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________________ जीव ३३९ ४. जीवके प्रदेश ४. जीवके प्रदेश अर्थात् संसारी जीवके तीन प्रकारके होते हैं-चलित, अचलित व चलिताचलित। ३. शुद्ध द्रव्यों व शुद्ध जीवके प्रदेश अचल ही होते १. जीव असंख्यात प्रदेशी है त.सू./१८ असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मकजीवानाम् ।। =धर्म, अधर्म और एकजीव द्रव्यके असंख्यात प्रदेश हैं । (नि.सा./मू./३५), (प.प्रा./मू./२/२४); (द्र.सं./मू./२५) प्र. सा./त.प्र./१३५ अस्ति च संवर्त विस्तारयोरपि लोकाकाशतुल्यासंख्येयप्रदेशापरित्यागाजीवस्य ।मंकोच विस्तारके होनेपर भी जीव लोकाकाश तुल्य असंख्य प्रदेशोंको नहीं छोड़ता, इसलिए वह प्रदेशबान है । (गो.जी.//५८४/१०२५) रा.वा./५/८/१६/४५१/१३ में उद्धृत-केवलिनामपि अयोगिनां सिद्धानां च सर्वे प्रदेशा स्थिता एव । =अयोगकेवली और सिद्धोंके सभी प्रदेश स्थित है। ध.१२/४,२,११.५/३६७/१२ अजोगिकेवलि म्मि जीवपदेसाणं संकोचविको चाभावेण अवठ्ठाणुवल भादो। अयोग केवली जिनमें समस्त योगोके नष्ट हो जानेसे जीव प्रदेशोंका संकोच व विस्तार नहीं होता है, अतएव वे वहाँ अवस्थित पाये जाते हैं। गो.जी./मू./५६२/१०३१ सबमरूबी दबं अवठ्ठिदं अचलिआ पदेसावि । रूबी जीवा चलिया तिवियप्पा हो तिहु पदेसा ।५६२। गो.जी./जी.प्र./५६२/१०३१/१५ अरूपिद्रव्यं मुक्तजीवधर्माधर्माकाशकाल भेदं सर्वम-अबस्थितमेव स्थानचलनाभावात् । तत्प्रदेशा अपि अचलिताः स्युः । - सर्व अरूपी द्रव्य अर्थात् मुक्तजीव और धर्म-अधर्म आकाश व काल, ये अवस्थित हैं, क्योंकि ये अपने स्थानसे चलते नहीं हैं । इनके प्रदेश भी अचलित ही है। २. संसारी जीवके अष्ट मध्यप्रदेश अचल हैं और शेष चल व अचल दोनों प्रकारके ष. खं, १४/५.६/सू.६३/४६ जो अणादियसरीरिबंधो णाम यथा अण्णं जीवनज्मपदेसाणं अण्णोण्णपदेसबंधो भवदि सो सम्बो अणादियसरीरिबंधोणाम ६३। -जो अनादि शरीरबन्ध है। यथा-जीवके आठ मध्यप्रदेशोंका परस्पर प्रदेशबन्ध होता है, यह सब अनादि शरीरबन्ध है। ष. ख.१२/४,२,११/सूत्र५-७/३६७ वेयणीयवेयणा सिया द्विदा।। सिया अद्विदा ।६। सिया ठ्ठिदाठ्ठिदा ७४ -वेदनीय कर्मकी वेदना । कथ चित् स्थित है ।। कथंचित वे अस्थित हैं ।६। कथंचित् वह स्थितअस्थित है। ध.१/११,३३/२३३/१ में उपरोक्त सुत्रोंका अर्थ ऐसा किया है-कि 'आत्म प्रदेश चल भी है, अचल भी है और चलाचल भी है'। भ.आ./मू./१७७६ अट्ठपदेसे ‘मुत्तूण इमो सेसेसु सगपदेसेसु । तत्तंपि । अदरणं उव्वत्तपरत्तणं कुणदि ।१७७६! = जैसे गरम जलमें पकते हुए चावल ऊपर-नीचे होते रहते हैं, वैसे ही इस संसारी जीवके आठ रुचकाकार मध्यप्रदेश छोड़कर बाकीके प्रदेश सदा ऊपर-नीचे घूमते है। रा.वा./५/८/१६/४५१/१३ में उद्धृत-सर्वकालं जीवाष्टमध्यप्रदेशा निर पवादाः सर्वजीवानां स्थिता एव, ...