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नय
( शब्द, समभिरूक और एवंभूत) शब्द या व्यंजननय हैं (६.६/४१, ४५ / १८१/१) । रखो.बा.४/९/३३/१लो.८९/२८६
पर्यन्ताश्चत्वारोऽनया मताः । त्रयः शन्दनयाः सेवा' शम्दवाच्यार्थगोचराः [१] इन सातों में से नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र ये चार नय तो अर्थनय मानी गयी हैं, और शेष तीन (शब्द, समभिरूद और एवंभूत) वाचक शब्द द्वारा अर्थको विषय करनेवाले शब्दनय हैं। (ध.१/१.१.१/०६/३). (क.पा.१/९०४/२२२/१+११६०/१), (न.च.वृ./ २१०) (न.प./त/पृ. २०) (त.सा./१/४३) (स्या, प्र. २०/३११/२१) | नोट - (यद्यपि ऊपर कहीं भी ज्ञाननयका जिक्र नहीं किया गया है, परन्तु जैसा कि आगे मैगमनय लक्षणों परखे विदित है, इनमें से नैगमनय ज्ञाननय व अर्थमय दोनों रूप है। अर्थको विषय करते समय यह अर्थनय है और संकल्प मात्रको ग्रहण करते समय ज्ञाननय है। इसके भूत, भावी आदि भेद भी ज्ञान को ही आश्रय करके किये गये हैं, क्योंकि वस्तुकी भूत भावी पर्यायें वस्तुमें नहीं ज्ञानमें रहती है (द० नम / III/३/६ में रखो.वा.)। इसके अतिरिक्त भी ऊपर के दो प्रमाणों में प्रथम प्रमाणमे इस नयको अर्थनयरूपसे ग्रहण न करनेदूसरे प्रमाण में इसे अर्थनय क्योंकि यह ज्ञाननय होनेके
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का भी यही कारण प्रतीत होता है कहना भी विरोधको प्राप्त नहीं होता साथ-साथ अर्थ नय भी अवश्य है ।)
४. सायोंमें अर्थ, शब्दमय विभागका कारण
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ध. १/१,९,१/८६ / ३ अर्थनयः ऋजुसूत्रः । कुत । ऋजु प्रगुणं सूत्रय तीति सिद्धन्तेऽर्थ नया अर्थव्यवाद। (शब्दभेदकी विवक्षा न करके केवल पदार्थके धर्मोका निश्चय करनेवाला अर्थ नय है, और शब्दभेदसे उसमें भेद करनेवाला व्यंजननय है - दे० I/४/२) याँ प्रनयको अर्थनय समझना चाहिए क्योंकि ऋजु सरल अर्थात वर्तमान समयवर्ती पर्याय मात्रको जो ग्रहण करे उसे ऋजुन कहते हैं। इस तरह वर्तमान पर्यायरूपसे अर्थको ग्रहण करनेवाला होने के कारण यह नय अर्थनय है, यह बात सिद्ध हो जाती है। अर्थको विषय करनेवाले होनेके कारण नैगम, संग्रह और व्यवहार भी अर्थनय है। (शब्दभेदकी अपेक्षा करके अर्थ भेद डालनेवाले होनेके कारण शेष तीन नय व्यंजननम है ।) स्या.म./२०/३१०/१६ अभिप्रायस्तावद् अर्थद्वारेण शब्दद्वारेण वा प्रवर्तते, गत्यन्तराभावात । तत्र ये केचनार्थ निरूपणप्रवणाः प्रमात्राभिप्रायास्ते सर्वेऽपि नचतुष्टयेऽन्तर्भवन्ति ये च शब्दविचारचतुरास्ते शब्दाविनयप्रये इति। अभिप्राय प्रगट करनेके दो ही द्वार है-अर्थ या शब्द। क्योंकि इनके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है। तहाँ प्रमाताके जो अभिप्राय अर्थका प्ररूपण करनेमें प्रवीण हैं वे तो अर्थ • नय हैं जो नैगमादि चार नयों में अन्तर्भूत हो जाते हैं और जो शब्द विचार करनेमें चतुर हैं वे शब्दादि सीन व्यंजननय हैं (स्पा म. २८/३११/२६)
दे० नव][/२/५ शनय केवल शब्दको विषय करता है अर्थको नहीं।
५. नौ भेद कहना भी विरुद्ध नहीं
च. १/४,१,४५ / २८१ / ४ नव नया क्वचिच्छ्रयन्त इति चेन्न नयानामियतासंख्या नियमाभावाद प्रश्न कहाँपर नौ नय सुने जाते हैं ? उत्तर- नहीं, क्योंकि 'नय इतने है' ऐसी संख्याके नियमका अभाव है (विशेष ३० नयT/२/५) (क.पा./१/१३-१४/३२०२/२४५/२)
६. पूर्व पूर्वका नव अगले अगलेका कारण है स.सि./१/१३/१४५/७ एष क्रम पूर्वपूर्व हेतुरवास पूर्व पूर्वका नय अगले- अगले नयका हेतु है, इसलिए भी यह क्रम (नैगम, संग्रह, व्यव
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||| नैगम आदि सात नय निर्देश
