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जीव
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जोवत्व
पाया जाता है, अतएव उनमे स्थित कर्मप्रदेश भी संचारको प्राप्त होते है, इसलिए वे अस्थित ( चलित ) कहे जाते है। जीव आत्रव-दे० आस्रव/१। जीव कर्म-दे० कर्म/२। जीव चारण ऋद्धि-दे० ऋद्धि/४/८ । जीवतत्त्व-दे० तत्त्व । जीव तत्त्व प्रदीपिका-१. आ. नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती (ई. १८१) कृत गोमट्टसार पर ब्रह्मचारी केशव वर्णी (ई.१३५१) कर्णाटक वृत्ति। २. अभयचन्द्र कृत मन्द प्रबोधिनी के आधार पर ज्ञानभूषण के शिष्य नेमिचन्द द्वारा ई. १५१५ में रचित संस्कृत की गोमट्टसार टीका। इस पर से पं० टोडर मल जी ने सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका टोका रची। (जै. १/४७०, ४७७), जावत्व-जीवके स्वभावका नाम जीवत्व है। पारिणामिक होनेके कारण यह न द्रव्य कहा जा सकता है न गुण या पर्याय । इसे केवल चैतन्य कह सकते हैं। किसी अपेक्षा यह औदयिक भी है और इसीलिए मुक्त जीवोमें इसका अभाव माना जाता है।
१. लक्षण स. सि./२/७/१६१/३ जीवत्वं चैतन्यमित्यर्थः । =जीवत्वका अर्थ
चैतन्य है। स. सा./आ./परि/शक्ति नं. १ आरमद्रव्यहेतुभूतचैतन्यमात्रभावधारणलक्षणा जीवत्वशक्तिः। -आत्मद्रव्यके कारणभूत ऐसे चैतन्यमात्र भावका धारण जिसका लक्षण है अर्थात स्वरूप है, ऐसी जीवत्व शक्ति है।
भावात्। शरीरेण समवायाभावे मरणमाढीकत इति चेन्न, आयुषःक्षयस्य मरणहेतुत्वाव। पुन. कथं स घटत इति चेन्नानाभेदोपसहृतजीवप्रदेशानां पुनः संघटनोपलम्भाव, द्वयोमर्तयोः संघटने विरोधाभावाच्च, तत्संघटनहेतुकर्मोदयस्य कार्यवैचित्र्यादवगतवैचित्र्यस्य सत्त्वाच्च । द्रव्येन्द्रियप्रमितजीवप्रदेशानां न भ्रमणमिति किन्नेष्यत इति चेन्न, तभ्रमणमन्तरेणाशुभ्रमजीवानां भ्रमभूम्यादिदर्शनानुपपत्तेः इति।
प्रश्न-जीवप्रदेशोंकी भ्रमणरूप अवस्थामें सम्पूर्ण जीवोंको अन्धपनेका प्रसंग आ जायेगा, अर्थात् उस समय चक्षु आदि इन्द्रियाँ रूपादिको ग्रहण नहीं कर सकेंगी। उत्तर-यह कोई दोष नही है, क्योंकि, जोवोंके सम्पूर्ण प्रदेशोमें क्षयोपशमकी उत्पत्ति स्वीकार की गयी है। प्रश्न- कर्मस्कन्धों के साथ जीवके सम्पूर्ण प्रदेशों के भ्रमण करनेपर जोवप्रदेशोंसे समवाय सम्बन्धको प्राप्त शरीरका भी जोवप्रदेशोंके समान भ्रमण होना चाहिए ! उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, जीवप्रदेशोंकी भ्रमणरूप अवस्थामें शरीरका उनसे समवाय सम्बन्ध नहीं रहता है। प्रश्न-ऐसा माननेपर मरण प्राप्त हो जायेगा ! उत्तरनहीं, क्योंकि, आयुकर्मके क्षयको मरणका कारण माना है। प्रश्नतो जीवप्रदेशोंका फिरसे समवाय सम्बन्ध कैसे हो जाता है ? उत्तर-१) इसमें भी कोई बाधा नहीं है, क्योंकि, जिन्होंने नाना अवस्थाओंका उपसंहार कर लिया है, ऐसे जीवोंके प्रदेशोंका फिरसे समवाय सम्बन्ध होता हुआ देखा ही जाता है। तथा दो मूर्त पदार्थोंका सम्बन्ध होनेमें कोई विरोध भी नहीं है। (२) अथवा, जीवप्रदेश व शरीर संघटनके हेतुरूप कर्मोदयके कार्यकी विचित्रतासे यह सब होता है। प्रश्न-द्रव्येन्द्रिय प्रमाण जीवप्रदेशोंका भ्रमण नहीं होता, ऐसा क्यों नहीं मान लेते हो। उत्तर-नहीं, क्योंकि, यदि द्रव्येन्द्रिय प्रमाण जीव प्रदेशोंका भ्रमण नहीं माना जावे, तो अत्यन्त द्रुतगतिसे भ्रमण करते हुए जीवोंको भ्रमण करती हुई पृथिवी आदिका ज्ञान नहीं हो सकता। ८. जीव प्रदेशोंके साथ कर्मप्रदेश भी तदनुसार ही
