, शरीरप्रमाण है, अनादि-निधन है, दर्शन ज्ञाद उप. योगमयी है. ऐसा जिनवरेन्द्र द्वारा निर्दिष्ट है । (पं. का./ मू./२७); (प. प्र./८/१/३१); (रा. वा /९/४/१४/२६/११); (म. पु /२४/१२); (ध. १/१.१.२/गा. १/११८): (न.च, वृ/१०६); (द्र.सं./मू./२);
त. सू./२/८ उपयोगो लक्षणम् ।- उपयोग जीवका लक्षण है । (न.च.वृ/११६)। स, सि./२/४/१४/३ तत्र चेतनालक्षणो जीवः । -जीवका लक्षण चेतना
है। (ध. १५/३३/६)। म. च. बृ./३६० लक्खणमिह भणियमादाज्झेओ सन्भावसंगदो सोवि ।
चेयण उवलद्धी दंसण णाणं च लश्वर्ण तस्स ।- आत्माका लक्षण चेतना तथा उपलब्धि है, और वह उपलब्धि ज्ञान दर्शन लक्षणवाली है। द्र. सं./मू./३ णिच्छयणयदो दु. चेदणा जस्स ॥३-निश्चय नयसे जिसके ___ चेतना है वही जीव है। द्र, सं./टी./२/८/५ शुद्धनिश्चयनयेन.. शुद्धचैतन्यलक्षणनिश्वयप्राणेन यद्यपि
जीवति, तथाप्यशुद्धनयेन...द्रव्यभावप्राणैर्जीवतीति जीवः -- शुद्ध निश्चयसे यद्यपि शुद्धचेतन्य लक्षण निश्चय प्राणों से जीता है, तथापि अशुद्धनयसे द्रव्य व भाव प्राणोंसे जीता है । (पं. का./ता. वृ./२७/५६/ १६, ६०/६७/१२)। गो. जी./जो.प्र./२/२१/८ कर्मोपाधिसापेक्षज्ञानदर्शनोपयोगचैतन्यप्राणेन
जीवन्तीति जीवाः । (अशुद्ध निश्चयनयसे) कर्मोपाधि सापेक्ष ज्ञानदर्शनोपयोग रूप चैतन्य प्राणों से जीते हैं वे जीव है। (गो. जी.। जी./प्र./१२६/३४१/३)।
३. औपशमिकादि भाव ही जीव है रा, वा./१/9/३:८/३८ औपशमिकादिभावपर्यायो जीवः पर्यायादेशात
३. पारिणामिकभावसाधनो निश्चयतः ।। औपशमिकादिभावसाधनश्च व्यवहारतः ।।। - पर्यायाथिक नयसे औपशमिकादि भावरूप जीव है।३। निश्चयनयसे जीव अपने अनादि पारिणामिक भावोंसे ही स्वरूपलाभ करता है ।। व्यवहारनयसे औपश मिकादि भावोसे तथा माता-पिताके रजवीर्य आहार आदिसे भी स्वरूप लाभ करता है। त. सा./२/२ अभ्यासाधारणा भावाः पञ्चौपशमिकादयः। स्वतत्त्वं यस्य तत्त्वस्य जोवः स व्यपदिश्यते ।२।-औपशमिकादि पाँच भाव (दे० भाव ) जिस तत्त्वके स्वभाव हों वही जीव कहाता है।
२. जीवके पर्यायवाची नाम ध. १/१,१,२/गा. ८१,८२/११८-११६ जीवो कत्ता य वत्ता य पाणी भोत्ता
य पोग्गलो। वेदो विण्हू सयंभू य सरीरी तह माणवो। सत्ता जंतु य माणी य माई जोगी य संकड़ो। असंकडो य खेत्ताह अंतरप्पा तहेव य ।। - जीव कर्ता है, वक्ता है, प्राणी है, भोक्ता है, पुद्गलरूप है, वेत्ता है, विष्णु है, स्वयंभू है, शरीरी है, मानव है, सक्ता है, जन्तु है, मानी है, मायाबी है, योगसहित है, संकुट है, असंकुट है, क्षेत्रज्ञ है और अन्तरात्मा है ।८१-८२० म.पू./२४/१०३ जीवः प्राणी च जन्तुश्च क्षेत्रज्ञः पुरुषस्तथा। पुमानात्मान्तरात्मा च ज्ञो ज्ञानीत्यस्य पर्ययः ।१०३। -जीव, प्राणी, जन्तुं, क्षेत्रज्ञ, पुरुष, पुमान्, आत्मा, अन्तरात्मा, ज्ञ और ज्ञानी ये सब जीवके पर्यायवाचक शब्द हैं। ३. जीवको अनेक नाम देनेकी विवक्षा १. जीव कहनेकी विवक्षा दे० जीवका लक्षण नं. १। २, अजीव कहनेको विवक्षा दे. जोव/२/१ में ध./१४ "सिद्ध' जीव नहीं है, अधिकसे अधिक उनको
जीवितपूर्व कह सकते हैं। न.च.वृ /१२१ जो हु अमुत्तो भणिओ जीवसहावो जिणेहिपरमत्थो।
उवयरियसहावादो अचेयणो मुत्तिसंजुत्तो ।१२११ - जीवका जो स्वभाव जिनेन्द्र भगवान् द्वारा अमूर्त कहा गया है वह उपचरित स्वभावरूपसे मूर्त व अचेतन भी है, क्योंकि मूर्तीक शरीरसे संयुक्त है।
३. जड़ कहनेकी विवक्षा प.प्र./म./१/५३ जे णियबोहपरिट्ठियहँ जीवहँ तुट्टइ णाणु । इंदिय जणियउ
जोइया ति जिउ जड्डु वि बियाणु ॥५३॥ =जिस अपेक्षा आत्मा ज्ञानमें ठहरे हुए (अर्थात समाधिस्थ) जीवोंके इन्द्रियजनित ज्ञान नाशको प्राप्त होता है, हे योगी। उसी कारण जीवको जड भी जानो। आराधनासार/८१ अद्वैतापि हि वेत्ता जगति चेत् दृग्ज्ञप्तिरूपं त्यजेद, तत्सामान्यविशेषरूपविरहात्सास्तित्वमेव त्यजेत् । तत्त्यागं जड़ता चितोऽपि भवति व्याप्यो बिना व्यापक. । .८१३ -इस जगत् में जो योगी अद्वैत दशाको प्राप्त हो गये हैं, वे दर्शन व ज्ञानके भेदको ही त्याग देते हैं, अर्थात् वे केवल चेतनस्वरूप रह जाते हैं। और सामान्य (दर्शन) तथा विशेष (ज्ञान) के अभावसे वे एक प्रकारसे अपने अस्तित्वका ही त्याग कर देते है। उसके त्यागसे चेतन भी वे जड़ताको प्राप्त हो जाते हैं क्योकि व्याप्यके बिना व्यापक भी नहीं होता। द्र. सं./टी./१०/२७/२ पञ्चेन्द्रियमनोविषयविकल्परहितसमाधिकाले स्वसंवेदनलक्षणबोधसद्भावेऽपि बहिर्विषयेन्द्रियबोधाभावाज्जड., न च सर्वथा सारख्यमतवत् । पाँचों इन्द्रियों और मनके विषयों के विकल्पोंसे रहित समाधिकालमें,आत्माके अनुभवरूप ज्ञानके विद्यमान होनेपर भी बाहरी विषयरूप इन्द्रियज्ञानके अभावसे आत्मा जड़ माना गया है, परन्तु सारख्यमतकी तरह आत्मा सर्वथा जड़ नहीं है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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