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गति
लिहा बहना सिद्धगए सह पंचविह एवं गइसमासो अमेयभेयभिण्णो ।
घ. ७/२.१९/७/२२/२] ताओ चैन नदीओ मसिणी मधुस्सा, पेरा तिरिया पंचिदियतिरिवोमिओ देवा देवीबी सिद्धा ति अट्टहवंति । - १, गति सामान्यरूपसे एक प्रकार है। वही गति सिद्धगति और असिदगति इस तरह दो प्रकार है अथवा देवगति अदेवगति और सिद्धगति इस तरह तीन प्रकार है । अथवा नरकगति, तियंचगति, मनुष्यगति और देवगति, इस तरह चार प्रकार है । अथवर सिद्धगतिके ( उपरोक्त चार मिलकर ) पाँच प्रकार है । इस प्रकार गतिसमास अनेक भेदोसे भिन्न है । २. वे ही गतियाँ मनुष्यणी, मनुष्य, नरक, तियंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमति, देव aar और सिद्ध इस प्रकार आठ होती हैं।
३. गति नामकर्मके भेद
..६/१५१-१/२१/६०० जे
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दारिद णामं तिरिक्रगदगामं मसुस्तगविणामं देवगदिणामं चेदि जो गतिनामधर्म है यह चार प्रकारका है, नरकगतिनामकर्म विच गति नामकर्म, मनुष्य गति नामकर्म और देवगति नामकर्म । (/१२/०४/१०२/३०) (पं. सं/प्रा./२/४/४६) (स.सि./१/१२/२०६ १); (रा. वा/८/११/१/५७६/८); (म.ब / १/६६/२८); (गो.क./जी. प्र/३३ / २८/१३) गो./जी. ५/३३।
४. जीवको मनुष्यादि पर्यायोंको गति कहना उपचार
ध.१/१,१.२४/२०२/१ अशेषमनुष्य पर्याय निष्पादिका
मनुष्यगतिः । अथवा मनुष्यगतिकर्मोदयापादितमनुष्यपर्यायकलापः कार्ये कारणोपचारान्मनुष्यगतिः ।.... ध.१/१.१.२४/२०१४ देवानां गतिर्देवगति अथवा देवगतिनामकमदोऽणिमादिदेशभिधानप्रत्यय व्यवहार निषधपर्यायोपादको देवगतिः । देवगखिनामकमदयजन्तिपर्यायो या देवगतिः कार्ये कारणोप चारात्१. जो मनुष्यकी सम्पूर्ण पर्यायान कराती है उसे मनुष्यगति कहते हैं। अथवा मनुष्यगति नामकर्मके उदयसे प्राप्त हुए मनुष्य पर्यायोंके समूहको मनुष्य गति कहते हैं। यह लक्षण कार्य मे कारणके उपचारसे किया गया है। २. देवोंकी गतिको देव कहते हैं । अथवा जो अणिमादि ऋद्धियोंसे युक्त 'देव' इस प्रकारके शब्द, ज्ञान और व्यवहारमे कारणभूत पर्यायका उत्पादक है ऐसे देवगति नामकर्मके उदयको देवगति कहते हैं । अथवा देवगति नामकर्मके उत्पन्न हुई देवगति कहते हैं। यहाँ कार्यने कारणके उपचारसे यह लक्षण किया गया है ।
५. कर्मोदयापादित भी इसे जीवका भाव कैसे कहते हो ?