व्यायामदु खपरितापोद्रेकपरिणताना जीवानां यथोक्ताष्टमध्यप्रदेशवर्जितानाम् इतरे प्रदेशाः अस्थिता एव, शेषाणां प्राणिनां स्थिताश्चास्थिताश्च' इति वचनान्मुख्याः एव प्रदेशाः। जीवके आठ मध्यप्रदेश सदा निरपवादरूपसे स्थित ही रहते हैं । व्यायामके समय या दुःख परिताप आदिके समय जीवोंके उक्त आठ मध्यप्रदेशोंको छोड़कर बाकी प्रदेश अस्थित होते हैं । शेष जोबोंके स्थित और अस्थित दोनो प्रकारके हैं। अतः ज्ञात होता है कि द्रव्योंके मुख्य ही प्रदेश हैं, गौण नहीं। ध.१२/४,२,११,३/३६६/५ वाहिवेयणासज्झसादि किलेसविरहियस्स छदुमत्यस्स जीवपदेसाणं केसि पि चलणाभावादो तस्थ ट्ठिदकम्मवखंधा वि ठ्ठिदा चेव हों ति, तत्थेव केसि जीवपदेसाणं संचालुवलंभादो तत्थ ठ्ठिदकम्मरवधा वि संचलं ति, तेण ते अदिदा त्ति भण्णं ति । -- व्याधि, वेदना एवं भव आदिक क्लेशोसे रहित छद्मस्थ के किन्हीं जीवप्रदेशोंका चूकि संचार नहीं होता अतएव उनमें स्थित कर्मप्रदेश भी स्थित ही होते हैं। तथा उसी छद्मस्थके किन्हीं जीवप्रदेशोंका चूकि संचार पाया जाता है. अतएव उनमें स्थित कर्मप्रदेश भी संचारको प्राप्त होते है, इसलिए वे अस्थित कहे जाते हैं। गो.जी./मू./१६२/१०३१ सव्वमरूवी दव्वं अवट्ठिदं अचलिआ पदेसावि। रूवी जीवा चलिया तिवियप्पा होंति हु पदेसा ।५४२सर्व ही अरूपी द्रव्यों के त्रिकाल स्थित अचलित प्रदेश होते हैं और रूपी १. विग्रहगतिमें जीवके प्रदेश चलित ही होते हैं गो:/जी./जी प्र/५६२/१०३१/१६ विग्रहगतौ चलिताः। -विग्रह गतिमें जीवके प्रदेश चलित होते है। ५. जीवप्रदेशोंके चलितपनेका तात्पर्य परिस्पन्द व भ्रमण आदि ध.१/१,१,३३/२३३/१ वेदनासूत्रतोऽवगतभ्रमणेसु जीवप्रदेशेषु प्रचलत्सु... ध.१२/४,२,११,१/३६४/५ जीवपदेसेसु जोगवसेण संचरमाणेसु... घ.१२/४,२,११,३/१६६/ जीवपदेसाणं केसि पिचलणाभावादो केसि जीवपदेसाणं संचालुवलं भादो... ध.१२/४,२,११३/३६६/११ ण च परिप्फंदविरहियजीवपदेसेसु... ध. १२/४,२.११.५/३६७/१२ जीवपदेसाणं संकोचविकोचाभावेण" । -१. वेदनाप्राभृतके सूत्रसे आत्मप्रदेशोंका भ्रमण अवगत हो जानेपर... २. योगके कारण जीवप्रदेशोका संचरण होनेपर... ३. किन्हीं जीवप्रदेशोका क्योकि चलन नहीं होता.. किन्ही जीव प्रदेशों का क्योंकि संचालन होता है ... ४. परिस्पन्दनसे रहित जीव प्रदेशोमे ५. जीवप्रदेशोका ( अयोगीमे ) संकोच विस्तार नहीं पाया जाता." ६. जीवप्रदेशोंकी अनवस्थितिका कारण योग है ध./१२/४,२,११,१/३६७/१२ अजोगकेवलिम्मि णट्ठासेसजोगम्मि जीवपदेसाणं संकोच विकोचाभावेण अवठाणवलं भादो। - अयोगकेवली जिनमे समस्त योगोके नष्ट हो जानेसे जीवप्रदेशीका संकोच व विस्तार नहीं होता, अतएव वे वहाँ अवस्थित पाये जाते हैं । ७. चलाचल प्रदेशों सम्बन्धी शंका समाधान ध.१/१,१,३३/२३३/१ भ्रमणेषु जीवप्रदेशेषु प्रचलत्सु सर्व जीवानामान्ध्यप्रसङ्गादिति, नैष दोषः, सर्वजीवावयवेषु क्षयोपशमस्योत्पत्त्यभ्युपगमात । .."कर्मस्कन्धैः सह सर्वजीवावयवेषु भ्रमत्सु तत्समवेतशरीरस्यापि तद्वभ्रमो भवेदिति चेन्न, तभ्रमणावस्थाया तत्समवाया जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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