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ज्योतिष लोक
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से बढते हुए तथा प्रत्येक सूर्य ४१६ चंद्र
र बराबर ४ वृद्धिक
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सूर्य २९२ 2 चंद्र सूर्न २८८ व सूर्य १७२ चद्र
सूर्य १४८ चद्र
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अढ़ाई
याप्रमाण
५०,००० यौ 900,000 यो
900,000 900,000
900,000 =१००,००० यो १००,००० यो १००,००० यो
ॐ
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द्वीप
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समुद्र के प्रथ
समुद्र के
६. चर ज्योतिष विमानोंका चार क्षेत्र-टिप्पण- गमनशील निम्म मनुष्यक्षेत्र अर्थात् जो पाकीखण्ड काली समुद्र और पुष्करार्धद्वीपमें ही है (स. सु.// १३-१५) (स.सि./४/१३/२४५/११) (ह.पू./६/२५); (त्रि. सा. /३४५ ); (ज. १ /१२/१३ ) । तिनमें पृथक्-पृथक् चन्द्र आदिकों का प्रमाण पहले बताया गया है ( दे. ज्योतिषी / २ / ३)। ये सभी ज्योतिषी देव १९२१ योजन छोड़कर मेरुओंकी प्रदक्षिणा रूपसे स्व-स्व मार्ग में गमन करते रहते है ।
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उनके गमन करनेके मार्गको चार क्षेत्र कहते हैं अर्थात आकाशके इतने भागमें ही ये गमन करते हैं इसके बाहर नहीं । यद्यपि चन्द्रादिकी संख्या आगे-आगे द्वीपोंमें महती गयी है पर उनके चार क्षेत्रका विस्तार सर्वत्र एक ही है। दो-दो चन्द्र व सूर्य का एक ही चारक्षेत्र है। अतः चन्द्रों व सूर्योकी संख्याको दोसे भाग देनेपर उस उस द्वीप व सागरमें उनके चार क्षेत्रोंका प्रमाण प्राप्त हो जाता है। ( देखो नीचे सारिणी )
चन्द्रमा व सूर्य दोनों ही के चार क्षेत्र सर्वत्र ५१०४६ योजन चौड़े तथा उस उस द्वीप व सागरकी परिधि प्रमाण होते हैं। चन्द्रमाके प्रत्येक चार क्षेत्र में १५ तथा सूर्यके प्रत्येक चार क्षेत्रने १०४ गलियाँ कल्पित की गयी हैं। चन्द्रमाको गतियोंके बीच अन्तरास सर्वत्र ही ३५४२७ ३१४ योजन तथा सूर्यकी गलियोंके बीच २ योजन होता है, क्योंकि चारक्षेत्र समान होते हुए गलियाँ होनाधिक हैं । प्रत्येक गलीका विस्तार अपने-अपने बिम्बके विस्तारके जितना ही समझना चाहिए अर्थात् चन्द्र पथका विस्तार योजन तथा सूर्य पथका योजन चौड़ा न ऊँचा है। (२० नीचे सारिणी)
विस्तार
चन्द्र व सूर्य प्रतिदिन आधी-आधी गलीका अतिक्रमण करते हुए अगली - अगली गलीको प्राप्त होते रहते है शेष आधी गली में वे नहीं जाते हैं, क्योंकि वह द्वितीय चन्द्र व सूर्यसे भ्रमित होता है (ति.प./ २०) यहाँ तक कि वे दिन चन्द्रमा और १८४ दिन सूर्य अन्तिम गली में पहुँच जाते हैं वहाँसे पुनः भीतर की गलियोंकी और लौटते हैं, और क्रमसे एक-एक दिनमें एक-एक गलीका अतिक्रमण
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करते हुए एक महीने में चन्द्र और एक वर्ष में सूर्य अपने पहली गलीको पुनः प्राप्त कर लेते है ।
नोट-- राहुकेतुके गमनके लिए (देखो ज्योतिषी / २/८) ।
ति.प./०/गा / सारा सो द्वीप किये और
जम्मू द्वीप सम्बन्धी सूर्य व चन्द्रमा १८० योजन ३३०.४८. योजन लवण समुद्र विविचरते हैं, पर
