Book Title: Aagam 42 DASHVAIKAALIK Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' [४२] दशवैकालिक (मूल)सूत्रम् नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः । “दशवैकालिक” मूलं एवं वृत्ति: [मूलं + नियुक्ति: + (भाष्यगाथा) + हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः] [आदय संपादकः - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. 11 (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) 23/04/2015, गुरुवार, २०७१ वैशाख सुद ५ jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[] “दशकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्तिः Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] अध्ययनं [ - ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित Ja Education intemational “दशवैकालिक” मूलसूत्र-३ (मूलं+निर्युक्तिः+|भाष्य|+वृत्तिः) मूलं [-] निर्युक्ति: [-], उद्देशक [-] भाष्यं[-] आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र [३] “दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः दशवैकालिक सूत्रस्य मूल "टाइटल पेज" ANANANANANANANANANIANIA श्रेष्ठ देवचन्द्र लालभाई जैनपुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्कः ४७. श्रीमच्छय्यम्भवसूरीश्वरसूत्रितं धर्मती याकिनीपुत्र श्रीमद्धरिभद्रसूरिवर शिष्यबोधिनीसंज्ञकं विवरणयुतं श्रीदशवैकालिकसूत्रम् । प्रसिद्धिकारकः शाह - नगीन भाई घेला भाई जव्हेरी, अस्यैकः कार्यवाहकः । इदं पुस्तकं मुम्बयां - शाह नगीनभाई घेलाभाई जव्हेरी, ४२६ जव्हेरी बाजार इत्यनेन निर्णयसागरमुद्रणालये कोलभावीच्या २३ तमे आलये रामचन्द्र थेस शेडगे द्वारा मुद्रयित्वा प्रकाशितम् । वीरसंवत् २४४४. विक्रमसंवत् १९०४. (पण्यं सार्धं रूप्यकद्वयम् ) १९१८. For Ply ~1~ प्रतयः १०००. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ मलाडका:२१+५१५ दशवैकालिक मल-सत्रस्य विषयानक्रम दीप-अनक्रमा:५४० मलाक: पृष्ठांक: पृष्ठांक ०४३ | पृष्ठांक: ३८४ ५०६ १६४ ४१७ ५१३ । २०२ मूलांकः । अध्ययन २२६ ६- महाचारकथा २९४ ७- वाक्यशुद्धिः ३५१ ८- आचारप्रणिधी ४१५ |९- विनयसमाधि: | ९/१- उद्देशक - १ --- | ९/२- उद्देशक - २ ४५१ मूलांक: अध्ययन ००१ | १-दूमपुष्पिका ००६ | २- श्रामण्यपूर्वकं ०१७ |3- क्षुल्लकाचारकथा ०३२ ४- षड्जीवनिकाया ०७६ 4- पिन्डैषणा ५/१- उद्देशक- १ ५/२ उद्देशक-२ ५१९ अध्ययन ९/३- उद्देशक - ३ ९/४- उद्देशक -४ १०- सभिक्षः चूलिका १- रतिवाक्यं २- विविक्तचर्या उपसंहार-नियुक्तिः २४२ ४८१ --- ५४१ ३२४ ४८७ ४९५ ५५८ ૩૨૮ ३६६ ५७० मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 2~ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [दशवैकालिक- मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “दशवैकालिक सूत्र” के नामसे सन १९१ ८ (विक्रम संवत १९७४) में देवचन्द्र लालभाइ पुस्तकोद्धार संस्था द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | इसी प्रत को फिर अपने नामसे 'जिनशासन आराधना ट्रस्ट की तरफ से आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, ऊपर अपना नाम एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. यह स्पष्ट रूपसे एक प्रकारसे अदत्तादान ही है, ऐसी अनेक प्रतो के अगले दो पेज पलटकर या नए डालकर उन्होंने अपने नामसे छपवाइ है, इस तरह वो अपने आपको बड़ा आगम संरक्षक साबित करनेकी अनुचित चेष्टा कर चुके है। इसी दशवैकालिक-सूत्र की प्रत को ऑफसेट की मदद से दुसरोने भी भी प्रकाशित करवाई है, किसीने पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराजश्री का नाम बड़ी इज्जत के साथ अपनी जगह पे ही रखा है, और खुदका नाम पुन: संपादक रूप से पेश किया है तो किसीने अपना नाम आगे कर दिया है और पूज्य सागरानंदसूरीश्वरजीका नाम गौण कर दिया है या उड़ा दिया है। * हमारा ये प्रयास क्यों? : आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर अध्ययन--मूलसूत्र-निर्यक्ति-भाष्य आदि के नंबर लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, सूत्र, निर्यक्ति, भाष्य आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके | बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस - दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची या 'गाथा' शब्द लिखा है। हर पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट दी है। अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसिको मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ......मुनि दीपरत्नसागर. ~ 3~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-]/गाथा ||-II, नियुक्ति: [-], भाष्यं -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: श्रेष्ठिदेवचन्द्रलालभाइ-जैनपुस्तकोद्धारे प्रन्थाङ्कः ॥अहम् ॥ श्रीमद्भद्रबाहुविरचितनियुक्तियुतं । श्रीमच्छय्यम्भवसूरिवर्यविहितं । श्रीहरिभद्रसूरिकृतबृहवृत्तियुतं । श्रीदशवैकालिकम् । SEKS-505483%% जयति विजितान्यतेजाः सुरासुराधीशसेवितः श्रीमान् । विमलनासविरहितस्बिलोकचिन्तामणिर्वीरः ॥ १॥ इहार्थतोऽर्हत्मणीतस्य सूत्रतो गणधरोपनिबद्धपूर्वगतोद्धृतस्य शारीरमानसादिकटुकदुःखसंतानविनाशहेतोदेशकालिकाभिधानस्य शास्त्रस्यातिसूक्ष्ममहार्थगोचरस्य व्याख्या प्रस्तूयते-तत्र प्रस्तुतार्थप्रचिकटयिषयैवेष्टदेवतानमस्कारद्वारेणाशेषविविनायकापोहसमर्थी परममङ्गलालयामिमा प्रतिज्ञागाधामाह नियुक्तिकार: वृत्तिकार-कृत् मंगलम् एवं सूत्र-प्रस्तावना ~ 4~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [१], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: मङ्गलम् दशका . सिद्धिगइमुवायाणं कामविसुद्धाण सव्वसिद्धाणं । नमिऊणं दसकालियणिजुति कित्तइस्सामि ॥ १ ॥ हारि-वृत्तिः व्याख्या-सिद्धिगतिमुपगतेभ्यो नत्वा दशकालिकनियुक्ति कीर्तयिष्यामीति क्रिया । तत्र सिद्ध्यन्ति-नि॥१॥ ष्ठितार्था भवन्त्यस्यामिति सिद्धिः-लोकाग्रक्षेत्रलक्षणा, तथा चोक्तम्-इह बॉदि चइत्सा ण, तस्थ गंतूण दसिज्झई" । गम्यत इति गतिः, कर्मसाधनः सिद्धिरेव गम्यमानत्वाद्गतिः सिद्धिगतिस्तामुप-सामीप्येन गताः प्राप्तास्तेभ्यः, सकललोकान्तक्षेत्रप्राप्तेभ्य इत्यर्थः, प्राकृतशैल्या चतुथ्यर्थे षष्ठी, यथोक्तम्-“छट्ठीविभत्तीऍ भपणइ चउत्थी' । तत्र एकेन्द्रियाः पृथिव्यादयः सकर्मका अपि तदुपगमनमात्रमधिकृत्य यथोक्तखरूपा भवत्यत आह-'कर्मविशुद्धेभ्यः' क्रियते इति कर्म-ज्ञानावरणीयादिलक्षणं तेन विशुद्धा-वियुक्ताः कर्मविशुद्धाःकर्मकलङ्करहिता इत्यर्थः, तेभ्यः कर्मविशुद्धेभ्यः । आह-एवं तर्हि वक्तव्यं, न सिद्धिगतिमुपगतेभ्यः, अव्य-पद भिचारात्, तथाहि-कर्मविशुद्धाः सिद्धिगतिमुपगता एव भवन्ति, न, अनियतक्षेत्रविभागोपगतसिद्धपतिपादनपरदुर्नयनिरासार्थत्वावस्य, तथा चाहुरेके-"रागादिवासनामुक्तं, चित्तमेव निरामयम् । सदाऽनियतदेशस्थं, सिद्ध इत्यभिधीयते ॥१॥” इत्यलं प्रसङ्गेन । ते च तीर्थादिसिद्धभेदादनेकप्रकारा भवन्ति, तथा चोक्तम्-"तित्थसिद्धा अतित्थसिद्धा तित्थगरसिद्धा अतित्वगरसिद्धा सयंबुद्धसिद्धा पत्तेयबुद्धसिद्धा बु १ह बोग्दि खक्त्वा तन्त्र गत्वा सिध्यति. २ पाटी विभक्त्या भव्यते चतुर्थी. तीर्थसिद्धा अतीसियाः तीर्थंकरसिद्धा अतीर्थकरसिद्धाः खयंयुद्धसिद्धाः। प्रत्येकयुद्धसिद्धाः तुमबोधितसियाः त्रीलिदगसिद्धाः पुरुषलिकासिद्धा मपुंसकलिङ्ग सिद्धाः खलिङ्गसिद्धा अन्यलिम सिखा रहिलिश सिद्धा एकसिद्धा अनेकसिद्धाः। ~5~ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-1, मूलं [-], नियुक्ति: [१], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: योहियसिद्धा इत्थीलिंगसिद्धा पुरिसलिंगसिद्धा नपुंसगलिंगसिद्धा सलिंगसिद्धा अन्नलिंगसिद्धा गिहिलिंगसिद्धा एगसिद्धा अणेगसिद्धा" इत्यत आह-'सर्वसिद्धेश्यः सर्वे च ते सिद्धाश्चेति समासस्तेभ्यः, अ-12 थवा-सिद्धिगतिमुपगतेभ्यः' इत्यनेन सर्वथा सर्वगतात्मसिद्धपक्षप्रतिपादनपरदुर्नयस्य व्यवच्छेदमाह, तथा| चोक्तमधिकृतनयमतानुसारिभिः- "गुणसत्त्वान्तरज्ञानानिवृत्तप्रकृतिक्रियाः । मुक्ताः सर्वत्र तिष्ठन्ति, व्यो-मा ६ मवत्तापवर्जिताः॥१॥" व्यवच्छेदश्चतेषां सामीप्येन सर्वात्मना सिद्धिगतिगमनाभावात्, 'कर्मविशुद्धेश्या' दाइत्यनेन तु सकर्मकाणिमादिविचित्रैश्वर्यवत्सिद्धप्रतिपादनपरस्येति, उक्तं च प्रक्रान्तनयदर्शनाभिनिविष्टे: "अणिमाद्यष्टविधं प्राप्यैश्वर्यं कृतिनः सदा । मोदन्ते सर्वभावज्ञास्तीर्णाः परमदुस्तरम् ॥१॥” इत्यादि, व्यवच्छेदश्चैतेषां कर्मसंयोगेन अनिष्ठितार्थत्वाद्वस्तुतः सिद्धत्वानुपपत्तेरिति, 'सर्वसिद्धेभ्यः' इत्यनेन तु भगधैव सर्वथा अद्वैतपक्षसिद्धप्रतिपादनपरस्येति, तथा चोक्तं प्रस्तुतनयाभिप्रायमतावलम्बिभिः-"एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ १॥” व्यवच्छेदश्चास्य सर्वथा अद्वैते बहु वचनगर्भसर्वशब्दाभावात् [सिद्धिगतिगमनाभावात्। 'नत्वा प्रणम्येति, अनेन तु समानकर्तृकयोः पूर्वहै काले क्त्वाप्रत्ययविधानान्नित्यानित्यैकान्तवादासाधुत्वमाह, तत्र क्वाप्रत्ययार्थानुपपत्तेः, तत्र नित्यैकान्तवादे वातावदात्मन एकान्तनित्यत्वादपच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावत्वाद्भिन्नकालक्रियाद्वयकर्तृत्वानुपपत्तेः, क्षणिकैका १ गुणाः सत्वरजस्तमोरूपाः सत्त्वमात्मा तयोरन्तर विशेष इति वि. प. T ~6~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [-1, उद्देशक [-], मूलं [-1, नियुक्ति: [१], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: त्रयम् ॥२॥ दशकान्तवादे चात्मन उत्पत्तिव्यतिरेकेण व्यापाराभावाद्भिन्नकालक्रियाद्वयकर्तृत्वानुपपत्तिरेवेत्यलं विस्तरेण, गमहारि-वृत्तिः निकामात्रमेवैतदिति । भवति च चतुर्थ्यप्येवं नमनक्रियायोगे, अधिकृतगाथासूत्रान्यथानुपपत्ते, आप्तश्च । नियुक्तिकारः, 'पित्रे सवित्रे च सदा नमामी'त्येवमादिविचित्रप्रयोगदर्शनाच, कर्मणि वा षष्ठी । सर्वसिद्धेभ्यो। मत्त्वा किमित्याह-'दशकालिकनियुक्ति कीर्तयिष्यामि तत्र कालेन निर्वृत्तं कालिक, प्रमाणकालेनेति भावः, हैदशाध्ययनभेदात्मकत्वाद्दशप्रकारं कालिकं प्रकारशब्दलोपाद्दशकालिकं, विशब्दार्थ तूत्तरत्र व्याख्यास्यामः, तत्र नियुक्तिरिति-निर्युक्तानामेव सूत्रार्थानां युक्ति:-परिपाट्या योजनं नियुक्तयुक्तिरिति वाच्ये युक्तशब्दलोपानियुक्तिस्तां-विप्रकीर्णायोजनां व्याख्यास्यामि कीर्तयिष्यामीति गाथार्थः ॥ शास्त्राणि चादिमध्यावसानमङ्गलभाति भवन्तीत्यत आह आइमज्यवसाणे काउं मंगलपरिग्रहं विहिणा । व्याख्या-शास्त्रस्यादौ-प्रारम्भे मध्ये-मध्यविभागे अवसाने-पर्यन्ते, किं-कृत्वा मङ्गलपरिग्रहम् , कथम् । -'विधिना' प्रवचनोक्तेन प्रकारेण, आह-किमर्थ मङ्गलत्रयपरिकल्पनम् ? इति, उच्यते, इहादिमङ्गलपरिग्रहः सकलविमापोहेनाभिलषितशास्त्रार्थपारगमना), तत्स्थिरीकरणार्थं च मध्यमङ्गलपरिग्रहः, तस्यैव शिष्यमशिष्यसन्तानाव्यवच्छेदायावसानमगलपरिग्रह इति । अत्र चाक्षेपपरिहारावावश्यकविशेषविचरणादवसेयौ इति । सामान्यतस्तु सकलमपीद शास्त्रं मङ्गलं, निर्जरार्थत्वात्तपोवत्, न चासिद्धो हेतुः, यतो वचनविज्ञान ॥२॥ JaEconom आदि-मध्य-अवसान मंगलवयं Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [१], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: 55555 रूपं शास्त्र, ज्ञानस्य च निर्जरार्थता प्रतिपादितैव, यत उक्तम्-"जं रहओ कम्म खवेइ बहुयाहिं वासकोडीहिं । तं नाणी तिहि गुत्तो खवेइ ऊसासमेत्तेणं ॥१॥" इत्यादि । इह चादिमङ्गलं द्रुमपुष्पिकाध्ययनादि, धर्मप्रशंसाप्रतिपादकत्वातंत्खरूपत्वादिति, मध्यमङ्गलं तु धर्मार्थकामाध्ययनादि, प्रपञ्चाचारकथाद्यभिधायकत्वात्, चरममङ्गलं तु भिक्ष्वध्ययनादि, भिक्षुगुणायवलम्बनत्वादित्येवमध्यपनविभागतो महालत्रयविभागो निदर्शिता, अधुना सूत्रविभागेन निदश्यते-तत्र चादिमङ्गलम् 'धम्मो मंगल' इत्यादिसूत्रं, धर्मोपलक्षितखात्, तस्य च मङ्गलत्वादिति, मध्यममङ्गलं पुनः 'णाणदसणे'त्यादि सूत्र, ज्ञानोपलक्षितत्वात् , तस्य च मङ्गलस्वादिति, अवसानमङ्गलं तु 'णिक्खम्ममाणा इय' इत्यादि, भिक्षुगुणस्थिरीकरणार्थ विविक्तचर्याभिधायकत्वात्, भिक्षुगुणानां च मङ्गलस्वादिति । आह-मङ्गलमिति कः शब्दार्थः, उच्यते, 'अगिरगिलगिवगिम-1 गीति' दण्डकधातुः, अस्य "इदितो नुम् धातो" (पा०७-१-५८) रिति नुमि विहिते औणादिकालचूप्रत्य-18 यान्तस्य अनुबन्धलोपे कृते प्रथमैकवचनान्तस्य मङ्गलमितिरूपं भवति । मङ्गयते हितमनेनेति मङ्गलं, मङ्गयतेधिगम्यते साध्यत इतियावत्, अथवा मङ्ग इति धर्माभिधानं, 'ला आदाने अस्य धातोर्मले उपपदे "आतोऽ नुपसर्गे का" (पा०३-२-३) इति कमत्ययान्तस्यानुबन्धलोपे कृते "आतोलोपइटिच" (पा०६-४-६४) कृिति इत्यनेन सूत्रेणाकारलोपे च कृते प्रथमैकवचनान्तस्यैव मङ्गलमिति भवति, मलातीति मङ्गलं, धर्मोपादान १ यमरविकः कर्म क्षपयति बहुकाभिवर्षकोटीभिः । तरज्ञानी विभिप्तः क्षपयत्युच्यासमात्रेण ॥॥मालखरूपत्वात् वि. प० ३ करणभिक्षु प्र. ~8~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [२], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: क दशवैका. हेतुरित्यर्थः, अथवा मां गालयति भवादिति मङ्गलं, संसारादपनयतीत्यर्थः । तच्च नामादि चतुर्विधं, तद्यथा- मङ्गलहारि-वृत्तिः नाममङ्गलं स्थापनामहलं द्रव्यमङ्गलं भावमङ्गलं चेति, एतेषां च स्वरूपमावश्यकविशेषविवरणादवसेयमिति निक्षेपः श्रु नि अमुमेव गाथार्थमुपसंहरन्नाह नियुक्तिकार: तेऽनुयोनामाइमंगलंपिय चउब्विहं पनवेऊणं ॥२॥ गाः ४ व्याख्या-नामादिमङ्गलं चतुर्विधमपि प्रज्ञाप्य' प्ररूप्येति गाथार्थः ॥ तत्र समानकर्तृकयोः पूर्वकाले क्त्वानत्ययविधानात् प्रज्ञाप्य किमत आह . सुयनाणे अणुओगेणाहिगयं सो चउन्विहो होइ । चरणकरणाणुओगे धम्मे गणिए (काले) य दविए य ॥ ३॥ 181 व्याख्या-श्रुतं च तदू ज्ञानं च श्रुतज्ञानं तस्मिन् श्रुतज्ञाने अनुयोगेनाधिकृतम्, अनुयोगेनाधिकार इत्यर्थः, इयमत्र भावना-भावमङ्गलाधिकारे श्रुतज्ञानेनाधिकारः, तथा चोक्तम्-"एत्थं पुण अहिगारो सुयणाणेणं जओ सुएणं तु । सेसाणमप्पणोऽविय अणुओगु पईवदिलुतो ॥१॥” तस्य चोद्देशादयः प्रवर्त्तन्ते इति, उक्तं च-"सुअणाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुन्ना अणुओगो पवत्तई” तत्रादावेवोद्दिष्टस्य समुद्दिष्टस्य समनुज्ञा-15 तस्य च सतः अनुयोगो भवतीत्यतो नियुक्तिकारेणाभ्यधायि 'श्रुतज्ञानेऽनुयोगेनाधिकृत'मिति । 'स'अनुयोग-14 १ अत्र पुनरधिकारा शुशानेन यतः श्रुतेनैव । शेषाणामारमनोऽपि च अनुयोगः प्रदीपदृष्टान्तः (न्तात् ॥1॥२ श्रुतज्ञानसा उदेशः समरेशः अनुहार अनुयोगः प्रयतैते. ACCOMSACSCASS ॥ ३ ॥ JanEducation अनुयोगस्य चतुर्विधत्वं वर्णयते ~9~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [३], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम द्र श्चतुर्विधो भवति, कथम् ?-चरणकरणानुयोग' चर्यत इति चरण-व्रतादि, यथोक्तम्-"वयं संमणधम्मसंम| वेपावचं च बंभगुत्तीओ। णाणादितियं तव कोहनिग्गहाई चरणमेयं ॥१॥" क्रियते इति करणं-पिण्डवि शुद्धयादि, उक्तं च-"पिंडबिसोही समिई भावणे पडिमी य इंदियंनिरोहो । पडिलेहंण गुत्तीओ अभिग्गेहा ६ चेव करणं तु ॥१॥" चरणकरणयोरनुयोगश्चरणकरणानुयोगः, अनुरूपो योगोऽनुयोगः-सूत्रस्यार्थेन सार्द्ध-18 मनुरूपः सम्बन्धो, व्याख्यानमित्यर्थः, एकारान्तः शब्दः प्राकृतशैल्या प्रथमा[द्वितीयान्तोऽपि द्रष्टव्यः, यथा "कयरे आगच्छह दित्तरूवे" इत्यादि, 'धर्म' इति धर्मकथानुयोगः, 'काले' चेति कालानुयोगश्च गणितानुयोगश्चेत्यर्थः, 'द्रव्ये चेति द्रव्यानुयोगश्च । तत्र कालिकश्रुतं चरणकरणानुयोगा, ऋषिभाषितान्युत्तराध्ययनादीनि धर्मकथानुयोगः, सूर्यप्रज्ञप्यादीनि गणितानुयोगः, दृष्टिवादस्तु द्रव्यानुयोग इति, उक्तं च-"कालियसुअंच इसिभासियाइ तइया य सूरपन्नत्ती। सव्वोय दिहिवाओ चउत्थओ होइ अणुओगो॥१॥” इति गाथार्थः॥ इह चार्थतोऽनुयोगो द्विधा-अपृथक्त्वानुयोगः पृथक्त्वानुयोगश्च, तत्रापृथक्त्वानुयोगो यकस्मिन्नेव सूत्रे सर्व एव चरणादयः प्ररूप्यन्ते, अनन्तगमपर्यायत्वात्सूत्रस्थ, पृथक्त्वानुयोगश्च यत्र कचित्सूत्रे चरणकरणमेव क प्रतानि श्रमणधर्मः संयमो वैवात्य च महागुप्तयः । ज्ञानादित्रयं तपः कोधनिप्रहादि चरणमेतत् ॥१॥ २पिण्डविशुद्धिः समितया भावनाः प्रतिमाष Kान्द्रियनिरोधः । प्रतिलेखना गुप्तयः अभिग्रहाचैव करणं ॥१॥३कतर आगच्छति दीप्तरूपा, *ममयी) च सूर्यप्रज्ञप्तिः । सर्वश्च दृष्टिवादश्चतुर्थों भवत्खनुयोगः ॥ १॥ ~ 10~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [३], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक [-] दीप अनुक्रम दशवैका चित्पुनर्धर्मकथैवेत्यादि, अनयोश्च वक्तव्यता जावंत अज्जवइरा अपुरतं कालियाणुओगस्स । तेणारेण पु- अनुयोगहारि-वृत्तिःहुसं कालियसुय दिहिवाए य ॥१॥” इत्यादेभेन्धादावश्यकविशेषविवरणाचावसेयेति ॥ इह पुनः पृथक्त्वा-विधिद्धा नुयोगेनाधिकारः, तथा चाह नियुक्तिकारः॥४॥ राणि ११ अपुहुनपुटुत्ताई निदिसि एत्थ होइ अहिगारो। चरणकरणाणुओगेण तस्स दारा इमे हुँति ॥ ४ ॥ व्याख्या-'अपृथक्खपृथक्त्वे लेशतो निर्दिष्टखरूपे निर्दिश्य 'अ' प्रक्रमे भवत्यधिकारः, केन?-चरणकरणानुयोगेन' 'तस्य' चरणकरणानुयोगस्य 'द्वाराणि' प्रवेशमुखानि 'अमूनि वक्ष्यमाणलक्षणानि भवन्तीति गाथार्थः॥ निखेवेगहनिरुत्तविही पवित्ती य केण वा कैस्स ? । तद्दारभेयलक्षण तयरिहपरिसा य सुत्तरंथो ॥ ५॥ व्याख्या-अस्याः प्रपश्चार्थः आवश्यकविशेषविवरणादवसेयः, स्थानाशून्यार्थ तु सङ्गेपार्थः प्रतिपाद्यत इति, 'णिक्खेवसि अनुयोगस्य निक्षेपः कार्यः, तद्यथा-नामानुयोग इत्यादि, 'एगढत्ति' तस्यैव एकार्थिकानि वक्तव्यानि, तद्यथा-अनुयोगो नियोग इत्यादि, 'निरुत्त'सि तस्यैव निरुक्तं वक्तव्यम्, अनुयोजनमनुयोगः अनुरूपो वा योग इत्यादि, 'विहिं त्ति तस्यैव विधिर्वक्तव्यो, वक्तु: श्रोतुश्च, तत्र वक्तु: 'सुत्सत्थो खलु पढमो ....यावदार्यवा भपृथक्त्वं कालिकानुयोगस्य । ततोऽवां (तत आरात् ) पृथक्त्वं कालिकाते दृष्टिवादे च ॥1॥ १ सूत्राथः खन प्रथमो द्वितीयो का नियुक्तिमिश्रितो माणितः । तृतीयक्ष निरवयोष एष विधिर्भवति मनुयोगे ॥१॥ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ॥४॥ ~ 11~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [१], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ दीप अनुक्रम बीओ णिज्जुत्तिमीसिओ भणिओ । तइओ य निरवसेसो एस विही होइ अणुओगे ॥१॥" श्रोतुश्चायम्"भूयं हुंकारं वा बाढक्कार पडिपुच्छ बीमंसा । तत्तो पसंगपारायणं च परिनिह सत्तमए॥१॥" 'पवित्ती यत्ति अनुयोगस्य प्रवृत्तिश्च वक्तव्या, सा चतुर्भङ्गानुसारेण विज्ञेया, उक्तं च-"णिचं गुरू पमाई सीसा य गुरूण सीसगा तह य । अपमाइ गुरू सीसा पमाइणो दोवि अपमाई ॥१॥ पंढमे नस्थि पवित्ती बीए तइए य आणस्थि थोवं वा । अस्थि चउत्थि पवित्ती एत्थं गोणी दिटुंतो॥२॥ अप्पण्डया उ गोणी व य दोद्धा स मुजओ दोढुं । खीरस्स कओ पसवो? जइवि य बहुखीरदा साउ ॥३॥बितिएंवि पत्थि खीरं थोवं तह विजए व तइएवि । अत्थि चउत्थे खीरं एसुवमा आयरियसीसे ॥४॥ गोणिसरिच्छो उ गुरू दोहा इव साहुणो समक्खाया। खीरं अस्थपवित्ती नत्थि तहिं पढमबितिएम ॥५॥ अहवा अणिच्छमार्ण अवि किंलाचि उ जोगिणो पवतंति । तइए सारतमी होज पवित्ती गुणिसे वा॥६॥ अपमाई जत्थ गुरू सीसाविय १मूकं हुशार या बादकार प्रतिपूछा विमर्शः । ततः प्रसपारायणं परिनिष्ठा च सप्तमके ॥१॥ २ बकल्या प्र. ३ निबं गुयः प्रमादी शिष्या गुरुः न शिष्याखथा । अप्रामादी गुरुः शिष्याः प्रमादिनो दुयेऽप्यप्रमादिनः ॥1॥ ४ प्रथमे मास्ति प्रवृत्तिक्तिीवे तृतीये च नास्ति सोका या । मस्ति चतुर्थे प्रवृत्तिरत्र *मादृष्टान्तः॥१॥५अप्रस्तुता गौवच योग्या समुद्यतो दोग्धुम् । क्षीरस्य कुतः प्रसवो यद्यपि बहु क्षीरदा सातु ॥1॥ द्वितीयाप मावि पर खाक तथा विद्यते भवेद वा तृतीयेऽपि । अस्ति चतुक्षीरनेषोपमानार्थशिष्ययोः।।॥ गोसशस्तु गुरुग्वेव साधवः समाख्याताः । क्षीरमर्थप्रवृत्तिनांसि तत्र प्रथमद्वितीययो॥1॥ अथवा अनिच्छन्तमपि किमित्त योगिनः प्रवर्तयन्ति । तृतीये सारयति भवेत् प्रवृत्तिर्गणिखे वा॥॥अप्रमादी यत्र गुरुः शिष्या अपि च विनयमहणसंयुक्ताः । बाउं तत्र प्रवृत्तिः क्षीरस्येव चरमभते ॥१॥ 555555 ~ 12 ~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [१], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत विधिद्वा सूत्राक [-] दीप अनुक्रम दशवैकादविणयगहणसंजुत्ता । धणियं तत्थ पवित्ती खीरस्सव चरिमभंगमि ॥७॥" 'केण सि केनानुयोगः कर्त्तव्य इति | अनुयोगहारि-वृत्ति वक्तव्यं, तत्र य इत्थंभूत आचार्यस्तेन कर्तव्यः, तद्यथा-"देसकुलजाइरूवी संघयणधिइजुओ अणासंसी अविकत्थणो अमाई थिरपरिवाडी गहिययको ॥१॥ जियपरिसो जियनिदो मज्झत्थो देसकालभावन्नू । आ राणि ११ सन्नलद्धपइभो णाणाविहदेसभासन्नू ॥२॥ पंचविहे आयारे जुत्तो सुत्तत्थतदुभयविहिण्णू । आहरणहेउकारणणयनिउणो गाहणाकुसलो ॥ ३ ॥ ससमयपरसमयविऊ गंभीरो दित्तिमं सिवो सोमो । गुणसयकलिओ जग्गो पचयणसारं परिकहेउं ॥४॥” आसामर्थः कल्पादवसेयः, प्राथमिकदशकालिकव्याख्याने तु लेशत उच्यते-आर्यदेशोत्पन्नः सुखावबोधवाक्यो भवतीति देशग्रहणं, पैतृकं कुलं विशिष्टकुलोद्भवो यथोत्क्षिप्तभारवहने न श्राम्यति, मातृकी जातिः तत्सम्पन्नो विनयान्वितो भवति, रूपवानादेयवचनो भवति, आकृतौ च गुणा वसन्ति, संहननधृतियुक्तो व्याख्यानतपोऽनुष्ठानादिषु न खेदं याति, अनाशंसी न श्रोतृभ्यो वस्त्राद्याकासति, अविकत्थनो बहुभाषी न भवति, अमायी न शाव्येन शिष्यान वायति, स्थिरपरिपाटी स्थिरपरि चितग्रन्धस्य सूत्रं न गलति, गृहीतवाक्योऽप्रतिघातवचनो भवति, जितपरिषत् परप्रवादिक्षोभ्यो न भवति, द्रजितनिद्रोऽप्रमत्तस्वादू व्याख्यानरतिर्भवति प्रकामनिकामशायिनश्च शिष्याँश्चोदयति, मध्यस्थः संवादको भवति, देशकालभावज्ञो देशादिगुणानवबुद्ध्याप्रतिबद्धो विहरति देशनां च करोति, आसन्नलब्धप्रतिभो SEXX JamidcahaniRI ~ 13~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [१], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम माजात्युत्तरादिना निगृहीतः प्रत्युत्तरदानसमर्थों भवति, नानाविधदेशभाषाविधिज्ञो नानादेशजविनेयप्रत्याय नसमर्थों भवति, ज्ञानादिपञ्चविधाचारयुक्तः श्रद्धेयवचनो भवति, सूत्रार्थोभयज्ञः सम्यगुत्सर्गापवादप्ररूपको दाभवति, उदाहरणहेतुकारणनयनिपुणस्तद्गम्यान भावान् सम्यक प्ररूपयति नागममात्रमेव, ग्राहणाकुशलः शिष्याननेकधा ग्राहयति, स्वसमयपरसमयवित् सुखं परमताक्षेपमुखेन स्खसमयं प्ररूपयति, गम्भीरो महत्यप्यकार्ये न रुष्यति, दीप्तिमान परमवादिक्षोभमुत्पादयति, शिवो मारिरोगाद्युपद्वविधातकृद् भवति, सौम्यः प्रशान्तदृष्टितया सकलजनप्रीत्युत्पादको भवति, इत्थंभूत एव गुणशतकलितो योग्यः प्रवचनम्-आगमस्तस्य सारस्तं कथयितुमिति, यतोऽसावनेकभव्यसत्त्वप्रबोधहेतुर्भवति, उक्तं च-"गुणसुटिअस्स वयणं घयमहुसित्तोब्व पावओ भाइ । गुणहीणस्स न सोहइ णेहविहीणो जह पईवो ॥१॥” तथा चान्येनाप्युक्तम् क्षीरं भाजनसंस्थं न तथा वत्सस्य पुष्टिमावहति । आवल्गमानशिरसो यथा हि मातृस्तनास्पिवतः॥१॥ तद्वत्सुभाषितमयं क्षीरं दुःशीलभाजनगतं तु । न तथा पुष्टिं जनयति यथा हि गुणवन्मुखात्पीतम् ॥ २ ॥ शीतेऽपि यनलब्धो न सेव्यतेऽग्निर्यथा श्मशानस्थः । शीलविपन्नस्य वचः पथ्यमपि न गृह्यते तद्वत् ॥ ३ ॥ चारित्रेण विहीनः श्रुतवानपि नोपजीव्यते सद्धिः। शीतलजलपरिपूर्णः कुलजैश्चाण्डालकूप इव ॥४॥"क न्यायसूत्रे पश्चमाभ्यायापालिके सविस्तर आतिखरूपम्. २°पि कार्वे. ३°तसमन्वितःप्र.४ गुणसुस्थितस्य चनं घृतमधुसिक्तः पावक इस भाति । गुणहीनस्य न शोभते नेहविहीनो यथा प्रदीपः ॥१॥ ~ 14~ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-1, मूलं [-], नियुक्ति: [१], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम बसवैका०स्स'त्ति कस्यानुयोग? इति वक्तव्यं, तत्र सकल श्रुतज्ञानस्याप्यनुयोगो भवति, अमुं पुन: प्रारम्भमाश्रित्य दश- INहारि-वृत्तिः कालिकस्येति। अत्राह-ननु "दसकालियनिहुत्ति कीत्तइस्सामित्ति” अस्मादेव वचनतः प्रकृतद्वारार्थस्यावगत-ICI नुयोगात्वात् तदुपन्यासोऽनर्थक इति, न, अधिकृतनिक्षेपादिद्वारकलापस्याशेषश्रुतस्कन्धविषयत्वात्, तहलेनैव च रम्भः नियुक्तिकारेणापि तथोपन्यस्तत्वात्, अस्मादेव स्थानादन्यत्राप्यादौ शास्त्राभिधानपूर्वक उपन्यासः क्रियत इति भावना । व्याख्यातं लेशतो नियुक्तिगाधादलं, पश्चाई त्वध्ययनाधिकारे यथाऽयसरं व्याख्यास्यामः, यत-| कस्तत्रैवोपक्रमाद्यनुयोगद्वारानुपूर्व्यादितङ्गेदसूत्रादिलक्षणतदर्हपर्षदादयश्च वक्तुं शक्यन्ते, नान्यत्र, निर्विषयछत्वादित्यलं प्रसङ्गेन ॥ साम्प्रतं प्रकृतयोजनामेवोपदर्शयन्नाह नियुक्तिकार: एयाई परूवे कप्पे वणियगुणेण गुरुणा उ । अणुओगो दसवेयालियरस विहिणा कहेयब्वो ॥६॥ व्याख्या-'एतानि' निक्षेपादिद्वाराणि 'प्ररूप्य' व्याख्याय कल्पे वर्णितगुणेन गुरुणा, षट्त्रिंशद्गुणसमन्विट्रातेनेत्यर्थः । अनुयोगो दशकालिकस्य विधिना' प्रवचनोक्तेन 'कथयितव्य' आख्यातव्य इति गाथार्थः॥सम्प्रत्यजानानः शिष्यः पृच्छति-यदि दशकालिकस्यानुयोगस्ततस्तद्दशकालिकं भदन्त ! किमङ्गमशानि? श्रुतस्कन्धः श्रुतस्कन्धाः? अध्ययनमध्ययनानि? उद्देशक उद्देशका? इत्यष्टौ प्रश्नाः, एतेषां मध्ये त्रयो विकल्पाः खलु| प्रयुज्यन्ते, तद्यथा-दशकालिकं श्रुतस्कन्धः अध्ययनानि उद्देशकाश्चेति, यतश्चैवमतो दुशादीनां निक्षेपः कर्सव्या, तद्यथा-दशानां कालस्य श्रुतस्कन्धस्याध्ययनस्य उद्देशकस्य चेति, तथा चाह नियुक्तिकार: T ~ 15~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [७], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम वसकालियंति नाम संखाए कालो य निद्देसो । दसकालियसुअखधं अज्झयणुदेस निक्खिविउ ॥ ७॥ ४ व्याख्या-'दशकालिकं' प्राग्निरूपितशब्दार्थम् इति एवंभूतं यत् 'नाम' अभिधानं, इदं किम् ?-संख्यानं संख्या तया, तथा 'कालतश्च' कालेन चायं-निर्देशः' निर्देशनं निर्देशः, विशेषाभिधानमित्यर्थः, अस्य च निवन्धनं विशेषेण वक्ष्यामः 'मणगं पडुच्च' इत्यादिना ग्रन्थेन, यतश्चैवमतः 'दसकालियति कालेन निवृत्तं कालिक दशशब्दस्य काल शब्दस्य च निक्षेपा, निर्वृत्तार्थस्तु निक्षेपः, तथा श्रुतस्कन्धं तथाऽध्ययनं "उद्देशं तदेकदेशभूतं, किम् ?-निक्षेप्तुमनुयोगोऽस्य कर्तव्य इति गाथार्थः । तत्र 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायादधिकृतशास्त्राभिधानोपयोगित्वाच दशशब्दस्यैवादी निक्षेपः प्रदश्यते-तत्र दशैकाद्यायत्ता वर्तन्ते, एकायभावे दशानाम-| प्यभावाद, अत एकस्यैव तावन्निक्षेपप्रतिपिपादयिषयाऽऽह णाम ठपणा दविए माज्यपयसंगहेकाए चेव । पजवभावे य तहा सत्तेए एकगा होति ।। ८॥ व्याख्या-इहैक एच एकका, तत्र 'नामैकक' एक इति नाम 'स्थापनकक' एक इति स्थापना, 'द्रव्यैककं । त्रिधा-सचित्तादि, तत्र सचित्तमेकं पुरुषद्रव्यं, अचित्तमेकं रूपकद्रव्यं, मिश्रं तदेव कटकादिभूषितं पुरुषद्रव्यमिति, 'मातृकापदैककम् एकं मातृकापदं, तद्यथा-'उप्पन्ने इवें खादि, इह प्रवचने दृष्टिवादे समस्तनयवादबीजभूतानि मातृकापदानि भवन्ति, तद्यथा-"उप्पन्ने इ वा विगमे इ वा धुवेइ चा" अमूनि च (वा) मातृकापदानि "अ आ इई" इत्येवमादीनि, सकलशब्दव्यवहारव्यापकत्वान्मातकापदानि, इह चाभि दश. Jianta.cahani janabraryang. ~16~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [८], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक [-] दीप अनुक्रम दशवैका धेयवल्लिङ्गवचनानि भवन्तीति कृत्वेत्थमुपन्यासः, 'सङ्ग्रहैकक' शालिरिति, अयमत्र भावार्थ:-सङ्ग्रहः-समु-११ दुमपुझरि-वृत्तिः दायः तमप्याश्रित्यैकवचनगर्भशब्दप्रवृत्तेः, तथा चैकोऽपि शालिः शालिरित्युच्यते बहवोऽपि शालयः शा-1 |ष्पिका लिरिति, लोके तथादर्शनात्, अयं चादिष्टानादिष्टभेदेन द्विधा-तत्रानादिष्टो यथा शालि:, आदिष्टो यथा एककनिकलमशालिरिति, एवमादिष्टानादिष्टभेदावुत्तरद्वारेष्वपि यथारूपमायोज्यो, 'पर्यायैकक' एकः पर्यायः, प यो विशेषो धर्म इत्यनान्तरं, स चानादिष्टो वर्णादिः आदिष्टः कृष्णादिरिति । अन्ये तु समस्तश्रुतस्कन्धवस्त्वपेक्षयेत्धं व्याचक्षते-अनादिष्टः श्रुतस्कन्धः आदिष्टो दशकालिकास्य इति, अन्यस्त्वनादिष्टो दशकालिकास्यः आदिष्टस्तु तदध्ययनविशेषो दुमपुष्पिकादिरिति व्याचष्टे, न चैतदतिचारु, दशकालिकाभिधानत एवादेशसिद्धेः । 'भावैकैक' एको भावः, स चानादिष्टो भाव इति, आदिष्टस्त्वौदयिकादिरिति । १ पदेष्वपि प्र०२ चूर्णी-अण्णाइई दसगालियं आइह दुमपुफिर्भ सामण्णश्वियं एवमादि. ३ उदश्यभावेदन दुबिई-अणाइई उदइओ भावो आइई पसत्वमएसाथं च, तत्थ पसत्येकगं तित्थगरनामगोत्तस्स कम्मस्स उदो एक्मादी, अपसत्येक कोहोदओ एवमादि । इयाणि उवसामयसइवसओयसमिया, ते तिष्णिवि भापेकगा णिच्छयणयस्स पसत्थगा चेय, एतेसि अपसत्यो पटियक्सो णत्थि, कम्हा?, जम्हा मिच्छद्दिडौण केइ कम्मंसा: सीणा केइ उवसंता, खओवसमेष य काहाणबुद्धी पाडवाविष्णो गुणा संवापि तेसि बिपरीयगा हित्तणेणं उम्मत्तवयणमिच अप्पमाणं चेच, तम्हा उक्सामिनखइअखओक्समिया भावा सम्मद्दितिको चेव लामति । ॥ ७॥ परिणामिअभावकगं दुविहं अण्णाइह परिणामिओ भावो, आइह दुविई-सादिपरिणामिएक्कगं च अप्पाइपरिणामिएक्कगं च, तत्थ साइपरिणामिएक्कर्म जहा कसायपरिणओ एवमादी, अपाइपरिणामिएक्कगं जहा जीवो जीनभावेण निश्चमेव परिणाओ। एत्य कवरेण एक्केग अहिगारो!, महियायरिओवएसेण-संगहेक्कगेण दत्तिलायरिमोवएसेण भावेक्कगेणं अहिगारो, दोष्णिवि एते आएसा अविश्वा । इति पूर्णिः, JanElicitation ~ 17~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [८], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम सप्त एते अनन्तरोक्ता एकका भवन्ति, इह च किल यस्माद्दश पर्याया-अध्ययनविशेषाः सङ्गीककेन संगृ-17 हीतास्तस्मात्तेनाधिकारः, अन्ये तु व्याचक्षते-यतः किल श्रुतज्ञानं क्षायोपशमिके भावे वर्तते तस्माद्भावैककेनाधिकार इति गाथार्थः । इदानीं यादीन् विहाय दशशब्दस्यैव निक्षेपं प्रतिपादयन्नाह णाम ठपणा दविए खित्ते काले तहेव भावे अ । एसो खलु निक्खेचो दसगस्स उ छविहो होइ ॥