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कार्मण काल
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काल
५. अन्य सम्बन्धित विषय
किया जाता है। वस्तुभूत काल तो वह सूक्ष्म द्रव्य है, जिसके निमित्त
से ये सर्व द्रव्य गमन अथवा परिणमन कर रहे हैं। यदि वह न हो तो १. कार्मण काययोगमें कार्यका लक्षण कैसे घटित हो
इनका परिणमन भी न हो, और उपरोक्त प्रकार आरोपित कालका -दे० काय/२
व्यवहार भी न हो । यद्यपि वर्तमान व्यवहारमें सैकेण्डसे वर्ष अथवा २. कार्मणं काययोगमें चक्षु व अवधि दर्शन प्रयोग नहीं होता।
शताब्दी तक ही कालका व्यवहार प्रचलित है। परन्तु आगममें उसकी
जघन्य सीमा 'समय' है और उत्कृष्ट सीमा युग है। समयसे छोटा -दे० दर्शन/
काल सम्भव नहीं, क्योंकि सूक्ष्म पर्याय भी एक समयसे जल्दी नहीं ३. कार्मण काययोगी अनाहारक क्यों। -दे० आहारक/१
बदलती। एक युगमें उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी ये दो कल्प होते हैं, ४. कार्मण काययोगमें कौका बन्ध उदय सत्त्व।
और एक कल्पमें दु.खसे दुःखकी वृद्धि अथवा सुखसे दुःखकी ओर
-दे० वह वह नाम हानि रूप दुषमा सुषमा आदि छः छः काल कल्पित किये गये हैं। ५. मार्गणा प्रकरणमें भाव मार्गणा इष्ट है। तहाँ पायके इन कालों या कल्पोंका प्रमाण कोडाकोड़ी सागरोंमें मापा जाता है। ___ अनुसार व्यय होता है।
-दे० मार्गमा ६. कार्मण काययोग सम्बन्धी गुणस्थान, जीव समास, मार्गणा- १. काल सामान्य निर्देश स्थानादि २० प्ररूपणाएँ।
-दे० सत् ७. कार्मण काययोग विषयक सत, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल,
१ काल सामान्यका लक्षण । अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ। -दे० वह वह नाम
निश्चय व्यवहार कालकी अपेक्षा भेद ।
दीक्षा-शिक्षादि कालकी अपेक्षा भेद । कार्मण काल-दे० काल/१ ।
निक्षेपोंको अपेक्षा कालके भेद कार्मण वर्गणा-दे० वर्गणा।
स्वपर कालके लक्षण ।
स्वपर कालकी अपेक्षा वस्तुमें विधि निषेध कार्य-१. कर्म के अर्थ में कार्य दे०-कर्म। २. कारण कार्य भावका
-दे० सप्तभंगी// विस्तार--दे० कारण।
दीक्षा-शिक्षादि कालोंके लक्षण। कार्य अविरुद्ध हेतु-दे० हेतु ।
ग्रहण व वासनादि कालोंके लक्षण। कार्य ज्ञान-दे० उपयोग/I/१/५ ।
| स्थितिबन्धापसरण काल -दे० अपकर्षण/४/४ । कार्य चतुष्टय-दे० 'चतुष्टय' ।
स्थितिकाण्डकोत्करण काल -दे० अपकर्षण/४/४ । कार्य जीव-दे० जीव ।
अवहार कालका लक्षण । कार्य परमाणु-दे० परमाणु ।
निक्षेप रूप कालों के लक्षण ।
सम्यग्ज्ञानका काल नाम अंग। कार्य परमात्मा-दे० 'परमात्मा'।
पुद्गल आदिकोंके परिणामकी काल संशा कैसे कार्य विरुद्ध हेतु-दे० हेतु।
सम्भव है। कार्य समयसार-दे० 'समयसार' ।
दीक्षा-शिक्षादि कालोंमें से सर्व ही एक जीवको हों कार्यसमा जाति
ऐसा नियम नहीं। न्या सू /मू. व टी/११/३७/३०४ प्रयत्नकार्यानकत्वात्कार्यसमः ॥३७॥
कालकी अपक्षा द्रव्यमें भेदाभेद -दे० सप्तभंगी// प्रयत्नानन्तरीयकत्वादनित्य' शब्द इति यस्य प्रयत्नानन्तरमात्मलाभ
आबाधाकाल
~दे० 'आबाधा' स्तत वल्वभूखा भवति यथा घटादिकार्यमनित्यमिति च भूत्वा न भवतीत्येतद्विज्ञायते। एवमवस्थिते प्रयत्नकार्यानकत्वादिति प्रतिषेध उच्यते। -प्रयत्नके आनन्तरीयकत्व (प्रयत्नसे उत्पन्न होनेवाला)
निश्चय काल निर्देश व उसकी सिद्धि शब्द अनित्य है जिसके अनन्तर स्वरूपका लाभ है, वह न होकर होता है, जैसे घटादि कार्य अनित्य है, और जो होकर नहीं होता है,
१ निश्चय कालका लक्षण। ऐसी अवस्था रहते 'प्रयत्नकार्यानिकत्वात्' यह प्रतिषेध कहा जाता है । (श्लो.वा.न्या.४४६/५४२/५) ।
काल द्रव्यके विशेष गुण व कार्य वर्तना हेतुत्व है।
काल द्रव्य गतिमें भी सहकारी है। काल-१, असुरकुमार नामा व्यन्तरजातीय देवों का एक भेद-दे० असुर । २ पिशाच जातीय व्यन्तर देवों का एक भेद-दे० 'पिशाच'।
काल द्रव्यके १५ सामान्य-विशेष स्वभाव । ३. उत्तर कालोद समुद्रका रक्षक व्यन्तर देव-दे० व्यंतर/४ । ४. एक
काल द्रव्य एक प्रदेशी असंख्यात द्रव्य हैं। ग्रह-दे० ग्रह । ५. पंचम नारद विशेष परिचय-दे० शलाकापुरुष/६ ।
कालद्रव्य व अनस्तिकायपना -दे० 'अस्तिकाय' ६. चक्रवर्तीकी नवनिधियों मे से एक-दे० शलाका पुरुष/२।
काल द्रव्य आकाश प्रदेशोंपर पृथक् पृथक कालयद्यपि लोकमे घण्टा, दिन, वर्ष आदिको ही काल कहनेका
अवस्थित है। व्यवहार प्रचलित है, पर यह तो व्यवहार काल है वस्तुभूत नहीं है।
काल द्रव्यका अस्तित्व कैसे जाना जाये। परमाणु अथवा सूर्य आदिकी गतिके कारण या किसी भी द्रव्यकी
समयसे अन्य कोई काल द्रव्य उपलब्ध नहीं। भूत, वर्तमान, भावी पर्यायों के कारण अपनी कल्पनाओंमें आरोपित
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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