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अर्थात उनके ५१०
यो प्रमाण चार क्षेत्रका इतना इतना भाग
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६९ द्वीप व समुद्रकी प्रणिधियों में पडता है । ११८,२१८ । (त्रि.सा./३७५) । (सभी द्वीपों अपने-अपने चन्द्रों से आधे एक भाग में अर्थात पूर्व दिशामें और आधे दूसरे भाग अर्थात पश्चिम दिशामें क्रम संचार करते हैं । १४१ पश्चात् चन्द्रम्म अग्निदिशासे aiser वीथीके अर्धभाग में जाता है । द्वितीय चन्द्रसे भ्रमित होनेके कारण शेष अर्ध भाग नहीं जाता | २० | ( इसी प्रकार ) अपने-अपने में से बाये एक भाग में और दूसरे आये दूसरे भाग में पंक्तिकमसे संचार करते हैं । ५७२।
अर्थात प्रत्येक चन्द्र जहाँ प्रत्येक बौधीमें
अठासी ग्रहाँका एक ही चार क्षेत्र है सम्बन्धी ८८ ग्रहोंका पूर्वोक्त ही चार क्षेत्र है उनके योग्य वीथियाँ हैं और परिधियाँ हैं । (चन्द्रमावाली वीथियोंके बीच में ही यथायोग्य ग्रहोकी वीथियाँ है) वे ग्रह इन परिधियों में संचार करते हैं। इनका मेरु पर्वतसे अन्तराष्ट तथा और भी जो पूर्व में कहा जा चुका है इसका उपदेश कालवश नष्ट हो चुका है ।४५७-४५८
चन्द्रकी १५ गलियोंके मध्य उन २८ नक्षत्रोंकी ८ ही गडियों होती हैं। अभिजित आदि ६ ( देखो नक्षत्र), स्वाति, पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी ये १२ नक्षत्र चन्द्रके प्रथम मार्ग में संचार करते । हैं । चन्द्रके तृतीय पथमें पुनर्वसु और मघा, ७ वें में रोहिणी और चित्रा, में कृत्तिका और टवेमें विशाखा नक्षत्र संचार करता है। १० अनुराधा ११ पेक्षा और १३ मार्ग में हस्त, स पूर्वाषाढ, उत्तराषाढ, मृगशिरा, आर्द्रा, पुष्य और कारतेा ये बा नक्षत्र संचार करते हैं । (शेष २,४,५,६,१२.१३ १४ इन सात मार्गों में कोई नक्षत्र संचार नहीं करता) १४५६०४६२२ स्वाति, भरणी, गुस अभिजित और कृत्तिका मे पाँच नक्षत्र अपने-अपने मार्गने हमसे ऊर्ध्व, अधः, दक्षिण, उत्तर और मध्यमें संचार करते है |४६१| तथा (त्रि.सा./३४४) नत्र मन्दर पर्म के कमसे अपने अपने मार्गों में नित्य ही संचार करते हैं । ४६२ | नक्षत्र व विषै गमन करते हैं, अन्य अन्य वीथियोंको (त्रि.सा./१४५) ।
नक्षत्रों के गमनसे सब ताराओका गमन अधिक जानना चाहिए। इसके नामादिकका उपदेश इस समय नष्ट हो गया । ४६६ । वनोद आदि ज्योतिषी को कुछ विशेषताएँ
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तारे एक ही पथ प्राप्त नहीं होते हैं।
जम्बूद्वीपमें सम ज्योतिषी देवोंके समूह मेरुकी प्रदक्षिणा करते हैं तथा धातकीखण्ड और पुष्करार्ध द्वीपमें आधे ज्योतिषी मेरुकी प्रदक्षिणा करते हैं (आधे नहीं करते) । ६११ । लवण समुद्र आदि चारमें जो सूर्य चन्द्र हैं उनकी किरणें अपने अपने क्षेत्रों में ही जाती हैं अन्य क्षेत्रमें कदापि नहीं जातीं ॥२८
(उपरोक्त कुल कथन त्रिसा/३७४-३०६ में भी दिया है।
नोट- निम्न सारणी में व्रकेटमें रहे अंक ति.प./७/की गाथाओंको सूचित करते हैं। प्रत्येक विकल्पका प्रमाण उसके नीचे दिया गया है ।
संकेत - उप चन्द्र या सूर्यका अपना अपना उपरोक्त विकल्प ।
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