हार एवंभूत) कहा गया है। (रा.बा./१/३३/१२/१६/१०) (लो.डा./. ४/१/२३/१.८२/२६१)
७. सालों में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता
स.सि./१/३३/१४५/७ उत्तरोत्तरसूक्ष्मविषयत्वादेषां क्रमएवमेते नयाः पूर्वपूर्वविरुद्धमहाविषया उच्चरोत्तरानुताप विषया-उत्तरोत्तर सूक्ष्मविषयवाले होनेके कारण इनका यह क्रम कहा है । इस प्रकार ये नय पूर्व पूर्व विरुद्ध महा विषयवाले और उत्तरोतर अनुकूल अन्य विषयमा है (रा./१/३३/१२/११/१०). (लो.बा.४/१/१२/२.८२/ २६६), (ह. पु. / ५८/५०), (त.सा./१/४३)
श्लो. वा./४/२/३३/श्लो,१०,१००/२८१ यत्र प्रवर्त्तते स्वार्थे नियमादुशरो पूर्वपूर्वनयस्तत्र वर्तमानो न वार्य पूर्वत्र गोतरा संख्या पंथावातानु तथोत्तरनयः पूर्वयार्थसकले सदा ११००१- जहाँ जिस अर्थको विषय करनेवाला उत्तरवर्ती नय नियमसे प्रवर्तता है तिस तिसमें पूर्ववर्तीनयको प्रवृत्ति नहीं रोकी जा सकती | १८| परन्तु उत्तरवर्ती नये पूर्ववर्ती नयोके पूर्ण विषय में नही हैं। जैसे बड़ी संख्या मे छोटी संख्या समा जाती है पर छोटीमें बड़ी नहीं ( पूर्व पूर्वका विरुद्ध विषय और उत्तर उत्तरका अनुकूल विषय होनेका भी यही अर्थ है (रा.वा./हि./९/२३/१२/४१४) इसी मा/४/९/२३/१लो ८२-८६/२६६ पूर्व पूर्वो नयो भूमविषयः कारणात्मक' । पर' पर' पुनः सूक्ष्मगोचरो हेतुमानिह । ८२ । सम्मानविषयवेनग्रहस्य न युज्यते महाविषयताभावाभावार्थान्नैगमात्रयात् । ३॥ यथा हि सति संकल्पस्यैवासति वेद्यते । तत्र प्रवर्तमानस्य मैगमस्य महार्थता | समाहारोऽपि द्विशेषानबोधकः । न भ्रमविषयोऽशेषसरसग्रहोपदनिर्जुत्रः प्रभूतार्थी वर्तमा नार्थगोचरः । कालातियवृत्यर्थगोचरा उपहारतः ६ कालादिभेदोऽप्यर्थमभिज्ञमुपगत सूत्रान्महार्थोऽत्र शब्दस्तद्विपरीतवित् ॥८७॥ शब्दात्पर्यायभेदेनाभिन्नमर्थ मभीप्सितः । न स्यात्समभिरूढोऽपि महार्थस्तद्विपर्यय १८८। क्रियाभेदेऽपि चाभिन्नमर्थमभ्यु पगच्छत । प्रभूतार्थो नयः समभिहतः ननयो पहले पहले नय अधिक है और आगे आगेके नय सूक्ष्म विषयवाले है । १. संग्रहनय सन्मात्रको जानता है और नैगमनय संकल्प द्वारा विद्यमान व अविद्यमान दोनोको जानता है, इसलिए संग्रहकी अपेक्षा नैगमनयका अधिक विषय है । २. व्यवहारनय संग्रह से जाने हुए पदार्थ को विशेष रूपसे जानता है और संग्रह समस्त सामान्य पदार्थों को जानता है, इसलिए संग्रह नयका विषय व्यवहारनयसे अधिक है। २. उपमहारनय दोनों कान्तो के पदार्थोंको जानता है और केवल वर्तमान पदार्थोंका ज्ञान होता है, अतएव व्यवहारनयका विषय ऋजुमूत्र से अधिक है । ४. शब्दनय काल आदि के भेदसे वर्तमान पर्यायको जानता है ( अर्थात वर्तमान पर्यायके वाचक अनेक पर्यायवाची सोमेसे काल लिग, संख्या, पुरुष आदि रूप व्याकरण सम्बन्धी विषमताओंका निराकरण करके मात्र समान काल, लिंग आदि वाले शब्दोको ही एकार्थवाची स्पीकार करता है। ऋजुसूत्र काल आदिका कोई भेद नहीं इसलिए शब्दनयसे जुसूत्रनयका विषय अधिक है। ५. समभिरूडनय इन्द्र शक्र आदि ( समान काल, लिंग आदि वाले ) एकार्थवाची शब्दोंको भी व्युत्पत्तिकी अपेक्षा भिन्नरूपसे जानता है, अथवा उनमें से किसी एक ही शब्दको वाचकरूपसे रूढ करता है), परन्तु शब्दनयमे यह सूक्ष्मता नहीं रहती, अतएव समभिरूउसे शब्दनका विषय अधिक है। ६. समभिनय से जाने हुए पदार्थों में क्रिया के भेदसे वस्तु भेद मानना ( अर्थात् समभिरूढ द्वारा रूढ शब्दको उसी समय उसका वाचक मानना जबकि वह वस्तु तदनुकूल क्रियारूपसे परिणत हो )
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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