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V निश्चय व्यवहार नय
४. असद्भुत व्यवहार सामान्य निर्देश १. लक्षण व उदाहरण आ. प./१० भिन्नवस्तुविषयोऽसभूतव्यवहार. । -भिन्न वस्तुको विषय करनेवाला असदभूत व्यवहारनय ह । (न. च./श्रुत/२५) (और भी दे० नयv/४/१ व २) न, च. व./२२३-२२५ अण्णेसि अण्णगुणो भणइ असन्भूद तिविह ते दोबि । सज्जाइ इयर मिस्सो णायव्वो तिविहभेयजुदो ।२२३- अन्य द्रव्यके अन्य गुण कहना असदभूत व्यवहारनय है। यह तीन प्रकारका है-स्वजाति, विजाति, और मिश्र। ये तीनों भी द्रव्य गुण व पर्यायमें परस्पर उपचार होनेमे तीन तीन प्रकारके हो जाते हैं।
(विशेष दे० उपचार/५), न. च. वृ./११३,३२० मण वयण काय इंदिय आणप्पाणाजगं च जं जीवे। तमसम्भूओ भणदि हु बवहारो लोयमज्झम्मि ११३। णेयं खु जस्थ णाणं सधेयं जं दंसणं भणियं । चरियं खलु चारित्तं गायव्वं तं असम्भूवं ।३२० - मन, वचन, काय, इन्द्रिय, आनप्राण और आयु मै जो दश प्रकार के प्राण जीवके हैं. ऐसा असदभूत व्यवहारनय कहता है ।११। शेयको ज्ञान कहना जैसे घटज्ञान, श्रद्धयको दर्शन कहना, जैसे देव गुरु शास्त्रकी श्रद्धा सम्यग्दर्शन है, आचरण करने योग्यको चारित्र कहते है जैसे हिंसा आदिका त्याग चारित्र है। यह सब कथन असद्भूतव्यवहार जानना चाहिए ।३२०। आ. प./- असद्भूतव्यवहारेण कर्मनोकर्मणोरपि चेतनस्वभाव. । .. जीवस्याप्यसभूतव्यवहारेण मूर्तस्वभाव.."असदभूतव्यवहारेणाप्युपचारेणामूर्तत्वं ।..असद्भभूतव्यवहारेण उपचरितस्वभाव.।-असदभूत व्यवहारसे कर्म व नोकर्म भी चेतनस्वभावी है, जीवका भी मूर्त स्वभाव है, और पुद्गलका स्वभाव अमूर्त व उपचरित है। पं. का./ता. वृ./१/४/२१ नमो जिनेभ्यः इति वचनारमकद्रव्यनमस्का
रोऽप्यसदभूतव्यवहारनयेन | 'जिनेन्द्रभगवानको नमस्कार हो ऐसा वचनात्मक द्रव्य नमस्कार भी असइभृतव्यवहारनयसे होता है। प्र.सा./ता, वृ./१८६/२५३/११ द्रव्यकर्माण्यात्मा करोति भुङ्क्त चेत्य
शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकासद्भूतव्यवहारनयो भण्यते । - आत्मा द्रव्यकर्मको करता है और उनको भोगता है, ऐसा जा अशुद्ध द्रव्यका निरूपण, उसरूप असद्भुत व्यवहारनय कहा जाता है। (ग्लिोष
दे० आगे उपचरित व अनुपचरित असद्मुत व्यवहार नयके उदाहरण) पं.ध./पू./५२६-५३० अपि चासद्भूतादिव्यवहारान्तो नयश्च भवति
यथा। अन्यद्रव्यस्य गुणाः संजायन्ते बलात्तदन्यत्र 1५२६। स यथा वर्णादिमतो मूर्तद्रव्यस्य कर्म किल मूर्तम् । सत्संयोगत्वादिह मूर्ताः क्रोधादयोऽपि जीवभवाः ।१३०। जिसके कारण अन्य द्रव्यके गुण बलपूर्वक अर्थात उपचारसे अन्य द्रव्यके कहे जाते है, वह असहनत व्यवहारनय है ।१२।। जैसे कि वर्णादिमान मूर्तद्रव्यके जो मूर्तकर्म है, उनके संयोगको देखकर, जीवमें उत्पन्न होनेवाले क्रोधादि भाव भी मृत कह दिये जाते हैं ।५३०॥ २. इस नयके कारण व प्रयोजन पं.ध./पू./५३१-५३२ कारणभन्तीना द्रव्यस्य विभावभावशक्तिः स्यात् । सा भवति सहज-सिद्धा केवलमिह जीवपुद्गलयोः ॥३१॥ फलमागन्तुकभावादुपाधिमात्रं विहाय यावदिह । शेषस्तनद्धगुण. स्यादिति मत्वा सुदृष्टिरिह कश्चिद ।५३२। - इस नयमें कारण वह वैभाविकी शक्ति है, जो जीव पुदगलद्रव्यमें अन्तर्लीन रहती है (और जिसके कारण वे परस्परमें बन्धको प्राप्त होते हुए संयोगी द्रव्योंका निर्माण करते है।) १५३श और इस नयको माननेका फल यह है कि क्रोधादि विकारी भावोको परका जानकर, उपाधि मात्रको छोडकर, शेष जीवके शुद्धगुणोंको स्वीकार करता हुआ कोई जीव सम्यग्दृष्टि हो सकता है ।५३२। (और भी दे० उपचार/४/६)