चल व अचल होते हैं ध.१२/४,२,११,२/३६५/११ देसे इव जीवपदेसेसु वि अदित्ते अब्भुवगममाणे पुव्वुत्तदोसप्पसंगादो च। अट्ठणं मज्झिमजीवपदेसाणं संकोचो विकोचो वा णत्थि त्ति तत्थ ट्ठिदकम्मपदेसाणं पि अछिदत्तं णत्थि त्ति । तदो सब्वे जीवपदेसा कम्हि वि काले अठ्ठिदा होति त्ति मुत्सवयणं ण घडदे। ण एस दोसो, ते अट्ठिमज्झिमजीवपदेसे मोत्तूण सेसजीवपदेसे अस्सिदूण एदस्स मुत्तस्स पवुत्तीदो। 7.१२/४,२,११,३/३६4/५जीवपदेसाणं केसि पि चलणाभावादो तत्थ10 कम्मक्खंधा वि ठ्ठिदा चेव होंति, तत्थेव केसि जीवपदेसाणं संचालुलभादो तत्थ ठ्ठिदकम्मक्रवंधा वि संचलं ति, तेण ते अट्टिदा त्ति भण्णं ति। -दूसरे देशके समान जीवप्रदेशोंमें भी कर्मप्रवेशोंको अवस्थित स्वीकार करनेपर पूर्वोक्त दोषका प्रसंग आता है। इससे जाना जाता है कि जीव प्रदेशोंके देशान्तरको प्राप्त होनेपर उनमें कर्म प्रदेश स्थित ही रहते हैं। प्रश्न-यतः जीवके आठ मध्य प्रदेशोंका संकोच एवं विस्तार नहीं होता, अतः उनमें स्थित कर्मप्रदेशोंका भी अस्थित(चलित )पना नहीं बनता और इसलिए सब जीव प्रदेश किसी भी समय अस्थित होते हैं, यह सूत्रवचन घटित नहीं होता। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि. जीबके उन आठ मध्य प्रदेशों को छोड़कर शेष जीवप्रदेशोंका आश्रय करके इस सूत्रकी प्रवृत्ति होती है ।...किन्हीं जीवप्रदेशोका क्योंकि संचार नहीं होता, इसलिए उनमें स्थित कर्मप्रदेश भी स्थित हो होते है। तथा उसी जीवके किन्हीं जीवप्रदेशोंका क्योंकि संचार
२. जीवत्व भाव पारिणामिक है रा.वा/२/७/३-६/११०/२४ आयुद्रव्यापेक्षं जीवत्वं न पारिणामिकमिति
चेतः न; पुद्गलद्रव्यसबन्धे सत्यन्यद्रव्यसामयाभावात् ।। सिद्धस्याजीवत्वप्रसंगात ।४। जीवे त्रिकालविषयविग्रहदर्शनादिति चेत; न; रूढिशब्दस्य निष्पत्त्यर्थत्वात् ।। अथवा, चैतन्य जीवशब्देनाभिधीयते,तच्चानादिद्रव्यभवननिमित्तत्वात पारिणामिकम्।= प्रश्नजीवत्व तो आयु नाम द्रव्यकर्मकी अपेक्षा करके वर्तता है, इसलिए वह पारिणामिक नहीं है। उत्तर-ऐसा नहीं है; उस पुद्गलात्मक आयुद्रव्यका सम्बन्ध तो धर्मादि अन्य द्रव्योसे भी है, अतः उनमें भी जीवत्व नहीं है ।३। और सिद्धोंमे कर्म सम्बन्ध न होनेसे जीवत्वका अभाव होना चाहिए। शंका--'जो प्राणों द्वारा जीता है, जीता था और जीवेगा' ऐसी जीवत्व शब्दकी व्युत्पत्ति है ! उत्तरनहीं, वह केवल रूढिसे है। उससे कोई सिद्धान्त फलित नहीं होता। जीवका वास्तविक अर्थ तो चैतन्य ही है और वह अनादि पारिणामिक द्रव्य निमित्तक है।
३. जीवत्व माव कथंचित् औदयिक है ध.१४/५,६,१६/१३/१ जीवभवाभवत्तादि पारिणामिया वि अस्थि, ते एस्थ किष्ण परूविदा । वुच्चद-आउआदिपाणाणं धारण जीवर्ण तंच अजोगिचरिमसमयादो उबरि णस्थि, सिद्ध सु पाणणिबंधणट्ठकम्माभावादो।...सिद्ध सु पाणाभावण्णहाणुववत्तीदो जीवत्तं ण पारिणामियं कि कम्म विवागज; यद्यस्य भावाभावानुविधानतो भवति तत्तस्येति बदन्ति तद्विद इति न्यायात्। ततो जीवभावो ओदइओ त्ति सिद्ध।-प्रश्न-जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व आदिक जीवभात्र पारिणामिक भी हैं, उनका यहाँ क्यों कथन नहीं किया। उत्तर-कहते हैं-आयु आदि प्राणोंका धारण करना जीवन है। वह अयोगीके अन्तिम समयसे आगे नहीं पाया जाता, क्योंकि, सिद्धोंके
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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