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गति
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२. नामकर्मज गति निर्देश
रा. वा./५/२४/२१/४६०/१२ मारुतपावकपरमाणुसिद्धज्योतिष्कादीनां स्वभावगति'। वायोः केवलस्य तिर्यग्गतिः। भस्त्रादियोगादनियता गतिः। अग्नेरूर्ध्वगतिः कारणवशाइदिगन्तरगतिः। परमाणोरनियता । .."ज्योतिषां नित्यभ्रमणं लोके। वायु, अग्नि, परमाणु, मुक्तजीव
और ज्योतिर्देव आदिकी स्वभाव गति है। ( तहाँ ) अकेली वायुकी तिर्यक गति है। भखादिके कारण वायुकी अनियत गति होती है। अग्निकी स्वाभाविक ऊर्ध्वगति है । कारणवश उसकी अन्य दिशाओं में भी गति होती है। परमाणुकी अनियत गति है। ज्योतिषियोका लोकमें नित्य भ्रमण होता है। ७. जीवोंका भवान्तरके प्रति गमन छह दिशाओमें ही होता है। ऐसा क्यों?
गति नामकर्म है और जिस कारण से गति चार हैं. तिस कारणसे वह नामकर्म भी चार प्रकारका कहा जाता है।०६। आत्मा दैवयोगसे इस नामकर्म के उदयके कारण उस गतिमें प्राप्त होनेवाले यथायोग्य शरीरोमें-से किसी एक भी शरीरको पाकर सामान्य तथा उस गतिके योग्य जो औदयिकभाव होते हैं तिन्हे धारण करता है ।१७७। जैसे कि तिर्यच अवस्थामें तिर्यचौकी तरह तिर्य चपर्यायके अनुरूप जो भावसंतति होती है वह उस तिर्यच गतिमें अवश्य ही होती है, दूसरी गतिमें नहीं होती है।१७८। इसी तरह यह बात स्पष्ट है कि देव, मनुष्य व नरकगति सम्बन्धी शरीरमें होनेवाले अपने-अपने औदायिक भाव स्वतः परस्परमें असाधारणके समान होते हैं, अर्थात उनमें अपनी-अपनी जुदी विशेषता पायी जाती है। २. व्यवहार लक्षण
ध. ४/३,१,४३/२२६/२ छक्कावक्कमणियमे संते पंच चोद्दसभागफोसणं ण जुज दि त्ति णासंकणिज्ज, चदुण्डं दिसाणं हेट ठुवरिमदिसाणं च गच्छतेहिं तदा मारणं पडिविरोहाभावादो। का दिसा णाम । सगट्ठाणादो कंडुज्जुवा दिसा णाम । ताओ छच्चेव, अण्णेसिमसंभवादो। का विदिसा णाम। सगट्ठाणादो कण्णायारेण द्विदखेत्तं विदिसा। जेण सव्वे जीवा कण्णायारेण ण जंति तेण छक्कावकमणियमो जुज्जदे ।-प्रश्न-छहों दिशाओं में जाने-आनेका नियम होनेपर सासादन गुणस्थानवर्ती देवोंका स्पर्शनक्षेत्र ४१४ भागप्रमाण नहीं बनता है। उत्तर-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि चारों दिशाओंको और ऊपर तथा नीचेकी दिशाओंको गमन करनेवाले जीवोंके मारणान्तिक समुद्घातके प्रति कोई विरोध नहीं है। प्रश्नदिशा किसे कहते हैं। उत्तर-अपने स्थानसे वाणकी तरह सीधे क्षेत्रको दिशा कहते हैं। वे दिशाएँ छह ही होती हैं, क्योंकि अन्य दिशाओंका होना असम्भव है। प्रश्न-विदिशा किसे कहते हैं । उत्तर-अपने स्थानसे कर्ण रेखाके आकारसे स्थित क्षेत्रको विदिशा कहते हैं। चूंकि मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादगत सभी जीव कर्ण रेखाके आकारसे अर्थात तिरछे मार्ग से नहीं जाते हैं, इसलिए छह दिशाओंके अपक्रम अर्थात गमनागमनका नियम बन जाता है।
पं. सं./प्रा./१/५६ जीघा हु चाउरंगं गच्छति हु सा गई होइ ।५।। ___ =अथवा जिसके द्वारा जीव नरकादि चारो गतियीमे गमन करता
है, वह गति कहलाती है। (च. १/१,१,४/गा. १८४/१३५); (पं.सं./
सं/१/१३६); (गो.जी/मू./१४६/३६८) ध.१/१,१,४/१३५/३ भवाद्भवसंक्रान्तिा गतिः । = अथवा एक भवसे दूसरे भवको जानेको गति कहते हैं। (ध.७/२,१,२/६/६ )