पं. घ. /उ. १८०-११०:१०९५ ननु देशदिपर्यायी नामकर्मोदयात्परम्। arar जीवभावस्य हेतु' स्यादधातिकर्मवत् । ६८० सत्यं तन्नामकलाकारवत्। नूनं राहूदेहमात्रादि निर्मापयति चित्र[] २८११ अस्ति तत्रापि मोहस्य भैरन्तर्योदयासा। तस्मादीदथिको भाग स्थात्तदेह किप्राकृति। ननु मोहोदयो नूनं स्वायतीऽस्त्येक धारया । तत्तद्वपु क्रियाकारो नियतोऽय कुतो नयात् श नैवं यतोऽसि मोहस्योदभवे तत्रापि बुद्धिपूर्व वाबुद्धि पूर्वे स्वलक्षणात ८४ तथा दर्शनमोहस्य कर्मणस्तुदयादिह। अपि यावदनात्मीयमरमीयं मनुते कर 2201 तप्यस्ति विवेकोऽयं
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२. नामकर्मज गति निर्देश
श्रेयानत्रादितो यथा भाषा सर्वोऽपि लौकिक: ११०२५१ - प्रश्न- जब देवादि पर्यायें केवल नामकर्मके उदयसे होती हैं तो यह नामकर्म कैसे पातिया कर्मकी तरह जीवके भाव में हेतु हो सकता है । ६८०1 उत्तर- ठीक है, क्योंकि, वह नामकर्म भी चित्रकारकी तरह गतिके अनुसार केवल जीनके शरीराविका ही निर्माण करता है |१| परन्तु उन शरीरादिक पर्यायोंमें भी वास्तवमे मोहका गत्यनुसार निरन्तर उदय रहता है। जिसके कारण उस उस शरीरादिककी क्रियाके आकार के अनुकूल भाव रहता है । ६८२ प्रश्न- यदि मोहनीयका उदय प्रतिसमय निर्विच्छिन्न रूपसे होता रहता है तब यह उन उन शरीरोकी क्रियाके अनुकूल किस न्यायसे नियमित हो सकता है | ६८३ | उत्तर - यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि तुम उन गतियो में मोहोदय लक्षणानुसार बुद्धिपूर्वक और अबुद्धिपूर्वक होनेवाले मोहोदय से अनभिज्ञ हो । ६८४ उसके उदयसे जीव सम्पूर्ण परपदार्थों ( इन शरीरादिकों ) को भी निज मानता है । ६० घातिया अघातिया कर्मोके उदयसे होनेवाले औदयिक भावोंमें यह बात विशेष है कि मोहजन्य भाव ही सच्चा विकारयुक्त भाव है और सम तो सौकिक रूडिसे (अथवा कार्यमें कारणका उपचार करनेसे ) औदयिक भाव कहे जाते हैं । १०२५ ।
कारण सिद्ध भी गतिवान् बन
६. प्राप्त होनेके जायेंगे
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घ. ९/९.९.४/९३४ इति गतिः । नातिव्याप्तिदशेषः सिद्धः प्राप्य गुणाभावात् । न केवलज्ञानादयः प्राप्यास्तथात्मकैकस्मिद प्राप्यप्रापकभावविरोधात् । कषायादयो हि प्राप्याः औपाधिकत्वात् ।
- जो प्राप्त की जाय उसे गति कहते है । गतिका ऐसा लक्षण करनेसे सिद्धोंके साथ अतिव्याप्ति दोष भी नहीं आता है, क्योंकि सिद्धों के द्वारा प्राप्त करने योग्य गुणोंका अभाव है। यदि केवलज्ञानादि गुणोंको प्राप्त करने योग्य कहा जाये, सो भी नहीं बन सकता, क्योंकि केवलज्ञान स्वरूप एक आत्मामे प्राप्य प्रापक भावका विरोध है । उपाधिजन्य होनेसे कषायादिक भावों को ही प्राप्त करने योग्य कहा जा सकता है । परन्तु वे सिद्धों में पाये नहीं जाते हैं ।
७. प्राप्त किये जानेसे द्रव्य व नगर आदि भी गति बन जायेंगे
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६. १/१.१.४/१३४/६ गम्यत इति गतिरिष्युच्यमाने गमन क्रियापरिणाजीवध्यद्रव्यादीनामपि गतिव्यपदेशः स्यादिति चेन्न गतिकर्मणः समुत्पन्नस्यात्मपर्यायस्य ततः कचिदभेदादविरुद्धमासितः प्रार्मभावस्य गतियाभ्युपगमे पूर्वोत्तदोषानृपतेः पश्न जो प्राप्त की जाये उसे गति कहते हैं, गतिका ऐसा लक्षण करनेपर गमनरूप क्रियामे परिणत जीवके द्वारा प्राप्त होने योग्य द्रव्यादिकको भी 'गति' यह संज्ञा प्राप्त हो जायेगी, क्योंकि गमनक्रियापरिणत जीवके द्वारा द्रव्यादिक हो प्राप्त किये जाते हैं। उत्तर-ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि गति नामकर्म के उदयसे जो आत्मा के पर्याय उत्पन्न होती है, वह आत्मा कथंचित् भिन्न है, अतः उसकी प्राप्ति अविरुद्ध है । और इसीलिए प्रारूप क्रिया को प्राप्त नरकादि आत्मपर्यायके गतिपना माननेमें पूर्वोक्त दोष नहीं आता है।
घ. /७/२.१,२/६/४ गम्यत इति गति । एदीए णिरुत्तीए गाम-णयरं-खेडकव्वाणं पि गदितं सजदे ण सडिवलेण गदिणामकम्मणिपाइपज्जायम गदिसपती दो गदिकम्मोदयाभावा सियगदी अगदी अथवा भवाद भवसंक्रान्तिर्गतिः, असंक्रान्तिः सिद्धगति' । प्रश्न-'जहाँको गमन किया जाये वह गति है' गतिकी ऐसी निति करनेसे तो ग्राम नगर, खेडा, कट आदि स्थानोको भी गति माननेका प्रसंग आता है। उत्तर- नहीं आता, क्योंकि रूढिके
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