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नय
३. वास्तवमै नय ज्ञानात्मक दी है, शब्दादिको नय कहना उपचार है ।
ध. ६/४,१,४५ / १६४/५ प्रमाणनयाभ्यामुत्पन्नवाक्येऽप्युपचारतः प्रमाणनयौ, ताभ्यामुत्पन्नमधी विधिप्रतिषेधात्मकास्तुविषयमा प्रमाणामथानापि कार्य कारणोपचारतः प्रमाणनया वित्यस्मिद् सूत्रे परिगृहीतो । = प्रमाण और नयसे उत्पन्न वाक्य भी उपचारसे प्रमाण और नय हैं, उन दोनों (ज्ञान व वाक्य) से उत्पन्न अभय बोध विधि प्रतिषेधात्मक वस्तुको विषय करनेके कारण प्रमाणताको धारण करते हुए भी कार्य में कारणका उपचार करनेसे नय है । ( पं. ध. / पू / ५१३ ) । का. अ /टी./२६५ ते त्रयो नयविशेषाः ज्ञातव्याः । ते के। स एव एको धर्मः नित्योऽनित्यो बा...इत्याद्येकस्वभाव' नय नयग्राह्यत्वात् इत्येकनय | ...तत्प्रतिपादकशब्दोऽपि नय. कथ्यते । ज्ञानस्य करणे कार्ये च शब्दे नयोपचारात इति द्वितीयो वाचकनय तं नित्याद्य क धर्मं जानाति तत् ज्ञानं तृतीयो नय । सकलवस्तुग्राहकं प्रमाणम्. तदेकदेशग्राहको नय, इति वचनाद । -नयके तीन रूप हैं - अर्थ रूप, शब्दरूप और ज्ञानरूप । वस्तुका नित्य अनित्य आदि एकधर्म अर्थरूपनय है । उसका प्रतिपादक शब्द शब्दरूपनय है । यहाँ ज्ञानरूप कारण मे शब्दरूप कार्यका तथा ज्ञानरूप कार्य में शब्दरूप कारणका उपचार किया गया है। उसी नित्यादि धर्मको जानता होनेसे तीसरा वह ज्ञान भी ज्ञाननय है । क्योकि 'सकल वस्तु ग्राहक ज्ञान प्रमाण है और एकदेश ग्राहक ज्ञान नय है, ऐसा आगमका वचन है ।
४. तीनों नयों में परस्पर सम्बन्ध
श्लो. वा. /४/१/१३ / श्लो. ६६-६७/२८८ सर्वे शब्दनयास्तेन परार्थप्रतिपादने स्वार्थप्रकाशने मारिया स्थिता ॥१६॥ वैय मानयस्त्वंशाः कथ्यन्तेयं उपतिष्ठन्ते प्रधानगुणभावतः । श्रोताओंके प्रति वाच्य अर्थ का प्रतिपादन करनेपर तो सभी नय शब्दमय स्वरूप हैं, और स्वयं अर्थ का ज्ञान करनेपर सभी नय स्वार्थ प्रकाशी होनेसे ज्ञाननय हैं । ६६| 'नीयतेऽनेन इति नयः " ऐसी करण साधनरूप व्युत्पत्ति करनेपर सभी नय ज्ञाननय हो जाती है । और 'नीयते ये इति नमः' ऐसी कर्म साधनरूप व्युत्पति करने पर सभी नयं अर्थ नय हो जाते हैं, क्योंकि नयोके द्वारा अर्थ ही जाने जाते हैं। इस प्रकार प्रधान और गौणरूपसे ये नय तीन प्रकारसे व्यवस्थित होते हैं और भी वे न /111/१/४) नोट- अर्थनयों व शब्दनवने उतरोत्तर सूक्ष्मता (वेन / 111/
१/७) ।
५. शब्दनयका विषय
ध. ६/४१.४३/१०६/० पजबडिएस
सत्यनिभावेण संकेत
करणाणुवत्तीए वाचियवाचयभेदाभावादो । कधं सद्दणएसु तिसु वि सहा अपदस्थ गयभेयाणमपिदसदनि धणमेयानं तेसि तदविशेहादो पर्यायार्थिक नय क्योंकि क्षणी होता है इसलिए उसमें शब्द और अर्थ की विशेषतासे संकेत करना न बन सकन के कारण वाच्यवाचक भेदका अभाव है। (विशेष दे. नय / IV / ३ / ८ / ५ ) प्रश्न- तो फिर तीनो ही शब्दनयों में शब्दका व्यवहार कैसे होता है ? उत्तर - अर्थगत भेदको अप्रधानता और शब्द निमिसक भेदकी प्रधानता रखनेवाले उस नयो के शब्दव्यवहार में कोई विरोध नहीं है विशेष निलेप/३/६)।
दे न / 111/१/१ (शन्दनयोमे दो अपेक्षासे शब्दों का प्रयोग ग्रहण किया जाता है-शब्दभेदसे अर्थ में भेद करनेकी अपेक्षा और अर्थ भेद होनेपर शब्दभेदको अपेक्षा इस प्रकार भेदरूप शब्द व्यवहारः
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भा० २-६६
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I नय सामान्य
