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________________ सैजस ६. तैजस व कार्माण शरीरका सादि अनादिपना . /२/४१ अनादिसम्बन्धे च ॥४१॥ - तेजस और कार्माणि शरीर आत्माके साथ अनादि सम्बन्ध वाले है । रा.वा./२/४२/२-५/१४६ बन्धसंतत्यपेक्षया अनादिः संबन्धः । सादिश्व विशेषतो बीजवृक्षवत् |२| एकान्तेनादिमत्त्वे अभिनवशरीरसंबन्धाभयो निनिमित्तखात ३ मुकाममानस 181 एकान्तेनानादिवे निर्मोक प्रसाद तस्मादसा केनचित्कारेण अनादिः संबन्धः केनचित्प्रकारेणादिमानिति । ये दोनों शरीर अनादि से इस जीव के साथ है। उपचय- अपचयकी दृष्टिसे इनका सम्बन्ध भी सादि होता है। बीज और वृक्षकी भाँति । जैसे वृक्षसे बीज और बीजसे वृक्ष इस प्रकार बीज वृक्ष अनादि होकर भी सहवीज और की अपेक्षा सादि है। यदि सर्वथा आदिमान् मान लिया जाये तो अशरीर आत्मा नूतन शरीरका सम्बन्ध ही नहीं हो सकेगा, क्योकि शरीर सम्बन्धका कोई निमित्त ही नहीं है । यदि निर्निमित होने लगे तो मुक्तात्मा के साथ भी शरीरका सम्बन्ध हो येगा ।२-४ | यदि अनादि होनेसे अनन्त माना जायेगा तो भी किसीको मोक्ष नहीं हो सकेगा 121 अत सिद्ध होता है कि किसी अपेक्षा अनादि है तथा किसी अपेक्षासे सादि है । ७. तेजस व कार्माण शरीर आत्मप्रदेशोंके साथ रहते हैं रा.वा./२/४६/८/१५४/१६ तेजसकार्माणे जघन्येन यथोपात्तौदारिकशरीरप्रमाणे, उत्कर्षेण केवलिसमुद्घाते सर्वलोकप्रमाणे । =तैजस और कार्माण शरीर जघन्यसे अपने औदारिक शरीरके बराबर होते हैं। और उत्कृष्टसे केवलसमुद्घात में सर्वलोक प्रमाण होते हैं । ८. सैजस कार्याण शरीरका मिरुप मोगरव त.सू./२/४४ निरुपभोगमन्त्यम् ॥४४ | = अन्तिम अर्थाद तेजस और कार्माण शरीर उपभोग रहित हैं । स.सि./२/४४/११५/ अन्ते भयम प्रालिका शब्दादीनामुपलब्धिरूपभोग सत्यामपि इन्द्रियन्धी द्रव्येन्द्रियनि गाभावइति मनु से जसमपि निरुपभोगम् निरुपभोगमन्त्वमिति जसे शरीर योगनिमितमपि न भवति ततोऽस्योपभोगविचारेऽनधिकार । =जो अन्तमें होता है वह अन्त्य कहलाता है। प्रश्न- अन्तका शरीर कौन है ? उत्तर-कार्मण इन्द्रिय नदियों द्वारा खादिके ग्रहण करने को उपभोग कहते हैं । यह बात अन्तके शरीरमे नही पायी जाती; अत वह निरुपभोग है। विग्रहगतिने तब्दिरूप भावेन्द्रियके रहते हुए भी इन्द्रियोंकी रचना न होनेसे शब्दादिकका उपभोग नहीं होता प्रश्न तेजस शरीर भी निरुपमोग है इसलिए वहाँ यह क्यों कहते हो कि वह शरीर निरुपभोग है। उत्तर- हैजस शरीर योग में निमित्त भी नहीं होता, इसलिए इसका उपभोगके विचार में अधिकार नहीं है। (रा.वा./२/४४/२-३ / १५१) ९. तेजस व कामंण शरीरोंका स्वामित्व किं तत्कर्मइन्द्र तदभावरूपभोगस् । भावाच्या प्रविश्यते 1 स.सू./२/४२ सर्वस्य 1४२ - तेजस व कार्मण शरीर सर्व संसारी जीमोंके होते हैं। मोट अस कार्मण शरीरके उरकृष्ट अनुकृत प्रदेशाथोंका स्वामिल - ३० (प.वं./१२/५.