२. गति नामकर्मका लक्षण स. सि./८/११/३८६/१ यदुदयादात्मा भवान्तरं गच्छति सा गतिः। सा
चतुर्विधा । जिसके उदयसे आत्मा भवान्तरको जाता है, वह गति है। वह चार प्रकारकी है। (रा. वा./८/११/१/६/६७६/५); (गो.क/
जी.प्र./३३/२८/१३) ध.६/१,६-१,२८/५०/११ जम्हि जीवभावे आउकम्मादो लद्धावट्ठाणे संते सरीरादियाई कम्माइमुदयं गच्छति सो भावो जस्स पोग्गलवखंधस्स मिच्छत्तादिकारणेहि पत्तस्स कम्मभावस्स उदयादो होदि तस्स कम्मक्खंधस्स गति त्ति सण्णा । जिस जीवभावमें आयुकर्म से अवस्थानके प्राप्त करनेपर शरीरादि कर्म उदयको प्राप्त होते हैं, वह भाव मिथ्यात्व आदि कारणोके द्वारा कर्मभावको प्राप्त जिस पुद्गलस्कन्ध
से उत्पन्न होता है, उस कर्म-स्कन्धकी गति' संज्ञा है। घ. १३/५०५,१०१/३६३/६ जं णिरय-तिरिक्ख-मणुस्सदेवाणं णिव्यत्तय
कम्मं तं गदि णाम। -जो नरक, तियंच, मनुष्य और देव पर्यायका बनानेवाला कर्म है वह गति नाम कर्म है।
२. नामकर्मज गति निर्देश
१. गति सामान्यके निश्चय व्यवहार लक्षण १. निश्चय लक्षण पं. स./प्रा./१/१६ गइकम्मविणिवत्ता जा चेट्ठा सा गई मुणेयव्वा । गति नामा नामकर्मसे उत्पन्न होनेवाली जो चेष्टा या क्रिया होती है उसे गति जानना चाहिए। (ध.१/१,१,४/गा ८४/१३५); (.सं./सं./
स. सि./२/६/१५६/३ नरकगतिनामकर्मोदयानारको भावो भवतीति
नरकगतिरोदयिकी। एवमितरत्रापि । नरक गति नामकर्म के उदयसे नारकभाव होता है, इसलिए नरक गति औदयिकी है। इसी प्रकार शेष तीन गतियोंका भी कथन करना चाहिए। ध. १/१,१,४/१३४/४ “गम्यत इति गतिः " = जो प्राप्त की जाये उसे गति कहते है । (रा.वा./8/9/११/६०३/२७)
(नोट-यहाँ कषाय आदिको प्राप्तिसे तात्पर्य है-दे० आगे गति/२/६) प.ध./उ./९७६-१७६ कर्मणोऽस्य विपाकाद्वा देवादन्यतमं वपुः । प्राप्य तत्रोचितान भावात् करोत्यात्मोदयात्मनः ॥६७७१ यथा तिर्यगवस्थायां तद्वया भावसंतति । तत्रावश्यं च नान्यत्र तत्पर्यायानुसारिणी।६७८ एवं देवेऽथ मानुष्ये नारके वपुषि स्फुटम् । आत्मीयात्मीयभावाश्च संतत्यसाधारणा इव ।१७६! =नामकमके उत्तरभेदोमें प्रसिद्ध एक
३ क. गतिके भेद ष, ख.१/१,१/सू.२४/२०१ आदेसेण गदियाणुवादेण अस्थि णिरयगदी तिरिक्वगदी मणुस्सगदी देवगदी सिद्धगदी चेदि ।२४। -आदेशप्ररूपणाकी अपेक्षा गत्यनुवादसे नरकगति, तिथंचगति, मनुष्यगति
और सिद्धगति है। स. सि./२/६/१५६/२ गतिश्चतुर्भदा-नरकगतिस्तिर्यग्गतिर्मनुष्यगतिदेवगतिरिति। -गति चार प्रकारकी है-नरकगति, तिर्यचगति, मनुष्यगति और देवगति। रा.वा/8/७/११/६०३/२७ सा द्वेधा-कर्मोदयकृता क्षायिकी चेति । कर्मोदयकृता चतुर्विधा व्याख्याता-नरकगतिः, तिर्यग्गतिः, मनुष्यगतिः देवगतिश्चेति । क्षायिकी मोक्षगतिः। - वह गति दो प्रकारकी हैकर्मोदयकृत और क्षायिकी। तहाँ कर्मोदयकृत गति चार प्रकारकी कही गयी है-नरकगति, तिथंचगति, मनुष्यगति और देवगति । क्षायिकी गति मोक्षगति है। ध,७/२,११:१/५२०/४ गइ सामण्णेण एगविहा । सा चेव सिद्धगई (असिद्धगई ) चेदि दुविहा । अहवा देवगई अदेवगई सिद्धगई चेदि तिविहा । अहवा णिरयगई तिरिक्रवगई मणुसगई देवगई चेदि
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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