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III नैगम आदि सात नय निर्देश
कालका प्रयोग करना कालव्यभिचार है । जैसे-(१) विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता' जिसने समस्त विश्वको देख लिया है ऐसा इसके पुत्र उत्पन्न होगा। यहॉपर विश्वका देखना भविष्यत् कालका कार्य है, परन्तु उसका भूतकालके प्रयोग द्वारा कथन किया गया है। इसलिए भविष्यत् कालका कार्य भूत कालमें कहनेसे कालव्यभिचार है। इसी तरह (२) भाविकृत्यमासीत् आगे होनेवाला कार्य हो चुका। यहाँपर भूतकालके स्थानपर भविष्य कालका कथन किया गया है। ४. एक साधन अर्थात् एक कारकके स्थानपर दूसरे कारकके प्रयोग करनेको साधन या कारक व्यभिचार कहते हैं। जैसे-'प्राममधिशेते' वह ग्रामोमें शयन करता है । यहाँ पर सप्तमीके स्थानपर द्वितीया विभक्ति या कारकका प्रयोग किया गया है, इसलिए यह साधन व्यभिचार है । ५. उत्तम पुरुषके स्थानपर मध्यम पुरुष और मध्यम पुरुषके स्थानपर उत्तम पुरुष आदिके कथन करनेको पुरुषव्यभिचार कहते है । जैसे-एहि मन्ये रथेन यास्यसि नहि यास्यसि यातस्ते पिता' आओ, तुम समझते हो कि मैं रथसे जाऊँगा परन्तु अब न जाओगे, क्योकि तुम्हारा पिता चला गया। यहाँ पर उपहास करनेके लिए 'मन्यसे' के स्थान पर 'मन्ये' ऐसा उत्तम पुरुषका और 'यास्यामि' के स्थानपर 'यास्यसि' ऐसा मध्यम पुरुषका प्रयोग हुआ है। इसलिए पुरुषव्यभिचार है। ६. उपसर्गके निमित्तसे परस्मैपदके स्थानपर आत्मनेपद और आत्मनेपदके स्थानपर परस्मैपदका कथन कर देनेको उपग्रह व्यभिचार कहते हैं। जैसे 'रमते' के स्थानपर "विरमति'; 'तिष्ठति' के स्थानपर 'संतिष्ठते' और 'विशति' के स्थानपर 'निविशते' का प्रयोग व्याकरणमें किया जाना प्रसिद्ध है । (स. सि./१/३३/१४३/४); (श्लो. वा. ४/१/३३/श्लो. ६०-७१/२५५); (ध.१/१,१.१/८१/१); (ध.१/४,१,४५/१७६/६); (क. पा. १/१३१४/११६७/२३३/३)।
भेदेऽप्यभिन्नमर्थमारता उपसर्गस्य धात्वर्थ मात्रद्योतकत्वादिति । तदपि न श्रेयः। तिष्ठति प्रतिष्ठत इत्यत्रापि स्थितिगतिक्रिययोरभेदप्रसङ्गात् । ततः कालादिभेदाद्भिन्न एवार्थोऽन्यथातिप्रसङ्गादिति शब्दनय' प्रकाशयति। तभेदेऽप्यर्थाभेदे 'दूषणान्तरं च दर्शयति-तथा कालादिनानात्वकल्पनं निष्प्रयोजनम् । सिद्धं कालादिन केन कार्यस्येष्टस्य तत्त्वतः ७३। कालाधन्यतमस्यैव कल्पनं ते विधीयताम् । येषां कालादिभेदेऽपि पदार्थकत्वनिश्चयः ।७४। शब्दकालादिभिभिन्नाभिनार्थ प्रतिपादकः। कालादिभिन्नशब्दत्वादृक्सिद्धान्यशब्दवत 1७५॥ ४०-१, काल व्यभिचार विषयक-वैयाकरणीजन व्यवहारनयके अनुरोधसे 'धातु सम्बन्धसे प्रत्यय बदल जाते हैं। इस सूत्रका आश्रय करके ऐसा प्रयोग करते हैं कि 'विश्वको देख चुकनेवाला पुत्र इसके उत्पन्न होवेगा' अथवा 'होनेवाला कार्य हो चुका'। इस प्रकार कालभेद होनेपर भी वे इन में एक ही वाच्यार्थका आदर करते हैं। तो आगे जाकर विश्वको देखेगा ऐसा पुत्र इसके उत्पन्न होगा' ऐसा न कहकर उपरोक्त प्रकार भविष्यत् कालके साथ अतीत कालका अभेद मान लेते हैं, केवल इसलिए कि लोकमें इस प्रकारके प्रयोगका व्यवहार देखा जाता है। परीक्षा करनेपर उनका यह मन्तव्य श्रेष्ठ नहीं है, क्योकि एक तो ऐसा माननेसे मूल सिद्धान्तकी क्षति होती है और दूसरे अतिप्रसंग दोष प्राप्त होता है। क्योंकि, ऐसा माननेपर भूतकालीन रावण और अनागत कालं न शख चक्रवर्ती में भी एकपना प्राप्त हो जाना चाहिए। वे दोनों एक बन बैठेगे। यदि तुम यह कहो कि रावण राजा हुआ था और शंख चक्रवर्ती होगा, इस प्रकार इन शब्दोकी भिन्न विषयार्थता बन जाती है, तब तो विश्वदृश्वा और जनिता इन दोनों शब्दोंकी भी एकार्थता न होओ। क्योंकि 'जिसने विश्वको देख लिया है' ऐसे इस अतीतकालवाची विश्वदृश्वा शब्दका जो अर्थ है, वह 'उत्पन्न होवेगा' ऐसे इस भविष्यकालवाची जनिता शब्दका अर्थ नहीं है । कारण कि भविष्यत् कालमें होनेवाले पुत्रको अतीतकाल सम्बन्धीपनेका विरोध है। फिर भी यदि यह कहो कि भूतकालमें भविष्य कालका अध्यारोप करनेसे दोनों शब्दोंका एक अर्थ इष्ट कर लिया गया है, तब तो काल-भेद होनेपर भी वास्तविकरूपसे अर्थोके अभेदकी व्यवस्था नहीं हो सकती। और यही बात शब्दनय समझा रहा है । २. साधन या कारक व्यभिचार विषयक-तिस ही प्रकार वे वैयाकरणी जन कतकिारक वाले 'करोति' और कर्मकारक वाले 'क्रियते' इन दोनों शब्दों में कारक भेद होनेपर भी, इनका अभिन्न अर्थ मानते हैं; कारण कि, 'देवदत्त कुछ करता है' और 'देवदत्तके द्वारा कुछ किया जाता है। इन दोनों वाक्योंका एक अर्थ प्रतीत हो रहा है। परीक्षा करनेपर इस प्रकार मानना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर तो 'देवदत्त चटाईको बनाता है' इस वाक्य में प्रयुक्त कर्ताकारक रूप देवदत्त और कर्मकारक रूप चटाईमें भी अभेदका प्रसंग आता है। ३. लिंग व्यभिचार विषयक-सिसी प्रकार वे वैयाकरणी जन 'पुष्यनक्षत्र तारा है' यहाँ लिग भेद होनेपर भी, उनके द्वारा किये गये एक ही अर्थका आदर करते है, क्योंकि लोकमें कई तारकाओसे मिलकर बना एक पुष्य नक्षत्र माना गया है। उनका कहना है कि शब्दके लिगका नियत करना लोकके आश्रयसे होता है। उनका ऐसा कहना श्रेष्ठ नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेसे तो पुल्लिगी पट. और स्त्रीलिंगी झोपड़ी इन दोनों शब्दोंके भी एकार्थ हो जानेका प्रसंग प्राप्त होता है। ४. सरख्या