३. असद्भूत व्यवहारनयके मेद आ. प./१० असइभूतव्यवहारो द्विविधः उपचरितानुपचरितभेदात् । -असदभूत व्यवहारनय दो प्रकार है-उपचरित असद्भुत और अनुपचारित असदभूत । (न. च./श्रुत/२५); (प.ध./पू./५३४)। दे० उपचार-असद्भत नामके उपनयके स्वजाति, विजाति आदि २७ भेद) ५. अनु पचरित असद्भूत निर्देश १. भिन्न द्रव्योंमें अमेदकी अपेक्षा लक्षण व उदाहरण आ-प./१० संश्लेषसहितवस्तुसंबन्धविषयोऽनुपचरितासद्भूतव्यबहारो यथा जीवस्य शरीरमिति । संश्लेष सहित वस्तुओंके सम्बन्धको विषय करनेवाला अनुपचरित असहमत व्यवहार नय है। जैसे'जीवका शरीर है' ऐसा कहना । (न. च./श्रुत/पृ. २६) नि, सा./ता, वृ./१८ आसन्नगतानुपचरितासभूतव्यवहारनयाद द्रव्यकर्मणां कर्ता तत्फलरूपाणां सुखदु.खाना भोक्ता च.. अनुपचारितासहभूतव्यवहारेण नोकर्मणां कर्ता। -आत्मा निकटवर्ती अनुपचरित असदभूत व्यवहारनयसे द्रव्यकर्मोंका कर्ता और उसके फलरूप सुखदुखका भोक्ता है तथा नोकर्म अर्थात शरीरका भी कर्ता है। (स. मा./ता. वृ/२२ की प्रक्षेपक गाथाकी टीका/४६/२१); (पं. का।
ता. वृ/२७/१०/२१); (इ. सं./टी./८/२१/४/२३/४)। पं. का./ता. वृ./२७/६०/१५ अनुपचरितासहभूतव्यवहारेण द्रव्यप्राणश्च यथासंभव जीवति जीविष्यति जीवितपूर्वश्चेति जीवो। -अनुपचरित असदभूत व्यवहारनयसे यथा सम्भव द्रव्यप्राणोंके द्वारा जीता है, जीवेगा, और पहले जीता था, इसलिए आत्मा जीव कहलाता है । (द्र सं टी./३/१२/५): (न. च. वृ./११३) पं. का./ता. वृ./५८/१०६/१४ जोवस्यौदयिकादिभावचतुष्टयमनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण द्रव्यकर्मकृतामेति। -जीवके औदयिक आदि
चार भाव अनुपच रित असद्भुत व्यवहारनयसे कर्मकृत है। प्र. सा./ता. वृ/परि./३६६/११ अनुपचरितासदभूत व्यवहारनयेन द्वषणुकादिस्कन्धसंश्लेषसबन्धस्थितपरमाणुवदौदारिकशरीरे वीतरागसर्वज्ञवद्वा विविक्षित कदेहस्थितम् । = अनुपचारित असदभूत व्यवहारनयसे, द्वि अणुक आदि स्कन्धो में संश्लेषसम्बन्धरूपसे स्थित परमाणुकी भाँति अथवा बीतगग सज्ञकी भाँति, यह आत्मा औदारिक आदि शरीरोमेंमे किसी एक विवक्षित शरीरमें स्थित है। (प. प्र./टी./१/२६/३३/१) । द्र.सं./टो /७/२०/१ अनुपचरितारभूतव्यवहारान्मूर्तो। = अनुपचरित
असद्भूत व्यवहार नयसे यह जीव मूर्त है। (पं.का /ता./२७/५७/३)। प, प्र./टी./७/१३/२ अनुपचरितासभृतव्यवहारसंबन्ध द्रव्यकर्म
नोकर्म रहितम् । प. प्र./टी./१/१/६/८ द्रव्यकर्मदहनमनुपचरितासभृतव्यवहारनयेन । प.प्र.टा.
शिक्षा द्रव्या प प्र./टी./१/१४/२१/१७ अनुपचरितासहभृतव्यवहारनयेन देहादभिन्म ।
- अनुपरित असद्भूत व्यवहारनयसे जीव द्रव्यकर्म व मोकर्मसे रहित है, द्रव्यकोका दहन करनेवाला है, देहसे अभिन्न है। और भी देखो नय/V/४/२/३--(व्यवहार सामान्यके उदाहरण)।
२. विभाव भावको अपेक्षा लक्षण व उदाहरण पं. ध./पू ५४६ अपि वासद्भतो योऽनुपचारिताख्यो नय. स भवति यथा । क्रोधाद्या जीवस्य हि विवक्षिताश्चेदबुद्धिभवा ।-अनुपचरित असदभूत व्यवहारनय, अबुद्धि पूर्वक होनेवाले क्रोधादिक विभावभावोको जीवका कहता है।
३. इस नयका कारण व प्रयोजन प.ध./पू./५४७-५४८ कारणमिह यस्य सतो या शक्ति' स्याद्विभावभाव
मयी। उपयोगदशाविष्टा सा शक्ति. स्यात्तदाप्यनन्यमयी ।५४७॥
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०२-७१
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