६/४५८४७८/४१६-४२२) तेजस व कार्मण शरीरोंके जघन्य व अजघन्य प्रदेशाग्रोके संचप्रका स्वामित्व । - दे० ५. ९४/५/४११-४१८/२२८) १०. अन्य सम्बन्धित विषय १. तेजस व कार्मण शरीर अमतिपाती है। Jain Education International - दे० शरीर/१/५ । ३९५ २. वैजस समुद्घात निर्देश २. पाँचों शरीरोंकी उत्तरोत्तर सूक्ष्मता व उनका स्वामित्व । --दे० शरीर/१/५ । स्पर्शन, काल, अन्तर, - दे० वह वह नाम । ३. तैजस शरीरकी सत्, संख्या, क्षेत्र, भाव, अल्पबहुत्व आठ प्ररूपणाएँ । ४. तेजस शरीरकी संघातन परिशातन कृति । -२०६/१/२६१-४३११ ५. मार्गणा प्रकरण में भाव मार्गणाकी इष्टता तथा आपके अनु सार व्यय होनेका नियम - दे० मार्गणा । २. तैजस समुदघात निर्देश १. तेजस समुद्घात सामान्यका लक्षण रा.वा./१/२०/१२/७७/१६ जीवानुग्रहोपघातप्रवणतेज' शरीरनिर्वर्तनार्थस्तेजस्समुह पात. जीवोंके अनुग्रह और विनाशमें समर्थ तैजस शरीर की रचना के लिए तेजस समुद्रघात होता है। घ.४/१.३,२/२०/० तेजासरीरसमुग्धादो नाम तेजइयसरीरविउ । - शरीरके विसर्पणका नाम तेजस्कशरीरसमुहात है। * ★ तैजस समुद्घातके भेद निस्सरणात्मक तेजस शरीरवद्दे० तैजस/१/२ । २. अशुभ तैजस समुद्रातका लक्षण रा. वा. /२/४६/८/१५३/१६ यतेरुप्रचारित्रस्यातिक्रुद्धस्य जीवप्रदेशसंयुक्तं महिनिष्क्रम्य दायं परिवृत्यावतिष्ठमानं निम्पामहरिसपरिपूर्ण स्थालीभिव पचति पचनिय अपरिमनतिष्ठते अग्निदाह्यो भवति निःसरणात्मकम्। निःसरणारमक तेजस उचारियाले अोिधी यतिके शरीरसे निकलकर जिसपर क्रोध है उसे घेरकर ठहरता है और उसे शाककी तरह पका देता है, फिर वापिस होकर यतिके शरीरमें ही समा जाता है। यदि अधिक देर ठहर जाये तो उसे भस्मसात् कर देता है । ध. १४/५,६,२४१/३२८/५ कोधं गदस्स सजदस्स वामसादो बारहजोयणायामे जोयनविभेण सुचि अंगुलर संखेज्जदिभाग मारले जाणे निस्सरिग सगस्ये सम्भं सरस त्रिणा का पुणो पविसमा रेदि तमसृहं णाम | = क्रोधको प्राप्त हुए संयतके वाम कंधे से बारह योजन लम्बा, नौ योजन चौड़ा और सूच्यंगुलके संख्यातवें भाग प्रमाण मोटा तथा जपाकुसुमके रंगवाला शरीर निकलकर अपने क्षेत्रके भोटर स्थित हुए जीवोंका विनाश करके पुनः प्रवेश करते हुए जो उसी संयतको व्यास करता है वह अशुभ तेजस शरीर है (ध. /४/१.३.२/२०/१) इ.सं./टी./१०/२७/८ स्वस्थ मनोऽनिष्टजन किंचित्कारणान्तरमवतो समुत्पन्नक्रोधस्य संयमनिधानस्य महामुनेर्मूलशरीरमपरित्यज्य सिर दोर्घवेन द्वादशयोजन प्रमाणः सुध्यख संरुमेय भागमूल विस्तारो नवयोजनविस्तार काहलाकृतिपुरुषो वामस्कन्धाद्रिश्य वामप्रदक्षिणेन दमे निहित विरुद्ध वस्तु भस्मसात्कृ तेनैव संयमिना सह स च भस्म व्रजति द्वीपायनमुनिवत् । असावशुभतेजः समुद्घातः । अपने मनको अनिष्ट उत्पन्न करनेवाले किसी कारणको देखकर कोधी संयम के विधान महामुनिके नायें कसे सिन्दूरके ढेर जैसी कान्तिवासा भारह योजन सम्भा सूच्यंगुल संख्यात भाग प्रमाण मूल विस्तार और नौ योजन के अग्र विस्तारवाला; काहल ( बिलाव ) के आकारका धारक पुरुष निकल करके बाय प्रदक्षिणा देकर मुनि जिसपर क्रोधी हो उस पदार्थको भस्म करके और उसी मुनिके साथ आप भी भस्म हो जावे जैसे ' द्वैपायन मुनि । सो अशुभ तैजस समुद्रघात है । 1 1 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only ·1 www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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