व्यभिचार विषयक-तिसी प्रकार वे वैयाकरणी जन 'आपः' इस स्त्रीलिंगी बहुचनान्त शब्दका और 'अम्भः' इस नपुंसकलिंगी एकवचनान्त शब्दका, लिंग व संख्या भेद होनेपर भी, एक जल नामक अर्थ ग्रहण करते हैं। उनके यहाँ संख्याभेदसे अर्थ में भेद नहीं पड़ता जैसे कि गुरुत्व साधन आदि शब्द । उनका ऐसा मानना श्रेष्ठ नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर तो एक घट और अनेक तन्तु इन दोनोंका भी एक ही अर्थ होनेका प्रसंग प्राप्त होता है । ५. पुरुष व्यभिचार विषयक
७. उक्त व्यभिचारों में दोष प्रदर्शन श्लो, वा./४/१/३३/७२/२५७/१६ यो हि वैयाकरणव्यवहारनयानुरोधेन 'धातुसंबन्धे प्रत्ययः' इति सूत्रमारभ्य विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता भाविकृत्यमासीदित्यत्र कालभेदेऽप्येकपदार्थमाइता यो विश्वं द्रक्ष्यति सोऽस्य पुत्रो जनितेति भविष्यत्कालेनातीतकालस्याभेदोऽभिमतः तथा व्यवहारदर्शनादिति । तन्न श्रेयः परीक्षायां मूलक्षते. कालभेदेऽप्यर्थस्याभेदेऽतिप्रसगाव रावणशङ्खचक्रवर्तिनोरप्यतीतानागतकालयोरेकत्वापत्तेः । आसीद्रावणो राजा शङ्खचक्रवर्ती भविष्यतीति शब्दयोभिनविषयत्वान्नै कार्थतेति चेत्, विश्वदृश्वा जनितेत्यनयोरपि मा भूत तत एव । न हि विश्व दृष्टवानिति विश्वदृश्वेति शब्दस्य योऽर्थोऽतीतकालस्य जनितेति शब्दस्यानागतकालः। पुत्रस्य भाविनोऽतीतत्वविरोधाद। अतीतकालस्याप्यनागतत्वाध्यारोपादेकार्थताभिप्रेतेति चेत, तहि न परमार्थत कालभेदेऽप्यभिन्नार्थव्यवस्था। तथा करोति क्रियते इति कारकयोः कतृ कर्मणो देऽप्यभिन्नमर्थत एबादियते स एवं करोति किंचित् स एव क्रियते केनचिदिति प्रतीतैरिति। तदपि न श्रेयः परीक्षायो । देवदत्तः कटं करोतीत्यत्रापि कतृ कर्मणोर्देवदत्तकटयोरभेदप्रसङ्गात् । तथा पुष्यस्तारकेत्यत्र व्यक्तिभेदेऽपि तत्कृतार्थमेकमाद्रियन्ते, लिङ्गमशिष्यं लोकाश्रयत्वादि । तदपि न श्रेयः, पटकुटोत्यत्रापि कुटकुट्योरेकत्वप्रसङ्गात् तल्लिङ्गभेदाविशेषात् । तथापोऽम्भ इत्यत्र संख्याभेदेऽप्येकमथं जलायमादृताः संख्याभेदस्याभेदकत्वाव गुर्वा दिवदिति । तदपि न श्रेयः परोक्षायाम् । वस्तंतव इत्यत्रापि तथाभावानुषगात संख्याभेदाविशेषात । एहि मन्ये रथेन यास्यसि नहि यास्यसि स यातस्ते पिता इति साधनभेदेऽपि पदार्थमभिन्नमादृताः "प्रहसे मन्यवाचि युष्मन्मन्यतरस्मादेकवच" इति वचनाव। तदपि न श्रेयः परीक्षाया, अहं पचामि त्वं पचसीत्यत्रापि अस्मद्य ष्मत्साधनाभेदेऽप्येकार्थत्वप्रसङ्गात् । तथा 'संतिष्ठते अवतिष्ठत' इत्यत्रोपसर्ग
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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