तथा दूसरा अनेक शब्दों का एक अर्थ और अनेक अर्थोंका वाचक एक शब्द इस प्रकार अभेदरूप शब्द व्यवहार ) ।
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ये नय / III / ६७ ( तो सदन केवल सिंगादि अपेक्षा भेद करता है पर समानलिंगी आदि एकार्थवाची शब्दों में अभेद करता है। समभिरूढनय समान लिंगादिवाले शब्दों में भी व्युत्पत्ति भेद करता है, परन्तु रूढि वश हर अवस्थामें पदार्थको एक ही नामसे पुकारकर अभेद करता है और एवंभूतनय क्रियापरिणतिके अनुसार अर्थ मेद स्वीकार करता हुआ उसके वाचक शब्द में भी सर्वथा भेद स्वीकार करता है । यहाँ तक कि पद समास या वर्णसमास तकको स्वीकार नहीं करता ) ।
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दे. आगम /४/४ ( यद्यपि यहाँ पदसमास आदिकी सम्भावना न होनेसे शब्द व वाक्योंका होना सम्भव नहीं, परन्तु क्रम पूर्वक उत्पन्न होनेमाले वर्गों व पदोंसे उत्पन्न ज्ञान क्योंकि अक्रमसे रहता है; इसलिए, तहाँ वाच्यवाचक सम्बन्ध भी बन जाता है ) ।
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६. शब्दादि नयोंके उदाहरण
घ. २/१.१,१११/२४/१० सपनाश्रय
क्रोधकषाय इति भवति तस्य पृष्ठतोऽर्थप्रतिपत्तिप्रमाणत्वात अर्थ नयाश्रयणे क्रोधकपायीति स्याच्योऽर्थस्य भेदाभावाद शब्दनयका आश्रय करनेपर 'क्रोध । = - कषाय' इत्यादि प्रयोग बन जाते हैं, क्योंकि शब्दनय शब्दानुसार अर्थज्ञान करानेमें समर्थ है अर्थनयका आगम करनेपर को कषायो' इत्यादि प्रयोग होते हैं. क्योंकि इस नयकी दृष्टिमें शब्दसे अर्थका कोई भेद नहीं है।
पं.ध.पू./१४ अथ यथा यथाऽयं धर्मं समक्षतोऽपेक्ष्य । उष्णोऽ निरिति नागानं वा नयोपचार स्वाद ।२१४१-जैसे अग्निके उष्णता धर्मरूप 'अर्थ' को देखकर 'अग्नि उष्ण है' इत्याकारक ज्ञान और उस ज्ञानका वाचक 'उष्णोऽग्निः' यह वचन दोनों ही उपचारसे नय कहलाते हैं।
७. द्रव्यमय व भावनय निर्देश
पं.पू. /५०५ द्रव्यनयो भावनय स्यादिति मेशइडिया च सोऽपि यथा । पौद्गलिकः किल शब्दो द्रव्यं भावश्च चिदिति जीवगुणः |५०५ ॥ - द्रव्यनय और भावनयके भेदसे नय दो प्रकार है, जैसे कि निश्चयसे पौगलिक शब्द द्रव्यनय कहलाता है, तथा जीवका ज्ञान गुण भावनय कहलाता है । अर्थात् उपरोक्त तीन भेदों मेंसे शब्दनय तो द्रव्यनय है और ज्ञाननय भावनय है ।
५. अन्य अनेकों नयोंका निर्देश
१. मूत मावि आदि प्रज्ञापन नयका निर्देश स.सि./५/३६/३१२/१० अणोरप्येप्रदेशस्य पूर्वोत्तर भागापननयापेक्षयोपचारकल्पनया प्रदेशप्रचय उक्तः । स.सि./२/६/१६०/२ पूर्वभावप्रज्ञापननयापेक्षया योऽसौ योगप्रवृत्तिः कषायानुरञ्जिता सैवेत्युपचारादौदयिकीत्युच्यते ।
स.सि./१०/६/पृष्ठ / पंक्ति भूतग्राहिनयापेक्षया जन्म प्रति पञ्चदशसु कर्मभूमिषु संहरणं प्रति मानुषक्षेत्रे सिद्धि । ( ४७१ / १२) । प्रत्युत्पन्ननयापेक्षया एकसमये सिद्धो भवति भूतप्रज्ञापनापेक्षा जन्मतोऽविशेषेणोत्सर्पिण्यवसर्पिण्योर्जात सिध्यति विशेषेणावसर्पिण्यां सुषमादुपमायां अन्त्यभागे संहरणत सर्वस्मिन्काले । (४७२/१)।
पूर्व नयापेक्षा तु क्षेत्रसिद्धा द्विविधा जन्मत संहरणतश्च । ( ४७३ / ६) । = पूर्व और उत्तरभाव प्रज्ञापन नयकी अपेक्षासे उपचार कल्पना द्वारा एकप्रदेशी भी अणुको प्रदेश प्रचय ( बहु प्रदेशी ) कहा
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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