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गणित
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II. गणित विषयक प्रक्रियाएं
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La
१२
संख्यात
rछे छे छे: धनलोककी अर्धच्छेद : असंख्यात | सागरकी अर्धच्छेद रा० rछेछेछ३ :जगश्रेणीको अर्धच्छेद रा०
हानि गुणित समय
प्रबद्ध छे छे छ। जगत्पतरकी अर्थच्छेद रा०
: अन्तर्मुहूर्त, संरख्यात
आवली
३. संकलनकी प्रक्रिया गो.जी./पूर्व परिचय/पृ./पं. किसी प्रमाणको किसी प्रमाणविषै जोड़िये
सो संकलन कहिये ।५६-४। (जिसमे जोडा जाये उसे मूल राशि कहते हैं )। जोड़ने योग्य राशिका नाम धन है। मूलराशिको तिस करि अधिक कहिए ।५६-१६ गो.जी./अर्थ संदृष्टि-जोडते समय धनराशि ऊपर और मूलराशि नीचे लिखी जाती है। (जब कि अगरेजी विधिमें मूलराशि ऊपर और धनराशि नीचे लिखकर जोडा जाता है)। यथा
१०००-१०००+५=१००५ या १०००-१०००+५१००५
४. कर्मोकी स्थिति व अनुमागकी अपेक्षा सहनानियाँ (ल. सा. की अर्थसंदृष्टि) अचलावली या
अनुभाग विषे अविभाआबाधा काल
गीप्रतिच्छेदनिके प्रमाण
की समानता लिये एक : क्रमिक हानिगत निषेक, उदयावली,
एक वर्ग वर्गणा विषै उच्छिष्टावली
पाइये तिस वर्गणाकी
संदृष्टि : कर्म स्थिति (आमाधावलीके
वर्गनिका प्रमाण ऊपर निषेक रचना)
वर्गणाविषै क्रमतै
हानिरूप होय। : आवाधा काल+
उदयावली उपरितन स्थिति+-उच्छिष्टावली
कर्मानुभाग
४. व्यकलनकी प्रक्रिया गो.जी./पूर्व परिचय/पृ./पं. किसी प्रमाणको किसी प्रमाण विषै घटाइये तहां व्यकलन कहिये ।५६-21 (जिस राशिमेंसे घटाया जाये उसे मूलराशि कहते हैं)। घटावने योग्य राशिका नाम ऋण है। मूल राशिको तिसकरि हीन, वा न्यून, वा शोधित वा स्फोटित कहिए
६०-२॥ गो.जी./अंक संदृष्टि-घटाते समय निम्न विधियोंके प्रयोगका व्यवहार
II. गणित विषयक प्रक्रियाएँ १. परिकर्माष्टक गणित निर्देश
१. अंकोंकी गति वाम भागसे होती है गो.जी./पूर्व परिचय/६०/१८ अङ्कानां वामतो गतिः। - अंकनिका अनुक्रम बाई तरफसेती है। जैसे २५६ के तीन अंकनिविषै छक्क आदि (इकाई) अंक, पांचा दूसरा ( दहाई ) अंक, दूवा अंत (सैंकड़ा) अंक कहिये। ( यद्यपि अंकोंको लिखते समय या राशिको मुंहसे बोलते समय भी अंक बायेसे दायेको लिखे या बोले जाते हैं जैसे दो सौ छप्पनमें दोका अंक अन्तमें न बोलकर पहिले बोला या लिखा गया, परन्तु अक्षरों में व्यक्त करनेसे उपरोक्त प्रकार पहिले इकाई फिर दहाई रूपमें इससे उलटा क्रम ग्रहण किया जाता है।)
२. परिकर्माष्टकके नाम निर्देश गो.जी./पूर्व परिचय/पृ.पं. परिकर्माष्टकका वर्णन इहाँ करिए हैं। तहाँ संकलन, व्यकलन, गुणकार, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन और धनमूल ए आठ नाम जानने 1५८-१७ अब भिन्न परिकर्माष्टक कहिये हैं। तहां अंश और हारनिका संकलनादि ( उपरोक्त आठौं) जानना (दे० आगे नं०१०)। अब शून्य परिकर्माष्टक कहिए है। (बिन्दीके संकलनादि उपरोक्त आठों शून्य परिकष्टिक कहलाते हैं। (दे० आगे नं० १९) ६८-१७४
(१)-(१००४)- १०००-५-६६५॥ (२)-(क)-एक घाट कोटि। (३)-(११)-एक घाट लक्ष ॥ (४)- )-एक घाट लक्ष । (१) (ल-२)-२ घाट लक्ष ॥ (६) (लmm२)-२ घाट लक्ष । (७)(७)-(ख-)-किचिद्गन अनन्त ॥ (८)-(ल-२)-(ल-२-२) ॥ (६)-(ल-५)-५ घाट लक्ष ॥ (१०)-(6)५ घाट लक्ष । (११)- (छे व छे) - पत्यकी अर्धच्छेदराशिमें-से पल्यकी वर्गशलाकाराशि घटाओ।
५. गुणकार प्रक्रिया गो.जी./पूर्व परिचय/पृ./पं. किसी प्रमाणको किसी प्रमाणकरि गुणिए
तहां गुणकार कहिए ।५8-७। गुणकारविष जाको गुणिए ताका नाम गुण्य कहिए । जाकरि गुणिए ताका नाम गुणकार या गुणक कहिए। गुण्य राशिको गुणकार करि गुणित, हत वा अभ्यस्त व धनत कहिए है। ...गुणनेका नाम गुणन वा हनन वा धात इत्यादि कहिए है
६०-४। गो.जी./अर्थसंदृष्टि-गुणा करते समय गुणकारको ऊपर तथा गुण्यको नीचे लिख निम्न प्रकार स्खण्डों द्वारा गुणा करनेका व्यवहार था। यथा
२५६ १४२-२ ६४२-१२
३२
४००६
४०० १x६= ६ ६x६-३६
२५६ १६४ २५६ -४०६६
३२५६
४००६
।
फल ४०६६
६. भागहार प्रक्रिया गो.जी./पर्व परिचय/प./पं.किसी प्रमाणको किसी प्रमाणका जहाँ भाग दीजिए तहाँ भागहार कहिए।५६-८] जा विर्ष भाग दीजिए ताका
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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