९॥ द्रा व्याख्या-आह-किमिति यादीन विहाय दशशब्दः उपन्यस्तः, उच्यते, एतत्प्रतिपादनादेव यादीनां । लगम्यमानत्वात्, तत्र नामस्थापने सुगमे, द्रव्यदशकं दश द्रव्याणि सचित्ताचित्तमिश्राणि मनुष्यरूपककट कादिविभूषितानीति, क्षेत्रदशकं दश क्षेत्रप्रदेशा, कालदशकं दश काला, वर्सनादिरूपत्वात्कालस्य दशाविस्थाविशेषा इत्यर्थः वक्ष्यति च-बाला किडा मंदे' त्यादिना, भावदशकं दश भावाः, तेच सान्निपातिक भावे खरूपतो भावनीयाः, अथ चैत (वैत) एव विवक्षया दशाध्ययनविशेषा इति, 'एष एवंभूतः खलु 'निक्षेपों' न्यासो दशशब्दस्य बहुवचनान्तत्वाद्दशानां षड़िधो भवति, तन्त्र खलुशब्दोऽवधारणार्थः, एष एव प्रक्रान्तोपयोगीति, तुशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि ?-नायं दशशब्दमात्रस्य, किन्तु तद्वाच्यस्यायंस्था-1 पीति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं प्रस्तुतोपयोगित्वाकालस्य कालदशकद्वारे विशेषार्थप्रतिपिपादयिषयेदमाह ___ बाला किडा मंदा बला य पन्ना व हायणि पवंचा । पन्भार मम्मुही सायणी य दसमा उ कालदसा ॥ १०॥ व्याख्या-बाला क्रीडा च मन्दा च वला (च) प्रज्ञा च हायिनी ईषत्प्रपञ्चा प्रारभारा मृन्मुखी शायिनी दश आदि शब्दस्य निक्षेपा: प्रदर्श्यते ~ 18~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] दशवैकro हारि-वृतिः ॥ ८ ॥ Jar Education “दशवैकालिक”- मूलसूत्र ३ (मूलं निर्युक्तिः + भाष्य | + वृत्तिः) उद्देशक (-). मूलं [-1, निर्युक्तिः [१०], आयं [-1 अध्ययनं [ - ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः तथा । एता हि दश दशाः - जन्त्ववस्थाविशेषलक्षणा भवन्ति । आसां च खरूपमिदमुक्तं पूर्वमुनिभिः- “जांयमित्तस्स जंतुस्स, जा सा पढमिया दसा । ण तत्थ सुहदुक्खाई, यहुं जाणंति बालया ॥ १ ॥ विइयं च दसं पत्तो, णाणाकिड्डाहिं किड्डइ । न तत्थ कामभोगेहिं तिब्बा उप्पजाई मई ॥ २ ॥ तइयं च दसं पत्तो, पंच कामगुणे नरो । समत्थो भुंजिउ भोए, जइ से अस्थि घरे धुवा ॥ ३ ॥ चत्थी उबला नाम, जं नरो दसमस्सिओ। समत्यो बलं दरिसिउं, जइ होइ निरुवद्दवो ॥ ४ ॥ पंचमिं तु दसं पत्तो, आणुपुब्वीर जो नरो। इच्छियत्थं विचिंतेह, कुटुंबं वाऽभिखई ॥ ५ ॥ छट्ठी उ हायणी नाम, जं नरो दसमस्सिओ विरज्जइ य कामेसु, इंदिएसु य हायई ॥ ६ ॥ सतमिं च दसं पत्तो, आणुपुवीह जो नरो। निहुहर चिकणं खेलं, खासइ य अभिक्खणं ||७|| संकुचियवलीचम्मो, संपत्तो अट्ठमिं दसं । णारीणमणभिप्पेओ, जराए परिणामिओ ||८|| पणवमी मम्मुही नाम, जं नरो दसमस्सिओ । जराघरे विणस्संतो, जीवो वसइ अकामओ ॥ ९ ॥ हीणभि १ जातमात्रस्य जन्तोय सा प्रथमा दशा न तत्र सुखदुःखानि बहूनि जानन्ति बालकाः ॥ १ ॥ द्वितीयां च दश प्राप्तो नानाक्रीडाभिः क्रीडते न तत्र कामभोगेषु सीमोत्पयते मतिः ॥ २ ॥ सूतीयां च दशां प्राप्तः पञ्च कामगुणावर समर्थो भोक्तुं भोगान् यदि तस्य (सन्ति) रहे भुवाः ॥ ३ ॥ चतुर्थी तु बला नाम यां नरो दशामाजितः समर्थों व दर्शयितुं यदि भवति निषयः ॥ ४ ॥ एवमों तु दशां प्राप्त आनुपूय यो नः ईप्सितार्थं विचिन्तयति कुटुम्बं वाऽ भिकाइति ॥ ५ ॥ पीतु हायिनी नाम यां नरो दशामाश्रितः। विरज्यते च कामेभ्य इन्द्रियार्थेषु च हीयते ॥ ६ ॥ सप्तमीं च दशां प्राप्त भानुपूय यो नरः । निष्ठीवति विकर्ण क्षेष्माणं कासति चाभीक्ष्णम् ॥ ७॥ समुचितविर्मा सम्प्राप्तोऽष्टमी दशाम् नारीणामनभिप्रेतः जरया परिणामितः ॥ ८ ॥ नवमी सम्मुखी नाम यां नरो दशामाश्रितः। जरागृहे विनश्यन् जीवो वसत्यकामः ॥ ९ ॥ हीनमि For ane & Personal Use City ~ 19~ १ दुमपु ष्पिकाध्य० दशादशकम् ॥ ८ ॥ brary dig Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) अध्ययनं [-], उद्देशक [-] मूलं [-], निर्युक्ति: [१०], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [४२] मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः सरो दीणो, बिवरीओ विचित्तओ । दुब्बलो दुक्खिओ सुबह, संपत्तो दसमिं दसं ॥ १० ॥" इत्यलं विस्तरेणेति गाथार्थः ॥ इदानीं कालनिक्षेपप्रतिपादनायाह वे अ अहा उवकमे देसकालकाले य । तह य पमाणे वण्णे भावे परायं तु भावणं ॥ ११ ॥ व्याख्या- 'द्रव्य' इति वर्त्तनादिलक्षणो द्रव्यकालो वाच्यः, 'अद्वे'ति चन्द्रसूर्यादिक्रियाविशिष्टोऽर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तद्धा कालः समयादिलक्षणो वाच्यः, तथा 'यथायुष्ककालो' देवाचायुष्कलक्षणो वाच्यः, तथा 'उपक्रमकाल:' अभिप्रेतार्थसामीप्यानयनलक्षणः सामाचार्यायुष्कभेदभिन्नो वाच्यः, तथा देशकालो वाच्यः, देशः प्रस्तावोऽवसरो विभागः पर्याय इत्यनर्थान्तरम्, ततश्चाभीष्टवस्त्ववात्यवसरः काल इत्यर्थः, तथा कालकालो वाच्यः, तत्रैकः कालशब्दः प्राग्निरूपितशब्दार्थ एव, द्वितीयस्तु सामयिकः, कालो मरणमु च्यते, मरणक्रियायाः कलनं काल इत्यर्थः चः समुचये, तथा 'प्रमाणकाल:' अद्धाकालविशेषो दिवसादिलक्षणो वाच्यः, तथा वर्णकालो वाच्यः, वर्णश्वासौ कालश्चेति, 'भावेत्ति औदधिकादिभावकालः सादिसपर्यवसा नादिभेदभिनो वाध्य इति । प्रकृतं तु 'भावेनेति भावकालेन, इह पुनर्दिवसप्रमाणकालेनाधिकारः, तत्रापि तृतीयपौरुष्या, तत्रापि यहतिक्रान्तयेति । आह-यदुक्तं- 'पगयं तु भावेणंति' तत्कथं न विरुध्यते इति १, उच्यते, क्षायोपशमिकभावकाले शय्यम्भवेन निर्व्यूढं प्रमाणकाले चोक्तलक्षण इत्यविरोधः, अथवा प्रमाण१ अखरो दोनो विपरीतो विचित्तकः । दुवैको दुःखितः खपिति संप्राप्तो दशमी दशाम् ॥ १० ॥ For ane & Personal Use City ~20~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [११], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक [-] दीप अनुक्रम दशवैका कालोऽपि भावकाल एव, तस्याद्धाकालखरूपत्वात्, तस्य च भावत्वादिति गाथासमुदायार्थः ॥ अवयवा- १ दुमपुहारि-वृत्तिः |स्तु सामायिकविशेषविवरणादवसेयः । तथा चाह नियुक्तिकार: Xपिकाध्य सामाइयअणुकमओ वण्णे विगयपोरिसीए ऊ । निजूढं किर सेजंभवेण यसकालियं तेणं ॥ १२ ॥ अभिधानव्याख्या-सामायिकम्-आवश्यकप्रथमाध्ययनं तस्यानुक्रमः-परिपाटीविशेषः सामायिके वाऽनुक्रमः सामायिकानुक्रमः ततः सामायिकानुक्रमत:-सामायिकानुक्रमेण वर्णयितुम् , अनन्तरोपन्यस्तगाथाद्वाराणीति प्रक्रमाद् गम्यते, विगतपौरुष्यामेव, तुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् , 'नियू' पूर्वगतादुदृत्य विरचितं, किलशब्दः परोक्षाप्तागमवादसंसूचकः शय्यम्भवेन चतुर्दशपूर्वविदा 'दशकालिक प्राग्निरूपिताक्षरा 'तेम' का-II रणेनोच्यत इति गाथार्थः ॥ श्रुतस्कन्धयोस्तु निक्षेपश्चतुर्विधो द्रष्टव्यो यथाऽनुयोगद्वारेषु, स्थानाशून्यार्थ कि-13 कश्चिदुच्यते-इह नोआगमतः ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यश्रुतं पुस्तकपत्रन्यस्तं, अथवा सूत्रमण्डजादि, भावश्रुतं त्वागमतो ज्ञाता उपयुक्तः, नोआगमतस्त्विदमेव दशकालिकं, नोशब्दस्य देशवचनत्वात्, एवं नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यस्कन्धः सचेतनादिः, तत्र सचित्तो द्विपदादिः, अचित्तो है द्विपदेशिकादिः, मिश्रा सेनादि(दे)र्देशादिरिति, तथा भावस्कन्धस्त्वागमतस्तदर्थोपयोगपरिणाम एव, नोआगमतस्तु दशकालिकश्रुतस्कन्ध एवेति, नोशन्दस्य देशवचनत्वादिति, इदानीमध्ययनोद्देशकन्यासप्रस्तावः, ॥ ९ ॥ ৭ ক্ষিয়াবান T antacaroni ~ 21~ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [१२], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम SEARC दातं चामुयोगद्वारपक्रमायातं प्रत्यध्ययनं यथासम्भवमोघनिष्पन्ने निक्षेपे लाघवाधं वक्ष्याम इति ॥ ततश्च य दुक्तं-"दसकालिय सुअक्खधं अज्झयणुद्देस णिक्खिविउँ" अनुयोगोऽस्य कर्तव्य इति, तदंशतः सम्पा|दितमिति । साम्प्रतं प्रस्तुतशास्त्रसमुत्थवक्तव्यताभिधित्सयाह जेण व जं व पडुमचा जत्तो जावंति जह य ते ठविया । सो तं च तो ताणि य तदा य कमसो कहेयव्वं ॥ १३ ॥ | व्याख्या-'येन वा' आचार्येण 'यद्वा' वस्तु प्रतीत्य' अङ्गीकृत्य 'यतो वा' आत्मप्रवादादिपूर्वतो 'यावन्ति वा' अध्ययनानि 'यथा च येन प्रकारेण 'तानि' अध्ययनानि 'स्थापितानि' न्यस्तानि, स च-आचार्यः तच्चवस्तु ततः-तस्मात्पूर्वोत् तानि च-अध्ययनानि तथा च-तेनैव प्रकारेण 'क्रमशः' कमेणानुपूर्या 'कथयितव्यं । प्रतिपादयितव्यमिति गाथासमासार्थः ॥ अवयवार्थ तु प्रतिद्वारं नियुक्तिकार एव यथाऽवसरं वक्ष्यति । तप्राधिकृतशास्त्रकर्तुः स्तवद्वारेणाद्यद्वारावयवार्थप्रतिपादनायाह सेज्जंभवं गणधरं जिणपडिमाईसणेण पडिबुद्धं । मणगपिअरं दसकालियस्स निजूहगं वंदे ॥ १४ ॥ दारं ।। व्याख्या-सेजंभव मिति नाम 'गणधर मिति अनुत्तरज्ञानदर्शनादिधर्मगणं धारयतीति गणधरस्त, 'जिनप्रतिमादर्शनेन प्रतिबुद्धं तत्र रागद्वेषकषायेन्द्रियपरीषहोपसर्गादिजेतृत्वाजिनस्तस्य प्रतिमा-सद्भावस्थापनारूपा तस्या दर्शनमिति समासः, तेन-हेतुभूतेन, किम् ?–'प्रतिबुद्धं मिथ्यात्वाज्ञाननिद्रापगमेन सम्य RECENACOCOCCU T | दशवैकालिक-शास्त्रस्य समुत्पत्ति कथा कथयते ~ 22 ~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [-1, उद्देशक [-1, मूलं [-], नियुक्ति: [१४], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक [-] दीप अनुक्रम दशकात्व विकाशं प्राप्तं 'मनकपितर मिति भनकाख्यापत्यजनक 'दशकालिकस्य' प्राग्निरूपिताक्षरार्थस्य 'नियूहकं दुमपुहारि-वृत्तिः पूर्वगतोद्धृतार्थविरचनाकारं 'वन्दे स्तौमि इति गाथाक्षरार्थः ।। भावार्थः कथानकादवसेयः, तचेदम्-एत्य पिकाध्य वडमाणसामिस्स चरमतित्थगरस्स सीसो तित्वसामी सुहम्मो नाम गणधरो आसी, तस्सवि जंबूणामो, येनेतिय॥१०॥ तस्सवि य पभवोत्ति, तस्सऽन्नया कयाइ पुष्वरत्तावरत्तम्मि चिंता समुप्पन्ना-को मे गणहरो होजत्ति?, अ- तिद्वारे प्पणो गणे य संघे य सम्वओ उवओगो कओ, ण दीसइ कोइ अब्बोच्छित्तिकरो, ताहे गारत्येसु उवउत्तो, शय्यम्भ४ उवओगे कए रायगिहे सेनंभवं माहणं जन्नं जयमाणं पासइ, ताहे राअगिह णगरं आगंतूणं संघाडयं वा-४ वकथा वारेइ-जन्नवाडगं गंतुं भिक्खट्ठा धम्मलाहेह, तत्थ तुन्भे अदिच्छाविजिहिह, ताहे तुम्भे भणिजह-"अहो कष्टं तत्त्वं न ज्ञायते” इति, तेओ गया सादु अदिच्छाविया अ, तेहिं भणिअं-'अहो कष्टं तत्वं न ज्ञायतें, तेण य सेजंभवेण दारमूलेठिएण तं वयणं सुअं, ताहे सो विचिंतेइ-एए उवसंता तवस्सिणो असचं ण १अत्र वईमानस्वामिनश्चरमतीर्थकरस्य शिष्यः तीर्थखामी सुधर्मा नाम गणधर आसीत् , तस्यापि जम्बूनामा, तस्यापि च प्रभव इति, तस्यान्यदा कदा|चित्पूर्वरात्रापरराने चिन्ता समुत्पना को गणधरो भविष्यतीति ।, आत्मनो गणेच सके व सर्वतः उपयोगः कृतः, न दृश्यते कोऽपि अम्युरिछत्तिकर, तदा | खस्थेषूपयुका, उपयोगे ते राजगृहे शम्यम्भव ब्राह्मणं यां यजमानं पश्यति, तदा राजगृह नगरमागत्व सहाटकं (साधुयुग्मम् ) व्यापारयति यधपाटकं गत्वा मिक्षार्थ धर्मलाभया, सत्र बुवां अपिल्सियेथे (निषेत्त्येचे) तदा युवा भणेतम्-ततो गती साधू अदित्सितौ (निषिद्धौ) च, ताभ्यां भनितम्-वेन च शम्यम्भवेन द्वारमूले स्थितेन तवचनं श्रुतं, तदा स लिनिन्तयति-एनौ उपशान्ती उपसिनी असलं न न दानयोचरीभविष्ययः, बि. प. वे निग्गया प्र. ~ 23~ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [१४], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक वयंतित्तिकाउं अज्झावगसगासं गंतुं भणइ-किं तत्तं ?, सो भणइ-वेदाः, ताहे सो असि कहिऊण भणइसीसं ते छिंदामि जइ मे तुम तत्तं न कहेसि, तओ अज्झावओ भणइ-पुण्णो मम समओ, भणियमेयं बेयत्ये-परं सीसच्छेए कहियव्वंति, संपयं कहयामि जं एत्य तत्तं, एतस्स जूवस्स हेवा सब्बरयणामयी पडिमा / अरहओ सा धुव्वत्ति अरहओ धम्मो तत्तं, ताहे सो तस्स पाएसु पडिओ, सो य जन्नवाडओवक्खेवो तस्स चेव दिपणो, ताहे सो गंतूणं ते साहू गवेसमाणो गओ आयरियसगासं, आयरियं वंदित्ता साहुणो (य)| भणइ-मम धम्मं कहेह, ताहे आयरिया उवउत्ता-जहा इमो सोत्ति, ताहे आयरिएहिं साहुधम्मो कहिओ, संबुद्धो पब्वइओ सो, चउद्दसपुब्वी जाओ । जया य सो पव्वइओ तया य तस्स गुम्विणी महिला होत्था, तम्मि य पव्वइए लोगो णियल्लओ तंतमस्सति-जहा तरुणाए भत्ता पव्वइओ अपुत्ताए, अवि अस्थि तव बदेतामितिकरवा अध्यापकराकाशं गरमा भणति-कि तत्वम् स भगति-वेदाः, तदा सोनिका भणति-कीर्ष तव छिनधि यदि मयं तत्वं न कथयति, ततोऽध्यापको भणति-पूणों में समयः, भणितमेतद् वेदार्थ-परं शीर्षच्छेदे कथयितन्ममिति, साम्प्रतं कथयामि, पदन तत्पम्, एतस्य यूपस्याधस्वात् सर्वरसमयी प्रतिमा अर्हतः सा धुवेति माईतो धर्मस्तश्चम् , तदा स तस्य पादयोः पतितः, सच यशपाटकोपस्करः तस्मायेव दत्तः । तदा स गत्वा दी साधू गवेपयन् गत आचार्यसकाशम् , भाचार्य बन्दित्वा साधूंष भणति-मयं धर्म कथयत, तदा आचार्या उपयुका-यथाऽयं स इति । तदाऽऽचार्यः साधुधर्मः कथितः, संबुद्धः प्रबजितः, चतुर्दशपूर्वी जातः । यदा बस प्रवजितः तदा च तस्य गर्मिणी महिलाऽभवत्, तस्मिंश्च प्रबजिते लोको निनक आमन्दाति-यथा तरुणाया भर्ता मनजित्तोऽपुत्रायाः, अपि च अस्ति तब 中六十X十六*AK本八十六中5个*** दीप अनुक्रम ~ 24~ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [१४], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक [-] दीप अनुक्रम दशवैका०किंचि पोहेत्ति पुच्छर, सा भणइ-उवलक्खेमि मणगं, तओ समएण दारगो जाओ। ताहे णिवत्तवारसाहस्स हारि-वृत्तिानियल्लगेहिं जम्हा पुच्छिज्जतीए मायाए से भणि 'मणगं'ति तम्हा मणओ से णामं कर्यति । जया सो अ-पिकाध्य IPIवरिसो जाओ ताहे सो-मातरं पुच्छइ-को मम पिआ?, सा भणह-तव पिआ पब्वइओ, ताहे सो दारो श्रीशय्य15 णासिऊणं पिउसगासं पट्टिओ। आयरिया य तं कालं चंपाए विहरंति, सोवि अ दारओ चंपयमेवागओ, म्भवकथा आयरिएण य सण्णाभूमि गएण सो दारओ दिहो, दारएण वंदिओ आयरिओ, आयरियस्स य तं वारगं पिछतस्स हो जाओ, तस्सवि दारगस्स तहेव, तओ आयरिएहिं पुच्छिय-भो दारगा! कुतो ते आगमकति ?, सो दारगो भणइ-रायगिहाओ, आयरिएण भणियं-रायगिहे तुमं कस्स पुत्तो नत्तुओ वा?, सो भणइ-सेजंभवो नाम बंभणो तस्साहं पुत्तो, सो य किर पव्वइओ, तेहिं भणियं-तुमं केण कोण आग किषित् उदरे पति पुग्छति, सा भणति-उपलक्षयामि मनाक ततः समयेन दारको आता। तदा निवृत्तद्वादशाहस्य निगः यस्मात् पृच्छधमानया मात्रा तस भणितं मनागिति तसात् मनकस्तस नाम तिमिति । यदा सोऽष्टयाँ जातखदा समातरं पृच्छति-को मे पितासा भणति-तष पिता प्राजितः, तदा सदारकाना पितृसका प्रस्थितः, आचार्याध तस्मिन् काले चम्पायां वितरन्ति, सोऽपि च चम्पानेवागवः, आचार्येण च संक्षा (बिहार) भूमि मतेन सदारको | : दार केण वन्दित आचार्य, भावार्य स च तं दारक प्रेक्षमाणसमेटो जाता. तथापि दारका तथैव, तत आचार्य पृष्ठ:-मो दारका कुतस्ते आगमनमिति,सदारको भगति-राजग्रहात. आचार्येण भनितम-राजराहे वं कस्य प्रोनसको वास भणति---ाय्यम्भवो नामबाणा तस्साई पुनः सच किल ॥११॥ प्रजितः, तैभणितः-त्वं केन कार्येण आगतोऽसि ?, - ~ 25~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [१४], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक [-] CASS+SAGESANSARKAASC दीप अनुक्रम ओऽसि ?, सो भणइ-अहंपि पव्वइस्सं, पच्छा सो दारओ भणइ-तं तुम्हे जाणह?, आयरिया भणंति-जा मो, तेण भणिय !-सो कहिंति ?, ते भणंति-सो मम मित्तो एगसरीरभूतो, पब्वयाहि तुम मम सगासे, तेण भणियं-एवं करोमि । तओ आयरिया आगंतु पडिस्सए आलोअंति-सचित्तो पड़प्पन्नो, सो पब्वइओ, पच्छा आयरिया उवउत्ता-केवतिकालं एस जीवइत्ति ?, णायं जावं छम्मासा, ताहे आयरियाणं बुद्धी समुप्पन्ना-इमस्स थोवगं आउं, किं कायव्वंति ?, तं चउद्दसपुब्वी कम्हिवि कारणे समुप्पन्ने णिज्जूहति, दसपुव्वी पुण अपच्छिमो अवस्समेष णिज्जहर, ममंपि इमं कारणं समुप्पन्नं, तो अहमयि णिजहामि, ताहे आ-I ढत्तो णिजूहिउं, ते उ णिज्जूहिजता वियाले णिजूढा थोवावसेसे दिवसे, तेण तं दसवेयालियं भणि जति” । अनेन च कथानकेन न केवलं 'येन वे'त्यस्यैव द्वारस्य भावार्थोऽभिहितः, किन्तु यदा प्रतीत्यैतस्या-13 दापीति, तथा चाह नियुक्तिकार: १स भगति-अहमपि प्रजिष्यामि, पश्चात् स दारको भणति-तं पूर्व जानीथ, आचार्या भणन्ति-भानीमः, तेन भणितम्-स कुत्रेति !, ते भणन्तिसमम मित्रमेकशरीरभूतः, प्रवज त्वं मम सकाशे, तेन भगित-एवं करोमि । आचार्यो आगस प्रतिधर्य आलोचयन्ति-सचित्तः प्रत्युत्पन्नः (लब्धः), स प्रजजितः, पश्चादाचार्या उपयुकाः कियन्तं काळमेष जीविष्यति !, शातं यावत्यण्मासान्, तदाऽऽचार्याणां बुदिः समुत्पन्ना-अस्य स्तोकमायुः, कि कर्त्तव्यमिति, तत् चतुर्दशपूर्वी कस्मिचिदपि कारणे समुत्पन्ने उद्धराति, दशपूर्वी पुतरपश्चिमः अवश्यमेव उदरति, ममापौरं कारणं समुत्पत्रं तस्मादहमपि उद्धरामि, तदा भारत उद्धा, तानि नियमाणानि विकाले उद्धृतानि स्तोकावशेधे विचसे, तेन तद्दशवकालिक भण्यत इति, २ ई उद्धरण इत्यागमिको धातुरिति न्यायपहा. JEconomiTAT ~ 26~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [१५], भाष्यं [-] (४२) प्रत सूत्रांक दशवैका० मणगं पडुप सेजभवेण निजूहिया दसऽझयणा । वेयालियाइ ठबिया तम्हा दसकालियं णामं ॥ १५ ॥ द्वारं ॥ १दुमपुहारि-वृत्तिः व्याख्या-'मनकं प्रतीत्य' मनकाख्यमपत्यमाश्रित्य 'शय्यम्भवेन' आचार्येण नियंढानि' पूर्वगतादद्धत्य | विरचितानि 'दशाध्ययनानि' दुमपुष्पिकादीनि वयालियाइ ठविपत्ति विगतः कालो विकाला विकलनं वा| मायत उद्धार ॥१२॥ विकाल इति, विकालोऽसकलः खण्डश्चेत्यनान्तरम्, तस्मिन् विकाले-अपराण्हे 'स्थापितानि' न्यस्तानि दुमपुष्पिकादीन्यध्ययनानि यतः तस्माद्दशकालिकं नाम, व्युत्पत्तिः पूर्ववत्, दशवकालिकं वा, विकालेन निर्वृत्तम्, संकाशादिपाठाचातुरर्थिकष्ठक (पा०४-२-८०) तद्धितेष्वचामादे (पा०७-२-११७) रित्यादि देवैकालिक, दशाध्ययननिर्माणं च तद्वैकालिकं च दशबैकालिकमिति गाथार्थः ॥ एवं येन वा यद्वा प्रतीत्येति काव्याख्यातम् , इदानीं यतो नियूढानीत्येतद् व्याचिख्यासुराह आयप्पवायपुव्वा निजूढा होइ धम्मपन्नती । कम्मप्पवायपुव्वा पिंडस्स उ एसणा तिविहा ॥ १६ ॥ सचप्पवायपुवा निजूढा होइ वक्कसुद्धी उ । अवसेसा निजूढा नवमस्स उ तइयवस्थूओ ।। ॥ १७ ॥ वीमोऽवि अ आएसो गणिपिडगाओ दुवालसंगाओ। एवं किर णिचूढं मणगस्स अणुगमहट्टाए ॥ १८ ॥ BI व्याख्या-दहात्मप्रवादपूर्व-यत्रात्मनः संसारिमुक्तायनेकभेदभिन्नस्य प्रवदनमिति, तस्मानियंढा भवति। धर्मप्रज्ञप्तिः, षड्जीवनिका इत्यर्थः, तथा कर्मप्रवादपूर्वात्, किम् ?-पिण्डस्य तु एषणा त्रिविधा, निब्यूटेति ब १ कुमुदादेराहतिगणस्यात् युञ्छनिखादिना ठक्, संकाशादीति तु लेखकनममूलः पाठस्तत्र ज्यभावात्. २ विकाळे पठ्यते इति नै कालिकमिति चूर्णिः, KAKA 六本以本中六中中中 दीप अनुक्रम T Liam ElecatemiNGLI ~ 27~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [१८], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्तिः प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम तते, कर्मप्रवादपूर्व नाम-यत्र ज्ञानावरणीयादिकर्मणो निदानादिप्रवदनमिति तस्मात् , किम् ?-पिण्डस्यैषणा त्रिविधा-गवेषणाग्रहणैषणाग्रासैषणाभेदभिन्ना नियूंढा, सा पुनस्तत्रामुना सम्बन्धेन पतति-आधाकर्मों-12 पभोक्ता ज्ञानावरणीयादिकर्मप्रकृतीबध्नाति, उक्तं च-"आहाकम्मं णं मुंजमाणे समणे अट्ठकम्पपगडीओ बंधइ" इत्यादि, शुद्धपिण्डोपभोक्ता वा शुभा बनातीत्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः, सत्यप्रवादपूर्वान्नियूंढा भवति वाक्यशुद्धिस्तु, तत्र सत्यप्रवादं नाम-यत्र जनपदसत्यादेः प्रवदनमिति, वाक्यशुद्धिर्नाम सप्तममध्य-8 वयनम्, 'अवशेषाणि प्रथमद्वितीयादीनि नियूंढानि नवमस्यैव प्रत्याख्यानपूर्वस्य तृतीयवस्तुन इति । द्विती योऽपि चादेशः 'आदेशों' विध्यन्तरं 'गणिपिटकाद् आचार्यसर्वस्वाद् द्वादशाङ्गाद् आचारादिलक्षणात् 'इदं 18| दशकालिकं, किलेति पूर्ववत्, नियूंढमिति च, किमर्थम् ?-'मनकस्य' उक्तखरूपस्य अनुग्रहार्थमिति गाथानयार्थः ॥ एवं यत इति व्याख्यातम् , अधुना यावन्तीत्येतत्प्रतिपाद्यते दुमपुफियाझ्या खलु दस अज्ज्ञायणा सभिक्खुयं जाव । अहिगारेवि य एत्तो वोच्छ पत्तेयमेयोके ।। १९ ॥ दारं ॥ व्याख्या-तत्र दुमपुष्पिकेति प्रथमाध्ययननाम, तदादीनि दशाध्ययनानि 'सभिक्खुर्य जाव'त्ति सभिक्ष्वध्ययनं यावत्, खलुशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि-तदन्ये द्वेचूडे, यावन्तीति व्याख्यातं । यथा चेत्येतत् आधाकर्म भुनानः श्रमणः अष्टकर्मप्रकृतीनाति. JanElicatarlieHC ~ 28~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [१९], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत अध्ययनाधोधिकारा: सूत्राक -1 दीप अनुक्रम वशका पुनरधिकाराभिधानद्वारेणैव च व्याचिख्यासुः सम्बन्धकत्वेनेदं गाथादलमाह-अधिकारानपि चातो वक्ष्ये हारि-वृत्तिः प्रत्येकमेकैकस्मिन् अध्ययने, तत्रा अध्ययनपरिसमाप्तेर्योऽनुवर्तते सोधिकार इति गाथार्थः॥ पढमे धम्मपसंसा सो य इहेब जिणसासणम्मित्ति । बिइप धिइए सका काउं जे एस धम्मोति ॥ २०॥ तहए आयारकहा उ खुड़िया आयसंजमोवाओ। तह जीवसंजमोऽवि य होइ चउत्थंमि अज्झवणे ॥२१॥ मिक्सविसोही तवसंजमस्स गुणकारिया उ पंचमए । छट्रे आयारकहा महई जोग्गा महयणस्स ॥ २२॥ वयणविभत्ती पुण सत्तमम्मि पणिहाणमहमे भणियं । णवमे विणओ दसमे समाणियं एस मिक्चुत्ति ॥ २३ ॥ व्याख्या-प्रथमाध्ययने कोर्थाधिकार इत्यत आह-'धर्मप्रशंसा' दुर्गती प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः दातस्य प्रशंसा-स्तवः सकलपुरुषार्थानामेव धर्मः प्रधानमित्येवंरूपा, तथाऽन्यैरप्युक्तम्-"धनदो धनार्थिनां| मोक्ता, कामिनां सर्वकामदः । धर्म एवापवर्गस्य, पारम्पर्येण साधकः ॥१॥” इत्यादि । स चात्रैव-जिनशा-| 18सने धर्मो नान्यत्र, इहैव निरवद्यवृत्तिसद्भावाद, एतचोत्तरत्र न्यक्षेण वक्ष्यामः । धर्माभ्युपगमे च सत्यपि मा भूवभिनवप्रवजितस्याधृतेः सम्मोह इत्यत्तस्तन्निराकरणाधिकारवदेव द्वितीयाध्ययनम्, आह च-द्विती-| येऽध्ययनेऽयमर्थाधिकार:-धृत्या हेतुभूतया शक्यते कर्तुम, 'जे' इति पूरणार्थों निपातः 'एष जैनो धर्म इति, | उक्तं च-"जस्स धिई तस्स तवो जस्स तवो तस्स सोग्गई सुलहा । जे अधितिमंत पुरिसा तवोचि खल १ यस भूतिस्तस्य तपो यस्य तपस्तस्य सुगतिः सुलभा । वेऽधृतिमन्तः पुरषासापोऽपि सङ दुर्लभ तेषाम् ॥१॥ T ॥१३॥ दश अध्ययनस्य अर्थाधिकार: वर्णयते ~ 29~ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [-1, उद्देशक [-1, मूलं [-], नियुक्ति: [२३], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्तिः प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम है दुल्लहो तेसिं ॥१॥” सा पुनधृतिराचारे कार्यान त्वनाचारे इत्यतस्तदाधिकारवदेव तृतीयाध्ययनम् , आह | च-तृतीयेऽध्ययने कोऽर्थाधिकार इत्यत आह-आचारगोचरा कथा आचारकथा, सा चेहैवाणुविस्तरभेदात्, य(अ)त आह–'क्षुल्लिका' लध्वी, सा च 'आत्मसंयमोपायः संयमनं संयमः आत्मनः संयम आत्मसंयमस्तदुपाया, उक्तं च-"तस्यात्मा संयमो यो हि, सदाचारे रतः सदा । स एव धृतिमान् धर्मस्तस्यैव च जिनोदितः। " इति, स चाचारः षड्जीवनिकायगोचरः प्राय इत्यतश्चतुर्थमध्ययनम् , अथवाऽऽत्मसंयमः-तवन्यजीवपरिज्ञानपरिपालनमेव तत्त्वत इत्यतस्तदाधिकारवदेव चतुर्थमध्ययनम् , आह च-तथा जीवसंयमोऽपि च' भवति चतुर्थेऽध्ययनेाधिकार इति, अपिशब्दादात्मसंयमोऽपि तद्भावभाव्येव वर्तते, उक्तं च-"छसु जी-18 निकाएमुं, जे बुहे संजए सया । से चेव होइ विष्णेए, परमत्येण संजए ॥१॥” इत्यादि । एवमेव च धर्मः, स च देहे वस्थे सति सम्यक् पाल्यते, स चाहारमन्तरेण प्रायः खस्थो न भवति, स च सावधेतरभेद इत्यनवद्यो ग्राथ इत्यतस्तदर्थाधिकारवदेव पञ्चममध्ययनमिति, आह च-'भिक्षाविशोधिस्तपःसंयमस्य गुणकारिकैव 3 पश्चमेऽध्ययनेऽर्थाधिकार' इति, तत्र भिक्षणं भिक्षा तस्याः विशोधिः-सावद्यपरिहारेणेतरस्वरूपकथनमित्यर्थः, तपाप्रधानः संयमस्तपःसंयमस्तस्य गुणकारिकैवेयं वर्तत इति, उक्तं च-से संजए समक्खाए, निरवज्जाहार में १ पदल जीवनिकायेषु यो दुधः संयतः सदा । स चैव भवति विज्ञेयः परमायेन संयतः ॥५॥ २ स संयतः समाक्ष्यातो निरवद्याहार यो विद्वान् । EKAR T ~ 30~ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] दशवेका० हारि-वृत्तिः ॥ १४ ॥ “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) अध्ययनं [-], उद्देशक [-] भाष्यं [-] मूलं [-], निर्युक्ति: [२३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [४२] मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः जे विऊ । धम्मकायट्ठिए सम्मं, सुहजोगाण साहए ॥ १ ॥" इत्यादि । गोचरप्रविष्टेन च सता स्वाचारं पृष्टेन तद्विदापि न महाजनसमक्षं तत्रैव विस्तरतः कथयितव्यः, अपि तु आलये, गुरवो वा कथयन्तीति वक्तव्यमतस्तदर्थाधिकारवदेव षष्ठमध्ययनमिति, आह च षष्ठेऽध्ययनेऽर्थाधिकारः आचारकथा साऽपि महती, न क्षुल्लिका, 'योग्या' उचिता 'महाजनस्य' विशिष्टपरिषद् इत्यर्थः, वक्ष्यति च - "गोअरग्गपविट्टे उ न निसि एज्ज कत्थई । कहं च न पबंधिका चिट्ठित्ताण व संजए ॥ १ ॥ इत्यादि । आलयगतेनापि तेन गुरुणा (वा) वचनदोषगुणाभिज्ञेन निरवद्यवचसा कथयितव्य इत्यतस्तदर्थाधिकारवदेव सप्तममध्ययनमिति, आह च"वयणविभक्ती"त्यादि, वचनस्य विभक्तिर्वचनविभक्तिः, विभजनं विभक्तिः एवंभूतमनवद्यमित्थंभूतं च सावद्यमित्यर्थः पुनः शब्दः शेषाध्ययनार्थाधिकारेभ्यः अस्याधिकृतार्थाधिकारस्य विशेषणार्थं इति सप्तमेऽध्ययनेऽर्थाधिकार इति उक्तं च- "सावज्जणवजाणं वयणाणं जो ण याणइ विसेसं । वोत्तुं पि तस्स न खमं किमंग पुण देसणं कार्ड १ ॥ १ ॥" इत्यादि । तच्च निरवद्यं वचः आचारे प्रणिहितस्य भवति इत्यतस्तदर्थाधिकारवदेवाष्टममध्ययनमिति, आह च- प्रणिधानमष्टमेऽध्ययनेऽर्थाधिकारत्वेन 'भणितम्' उक्तम्, प्रणिधानं नाम-विशिष्टश्वेतोधर्म इति उक्तं च- “पणिहाणरहियस्सेह, निरवज्रंपि भासियं । सावज्जतुल्लं विन्नेयं, अ " धर्मकायस्थितः सम्यक् शुभयोगानां साधकः ॥ १ ॥ २ गोचराप्रश्रविष्टस्तु न निधीदेत् कुत्रचित् । कथां च न प्रबभीयात् स्थित्वा वा संयतः ॥ १ ॥ ३ सावधानानां वचनानां यो न जानाति विशेषम् । बक्तुमपि तस्य नाई किमङ्ग पुनर्देशन कर्त्तुम् ॥ १॥ ४ प्रणिधानरहितस्यैह निरवयमपि भाषितम् । सावद्यतुल्यं विशेयमध्यात्मस्थेनेह संदृतम् ॥ १ ॥ Ja Education ematen For ne&Personal Use City ~ 31~ अध्यय | नार्थाधि काराः ।। १४ ।। www.brary.org Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [२३], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक 355 दीप अनुक्रम ज्झत्थेणेह संवुडं ॥ १ ॥” इत्यादि । आचारप्रणिहितश्च यथोचितविनयसम्पन्न एव भवतीत्यतस्तदर्थाधिकारचदेव नवममध्ययनमिति, आह च-नवमेऽध्ययने विनयोऽर्थाधिकार' इति, उक्तं च-"आयारपणिहाणंमि, से सम्मं वहई बुहे। णाणादीणं विणीए जे, मोक्खट्ठा णिबिगिच्छए ॥१॥” इत्यादि । एतेषु एव नवखध्ययनार्थेषु यो व्यवस्थितः स सम्यग भिक्षुरित्यनेन सम्बन्धेन सभिश्वध्ययनमिति, आह च-दशमेऽध्यमायने समाप्ति नीतमिदं साधुक्रियाभिधायक शास्त्रम् एतक्रियासमन्वित एव भिक्षुर्भवत्यत आह-एष भि क्षुरिति गाथाचतुष्टयार्थः । स एवंगुणयुक्तोऽपि भिक्षुः कदाचित् कर्मपरतन्त्रत्वात्कर्मणश्च बलवा(चत्त्वाोत्सी-13 दादेत् ततस्तस्य स्थिरीकरणं कर्त्तव्यमतस्तदर्थाधिकारवदेव चूडायमित्याह दो अजायणा यूलिय विसीययंते थिरीकरणमेगं । विइए विवित्तचरिया असीयणगुणाइरेगफला ॥२४॥ व्याख्या-द्वे अध्ययने, किम् ?-चूडा चूडेव चूडा, तत्र प्रमादशाद्विषीदति सति साधौ संयमे स्थिरीकरणम् 'एक' प्रथम स्थिरीकरणफलमित्यर्थः, तथा च तत्रावधावनप्रेक्षिणः साधोः दुष्पजीवित्वनरकपातादयो दोषा वर्षान्त इति । तथा च द्वितीयेऽध्ययने विविक्तचर्या वर्ण्यते, किंभूता?-'असीदनगुणातिरेकफला' तत्र विविक्तचर्या एकान्तचर्या-द्रव्यक्षेत्रकालभावेष्वसम्बद्धता, उपलक्षणं चैषानिपतचर्यादीनामिति, असीदन|गुणातिरेकः फलं यस्याः सा तथाविधेति गाथार्थः॥ १माचारप्रणिधाने स सम्यक् वर्तते बुधः । ज्ञानादिषु विनीतो यो मोक्षार्थ निर्षिचिकित्सः ॥ १॥ 5252625*5*5*35*845 ~ 32 ~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-1, मूलं [-], नियुक्ति: [२५], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक [-] बसबैका इसकालिअस्स एसो पिंडत्थो वणिो समासेणं । एत्तो एकेक पुण अज्झयणं कित्तइस्सामि ॥ २५॥ ओषादिहारि-वृत्ति व्याख्या-'दशकालिकस्य' प्राग्निरूपितशब्दार्थस्य एषः' अनन्तरोदितः 'पिण्डार्थ' सामान्यार्थो 'वर्णितः। निक्षेपाः ॥१५॥ प्रतिपादितः 'समासेन' संक्षेपेण, अतः ऊर्वं पुनरेकैकमध्ययनं 'कीर्तयिष्यामि' प्रतिपादयिष्यामीति, पुन: शब्दस्य व्यवहित उपन्यास इति गाधार्थः ।। तत्र प्रथमाध्ययनं दुमपुष्पिका, अस्य च चत्वार्यनुयोगद्वाराणि || भवन्ति, तद्यथा-उपक्रमो निक्षेपोऽनुगमो नया, एषां चतुणोंमप्यनुयोगद्वाराणामध्ययनादावुपन्यासः तत्थं | चक्रमोपन्यासे प्रयोजनमावश्यकविशेषविवरणाद्वसेयं खरूपं च प्रायश इति । प्रकृताध्ययनस्य च शास्त्री-13 टूयोपक्रमे आनुपूर्व्यादिभेदेषु स्वबुद्ध्याऽवतारः कार्यः, अर्थाधिकारश्च वक्तव्याः, तथा चाह नियुक्तिकार: ___पढमज्झयणं दुमपुष्फियंति चत्तारि तस्स दाराई । वण्णेऽवकमाई धम्मपसंसाइ अहिगारो ॥ २६ ॥ | व्याख्या-प्रथमाध्ययनं द्रुमपुष्पिकेति, अस्य नामनिष्पन्ननिक्षेपावसर एव शब्दार्थ वक्ष्यामा, चत्वारि तस्य | 'द्वाराणि' अनुयोगद्वाराणि, किम् ?-वर्णयित्वोपक्रमादीनीति, किम् ?-धर्मप्रशंसयाऽधिकारो वाच्य इति गाथार्थः ॥ तथा निक्षेपः, स च त्रिविधः, तद्यथा-ओघनिष्पन्नो नामनिष्पन्न: सूत्रालापकनिष्पन्नति, तत्रीघ:सामान्यं श्रुताभिधानम्, तथा चाह नियुक्तिकारः ओहो ज सामन्नं सुआभिहाण चाउन्विहं तं च । अझयणं अशीणं आय जावणा य पत्ते ।। २७ ।। ACCESS दीप अनुक्रम CECAM ~33~ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Education “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) भाष्यं [-] अध्ययनं [-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित उद्देशक [-] मूलं [-], निर्युक्ति: [२७], आगमसूत्र [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः व्याख्या - ओघो यत्सामान्यं 'श्रुताभिधानं' श्रुतनाम चतुर्विधं तच कथम् ? - अध्ययनमक्षीणमायः क्षपणा च इदं च 'प्रत्येकं' पृथक पृथक । किम् ? नामाइ चउब्भेयं वण्णेंकणं सुआणुसारेणं । दुमपुष्फिअ आओजा चउपि कमेण भावेसुं ॥ २८ ॥ व्याख्या-नामादिचतुर्भेदं वर्णयित्वा तद्यथा-नामाध्ययनं स्थापनाध्ययनं द्रव्याध्ययनं भावाध्ययनं चेति, एवमक्षीणादीनामपि न्यासः कर्त्तव्यः, 'श्रुतानुसारेण' अनुयोगद्वाराख्यसूत्रानुसारेण, किम् ? - 'द्रुमपुष्पिका आयोज्या' प्रकृताध्ययनं सम्बन्धनीयम्, चतुर्ष्वप्यध्ययनादिषु क्रमेण भावेष्विति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं भावाध्ययनादिशब्दार्थ प्रतिपादयन्नाह अज्झप्परसाणयणं कम्माणं अवचओ उवचिआणं । अणुवचओ अ नवाणं तम्हा अज्झयणमिच्छति ।। २९ ।। अहिगम्मति व अत्था इमेण अहिंगं च नयणमिच्छंति । अहिगं च साहु गच्छइ तम्हा अज्झयणमिच्छति ॥ ३० ॥ जह दीवा दीवस पइप्पई सो अ दिप्पई दीचो । दीवसमा आयरिया दिप्पंति परं च दीवंति ॥ ३१ ॥ नाणस्स दंसणस्सऽवि चरणस्स व जेण आगमो होई । सो होइ भावआओ आओ लाहो त्ति निद्दिट्ठो ॥ ३२ ॥ अट्टविहं कम्मरयं पोराणं जं खवेइ जोगेहिं । एवं भावज्झयणं नेअव्वं आणुपुब्बीए ॥ ३३ ॥ व्याख्या - आसां गमनिका -इह प्राकृतशैल्या छान्दसत्त्वाच अज्झप्परसाणयणं पकारस (स्स) कारआकारणकारलोपे अज्झयणं ति भण्णइ, तच संस्कृतेऽध्ययनम्, भावार्थस्त्वयं-अघि आत्मनि वर्तत इति निरुक्तादध्या Fore&Personal Use City ~ 34~ brary dig Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [३३], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक -1 दीप अनुक्रम दशकात्म चेतः तस्यानयनम् आनीयतेऽनेनेत्यानयनम्, इह कर्ममलरहितः खल्वात्मैव चेतःशब्देन गृह्यते, यथाऽव- अध्ययनाहारि-वृत्तिः४ स्थितस्य शुद्धस्य चेतस आनयनमित्यर्थः, तथा चैतदभ्यासाद्भवत्येव, किम् ?-'कर्मणां' ज्ञानावरणीयादीनाम् क्षीणाय॥१६॥ IT'अपचयों हासः, किंविशिष्टानाम् ?-'उपचितानां मिथ्यात्वादिभिरुपदिग्धानां बद्धानामितिभावः, तथा क्षपणाची 'अनुपचयच अवृद्धिलक्षणः 'नवानां प्रत्यग्राणांकर्मणाम् , यतश्चैवं तस्मात् प्राकृतशैल्याऽध्यात्मानयनमेवाध्यसायनमिच्छन्त्याचार्या इति गाथार्थः ॥ 'अधिगम्यन्ते' परिच्छिद्यन्ते वा अर्थी अनेनेत्यधिगमनमेव प्राकृतशैल्या तथाविधार्थप्रदर्शकत्वाचास्य वचसोऽध्ययनमिति, तथा अधिकं च नयनमिच्छन्त्यस्याप्य(पि तथाविधार्थप्रदर्शकत्वादेव वचसोऽयमर्थः, 'अय वय' इत्यादिदण्डकधातुपाठानीतिर्नयनम् , भावे ल्युट्प्रत्ययः, परिच्छेद इत्यर्थः, अधिकं नयनमधिकनयनं चार्थतोऽध्ययनमिच्छन्ति, चशब्दस्य च व्यवहित उपन्यासः, अधिकं च साधुर्गच्छति, किमुक्तं भवति?-अनेन करणभूतेन साधुर्बोधसंयममोक्षान् प्रत्यधिकं गच्छति, यस्मादेवं तमादध्ययका नमिच्छन्ति, इह च सर्वत्र अधिकं नयनमध्ययनमित्येवं योजना कार्येति गाथार्थः ॥ इदानीमक्षीणम्-तच भावाक्षीणमिदमेव, शिष्यप्रदानेऽप्यक्षयत्वात्, तथा चाह-यथा दीपाहीपशतं प्रदीप्यते, स च दीप्यते दीपः, एवं 'दीपसमा दीपतुल्या आचार्या दीप्यन्ते खतो विमलमत्याशुपयोगयुक्तत्वात् 'परं च' विनेयं 'दीपयन्ति प्रकाशयन्त्युज्ज्वलं वा कुर्वन्तीति गाथार्थः । इदानीमायः स च भावत इदमेव, यत आह-शानस्य' मत्यादे| दर्शनस्य' चौपशमिकादेः 'चरणस्य च' सामायिकादेः येन हेतुभूतेन 'आगमो भवति' प्रातिर्भवति.स 4 4NCAT ~35~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) अध्ययनं [-], भाष्यं [-] उद्देशक [-] मूलं [-], निर्युक्ति: [३३], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [४२] मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः वति भावायः, आयो लाभ इति निर्दिष्टः, अध्ययनेन च हेतुभूतेन ज्ञानाद्यागमो भवतीति गाथार्थः ॥ अधुना क्षपणा, साऽपि भावत इदमेवेति, आह च- 'अष्टविधम्' अष्टप्रकारं कर्मरजः, तत्र जीवगुण्डनपरत्वात्कर्मैय रजः कर्मरज: 'पुराण' प्रागुपात्तं 'यत्' यस्मात्क्षपयति 'योगैः' अन्तःकरणादिभिरध्ययनं कुर्वन् तस्मादिदमेव कारणे कार्योपचारात् क्षपणेति । तथा चाह-इदं भावाध्ययनं 'नेतव्यं' योजनीयम् 'आनुपूर्व्या' परिपाठ्या | अध्ययनाक्षीणादिष्विति गाथार्थः । उक्त ओघनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं नामनिष्पन्न उच्यते तन्त्रौघनिष्पनेऽध्ययनं नामनिष्पले द्रुमपुष्पिकेति आह-द्रुम इति कः शब्दार्थः ?, उच्यते, “दु द्रु गती" इत्यस्य दुरस्मिन् देशे विद्यत इति तदस्यास्त्यस्मिन्निति ( पा० ५-२-९४) मतुपि प्राप्ते "दुदुभ्यां म" (पा० ५-२- १०८ ) इति | मप्रत्ययान्तस्य द्रुम इति भवति । साम्प्रतं द्रुमपुष्पनिक्षेपप्ररूपणायाह णामदुमो ठवणदुमो दव्वदुमो चेव होइ भावदुमो । एमेव य पुष्फरस वि चउव्विहो होइ निक्खेवो ॥ ३४ ॥ व्याख्या- 'नामद्रुमो' यस्य द्रुम इति नाम द्रुमाभिधानं वा, स्थापनाद्रुमो द्रुम इति स्थापना, 'द्रव्यद्रुमञ्चैव भवति भावद्रुमः' तत्र द्रव्यद्रुमो द्विधा-आगमतो नोआगमतच, आगमतो ज्ञाताऽनुपयुक्तः, नोआगमतस्तु ज्ञशरीर भव्यशरीरो भयव्यतिरिक्तस्त्रिविधः, तद्यथा-एकभविको बद्धायुष्कोऽभिमुखनामगोत्रश्च तत्रैकभविको नाम य एकेन भवेनानन्तरं द्रुमेषूत्पत्स्यते, बद्धायुष्कस्तु येन दुर्मनामगोत्रे कर्मणी बद्धे इति, अभिमुखनाम१ आयुर्विशिष्टे इति ज्ञेयम् तथा च न बढायुष्कताऽसंगतिः. अत्र प्रथम अध्ययनस्य परिचय-निर्युक्तिः आरब्धाः 'द्रुम' शब्दस्य नामादि निक्षेपा:: Forse & Personal Use City ~36~ brary dig Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] दशवैका० हारि-वृत्तिः ॥ १७ ॥ “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) अध्ययनं [-], भाष्यं [-] उद्देशक [-] मूलं [-], निर्युक्ति: [३४], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः गोत्रस्तु येन ते नामगोत्रे कर्मणी उदीरणावलिकायां प्रक्षिप्ते इति, अयं च त्रिविधोऽपि भाविभावद्रुमकारणत्वाद्रव्यद्रुम इति, भावद्रुमोऽपि द्विविधः - आगमतो नोआगमतच, तत्रागमतो ज्ञातोपयुक्तः, नोआगमतस्तु द्रुम एव द्रुमनामगोत्रे कर्मणी वेदयन्निति । 'एवमेव च' यथा द्रुमस्य तथा किम् ? - 'पुष्पस्यापि वस्तुतस्तद्विकारभूतस्य चतुर्विधो भवति निक्षेप इति गाधार्थः ॥ साम्प्रतं नानादेशजविनेयगणासम्मोहार्थमागमे द्रुमपर्यायशब्दान् प्रतिपादयन्नाह दुमा य पायषा रुक्खा, अगमा विडिमा तरू। कुछा महीरुहा बच्छा, रोवगा रंजगावि अ ॥ ३५ ॥ व्याख्या- दुमाश्च पादपा वृक्षा अगमा विटपिनः तरवः कुहा महीरुहा बच्छा रोपका रुञ्जकादयश्च । तत्र द्रुमान्वर्थसंज्ञा पूर्ववत्, पद्भ्यां पिवन्तीति पादपा इत्येवमन्येषामपि यथासम्भवमन्वर्थसंज्ञा वक्तव्या, रूढिदेशीशब्दा वा एत इति गाथार्थः ॥ इदानीं पुष्पैकार्थिकप्रतिपादनायाह पुप्फाणि अ कुसुमाणि अ फुलाणि तहेव होंति पसवाणि । सुमणाणि अ सुद्दमाणि अ पुष्काणं होति एगट्ठा ॥ ३६ ॥ व्याख्या - पुष्पाणि कुसुमानि चैव फुल्लानि प्रसवानि च सुमनांसि चैव 'सूक्ष्माणि सूक्ष्मकायिकानि चेति ॥ साम्प्रतमेकवाक्यतया द्रुमपुष्पिकाध्ययनशब्दार्थ उच्यते- द्रुमस्य पुष्पं द्रुमपुष्पम्, अवयवलक्षणः षष्ठीसमासः, द्रुमपुष्पशब्दस्य “प्रागिवात्कः” ( पा० ५ - ३-७ ) इति वर्त्तमाने अज्ञाते (७३) कुत्सिते (७४) (के) संज्ञायां कनि (७५) ति कनि प्रत्यये नकारलोपे च कृते द्रुमपुष्पक इति, प्रातिपदिकस्य स्त्रीत्वविवक्षायाम् 'द्रुम' एवं 'पुप्फ' शब्दयोः पर्याय- शब्दानाम् कथनं For hate & Personal Use City ~37~ द्रुमनिक्षे पाः दुमपुष्पैकार्थाः ॥ १७ ॥ by di Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) अध्ययनं [-], उद्देशक [-] भाष्यं [-] मूलं [-], निर्युक्ति: [३७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [४२] मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः Education remat "अजाद्यतष्टापू” (४-१-४ ) इति टाप्पत्ययेऽनुबन्धलोपे च कृते “प्रत्ययस्थात् कात्पूर्वस्यात इदाप्यसुपः ( पा० ७-३-४४ ) इतीत्वे कृते "अकः सवर्णे दीर्घः” ( पा० ६-१-१०१) इति दीर्घत्वे परगमने च द्रुमपुष्पिकेति भवति, दुमपुष्पोदाहरणयुक्ता द्रुमपुष्पिकेति द्रुमपुष्पिका चासो अध्ययनं चेति समानाधिकरणस्तत्पुरुषः, | द्रुमपुष्पिकाध्ययनमिति । अस्य चैकार्थिकानि प्रतिपादयन्नाह - दुमफिआ य आहारसणा गोअरे तया उंछो। मेस जलूगा सप्पे वणऽक्खइसुगोलपुत्तु ॥ ३७ ॥ व्याख्या- तत्र द्रुमपुष्पोदाहरणयुक्ता द्रुमपुष्पिकेति वक्ष्यति च - "जहा दुमस्स पुप्फेसु" इत्यादि, तथा आहारस्यैषणा आहारैषणा, एषणाग्रहणाद् गवेषणादिग्रहः, ततश्च तदर्थसूचकत्वादाहारैषणेति, तथा गोचरः साम| चिकत्वाद गोरिव चरणं गोचरोऽन्यथा गोचारः, तदर्थसूचकत्वाच्चाधिकृताध्ययनविशेषो गोचर इति, एवं सर्वत्र भावना कार्येति, भाषार्थस्तु यथा गौश्वरत्येवमविशेषेण साधुनाऽप्यटितव्यं, न विभवमङ्गीकृत्योत्तमाधममध्यमेषु कुलेष्विति, वैणिग्वत्सकदृष्टान्तेन वेति, तथा 'त्वगिति' त्वगिवासारं भोक्तव्यमित्यर्थसूचकत्वात् त्वगुच्यत इति, उक्तं च परममुनिभिः -- "जैहा मसारि घुणा पण्णत्ता, तंजड़ा-तयक्खाए छल्लिक्खाए कट्ठक्खाए सारक्खाए, एवमेव चत्तारि भिक्खुगा पक्षप्ता, तंजहा-तयखाए छल्लिक्खाए कटुक्खाए सारक्खाए, १ यथा सालङ्कारवनिग्वधूहस्ताद्भक्ष्यमात्त्वाऽति वत्सस्तद्रूपालद्वारा बनिरीक्षमाणस्तया साधुरपि २ यया चत्वारो पुणाः प्रप्ताः, तयथा-लक्लादकः मादकः कालाः सारखादकः । एवमेव चत्वारो भिक्षुकाः प्रहप्ताः, तद्यथा त्वक्वादकः खादकः ( अन्तस्त्वक् छी ) काष्ठखादकः सारन्तादकः । 'द्रुमपुप्फिआ' शब्दस्य एकार्थक नामानि Forse & Personal Use City ~38~ www.brary dig Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [-1, उद्देशक [-1, मूलं [-], नियुक्ति: [३७], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक [-] दीप अनुक्रम दशकातयक्खाए णामं एगे नो सारक्खाए सारक्खाए णाम एगे नो तयक्खाए एगे तयक्खाए वि सार-एतदध्ययहारित्तिभक्खाए वि एगे नो तयक्खाए णो सारक्खाए । तयक्खायसमाणस्स णं भिक्खुस्स सारक्खायसमाणे तवे नैकार्था भवइ, एवं जहा ठाणे तहेव दट्टव्वं" भावार्थस्तु भावतस्त्वकल्पासारभोक्तुः कर्मभेदमङ्गीकृत्य वज्रसारं तपोभिधानानि ॥ १८॥ भवति, तथा 'उछम्' इति अज्ञातपिण्डोञ्छसूचकत्वादिति, तथा 'मेष' इति यथा मेषोऽल्पेऽप्यम्भसि अनु द्वालयन्नेवाम्भः पिबति, एवं साधुनाऽपि भिक्षाप्रविष्टेन बीजाक्रमणादिष्वनाकुलेन भिक्षा ग्राह्येत्येवंविधार्थसूचकत्वादधिकृताभिधानप्रवृत्तिरिति, तथा 'जलौका' इति अनेषणाप्रवृत्तदायकस्य मृदुभावनिवारणार्धसूचकवादिति, तथा 'सर्प इति यथाऽसावेकदृष्टिर्भवत्येवं गोचरगतेन संयमैकदृष्टिना भवितव्यमित्यर्थसूचकत्वादिति, अथवा-यथा द्रागस्पृशन् सपों विलं प्रविशत्येवं साधुनाऽप्यनास्वादयता भोक्तव्यमिति, तथा 'व्रण इत्यरक्तद्विष्टेन व्रणलेपदानवडोक्तव्यम् , तथा 'अक्ष' इत्यक्षोपाङ्गदानवचेति, उक्तं च "वणलेपाक्षोपाङ्गवदलासङ्गयोगभरमात्रयानार्थम् । पन्नग इवाभ्यवहरेदाहारं पुत्रपलबच ॥१॥” इत्यादि, तथा इसुति तत्र 'इषुः । शरो भण्यते, तत्र सूचनात्सूत्रमिति कृत्वा "जह रहिओऽणुवउत्तो इसुणा लक्खं ण विंधइ तहेव । साहू गो वक्खादको नामैकः भो सारणायकः सारवादको नामैको नो वक्खादकः एकस्त्वकवादकोऽपि सारवादकोऽपि एकोनो स्वखादको नो सारखादकः । त्ववादकसमानस्य भिक्षोः सारखाएकसमानं तपो भवति, एवं यथा स्थानाने तथैव द्रष्टव्यम् . २ यथा रपिकोऽनुपयुक्त इषुणा लक्ष्यं न विष्यति तथैव । साधु!चरप्राप्तः संयमलक्ष्ये हातव्यः ॥1॥ 145-454ॐ45 ~ 39~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [३७], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्तिः प्रत * सूत्राक * दीप अनुक्रम अरपत्तो संजमलक्खम्मि नायव्यो॥१॥" गोल' इति "जह जउगोलो अगणिस्स णाइदूरेण आवि आसन्ने। सासकह काऊण तहा संजमगोलो निहत्थाणं ॥१॥ दूरे अणेसणाऽदसणाइ इयरम्मि तेणसंकाइ । तम्हा मिय-18 भूमीए चिडिजा गोपरग्गगओ ॥१॥'पुत्र'इति पुत्रमांसोपमया भोक्तव्यम्, सुसमादृष्टान्तोऽत्र वक्तव्यः।। 'उदक मिति पूत्युदकोपमानतः खल्वन्नपानमुपभोक्तव्यमिति, अत्रोदाहरणम्-जहा एगेणं वाणियएणं दारिद्ददुक्खाभिभूएणं कहवि हिंडतेणं रयणदीवं पावित्ता तेलुक्कसुंदरा अणग्घेया रयणा समासादिआ, सो अते चोराकुलदीहद्धाणभएण ण सक्कइ णित्थारिऊणमुवओगभूमिमाणे, तओ सो बुद्धिकोसल्लेण ताणि एगम्मि पएसे ठवेऊण अण्णे जरपाहाणे घेत्तुं पट्टिओगहिल्लगवेसेणं "रयणवाणिओ गच्छइति"भावितण तिणि वारे, जाहे कोई पा उद्दड ताहे घेत्तूण पलाओ, अडवीए तिब्बतिसाए गहिओ जाव कुहियपाणिर्थ छिल्लरं विणटुं १ यथा जतुगोलोऽमेनानिदूरे न चाप्यासने । शक्यचे कत्तु तथा संयमगोलो गृहस्थानाम् (संयमलक्षे हातव्यः)॥१॥२ दूरेऽनेषणाऽदर्शनादि इतरसिन् | स्तेनशहादिः । तस्मानिमतभूनी गोचराप्रगतः तिक्षेत् ॥१॥ ३ बकेन वणिजा दारिशदुःखाभिभूतेन कथमपि हिण्डमानेन रजद्रीय प्राप्य त्रैलोक्यमुन्दराणि अनोणि रबानि समासादितानि, स च नानि चौराकुलदीर्घावमयेन न शनोति निस्वार्य उपभोगभूमिमानेतुम्, ततः स बुद्धिकौशल्येन तानि एकस्मिन् प्रदेको स्थापयित्वा अन्यान् जरत्याषाणान् गृहीत्वा प्रस्थितो प्रहगृहीतवेषेण रजवणिम् गच्छतीति भावअन् तिम्रो बाराः, यदा कोऽपि नोतिष्ठति तदा यहीवा पलायितः, अटव्यां तीनतृषा गृहीतो यावत्कृथितपानीयं पल्वलं विनष्टं पश्यति, तत्रापि बहवो हरिणादयो मृताः, तेन तत्सर्वमुदकं बसारूपं जातं, तदा ततेन भनुच्यताऽनाखादयता पौरा, निस्तारितानि चानेन रत्नानि, एवं रजस्थानकानि ज्ञानदर्शनचारित्राणि चौरस्थानीया विषयाः कृषितोदकस्थानीवानि प्रामुकैषणीयानि | अन्तप्रान्तानि आहारादीनि आहारयता। तदा तद्वलेन यथा वणिक् इह भवे सुखी जातः, एवं साधुरपि सुखी भविष्यति इति । अटवीस्थानीयं संसार निसरति इति। १९८७८२२** दश.४ ~ 40~ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [३७], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक [-] दीप अनुक्रम दशकापासइ, तत्थवि बहवे हरिणादयो मआ, तेण तं सव्वं उदगं वसा जायं, ताहे तं तेण अणुस्सासियाए8१ दुमपुहारि-वृत्तिःअणासायंतेण पीअं, नित्थारियाणि यऽणेण रयणाणि। एवं रयणस्थाणगाणिणाणदंसणचरित्ताणि चोरत्थाणिआत पिका० विसया कुहिओदगत्थाणिआणि फासुगेसणिजाणि अंतपंताणि आहाराइयाणि आहारतेण | ताहे तब्बलेण अर्थाधि॥१९॥HIMMATAPER जहा वाणियगो इह भवे सुही जाओ, एवं साह वि सुही भविस्सइत्ति। अडवित्थाणीअं संसारं णित्थरेइत्तिाकाराः हैएवमेतान्यथैकार्घिकानि, अर्थाधिकारा एवान्ये इति गाथार्थः। उक्तो नामनिष्पन्नः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्न स्यावसरः, स च प्रासलक्षणोऽपि न निक्षिप्यते, कस्मात् कारणात् ?, यस्मादस्ति इह तृतीयमनुयोगद्वारमनुगमाख्यं, तत्र निक्षिप्त इह निक्षिप्तो भवति, इह निक्षिप्तो वा तत्र निक्षिप्तो भवति, तस्माल्लाघवाथै तत्रैव निक्षे-18 प्स्यामः । अत्र चाक्षेपपरिहारावावश्यकविशेषविवरणादवसेयौ, साम्प्रतमनुगमः, स च द्विधा-सूत्रानुगमो नियुक्त्यनुगमश्च, तत्र नियुक्त्यनुगमस्त्रिविधा, तद्यथा-निक्षेपनियुक्त्यनुगमः उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमः सूत्र-12 स्पिर्शिकनियुक्त्यनुगमश्चेति, तत्र निक्षेपनियुक्त्यनुगमो गतः, य एषोऽध्ययनादिनिक्षेप इति, उपोद्घातनियु-18 है। क्त्यनुगमस्तु द्वारगाथाद्वयादवसेया, तचेदम्-उद्देसे निद्देसे य निग्गमे खित्तकालपुरिसे य । कारण पचय लक्खण नए समोयारणाऽणुमए ॥१॥ किं कइविहं कस्स कहिं केसु कहं केचिरं हवा काल । कइसंतरमविरहियं ॥१९॥ एषोऽधो नामादिनिक्षेपः प्र० २ उद्देशः निर्देशश्च निर्गगः क्षेत्र कालः पुरुषश्च । कारणं प्रत्ययः लक्षणं नवाः समवतारणाऽनुमतम् ॥ १॥ कि कतिविध कसक केषु कथं कियचिरं भवति कालम् । कति सान्तरमविरहितं. ~ 41~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) अध्ययनं [-], उद्देशक [-] भाष्यं [-] मूलं [-], निर्युक्ति: [३७], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः भवारिस फासण निरुत्ती ॥ २ ॥ अस्य च द्वारगाथाद्वयस्य समुदायार्थोऽवयवार्थश्वावश्यकविशेषविवरणादेवावसेय इति । प्रकृतयोजना पुनस्तीर्थकरोपोद्घातमभिधायार्यसुधर्मस्य च तत्प्रवचनस्य पञ्चाज्जम्बूनानस्ततः प्रभवस्य ततोऽप्यार्यशय्यम्भवस्य पुनर्यथा तेनेदं निर्व्यूढमिति तथा कथनेन कार्या इति । आह् च "जेण व जं च पहुंचे" त्यादिना यत्पूर्वमुक्तं तदत्रैव क्रमप्राप्ताभिधानत्वात् तत्रायुक्तमिति, न, अपान्तरालोपोद्घातप्रतिपादकत्वेन तत्राप्युपयोगित्वादिति, आह-एवमपि महासम्बन्धपूर्वकत्वादपान्तरालोपोद्घातस्यान्त्रैवाभिधानं न्याय्यमिति, न, प्रस्तुतशास्त्रान्तरङ्गत्वेन तत्राप्युपयोगित्वादिति कृतं प्रसङ्गेन, अक्षरगमनिकामात्र फलत्वात्प्रयासस्य । गत उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमः, साम्प्रतं सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्त्यनुगमावसरः, स च सूत्रे सति भवति, आहयद्येवमिहोपन्यासोऽनर्थकः, न, निर्युक्तिसामान्यादिति, सूत्रं च सूत्रानुगमे, स चावसरप्राप्त एव, इह चास्व| लितादिप्रकारं शुद्धं सूत्रमुचारणीयम्, तद्यथा-अस्खलितममिलितमव्यत्याग्रेडितमित्यादि यथाऽनुयोगद्वारेषु, ततस्तस्मिनुचरिते सति केषाञ्चिद्भगवतां साधूनां केचनार्थाधिकारा अधिगता भवन्ति केचन त्वनधिगताः, तत्रानधिगताधिगमायाल्पमतिविनेयानुग्रहाय च प्रतिपदं व्याख्येयम् । व्याख्यालक्षणं चेदम्-संहिता च पर्द चैव पदार्थः पदविग्रहः । चालनाप्रत्यवस्थानं, व्याख्या तत्रस्य षड़िधा ॥ १ ॥ इत्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः । किं च प्रकृतम् ?, सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयमिति, तचेदं सूत्रम् १ व आकर्षः स्पर्धाना निरुक्तिः ॥ २ ॥ २षु धर्मः सुधर्मः कार्यः सुधर्मो यस्येति आर्यधर्मास्येति विगृह्य कार्य, धर्मस्य केवलस्योत्तरपदत्वाभावात् परमधर्म इतिचत् न समासान्तप्रसङ्गः न चैवं समासान्ता नित्यत्व कल्पना गौरवम पि. Forte & Personal Use City ~42~ +9 brary dig Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [३७], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक धम्मो मंगलमुक्ट्रि, अहिंसा संजमो तवो। देवावि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो॥१॥ दुमपुहारि-वृत्तिः व्याख्या-तत्रास्खलितपदोचारणं संहिता, सा पाठसिदैव । अधुना पदानि-धर्मः मङ्गलम् उत्कृष्टम् अ-14 हिंसा संयमः तपः देवाः अपि तं नमस्यन्ति यस्य धर्मे सदा मनः। तत्र “धृश् धारणे" इत्यस्य धातोर्मप्रत्य-12 अर्थाधि॥२०॥ हायान्तस्येदं रूपं धर्म इति । मङ्गालरूपं पूर्ववत् । तथा "कृष् विलेखने" इत्यस्य धातोरुत्पूर्वस्य निष्ठान्तस्येदं रूप-10 काराः मुस्कृष्टमिति । तथा "तृहि हिसि हिंसायाम्" इत्यस्य "इदितो नुम् धातोः” (पा०७-१-५८) इति नुमि कृते ख्यधिकारे टावन्तस्य नपूर्वस्येदं रूपं यदुताहिंसेति। तथा "यमु उपरमें" इत्यस्य धातोः संपूर्वस्थापन-6 त्ययान्तस्य संयम इति रूपं भवति । तथा "तप सन्तापे' इत्यस्य धातोरसुन्प्रत्ययान्तस्य तप इति । तथा[ट्र "दिबु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिखमकान्तिगतिः" इत्यस्य धातोरच्प्रत्ययान्तस्य जसि देवा इति भवति । अपिशब्दो निपातः । तदित्येतस्य सर्वनाम्नः पुंस्त्वविवक्षायां द्वितीयैकवचनं तमिति भवति । तथा नमसित्यस्य प्रातिपदिकस्य "नमोवरिवश्चित्रका क्यच्” (पा०३-१-१९) इति क्यजन्तस्य लट् क्रियान्ता-1 देशस्ततश्च नमस्सन्तीति भवति । तथा यदितिसर्वनाम्नः षष्ठ्यन्तस्य यस्येति भवति । धर्मः पूर्ववत् । सदेति सर्वस्मिन् काले “सवैकान्यकिंयत्तदः.काले दा" (पा०५-३-१५) इति दाप्रत्ययः “सर्वस्य सोऽन्यतरस्यां | दि" (पा०५-३-१६) इति स आदेशः सदा । तथा "मन ज्ञाने" इत्यस्य धातोरसुन्प्रत्ययान्तस्य मन इति भवति । इति पदानि । साम्प्रतं पदार्थ उच्यते-तत्र दुर्गती प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः, तथा चोक्तम् । दीप अनुक्रम [१] ॥२० अथ अध्ययनं -१- “द्रुमपुष्पिका" आरभ्यते 'धर्म', 'मंगल', 'अहिंसा', आदि शब्दानाम् विशद् व्याख्या: ~ 43~ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [३७], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: -- प्रत -- सूत्रांक/ गाथांक - -"दुर्गतिप्रमृतान् जीवान् , यस्माद्धारयते ततः । धत्ते चैतान् शुभे स्थाने, तस्माद् धर्म इति स्मृतः॥१॥ मङ्गयते हितमनेनेति मङ्गलमित्यादि पूर्ववत्, 'उत्कृष्टं' प्रधानम्, न हिंसा अहिंसा प्राणातिपातविरतिरित्यर्थः, 'संयमः' आश्रयद्वारोपरमः, तापयत्यनेकभवोपात्तमष्टप्रकारं कर्मेति तपः-अनशनादि, दीव्यन्तीति देवाः क्रीडन्तीत्यादि भावार्थः, अपिः सम्भावने देवा अपि मनुष्यास्तु सुतरां, 'तमित्येवंविशिष्टं जीवं, नमस्यन्तीति प्रकटार्थम् , यस्य जीवस्य किम् ?-'धर्मे प्रागभिहितखरूपे 'सदा' सर्वकालं 'मन' इत्यन्तःकरणम् । अयं पदार्थ इति । पदविग्रहस्तु परस्परापेक्षसमासभाक्पदपूर्वकत्वेनेह निवन्धनाभावान प्रदर्शित इति । चालनाप्रत्यवस्थाने तु प्रमाणचिन्तायां यथावसरमुपरिष्टादू वक्ष्यामः । प्रवृत्तिः पुनस्तयोरमुनोपायेनेति प्रदर्शनायाह-18 कथइ पुच्छइ सीसो कहिंच पुट्ठा कहंति आयरिया । सीसाणं तु हियट्ठा विपुलतरागं तु पुच्छाए ॥ ३८ ॥ व्याख्या-कचित्किञ्चिदनवगच्छन् पृच्छति शिष्यः कथमेतदिति इयमेव चालना, गुरुकथनं प्रत्यवस्थानम्,४ इत्थमनयोः प्रवृत्तिः । तथा कचिदपृष्टा एव सन्तः पूर्वपक्षमाशङ्कय किश्चित्कथयन्त्याचार्याः, तत्प्रत्यवस्थान|मिति गम्यते, किमर्थ कथयन्त्यत आह-शिष्याणामेव हितार्थम् , तुशब्द एवकारार्थः, तथा 'विपुलतरं तु' प्रभूततरं तु कथयन्ति 'पुच्छाएंत्ति शिष्यप्रश्ने सति, पटुप्रज्ञोऽयमित्यवगमादिति गाथार्थः ॥ एवं तावत्समासेन, व्याख्यालक्षणयोजना । कृतेयं प्रस्तुते सूत्रे, कार्यवमपरेष्वपि ॥१॥ ग्रन्धविस्तरदोषान्न, वक्ष्याम उपयोगि तु । वक्ष्यामः प्रतिसूत्रं तु, यत् सूत्रस्पर्शिकाऽधुना ॥२॥ प्रोच्यतेऽनुगमनियुक्तिविभागश्च विशेषतः । दीप अनुक्रम RSS SCHOOL 24+C+ ~ 44 ~ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक / गाथांक |||| दीप अनुक्रम [1] दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ २१ ॥ Jam Education “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [१], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||१॥ निर्युक्ति: [३८], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र -[ ४२ ], मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः सामायिकवृहद्भाष्याज्ज्ञेयस्तत्रोदितं यतः ॥ ३ ॥ "होई कयत्थो वोत्तुं सपयच्छेअं सुअं सुआणुगमो । सुत्ता| लावगनासो नामादिण्णासविणिओगं ॥ १ ॥ सुन्तप्फासिअनि जुत्तिणिओगो सेसओ पयत्थाह । पायं सोचिय नेगमणयाइमयगो अरो होइ ॥ २ ॥ एवं सुन्ताणुगमो सुत्तालावगकओ अ निक्खेवो । सुत्तप्फासिअ - णिज्जुत्ति गया अ समगं तु वच्चन्ति ॥ ३ ॥” इत्यलं प्रसङ्गेन, गमनिकामात्रमेतत् । तत्र धर्मपदमधिकृत्य सूत्र| स्पर्शिकनिर्युक्तिप्रतिपादनायाह ●णामंठवणाधम्मो दव्वधम्मो अ भावधम्मो अ । एएसिं माणसं बुच्छामि अहाणुपुब्बी ॥ ३९ ॥ व्याख्या- 'णामंठवणाधम्मो ति अत्र धर्मशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, नामधर्मः स्थापनाधर्मो द्रव्यधर्मो भावधर्मश्च । एतेषां 'नानात्वं' भेदं 'वक्ष्ये' अभिधास्ये 'यथानुपूर्व्या' यथानुपरिपाव्येति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं नामस्थापने क्षुण्णत्वादागमतो नोआगमतश्च ज्ञात्रनुपयुक्तज्ञशरीरेतरभेदांश्चानादृत्य ज्ञशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यधर्माद्यभिधित्सयाऽऽह दुव्वं च अस्थिकायप्पयारधम्मो अ भावधम्मो अ । दव्वस्स पजवा जे ते धम्मा तस्स दव्वरस ॥ ४० ॥ व्याख्या - इह त्रिविधोऽधिकृतो धर्मः, तद्यथा-द्रव्यधर्मः अस्तिकायधर्मः प्रचारधर्मश्चेति । तत्र द्रव्यं चेत्यनेन १] भवति कृतार्थं उक्त्वा सपदच्छेदं सूत्रं सूत्रानुगमः । सूत्रालापकन्यासो नामादिन्यास विनियोगम् ॥ १ ॥ २ सूत्रस्पर्शिक नियुक्तिनियोगः शेषकः पदार्थदीन् । प्रायः स एव नैगमनयादिमतगोचरो भवति ॥ २ ॥ ३ एवं सूत्रं सूत्रानुगमः सूत्रालापककृतच निक्षेषः । सूत्रस्पर्शिक नियुक्तिः नयाब युगपतु प्रजन्ति ॥ ३ ॥ Forane & Personal Use City ~ 45~ द्रुमपुष्पिका० चालना प्रत्यव स्थाने ॥ २१ ॥ nebrary dig Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक/ गाथांक |||| दीप अनुक्रम [१] भाष्यं [-] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [१], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||१॥ निर्युक्ति: [४०], आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित धर्मधर्मिणोः कथञ्चिदभेदाद् द्रव्यधर्ममाह, तथास्तिकाय इत्यनेन तु सूचनात् सूत्रमितिकृत्वा उपलक्षणत्वादवयव एव समुदायशब्दोपचारादस्तिकायधर्म इति, प्रचारधर्मश्चेत्यनेन ग्रन्थेन द्रव्यधर्मदेशमाह। भावधर्मश्चेत्यनेन तु भावधर्मस्य स्वरूपमाह ॥ साम्प्रतं प्रथमोद्दिष्टद्रव्यधर्मखरूपाभिधित्सयाऽऽह-द्रव्यस्य पर्याया-ये उत्पादविगमादयस्ते धर्मास्तस्य द्रव्यस्य ततश्च द्रव्यस्य धर्मा द्रव्यधर्मा इत्यन्यासंस कैकद्रव्यधर्माभावप्रदर्शनार्थी बहुवचननिर्देश इति गाथार्थः ॥ इदानीमस्तिकायादिधर्मस्वरूपप्रतिपिपादयिषयाऽऽह धम्मथिकायधम्मो पयारधम्मो य विसयधम्मो य । लोइयकुप्पावयणिअ लोगुत्तर लोगऽणेगविहो ॥ ४१ ॥ व्याख्या - धर्मग्रहणाद् धर्मास्तिकायपरिग्रहः, ततञ्च धर्मास्तिकाय एव गत्युपष्टम्भकोऽसंख्येयप्रदेशात्मकः अस्तिकायधर्म इति । अन्ये तु व्याचक्षते - धर्मास्तिकायादिखभावोऽस्तिकायधर्म इति एतच्चायुक्तम्, तत्र ध मस्तिकायादीनां द्रव्यत्वेन तस्य द्रव्यधर्माव्यतिरेकादिति । तथा प्रचारधर्मश्च विषयधर्म एवं तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात्, तत्र प्रचरणं प्रचारः, प्रकर्षगमनमित्यर्थः, स एवात्मस्वभावत्वाद्धर्मः प्रचारंधर्मः, स च किम् ? - विषीदन्त्येतेषु प्राणिन इति विषया-रूपादयस्तद्धर्म एव, तथा च वस्तुतो विषयधर्म एवायं यद्रागादिमान सत्त्वस्तेषु प्रवर्त्तत इति, चक्षुरादीन्द्रियवशतो रूपादिषु प्रवृत्तिः प्रचारधर्म इति हृदयम्, प्रधानसंसारनिवन्धनत्वेन चास्य प्राधान्यख्यापनार्थे द्रव्यधर्मात् पृथगुपन्यासः । इदानीं भावधर्मः, स च लौकिकादिभेदभिन्न १ देसि पंचविधम्मो णाम सम्भावो लक्खणंति एगडा इति चूर्णिः २ जो जस्स इंदिअस्स बिसओ इति चूर्षिः Ja Education ematena Forane & Personal Use City ~46~ www.brary dig Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [४१], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ |ष्पिका धर्मनिक्षेपः गाथांक इति, आह् च-लौकिकः कुप्राचनिकः लोकोत्तरस्तु, अत्र ‘लोगोऽणेगविहो'त्ति लौकिकोऽनेकविध इति गाहारि-वृत्तिः धार्थः । तदेवानेकविधत्वमुपदर्शयन्नाह गम्भपसुदेसरजे पुरवरगामगणगोद्विराईणं । सावज्जो उ कुतित्थियधम्मो न जिणेहि उ पसत्थो ॥ ४२ ॥ व्याख्या-तन्त्र गम्यधर्मो-यथा दक्षिणापथे मातुलदुहिता गम्या उत्तरापथे पुनरगम्पैव, एवं भक्ष्याभक्ष्यपेमायापेयविभाषा कर्तव्येति, पशूधर्मो-मात्रादिगमनलक्षणः, देशधर्मो देशाचारः, स च प्रतिनियत एच नेप-| थ्यादिलिङ्गभेद इति, राज्यधर्म:-प्रतिराज्यं भिन्नः, स च करादिः, पुरवरधर्म:-प्रतिपुरवरं मिन्नः कचित्किचिद्विशिष्टोऽपि पौरभाषाप्रदानादिलक्षणः सद्वितीया योषिद्गदेहान्तरं गच्छतीत्यादिलक्षणो वा, ग्रामधर्म: प्रतिग्राम भिन्नः, गणधर्मो-मल्लादिगणव्यवस्था, यथा समपादपातेन विषमग्रह इत्यादि, गोष्ठीधर्मो-गोलाठीव्यवस्था, इह च समवयसां समुदायो गोष्टी, तव्यवस्था पुनर्वसन्तादाविदं कर्त्तव्यमित्यादिलक्षणा, रा जधर्मों-दुष्टेतरनिग्रहपरिपालनादिरिति । भावधर्मता चास्य गम्यादीनां विवक्षया भावरूपत्वात् द्रव्यपर्यायत्वाद्वा, तस्यैव च द्रव्यानपेक्षस्य विवक्षितत्वात्, लौकिकैर्वा भावधर्मत्वेनेष्टत्वात्, देशराज्यादिभेदश्चैकदेश एवानेकराज्यसम्भव इत्येवं स्वधिया भाव्यम् इत्युक्तो लौकिका, कुमावनिक उच्यते-असावपि साबद्यप्रायो लौकिककल्प एव, यत आह-"सावजो उ” इत्यादि, अवयं-पापं सहावद्येन सावा, तुशब्दस्त्वे १ पियंति समवाएणं इति चूर्णिः. २ अत्तर्णेऽवि भवरादे ण खामिजइ चू दीप अनुक्रम BREAKERBER [1] ~ 47~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [४२], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक वकारार्थः, स चावधारणे, सावद्य एव, कः?-'कुतीर्थिकधर्मः चरकपरिव्राजकादिधर्म इत्यर्थः, कुत एतदित्याह ४- 'जिनः' अर्हदि तुशब्दादन्यैश्च प्रेक्षापूर्वकारिभिः 'प्रशंसितः स्तुतः, सारम्भपरिग्रहवात्, अब बहु । वक्तव्यम् , तत्तु नोच्यते, गमनिकामात्रफलत्वात् प्रस्तुतव्यापारस्येति गाथार्थः ॥ उक्तः कुप्रावनिकः, साकम्प्रतं लोकोत्तरं प्रतिपादयन्नाह दुविहो लोगुत्तरिओ सुअधम्मो खलु चरित्तधम्मो अ। सुअधम्मो सज्झाओ चरित्तधम्मो समणधम्मो ॥४३॥ व्याख्या-द्विविधो-द्विप्रकारो'लोकोत्तरों लोकप्रधानो, धर्म इति वर्तते, तथा चाह-श्रुतधर्मः खलु चारित्रधर्मश्च, तत्र श्रुतं-द्वादशाङ्गं तस्य धर्मः श्रुतधर्मः, खलुशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि ?-स हि वाचनादिभेदाचित्र इति, आह च-श्रुतधर्मः स्वाध्यायः-वाचनादिरूपः, तत्त्वचिन्तायां धर्महेतुवाद्धर्म इति । तथा चारि धर्मश्च, तत्र "चर गतिभक्षणयोः" इत्यस्य "अतिलूधसूखनसहचर इनन्" (पा०३-२-१८४) इतीत्रन्प्रत्यमायान्तस्य चरित्रमिति भवति, चरन्त्यनिन्दितमनेनेति चरित्रंक्षयोपशमरूपं तस्य भावश्चारित्रम्, अशेषकर्मक्ष-| याय चेष्टेत्यर्थः, ततश्चारित्रमेव धर्मः चारित्रधर्म इति । चः समुच्चये । अयं च श्रमणधर्म एवेत्याह-चारित्रधर्मः श्रमणधर्म इति, तत्र श्राम्यतीति श्रमणः "कृत्यल्युटो बहुलम्" (पा० ३-३-११३) इति वचनात् कर्त्तरि ल्युट, श्राम्यतीति-तपस्यतीति, एतदुक्तं भवति-प्रवज्यादिवसादारभ्य सकलसावद्ययोगविरती गुरूपदेशाद १प्रयासस्येति प्र. दीप अनुक्रम SHRESSESSINESS JaElication.indan ~ 48~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक गाथांक |||| दीप अनुक्रम [1] दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ २३ ॥ “दशवैकालिक" - मूलसूत्र ३ ( मूलं निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) (मूलं+निर्युक्तिः+|भाष्य|+वृत्तिः) उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्तिः [४३], भाष्यं [-] अध्ययनं [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [४२] मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः नशनादि यथाशक्त्याऽऽ प्राणोपरमात्तपश्चरतीति उक्तं च- " यः समः सर्वभूतेषु श्रसेषु स्थावरेषु च । तपश्चरति शुद्धात्मा, श्रमणोऽसौ प्रकीर्त्तितः ॥ १ ॥” इति, तस्य धर्मः खभावः श्रमणधर्मः, स च क्षान्त्यादि १ खमा महवं अजवं सोयं सवं सेजमो तयो चाओ अकिंणियतमं वंभचेरमिति । तत्थ समा आकुहस्स वा तालियरस वा अहिया तस्स कम्भक्खओ भवइ, अणहिया तस्स कम्मबंधो भवइ, तरहा कोइस्स निम्हो कायदो, उदयपत्तस्स वा विफलीकरणं, एस समत्ति या तितिक्खत्ति वा कोनिग्गति या एगा। महवं नाम जाइकुलादीहीणस्स अपरिभवगसीलत्तणं जहाऽहं उत्तमजातीओ एस नीयजातीओति मदो न कायन्यो, एवं च करेमाणस्स कम्मनिजरा भवद, अक तरस य कम्मोवचयो भवइ, माणस्स उद्दिनस्स निरोहो उदयपत्तस्स विफलीकरणमिति । अज्जनं नाम उज्जुगत्तर्णति मा अकुडिलसति वा एवं च कुव्यमाणस्स कम्मनिचरा भगद, अकुव्यमाणस्स व कम्मोवचयो भगइ मायाए उदंतीए णीरोहो कायथ्यो उदिष्णाए विफलीकरणंति सोए नाम अलद्धया धम्मो वगरणेसुनि एवं च कुव्यमाणस्स कम्मनिजरा भवति, अकुष्यमाणस्स कम्मोवचओ तरहा । लोभरा उतस्स गिरोड़ो कायव्यो उदयपत्तस्स वा विफलीकरणमिति । सर्व्वं नाम सं. चितेय असावनं ततो भासिय सयं च एवं च करेमाणस्स कम्मनिन्दरा भवर, अकरेमाणस्सय कम्मोवचयो भनद संजमो तबो य एते एत्यं न भन्नंति, किं कारणं?, जं एए उवरि अहिंसा संजमो तो एत्थवि सुत्तालागे संजमो तवी वा चैव तेण खापयत् इह न भणिया । इयाणि लागो, चागो णाम वैयावमाकरणेण आयरियोवज्झायादीण महंती कम्मनिज्जरा भयइ, तन्हा स्थपत्तसहादी हिं साहूण संविभागकरणं कायव्वंति । अकिंचिणिया नाम सदेहे निस्संगता निम्भमत्तति वुत्तं भवइ एवं च करेमाणस्स कम्मनिजरा भवइ, अकरेमाणस्स व कम्मोवच भवइ, तन्हा अकिंचणीयं साहूणा सव्यपवत्तेणं अहिडेबलं ददाि बंभचेरं तं अहारसपगारं तं जहा - ओरालयकामभोगे माणसा ण सेवह ण सेवावे सेवतं णाशुजाण, एवं नवविधं गर्म एवं दिव्यापि कामभोगा मणसावि न सेव न सेवाचे सेवतं नाशुजाण, एवं जायाएव न सेवेइ न सेवावेद सेवतं नाथुजाणइ एवं काएणामि न सेवेद न सेवावे सेवंतं नानुजाण एवं एवं जहारसविधं बंगचेर सम्म आयरंतस्त्र कम्मनिजरा भवइ, अणायरंतस्स कम्मबंधो भवति नाऊण आसेवियव्वं । दसविडो समणधम्मो भणिओ, इदाणिं एवं िदसलहे समयथम्मे मूलगुणा उत्तरगुणा समययारिजति - संजमसयम किंचणियंबकचेरगहण मूलगुणा गहिया भवति, तंजा— संजमग्गहणं पदमा अहिंसा गहिया, For ane & Personal Use City ~ 49~ १ द्रुमपु ष्पिका० धर्मनिक्षेपः ॥ २३ ॥ brary dig Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक / गाथांक |||| दीप अनुक्रम [१] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) निर्युक्ति: [४३], भाष्यं [-] अध्ययनं [१], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||१॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः लक्षणो वक्ष्यमाण इति गाधार्थः । उक्तो धर्मः, साम्प्रतं मङ्गलस्यावसरः, तथ प्राग्निरूपितशब्दार्थमेव, तत्पुनर्नामादिभेदसश्चतुर्धा, तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वात्साक्षादनाद्दत्य द्रव्यभावमङ्गलाभिधित्सयाऽऽह दवे भावेऽवि अ मंगलाई दुव्वम्मि पुण्णकळसाई । धम्मो उ भावमंगलमेत्तो सिद्धित्ति काऊणं ॥ ४४ ॥ व्याख्या- 'द्रव्यं' इति द्रव्यमधिकृत्य भाव इति भावं च मङ्गले अपिशब्दान्नामस्थापने च । तत्र 'दव्वम्मि पुष्णकलसाईं द्रव्यमधिकृत्य पूर्णकलशादि, आदिशब्दात् स्वस्तिकादिपरिग्रहः, धर्मस्तु तुशब्दोऽवधारणे धर्म एव भावमङ्गलं । कुत एतदित्यत आह- 'अतः अस्माद्धम्र्मात्क्षान्त्यादिलक्षणात् 'सिद्धिरितिकृत्वा मोक्ष इतिकृत्वा, भवगालनादिति गाथार्थः ॥ अयमेव चोत्कृष्टं प्रधानं मङ्गलम् एकान्तिकत्वादात्यन्तिकत्वाच्च, न पूर्णकलशादि, तस्य नैकान्तिकत्वादनात्यन्तिकत्वाच्च ॥ साम्प्रतं 'यथोद्देशं निर्देश' इतिकृत्वा हिंसाविपक्षतोऽहिंसा, तां प्रतिपादयन्नाह हिंसाए पडिवक्खो होइ अहिंसा चउब्विहा सा उ । दव्वे भावे अ तहा अहिंसजीवाइबाओन्ति ॥ ४५ ॥ सथग्गणं मुसावादविरती गहिया, बंभचेरगहणेणं मेहुण विरती गंहिया, अकिचणियगणेणं अपरिग्गहो गहिओ अदत्तादाणविरती य गहिया, जेण सदेहेविण संगता कायन्वा तम्हा ताव अपरिम्यहिया महिया, जो सहहे निस्यंगो कहं सो अदिलं गेहति ?, सम्दा अकिंचनवगणेण अदत्तादानविरती गहिया चेव, अहवा एगग्गणे सजातीया गद्दणं कथं भवतिति दन्दा अहिंसागण अदिन्नादाणविरती ग्रहिया, संत्तिमवब्ववतयोगहण उत्तरगुणाणं ग्रहणं कर्म भवद्रत्ति, धम्मोति-दारं गर्म. १ तत्र संयमादिना क्षान्तिप्रमुखेन मूलोत्तरगुणाख्यानं, Ja Education lemational For ane & Personal Use Oily ~50~ www.jbyrg Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक / गाथांक |||| दीप अनुक्रम [१] भाष्यं [-] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) अध्ययनं [१], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||१॥ निर्युक्ति: [४५], आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित दशवैका० हारि-वृत्तिः ॥ २४ ॥ Ja Education व्याख्या - तत्र प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा, अस्याः हिंसायाः किम् ? - प्रतिकूलः पक्षः प्रतिपक्ष:-अप्रमत्ततया शुभयोगपूर्वकं प्राणाव्यपरोपणमित्यर्थः किम् ? -भवत्यहिंसेति तत्र 'चतुर्विधा' चतुष्प्रकारा अहिंसा, 'दब्बे भावे अति द्रव्यतो भावतश्चेत्येको भङ्गः, तथा द्रव्यतो नो भावतः तथा न द्रव्यतो भावतः, तथा न द्रव्यतो न भावत इति तथाशब्दसमुचितो भङ्गत्रयोपन्यासः, अनुक्तसमुचयार्थकत्वादस्येति, उक्तं च " तथा समुचयनिर्देशावधारणसादृश्यप्रकारवचनेष्वित्यादि, तत्रायं भङ्गकभावार्थ:- द्रव्यतो भावतश्चेति, “जहा केइ पुरिसे मिअवहपरिणामपरिणए मियं पासित्ता आयन्नाइहियकोदंडजीवे सरं णिसिरिजा, से अ मिए तेण सरेण विद्वे मए सिआ, एसा दब्बओ हिंसा भावओवि" । या पुनर्द्रव्यतो न भावतः सा खल्वीर्यादिसमितस्य साधोः कारणे गच्छत इति उक्तं च-- "उच्चांलिअम्मि पाए इरियासमिअस्स संकमट्टाए। बावजेज कुलिंगी मरिज तं जोगमासज्जा ॥ १ ॥ नं य तस्स तणिमित्तो बंधो सुमो वि देसिओ समए । जम्हा सो अपमन्तो सा य पमाओत्ति निदिट्ठा ॥ २ ॥” इत्यादि । या पुनर्भावतो न द्रव्यतः, सेयम् - जहाँ केवि पुगया कवि पुरुषो मृगवधपरिणामपरिणतः मृगं दृष्ट्रा आफणांकृटकोदण्डजीवः शरं निसृजेत् स च मृगस्तेन शरेण विद्धो मृतः स्यात् एषा द्रव्यतो हिंसा भावतोऽपि २ उबालिये पादे धैर्यासमितेन संक्रमणार्थम् । व्यापयेत कुली प्रियेत तं योगमानाय ॥ १ ॥ ३ द्वीन्द्रियादिः वि० प० ४ न च तस्य तन्निमित बन्धः सूक्ष्मोऽपि देशितः समये यस्मात्सोऽप्रमत्तः सा च प्रमाद इति निर्दिश ॥ २ ॥ ५ यथा कविशुषः मन्दमन्दप्रकाशदेशे संस्थिताभीषवितकार्य र ड्वा एषोऽहिरिति तपपरिणामपरिणतः निष्कृष्टासिपत्रो दुतं हुतं छिन्दात् एषा भावतो हिंसा न इन्यतः For ane & Personal Use City ~51~ १ दुमपुष्पिका० धर्मनिक्षेपः ॥ २४ ॥ baryong Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [४५], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक CAMSRL रिसे मंदमंदपगासप्पदेसे संठियं ईसिवलिअकार्य रखें पासित्ता एस अहित्ति तव्वहपरिणामपरिणए णिकहियासिपत्ते दुअंअं छिदिज्जा एसा भावओ हिंसा न दवओ॥ चरमभङ्गस्तु शून्य इति, एवंभूतायाः हिं सायाः प्रतिपक्षोऽहिंसेति। एकार्थिकाभिधित्सयाऽऽह-'अहिंसजीवाइवाओत्ति' न हिंसा अहिंसा, न जीवा|तिपातः अजीवातिपातः, तथा च तद्वतः खकर्मातिपातो भवत्येव, अजीवश्च कर्मेति भावनीयमिति । उपलक्षकोणत्याचेह प्राणातिपातविरत्यादिग्रह इति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं संयमब्याचिण्यासयाऽऽह पुढविदगभगणिमारुयवणस्सईबितिचउपणिदिजीवे । पेहोपेहपमजणपरिदृवणमणोवई काए ॥ ४६॥ व्याख्या-पुढवाइयाण जाव य पंचिंदिय संजमो भवे तेसिं । संघहणादि ण करे तिविहेणं करणजोएणं ॥१॥ अजीयोहिं जेहिं गहिएहिं असंजमो इहं भणिओ । जह पोत्थदूसपणए तणपणए चम्मपणए अ॥ २ ॥ गंडी कच्छवि मुट्ठी संपुडफलए तहा छिवाडी अ । एयं पोत्ययपणयं पण्णत्तं वीअराएहिं ॥ ३ ॥ बाहल्लपुहुतेहिं गंडी पोत्यो उ तुल्लगो दीहो । कच्छवि अंते तणुओ मज्झे पिहुलो मुणेअब्बो ॥ ४॥ चउरंगुलदीहो वा वहागिति मुट्ठिपोत्थगो अहवा । चउरंगुलदीहो चिअ चउरस्सो होइ विष्णेओ॥ ५ ॥ संपुडओ दुगमाई उपकरणसंजमो चू-कालं पुण पटुव चरणकरणहा अभ्योच्छितिनिमित्तं च गेहमाणस पोत्यए गंजमो भवइ, चू० १ पृथ्व्यादीनां बावच पञ्चेन्द्रियाणां संयमो भवेत्तेषाम् । संघटनादि न करोति त्रिविन करणयोगेन ॥१॥२ अजीवेषु येषु गृहीतेषु असंयमो भणित इह । यथा पुस्तकदूष्यपञ्चके तृणपक्षके चर्मपश्चके च ॥२॥३गण्डी कच्छपी मुटि संपुटफलक तथा सूपाटिका च । एतत्पुखकपश्व प्राप्तं वीतरागैः ॥३॥ ४ चाहत्यपृथुत्याभ्यां गण्टीपुलक तुल्यं दीर्षम् । कच्छपी अन्ते तनुकं मध्ये पृथु ज्ञातव्यम् ॥४॥ ५ चतुरनुलदी वा वृत्ताकृति मुष्टिषुसाकमथवा । चतुरहुलदीर्षमेव चतुरसं भवति विज्ञेयम् ॥५॥ ६ संपुटकं द्विकादिफलकं दीप अनुक्रम SAWARENERARASHTS [1] दश. ५ अत्र “संयम" शब्दस्य भेद-प्रभेदानां विस्तृत वर्णनं क्रियते ~52~ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [४६], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक दशबैका फलगा वोच्छं छिवाटिमेसाहे । तणुपत्तोसिअरूवो होइ छिवाडी वुहा बेति ॥६॥ दीहो या हस्सो या जो पि-II १ दुमपुहारि-वृत्तिःलो होइ अप्पवाहल्लो । तं मुणिअ समयसारा छिचाडिपोत्थं भर्णतीह ॥ ७ ॥ दुविहं च दूसपण समा- |ष्पिका० ॥२५॥ सओ तंपि होइ नायध्वं । अप्पडिलेहियदूसं दुप्पडिलेहं च विण्णेयं ॥८॥ अपडिलेहिअदूसे तूली उव- संयमः धाणगं च णायब्वं । गंडवधाणालिंगिणि मसूरए चेव पोत्तमए ॥९॥ पल्हेंवि कोयथि पावार णवतए तय दोढिगालीओ। दुष्पडिलेहिअ दूसे एवं बीअं भवे पणगं ॥१०॥ पल्हेवि हत्थुत्थरणं कोयवओ रूअपूरिओ |पडओ । दढगालि धोइ पोती सेस पसिद्धा भवे भेदा ॥ ११ ॥णपणगं पुण भणियं जिणेहि कम्मट्ठगंठिदहणेहिं । साली वीही कोइव रालग रपणेतणाई च ॥१२॥ अय एल गाचि महिसी मियाणमजिणं च पंचम होइ। तेलिया खल्लग कोसग कित्तीय बितिए य॥१॥ तह विअडहिरण्णाई ताई न गेण्हइ असंजम साहू ।। वक्ष्ये रुपाटिकामतः । तनुपत्रोच्छूितरूपं भवति सपाटिका बुधा बुदते ॥६॥दीर्घ वा हसं वा यत्प्रषु भवत्यल्पवाहल्यं । तात्मुणितसमयसाराः सूपाटिकापुस्तकं भणन्ति इह ॥ ७॥ २ द्विविधं च दूल्यपथकं समासतस्तदपि भवति ज्ञातव्यम् । अप्रतिलेखितदूष्य दुष्प्रतिलेख्यष्य व विज्ञेयम् ॥ ८॥ ३ अप्रतिछेखितष्ये तालिका उपधानकं च हातव्यं । गण्डोपधानमालिङ्गिनी मसूरकश्चैव पौतमयः ॥ ९॥ (१) खरडियो. (२) भूरविगा. (३) सलोम पटः, (४) जी. (५) सरशबखं वि. प. ४ प्रहादि कपि प्राचारकः नवत्त्वक् तथा च दृढगालिका । दुष्प्रतिलेखितष्ये एतद् द्वितीयं भवेत्पचकम् ॥१०॥ ५ प्रकादि हस्तास्तरण R ॥२५॥ कुपो रुतपूरितः पटकः । ढगाली चीतापोतं शेषाः प्रशिद्धा भवन्ति भेदाः ॥११॥ तृणपबकं पुनर्भणितं जिनैः कर्माष्टकमन्यिदहनैः । शालिनीहिः कोदो | रालकोऽरण्यतृणानि च ॥ १२॥ ७ अजैडगोमहिषीमृगाणामजिनं च (वर्म) पञ्चकं भवति । तलिका सडकं व4 कोशकः कृतिश्च द्वितीये च ॥११॥ (6) उपान पर पिषप्तकस्थानं चर्म वि.प. तथा विकटहिरण्यादीनि तानि म गुडाति भसंयमत्वात्साधुः। दीप अनुक्रम ~534 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक गाथांक |||| दीप अनुक्रम [] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र ३ (मूलं निर्युक्तिः + भाष्य | + वृत्तिः) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1. मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्तिः [४६], आयं (-) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः ...... ठाणाइ जत्थ चेए पेह पमज्जित्तु तत्थ करे || १४ || ऐसा पेह उवेहा पुणोवि दुविहा उ होइ नायव्वा । बाबारावावारे वावारे जह उ गामस्स || १५ | ऐसो उविक्खगो हू अव्वावारे जहा विणस्संतं । किं एवं नु उविक्खसि ? दुविहाएविस्थ अहियारो ॥ १६ ॥ वीवारुव्विक्ख तर्हि संभोइय सीयमाण चोएइ । चोएई इयरं पिहू पावणीअम्मि कज्जम्मि ॥ १७ ॥ अव्वावारउवेक्खा णवि चोपड़ गिहिं तु सीअंतं । कम्मेसु बहुविहेसुं संजम एसो उवेक्खाए ॥ १८ ॥ पेंडिसागरिए अपमज्जिएस पाएस संजमो होइ । ते चैव पमज्जते अ| सागरिऍ संजमो होइ ॥ १९ ॥ पौणाईसंसन्तं भत्तं पाणमहवा वि अविसुद्धं । उवगरणभत्तमाई जं वा अइरिक्त होजाहि ॥ २० ॥ तं परिप्पविहीए अवहहुंसंजमो भवे एसो । अकुसलमणवहरोहो कुसलाण उदीरणं चैव ॥ २१ ॥ जुयलं मणवइसंजम एसो काए पुण-जं अवस्सकज्जम्मि । गमणागमणं भवइ तं जवउत्तो स्थानादि यत्र चेतयति प्रेक्ष्य प्रमा तत्र कुर्यात् ॥ १४ ॥ १ एषा प्रेक्षा उपेक्षा पुनरिह द्विविधा भवति ज्ञातव्या व्यापाराव्यापारयोः व्यापारे यथैव आमस्य ।। १५ । २ एष उपेक्षकवैवाव्यापारे यथा विनश्यन्तम् । किमेतं नूपेक्षसे? द्विविधयाप्यत्राधिकारः ॥ १६ ॥ ३ व्यापारोपेक्षा तत्र साम्भोगिकान् सीदतश्चोदयति । चोदयतीत्तरमपि प्रादधनिके कार्ये ॥ १७ ॥ (१) पार्श्वस्थादिकम् वि० प० ४ अव्यापारोपेक्षा नैव चोदयति गृहिणं सीदन्तम् कर्मसु बहुविधेषु एष संयम उपेक्षायाम् ॥ १८ ॥ ५ प्रतिसागारिके अप्रमार्जितयोः पादयोः संयमो भवति तावेव प्रमृज्यमानयोरसागारिके संयमो भवति ॥ १९॥ (२) अप्पसागारिए चू० ६ प्राणादिसंस भकं पानमथवाऽपि अविशुद्धम् उपकरणमकादि यद्वातिरिक्तं भवेत् ॥ २० ॥ ७ तत्परिष्ठापनविधिना अपायमो भवेदेषः । अकुशलमनोवचोरोधः कुशलानामुदीरणं चैव ॥२१॥ ८ युगलं मनोवचः संयम एष काये पुनरवश्यकार्ये । गमनागमने भवतस्ते उपयुक्तः For ane & Personal Use City ~54~ brary dig Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [४६], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत दशवैका सूत्रांक/ ॥ गाथांक ||१|| दीप कुणइ सम्मं ॥ २२ ॥ तव्वज कुम्मस्स व सुसमाहियपाणिपायकायस्स । हवह य काइयसंजम चिटुंतस्सेवामसाहुस्स ॥ २३ ॥ उक्तः संयमः । आह-अहिंसैव तत्वतः संयम इतिकृत्वा तद्भेदेनास्याभिधानमयुक्तम्, न, पिका संयमस्याहिंसाया एव उपग्रहकारित्वात्, संयमिन एव भावतः खल्वहिंसकत्वादिति कृतं प्रसङ्गेन । साम्प्रतं तपोऽधिक तपः प्रतिपाद्यते-तच द्विधा-वाद्यमाभ्यन्तरं च । तत्र तावहाद्यमतिपादनायाह अणसणमूणोअरिआ वित्ती संखेवणं रसञ्चाओ। कायकिलेसो संलीणया य बझो तबो होइ ।। ४७ ॥ | व्याख्या-न अशनमनशनम्-आहारत्याग इत्यर्थः, तत्पुनर्द्विधा-इत्वरं यावत्कधिकं च, तत्रेवर-परिमित-1 कालं, तत्पुनश्चरमतीर्थकृत्तीर्थे चतुर्धादिषण्मासान्तम् , यावत्कधिकं त्वाजन्मभावि, तत्पुनश्चेष्टाभेदोपाधि-13 |विशेषतनिधा, तद्यथा-पादपोपगमनमिङ्गितमरणं भक्तपरिज्ञा चेति, तत्रानशनिनः परित्यक्तचतुर्विधाहारस्याधिकृतचेष्टाव्यतिरेकेण चेष्टान्तरमधिकृत्यैकान्तनिष्प्रतिकर्मशरीरस्य पादपस्येचोपगमनं सामीप्येन वर्त्तनं पादपोपगमनमिति, तच द्विधा-व्याघातवन्निाघातवच, तत्र व्याघातवन्नाम यत्सिहायुपद्रवव्याघाते सति क्रियत इति, उक्तं च-"सीहादिसु अभिभूओ पादवगमणं करेइ थिरचित्तो। आउम्मि पहुप्पते विआणि नवरि गीअस्थो ॥१॥” इत्यादि, निर्व्याघातवत्पुनर्यत्सूत्रार्थतदुभयनिष्ठितः शिष्यान्निष्पाद्योत्सर्गतः द्वाकरोति सम्यक् ॥१॥१सद्वर्ग कूर्मस्येव सुसमाहितपाणिपादकायस । भवति च कायिका संयमस्तिष्ठत एष साधोः ॥२॥ (१) अहिंसाया उपकारका ॥२६॥ ला(२) सांत्मना, सिंहादिभिरभूतः पादपोपगमनं करोति स्थिरचित्तः । वायुधि प्रभवति विज्ञाय केवल बीवार्थः ॥१॥ अनुक्रम [१] तपस: द्वादश-भेदानां वर्णनं क्रियते ~55M Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [४७], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक दश समाः कृतपरिकर्मा सन्काल एव करोति, उक्तं च "चत्तारि विचित्ताई विगईनिज्जूहियाइं चत्तारि । संवच्छरे अ दोषिण उ एगंतरिअं च आयामं ॥ १॥णाइविगिट्ठो अ तवो छम्मासे परिमिअंच आयाम । अन्ने वि अ छम्मासे होइ विगिटुं तवोकम्मं ॥२॥ वासं कोडीसहियं आयामं काउ आणुपुव्वीए । गिरि४कंदरं तु गंतुं पायवगमणं अह करेइ ॥३॥” इत्यादि । तथा इङ्गिते प्रदेशे मरणमिनितमरणम्, इदं च संह-12 ननापेक्षमनन्तरोदितमशकुवतश्चतुर्विधाहारविनिवृत्तिरूपं स्वत एवोद्वर्तनादिक्रियायुक्तस्थावगन्तव्यमिति, उक्तं च-"इंगिअदेसंमि सब चउविहाहारचायणिप्फण्णं । उव्वत्तणादिजुत्तं णाणेण उ इंगिणीमरणं ॥१॥"K इत्यादि । भक्तपरिज्ञा पुनस्त्रिविधचतुर्विधाहारविनिवृत्तिरूपा, सा नियमात्सप्रतिकर्मशरीरस्यापि धृतिसंह-14 ननवतो यथासमाधि भावतोऽवगन्तव्येति, उक्तं च-"भत्तपरिणाणसणं तिविहाहाराइचायनिएफपणं । सपडिकम्मं नियमा जहासमाहिं विणिहि ॥१॥” इत्यादि उक्तमनशनम्, अधुना ऊनोदरता-ऊनोदरस्य भाव ऊनोदरता, सा पुनर्द्विविधा-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यत उपकरणभक्तपानविषया, तत्रोपकरणे १ चत्वारि विचित्राणि विकृतिनियूडानि चत्वारि । संवत्सरी व द्वौ तु एकान्तरितं चाचाम्लम् ॥१॥ (१) रहितानि वि.प्र.२ नाति विकृष्टं च तपः घमासान् परिमितं चाचाम्लम् । अन्यानपि च षण्मासान् भवति विकृष्ट उपःकर्म ॥१॥ ३ वर्षे कोटीसहितमाचामाम्लं कृत्वाऽऽनुपूर्वा । गिरिकन्दरांतु गत्वा पादपोपगमनमथ करोति ॥ ३ ॥४ इशितदेशे खयं चतुर्षियाहारसायनिष्पनं । उर्सनादियुकं नान्येनैव इशिनीमरणम् ॥ १॥ ५ भक्तपरिज्ञाऽनशन त्रिविघाहारादियामनिणनम् । सप्रतिकर्म नियमात् यथासमाधि विनिर्दिम् ॥१॥ CIRST दीप अनुक्रम [१] ~56~ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [४७], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक दीप अनुक्रम दशवैका०जिनकल्पिकादीनामन्येषां वा तश्यासपराणामवगन्तव्या, न पुनरन्येषाम्, उपध्यभावे समग्रसंयमाभावाद्दु मपुहारि-वृत्ति अतिरिक्ताग्रहणतो बोनोदरतेति, उक्तं च-"ज वहइ उवयारे उवगरणं तं सि होइ उबगरणं । अइरेगं अ- पिका० दहिगरणं अजयं अजओ परिहरंतो ॥१॥” इत्यादि । भक्तपानोदरता पुनरात्मीयाहारादिमानपरित्यागवतो Tait तपोऽपि ॥२७॥ वेदितव्या, उक्तं च-"बत्तीसं किर कवला आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ । पुरिसस्स महिलिआप अट्ठा-1 वीसं हवे कवला ॥१॥ कैवलाण य परिमाणं कुकुडिअंडयपमाणमेतं तु । जो वा अविगिअवयणो वयणम्मि लहेज वीसत्थो ॥शा" इत्यादि, एवं व्यवस्थिते सत्यूनोदरता अल्पाहारादिभेदतः पञ्चविधा भवति, उक्तं चअप्पाहार अवड्डा दुभाग पत्ता तहेव किंचूणा । अट्ठ दुवालस सोलस चउवीस तहेक्कतीसा य ॥१॥ अयमत्र भावार्थ:-अल्पाहारोनोदरता नामैककवलादारभ्य याबदष्टी कवला इति, अत्र चैककवलमाना जघन्या, अ-18 टकवलमाना पुनरुत्कृष्टा, शेषभेदा मध्यमा च, एवं नवभ्य आरभ्य यावद् द्वादश कवलास्तावदपा?नोदरता जघन्यादिभेदा भावनीया इति, एवं त्रयोदशभ्य आरभ्य यावत्षोडश तावद् द्विभागोनोदरता, एवं सप्तदशभ्य आरभ्य यावचतुर्विशतिस्तावत्मासा, इत्थं पञ्चविंशतेरारभ्य यावदेकत्रिंशत्तावत्किञ्चिदूनोदरता, जघन्यादिभेदाः सुधियाऽवसेया, एवमनेनानुसारेण पानेऽपि वाच्याः, एवं योषितोऽपि द्रष्टव्या इति, भावो यद्वर्तत उपकारे उपकरणं तदस्य भवत्युपकरण । अतिरेकमधिकरणमयतमयतः परिशुजन् ॥1॥ २ द्वात्रिंशत्किल कवला आहारः कुक्षिपुरको भगितः । ४ पुरुषस महिलायाः अष्टाविंशतिः सुः कवताः ॥1॥ ३ कवलानां च परिमार्ण कुकुख्यण्डकप्रमाणमात्रमेव । यो वाऽविकतवदनो वदने क्षिपेत् विश्वलः ॥२॥ PASSESAECE [१] ॥२७॥ ~57~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक / गाथांक ||||| दीप अनुक्रम [3] Ja Education “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) अध्ययनं [१], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||१॥ निर्युक्ति: [४७], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - [४२] मूल सूत्र [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः नोदरता पुनः क्रोधादिपरित्याग इति, उक्तं च “कोहाईणमणुदिणं चाओ जिणवयणभावणाओ अ । भावेणोणोदरिआ पण्णत्ता वीअरागेहिं ॥ १ ॥" इत्यादि । उक्तोनोदरता, इदानीं वृत्तिसङ्क्षेप उच्यते-स च गोचराभिग्रहरूपः, ते चानेकप्रकाराः, तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च तत्र द्रव्यतो निर्लेपादि प्राह्यमिति, उक्तं च "लेवेडमलेवडं वा अमुगं दव्वं च अज्ज चिच्छामि । अमुगेण व द्रव्वेणं अह दब्बाभिउगहो नाम ॥ १ ॥ अह उ गोअरभूमी एलुगविक्खंभमित्तग्रहणं च । सग्गामपरग्गामे एवइय घरा य खिसम्मि ॥ २ ॥ अ गंतुपञ्चागई अ गोमुत्तिआ पयंगविही। पेडा य अद्धपेडा अभितरवाहिसंयुक्का ॥ ३ ॥ काले अभिग्गहो पुण आदी मज्झे तहेव अवसाणे । अप्पत्ते सहकाले आदी विइ मज्झ तहअंते ॥ ४ ॥ दिर्तगपढिच्छयाणं भवेज सुमं पि मा हु अचियन्तं । इति अप्पत्तअतीते पवत्तणं मा य तो मझे ॥ ५ ॥ उक्खित्तमाइचरगा भावजुआ खलु अभिग्गहा होंति । गायन्तो अ रुअंतो जं देइ निसन्नमादी वा ॥ ६ ॥ पद अपकृद्वाऽमुकं द्रव्यं चाय महीष्यामि अमुकेण खमाने परमामे एतावन्ति गृहाणि व क्षेत्रे ॥ १ ॥ १ कोधादीनामनुदिनं त्यागः जिनवचनभावनातञ्च । भावेनोनोदरता प्रप्तः वीतरागैः ॥ १ ॥ २ वा द्रव्येणासो द्रव्याभिप्रहो नाम ॥ १ ॥ ३ अष्ट तु गोवरभूमयः एक (देहली) विष्कम्भमात्रप्रदर्श च ४ ऋज्वी गत्वाप्रत्यागति गोमूत्रिका पतङ्गवीथी। पेटा चापेढा अभ्यन्तरबाह्यशम्बूके ॥ ३ ॥ ५ कालेऽभिप्रहः पुनरादी मध्ये तथैवावसाने । अप्राप्ते स्मृतिकाले आदिः द्वितीये मध्यः तृतीयेऽन्तः ॥४॥ ६ दायकप्रतीच्छकवोर्भूत् सूक्ष्माऽपि नैवाप्रीतिः इत्यप्राप्ताशीतयोः प्रवर्तनं व मा च (भूद) ततो मध्ये ॥ ५ ॥ ७ उत्क्षिप्तचरकत्वाचा भावयुताः खल अभिप्रा भवन्ति । गायन् रुदैव यद्ददाति निषण्णादिव ॥ १ ॥ For Pane&Personal Use Oily ~ 58~ brary dig Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [४७], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ ॥२८॥ गाथांक दशका० ओसक्कण अहिसकणपरंमुहालंकिओ नरो वावि । भावण्णयरेण जुओ अह भावाभिग्गहो णाम ॥७॥” उक्तो दुमपुहारिवृत्तिवृत्तिसंक्षेपः, साम्प्रतं रसपरित्याग उच्यते-तत्र रसाः क्षीरादयस्तत्परित्यागस्तप इति, उक्तं च-"विगैईपिका० विगईभीओ विगइगयं जो उ मुंजए साहू । विगई विगइसहावा विगई विगई बला णेइ ॥ १॥ विगई तपोऽधिः परिणइधम्मो मोहो जमुदिज्जए उदिपणे अ। सुहृवि चित्तजयपरो कहं अकजे ण वहिहिति? ॥२॥ दावानलमज्झगओ को तवसमट्टयाइ जलमाई । सन्तेवि ण सेविजा? मोहाणलदीविएसुवमा ॥३॥” इत्यादि, उक्तो रसपरित्यागः, साम्प्रतं कायक्लेश उच्यते स च वीरासनादिभेदाचित्र इति, उक्तं च-"वीरोसण उक्कुडुगासहणाइ लोआइओ य विष्णेओ । कायकिलेसो संसारवासनिब्बेअहेउत्ति ॥१॥ वीरासणाइसु गुणा कायनि रोहो दया अ जीवेसु । परलोअमई अतहा बहुमाणो चेव अनसिं ॥२॥णिस्संगया य पच्छापुरकम्मविचजणं च लोअगुणा । दुक्खसहत्तं नरगादिभावणाए य निव्वेओ॥३॥” तथाऽन्यैरप्युक्तम्-"पश्चात्कर्म ___१अवष्यष्कणमभिवष्कणपरामुखालङ्कतो नरो वाऽपि । भावनान्यतरेण युतः असा भावाभिग्रहो नाम ॥७॥ २ विकृति विकृतिभीतः विकृतिगतं यस्तु ल। मुझे साधुः । विकृतिषिकतिखभावा विकृतिपिंगति बलानयति ॥१॥ ३ विकृतिः परिणतिधर्मा मोहो यबुदीर्यते उदीर्ण च । सापि चित्तजयपरः कथमकायें न दुपशमार्थाय जलादीनि । सन्खपि न सेवेत! मोहानलदीपित एषोपमा ॥३॥ ५ बीरासनमुत्कटुकासनं व &ालोबादिकश्च विज्ञेयः । कायलेशः संसारवासनि-दहेतुरिति ॥१॥ वीरासनाविषु गुणाः कायनिरोधो दया च जीवेषु । परलोकमविध तथा बहुमानश्चैवान्येषाम् ॥२॥ निस्संगताच पक्षातूपूर्वकर्मविवर्जन लोचगुणाः । दुःससहत्वं नरकाविभावनया प निदः ॥३॥ दीप अनुक्रम ~59~ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [४७], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक दीप अनुक्रम पुरकर्मे (मई ) र्यापथपरिग्रहः । दोषा ह्येते परित्यक्ताः, शिरोलोचं प्रकुर्वता ॥१॥” इत्यादि । गतः कायक्लेशा, साम्प्रतं संलीनतोच्यते इयं चेन्द्रियसंलीनतादिभेदाचतुर्विधेति, उक्तं च-"इंदिअकसायजोए पडच संलीणया मुणेयब्धा । तहय विवित्ताचरिआ पण्णत्ता बीअरागेहिं ॥१॥” तत्र श्रोत्रादिभिरिन्द्रियः शब्दादिषु सुन्दरेतरेषु रागद्वेषाकरणमिन्द्रियसंलीनतेति, उक्तं च-"सद्देसु अ भद्दयपावएसु सोअविसयमुवगएसु । तुट्टेण व रुटेण व समणेण सया ण होअव्वं ॥१॥" एवं शेषेन्द्रियेष्वपि वक्तव्यम् , यथा-- वेसु अभद्दगपावएसु" इत्यादि । उक्तेन्द्रियसल्लीनता, अधुना कषायसंलीनता-सा च तदुदयनिरोधोदीर्णवि-2 कलीकरणलक्षणेति, उक्तं च-"उदयस्सेब निरोहो उदयं पत्ताण वाऽफलीकरणं । जं इत्थ कसायाणं कसाय संलीनता एसा ॥१॥” इत्यादि, उक्ता कषायसंलीनता, साम्प्रतं योगसंलीनता-सा पुनर्मनोयोगादीनामकुशबालानां निरोधः कुशलानामुदीरणमित्येवंभूतेति, उक्तं च-"अपसत्थाण निरोहो जोगाणमुदीरणं च कुसलाणं। ४ कजम्मि य विहिगमणं जोए संलीणया भणिआ॥१॥” इत्यादि । उक्ता योगसंलीनता, अधुना विविक्तचर्या, १ इन्द्रियकषाययोगान प्रतीम सलीनता मुणितव्या । तथा च थियिका चर्या प्राप्ता वीतरागीः ॥ ५॥ २ शब्देषु च भद्रकथापकेषु श्रोत्रविषयमुपगतेषु । हेन चा कडेन वा श्रमणेन सदा न भवितव्यम् ॥ १॥ ३ रूपेषु च भनकपापकेषु, ४ उदयस्यैव निरोध उदयत्राप्तानां वाऽकलीकरणम् । यत्र कषायाणां 151 कवायसंलीनतैषा ॥ १॥ ५ अप्रशस्तानां निरोधो योगानामुदीरक व कुशलानाम् । कार्ये च विधिगमनं योगे संप्लीनता भगिता ॥ १ ॥ SCASESS ~ 60 ~ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [४७], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक ॥२९॥ दीप अनुक्रम वशवैका०सा पुनरियम्-"आरामुज्जाणादिसु थीपसुपंडगविवजिएसुजं ठाणं । फलगादीण य गहणं तह भणियं १ दुमपुहारि-वृत्तिः एसणिजाणं ॥१॥" गता विविक्तचर्या, उक्ता संलीनता । 'बजझो तवो होही' इति एतदनशनादि वायं तपो । पिका भवति, लौकिकैरप्यासेव्यमानं ज्ञायत इतिकृत्वा बाद्यमित्युच्यते विपरीतग्राहेण वा कुतीर्थिकैरपि क्रियत तपोऽधि० 18 इतिकृत्वा इति गाथार्थः॥ उक्तं बाह्यं तपः, इदानीमाभ्यन्तरमुच्यते । तच प्रायश्चित्तादिभेदमिति, आह च पौकिछत्तं विणओ वेआवश्चं तहेव सज्झाओ । साणं उस्सग्गोऽवि अ अम्भितरो तवो होइ ॥४८॥ आरामोद्यानादिषु श्रीपशुपण्डकविवर्जितेषु स्थानम् । फलकादीनां च महर्ण तथा भणितमेषणीयानाम् ॥१॥ (1) तव मालोचणा नाम अवस्सकरपिजेसु ५ भिक्खायरियाइएस जइपि भवराहो नत्थि तहाचि अणालोइए अविणओ भक्दत्ति काऊण अचस्स बालोएतव्यं, तो अइ किचि अणेसणाइभवराई सरेबा, सो वा आयरिओ किचि सारेला, तम्हा आखोएयवं, आलोयगंति वा पगासकरणति वा अक्षणति वा विसोहित्ति वा एमड़ा । इदाणि पदिकमणं, तं च मिच्छामिदुकडसहुतं भाभवड तंजहा-कोर साह मिक्लायरियाए गच्छन्तो कदापमत्तो इरियं न सोहेइ, न य संनि समए किचि पाणविराहणं करी. ताहे सो मिच्छादकडेच सज्जना एवं सेससमितीमुनि गुत्तीमु, जत्य असमितित्तर्ण कर णय महन्तो अवराहो भने पिच्छादुकडेणेच मुद्धी भवतित्ति । तदुभयं नाम जत्थ आलोवर्ण पडिकमर्ण एगिवियागं जीवाणं संघपरितावणाविषु कएमु आउतस्स भवन्ति । विवेगो नाम परिहावणं, तेच आहारोवाहिसेवासणाणसंभत्ताम उम्पमादीस य कारणेसु असुद्धाणं भवद । इदाणि काउत्सग्गे, सोय काउसम्मोत्ति वा विउत्सगोत्ति वा एगहा, सोय काउस्तम्भो इमेहिं किबह तंजदा-गावानईसंतारे गमणागमणमुभिणदसणावरसगादिसु कारणेसु बहुविदो भवद । इदाणि तबो, सो पंचराईवियाणि आदिकाऊण बहुवियप्पो भवइत्ति । तथा छेदो नाम अस्स कस्सनि साहुणो तहारूवं अवराई पाऊण परिवाओ छिजा, तंजहा- अहोरत्तं वा पक्वं वा मास वा संवच्छरं वा, एवमादिच्छेदो भवति । मूले नाम खो चेच से परियाओ मूलतो छिनइ । मगबहुप्पो नाम IC ॥२९॥ सम्बच्छेदपत्तो किंचि कार्य करेऊण तवं तत्तो पुणोनि विक्खा कजा। पारधी नाम वेत्तातो देसतो वा निच्छुमद । उदअणबदमूलपारंचियाणि देसं कालं संजनविराइर्ष पुरिसं पडुब विज्वतित्ति पच्छित्तं गतं. [१] ~61~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [४८], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१|| दीप व्याख्या-तन्त्र पापं छिनत्तीति पापच्छित्, अथवा यथावस्थितं प्रायश्चित्तं शुद्धमस्मिन्निति प्रायश्चित्तमिति, 18| उक्तं च-"पावं छिंदह जम्हा पायच्छित्तंति भण्णए तम्हा। पाएण वावि चित्तं चिसोहई तेण पच्छित्तं ॥१॥" द तत्पुनरालोचनादि दशधेति, उक्तं च-"आलोयणपडिक्कमणे मीसविवेगे तहा विउस्सग्गे । तवछेअमूल अणवठ्ठया य पारंथिए व ॥१॥" भावार्थोऽस्या आवश्यकविशेषविवरणादवसेय इति । उक्तं प्रायश्चित्तं, साम्प्रतं विनय उच्यते-तत्र विनीयतेऽनेनाष्टप्रकारं कर्मेति विनय इति, उक्तं च-"विनयफलं शुश्रूषा गुरुहिशुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानम् । ज्ञानस्य फलं विरतिर्विरतिफलं चावनिरोधः ॥ १॥ संवरफलं तपोबलमथ तपसो निर्जरा फलं दृष्टम् । तस्मात्क्रियानिवृत्तिः क्रियानिवृत्रयोगित्वम् ॥ २ ॥ योगनिरोधाद्भवसन्ततिक्षयः सन्ततिक्षयान्मोक्षः । तस्मात्कल्याणानां सर्वेषां भाजनं विनयः॥ ३ ॥" स च ज्ञानादिभेदात् सप्तधा, उक्तं च-"णाणे दंसणचरणे मणवाइकाओवयारिओ विणओ। णाणे पंचपगारों महणाणाईण सद्दहणं ॥१॥ भत्ती तह बहुमाणो तद्दिद्वत्थाण सम्मभावणया । विहिगहणभासोवि अ एसो विणओ जिणाभिहिओ ॥२॥ पापं छित्ति यस्मात् प्रायश्चित्तमिति भण्यते तस्मात् । प्रायेण वापि चित्तं विशोधयति तेन प्रायश्चित्तम् ॥ १॥ २ आलोचना प्रतिक्रमणं मित्रं | विवेकस्तथा व्युत्सर्गः । परछेको मूलमनवस्थाप्यं च पाराधिकं चैव ॥१॥ अत एव नात्र चूणांविष स्थानदर्शनम्. ४ ज्ञाने दर्शने चरणे मनोवाकायेषु औपचारिको विनयः । ज्ञाने पचप्रकार: मतिज्ञानादीनां श्रद्धानम् ॥ १॥ ५ भक्तिसावा बहुमानः तदृष्टार्थानां सम्पग्भावनता । विधिमहणमभ्यासोऽपि च एष विनयो जिनाभिहितः॥१॥ अनुक्रम [१] का ~62~ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक गाथांक |||| दीप अनुक्रम [] Cataro हारि-वृत्तिः ॥ ३० ॥ Ja Education भाष्यं [-1 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र ३ (मूलं निर्युक्तिः + भाष्य | + वृत्तिः) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्तिः [४८), मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः सुस्सूसणा अणासायणा य विणओ अ दंसणे दुविहो । दंसणगुणाहिए कज्जइ सुस्मृसणाविणओ ॥ ३ ॥ संकारम्भुट्ठाणे सम्माणासण अभिग्गहो तह य । आसणअणुप्पयाणं किइकम्मं अंजलिगहो अ ॥ ४ ॥ एंतस्मैणुगच्छणया ठिअस्स तह पज्जुवासणा भणिया । गच्छंताणुव्वयणं एसो मुस्सूसणाविणओ ॥ ५ ॥ इत्थ य सक्कारो-थुणणवंदणादि अभुट्ठाणं-जओ दीसह तओ चैव कायव्वं, संमाणो वस्थपत्तादीहिं पूजणं, आसणाभिग्गहो पुण-अच्छंतस्सेवापरेणासणाणयणपुब्वगं उबविसह एत्थति भणणंति, आसणअणुप्पदाणं तु ठाणाओ ठाणं संचारणं, किइकम्मादओ पगडत्था । अणासायणाविणओ पुण पण्णरसविहो, तंजहा - "तिस्थगर घम्म आयरिअ वायगे थेर कुलगणे संधे । संभोइय किरियाएँ महणाणाईण य तहेव ॥ १ ॥” एत्थ भावणा-तित्थगराणमणासायणाए तित्थगरपन्नत्तस्स धम्मस्स अणासायणाए । एवं सर्वत्र द्रष्टव्यम् । “काँ १ शुश्रूषा अनाशातना च विनयः दर्शने द्विविधः । दर्शनगुणाधिकेषु क्रियते शुश्रूषाविनयः ॥ ३ ॥ २ सत्कारोऽभ्युत्थानं सन्मानमासनाभिप्रहस्वधा व आसमानुप्रदानं कृतिकर्माहि ॥ ४ ॥ ३ आगच्छतोऽनुगमने स्थितस्थ तथा पर्युपासना मणिता गच्छतोऽनुवजनमेष शुश्रूषाविनयः ॥ ५ ॥ ४ अत्र च सरकारः--सावनयन्दनादि अभ्युत्थानं---यत्र दृश्यते तत्रैव कर्तव्यं सम्मानं वम्रपानादिभिः पूजनम् आसनाभिग्रहः पुनः तिष्ठत एवादरेणासनानयनपूर्वकमुपविशतात्रेतिभणनम् आसनानुप्रदानं तु स्थानात् स्थानं सञ्चारणं, कृतिकर्मादयः प्रसिद्धाः अनाशातनाविनयः पुनः पादशविधस्तद्यथा तीर्थंकरधर्माचार्य वाचके स्थविरकुलगणे । साम्भोगिके क्रियायां च मतिज्ञानादीनां च तथैव ॥ १ ॥ ५ किरिआ णाम अत्यवाओ मण्णति तंगहा—अस्थि आया अस्थि जीवा एवमादी, जो एवं ण सद्दद्दद्द विवरीयं वा पण्णने तेन किरिना आसादिता भवति ६ अत्र भावना तीर्थकराणामनाशातनया तीर्थंकरप्रप्रस्थ धर्मस्थानाकानमा ७ कर्तव्या पुनर्भर्बिहुमानस्तथैव वर्णवादव अर्हदादीनां केवलज्ञानावसानानाम् ॥ १ ॥ For ane & Personal Use Oly ~63~ १ द्रुमपु ष्पिका० तपोऽधि० ॥ ३० ॥ Kabayang Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक गाथांक |||| दीप अनुक्रम [] दश. ६ आयं (-) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र ३ (मूलं निर्युक्तिः + भाष्य | + वृत्तिः) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्तिः [४८), आगमसूत्र [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ...... धन्वा पुण भसी बहुमाणो तहय वण्णवाओ अ। अरिहंतमाइयाणं केवलणाणीवसाणाणं ॥ १ ॥” उनको दर्शनविनयः, साम्प्रतं चारित्रविनयः- “सामाइयाइचरणस्स सहहाणं तहेव कारणं । संफासणं परूवणमह पुरजो भव्वसत्ताणं ॥ १ ॥ मेणवइकाइयविणओ आयरियाईण सव्वकालंपि । अकुसलमणोनिरोहो कुंसलाण उदीरणं तह ॥ २ ॥ इदानीमौपचारिकविनयः, स च सप्तधा, अम्भासऽच्छणछंदाणुवत्तणं कयपडिक्किई तहय । कारियणिमित्तकरणं दुक्खत्तगबेसणा तहय ॥ १ ॥ त देसकालजाणण सव्वत्थेसु तहयणुमई भणिया । उबआरिओ उ विणओ एसो भणिओ समासेणं ॥ २ ॥ तैत्थ अन्भासऽच्छणं आपसत्थिणा णिचमेव आयरियस्स अन्भासे अदूरसामत्थे अच्छेअन्वं, छंदोऽणुवत्तियच्यो, कयपडिक्किई नाम पसण्णा आयरिया सुतत्थतदुभयाणि दाहिंति ण णाम निज्जरति आहारादिणा जयव्वं, कारियणिमितकरणं सम्ममत्थपदमहेज्जाविएण विणण विसेसेण वहिअव्यं, तपट्ठाद्वाणं च कायव्वं, सेस भेदा पसिद्धा । उक्तो विनयः, इदानीं १ सामायिकादिचरणानां श्रद्धानं तथैव कामेन संस्पर्शनं प्ररूपणमध पुरतो भव्यत्वानां ॥ १ ॥ । २ मनोकायिकविनयः आचार्यादीनां सर्वकालमपि । अकुशलमनोनिरोधः कुशलानामुदीरणं तथैव ॥ २॥ (१) आयरिआग अद्वाणपरिस्संताणं सीसा उ आरम्भ जान पायतका ताव परमेण आदरेण विस्सामणं चू ३ अभ्यासस्थानं छन्दोऽनुवर्त्तनं कृतप्रतिकृतिखचैव कारितनिमित्तकरणं दुःखार्तगवेषणं तथा च ॥ १७ ४ तथा देशकालज्ञानं सर्वार्थेषु तथा चानुमतिर्भ जिला औपचारिकस्तु विनय एष भणितः समासेन ॥ २ ॥ ५ तत्र अभ्यासस्थानं आदेशार्थिना नित्यमेवाचार्यस्य अभ्यासे अदूरासत्रे स्वातव्यम्, छन्दोऽनुविर्तितव्यः, कृतप्रतिकृतिर्नाम - प्रसन्ना आचार्याः सूत्रमर्थं तदुभयं वा दास्यन्ति न नाम निर्जरेति आदारादिना यवितव्यं, कारितनिमित्तकरणं सम्ययर्थपदमध्यापि तमस्माकं विनयेन विशेषेण वर्तितव्यं, तदनुष्ठानं च कर्तव्यं, शेषाः भेदाः प्रसिद्धाः । For ne&Personal Use City ~64 ~ baryong Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [४८], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: - - प्रत सूत्रांक/ गाथांक दीप अनुक्रम दशवैका | वैयावृत्त्यम्-तत्र व्यापृतभावो वैयावृत्त्यमिति, उक्तं च-"वेआवचं वावडभावो इह धम्मसाहणणिमित्तं ।दा दुमपुहारि-वृत्तिः अण्णादियाण विहिणा संपायणमेस भावत्थो ॥१॥ आयरिअ उचज्झाए थेर तवस्सी गिलाणसेहाणं । सा-1 पिका० हम्मियकुलगणसंघसंगयं तमिह कायव्वं ॥२॥ तत्थ आयरिओ पंचविहो, तंजहा-पच्चावणायरिओ दिसा- तपोऽधि० ॥३१॥ दायरिओ सत्तस्स उद्देसणायरिओ सुसस्स समुद्देस्सणायरिओ वायणायरिओशि, जवज्झाओ पसिद्धो चेच, थेरो नाम जो गच्छस्स संठिति करेइ, जाइसुअपरियायाइसु वा थेरो, तवस्सी नाम जो उग्गतवचरणरओ, गिलाणो नाम रोगाभिभूओ, सिक्खगो णाम जो अहुणा पब्वइओ, साहम्मिओ णाम एगो पवयणओ ण लिंगओ, एगो लिंगओ ण पवयणओ, एगो लिंगओ वि पवयणओ वि, एगो ण लिंगओ ण पवयणओ, कुलगणसंघा पसिद्धा चेव । इदानीं सज्झाओ, सो अ पंचविहो-वायणा पुच्छणा परिअहणा अणुप्पेहा धम्मकहा, *जिनस्य धर्मो जिनधर्मः, विनयधम्मः । स च-"मूलाव संधप्पभव्यो दुमरस " इत्यावि, यतः "विणो सासणे मूलं विणको निम्नाणसाहगो । विणयाउ | विष्णमुझस्स को धम्मो को तो ॥१॥ विणयाउ नाणं नागाउ सण सणाउ चरणं तु । चरणहितो मुक्तो मुक्खे मुक्तं अणाबाई ।। २ इति प्र. विनयात्परं" मापत्य व्यापूतभावः इह धर्मसाधननिमित्तम्, अभाविकानां विधिना सम्पादन मेष भावार्थः ॥१॥ आचावें उपाध्याये स्थपिरे तपखिनि ग्लाने शैक्षके। | साधर्मिक कुल गणे सह सातं तदिह कत्तेन्यम् ॥ २॥ तत्राचार्यः पञ्चविधः । तद्यथा-प्रजाजनाचार्यः विशाचार्यः सूत्रस्योद्देशनाचार्यः सूत्रसा समदेशनाचार्यःया.' चनाचार्य इति, उपाध्यायः प्रसिद्ध एव, स्थपिरो नाम यो गच्छस्य संस्थितिं करोति, जाति (जन्म) श्रुतपर्यायैर्वा स्थविरः, तपसी नाम य उपतपक्षरणरतः | | ग्लानो नाम रोगामिभूतः, शैक्षको नाम योऽधुना प्रबजितः, साधर्मिको नाम एकः प्रवचनतो न लिङ्गतः, एको लिश्तो म प्रवचनतः, एको लिमतोऽपि प्रवचन-18 तोऽपि, एको न शितो न प्रवचनतः, हुलगणसहाः प्रसिद्धार्थव । इदानी खाध्यायः, सच पञ्चविधः-वाचना प्रच्छना परिवर्तनापेक्षा धर्मकथा । 8 साधर्मिक JanElcanonline ~65M Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [४८], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक वायणा नाम सिस्सस्स अमावणं, पुच्छणा मुत्तस्स अत्थस्स वा हवइ, परिअहणा नाम परिअहणंति वा अ-IPL सम्भस्सणंति वा गुणणंति एगट्ठा, अणुप्पेहा नाम जो मणसा परिअहेइ णो वायाए, धम्मकहा णाम जो अ-13 हिंसाइलक्खणं सब्वण्णुपणीअं धम्म अणुओर्ग वा कहेइ, एसा धम्मकहा । गतः स्वाध्यायः, इदानीं ध्यानमुच्यते-तत्पुनराादिभेदाचतुर्विधम् , तद्यथा-आर्तध्यानं रौद्रध्यानं धर्मध्यानं शुक्लध्यान ति, तत्र "रा-IP ज्योपभोगशयनासनवाहनेषु, स्त्रीगन्धमाल्यमणिरत्नविभूषणेषु । इच्छाभिलाषमतिमात्रमुपैति मोहादु, ध्यान [3] है तदातमिति तत्प्रवदन्ति तज्ज्ञाः ॥ १ ॥ संछेदनैर्दहनभञ्जनमारणश्च, बन्धप्रहारदमनैर्विनिकृन्तनैश्च । यो याति रागमुपयाति च नानुकम्पां, ध्यानन्तु रौद्रमिति तत्प्रवदन्ति तज्ज्ञाः॥२॥ सूत्रार्थसाधनमहाव्रतधार४ाणेषु, बन्धनमोक्षगमनागमहेतुचिन्ता । पञ्चेन्द्रियव्युपरमश्च दया च भूते, ध्यानं तु धर्ममिति तत्प्रवदन्ति है तज्ज्ञाः ॥३॥ यस्येन्द्रियाणि विषयेषु पराशुखानि, सङ्कल्पकल्पनविकल्पविकारदोषैः । योगैः सदा त्रिभिरहो। निभृतान्तरात्मा, ध्यानोत्तमं प्रवरशुक्लमिदं वदन्ति ॥४॥ आले तिर्यगितिस्तथा गतिरधो ध्याने तु रौद्रे सदा, धर्मे देवगतिः शुभं बत फलं शुक्ले तु जन्मक्षयः । तस्माद् व्याधिरुगन्तके हितकरे संसारनिर्वाहके, ध्याने शुक्लबरे रजाप्रमथने कुर्यात् प्रयत्नं बुधः॥५॥” इति । उक्तं समासतो ध्यान, विस्तरतस्तु ध्यानशतवाचना नाम शिष्यस्याध्यापनम् । प्रच्छना सूत्रस्य अर्थस्य वा भवति । परिवर्तना नाम परिवर्तनमिति बा अभ्यसनामिति वा गुणनमिति वा एकार्थाः । अनुप्रेक्षा। नाम यो मनसा परिवत्तेपति न वाचा । धर्मकथा नाम योऽहिंसादिलक्षणं सर्वप्रणीतं धम्मै मनुयोग वा कथयति, एषा धर्मकथा. TRACCRACCOCCAS दीप अनुक्रम ~66~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [४८], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत दशवैका सूत्रांक/ गाथांक ३२॥ दीप अनुक्रम कादवसेयमिति । साम्प्रतं व्युत्सर्गः, स च द्विधा-द्रव्यतो भावतश्न, द्रव्यतश्चतुर्धा-गणशरीरोपध्याहारभेदात, भावतश्चित्रः, क्रोधादिपरित्यागरूपत्वात्तस्येति, उक्तं च-"देवे भावे अतहा दुहा विसग्गो चउ-ठापिका विहो दब्वे । गणदेहोवहिभत्ते भावे कोहादिचाओ त्ति ॥१॥ काले गणदेहाणं अतिरित्तासुद्धभत्तपा- पोडाधिक णाणं । कोहाइयाण सययं कायब्धो होइ चाओ त्ति ॥२॥" खक्तो व्युत्सर्गः, 'अम्भितरओ तवो होई' त्ति, & इदं प्रायश्चित्तादि व्युत्सर्गान्तमनुष्ठानं लौकिकैरनमिलक्ष्यत्वात्तत्रान्तरीयैश्च भावतोऽनासेव्यमानत्वान्मोक्ष प्रास्यन्तरङ्गत्वाचाभ्यन्तरं तपो भवतीति गाथार्थः ।। शेषपदानां प्रकटार्थत्वात् सूत्रपदस्पर्शिका नियुक्तिकृता नोक्ता, स्वधिया तु विभागे (न) स्थापनीयेति ॥ अत्राह-'धर्मो मङ्गलमुत्कृष्ट मित्यादी धर्मग्रहणे सति अहिंसासंयमतपोग्रहणमयुक्तं, तस्याहिंसासंयमतपोरूपत्वाव्यभिचारादिति, उच्यते, न, अहिंसादीनां धर्मकारणत्वाधर्मस्य च कार्यत्वात्कार्यकारणयोश्च कश्चिद्भेदात्, कथंचिभेदश्च तस्य द्रव्यपर्यायोभयरूपस्वात्, उक्तंच 3-"त्थि पुढवीविसिहो घडोत्ति ज तेण जुज्जइ अणण्णो । जं पुण घडत्ति पुब्वं नासी पुढवीइ तो अन्नो ॥१॥” इत्यादि, गम्यादिधर्मव्यवच्छेदेन तत्खरूपज्ञापनार्थं वाऽहिंसादिग्रहणमदुष्टमित्यलं विस्तरेण ॥ आह द्रव्ये भावे च तथा द्विधा व्युत्सर्गः चतुर्विधो इव्ये । गणदेहोपधिभक्केषु भाने कोधावियाग इति ॥१॥ काले गणदेहयोः अतिरिकाचदमकजापानानाम् । कोषादिकानां सततं कर्तव्यो भवति स्वाग इति ॥२॥ २ नास्ति पृथ्वी विश्विये घट इति यत्तेन युज्यते अनन्यः । बापुनर्वट इति पूर्व गासी- ॥१२॥ पृथिव्यावतोऽन्यः ॥1॥ [१] S ~67~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक/ गाथांक |||| दीप अनुक्रम [?] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [१], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||१॥ निर्युक्ति: [४८], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः -अहिंसासंयमतपोरूपों धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टमित्येतद्वचः किमाशासिद्धमाहोस्वियुक्तिसिद्धमपि ?, अश्रोच्यते, उभयसिद्धं, कुतो ?, जिनवचनत्वात्, तस्य च विनेयसत्त्वापेक्षयाऽऽज्ञादिसिद्धत्वात्, आह च निर्युतिकारःजिणवणं सिद्धं चैव भण्णए कत्थई उदाहरणं । आसज्ज व सोयारं हेऊऽवि कर्हिचि भण्णेला ॥ ४९ ॥ व्याख्या - जिना: प्राग्निरूपितवरूपाः तेषां वचनं तदाज्ञया सिद्धमेव-सत्यमेव प्रतिष्ठितमेव अविचार्यमेवेत्यर्थः कुतः ?, जिनानां रागादिरहितत्वात्, रागादिमतश्च सत्यवचनासम्भवात् उक्तं च-- "रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम् । यस्य तु नैते दोषास्तस्यानृतकारणं किं स्यात् ? ॥ १ ॥" इत्यादि, तथापि तधाविधश्रोत्रपेक्षया तत्रापि भण्यते कचिदुदाहरणम्, तथा आश्रित्य तु श्रोतारं हेतुरपि कचिद्भण्यते, न तु नियोगतः, तुशब्दः श्रोतृविशेषणार्थः, किंविशिष्टं श्रोतारम् ? - पटुधियं मध्यमधियं च न तु मन्दधियम् इति, तथाहि पटुधियो हेतुमात्रोपन्यासादेव प्रभूतार्थाय गतिर्भवति, मध्यमधीस्तु तेनैव बोध्यते, न वितर इत्यर्थः । तत्र साध्यसाधनान्वयव्यतिरेक प्रदर्शनमुदाहरणमुच्यते, दृष्टान्त इत्यर्थः, साध्यधर्मान्वयव्यतिरेकलक्षणश्च हेतुः, इह च हेतुमुल्लङ्घय प्रथममुदाहरणाभिधानं न्यायानुगतत्वात्सहलेनैव हेतोः साध्यार्थसाधकत्वोपपत्तेः कचिद्धेतुमनभिधाय दृष्टान्त एवोच्यत इति न्यायप्रदर्शनार्थं वा, यथा गतिपरिणामपरिणतानां जीवपुद्गलानां गत्युपष्टम्भको धम्र्मास्तिकायः, चक्षुष्मतो ज्ञानस्य दीपवत्, उक्तं च- "जीवानां पुद्गलानां च, गत्युपष्टम्भकारणम् । धर्मास्तिकायो ज्ञानस्य, दीपचक्षुष्मतो यथा ॥ १ ॥” तथा कचिद्धेतुरेव केवलोऽभिघी Forte & Personal Use City ~68~ nbrary dig Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं -1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [४९], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत हारि-वृत्तिः सूत्रांक/ गाथांक का दशकायते न दृष्टान्ता, यथा मदीयोऽयमश्वो, विशिष्टचिह्नोपलब्ध्यन्यथानुपपत्तेरित्यलं प्रसङ्गेनेति गाधार्थः । तथा- दुमपुकथइ पंचावयवं दसहा वा सव्यहा न पडिसिद्धं । न य पुण सव्वं भण्णइ हंदी सविआरमक्खायं ॥५०॥ पिका व्याख्या-श्रोतारमेवाङ्गीकृत्य कचित्पश्चावयवं 'दशधा वेति कचिद्दशावयवं, 'सर्वथा' गुरुश्रोत्रपेक्षया नताप्रतिज्ञाद॥३३॥ प्रतिषिद्धमुदाहरणायभिधानमिति वाक्यशेषः, यद्यपि च न प्रतिषिद्धं तथाप्यविशेषेणैव, न च पुनः सर्व योऽवयवाः भण्यते उदाहरणादि, किमित्यत आह-हंदी सविआरमक्खायं हन्दीत्युपप्रदर्शने, किमुपप्रदर्शयति?, यस्मादिहान्यत्र च शास्त्रान्तरे 'सविचारं सप्रतिपक्षमाख्यातं साकल्यत उदाहरणायभिधानमिति गम्यते, पचावयवाश्च प्रतिज्ञादयः, यथोक्तम्-"प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः' (न्यायद०१-१-३२) दश पुनः प्रतिज्ञाविभक्त्यादयः, वक्ष्यति च-"ते उ पइण्णविहत्ती" इत्यादि । प्रयोगाश्चैतेषां लाघवार्थमिहेव 8 खस्थाने दर्शयिष्याम इति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं यदुक्तम्-'जिणवयर्ण सिद्ध चेव भण्णई कत्थई उदाहरणं" इत्यादि, तत्रोदाहरणहेत्वोः खरूपाभिधित्सयाऽऽह तस्थाहरणं दुविहं चम्विहं होइ एक्कमेकं तु ।। हेऊ चउबिहो खलु तेण उ साहिजए अत्यो ॥५१॥ व्याख्या-तत्रशब्दो वाक्योपन्यासार्थों निर्धारणार्थों वा, उदाहरणं पूर्ववत्, तच्च मूलभेदतो 'द्विविधं द्वि-15 प्रकारं, चरितकल्पितभेदात्, उत्तरभेदतस्तु चतुर्विधं भवति, तयोर्द्वयोरेकैकमुदाहरणमाहरण?तद्देशश्तद्दोषो३पन्यास४भेदात् , तच्च वक्ष्यामः, तथा हिनोति-गमयति जिज्ञासितधर्मविशिष्टानानिति हेतुः, स 'चतुर्विधा' दीप अनुक्रम [1] ॥३३॥ ~69~ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं -] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [११], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: 4% 8560 प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१|| चतुष्पकारः, खलुशब्दो व्यक्तिभेदादनेकविधश्चेति विशेषणार्थः, तुशब्दस्य पुनःशब्दार्थत्वात् तेन पुन\-| तुना साध्यार्थाविनाभावबलेन 'साध्यते निष्पाद्यते ज्ञाप्यते वा 'अर्थ' प्रतिज्ञार्थ इति गाधार्थः ॥ साम्प्रतं नानादेशजविनेयगणहितायोदाहरणैकार्धिकप्रतिपिपादयिषयाऽऽह नायमुवाहरणंतिम दिहतोवम निदरिसणं तहव । एगटुं तं दुविहं चउब्विहं चेव नायव्वं ॥५२॥ व्याख्या-ज्ञायतेऽस्मिन् सति दान्तिकोऽर्थ इति ज्ञातम्, अधिकरणे निष्टाप्रत्ययः, तथोदाहियते प्राबल्येन गृह्यतेऽनेन दान्तिकोऽर्थ इति उदाहरणम् , दृष्टमर्थमन्तं नयतीति दृष्टान्तः, अतीन्द्रियप्रमाणादृष्टं संवेदननिष्ठां नयतीत्यर्थः, उपमीयतेऽनेन दान्तिकोऽर्थ इत्युपमानम् , तथा च 'निदर्शन' निश्चयेन दइयतेऽनेन दार्शन्तिक एवार्थ इति निदर्शनम् , 'एगटुंति इदमेकार्थम् एकार्थिकजातम्, इदं च तत्प्रागुपन्यस्तं द्विविधमुदाहरणं चतुर्विधं चैवाङ्गीकृत्य ज्ञातव्यं प्रत्येकमपि, सामान्यविशेषयोः कथञ्चिदेकत्वाद, अत एव सामान्यस्थापि प्राधान्यख्यापनार्थमेकवचनाभिधानम् एकार्थमिति, अब बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते अन्धविस्तरभयादू, गमनिकामात्रमेवैतदिति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं यदुक्तं तत्रोदाहरणं द्विविध मित्यादि, तद् द्वैविध्यादिनदशनायाह चरिच कपि वा दुविहं तत्तो चउठिवहेककं । आहरणे तसे तहोसे चेखुवन्नासे ॥ ५३ ॥ व्याख्या-चरितं च कल्पितं चे(वे)ति द्विविधमुदाहरणम् , तत्र चरितमभिधीयते यवृत्तं, तेन कस्यचिद् दाटी REASEASESSOCCAS दीप अनुक्रम [१] CRC4 ~ 70~ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१३], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत १ दमपुपिका उद सूत्रांक/ उदाहरण गाथांक भेदी दीप अनुक्रम दशबैकान्तिकाप्रतिपत्तिर्जन्यते, तद्यथा-दुखाय निदानं, यथा ब्रह्मदत्तख । तथा कल्पितं खबुद्धिकल्पनाशिल्पनि- हारि-वृत्तिःशर्मितमुच्यते, तेन च कस्यचिद्दान्तिकार्थपत्तिपत्तिर्जन्यते, यथा-पिपलपत्रैरनित्यतायामिति, उक्तं च 18-"जहे तुन्भे तह अम्हे तुन्भेवि अ होहिहा जहा अम्हे । अप्पाहेइ पडतं पंडुअपत्तं किसलयाणं ॥१॥ ॥३४॥ णवि अस्थि णवि अ होही उल्लावो किसलपंडुपत्ताणं । उवमा खलु एस कया भविअजणवियोहणवाए ॥२" इत्यादि । आह-इदमुदाहरणं दृष्टान्त उच्यते, तस्य च साध्यानुगमादि लक्षणमिति, उक्तंच-"साध्येनानुगमो हेतोः, साध्याभावे च नास्तिता । ख्याप्यते यत्र दृष्टान्तः, स साधम्र्येतरो द्विधा ॥१॥" अस्य पुनस्तलक्षणाभावात् कथमुदाहरणत्वमिति?, अनोच्यते, तदपि कश्चित्साध्यानुगमादिना दार्शन्तिकार्थप्रतिपत्तिजनकत्वात्फलत उदाहरणम्, इहापि च साऽस्त्येवेतिकृत्वा किं नोदाहरणतेति ? । साध्यानुगमादि लक्षणमपि सामान्यविशेषोभयरूपानन्तधर्मात्मके वस्तुनि सति कथञ्चिदेवादिन एच युज्यते, नान्यस्य, एकान्तभेदाभेदयोस्तदभावादिति, तथाहि-सर्वथा प्रतिज्ञादृष्टान्तार्थभेवादिनोऽनुगमतः खलु घटादौ कृतकत्वादेरनित्यत्वादिप्रतिवन्धदर्शनमपि प्रकृतानुपयोग्येव, भिन्नवस्तुधर्मत्वात्, सामान्यस्य च परिकल्पितत्वादसत्त्वाद्, इस्थमपि च तहलेन साध्यार्थप्रतिबन्धकल्पनायां सत्यामतिप्रसङ्गादित्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थ १ यथा यूर्य तथा वयं यूयमपि भविष्यथ यथा वयम् । उपालभते पतत् पादरपत्र किशलवान् ॥ १॥ नैवास्ति नैव भविष्यति बालापः किशन्सयपाण्डरपप्रयोः । उपमा खल्वेषा कृता भलिकजनविबोधनार्याय ॥२॥ [१] 44546 ॥३४॥ ~71~ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१३], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: -56 प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१|| दीप विस्तरभयादिति, एवं सर्वथा अभेदवादिनोऽप्येकत्वादेव तदभावो भावनीय इति, अनेकान्तवादिनस्त्वन-2 मन्तधर्मात्मके वस्तुनि तत्तद्धर्मसामर्थ्यात्तत्तद्वस्तुनः प्रतिबन्धबलेनैव तस्य तस्य वस्तुनो गमकं भवति, अन्यथा ततस्तसिंस्तत्प्रतिपत्त्यसम्भव इति कृतं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः-चरितं च कल्पितं चे(व)त्यनेन विधिना द्विविधम् , पुनश्चतुर्विध-चतुष्पकारमेकैकम् , कथमत आह–'उदाहरणं तद्देशः तद्दोषश्चैव उपन्यास' इति । तत्रोदाह-12 धारणशब्दार्थ उक्त एव, तस्य देशस्तदेशा, एवं तद्दोषः, उपन्यसनमुपन्यासः, स च तद्वस्त्वादिलक्षणो वक्ष्यमाण: इति गाथार्थः । साम्प्रतमुदाहरणमभिधातुकाम आह चहा खलु आहरण होइ अवाओ उवाय ठवणा य । तह्य पडुपनविणासमेव पढ़म चरविगप्पं ।। ५४ ॥ व्याख्या-चतुर्धा खलु उदाहरणं भवति, अथवा चतुर्धा खलु उदाहरणे विचार्यमाणे भेदा भवन्ति, तद्यथाअपायः उपायः स्थापना च तथा च प्रत्युत्पन्नविनाशमेवेति, खरूपमेषां प्रपञ्चन भेदतो नियुक्तिकार एव वक्ष्यति, तथा चाह-प्रथमम् अपायोदाहरणं 'चतुर्विकल्प चतुर्भेदम् । तत्रापायश्चतुःप्रकारः, तद्यथा-द्रव्यापायः क्षेत्रापायः कालापायो भावापायश्च इति गाथार्थः। तत्र द्रव्यादपायो द्रव्यापाया, अपाय:-अनिटप्राप्तिः द्रव्यमेव वा अपायो द्रव्यापाया, अपायहेतुत्वादित्यर्थः, एवं क्षेत्राविष्वपि भावनीयम् । साम्प्रतं द्रव्यापायप्रतिपादनायाह दव्यावाए दोन्नि उ बाणिअगा भायरो धणनिमित्तं । वहपरिणएकमेकं दहमि मच्छेण निव्वेओ ॥ ५५ ॥ अनुक्रम [१] ~ 72 ~ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१५], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक दशवका० व्याख्या-द्रव्यापाये उदाहरणं द्वौ तु, तुशब्दावन्यानि च, वणिजौ भ्रातरौ 'धननिमित्तं धनार्थ वधपरि- १ दुमपुहारि-वृत्तिःणतो 'एकैकम्' अन्योऽन्यं हदे मत्स्येन निर्वेद इति गाथाक्षरायः ॥ भावार्थस्तु कथानकाववसेवा, तचेदम्-Iापिका० पाएगंमि संनिवेसे दो भायरो दरिदपाया, तेहिं सोरहूँ गंतूण साहस्सिओ णउलओ रूवगाणं विढविओ, ते द्रव्यापाअसयं गाम संपत्थिया, इंता तं णउलयं वारएण वहंति, जया एगस्स हत्थे तदा इयरो चिंतेइ-मारेमिण याद्या आवरमेए रूवगा ममं होतुं एवं बीओ चिंतेह "जहाऽहं एवं मारेमि" ते परोप्पर वह परिणया अज्झवस्संति । तओजाहे सग्गामसमीवं पत्ता तत्व नईतडे जितुअरस्स पुणरावित्ति जाया-'धिरत्थु मम, जेण मए दन्बस्स है हरणभेदाः कए भाउविणासो चिंतिओं परुण्णो, इअरेण पुच्छिओ, कहिओ, भणई-ममंपि एयारिसं चित्तं होतं, ताहे एअस्स दोसेणं अम्हेहिं एअं चिंतिअंतिकाउं तेहिं सो उलओ दहे छूढो, ते अ घरं गया, सो अणउलओ तत्थ पडतो मच्छएण गिलिओ, सो अ मच्छो मेएण मारिओ, वीहीए ओयारिओ। तेसिं च भाउगाणां भ-16 गिणी मायाए बीहिं पट्टविआ जहा मच्छे आणेह जं भाउगाणं ते सिझंति, ताए अ समावत्तीए सो चेव १ एकस्मिन् सन्निने द्वीप्रासरी परिमायौ, ताभ्यो सौराष्ट्रं गत्वा साइखिको नकुलको रूपकाणामर्जितः, तीच सके पाम संप्रस्थिती, आयान्तौ तं नकुलकं बारकेम वहतः, यदा एकस्य हस्ते तदा इतरश्चिन्तयति- मारयामि केवलमेते रूप्यका मम भवन्तु, एवं द्वितीयश्चिन्तयति---यथाऽहमेतं मारयामि, तौ परस्परं बचपरिणतावच्यवस्खतः, ततो यदा सपामसगी प्राप्ती तत्र नदीतटे ज्येष्ठेतरस्य पुनराति ता 'धिगस्तुमा येन ममा व्यस्य कृते भातृपिनाशचिन्तितः, प्रहदितः, इतरेण पृष्टः, कविता, भणति-समाप्येतादर्श चित्तमभूत ततस्य दोषेणावाभ्यामेतचिन्तित मितिकृत्वा ताभ्यां स नकुलको हरे क्षिप्ता, तीच गृहं गती। २ स च नकुलकत्तत्र पतन् मत्स्येन गिलितः, सच मत्स्यः श्वपचेन मारितः, वीभ्यामयतारितः । तयोधात्रोभगिनी च मात्रा बीर्थी प्रस्थापिता यथा मत्स्याना ॥ ३५॥ नय यद्भातृभ्यां वे सियन्ति, तया व समापत्त्या स एव. (१) भवितव्यतया वि.प्र.. KACKR दीप अनुक्रम [१] अथ चूर्णि/वृत्तिकारः विविध उदाहरणानि दर्शयन्ते ~73~ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं -] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१५], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक मच्छओ आणीओ, चेडीए फालिंतीए णउलओ दिहो, चेडीए चिंतिअं-एस उलओ मम चेव भविस्सहत्ति उच्छंगे कओ, ठविजतो य घेरीए दिह्रो णाओ अ, तीए भणियं-किमेअं तुमे उच्छंगे कर्य?, सावि लोह गयाण साहइ, ताओ दोवि परोप्परं पहयातो, सा थेरी ताए चेडीए तारिसे मम्मप्पएसे आहया जेण तक्खणमेव जीवियाओ वषरोविया, तेहिं तु दारएहिं सो कलहवइअरो णाओ, सणउलओ दिट्टो, धेरी गाढप्प-III हारा पाणविमुका निस्सहूं धरणितले पडिया विट्ठा, चिंति च हिं-इमो सो अवायबहुलो अ(ण)त्थोत्ति। दी एवं दवं अवायहेउत्ति ॥ लौकिका अप्याहु:-"अर्थानामजेने दुःखमर्जितानां च रक्षणे । आये दुःखं व्यये । दुःखं, धिम् द्रव्यं दुःखवर्धनम् ॥१॥ अपायबहुलं पापं, ये परित्यज्य संश्रिताः। तपोवनं महासत्यास्ते धन्यास्ते || तपस्विनः ॥ २॥” इत्यादि । एतावत्यकृतोपयोगि । तेओ तेसिं तमवायं पिच्छिऊण णिवेओ जाओ, तओ|8 तं दारियं कस्सइ दाऊण निविणकामभोआ पब्वइयत्ति गाथार्थः ॥ इदानी क्षेत्राद्यपायप्रतिपादनायाह १ मत्स्स आनीतः, या विदारयन्या नकुलको राष्टः, चेव्या चिन्तितम् - एष नकुलको ममैव भविष्यति इति उत्सझे कृतः, स्थाप्यमानव स्थविरया दृष्टो | ज्ञातच, तया भणितम्--किगेतत्त्वयोत्सङ्गे कृवम् ?, सापि लोभं गतान साधयति, ते द्वे अपि परस्परं प्रहते, सा स्थविर तया चेव्या तारशे मर्मप्रदेशे आहता, येन तरक्षणमेव जीविताद् व्यपरोपिता, ताभ्यां तु दारकाभ्यां स कलहत्यतिकरो हातः, स नकुलको दृष्टः, स्थदिरा गावप्रहारा प्राणविमुक्ता निसरी धरणीतले पतिता दृष्टा, चिन्तितं चाभ्याम्-अयं सोऽपायबाटुलोर्थ इति । एवं बव्यमपायहेतरिति. २ ततस्तयोस्तमपाय वा निवेदो जातः, ततस्ता दारिका कस्मैचिद्दत्वा निर्विष्णकामभोगौ प्रनजिताविति. दीप अनुक्रम [१] ~ 74~ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१६], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: दशवैका हारि-वृत्तिः १हुमपु प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१|| ॥३६॥ खेतमि अवलमणं दसारवगस्स होइ अवरेणं । दीवायणो अ काले भावे मंडुक्किआखवओ ॥५६॥ व्याख्या-तत्र क्षेत्र इति द्वारपरामर्शः, ततश्च क्षेत्रादपाया क्षेत्रमेव वा तत्कारणत्वादिति । तत्रोदाहरण-प्पिका मपक्रमणम्-अपसर्पणं 'दशारवर्गस्य' दशारसमुदायस्य भवति 'अपरेण' अपरत इत्यर्थः, भावार्थः कथान- द्रव्यापाकादवसेयः, तच वक्ष्यामः। द्वैपायनश्च काले द्वैपायनऋषिः, काल इत्यत्रापि कालादपाय: कालापायः काल याद्या आएव वा तत्कारणत्वादिति, अनापि भावार्थः कथानकगम्य एव, तच्च वक्ष्यामः । 'भावे मंडकिकाक्षपक' इत्य- हरणभेदाः त्रापि भावादपायो भावापायः स एव वा तत्कारणत्वादिति, अत्रापि च भावार्थः कथानकादवसेया, तब | वक्ष्याम इति गाथाक्षरार्थः ॥ भावार्थ उच्यते-खिंत्तापाओदाहरणं दसारा हरिवंसरायाणो एत्थ महई कहा| जहा हरिवंसे । उवओगियं चेव भण्णए, कंसंमि विणिवाइए सावायं खेत्तमेयंतिकाऊण जरासंधरायभएण दसारवग्गो महुराओ अवकमिऊण वारवई गओत्ति । प्रकृतयोजनां पुनर्नियुक्तिकार एव करिष्यति, किमकाण्ड एव नः प्रयासेन ? । कालावाए उदाहरणं पुण-कण्हपुच्छिएण भगवयाऽरिट्ठणेमिणा बागरियं-धारसहिं संवच्छरेहिं दीवायणाओ बारवईणयरीविणासो, उज्जोततराए णगरीए परंपरएण सुणिकण दीवायणपरि क्षेत्रापायोदाहरणम्-दशाहाँ हरिवंशराजानः, अत्र महती कथा, यथा हरिवंशे, औपयोगिकमेव भण्यते, कैसे विनिपातिते सापार्य क्षेत्रमेतदितिकृत्वा जरा- ॥३६॥ | सन्धराजभयेन दशाईचों मधुरातोऽपकम्य द्वारवती मत इति. २ कालापाये उदाहरणं पुनः कृष्णपृष्टेन भगवताऽरिष्टनेमिना व्याकृतम्-द्वादशभिः संवत्सरैपायनाद् द्वारवतीनगरी विनाशा, उद्योतवरायो नगर्यो परम्परकेण श्रुत्वा पायनपरिव्राजको दीप अनुक्रम ~ 75~ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं -1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१६], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक ब्वायओ मा णगरि विणासेहामित्ति कालावधिमण्णओ गमेमित्ति उत्तरावह गओ, सम्म कालमाणमयापणिऊण य चारसमे चेव संवच्छरे आगओ, कुमारेहिं खलीकओ, कयणिआणो देवो उववणो, तओ य णग-2 रीए अवाओ जाओत्ति, णपणहा जिणभासियंति । भावावाए उदाहरणं खमओ-एगो खमओ चेल्लएण समं माभिक्खायरियं गओ, तेण तत्थ मंडुक्कलिया मारिआ, चिल्लएण भणि-मंडुकलिआ तए मारिआ, खवगो भणइ-रे दुट्ट सेह! चिरमइआ चेव एसा, ते गआ, पच्छा रत्तिं आवस्सए आलोईताण खमगेण सा मंडुकलिया नालोइया ताहे चिल्लएण भणिों-खमगा! तं मंडुकलियं आलोएहि, खमओ रुहो तस्स चेल्लयस्स खेलमल्लयं घेतूण उडाइओ, अंसियालए खंभे आवडिओ बेगेण इंतो, मओ य जोइसिएसु उववन्नो, तओ चइत्ता दिट्ठीविसाणं कुले दिट्टीविमो सप्पो जाओ, तत्थ य एगेण परिहिंडतेण नगरे रायपुत्तो सप्पेण खइओ, अहितुंडएण विजाओ सब्वे सप्पा आवाहिआ, मंडले पवेसिआ भणिया-अपणे सव्वे गच्छंतु, जेण १मा नगरी विनिनशमिति (विनाशयिष्यामीति) कालावधिमन्यत्र गमनामीति उत्तरापथं गतः । सम्यकालमानमज्ञात्वा च द्वादशे चैव संवत्सरे आगतः, कुमारैरुपसर्गितः, कृतनिदानो देव उत्पन्नः, तत्तश्च नगर्या अपायो जात इति, नान्यथा जिनभाषितमिति. भावापाये उदाहरणं क्षपका-एका क्षपकः शिष्येण समर मिक्षाचर्या गतः, खेन तत्र मण्डकिका मारिता, शिष्येण भणियम् --मण्डूतिका त्वया मारिता, क्षपको भणवि-रे दुष्टक्षचिरमृत्यैषा, ती गती, पचावात्राबावश्यके आलोचयतां क्षपकेण सा मण्डूकिका नालोचिता तदा शिष्येण भणितम् . क्षपक! तो मर किकामालोचय, क्षपको स्टलमै शिष्याय, श्लेष्मनार गृहीत्वोद्धावितः, अंख्यालये स्तम्भे आपतितः वेगेनाऽऽयान, मृतत्र ज्योतिषकत्वनः, ततश्युवाधिविषाणां कुले रष्टिविषः सो जातः, वा चकेन परिहिण्डमानेन ४ नगरे राजपुषः सर्पण दष्टः, आहिण्डिकेन विद्यया स सर्पा आहूताः, मण्डले प्रवेशिता भणितार-अन्ये सर्व गच्छन्न, येन. दीप अनुक्रम [१] दश. ७ ~ 76~ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक / गाथांक |||| दीप अनुक्रम [1] 'दशवैका० हारि-वृत्तिः ॥ ३७ ॥ “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [१], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||१॥ निर्युक्ति: [५६], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [४२] मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः पुण रायपुत्तो खड़ओ सो अच्छउ, सब्बे गया, एगो ठिओ, सो भणिओ-अहवा विसं आविग्रह अहवा एत्थ अग्गिमि णिवडाहि, सो अ अगंधणो, सप्पाणं किल दो जाईओ-गंधणा अगंधणा य, ते अगंधणा माणिणो, ताहे सो अरिंगमि पविट्ठो, ण य तेण तं वतं पञ्चाइयं, रायपुत्तोवि मओ, पच्छा रण्णा रुट्टेण घोसावियं रज्जे-जो मम सप्पसीसं आणेइ तस्साहं दीणारं देमि, पच्छा लोगो दीणारलोभेण सप्पे मारेडं आढतो, तं च कुलं जत्थ सो खमओ उप्पन्नो तं जाइसरं रतिं हिंडर दिवसओ न हिंडइ, मा जीवे दहेहामित्तिकाएं, अण्णया आहितुंडिगेहिं सप्पे मग्गंतेहिं रतिंचरेण परिमलेण तस्स खमगसप्पस्स बिलं दिति दारे से ठिओ, ओसहिओ आबाहेर, चिंतेइ दिट्ठो मे कोवस्स विवाओ, तो जड़ अहं अभिमुहो णिगच्छामि तो दहिहामि, ताहे पुच्छेण आढत्तो निम्फिडिजं, जन्तियं निष्फेडेइ तावइयमेव आहिंडओ छिंदेह, जाव सीसं छिपणं, मओ य, सो सप्पो देवयापरिग्गहिओ, देवयाए रण्णो सुमिणए दरिसणं दिण्णं-जहा मा १ पुना राजपुत्रो दष्टः स तिष्ठतु सर्वे गताः एकः स्थितः स भणितः अथवा विनापित, अथवा ग्रामीनिषत, सागन्धनः सर्पाणां किल जातीगन्ना अगन्धा च ते अगन्धना मानिनः, तदा सोऽमी प्रविष्टः न च तेन तद्वान् प्रथापीतं राजपुत्रोऽपि सुतः, पञ्चाद्राज्ञा स्टेन पोषितं राज्ये यो मम सर्पशमानयेत् तस्माय दीनारं ददामि पश्चालोको दीनारलोभन सपन मारयितुमाहतः, तब कुलं यत्र स क्षपक उत्पातिर रात्री हिण्डते दिवसे न हिण्डते, मा जीवान् धाक्षमितिकृत्वा अन्यदाहितुण्डः सर्पान् मार्गयद्भिः रात्रिचरेण परिमलेन तस्य क्षपकसर्पस्य बिलं दृष्टमिति द्वारे तस्य स्थितः औषधित आह्वयति, चिन्तयति रथे मया कोपा विपाकः ततो यथमभिमुखो निगच्छामि तदा पक्ष्यामि ततः पुच्छेनादृतो निःस्फिटितुं यावभिस्फिति तावदेवाहितुण्डिक निति वच्छी छिनं, तब स सप देवता परिगृहीतः देवतया राज्ञः स ददर्शनं दत्तं यथा मा. For ane & Personal Use Oily ~77 ~ १ द्रुमपु ष्पिका० द्रव्याद्या अपायाः ॥ ३७ ॥ brary of Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक गाथांक |||| दीप अनुक्रम [1] “दशवैकालिक" - मूलसूत्र 3 (मूलं+निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) (मूलं+निर्युक्तिः+|भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्तिः [ ५६ ], भाष्यं [-1 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः ------- सप्पे मारेह पुतो ते नागकुलाओ उच्चहिऊण भविस्सर, तस्स दारयस्स नागदत्सनामं करेजाहि सो अ खमगसप्पो मरिता तेण पाणपरिचाएण तस्सेव रण्णो पुत्तो जाओ, जाए दारए णामं कथं नागदत्तो, खुड्डलओ चैव सो पञ्चइओ, सो अ किर तेण तिरियाणुभावेण अतीव छुहालुओ, दोसीणवेलाए चेव आडवे | भुंजिडं जाव सूरत्थमणवेलं, उबसंतो धम्मसद्धिओ य, तम्मि अ गच्छे चत्तारि खमगा, तंजहा- चाउम्मासिओ तिमासिओ दोमासिओ एगमासिओत्ति, रतिं च देवया बंदिडं आगया, चाउम्मासिओ पढमडिओ, तस्स पुरओ तेमासिओ, तस्स पुरओ दोमासिओ, तस्स पुरओ एगमासिओ, ताण य पुरओ खुट्टओ। सच्चे खमगे अतिकमित्ता ताए देवयाए खुड्डुओ बंदिओ, पच्छा ते खमगा रुट्ठा, निरगच्छंती अ गहिया चाउम्मासिअखमएण पोत्ते, भणिआ य अणेण कडवूयणि! अम्हे तवस्णिो ण बंदसि, एयं कूरभाषणं बंदसित्ति, सा देवया भणइ अहं भावत्वमयं वंदामि, ण आसकारपरे माणिओ अ वंदामि, पच्छा ते चेल्लयं तेण अमरिसं १ सर्पान् भारय पुत्रस्ते नागकुलादुदयै भविष्यति, तस्य दारकस्य नागदतनाम कुर्याः स च क्षपकसप गुत्वा तेन प्राणपरित्यागेन तस्यैव राज्ञः पुत्रो जात, जाते दारके नाम कृतं नागदत्तः, हक एव स प्रमजितः स च किल तेन तिर्यगनुभावेनातीय क्षुधाः, प्रभातवेलायामेवाद्रियते भोक्तुं यावत्सूर्यास्वमयन वेला, उपशान्ती धर्मधद्धिकख । तस्मिन् गच्छे चत्वारः क्षपकास्तथा चातुर्मासिकमाविको द्वैमासिक एकमासिक इति, रात्रौ च देवता वन्दितुमागता. रविण रात्रिसकेन वि० प० चातुर्मासिकः प्रथमः स्थितः तस्य पुरतः त्रैमासिकः तस्य पुरतो द्वैमासिकः तस्य पुरत एकमाशिकः तेषां च पुरतः शुलकः । सर्वान् क्षपकानतिक्रम्य तथा देवता को वन्दितः पचाते क्षपका रुष्टाः, निर्गच्छन्ती च गृहीता चातुर्मासिकेन पोते, भणिता चानेनकटपूतने! अस्माँसापखिनो न वन्दले एनं करभाजनं वन्दस इति सा देवता भणति अहं भावक्षपकं वन्दे, न पूजासत्कारपरान् मानिन बन्दे पञ्चासे काय तेनाम. For ane & Personal Use Oly ~78~ brydig Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं -1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१६], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ 5555 गाथांक A - - दशका०1विहंति, देवया चिंतेइ-मा एए चेल्लयं खरंटेहिंति, तो सपिणहिआ चेव अच्छामि, ताहं पडियोहेहामि. १दुमपुहारि-वृत्तिः बितिअदिवसे अचेल्लओ संदिसावेऊण गओ दोसीणस्स, पडिआगओ आलोइत्ता चाउम्मासियखमग पिका राणिमंतेइ, तेण पडिग्गहे से णिच्छूढ़, चेल्लओ भणइ-मिच्छामिदुक्कडं जं तुम्भे मए खेलमल्लओ ण पणामिओ. ॥३८॥1 द्रव्याद्य तं तेण उप्पराज व फेडित्ता खेलमल्लए छुटं, एवं जाव तिमासिएणं जाव एगमासिएणं णिच्ढे, तं तेण| पाया: तहा चेव फेडिअं, अडयालिसा लंबणे गिण्हामित्तिकाउं खमएण चेल्लओ वाहं गहिओ, तं तेण तस्स चेल्लगस्स अदीणमणसस्स विसुद्धपरिणामस्स लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं तदावरणिजाणं कम्माणं खएण| | केवलनाणं समुप्पपणं, ताहे सा देवया भणइ-किह तुम्भे वंदिअव्वा? जेणेवं कोहाभिभूआ अच्छह, ताहे ते | Kखमगा संवेगमावपणा मिच्छामिदुक्कडंति, अहो बालो उवसंतचित्तो अम्हेहिं पावकम्मेहिं आसाइओ, १ वहन्ति, देवता चिन्तयति-मैते क्षुतकं निर्भतयिष्यन्ति, ततः सनिहितैव तिष्ठामि, तदाऽहं प्रतिबोधयिष्यामि, द्वितीय दिवसे चकः संदिश्य गतः पर्युषिताय, प्रयागत आलोच्य चातुर्मासिकक्षपक निमन्त्रवति, तेन पतबहे तस्य श्रेष्म नितम् , धुलको भणति-मिथ्या मे दुष्कतं यक्षुभ्यं मया श्रेष्ममाको न दत्तः, तत्तेनोपरित एव स्फेटयित्वा ममतके क्षिप्तम्, एवं यावत् त्रिमासिकेन यावदेकमासिकेन निक्षित, सतेन तथैव फेदितम् , आश्रित्य(बलात्कार कृत्वा) लम्बनान् हामीतिकरवा क्षपकेन को बाही गृहीता, तदा तेग तख शुशकस्यादीनमनसो विशुग्यमानपरिणामस्य लेश्यामिश्रिव्यमानाभिस्तदावरणीयानां कर्मणां क्षयेण फेवलज्ञानं समुत्पर्य, तदा सा देवता भणति-कये यूयं बन्दितव्याः । येनैवं कोधानिभूतास्तिष्टथ, तदा ते क्षपकाः संयमापना मिथ्या मे तुम्कृत-X॥३८॥ मिति, महो पास उपशान्तचित्तोऽसाभिः पापकर्मभिराशातितः,एवं तेषामपि शुभाध्यषसानेन केवलज्ञानं समुत्पत्रम् . दीप अनुक्रम ~ 79~ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१६], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक एवं तेसिपि सुहझवसाणेणं केवलनाणं समुप्पण्णं, एवं पसंगओ कहियं कहाणय, उवणओ पुण कोहादिगाओ अपसस्थभावाओ दुग्गइए अवाओ ति ॥ परलोकचिन्तायां प्रकृतोपयोगितां दर्शयन्नाह सिक्खगभसिक्खगाणं संवेगविरहयाइ दोण्हपि । दव्वाईया एवं दंसिजते अवाया उ ।। ५७।। व्याख्या-शिक्षकाशिक्षकयोः' अभिनवप्रवृजितचिरप्रवजितयोः अभिनवप्रवजितगृहस्थयो संवेगस्थै-14 या द्वयोरपि द्रव्याचा 'एवम्' उक्तेन प्रकारेण वक्ष्यमाणेन वा दयन्ते अपाया इति, तत्र संवेगो-मोक्षसुखाभिलाषः स्थैर्य पुनः अभ्युपगतापरित्यागः, ततश्च कथं नु नाम दुःख निवन्धनद्रव्यायवगमात्तयोः संवेलगस्थैर्ये स्यात? द्रव्यादिषु चाप्रतिबन्ध इति गाधार्थः ॥ तथा चाह दविरं कारणगहि विगिंचिभम्बमसिवाइखेत्तं च । वारसहिं एस्सकालो कोहाइविवेग भावम्मि ।। ५८ ॥ Bा व्याख्या-इहोत्सर्गतो मुमुक्षुणा द्रव्यमेवाधिकं वस्त्रपात्राद्यन्यद्वा कनकादि न पाद्य, शिक्षकाहिसंदिष्टादिकारणगृहीतमपि तत्परिसमाप्तौ परित्याज्यम् , अत एवाह-द्रव्यं कारणगृहीतं, किम् ! 'विकिंचितव्यं परित्याज्यम् , अनेकैहिकामुष्मिकापायहेतुत्वात्, दुरन्ताग्रहाद्यपायहेतुता च मध्यस्थैः खधिया भावनीयेति । एवमशिवादिक्षेत्रं च, परित्याज्यमिति वर्तते, अशिवादिप्रधानं क्षेत्रमशिवाविक्षेत्रम्, आदिशब्दादूनोदरताराजद्विष्टादिपरिग्रहः, परित्याज्यं चेदमनेकैहिकामुष्मिकापायसम्भवादिति । तथा द्वादशभिर्वषैरेष्यत्काला, १ एवं (तत्) प्रसङ्गतः कथितं कथानकम् , उपनयः पुनः क्रोधादिकात, अप्रशस्वभावात् दुर्गतेषाय दति. दीप अनुक्रम [१] ~80~ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [५८], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक दीप अनुक्रम दशवैका परित्याज्य इति पर्सते, तत एवापायसम्भवादिति भावना, एतदुक्तं भवति-अशिवाविदुष्ट एष्यत्काल दुमपुहारि-वृत्तिकाद्वादशभिर्वरनागतमेवोज्झितथ्य इति, उक्तं च-"संवैच्छरवारसरण होहिति असिवंति ते तओ णिति ।। पिका सुत्सत्थं कुब्वंता अतिसयमादीहिं नाऊणं ॥१॥” इत्यादि । तथा 'क्रोधादिविवेको भाव' इति क्रोधादयोऽ- द्रव्याद्या प्रशस्तभावास्तेषां विवेक:-नरकपातनाद्यपायहेतुत्वात्परित्यागः, भाव इति-भावापाये, कार्य इत्ययं गाथार्थः॥ | अपाया: एवं तावद्वस्तुतश्चरणकरणानुयोगमधिकृत्यापायः प्रदर्शितः, साम्प्रतं द्रय्यानुयोगमधिकृत्य प्रदर्यते बबादिएहिं निचो एगंतेणेव जेसि अप्पा उ । होइ अभावो तेसिं सुद्दयुएसंसारमोक्खाणं ।। ५९ ॥ I व्याख्या-'द्रव्यादिभिः' द्रव्यक्षेत्रकालभावैः नारकत्वविशिष्टक्षेत्रवयोऽवस्थितखाप्रसन्नत्वादिभिः 'नित्यः । वि अविचलितखभावः 'एकान्तेनैव' सर्वथैव 'येषां वादिनाम् 'आत्मा' जीवः तुशब्दादन्यच वस्तु भवति संजायते 'अभावः' असंभवः 'तेषां वादिनां केषाम् ?-'सुखदु:खसंसारमोक्षाणाम् तत्राहादानुभवरूपं क्षणं सुखम् , तापानुभवरूपं दुःखम् , तिर्यग्नरनारकामरभवसंसरणरूपः संसारः, अष्टप्रकारकर्मवन्धवियोगो मोक्षः, तत्र कथं पुनस्तेषां वादिनां सुखायभावः?, आत्मनोऽप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकखभावत्वाद्, अन्यथाहै त्वापरिणतेः सदैव नारकत्यादिभावादू, अपरित्यक्ताप्रसन्नवे पूर्वरूपस्य च प्रसन्नत्वेनाभवनादू, एवं शेष-15 प्वपि भावनीयमिति गाथार्थः । ततश्चैवम् १ संवत्सरदादा केन भविष्यति अशिवमिति ते तसो निर्यान्ति । सूत्रार्थ कुर्वन्तोऽतिशयादिभिज्ञोत्या ॥१॥ - [१] ॥३९॥ र JamEachan ~81~ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं -1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [६०], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ RECEBCASSASCHOOT गाथांक सुहदुक्खसंपओगो न विजई निचवायपक्खंनि । एगंतुच्छेअंमि अ सुहदुक्सविगप्पणमजुत्तं ॥ ६॥ व्याख्या-मुखदःखसंप्रयोगः, सम्यक संगतो वा प्रयोगः संप्रयोगः अकल्पित इत्यर्थः 'न विद्यते नास्ति। न घटत इत्यर्थः, क?-'नित्यवादपक्षे नित्यवादाभ्युपगमे संप्रयोगो न विद्यते, कल्पितस्तु भवत्येव, यथाऽऽहुनित्यवादिन:-"प्रकृत्युपधानतः पुरुषस्य सुखदुःखे स्त:, स्फटिके रक्ततादिवद बुद्धिप्रतिबिम्बाद्वाऽन्ये" इति, क-13 ल्पितत्वं चास्य आत्मनस्तत्वत एव तथापरिणतिमन्तरेण सुखाद्यभावाद् उपधानसन्निधावप्यन्धोपले रक्ततादिवत्, तदभ्युपगमे चाभ्युपगमक्षतिः, बुद्धिप्रतिबिम्बपक्षेऽप्यविचलितस्यात्मनः सदैवैकखभावत्वात् सदैवैकरूपप्रतिविम्यापत्तेः, स्वभावभेदाभ्युपगमे चानित्यत्वप्रसङ्ग इति । मा भूदनित्यैकान्तग्रह इत्यत आह'एकान्तेन' सर्वथा उत्-प्राबल्येन छेदो-विनाशः एकान्तोच्छेदः-निरन्वयो नाश इत्यर्थः, असिम किम् ?-सुखदुःखयोर्विकल्पनं सुखदुःखविकल्पनम्, 'अयुक्तम् अघटमानकम् , अयमन भावार्थ:-एकान्तोच्छेदेऽपि सुखायनुभवितुस्तत्क्षण एवं सर्वथोच्छेदादहेतुकत्वात्तदुत्तरक्षणस्योत्पत्तिरपि न युज्यते, कुतः पुनस्तद्विकल्पनमिति गाथार्थः ॥ उक्तोऽपायः, साम्प्रतमुपाय उच्यते-तत्रोप-सामीप्येन (आय.) विवक्षितवस्तुनोऽविकललाभहेतुखाद्वस्तुनो लाभ एवोपाय:-अभिलषितवस्त्ववाप्तये व्यापारविशेष इत्यर्थः, असावपि चतुर्विध एव, तथा चाह एमेव चउविगप्पो होइ उवाओऽवि तत्थ दब्बंमि । धातुब्बाओ पलमो नंगल कुलिपहि खेत्तं तु ॥ ६१ ॥ R-54 दीप अनुक्रम [१] ~82~ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [६१], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक दीप अनुक्रम दशवैका व्याख्या-'एवमेव' यथा अपाय:, किम् ?-चतुर्विकल्प चतुर्भेदः भवत्युपायोऽपि, तद्यथा-द्रव्योपायः हारि-वृत्ति क्षेत्रोपायः कालोपायः भावोपायच, तत्र 'द्रव्य' इति द्वारपरामर्शः द्रव्योपाये विचार्ये 'धातुर्वाद' सुवर्णपात-13 पिका दिनोत्कर्षलक्षणो द्रव्योपायः 'प्रथम' इति लौकिका, लोकोत्तरे त्वध्यादौ पर्टलादिप्रयोगतः प्रासुकोदककरणम् , ॥४०॥ द्रव्याचा क्षेत्रोपायस्तु लागलादिना क्षेत्रोपक्रमणे भवति, अत एवाह-लाङ्गलकुलिकाभ्यां क्षेत्रम्' उपक्रम्यत इति । उपायाः गम्यते, ततश्च लाङ्गलकुलिके तदुपायो लौकिका, लोकोत्तरस्तु विधिना प्रातरशनाद्यर्थमटनादिना क्षेत्रभाव-8 नम्, अन्ये तु योनिमाभृतप्रयोगतः काञ्चनपातनोत्कर्षलक्षणमेव सङ्घातप्रयोजनादी द्रव्योपायं व्याचक्षते, विद्यादिभिश्च दुस्तराध्वतरणलक्षणं क्षेत्रोपायमिति । अत्र च प्रथमग्रहणपदार्थोऽतिरिच्यमान इवाभाति, पाठान्तरं वा 'धाउब्वाओ भणिओत्ति अत्र च कथञ्चिदविरोध एवेति गाथार्थः॥ कालो अनालियाइहि होइ भावमि पंडिओ अभओ । चोरस्स कए नर्स्टि वडकुमारि परिकहेइ ।। ६२ ।। व्याख्या-कालश्च नालिकादिभिः ज्ञायत इति शेषः, नालिका-घटिका आदिशब्दाच्छवादिपरिग्रहः, ततश्च नालिकादयः कालोपायो लौकिका, लोकोत्तरस्तु सूत्रपरावर्तनादिभिस्तथा भवति, "भावे' चेति द्वारपरामर्शवाद्भावोपाये विचार्य निदर्शनं, क इत्याह-'पण्डितों विद्वान् 'अभयः' अभयकुमारस्तथा चाह-चौर-13 निमित्तं नर्तक्यां (नाब्ये) वह (वृद्ध) कुमारी, किम् ?, त्रिकालगोचरसूत्रप्रदर्शनार्थमाह-परिकथयति, त- ॥४०॥ १ तकखरण्टितचीग्रादि वि. प्र. 4G+CCTIMROSC JanEditor ~83~ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [६२], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक दीप अनुक्रम तश्च पथा तेनोपायतश्चौरभावो विज्ञातः एवं शिक्षकादीनां तेन तेन विधिनोपायत एव भावो ज्ञातव्य इति गाथार्थः ॥ नवरं भावोवाए उदाहरण-रायगिह णाम णयर, तत्थ सेणिओ राया, सो भजाए भणिओ जहा। मम एगखंभं पासायं करेहि, तेण वहइणो आणत्ता, गया कट्ठच्छिदगा, तेहिं अडवीए सलक्षणो सरलो महइमहालओ दुमो विट्ठो, धूवो दिण्णो, जेणेस परिग्गहिओ रुक्खो सो दरिसावेउ अप्पाणं, तो णं ण छिंदामोत्ति, अहण देइ दरिसावं तो छिंदामोत्ति, ताहे तेण रुक्खवासिणा वाणमंतरेण अभयस्स दरिसावो दिपणो, अहं रपणो एगखंभं पासायं करेमि, सब्वोउयं च आरामं करेमि सव्ववणजाइउवेयं, मा छिंदहत्ति, एवं तेण कओ पासाओ। अन्नया एगाए मायंगीए अकाले अंबयाण दोहलो, सा भत्तारं भणइ-मम अययाणि आणेहि, तदा अकालो अंबयाणं, तेण ओणामिणीए विजाए डालं ओणामियं, अंबयाणि गहिआणि, पुणो अ उपणमणीए उपणामियं, पभाए रण्णा दिट्ट, पयं ण दीसह, को एस मणुसो अतिगओ,? भाषोपाये उदाहरण राजगह नाम नगर, तत्र गिको राजा, स भार्यया भगितः-या ममैकस्तम्भ प्रासादं कारय, तेन वर्षकिन भावप्ताः, गताः काष्ठच्छे. दकाः (काष्ठानि छेतुं), तैरटब्यो सलक्षणः सरलो महाऽतिमहालयो हुमो रयः,धूपी दत्तः, येनैष परिगृहीतो वृक्षः स दर्शयत्यारमानं, उदा एनं न छिन्यः इति, अध न दास्यथ दर्शनं तदा छेत्स्याम इति, तदा तेन वृक्षवासिना व्यन्तरेणाभयाय दर्शनं दत्तम् अहं राज्ञ एकस्वम्भ प्रासादं करोमि सर्व कं चारामं करोमि सर्वचनजात्युपेतं, मा छिन्धि (छेत्सीः) इति, एवं तेन कृतः प्रासादः । अन्यदैकस्या मातनया मकाले दोहद आत्राणाम् , सा भत्तार भणति-मामामानानय, तदाऽकाल आम्रागी, तेनावनामिन्या नियया शाखाऽवनामिता मामा गृहीताः पुनधोनामिन्योनामिता, प्रभाते राशा दष्ट, पदानि न दृश्यन्ते, क एष भन्योऽतिगतः ।, [१] ~84~ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [६२], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक दीप अनुक्रम दशबैका | जस्स एसा एरिसी सत्तित्ति सो मम अंतेउरंपि धरिसेहित्तिकाउं अभयं सदावेऊण भणइ-सत्तरत्तस्स ा१दुमपुहारि-वृत्तिः अभंतरे जंइ चोरं णाणेसि तो णस्थि ते जीवि। ताहे अभओ गवेसिडे आढत्तो, णवरं एगमि पएसे|| | पिका गोजो रमिउकामो, मिलिओ लोगो, तत्थ गंतुं अभओ भणति-जाव गोजो मंडेइ अप्पाणं ताव ममेगं अ- 'पद्रव्याद्या ॥४१॥ क्खाणगं सुणेह जहा कहिंपि णयरे एगो दरिद्दसिट्ठी परिवसति, तस्स धूया वुडकुमारी अईव रूविणी य, उपायाः स्वरणिमित्तं कामदेवं अधेड, सा य एगमि आरामे चोरिए पुप्फाणि उचेती आरामिण विट्ठा, कयत्थिउमा उत्सा, तीए सो भणिओ-मा मई कुमारि विणासेहि, तवावि भयणीभाणिज्जीओ अस्थि, तेण भणिआ-एकाए ववत्थाए मुयामि, जइ णवरं जम्मि दिवसे परिणेजसि तद्दिवसं चेव भत्तारेण अणुग्घाडिया समाणी मम सयासं एहिसि तो मुयामि, तीए भणिओ-एवं हवउत्ति, तेण विसजिआ अन्नया परिणीआ, १ यस्दशी शकिरिवि स ममान्तःपुरमपि वर्षयति इतिकरवाऽभव पादयित्वा भणति. सतरावस्याभ्यन्तरे यदि थोर नानयसि तदा ते नाति जीवितम् । | तदाऽभयो गवेषयितुमाइतः, भयरमेकस्मिन् प्रदेशे नतशे रस्तुकामः, मिलितो लोकः, तत्र गत्वाऽभयो भणति यावतको मण्डयति आत्मानं तावन्ममैकमाख्यान | शृणुत यथा कस्लिमपि नगरे एको दरिदश्रेष्ठी परिषराति, वम पुत्री वृद्धकुमारी अतीक रूपिणी च, बरनिमित्तं कामदेवमर्चगति, सा पैकस्मिनाराने चौर्या पुष्पाण्युचिन्यती आरामि केण राधा, कयार्थितुमारब्धा, तया स भहीत:--मा मा कुमारी बिनाशय, तथापि भगिनीभागिनेण्यः सन्ति, तेन भणिता-एकया व्यवस्थया | ॥४१॥ मुच्चामि याद पर यसिन दिवस परिणयसि तमिव दिवसे भोऽनुचारिता सती मम सकाशमायास्य सि तदा मुच्चामि, तथा मणितः-एवं भवत्पिति, तेन ।" | विस्था अन्यदा परिणीता. [1] JamEacabouTO ~85~ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं -] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [६२], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: 494 प्रत सूत्रांक/ गाथांक जाहे अपवरके पवेसिआ ताहे भत्तारस्स सम्भावं कहेइ, विसजिया बच्चा, पट्ठिया आराम, अंतरा अ चोरेहि गहिया, तेसिंपि सम्भावो कहिओ, मुका, गच्छंतीए अंतरा रक्खसो विट्ठो, जो छपहं मासाणं आहारेइ, तेण गहिया, कहिए मुक्का, गया आरामियसगासं, तेण दिट्ठा, सो संभंतो भणइ-कहमागयासि,ताए भणिअं-४ मया कओ सो पुदिव समओ, सो भणइ-कहं भत्तारेण मुक्का?, ताहे तस्स तं सव्वं कहिअं, अहो सचपइन्ना एसा महिलत्ति, एत्तिएहिं मुक्का किहाहं दुहामित्ति तेण विमुका, पडियंती अ गया सब्वेसिं तेसिं मज्झेणं, आगता तेहिं सब्वेहिं मुक्का, भत्तारसगासं अणहसमग्गा गया । ताहे अभओ तं जणं पुच्छइ-अक्खह एत्थ केण दुर कर्य?, ताहे इस्सालुया भणति-भत्तारेणं, छुहालुया भणंति-रक्खसेणं, पारवारिया भणंति-माला दीप अनुक्रम [१] १ यदाऽपवरकं प्रविष्टा तदा भतुंः सद्भावं कथयति, विनष्टा बजति, प्रस्थिताऽऽराममन्तरा व धोरग्रहीता, तेभ्योऽपि सद्भावः कथितः, मुका, गच्छन्यान्तरा राक्षसो राष्टः, या पह्निमसिराहारयति, तेन गृहीता, कथिते मुक्ता, गताऽऽरामिकस काशं, तेन दृशश, स सम्भ्रान्तो भणति-कथमागताऽसि ?, तया भणितम् -मया कृतः स पूर्व समगः (सोतः), स भणनि-कथं भा मुक्ता ! सदा तस्मै तत्सर्व कवितम् , अहो सत्यप्रतिषा महिलेति, इयनिमुक्ता कथमहं दूषयामि ! इति तेनापि मुका, प्रतिवान्ती च गता सर्वेषां तेषां मध्येन, आगया ससौमुंका, भर्तुः सकाशमनषखमार्गा गता। तदाऽभयवान् जनान् पृच्छतिआख्यातात्र केन दुष्कर कृतं । तदा देयोलका भणन्ति-भा, वालुका भणन्ति-राक्षसेन, पारदारिका भणन्ति-मालाकारेण, हरिकेशेन भणितम्चौरैः, पचास गृहीतः यथेष चीर इति । ~86~ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक / गाथांक |||| दीप अनुक्रम [१] दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ ४२ ॥ “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||१॥ निर्युक्ति: [६२], अध्ययनं [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित भाष्यं [-] आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः गारेणं, हरिएसेण भणिअं-चोरेहिं पृच्छा सो गरिओ, जहा एस चोरोति । एतावत्प्रकृतोपयोगि । जहा अभएण तस्स चोरस्स उवाएण भावो णाओ एवमिहवि सेहाणमुवहायंतयाणं उवाएण गीअत्थेण विपरिणामादिणा भावो जाणिअब्वोत्ति, किं एए पव्वावणिज्या नवत्ति, पश्वाविएसुवि तेसु मुंडावणाइसु एमेव विभासा, यदुक्तम्- “पन्वाविओ सियत्ति अ मुंडावेडं न कप्पइ" इत्यादि । कहाणयसंहारो पुण-चोरो सेणियस्स उवणीओ, पुच्छिएण सम्भावो कहिओ, ताहे रष्णा भणियं जडू नवरं एयाओ विज्ञाओ देहि तो न मारेमि, देमित्ति अब्भुवगए आसणे हिओ पढई, न ठाई, राया भाई-किं न ठाई ?, ताहे तं मायंगो भइजहा अविणएणं पढसि, अहं भूमीए तुमं आसणे, णीयतरे उबविट्ठो, ठियातो सिद्धाओ य विज्जाओति कृतं प्रसङ्गेन । एवं तावल्लौकिकमर्थाक्षिप्तं चरणकरणानुयोगं चाधिकृत्योक्ता द्रव्योपायादयः, साम्प्रतं द्रव्यानुयोगमधिकृत्य प्रदइर्यन्त इति । तत्राप्युपायदर्शनतो नित्यानित्यैकान्तवादयोः सुखादिव्यवहाराभावप्रसङ्गेन तथा प्रत्यक्षगोचरातिक्रान्तेश्व वस्तुत आत्माभाव एवेति मा भूच्छिष्यकाणां मतिविभ्रमोत उपायत एवात्मास्तित्वमभिधातुकाम आह १] यथाऽभयेन तस्य चरखोपावेन भावो ज्ञातः एवमिहापि शैक्षकाणामुपस्थाप्यमानानामुपायेन गीतार्थेन विपरिणामादिना भायो ज्ञातव्य इति किमेते प्रज्ञाजनीया नवेति प्रन्नाजितेध्वपि तेषु मुण्डनादिषु एवमेव विकल्पः (विभाषा ) “प्राजितः स्यादिति व मुण्डयितुं न कल्पते" कथानकसंहारः पुनः चौरा शिकायोपनीतः, पृष्ठेन सद्भावः कथितः, तदा राज्ञा भणितं यदि नवरमेते विये ददासि तदा न मारवामि, बदामीत्यभ्युपगते आसने स्थितो भणति, न तिष्ठतः, राजा भणति किं न तिष्ठतः तदा तं मातशे भणति यथा अविनयेन पठसि अहं भूमी स्वमासने, नीचतरे उपविष्टः स्थिते सिद्धे च विये इवि. For ane & Personal Use Oily ~87~ १ द्रुमपु ष्पिका० द्रव्याचा उपायाः ॥ ४२ ॥ brary dig Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक/ गाथांक |||| दीप अनुक्रम [1] दश. ८ “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) अध्ययनं [१], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||१॥ आगमसूत्र - [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः निर्युक्ति: [६३], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित एवं तु इद्दं आया पश्चक्खं अणुवलब्भमाणोऽवि । सुहदुक्खमाइएहिं गिझर हे ऊहिं अस्थित्ति ॥ ६३ ॥ व्याख्या - एवमेव यथा धातुवादादिभिर्ब्रव्यादि 'ह' अस्मिँल्लोके 'आत्मा' जीवः 'प्रत्यक्ष'मिति तृतीयार्थे द्वितीया प्रत्यक्षेण 'अनुपलभ्यमानोऽपि' अदृश्यमानोऽपि 'सुखदुःखादिभिः' आदिशब्दात् संसारपरिग्रहो गृह्यते 'हेतुभिः' युक्तिभिः 'अस्ति' विद्यत इति एवं गृह्यते, तथाहि सुखदुःखानां धर्मत्वाद्धर्मस्य चावश्यमनुरूपेण धर्मिणा भवितव्यं न च भूतसमुदायमात्र एव देहोऽस्यानुरूपो धर्मी, तस्याचेतनत्वात् सुखादीनां च चेतनत्वादिति, अत्र बहु वक्तव्यमिति गाथार्थः ॥ जह वस्साओ हल्थि गामा नगरं तु पाउसा सरयं । ओदइयाउ उवसमं संकंती देवदत्तस्स ॥ ६४ ॥ व्याख्या -यथा 'वेति प्रकारान्तरदर्शने 'अश्वात्' घोटकात् 'हस्तिनं' गजं ग्रामात् नगरं तु प्रावृषः शरदं | प्रावृट्कालाच्छरत्कालमित्यर्थः, औदधिकाद् भावाद 'उपशम' मित्योपशमिकं 'संक्रान्ति:' संक्रमणं सङ्क्रान्तिः कस्य ? – देवदत्तस्य प्रत्यक्षेणेति शेषः ॥ एवं स जीवस्सवि दव्वाईसंक्रमं पहुचा उ । अस्थित्तं साहिज्जइ पञ्चस्त्रेण परोक्खपि ।। ६५ ।। व्याख्या- 'एवं' यथा देवदत्तस्य तथा, किम् ? - 'सतो' विद्यमानस्य जीवस्यापि द्रव्यादिषु संक्रमः, आदिशब्दात् क्षेत्रकालभावपरिग्रहः, तं 'प्रतीत्य' आश्रित्य 'अस्तित्वं' विद्यमानत्वं 'साध्यते' अवस्थाप्यते । आहसतोऽस्तित्वसाधनमयुक्तम्, न, अच्युत्पन्नविप्रतिपन्नविषयत्वात् साधनस्य, 'प्रत्यक्षेण' अश्वादिसंक्रमण, स For ane & Personal Use City ~88~ nbrary dig Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक / गाथांक |||| दीप अनुक्रम [१] दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ ४३ ॥ “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||१॥ निर्युक्ति: [६५], अध्ययनं [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित भाष्यं [-] आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः सर्वथा साक्षात्परिच्छित्तिमङ्गीकृत्य 'परोक्षमपि' अप्रत्यक्षमपि, अवग्रहादिखसंवेदनतो लेशतस्तु प्रत्यक्षमेवैतत् एतदुक्तं भवति यथा अश्वादिसङ्कान्तिर्न देवदत्ताख्यं धर्मिणमतिरिच्य वर्त्तते, एवमियमप्यौदारिकाद्वैक्रिये तिर्यग्लोकादूर्ध्वलोके परिमितवर्षायुष्क पर्यायादपरिमितवर्षायुष्कपर्याये चारिभावादविरतभावे च सङ्का|न्तिर्न जीवाख्यं धर्मिणमन्तरेणोपपद्यत इति वृद्धा व्याचक्षते । अन्ये तु द्वितीयगाथापश्चार्द्ध पाठान्तरतोऽन्यथा व्याचक्षते तत्रायमभिसम्बन्धः, – 'एवं तु इहं आयें त्यादिगाथयोपायत एवात्मास्तित्वमभिधायाधुनोपायत एवं सुखदुःखादिभावसङ्गतिनिमित्तं नित्यानित्यैकान्त पक्षव्यवच्छेदेनात्मानं परिणामिनमभिधित्सुराह--'जहवस्साओ' गाथाव्याख्या पूर्ववत् ॥ एवं स जीवरसवि दबाईसंकर्म पडुच्चा उ परिणामी साहिज पथक्त्रेणं परोकखेचि ॥ ६६ ॥ पूर्वार्द्ध पूर्ववत्, पश्चार्द्धभावना पुनरियम्-न ह्येकान्तनित्यानित्यपक्षपोईष्टाऽपि द्रव्यादिसङ्क्रान्तिर्देवदत्तस्य युज्यते इत्यतस्तद्भाचान्यथानुपपत्त्यैव परिणामसिद्धेरिति, उक्तं च- "नार्थान्तरगमो यस्मात् सर्वथैव न चागमः । परिणामः प्रमासिद्ध, इष्टश्च खलु पण्डितैः ॥ १ ॥ घटमौलि सुवर्णार्थी, नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥ २ ॥ पयोव्रतो न दध्यत्ति, न पयोऽत्ति दधिव्रतः । अगोरसवतो नोभे, तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् ॥ ३ ॥” इति गाथाद्वयार्थः । उक्तमुपायद्वारमधुना स्थापनाद्वारमनिधित्सुराहठवणाकम्मं एक विडंतो तरथ पोंडरीअं तु । अहवाऽवि सन्नढकणहिंगुसिवकयं उदाहरणं ॥ ६७ ॥ For ane & Personal Use City ~89~ १ दुमपु ष्पिका० उपाया हरणम् ॥ ४३ ॥ brary dig Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [६७], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक व्याख्या-स्थाप्यते इति स्थापना तया तस्यास्तस्यां वा कर्म-सम्यगभीष्टार्थप्ररूपणलक्षणा क्रिया स्थापनाकर्म, 'एक मिति तज्जास्यपेक्षया 'दृष्टान्तो निदर्शनं 'तत्र' स्थापनाकर्मणि 'पौण्डरीकं तु' तुशब्दात्तधाभूतमन्यच्च, तथा च पौण्डरीकाध्ययने पौण्डरीक प्ररूप्य प्रक्रिययैवान्यमतनिरासेन खमतं स्थापितमिति, अथवेत्यादि पश्चार्द्धं सुगमम् , लौकिकं चेदमिति गाथाक्षरार्थः ॥ भावार्थस्तु कथानकादबसेयः, तच्चेदम्-जहा हैगम्मि णगरे एगो मालायारो सण्णाइओ करंडे पुप्फे घेसूण वीहीए एइ, सो अईव अचाओ, ताहे तेण सिघं चोसिरिऊर्ण सा पुप्फपिडिगा तस्सेय उवरि पल्हत्थिया, ताहे लोओ पुच्छइ-किमयंति ?, जेणिय पुफाणि छड्डेसित्ति, ताहे सो भणइ-अहं आलोविओ, एत्थ हिंगुसिबो नाम, एतं तं वाणमंतरं हिंगुसिवं नाम उप्पन्नं, लोएण परिग्गहियं, पूया से जाया, खाइगयं अज्जवि तं पाडलिपुत्से हिंगुसिवं नाम वाणमंतरं। दी एवं जद किंचि उड्डाहं पावयणीयं कयं होजा केणवि पमाएण ताहे तहा पच्छाएयब्वं जहा पचुपणं पवयणु १वकस्मिन् नगरे एको मालाकारः ज्ञायिता करण्ठे पुष्पाणि ग्रहीत्वा वीभ्यामेति, सोऽतीय व्यथितः, तदा तेन शीय ब्युसज्य सा पुष्पपिटिका तस्यैवोपरि | पर्यस्ता, तदा लोकः पृच्छति-किमेतदिति ।, येनात्र पुष्पाणि सजसि इति, तदा स भगति-अहमलो पिकः, अत्र हिशियो नाम, एतत् तत् व्यन्तरिक हितशिवं नामोत्पत्र, लोकेन परिगृहीतं, पूजा तसा जाता, स्वातिगतमद्यापि तत्पाटलिपुत्र हिशिवं नाम व्यन्तरिकम् । एवं यदि किचिद् अपभाजनाका प्रायचनिकं कृतं भवेत् केनापि प्रमावेन तदा तथा प्रकछादवितव्यं यथा प्रत्युत प्रवचनोद्भावना भवति 'संजातायामपधाजनायो यथा गिरि सिद्धः कुशलवुद्धिभिः । लोकस्य धर्मश्रद्धा प्रवचनवणेन मुष्ठ कृता ॥१॥1(6) संज्ञापीडितः। बाधितः वि. प. (२) प्रक्षिसा. वि. प. (१) लोठिओ देवतया खयमवलोकितः वि. प.(४) पण प्रत्युत पि. प. दीप अनुक्रम ~ 90 ~ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक / गाथांक |||| दीप अनुक्रम [१] दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ ४४ ॥ Ja Education “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [१], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||१॥ निर्युक्ति: [६७], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः भावणा हवइ । "संजाए उड्डाहे जह गिरिसिडेहिं कुसलबुद्धीहिं । लोयस्स धम्मसद्धा पवयणवण्णेण सुट्ट कथा ॥ १ ॥ एवं तावञ्चरणकरणानुयोगं लोकं चाधिकृत्य स्थापनाकर्म प्रतिपादितम् अधुना द्रव्यानुयोगमधिकृत्योपदर्शयन्नाह - सम्वभिचारं हेतुं सहसा वोत्तुं तमेव अन्नेहिं । उववूहइ सप्पसरं सामत्थं चप्पणो नाउं ॥ ६८ ॥ व्याख्या सह व्यभिचारेण वर्त्तत इति सव्यभिचारस्तं 'हेतुं' साध्यधर्मान्वयादिलक्षणं 'सहसा' तत्क्षणमेव 'वोत्तुं' अभिधाय 'तमेव' हेतुम् 'अन्यैः' हेतुभिरेव 'उपबृंहते' समर्थयति 'सप्रसरम्' अनेकधा स्फारयन् 'सामर्थ्य' प्रज्ञाबलम्, चशब्दो भिन्नक्रमः 'आत्मनश्च' स्वस्य च 'ज्ञात्वा' विज्ञाय चशब्दात्परस्य चेति गाथार्थः ॥ भावार्थस्त्वयम् - द्रव्यास्तिकाच नेकनयसकुलप्रवचनज्ञेन साधुना तत्स्थापनाय नयान्तरमतापेक्षया सव्यभिचारं हेतुमभिधाय प्रतिपक्षनयमतानुसारतः तथा समर्थनीयः यथा सम्यगनेकान्तवादप्रतिपत्तिर्भवतीति । आह-उदाहरणभेदस्थापनाधिकारचिन्तायां सव्यभिचारहेत्वाभिधानं किमर्थमिति ?, उच्यते, तदाश्रयेण भूयसामुदाहरणानां प्रवृत्तेः, तदन्वितं चोदाहरणमपि प्राय इति ज्ञापनार्थम्, अलं प्रसङ्गेन । अभिहितं स्थापनाकर्मद्वारम् अधुना प्रत्युत्पन्नविनाशद्वारमभिधातुकाम आह होति पडुप्पन्नविणासणंमि गंधब्विया उदाहरणं । सीसोऽवि कत्थवि जड़ अज्झोवज्जिज्ज तो गुरुणा ।। ६९ ।। व्याख्या भवन्ति प्रत्युत्पन्नविनाशने विचायें गान्धर्विका उदाहरणं लौकिकमिति । तत्र प्रत्युत्पन्नस्य For ane & Personal Use City ~ 91~ १ द्रुमपुष्पिका० स्थापनोदTo हिशिवो० ॥ ४४ ॥ beary dig Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [६९], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ 4S4 गाथांक वस्तुनो विनाशनं प्रत्युत्पन्नविनाशनं तस्मिन्निति समासः । गान्धर्विका उदाहरणमिति यदुक्तं तदिदम्-जहा | एगम्मि णगरे एगो वाणियओ, तस्स बहुयाओ भयणीओ भाइणिज्जा भाउज्जायाओ य, तस्स घरसमीवे मराउलिया गंधब्बिया संगीयं करेंति दिवसस्स तिन्नि बारे, ताओ वणियमहिलाओ तेण संगीयसद्देण तेसु गंधब्धिएम अज्झोववन्नाओ किंचि कम्मादाणं न करेंति, पच्छा तेण वाणियएण चिंतियं-जहा विणवा एयाKओत्ति, को उवाओ होज्जा ? जहा न विणस्संतित्तिका मित्तस्स कहियं, तेण भण्णइ-अप्पणो घरसमीवे वाण मंतरं करावेहि, तेण कयं, ताहे पाडहियाणं रूवए दाउं वायावेइ, जाहे गंधब्विया संगीययं आढवेति ताहे शते पाडहिया पडहे दिति वंसादिणो य फुसंति गायंति य, ताहे तेसिं गंधब्बियाणं विग्घो जाओ, पडहसद्देण यण सुब्बड गीयसहो, तओ ते राउले उचट्ठिया, वाणिओ सहाविओ, किं विग्घं करेसित्ति? भणइ-मम घरे देवो, अहं तस्स तिन्नि वेला पडहे दवावेमि, ताहे ते भणिया-जहा अन्नत्थ गायह, किं देवस्स दिवे दिवे १ यथैकसिन् नगरे एको वणिक तस्य बहुका भगिन्यः भागिनेय्यः प्रातूजावाच, तस्य गृहसमीपे राजकुलीया गान्धर्विकाः सनीतं कुर्वन्ति दिवसे श्रीन् वारान् , ता पणिमाहिलास्तेन सझौतशम्वेन तेषु गान्धविकेषु अध्युपपन्नाः किचित्कर्मादानं न कुर्वन्ति, पवात्तेन वणिजा चिन्तितम्-यथा विनया एता इति, क उडापावो भवेत् । यथा न विनश्यन्तीतिकृत्वा मित्राय कथितं, तेन भव्यते-आत्मनो गृहसमीपे यन्तरिक कारग, तेन कृतम्, सदा पाटहिकेभ्यो रूप्यकान् दत्त्वा काः सतिमाद्रियन्त तदा ते पाटाहकार पटहान् ददात वशादाच स्पृशान्त गायन्ति च, तदा तेषां गान्धविकाणां विनो जाता, कापटइशब्देन च न भूयते गीतशब्दः, ततस्ते राजकुले उपस्थिताः, वणिक् शब्दावितः, किं विसं करोषीति !, भणति-मम रहे देवः, अई तस्व तिखो वेलाः पटई दापयामि, तदा ते भणिताः-यथाऽन्यत्र गायत, कि देवस्य दिवसे दिवसे दीप अनुक्रम ~ 92 ~ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [६९], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ दशवैका हारि-वृत्तिः ॥४५॥ गाथांक दीप अनुक्रम अंतराइयं कजइ ? । एवं आयरिएणवि सीसेसु अगारीसु अज्झोववजमाणेसु तारिसो उवाओ कायव्यो । जहा तेसिं दोसस्स तस्स णिवारणा हवइ, मा ते चिंतादिएहिं णरयपडणादिए अवाए पावहिति, उक्तं पिका च-"चिंतेई दगुमिच्छह दीहं णीससह तह जैरो दोहो । भत्तारोयंग मुछा उम्मत्तो णे याणई मरणं ॥१॥ प्रत्युत्पन्नपढमे सोयई वेगे बढें तं गच्छई बिइयवेगे । णीससइ तइयवेगे आरुहइ जरो चउत्थंमि ॥२॥ इज्झइविनाशे पंचमवेगे छठे भत्तं न रोयए वेगे। सत्तमियंमि य मुच्छा अट्ठमए होइ उम्मत्तो॥३॥णवमे ण याणइ किंचि गान्धर्विदसमे पाणेहिं मुच्चइ मणूसो । एएसिमवायाणं सीसे रक्खंति आयरिया ॥ ४॥ परलोइया अवाया भग्गप-1 कोदा. इण्णा पडति नरएमाण लहंति पुणो बोहिं हिंडंति य भवसमुदंमि ॥५॥"अमुमेवार्थ चेतस्यारोप्याह-शिप्योऽपि विनेयोऽपि 'कचित् विलयादौ 'यदी त्यभ्युपगमदर्शने 'अभ्युपपद्यत' अभिष्वङ्गं कुर्यादित्यर्थः ततो 'गुरुणा' आचार्येण, किम् ?-गाथा अन्तरायः कियते । एवमाचार्वेणापि शिष्येवगारिणीषु अध्युपपद्यमानेषु तास उपायः कर्तव्यो यथा तेषां दोषस्य तस्य निवारणं भवति, मा ते चिन्तादिकैनरकपतनादिकान् अपायान प्राप्स्यन्दीति-चिन्तयति द्रष्टुमिच्छति दीर्थ निःश्वसिति तथा उपरो दाहः । भकारोचको मूर्छा उन्मत्तो न जानाति मरणम् ॥१॥ प्रथमे शोचति वैगे द्रष्टुं तो गच्छति द्वितीयवैगे । निःश्वसिति तृतीयगे आरोहति ज्वरवतुः ॥ ३ ॥ दहाते पचगे बेगे षष्ठे भक न रोचते वेगे । सप्तमे च मूळ अष्टमे भवत्युन्मत्तः ॥ ३॥ नगमे न जानाति किश्चिदशमे प्राणैर्मुच्यते मनुष्यः । एतेभ्योऽपायेभ्यः शिष्यं रक्षामन्याचार्याः ॥ ४ ॥ पारलौकिका अपाया भनप्रतिज्ञाः ४ पतन्ति नरकेषु । न लभन्ते पुनधि हिडन्ते च भवसमुदे ॥ ५॥ ज्यादौ वि. प. JanEdcasthani ~93~ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक/ गाथांक |||| दीप अनुक्रम [?] Ja Education in भाष्यं [-] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) अध्ययनं [१], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||१॥ निर्युक्तिः [७०], आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित वारेय उवाएण जइवा वाऊलिओ वदेज्जाहि । सब्वेऽवि नत्थि भावा किं पुण जीवो स बोत्तल्वो ॥ ७० ॥ व्याख्या—'वारयितव्यो' निषेद्धव्यः, किं यथाकथञ्चित् ? नेत्याह- 'उपायेन' प्रवचनप्रतिपादितेन, यथाऽसौ सम्यग्वर्त्तत इति भावार्थः । एवं तावलौकिकं चरणकरणानुयोगं चाधिकृत्य व्याख्यातं प्रत्युत्पन्नविनाशद्वारम् अधुना द्रव्यानुयोगमधिकृत्याह-यदिवा 'वातूलिको' नास्तिको वदेत्, किं ? - 'सर्वेऽपि घटपटादयः 'णस्थिति प्राकृतशैल्या न सन्ति 'भावाः' पदार्थाः किं पुनर्जीवः ? सुतरां नास्तीत्यभिप्रायः, 'स वक्तव्यः' सोऽभिधातव्यः किमित्याह जं भणसि नत्थि भावा वयणमिणं अत्थि नत्थि ? जइ अस्थि एव पइन्नाहाणी असभ णु निसेहर को णु ! ।। ७१ ।। व्याख्या- 'यद्भणसि' यद्रवीषि 'न सन्ति भावा' न विद्यन्ते पदार्था इति, 'वचनमिदं' भावप्रतिषेधकमस्ति नास्तीति विकल्पौ ?, किं चातो ?, यद्यस्ति एवं प्रतिज्ञाहानिः प्रतिषेधवचनस्यापि भावत्वात् तस्य च सत्त्वादिति भावार्थः, द्वितीयं विकल्पमधिकृत्याह - 'असओ पु'क्ति अथासन्निषेधते को नु ?, निषेधवचनस्यैवासत्त्वादित्ययमभिप्राय इति गाधात्र्यार्थः । यदुक्तम्- 'किं पुनर्जीवः' इत्यत्रापि प्रत्युत्पन्नविनाशमधिकृत्याहणो य विवखापुव्वो सोऽजीवुम्भवोति न थ सावि । जमजीक्स्स उ सिद्धो पडिसेहधणीओ तो जीवो ॥ ७२ ॥ व्याख्या- चशब्दस्यैवकारार्थत्वेनावधारणार्थत्वात् 'न च' नैव 'विवक्षापूर्वी' विवक्षाकारणः इच्छाहेतुरि For te&Personal Use Oily ~94~ ৩%% % অ ভ ibrary dig Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं -1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [७२], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: 446 प्रत सूत्रांक/ गाथांक दीप अनुक्रम त्यर्थः, 'शब्दों ध्वनिः 'अजीवोद्भवः' अजीवप्रभव इत्यर्थः, विवक्षापूर्वकश्च जीवनिषेधका शब्द इति, मा भू-1 दुमपुहारि-वृत्तिः द्विवक्षाया एब जीवधर्मवासिद्धिरित्यत आह-'न च' नैव 'सापि' विवक्षा 'यदु' यस्मात् कारणाद 'अजी- पिका लवस्य तु अजीवस्यैव, घटादिष्वदर्शनात्, किन्तु मनस्त्वपरिणता(स्य)न्विततत्तद्रब्यसाचिव्यतो जीवस्यैव. हेशोदा ॥४६॥ यतश्चैवमतः 'सिद्धा' प्रतिष्ठितः 'प्रतिषेधध्वन' नास्ति जीव इति प्रतिषेधशब्दादेवेत्यर्थः, 'ततः तस्मात् 'जीवहरणभेदाः आत्मेति, अत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थविस्तरभयादिति गाथार्थः ॥ व्याख्यातं प्रत्युत्पन्नविनाशद्वार, तदन्वाख्यानाचोदाहरणमिति मूलद्वारम् , अधुना तद्देशद्वारावयवार्थमभिधित्सुराह आहरणं तदेसे चउहा अणुसहि तह उबालंभो । पुच्छा निस्सावयणं होइ सुभद्दाऽणुसहीए ॥७३॥ व्याख्या-उदाहरणमिति पूर्ववद्, उपलक्षणं चेदमत्र, तथा चाह-तस्य देशस्तद्देश उदाहरणदेश इत्यर्थः, अयं सा'चतुझे चतुष्पकारः, तदेव चतुष्पकारत्वमुपदर्शयति-अनुशासनमनुशास्ति:-सद्गुणोत्कीर्सनेनोपवृहणमि-४ त्यर्थः, तथोपालम्भनमुपालम्भ:-भायैव विचित्रं भणनमित्यर्थः, पृच्छा-प्रश्नः किं कथं केनेत्यादि, निश्रावचनम्-एकं कश्चन निश्राभूतं कृत्वा या विचित्रोक्तिरसौ निश्रावचनमिति । तत्र भवति सुभद्रा नाम श्राविकोदाहरणम्, क?-अनुशास्ताविति गाथाक्षरार्थः ॥ तत्थ अणुसट्ठीए सुभद्दा उदाहरणं-चंपाए णयरीए X ॥४६॥ १ तत्रानुशास्ती सुभदोदाहरणम्-चम्पायां नगर्यो [१] Jamaicasonline ICI ~ 95~ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक/ गाथांक |||| दीप अनुक्रम [1] Ja Education in “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) अध्ययनं [१], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||१॥ निर्युक्ति: [७३], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः जिंणदत्तस्स सुसावगस्स सुभद्दा नाम धूया, सा अईब स्वबई साय तंश्चणियउवासएण दिट्ठा, सो ताए अज्झोववण्णो, तं मग्गई, सावगो भाइ-नाहं मिच्छादिट्ठिस्स धूयं देमि, पच्छा सो साहूणा समीवं गओ धम्मो य अणेण पुच्छिओ, कहिओ साहूहिं, ताहे कवडसावयधम्मं पगहिओ, तत्थ य से सन्भावेणं चैव उवगओ धम्मो, ताहे तेण साहूणं सम्भावो कहिओ, जहा मए कवडेणं दारियाए कए, णं णायं जहा कबडेणं कज्जहित्ति, अण्णमियाणि देह मे अणुब्वयाई, लोगे स पयासो सावओ जाओ, तओ काले गए बरया मालया पट्टवेह, ताहे तेण जिणदन्तेण सावओत्तिकाऊण सुभद्दा दिण्णा, पाणिग्गद्दणं वत्तं, अन्नया सो भणइ-दारियं घरं णेमि, ताहे तं सावओ भणइ-तं सव्वं उवासयकुलं, एसा तं णाणुवत्तिहिति, पच्छा छोभयं वा लभेजत्ति, णिव्यंधे विसज्जिया, णेऊण जुगयं घरं कयं, सासूणणंदाओ पउट्ठाओ भिक्खूण भक्तिं ण करेइन्ति, १ जिनदत्तस्य सुभावकस्य सुभद्रा नाम पुत्री, साऽतीव रूपिणी, सा तश्चनिक (बौद्ध) उपासकेन दृष्टा स तस्यामध्युपपन्नः तां मार्गयति धावको भगतिनाई मिध्यादृष्टवे पुत्री ददामि स पश्चात् साधूनां समीपे गतः धर्मधानेन पृष्ठः कथितः साधुभिः कपटभावकेन तदा धर्मः प्रगृहीतः, तत्र च तस्य सद्भावेनैवोपगतो धर्मः, तदा तेन साधुभ्यः सद्भावः कथितः, यथा मया कपटेन दारिकायाः कृते एतज्ज्ञातं यथा कपटेन कियते इति अन्यत् इदानीं देहि मह्यमतानि लोके स प्रकाशः धावको जातः, ततः काले गते वरकाः मालाः प्रस्थापयन्ति तदा तेन जिनदत्तेन धावक इतिकृत्वा सुभद्रा दत्ता, पाणिग्रहणं वृत्तम्, अन्यदा स भणति दारिकां गृहं नयामि तदा से आवको भणति तद् सर्वमुपासककुलम् एषा रामानुवर्त्स्यति, पात् अपमानं वा खमेतेति, निर्बन्धे विराय गीतवा पृथग् राई कृतं भूननन्दरः प्रद्विष्टाः भिक्षूणां भक्ति करोतीति । (१) तव्यष्णिस० प्र० (२) नेदम् प्र. Forte & Personal Use City ~96~ brary dig Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [७३], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ तद्देशेऽनु गाथांक दीप अनुक्रम दशवैका० अन्नया ताहिं मुभदाए भत्तारस्स अक्खायं-एसा य सेअवडेहिं समं संसत्ता, सावओ ण सहहेब ४१ दुमपु.. हारि-वृत्तिःअन्नया खमगस्स भिक्खागयस्स अछिमि कणुओ पविट्ठो, सुभदाए जिन्भाए सो किणुओ फेडिओ, पिका ॥४७॥ सुभद्दाए चीणपितॄण तिलओ कओ, सो अखमगस्स निलाडे लग्गो, उवासियाहिं सावयस्स दरिसिओ, सावएण पत्तीर्य, ण तहा अणुपत्तइ, सुभद्दा चिंतेइ-किं अच्छेरयं? जे अहं गिहत्थी छोभ लभामि, ज शास्तौ सुपवयणस्स उडाहो एवं मे दुक्खइत्ति, सा रत्तिं काउस्सग्गेण ठिया, देवो आगओ, संदिसाहि किं करेमि ?, भद्रोदा० सा भणइ-ए मे अयसं पमजाहित्ति, देवो भणइ-एवं हवउ, अहमेयस्स णगरस्स चत्तारि दाराई ठवे-2 हामि, घोसणयं च घोसेहामित्ति, जहा-जा पहब्बया होइ सा एयाणि दाराणि उग्घाडेहिति, तत्थ तुमं|8/ चेव एगा उग्घाडेसि ताणि य कवाडाणि, सयणस्स पचयनिमित्तं चालणीए उदगं छोदण दरिसिज्जासि, अन्यदा तामिः सुभदाया भरि प्रति आख्यातम् एषा च श्वेतपटैः संसक्ता, श्रावको न अधाति, अन्यदा क्षपकस्य भिक्षागरास अधिक रजः प्रमिष्ट, | सुभदया जिदया तब्रजः स्फेठित, सुभद्रया सिन्दूरेण तिलकः कृतः, स चक्षपकस्य ललाटे नमः, उपासिकाभिः पावकस्य दर्शितः, श्रावकेण प्रत्यायितं, न | तथाऽनुवर्सयति, सुभद्रा चिन्तयति-किमाश्चर्यम् । यदहं सहस्थाऽपमा भे, मत्प्रवचनस्थापनाजना एतन्मां दुःखयति इति, सा रात्री कायोत्सर्येण स्थिता, देव आगतः, संदिश किं करोमि ?, सा भणति-एतन्मेऽयशः प्रमाणयेति, देवो भगति एवं भवतु, अहमेतस नगरस्य चत्वारि द्वाराणि स्थगयिच्यामि, पोषणां च घोषयिष्यामि इति, यथा-या पतिव्रता भवति सा एतानि द्वाराणि उद्घादयिष्यतीति, तत्र लगेकोद्घाटयिष्यसि तानि कपाटानि, खजनस्य प्रत्ययानिमित्तं ॥४७॥ थालण्यामुदकं क्षिया दर्शयेः, [1] ~97~ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [७३], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक ॐॐॐ5555 तओ चालणी फुसियमवि ण गिलिहिति, एवं आसासेऊण णिग्गओ देवो, गयरदाराणि अणेण ठवियाणि, |णायरजणो य अद्दण्णो, इओ य आगासे वाया होइ 'णागरजणा मा णिरत्थर्य किलिस्सह,जा सीलवई चालदाणीए छुढे उदगंण गिलति सा तेण उद्गेण दारं अच्छोडेइ, तओ दारं उग्घाडिजिस्सति', तत्थ बहुयाओ सेडिसत्यवाहादीणं धूयसुण्हाओ ण सकति पलयंपि लहिउं, ताहे सुभद्दा सयणं आपुच्छइ, अविसज्जंताण य| चालणीए उदयं छोटूण तेसिं पाडिहेरं दरिसेइ, तओ विसज्जिया, उवासिआओ एवं चिंतिउमाढसाओ-जहा एसा समणपडिलेहिया उग्घाडेहिति, ताए चालणीए उदयं छहं, ण गिलइत्ति पिच्छित्ता विसन्नाओ, तओ महाजणेण सकारिज्जती तं दारसमीर्य गया, अरहंताणं नमोकाऊण उदएण अच्छोडिया कवाडा, महया सद्देणं कोंकारवं करेमाणा तिन्नि वि गोपुरदारा उग्घाडिया, उत्तरदारं चालणिपाणिएणं अच्छोडेऊण भणइ-15 दीप अनुक्रम [1] सतपालन्या बिन्दुरपि न पतिष्यति, एवमाश्वास्य निर्गतो देवः. नगरदाराग्यनेन स्थगितानि, नागरजनश्वाञ्चतिमापना, इतथाकाशे वागभूत्-नागरजनाः। दिमा निरर्थक शिषुः, या शीलवती (यया) चालन्यामुदकं क्षिप्तं (सद) न मिलति सा तेनोदकेन द्वारमाच्छोटयति, ततो द्वारमुद्घाटियते इति, तत्र वयः बेठिसार्थवाहादीनां पुत्रीस्नुषाः न शकुवन्ति प्रचारमपि ल , तदा भुभद्रा खजनमायच्छते, अविसजताच चाखन्यानुदक क्षिप्त्वा तेषां प्रातीहाय दर्शयति, यो बिस्या, उपासिका एवं चिन्तितमाहता यथैषा श्रमणप्रतिलेखितोद्घाटयिष्यति, तया चालन्यामुदकं शिक्ष, न गिलति इति श्रेषण विषण्णाः, ततो महाजनेन | सत्कियमाणा तं द्वारसमीपं गता, अहंतो नमस्कृत्योदकेन आच्छोटितानि कपाटानि, महता शब्देन कोदारवं कुर्वन्ति त्रीण्यपि गोपुरद्वाराणि उद्घाटितानि, उत्तरद्वारं चालनीपानीयेनाच्छोव्य भगति. (१) पलिकामात्रमपि वि. प. JaElicationidi ~ 98~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [७३], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१|| दशवैका०जा मया सरिसी सीलवई होहिति सा एवं दारं उग्घाडेहिति, तं अज्जचि दकियं चेव अच्छइ, पच्छा णायहारि-वृत्तिः रजणेण साहुकारो कओ-अहो महासइत्ति, अहो जयइ धम्मोत्ति । एवं लोइयं, चरणकरणाणुओर्ग पुण पडुचपिका० यावञ्चादिसु अणुसासियव्या, उज्जुत्ता अणुज्जुत्ता य संठवेयब्बा जहा सीलवंताणं इह लोए एरिसं फल तद्देशेऽनु॥४८॥ मिति । अमुमेवार्थमुपदर्शयन्नाह ४ शास्तौ सुसाहुक्कारपुरोगं जह सा अणुसासिया पुरजणेणं । वेयावश्चाईसु वि एव जयंते णुवोहेया ।। ७४ ॥ भद्रोदा० व्याख्या-साधुकारपुरःसरं यथा सुभद्रा 'अनुशासिता' सद्गुणोत्कीर्तनेनोपबृंहिता, केन ?-पुरजनेन' नागरिकलोकेन, वैयावृत्त्यादिष्वपि-आदिशब्दात् स्वाध्यायादिपरिग्रहः, 'एवं यथा सा सुभद्रा यतमानान्' उद्यमवतः, किम् ?-उपद्व्हयेत्, सद्गुणोत्कीर्तनेन तत्परिणामवृद्धिं कुर्यात् , यथा-"भरहेणवि पुन्वभवे यावचं कयं सुविहियाणं । सो तस्स फलविवागेण आसी भरहाहियो राया ॥१॥ भुंजितु भरहवासं सामण्णमणुत्तरं अणुचरित्ता। अट्ठविहकम्ममुक्को भरहनरिंदो गओ सिद्धिं" ॥ इति गाथार्थः ।। उदाहरणदेशता पुनरस्योदाहतै या ममसरशी शीलवती भविष्यति सैतत् द्वारमुपाटयिष्यति, तदद्यापि स्थगितमेवास्ति, पचानागरजनेन साधुकारः कृतः, अहो महासतीति, अहो जयति ॥४८॥ #धर्म इति । एतलीनिक, चरणकरणानुयोग पुनः प्रतीत्य वैयावृत्त्यादिषु अनुशासितव्याः, उयुक्ता अनुक्काब संस्थापवितव्याः यथा शीलवतामिह लोके ईरशं | फलनिति. २ भरतेनापि पूर्वंभवे वैयावृत्त्यं कृतं मुविहितानाम् । स तस्य फल विषाकेन आसीद भरताधिपो राजा ॥9॥ ३ भुक्त्वा भरतवर्ष श्रामण्यमनुत्तरमनुचर्य । अष्टविधकमैमुको भरतनरेन्द्रो गतः सिद्धिम् ॥१॥ 5A5%25-455 दीप अनुक्रम ~99~ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [७४], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ MAHAR AS गाथांक दीप अनुक्रम कदेशस्यैवोपयोगित्वात्तेनैव चोपसंहारात, तथा च अप्रमादवद्भिः साधूनां कणुकापनयनादि कर्त्तव्यमिति विहायानुशास्त्योपसंहारमाह, वैयावृत्त्यादिष्वपि देशेनैवोपसंहारः, गुणान्तररहितस्य भरतादेनिश्चयेन तद करणादिति भावनीयमिति, एवं तावल्लौकिकं चरणकरणानुयोगं चाधिकृत्योक्तं तद्देशद्वारे अनुशास्तिद्वारम् , है अधुना द्रव्यानुयोगमधिकृत्य दर्शयति| जेसिपि अस्थि आया वत्तव्वा तेऽवि अम्हवि स अस्थि । किंतु अकत्ता न भवइ बेययइ जेण सुहृदुक्खं ॥ ७५ ॥ I व्याख्या-येषामपि द्रब्यास्तिकादिनयमतावलम्बिनां तत्रान्तरीयाणां किम् ?-'अस्ति' विद्यते 'आत्मा'X जीवः वक्तव्याः 'तेऽपि तत्रान्तरीयाः, साध्वेतत् अस्माकमप्यस्ति सा, सदभावे सर्वक्रियावैफल्यात्, किन्तु "अकर्त्ता न भवति' सुकृतदुष्कृतानां कर्मणामकर्ता न भवति-अनिष्पादको न भवति, किन्तु ? कर्त्तव, अत्रैवोपपत्तिमाह-वेदयते अनुभवति 'येन'कारणेन, किम्?-'सुखदुःखं' सुकृतदुष्कृतकर्मफलमिति भावः॥ न चाकर्तुरात्मनस्तदनुभावो युज्यते, अतिप्रसङ्गात्, मुक्तानामपि सांसारिकसुखदुःखवेदनाऽऽपत्तेः, अकतत्वाविशेषात्, प्रकृत्यादिवियोगस्याप्यनाधेयातिशयमेकान्तेनाकारमात्मानं प्रत्यकिश्चित्करत्वादू, अलं विस्तरेणेति गाथार्थः । उदाहरणदेशता त्वत्राप्युदाहृतस्यैकदेशेनैवोपसंहारात् तत्रैव चासंप्रतिपत्ती समर्थनाय निदर्शनाभिधानादिति । गतमनुशास्तितदेशद्वारम्, अधुनोपालम्भद्वारविवक्षयाऽऽह १ वैयावृत्त्याकरणात् वि. प्र. ॐॐॐॐॐॐॐ -55-5 ~ 100~ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक गाथांक |||| दीप अनुक्रम [3] दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ ४९ ॥ Ja Education “दशवैकालिक”- मूलसूत्र ३ (मूलं निर्युक्तिः + भाष्य | + वृत्तिः) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्तिः [ ७६ ], भाष्यं [-1 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः उबलम्भम्मि मिगाव नाहियवाईबि एव वक्तव्वो । नत्वित्ति कुविन्नाणं आयाऽभावे सह अजुत्तं ॥ ७६ ॥ व्याख्या - उपालम्भे प्रतिपाद्ये मृगावतिदेव्युदाहरणम् । ऐयं च जहा आवस्सए दब्बपरंपराए भणियं तहेब दट्ठव्वं, जाव पव्वइया अज्जचंदणाए सिस्सिणी दिण्णा । अन्नया भगवं विहरमाणो कोसंबीए समोसरिओ, चंद्रादिचा सविमाणेहिं बंदि आगया, चउपोरसीयं समोसरणं कार्ड अत्थमणकाले पडिगया, तओ मिगावई संभंता, अयि ! वियालीकति भणिऊणं साहुणीसहिया जाव अज्जचंद्णासगासं गया, ताव य अंधयारयं जायं, अज्जचंदणापमुहाहिं साहुणीणं ताव पडियंनं, ताहे सा मिगावई अजा अजचंदणाए उवालभइ, जहा एवं णाम तुमं उत्तमकुलप्पसूया होइऊण एवं करेसि ?, अहो न लट्ठयं, ताहे पणमिण पाए पडिया, परमेण विणएण खामेइ, खमह मे एगमवराहं णाहं पुणो एवं करेहामिति । अजचंदणा य किल तंमि समए संथारोबगया पत्ता, इयरीए वि परमसंवेगगयाए केवलनाणं समुप्पन्नं, परमं च अंधयारं वहह, १ एतच यथाऽवश्यके द्रव्यपरम्परायां भणितं तथैव द्रष्टव्यं यावत्नजिता आर्यवन्दनाये शिष्या दत्ता । अन्यदा भगवान् विहरन् कोशाम्यां समवसृतः, चन्द्रादिली विमानाभ्यां वन्दितुमागती, चतुष्पौरुषीकं समवसरणं कृत्वाऽस्तमयनकाले प्रतिगती, ततो मृगावती सम्भ्रान्ता अयि विद्यालीकृतमिति भणित्या साध्वीसहिता यावदार्य चन्दनासकाशं गता तावचान्धकारं जातम् आर्यचन्दनाप्रमुखाभिः साध्वीभिस्तावत्प्रतिकान्तं तदा सा मृगावल्या आर्यचन्दनयोपालभ्यते | यथैवं नाम त्यमुत्तमकुलप्रसूता भूत्वा एवं करोषि ?, अहो न उष्टं तदा प्रणम्य पादयोः पतिता परमेण विनयेन क्षमयति, क्षमख ममैकमपराधं नाई पुनरेवं करिष्यामि इति आर्यवन्दना व किल तस्मिन् समये संखारोपगता प्रमुप्ता, इतरस्या अपि परसंवेगगतायाः केवलज्ञानं समुत्पन्नं परमं चान्धकारं वर्तते For ane & Personal Use City ~ 101 ~ १ द्रुमपुष्पिका० तद्देशे उ पालम्भो० ॥ ४९ ॥ brary dig Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं -1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [७६], भाष्यं [-] (४२) प्रत सूत्रांक/ गाथांक सप्पो य तेणंतरेण आगच्छइ, पव्वत्तिणीए य हस्थो लंबमाणो तीए उपाडिओ, पडिवुद्धा य अनचंदणा, पुच्छिया-किमेयं ?, सा भणइ-दीहजाइओ, कहं तुम जाणसि? किं कोइ अतिसओ? आमंति, पटियाइ अप्पडिवाइत्ति पुच्छिया सा भणइ-अप्पडिवाइत्ति, तओ खामिया । लोगलोगुत्तरसाहरणमेयं । एवं पमायतो सीसो उवालंभेयन्वोत्ति । उदाहरणदेशता पूर्ववद्योजनीयेति । एवं तावचरणकरणानुयोगमधिकृत्य व्याख्यातमुपालम्भद्वारम्, अधुना द्रव्यानुयोगमधिकृत्य व्याख्यायते-नास्तिकवायपि चार्वाकोऽपि जीवनास्तित्वप्रतिपादक इत्यर्थः एवं 'वक्तव्यः' अभिधातव्या-'नास्ति' न विद्यते, कः ? प्रकरणाजीव इति, एवंभूतं 'कुविज्ञान' जीवसत्ताप्रतिषेधावभासीत्यर्थः, आत्माऽभावे सति न युक्तम्, आत्मधर्मवाद ज्ञानस्येति भावना, भूत धर्मता पुनरस्य धयननुरूपत्वादेव न युक्ता, तत्समुदायकार्यताऽपि प्रत्येकं भावाभावविकल्पद्वारेण तिरस्कपार्सव्येति गाथार्थः ॥ अमुवेवार्थ समर्थयन्नाह अस्थिति जा वियका अहवा नत्यित्ति जं कुविन्नाणं । अञ्चताभावे पोग्गलस्स एवं चि न जुत्तं ।। ७७ ।। व्याख्या-अस्ति जीव इति एवंभूता या वितर्काऽथवा 'नास्ति' न विद्यत इति एवंभूतं यत्कुविज्ञानं १सर्पब तेनान्तरेण (मार्गेण मध्येन वा) आगच्छति, प्रवर्त्तिन्याश्च हस्तो लम्बमानसायोत्पारिता, प्रतिबुद्धाचार्यचन्दना, पृटा फिमेतत् , सा भणतिदीर्घजातीयः, कथं वं जानाति ! किनियतिषायः। भोमिति, प्रतिकात्यप्रतिपाती चेति पूटा सा भणति-अप्रतिपातीति, यतः क्षामिता । लोकलोकोपूसरसाधारणमेतत् , एवं प्रमाद्यन् शिष्य उपालम्भनीय इति. २ यमुपसहरमाह.प्र. दीप अनुक्रम [१] ~ 102~ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक / गाथांक |||| दीप अनुक्रम [१] दशवेका० हारि-वृत्तिः ॥ ५० ॥ Jam Education “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) अध्ययनं [१], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||१|| आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः निर्युक्ति: [७७], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित लोकोत्तरापकारि अत्यन्ताभावे 'पुद्गलस्य' जीवस्य 'इदमेव न युक्तम्', इदमेवान्याय्यं । भावना पूर्ववदिति गाथार्थः ॥ उदाहरणदेशता नास्तिकस्य परलोकादिप्रतिषेधवादिनो जीवसाधनाद् भावनीयेति । गतमुपालम्भद्वारम् अधुना शेषद्वारद्वयं व्याचिख्यासुराह पुच्छre कोणिओ खलु निस्सावयणंभि गोयमस्सामी । नाहियवाई पुच्छे जीवत्थितं अणिच्छतं ॥ ७८ ॥ व्याख्या-'पृच्छायाँ' प्रश्न इत्यर्थः, 'कोणिकः' श्रेणिकपुत्रः खलुदाहरणम् । जहा तेण सामी पुच्छिओ-च| कवट्टिणो अपरिचत्तकामभोगा कालमासे कालं किच्चा कहिं उववजंति ?, सामिणा भणियं अहे सत्तमीए चक्कवट्टीणो उववज्जंति, ताहे भणइ अहं कत्थ उववज्जिस्सामि ?, सामिणा भणियं तुमं छट्टीपुढबीए, सो भ इ-अहं सत्तमीए किं न उबवज्जिस्सामि ?, सामिणा भणियं-सत्तमीए चक्कवट्टिणो उबवज्जंति, ताहे सो भाइ- अहं किं न होमि चक्कवही ? ममवि चउरासी दन्तिसयसहस्साणि, सामिणा भणियं तव रयणाणि निहीओ य णत्थि, ताहे सो कित्तिमाई रयणाई करिता ओवतिमारदो, तिमिसगुहाए पविसिउं पवतो, १ यथा तेन स्वामी पृष्ठः- चक्रवर्त्तिनोऽपरित्यक्तकामभोगाः कालमासे कालं कृत्वा कोपयन्ते, स्वामिना भणितम् अवः सप्तम्यां चक्रवर्त्तिन उत्पद्यन्ते, तदा भणति - अहं कोत्पत्स्ये ?, खामिना भणितं पृथिव्यां स भणति - अहं सप्तम्यां कि नोत्पत्स्ये ? खामिना भणितं सप्तम्यां चक्रवर्त्तिन उत्पद्यन्ते, तदा स भगति - अहं किं चक्रवर्ती न भवामि ममापि चतुरशीतिर्दन्ति शतसहस्राणि खामिना भणितं तव रत्नानि निधयश्च न सन्ति तदा स कृत्रिमाणि रत्नानि वाडवपति ( जेतुं ) आरब्धः तमिस्रागुद्दायां प्रहुं प्रवृत्तः For ane & Personal Use City ~103~ १ द्रुमपुष्पिका० तद्देशे पृच्छानि श्रोदा० ॥ ५० ॥ y Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [७८], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक दीप अनुक्रम भणिओ य किरिमालएणं-बोलीणा चकवहिणो वारसवि, विणस्सिहिसि तुमं, वारिजंतो वि ण ठाई, पच्छा कियमालएण आहओ, मओ य छहिँ पुढविं गओ, एवं लोइयं । एवं लोगुत्तरेवि बहुस्सुआ आयरिया अट्ठाणि हेऊ य पुच्छियचा, पुच्छित्ता य सकणिज्जाणि समायरियब्वाणि, असक्कणिज्जाणि परिहरियब्वाणि, भणियं च-"पुच्छह पुच्छावेह य पंडियए साहवे चरणजुत्ते। मा मयलेवविलित्ता पारत्तहियं ण याणिहिह 8 ॥१॥" उदाहरणदेशता पुनरस्याभिहितैकदेश एव प्रष्टुग्रहात् तेनैव चोपसंहारादिति । एवं तावचरणकरमणानुयोगमधिकृत्य व्याख्यातं पृच्छाद्वारम्, अधुनैतत्प्रतिवद्धां द्रव्यानुयोगवक्तव्यतामपास्य गाथोपन्या सानुलोमतो निश्रावचनमभिधातुकाम आह-निश्रावचने निरूप्ये गौतमखाम्युदाहरणमिति । एत्थ गागलिमादी जहा पब्वइया तावसा य एवं जहा बहरसामिउप्पत्तीए आवस्सए तहा ताव नेयं जाव गोयमसा मिस्स किल अधिई जाया । तत्थ भगवया भण्णइ-चिरसंसट्ठोऽसि मे गोयमा! चिरपरिचितोऽसि मे गोजयमा! चिरभाविओऽसि मे गोयमा! तं मा अघिई करेहि, अंते दोनिवि तुल्ला भविस्सामो, अन्ने य भषिराव किरिमालकेन-व्यतिक्रान्ता द्वादशापि भकमसिना, बिनपसि , वार्यमाणोऽपि न तितति, पचास्कृतमालकेनाहतः, भूतब वह पृथ्वी गतः। का एजौकिकमेयं लोकोत्तरेऽपि बहुक्षुता आचार्याः प्रष्टव्या अर्थान् देतूंच, पृष्ट्वा च शकभीयान्याचरितव्यानि अशकनीयानि परिहर्तव्यानि, भणितं च "पूरछश्च पृच्छएच पण्डितान् साधून चरणयुकान् ।मा मदलेपविलिप्ताः पारत्रिकहितं न ज्ञासिष्ठ ॥ १॥ २ अत्र गाजल्यापयो यथा प्रजितास्वापसाच, एवं मया पत्रखाम्युत्पत्तावावश्यके कातमा तापशेयं यावद् गीतमखामिनः किलाभूतिर्जाता। तत्र भगवता भग्वदे-चिरसंमोऽसि मम गौतम चिरपरिचितोऽसि मग गौतम! चिरभावितोऽसि मे गीतम! तन्मातिं काषी, अन्ते द्वावपि दल्यो भविष्यावः, अन्ये व 4256 [१] JaElication ~ 104~ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक / गाथांक |||| दीप अनुक्रम [१] दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ ५१ ॥ Jar Education “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [१], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||१॥ निर्युक्ति: [७८], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र -[ ४२ ], मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः तन्निस्साए अणुसासिया दुमपत्तए अज्झयणित्ति । एवं जे असहणा विणेया ते अन्ने मद्दवसंपन्ने णिस्सं काऊण तहाऽणुसासियच्या उवाएण जहा सम्मं पडिवति । उदाहरणदेशता त्वस्य देशेन- प्रदर्शितशत एव तथानुशासनाद् । एवं तावचरण करणानुयोगमधिकृत्य व्याख्यातं पृच्छानिश्रावचनद्वारद्वयम् अधुना द्रव्यानुयोगमधिकृत्य व्याख्यायते तत्रेदं गाथादलम् -'णाहियवाहमित्यादि, 'नास्तिकवादिनं' चार्वाकं पृच्छेजीवास्तित्वमनिच्छन्तं सन्तमिति गाथार्थः । किं पृच्छेत् : केति नत्थि आया जेण परोकखोति तव कुविन्नाणं । होइ परोक्खं तम्हा नत्थित्ति निसेहए को णु ? ॥ ७९ ॥ व्याख्या- 'केनेति' केन हेतुना ? 'नास्त्यात्मा' न विद्यते जीव इति पृच्छेत् स चेद् ब्रूयात् 'येन परोक्ष' इति येन प्रत्यक्षेण नोपलभ्यत इत्यर्थः, स च वक्तव्यः-भद्र ! तव 'कुविज्ञानं' जीवास्तित्वनिषेधकध्वनिनिमित्सत्वेन तन्निषेधकं भवति परोक्षम्, अन्यप्रमातृणामिति गम्यते, 'तस्माद् भवदुपन्यस्तयुक्त्या नास्तीति कृत्वा निषेधते को नु ?, विवक्षाऽभावे विशिष्टशब्दानुत्पत्तेरिति गाथार्थः ॥ उदाहरणदेशता चास्य पूर्ववदिति गतं पृच्छाद्वारम् ॥ अन्ना एसओ नाहियवाई जेसि नस्थि जीवो उ। दाणाइफलं तेसिं न विजइ उह तदोसं ॥ ८० ॥ व्याख्या- 'अन्यापदेशतः' अन्यापदेशेन 'नास्तिकवादी' लोकायतो वक्तव्य इति शेषः, अहो धिक्कष्टं 'येषां' १ तनिश्रयाऽनुशासिता मपत्रकेऽध्ययम इति । एवं येऽसहना विनेयास्तेऽन्यान् मासान् निश्रीकृला तथाऽनुशासितव्या उपायेन यथा सम्यक् प्रतिपदान्ते. Forte & Personal Use City ~ 105~ १ द्रुमपु ष्पिका० तदेशे निश्रोदा० ॥ ५१ ॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक / गाथांक |||| दीप अनुक्रम [१] Jam Education भाष्यं [-] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) अध्ययनं [१], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||१॥ निर्युक्ति: [८०], आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित वादिनां 'नास्ति जीव एवं' न विद्यते आत्मैव 'दानादिफलं तेषां न विद्यते' दानहोमयागतपः समाध्यादिफलं खर्गापवर्गादि तेषां वादिनां न विद्यते नास्तीत्यर्थः । कदाचित्त एवं श्रुत्वैवं ब्रूयुः मा भवतु, का नो हानि: ?, 'न अभ्युपगमा एव बाधायै भवन्तीति, ततश्च सत्त्ववैचित्र्यान्यथानुपपत्तितस्ते सम्प्रतिपत्तिमानेतव्याः, इत्यलं विस्तरेण, गमनिकामात्रमेतद्, उदाहरण देशता चरणकरणानुयोगानुसारेण भावनीयेति । गतं निश्राद्वारं, तदन्वाख्यानाच तद्देशद्वारम् अधुना तद्दोषद्वारावयवार्थप्रचिकटविषयोपन्यासार्थ गाथावयवमाह 'चउह तदोसं' चतुर्धा तद्दोष इति उदाहरणदोषः, अनुखारस्त्वलाक्षणिकः, अथवोदाहरणेनैव सामानाधिकरण्यं, ततश्च तद्दोषमिति तस्योदाहरणस्यैव दोषा यस्मिंस्तत्तदोषमिति गाथार्थः ॥ उपन्यस्तं चातुर्विध्यं प्रति पादयन्नाह पढमं अहम्मतं पडिलोमं अत्तणो उवन्नासं । दुरुवणियं तु चडत्यं अहम्मत्तंमि नलदामो ॥ ८१ ॥ व्याख्या- 'प्रथमम्' आयम् 'अधर्मयुक्तं ' पापसम्बद्धमित्यर्थः, तथा 'प्रतिलोमं' प्रतिकूलम्, 'आत्मन उपन्यास' इति आत्मन एवोपन्यासः - तथानिवेदनं यस्मिन्निति, 'दुरुपनीतं चेति दुष्टमुपनीतं निगमितमस्मिनिति चतुर्थमिदं वर्त्तते, अमीषामेव यथोपन्यासमुदाहरणैर्भावार्थमुपदर्शयति-अधर्मयुक्ते नलदामः कुविन्दः, | लौकिकमुदाहरणमिति गाथाक्षरार्थः ॥ पर्यन्तावयवार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-चाणकेण णंदे उत्थाइए १ णानुसारेण प्र० २ चाणक्येन नन्दे उत्थापिते For ane & Personal Use City ~ 106~ ibrary dig Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक / गाथांक |||| दीप अनुक्रम [१] दशवैका० हारि-वृत्तिः ॥ ५२ ॥ Ja Education i “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||१॥ निर्युक्ति: [८१], भाष्यं [-] अध्ययनं [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः चंदगुत्ते रायाणए ठविए एवं सव्वं वण्णित्ता जहा सिक्खाए, तत्थ णंदसंतिएहिं मणुस्सेहिं सह चोरग्गाहो मिलिओ, णगरं मुसइ, चाणक्कोऽवि अन्नं चोरग्गाहं ठविउकामो तिदंडं गहेऊण परिवायगवेसेण णघरं पविट्ठो, गओ णलदामकोलियसगासं, उबविट्ठो वर्णणसालाए अच्छर, तस्स दारओ मक्कोडएहिं खइओ, तेण कोलिएण बिलं खणित्ता दहा, ताहे चाणकेण भण्णइ किं एए डहसि ?, कोलिओ भाइ जइ एए समूलजाला ण उच्छाइज्जति, तो पुणोऽचि खाइस्संति, ताहे चाणक्केण चिंतियं-एस मए लद्धो चोरग्गाहो, एस णंदतेणया समूलया उद्धरिस्सिहिइत्ति चोरग्गाहो कओ, तेण तिखंडिया विसंभिया अम्हे संमिलिया मुसामोत्ति, तेहिं अनेवि अक्खाया जे तत्थ मुलगा, बहुया सुहतरागं मुसामोत्ति, तेहिं अन्नेवि अक्खाया, ताहे ते तेण | चोरग्गाहेण मिलिऊण सव्वेऽवि मारिया । एवं अहम्मत्तं ण भाणियव्वं, ण य कायव्वंति । इदं तावलौकिकम्, अनेन लोकोत्तरमपि चरणकरणानुयोगं चाधिकृत्य सूचितमवगन्तव्यम्, 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहण १ चन्द्रगुप्ते राजनि स्थापिते एवं सर्व वर्णयित्वा यथा शिक्षायाम्, तत्र नन्दसर कैमनुष्यैः सह चौरग्राहो मिठितः, नगरं मुष्णाति चाणक्योऽपि अन्यं | चौरमा स्थापवितुकामः त्रिदण्डं गृहीत्वा परित्राजकरेषेण नगरं प्रविष्टः गतो नलदामकोलिकसकाशमुपविष्ठो वयनशालायां तिष्ठति, तस्य दारको मत्कोटकैः खादितः तेन कोलिकेन बिलं खनित्वा दग्धाः, तदा चाणक्येन भम्यते किमेतान् दहति १, कोलिको भणति यद्येवे समूलजाला नोच्छायन्ते तदा पुनरपि खादिष्यन्ति तदा चाणक्यैन चिन्तितम् — एष मया धीरप्राहः, एष नन्दस्तेनकान् समूलान् उदरिष्यतीति चौराहः कृतः तेन त्रिखण्डिकाः (स्वेदाः) विश्रभिताः वयं सम्मिलिता मुग्णाम इति, तैरन्येऽप्याख्याता ये तत्र मोषकाः, बहवः सुखतरं मुष्णीम इति, तैरन्येऽप्याख्याताः, तदा तेन ते चौरा मिलित्वा सर्वेऽपि मारिताः । एवमधर्मयुतं न भवितव्यं न च कर्तव्यमिति For ane & Personal Use City ~ 107~ १ दुमपुष्पिका० तदोषे - धर्मयुकं ॥ ५२ ॥ brary dig Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [८१], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक मिति न्यायात् । तत्र चरणकरणानुयोगेन'णेवं अहम्मजुत्तं कायव्वं किंचि भाणियब्वं वा । थोवगुणं बहुदोसं विसेसओ ठाणपत्तेणं ॥१॥ जम्हा सो अन्नेसिपि आलंयणं होई । द्रव्यानुयोगे तु-वादम्मि तहारूचे विजाय बलेण पवयणढाए । कुजा सावनं पिहु जह मोरीणउलिमादीसु ॥१॥ सो परिवायगो विलक्खीकओत्ति । उदाहरणदोषता चास्याधर्मयुक्तत्वादेव भावनीयेति । गतमधर्मयुक्तद्वारम् , अधुना प्रतिलोमदारावयवार्थव्याचिख्यासयाऽऽह पडिलोमे जह अभओ पजोयं हरइ अवहिओ संतो । गोविंदवायगोऽविय जह परपक्खं नियत्तेइ ॥ ८२ ॥ व्याख्या-प्रतिलोमें उदाहरणदोषे यथा 'अभया' अभयकुमारः प्रद्योतं राजानं हतवान् अपहृतः सन्निति, एतद् ज्ञापकम् , इह च त्रिकालगोचरसूत्रप्रदर्शनार्थों वर्तमाननिर्देश इत्यक्षरार्थः । भावार्थः कथानकादवसेयः, मातच यथाऽऽवश्यके शिक्षायां तथैव द्रष्टव्यमिति । एवं तावल्लौकिक प्रतिलोम, लोकोत्तरं तु द्रव्यानुयोगमधि-15 कृत्य सूचयनाह-गोविंदे'त्यादि गाथादलम् , अनेन चरणकरणानुयोगमप्यधिकृल सूचितमवगन्तव्यम् , आचन्तग्रहणे तन्मध्यपतितस्य तद्ग्रहणेनैव ग्रहणात्, तत्र चरणकरणे 'णो किंचि य पडिलोमं कायब्वं नैवमधर्मयुक्तं कर्तव्यं किभितू माणितव्य गा । लोकगुणं बहुदोष विशेषतः स्थान प्राप्तेन ॥१॥ यस्मात् सोअन्येषामयालम्बनं भवति । वादे तथारूपे वि. काचाया बलेन प्रवचनार्थाय । कुमार साययमपि यथा मयूरीनकुल्यादिभिः ॥१॥परिवार विलक्षीकता इति. १ नो किमिदपि प्रतिलोम कर्तव्य दीप अनुक्रम ~ 108~ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [८२], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक दीप अनुक्रम दशवैका भवभएण मण्णेसि । अविणीयसिक्खगाण उ जयणाइ जहोचिों कुज्जा ॥१॥ द्रव्यानुयोगे तु गोपेन्द्रवाहारि-वृत्तिःचकोऽपि च यथा परपक्षं निवर्त्तयतीत्यर्थः । सो य किर तच्चण्णिओ आसि, विणा (ण्णा) सणणिमित्तं पव्व-| | पिका ॥५ ॥ आइओ, पच्छा भावो जाओ, महावादी जात इत्यर्थः । सूचकमिदम् , अत्र च-देवट्टियस्स पज्जवणयट्ठिय- तद्दोषे प्रहमेयं तु होइ पडिलोमं । मुहदुक्खाइअभावं इयरेणियरस्स चोइज्जा ॥१॥ अण्णे उ दुट्ठवादिम्मि, किंचितिलोमो० *बूया उ किल पडिकूलं । दोरासिपइपणाए तिपिण जहा पुच्छ पडिसेहो ॥२॥ उदाहरणदोषता त्वस्य प्रथ मपक्षे साध्यार्थासिहे., द्वितीयपक्षे तु शास्त्रविरुद्धभाषणादेव भावनीयेति गाथार्थः ॥ गतं प्रतिलोमद्वारम् , इदानीमात्मोपन्यासद्वारं विवृण्वन्नाह अत्तउवन्नासंमि य तलागभेयंमि पिंगलो थवई । व्याख्या-आत्मन एवोपन्यासो-निवेदनं यसिंस्तदात्मोपन्यासं तत्र च तडागभेदे पिङ्गलस्थपतिः उदाहरणमित्यक्षरार्थः ॥ भावार्थः कथानकगम्या, तच्चेदम्-इह एगस्स रपणो तलागं सब्बरजस्स सारभूअं, तं च १ भवभयेना (जननम) म्येषाम् । अविनीतशिक्षकाणां तु यतनया यथोचितं कुर्यात् ॥ १॥२सब किक बीब मासीव, विनापान( विज्ञान )निमित्तं नजितः, 'पञ्चाद्भावो जातः. ३ च्यार्थिकस्य पर्यायनार्थिक (क्वनम् ) एतत्तु भवति प्रतिकूलम् । सुखदुःखाद्यभावमितरस्वेतरेण (रः) चोदयेत् ॥१॥ M अन्ये तु दुष्यादिनि किविद्वान्तु किल प्रतिकूलम् । द्विराशिप्रतिज्ञायां, यो यथा पृच्छा प्रतिषेधः ॥२॥ ५ एकस्य राजवटाकः सवैराज्यस्य सारभूतः, सप [१] JanElicational ~ 109~ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [८३], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक 485%295%ERS तलागं परिसे परिसे भरियं भिजइ, ताहे राया भणइ-को सो उवाओ होजा? जेण तं न भिजेजा, तस्थ एगो कविलओ मणूसो भणइ-जइ नवरं महाराय ! इत्थ पिंगलो कविलियाओ से दाढियाओ सिरं से। है कविलियं सो जीवंतो चेव जंमि ठाणे भिजइ तंमि ठाणे णिक्खमइ, तो णवरंण भिज्जइ, पच्छा कुमारामचेण भणिय-महाराय! एसो व एरिसो जारिसयं भणइ, एरिसो णत्थि अनो, पच्छा सो तस्येव मारेत्ता निक्खित्तो। एवं एरिसं न भाणियब्वं जं अप्पवहाए भवद । इदं लौकिकम् , अनेन च लोकोत्तरमपि सूचिटातम्, एकग्रहणे तजातीयग्रहणात्, तत्र चरणकरणानुयोगे नैवं यात् यदुत-'लोइयधम्माओविहु जे पन्भट्ठा णराहमा ते उ। कह दव्वसोयरहिया धम्मस्साराहया होंति ? ॥१॥ इत्यादि । द्रव्यानुयोगे पुनरेके|न्द्रिया जीवाः, व्यक्तोच्छ्रासनिश्वासादिजीवलिङ्गसद्भावात्, घटवत्, इह ये जीवा न भवन्ति न तेषु व्यरातोडासनिश्वासादिजीवलिङ्गसद्भावो, यथा घटे, न च तथैतेष्वसद्भाव इति, तस्माज्जीवा एवैत इति, अ वात्मनोऽपि तद्रूपाऽऽपत्यात्मोपन्यासत्वं भावनीयमिति । उदाहरणदोषता चास्यात्मोपघातजनकत्वेन प्रकटाहायवेति न भाव्यते । गतमात्मोपन्यासद्वारम् , अधुना दुरुपनीतद्वारं व्याचिख्यासुराह १ सटाको वर्षे वर्षे मृतो भिद्यते, तदा राजा गणति-कास उपायो भवेत् येनासौ न भियते, तकः कपिलको मनुष्यो भणति-यदि पर महाराज! अत्र पिङ्गलः कपिलास्तस्य इमथुकेशाः शिरस्तस्य कपिलं स जीवमेव यस्मिन् स्थाने भिद्यते तस्मिन् स्थाने निक्षिप्यते ततः परं न भियते, पश्चात् कुमारामात्येन भणित-महाराज। एष एवं इंडशो यादर्श भणति तारो नास्त्यन्यः, पचास तत्रैव मारयित्वा निक्षिप्तः । एवनीशं न भणितव्यं यदात्मवधाय भवति.. 13 लौकिकधमादपि ये प्रवधा नराधमास्ते तु । कर्य द्रव्यशौचरहिता धर्मस्वाराधका भवन्ति ॥१॥ एकेत्रियत्वापरया. दीप अनुक्रम 2-5 [१] JanElicatani ~110~ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [८३], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत १ दुमपु. प्पिका सूत्रांक/ स गाथांक आत्मोपन्यासदुरुपनीते दीप अनुक्रम दशवैका० अणिमिसगिहण भिक्खुग दुरुवणीए उदाहरणं ॥ ८३॥ हारि-वृत्तिः । व्याख्या-अनानिमिषा-मत्स्यास्तद्ग्रहणे भिक्षुरुदाहरणम् , इदं च लौकिकम्, अनेन चोक्तन्यायाल्लोको त्त रमप्याक्षिप्तं वेदितव्यमिति गाथादलाक्षरायः॥ भावार्थः कथानकादवसेयः, तचेदम्-किल कोइ तचणिओ जालवावडकरो मच्छगवहाए चलिओ, धुत्तेण भण्णइ-आयरिय! अघणा ते कंथा, सो भणइ जालमेतमित्यादि श्लोकादवसेयम्-"कन्धाऽऽचार्याधना ते ननु शफरवधे जालमनासि मत्स्यान , ते मे मद्योपदंशान। पिथसि ननु ? युतो वेश्यया यासि वेश्याम् ? । कृत्वाऽरीणां गलेही क नु तव रिपचो? येषु सन्धि छिनधि, चौरस्त्वं? यूतहेतोः कितव इति कथं? येन दासीसुतोऽस्मि ॥१॥ इदं लौकिकं, चरणकरणानुयोगे तु-देय सासणस्सवण्णो जायइ जेणं न तारिस बूया । वादेवि उवहसिज्जइ निगमणओ जेण तं चेव ॥ १॥ उदाहरणदोषता पुनरस्य स्पष्टैवेति । गतं दुरुपनीतद्वारं, मूलद्वाराणां चोदाहरणदोषद्वारमिति, साम्प्रतमुपन्यासद्वारं व्याख्यायते, तत्राह पत्तारि उपनासे तव्वत्थुग अन्नवत्थुगे चेव । पडिणिभए हेउम्मि य होति इणमो उदाहरणा ।। ८४ ॥ व्याख्या-चत्वारः 'उपन्यासे विचार्य अधिकृते वा, भेदा भवन्ति इति शेषः, ते चामी-सूचनात् सूत्र १ किल कश्चित् बौद्धः आलव्यातकरो मत्स्यवधाय पलितः, धूर्तेन भण्यते--आचार्या अपना ते कन्या, स भणति–जालमेतत्. २ इति शासनस्याव? हैजायते येन न ता ब्रूयात् । यादेऽप्युपहरखते निगमनधो गेन तथैव ॥१॥ [१] ~111~ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक / गाथांक |||| दीप अनुक्रम [?] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) अध्ययनं [१], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||१॥ निर्युक्ति: [८४], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः मितिकृत्वा तथाधिकारानुवृत्तेश्च तद्वस्तूपन्यासस्तथा तदन्यवस्तू पन्यासः तथा प्रतिनिभोपन्यासः तथा हेतूपन्यासश्च । तत्रैतेषु भेदेषु भवन्ति 'अमूनि' वक्ष्यमाणान्युदाहरणानीति गाधार्थः ॥ भावार्थस्तु प्रतिभेदं खयमेव वक्ष्यति नियुक्तिकारः । तत्रायभेव्याचिख्यासयाऽऽह तब्बत्यंमि पुरिसो सवं भमिण साहइ अपुवं । अस्या व्याख्या- 'तद्वस्तुके' तद्वस्तूपन्यास इत्यर्थः, पुरि शयनात्पुरुषः 'सर्व भ्रान्त्वा सर्वमाहिण्ड्य किम् ? - कथयति अपूर्वम्, वर्त्तमाननिर्देशः पूर्ववदिति गाथादलार्थः ॥ भावार्थः कथानकादवसेयः तचेदम्- एगम्मि देवकुले कप्पडिया मिलिया भांति केण मे भ्रमन्तेहिं किंचि अच्छेरियं दिहं ?, तत्थ एगो कप्पडिगो भइमए दिइंति, जइ पुण एत्थ समणोवासओ नत्थि तो साहेमि, तओ सेसेहिं भणियं णत्थित्थ समणोवासओ, | पच्छा सो भाइ-मए हिंडतेणं पुग्ववेतालीए समुदस्स तडे रुक्खो महइमहंतो दिट्ठो, तस्सेगा साहा समुद्दे पइडिया, एगा य थले, तत्थ आणि पत्ताणि जले पडंति ताणि जलचराणि सत्ताणि हवंति, जाणि थले ताणि थलचराणि हवंति, ते कप्पडिया, अपांति - अहो अच्छेरयं देवेण भट्टारएण णिम्मियंति, तत्थेगो सावगो १ एकस्मिन् देवकुले कार्यटिका मिलिता भणन्ति—केनचित् भवतां भ्रमता किचिदाश्रये दृष्टं तत्रैकः कार्यदिको भणति मया दृष्टमिति यदि पुनरत्र श्रमणोपासको नास्ति तदा कथयामि ततः शेणितं नास्त्यत्र श्रमणोपासकः, पञ्चात्स भगति मया हिण्टमानेन पूर्ववैवाहिका समुद्रस्य तटे वृक्षोऽतिगुरुको दृष्टः, तस्यैका शाखा समुदे प्रतिष्ठिता एकाच स्थळे, तंत्र यानि पत्राणि जले पतन्ति तानि जलबराः सत्त्वा भवन्ति, यानि स्थले तानि स्वचरा भवन्ति, के काठिका पति अझे आव देवेन महारकेन निर्मितमिति, तत्रैकः श्रयकः (१) पूर्वकूलं पि. प. Ja Education lemational For ane & Personal Use City ~ 112~ www.brary.di Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक / गाथांक ||||| दीप अनुक्रम [१] दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ ५५ ॥ Jam Education “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [१], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||१॥ निर्युक्ति: [८४], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [४२] मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः कंप्पडिओ, सो भणइ-जाणि अद्धमज्झे पति ताणि किं हवंति ?, ताहे सो खुंद्धो भणइ-मया पुव्वं चैव भ- ११ द्रुमपुनियं-जह सावओ नत्थि तो कहेमि । एतेणं तं चैव पडणवत्थुमहिकिचोदाहरियं । एवं तावल्लौकिकम्, इदं चोक्तन्यायाल्लोकोत्तरस्यापि सूचकं, तत्र चरणकरणानुयोगे यः कश्चिद्विनेयः कञ्चनासग्राहं गृहीत्वा न सम्पग्वर्त्तते स खलु तद्वस्तूपन्यासेनैव प्रज्ञापनीयः, यथा कश्चिदाह - "न मांसभक्षणे दोषो, न मधे न च मैथुने । प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ॥ १ ॥ इदं च किलैयमेव युज्यते, प्रवृत्तिमन्तरेण निवृत्तेः फलाभावात्, निर्विषयत्वेनासम्भवाच्च, तस्मात्फलनिबन्धननिवृत्तिनिमित्तत्वेन प्रवृत्तिरप्यदुष्टैवेति, अत्रोच्यते, इह निवृत्तेर्महाफलत्वं किं दुष्टप्रवृत्तिपरिहारात्मकत्वेनाहोखिददुष्टप्रवृत्तिपरिहारात्मकत्वेनेति १, यथायः पक्षः कथं प्रवृत्तेरेदुष्टत्वम्, अथापरस्ततो निवृत्तेरप्यदुष्टत्वात् तन्निवृत्तेरपि प्रवृत्तिरूपाया महाफलत्वप्रसङ्गः, तथा च सति पूर्वापरविरोध इति भावना | द्रव्यानुयोगे तु य एवमाह-एकान्तनित्यो जीवः अमूर्त्तत्वादाकाशवदिति, स खलु तदेवामूर्त्तत्वमाश्रित्य तस्योत्क्षेपणादावनित्ये कर्मण्यपि तावद्वक्तव्यः, कर्मामूर्त्तमनित्यं १ कार्पेटिकः स भणति — यानि अर्धमध्ये पतन्ति तानि के भयन्ति ?, तदा स क्षुब्धो भगति मया पूर्वमेव भणितं यदि आपको नास्ति ततः कथयामि एतेन तदेव पतनवस्त्वधिकृत्योदाहृतम् (१) खत्थो विलक्षः वि.प्र. २ दुष्टत्वाङ्गीकारात्तस्याः, दुष्टपरिहारात्मकत्वात् निवृत्तेः ३ विवक्षितायाः ४ ॥ ५५ ॥ निर्निवृत्तिः प्रवृत्तिः For late & Personal Use Oily ष्पिका० तद्वस्तुनि पत्राणा सत्त्वभावः ~113~ ibrary dig Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं -] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [८४], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत 22 5 सूत्रांक/ गाथांक 5-4-4 7-%- चेत्ययं वृद्धदर्शनेनोदाहरणदोष एव, यथाऽन्येषां साधर्म्यसमा जातिरिति । गतं तद्वस्तूपन्यासद्वारम्, अधुना तदन्यवस्तूपन्यासद्वारमभिधातुकाम आह तयअन्नवत्थुगंमिवि अन्नत्ते होइ एगत्तं ।। ८४ ॥ I व्याख्या-तदन्यवस्तुकेऽपि उदाहरणे, किम् ?-अन्यस्वे भवत्येकत्वमित्यक्षरार्थ भावार्थस्वयम्-कश्चिदाह इह यस्य वादिनोऽन्यो जीवः अन्यच्च शरीरमिति, तस्यान्यशब्दस्याविशिष्टत्वात्तयोरपि तद्वाच्याविशिष्टत्वेनैकवप्रसङ्ग इति, तस्य जीवशरीरापेक्षया तदन्यवस्तूपन्यासेन परिहार कर्तव्यः, कथम्?, नन्वेवं सति सर्व भावानां परमाणुयणुकघटपटादीनामेकत्वप्रसङ्गः, अन्यः परमाणुरन्यो द्विप्रदेशिक इत्यादिना प्रकारेणान्यशब्दस्याविशिष्टत्वात् , तेषां च तद्बाच्यत्वेनाविशिष्टत्वादिति, तस्मादन्यो जीवोऽन्यच्छरीरमित्येतदेव शोभनमिति । एत-13 द्रव्यानुयोगे, अनेन चेतरस्याप्याक्षेपः, तत्र चरणकरणानुयोगे 'न मांसभक्षण' इत्यादावेव कुग्राहे तदन्यवजस्तूपन्यासेन परिहारः, कथम् ?, 'न हिंस्यात् सर्वाणि भूतानी'त्येतदेवं विरुध्यते इति । लौकिकं तु तस्मिन्नेवो-IM दाहरणे तदन्यवस्तूपन्यासेन परिहार:-जहा जाणि पुण पाडिऊण पाडिऊण कोइ खाइ वीणेइ वा ताणि किं| हवंति ति ? । गतं तदन्यवस्तूपन्यासद्वारम्, साम्प्रतं प्रतिनिभमभिधित्सुराह १ भतेन. २ नैयायिकानां. ३ वादिनः. ४ जीवशरीरयोः. ५ अन्यशब्दवाच्याभेदेन. । वथा यानि पुनः पातयित्वा पातयित्वा कश्चित्वादति (अव) विनुते वा तानि के भवन्ति ?. दीप अनुक्रम KAKKARBAR 15156-5945-45-4- ~114~ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं -1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [८५], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक दशवैका० तुज्य पिया मह पिठणो धारेइ अणूणयं पडिनिमंमि । हारि-वृत्तिःला गाथादलम् । अस्य व्याख्या-तव पिता मम पितुर्धारयत्यनूनं शतसहस्रमित्यादि गम्यते । 'प्रतिनिभपिका इति द्वारोपलक्षणम्, अयमक्षरार्थः, भावार्थः कथानकादवसेयः, तचेदम्-ऐगम्मि नगरे एगो परिव्वायगो सोच-11 प्रतिनिमे ॥५६॥ ण्णएण खोरएण तहिं हिंडइ, सो भणइ-जो मम असुयं सुणावेइ तस्स एयं देमि खोरयं, तत्थ एगो सावओ,M शतसहस्र तेण भणि"तुज्झ पिया मम पिउणो धारेइ अणूणयं सयसहस्सं । जइ सुयपुष्वं विजउ अह न सुयं हेती यवखोरयं देहि ॥१॥ इदं लौकिकम् , अनेन च लोकोत्तरमपि सूचितमवगन्तव्यम्, तत्र चरणकरणानुयोगे क्रयर्ण येषां सर्वथा हिंसायामधर्मः तेषां विध्यनशनविषयोद्रेकचित्तभङ्गादात्महिंसायामपि अधर्म एवेति तदकरणम् । द्रव्यानुयोगे पुनरदष्टं मदचनमिति मन्यमानो यः कश्चिदाह-अस्ति जीव' इति, अन्न वद किञ्चित्, सब-1* भक्तव्यो यद्यस्ति जीवः एवं तर्हि घटादीनामप्यस्तित्वाज्जीवत्वप्रसङ्ग इति । गतं प्रतिनिभम् , अधुना हेतुमाह किं नु जवा किर्जते ? जेण मुहाए न लम्भंति ॥ ८५॥ व्याख्या-किं नु यवाः क्रीयन्ते?, येन मुधा न लभ्यन्त इत्यक्षरार्थः। भावार्थस्त्वयम्-कोवि गोधो जथे किणाह, १ एकस्मिन् नगरे एकः परिमाजकः सौवर्णेन खोरकेण (तापसभाजनेन) तत्र हिण्डते, स भपति-यो मख्यमश्रुतं श्रावयति तस्मै एतद्ददामि खोरक, त कः श्रावकः, तेन भणितम्-"तब पिता मम पितुः धारयति अनूनं शतसहस्रम् । यदि श्रुतपूर्व ददातु अथ न श्रुतं खोरके देहि ॥१॥२ कोऽपि व्यवहारी ॥५६॥ लियबानू कीणाति. दीप अनुक्रम ~115~ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं -1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [८५], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक सो अन्नेण पुच्छिन्नइ-किं जवे किणासि ?, सो भणइ-जेण मुहियाए ण लब्भामि । लौकिकमिदं हेतूपन्यासोदाहरणम् , अनेन च लोकोत्तरमप्याक्षिप्तमवगन्तव्यम्, तत् चरणकरणानुयोगे तावत् यद्याह विनेयः-किPामितीयं भिक्षाटनाद्याऽतिकष्टा क्रिया क्रियते?, स वक्तव्यो-येन नरकादिषु न कष्टतरा वेदना वेद्यत इति ।। द्रव्यानुयोगे तु ययाह कश्चित्-किमित्यात्मा न चक्षुरादिभिरुपलभ्यते?, स वक्तव्यो-येनातीन्द्रिय इति । गत हेतुद्वारम् , तदभिधानाचोपन्यासद्वारम् , तदभिधानाचोदाहरणद्वारमिति ।। ८५ ॥ साम्प्रतं हेतुरुच्यते-तथा चाह अहवावि इमो हेऊ विन्नेओ तत्थिमो चउविअप्पो । जावग थावग वंसग लूसग हेऊ चउत्थो उ ।। ८६ ।। KI व्याख्या-अधवा तिष्ठतु एष उपन्यासः, उदाहरणचरमभेदलक्षणो हेतुः, 'अपि:' सम्भावने, किं सम्भा-1 वयति ?, 'इमो अयं अन्यद्वार एवोपन्यस्तत्वात्तदुपन्यासनान्तरीयकत्वेन गुणभूतत्वादहेतुरपि, किंतु हेऊ वि-13 पणेओ तत्थिमोत्ति व्यवहितोपन्यासात् तत्रायं-वक्ष्यमाणो हेतुर्विज्ञेयः 'चतुर्विकल्प' इति चतुर्भेदः, विकपाल्पानुपदर्शयति-यापकः स्थापकः व्यसका लूषकः हेतुः चतुर्थस्तु । अन्ये वेवं पठन्ति-हेउत्ति दारमहुणा, चलब्धिहो सोख होइ नायव्वोत्ति, अत्राप्युक्तमुदाहरणम्, हेतुरित्येतद् द्वारमधुना-तुशब्दस्य पुनःशब्दा १ सोऽन्येन पृश्यते किं यवान् कीपाति ?, स भगति-येन मुधिकया न लगे. (१) पूर्वोक्के. (२) पूर्वोत. (१) अवन्तरभाषित्वान्, (४) प्रस्तुत उदाहरण चरमभेदरूपः दीप अनुक्रम 555 ~116~ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं -1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [८६], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत पिका सूत्रांक/ यापकहे गाथांक दीप दशवैकार्थत्वात् स पुनहेतुश्चतुर्विधो भवति ज्ञातव्य इत्येवं गमनिका क्रियते, पश्चाई तु पूर्ववदेवेति गाथाक्षरार्थः॥ दुमपुहारि-वृत्तिःभावार्थं तु यथावसरं स्वयमेव वक्ष्यति ।। ८६ ॥ तत्रायभेदव्याचिख्यासयाऽऽह उम्भामिगा व महिला जावगहेडेमि उंटलिंडाई । ॥५ ॥ I गाथादलम्। व्याख्या-असती महिला, किम् ?-यापयतीति यापकः यापकश्वासौ हेतुश्च यापकहेतुः तस्मिन् उ- तावुष्ट्रलिदाहरणमिति शेषः, उष्ट्रलिण्डानीति कथानकसंसूचकमेतदिति अक्षरार्थः।। भावार्थः कथानकादबसेयः, तच्चेदं ण्डिका कथानकम्-एगो वाणियओ भजं गिण्हेऊण पच्चंतं गओ, पाएण वीणदव्वा धणियपरद्धा कयावराहा या पचंतं सेवंती पुरिसा दुरहीयविज्जा यशासा य महिला उम्भामिया, एगमि पुरिसे लग्गा, तं वाणिययं सागारिपंति से ४ चिंतिऊण भणइ-वच वाणिज्जेण, तेण भणिया-किं घेतूण वचामि?, सा भणइ-उद्दलिंडियाओ घेत्तुणं वच से उज्जणि, पच्छा सो सगडं भरेत्ता उजेणिं गतो, ताए भणिओ य-जहा एकेकयं दीणारेण दिजहत्ति, सा चिंतेइ P-वरं खु चिरं खिप्पंतो अच्छउ, तेण ताओ चीहीए उड्डियाओ, कोइ ण पुच्छह, मूलदेवेण दिहो, पुच्छिओ य, १एको वणिर मायाँ गृहीत्वा प्रत्यन्त यतः,-प्रायेण क्षीणद्रव्या (धनिकापरासाः) धनिकप्रारब्धाः कृतापराधाच । प्रसन्त सेवन्ते पुरुषा दुरधीत विद्याशा१॥ |सा च महिला उद्भामिका, एकस्मिन् पुरुषे लगा, तं वणिज सापारिकमिति चिन्तयित्वा भणति-ब्रज वाणिज्येन, तेन भणिता-कि गृहीत्वा बजामि !, सा भपाति लिण्डिका गृहीत्वा प्रजोजयिनी, पश्चात स वाकटं भूयोनयिनीं गतः, तथा भागितच यवैकेकिका दीनारेण दद्या इति, सा चिन्तयति--परमेव चिर (क्षिप्यन्) प्रतीक्षमाणस्तितु तेन ता वीभ्यामवतारिता, कोऽपि न पृच्छति, मूलदेवेन रणः, पृष्टव, अनुक्रम [१] ॥ ५७॥ ~117~ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं -1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [८७], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक दसिंह तेण, मूलदेवेण चिंतियं-जहा एस बराओ महिलाछोमिओ, ताहे मूलदेवेण भण्णति-अहमेयाउ& तव विक्षिणामि जइ ममवि मुल्लस्स अद्धं देहि, तेण भणियं-देमित्ति, अब्भुवगए पच्छा मूलदेवेणं सो हंसोट जाएऊण आगासे उप्पइओ, णगरस्स मज्झे ठाइऊण भणइ-जस्स गलए चेडरूचस्स उलिंडिया न बद्धा तं, मारेमि, अहं देवो, पच्छा सव्वेण लोएण भीएण दीणारिकाओ उद्दलिंडियाओ गहियाओ, विकियाओ य, ताहे तेण मूलदेवस्स अद्धं दिनं । मूलदेवेण य सो भणइ-मंदभग्ग! तव महिला धुत्ते लग्गा, ताए तब एयं कर्य, ण पत्तियति, मूलदेवेण भण्णइ-एहि बच्चामोजा ते दरिसेमि जदि ण पशियसि, ताहे गया अ-10 नाए लेसाए, वियाले ओवासो मग्गिओ, ताए दिण्णो, तस्थ एगमि पएसे ठिया, सो धुत्तो आगओ, इयरी[8] वि धुत्तेणसह पियेउमादत्ता, इमं च गायइ–इरिमंदिरपण्णहारओ, मह कंतु गतो वणिजारओ । वरिसाण सयं च जीवउ मा जीवंतु घरं कयाइ एउ॥१॥ मूलदेवो भणइ-कयलीवणपत्तवेदिया, पइ भणामि वि तेन, मूलदेवेन चिन्तितं यथैष वराको महिलाक्षोभितः, तदा मूलदेवेन भन्यते-गहमेतास्तव विद्यापयामि, यदि ममापि मूल्यमाई दास्यसि,18 तेन भणितं-ददामीति, अभ्युपगते पश्चान्मूलदेवेन स हंसो याचयित्वा आकाशे उत्पतितं, नगरस्य मध्ये स्थित्वा भणति-यस्य गलके (श्रीवायां) चेटरूपस्य गष्ट्रलिण्डिका न बद्धा तं मारयामि, महदेवा, पचात् सर्वेण लोकेन भीतेन दैनारिका उष्ट्रविधिका ग्रहीताः, विकीताब, तदा तेन मूलदेवाबाई दर्स, मूलदेवेन न भष्यते सः मन्यभाग्य । तब महिला धूः लामा, तया तवैतकतं, न प्रत्येति, मूलदेवेन भण्यते-एहि प्रजावो यावत्तव दर्शयामि यदि म प्रत्येषि, तदा गती अन्यया लेवयया, विकालेऽवकाशो मार्गितः, तया दत्तः, तत्रैकस्मिन् प्रदेशे स्थिती, स धूर्त मागतः, इतरापि धूर्तेन सह पातुमारब्धा, एतच गायति-सक्ष्मीम-5 न्दिरपण्यधारकः, मम कान्तो गतो चगिज्यारतः । वर्षाणां शतं जीवतु मा जीवन् गृई कदाचिद् गमत् ॥१॥ मूलवेवो भणति-कदलीवनपत्रवेष्टिते । प्रतिभणाकित दीप अनुक्रम ~118~ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक / गाथांक |||| दीप अनुक्रम [?] दशबैका ० हारि-वृत्तिः ॥ ५८ ॥ Jan Education “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [१], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||१॥ निर्युक्ति: [८७], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः देवं जं मद्दलएण गज्जती, मुणड तं मुहुत्तमेव ॥ १ ॥ पच्छा मूलदेवेण भणति-किं धुत्ते ?, तओ पभाए निगंतूणं पुणरवि आगओ, तीय पुरओ ठिओ, सा सहसा संभंता अभुट्टिया, तओ खाणपिबणे वहते तेण वाणिएणं सव्वं तीए गीयपज्जन्तयं संभारियं । एसो लोइओ हेऊ, लोउत्तरेवि चरणकरणाणुयोगे एवं सीसोऽवि | केइ पयत्ये असतो कालेण विजादीहिं देवतं आयंपइसा सहावेयब्वो । तहा दव्वाणुओगेवि पडिवाई नाऊण तहा विसेसणबहुलो हेऊ कायव्वो जहा कालजावणा हवद, तओ सो णावगच्छइ पगयं, कुत्तियावणचचरी वा कज्जइ, जहा सिरिगुत्तेण छलुए कया । उक्तो यापकहेतुः, साम्प्रतं स्थापकहेतुमधिकृत्याहलोगस्स माजाणण बावगहेऊ उदाहरणं ॥ ८७ ॥ अस्य व्याख्या- 'लोकस्य' चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य मध्यज्ञानम्, किम् ?, स्थापकहेताबुदाहरणमित्यक्षरार्थः ॥ भावार्थ: कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-एंगो परिव्वायगो हिंडइ, सो य परूवेइ-खेले दाणाई सफलंतिकट्टु १ देव (दैवतं यत् । मार्दलफेन गर्जति गुणतु तन्मुहूर्तमेव ॥ १ ॥ पञ्चान् मूलदेवेन मष्यते किं धूर्ते, ततः प्रभाते निर्मल पुनरपि आगतः, तस्याः पुरतः स्थितः, सा सहसा सम्भ्रान्ता अभ्युत्थिता, ततः खादनपाने वर्तमाने तेन वणिजा सर्वे तस्था मीतपर्यन्तं संस्मारितम् । एष लौकिको हेतुः, लोकोत्तरेऽपि चरणकरणानुयोगे एवं शिष्योऽपि कांचित् पदार्थात् अश्रद्दधानः कालेन विद्यादिभिर्देवतामा कम्प्य श्रद्धावान् कर्त्तव्यः । तथा द्रव्यानुयोगेऽपि प्रतिवादिनं ज्ञाखा तथा विशेषण बहुलो हेतुः कर्तव्यो यथा कालवापना भवति, यत्तः स नावगच्छति प्रकृतं कुत्रिकापचचरी वा किवते, यथा श्रीगुसेन षडुलके कृता. २ एकः परिवाजको हिण्डते, स च प्ररूपयति- दानादि सफलमित्तिकृत्या, For ane & Personal Use City ~ 119~ १ द्रुमपु ष्पिका० स्थापकतौ लोकमध्यं ॥ ५८ ॥ ibrary dig Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [८७], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक समखेत्ते कायब्ब, अहं लोअस्स मझ जाणामि ण पुण अन्नो, तो लोगो तमाडाति, पुच्छिओ य संतो चउसुवि दिसासु खीलए णिहणिऊण रज्जूए पमाणं काऊण माइहाणिओ भणइ-एयं लोयममंति, तओ लोओ है| विम्हयं गच्छद-अहो भट्टारएण जाणियंति, एगो य सावओ, तेण नायं, कहं धुत्तो लोयं पयारेइत्ति ?, तो अ हपि वंचामित्ति कलिऊण भणियं-ण एस लोयमझो, भुल्लो तुमंति, तओ सावएण पुणो मवेऊण अण्णो देसो कहिओ, जहेस लोयमझोत्ति, लोगो तुट्ठो, अण्णे भणति-अणेगट्टाणेसु अन्नं अन्नं मज्झं परूवतयं वट्ठण विरोधो चोइओत्ति । एवं सो तेण परिवायगो णिप्पिट्टपसिणवागरणो कओ। एसो लोइओ थावगहेऊ, लोउत्तरेऽवि चरणकरणाणुयोगे कुस्सुतीसु असंभावणिज्जासग्गाहरओ सीसो एवं चेव पण्णवेयब्बो । दवा-12 Xणुजोगे वि साहुणा तारिसं भाणियव्वं तारिसोय पक्खो गेण्हियन्वो जस्स परो उत्तरं चेच दाउं न तीरह, दापुब्बावरविरुद्धो दोसो य ण हवइ ।। ८७॥ उक्त स्थापका, साम्प्रतं व्यंसकमाह १ समक्षेत्रे कर्तव्यम् , मई लोकस्य मध्यं जानामि न पुनरन्यः, ततो लोकस्तमाद्रियते, पृष्टश्च सन् चतसृष्वपि दिक्षु कीलकान् निहत्य रज्या प्रमाणं कृत्वा मातृस्थानिकः (मायिकः) भण्पति-एतलोकमन्यामिति, ततो लोको विस्मयं गच्छति-अहो भहारकेण ज्ञातमिति, एकष श्रावकः, तेन ज्ञात-कथं धूतौ लोक प्रतारयति इति, ततोऽहमपि वश्चये इति कलयित्वा भपितं-पैतलोकमध्य, प्रान्तस्त्वमिति, ततः धावकेण पुनः मित्वाऽन्यो देशः कथितः-यथैतलोकमध्यमिति, लोकस्तुष्टः । अन्ये भणन्ति-अनेकस्थानेषु अन्यदन्यन्याच्यं प्ररूपयन्तं दृष्ट्वा विरोधश्चोदित इति । एवं स तेन परिव्राजको निष्पृष्टप्रश्नव्याकरणः कृतः । एष लौकिक: स्थापकहेता, खोकोत्तरेऽपि चरणकरणानुयोगे कुश्रुतिभिरसम्भावनीयासहरतः शिष्य एवमेव प्रहापयितव्याबायोगऽपि साधुना तारम् वक्तव्य तामा पक्षो ग्रहीतव्यो यस परः उत्तरमेव वातुं न शक्नोति, पूर्वापरविरुदो दोषच न भवति. कक दीप अनुक्रम [१] ~ 120~ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक / गाथांक |||| दीप अनुक्रम [?] दशवैका ० हारि-वृत्तिः ।। ५९ ।। “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) अध्ययनं [१], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||१॥ निर्युक्ति: [८८], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [४२] मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः सा सगडतित्तिरी वंसगंमि हेउम्मि होइ नायव्वा । व्याख्या-सा शकटतित्तिरी व्यंसकहेती भवति ज्ञातव्येत्यक्षरार्थः ॥ भावार्थः कथानकादवसेयः तच्चेदम्जहां एगो गामेल्लगो सगडं कट्ठाण भरेऊण नगरं गच्छइ, तेण गच्छंतेण अंतरा एगा तित्तिरी मइया दिट्ठा, सो तं गिण्हेऊण सगडस्स उबरिं पक्खिविऊण नगरं पट्टो, सो एगेण नगरघुत्तेण पुच्छिओ-कहं सगडतितिरी लब्भइ ?, तेण गामेलएण भण्णइ-तप्पणादुयालियाए लब्भति, तओ तेण सक्खिण आहणित्ता सगडं तित्तिरीय सह गहियं, एत्तिलगो चैव किल एस वंसगो त्ति, गुरवो भणति तओ सो गामेल्लगो दीणमणसो अच्छह, तत्थ य एगो मूलदेवसरिसो मणुस्सो आगच्छर, तेण सो दिट्ठो, तेण पुच्छिओ-किं शियायसि अरे देवाणुप्पिया १, तेण भणियं अहमेगेण गोहेण इमेण पगारेण छलिओ, तेण भणियं मा बीहिह, तप्पणादुयालियं तुमं सोबयारं मग्ग, माइहाणं सिक्खाविओ, एवं भवन्ति भणिऊण तस्स सगासं गओ, १ थैको प्रमेयकः शकटं काठैर्भूत्वा नगरं गच्छति, तेन गच्छता अन्तरका वित्तिरिका मृता दृष्टा, सतां गृहीत्वा शकटस्योपरि प्रक्षिप्य नगरं प्रविष्टः स एकेन नगरधूर्तेन पृष्टः कथं शकटतित्तिरी लभ्यते, तेन प्रामेयकेण भाष्यते, मध्यमानसानुकेन ( प्राकृतत्वाव्यत्ययः) लभ्यते, ततस्तेन साक्षिण उपहत्य शकटं तित्तिय सह गृहीतम् एतावानेव किलैष व्यंसक इति । गुरवो भणन्ति ततः स प्रामेयको दीनमनाः तिष्ठति तत्र बैको मूलदेनसदृशो मनुष्य आगमत, तेन स दृष्टः तेन पृष्टः किं ध्यायति अरे देवानुप्रिय ? तेन भणितम् अहमेकेन व्यवहारिणाऽनेन प्रकारेण चलितः तेन भणितं मा भैषीः मध्यमानसक्तुर्क खं सोपचारं मार्गय, मातृस्थानं शिक्षितः, एवं भवत्विति भणित्वा तस्य सकाशं गतो, For hate & Personal Use Oily ~ 121 ~ १ द्रुमपुष्पिका० व्यंसकहेतौ शकटतित्तिरी ॥ ५९ ॥ by dig Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं -] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [८८], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक CANCY भणियं चणेण-मम जइ सगडं हियं तो मे इयाणिं तप्पणादुयालियं सोवयार दवावेहि, एवं होत्ति, घरं जीओ, महिला संदिट्ठा, अलंकियविभूसिया परमेण विणएण एअस्स तप्पणादुयालियं देहि, सा वयणसमं उचट्ठिया, तओ सो सागडिओ भणति-मम अंगुली छिन्ना, इमा चीरेणावेढिया, ण सक्केमि उड्डयालेऊ, तुमं| अदुयालि देहि, अदुआलिया तेण हत्येण गहिया, गामं तेण संपढिओ, लोगस्स य कहेर-जहा मए सतित्तिरीगेण सगडेण गहिया तप्पणानुयालिया, ताहे तेण धुत्तेण सगडं विसज्जियं, तं च पसाएऊण भज्जा णियत्तिया । एस पुण लूसओ चेव कहाणयवसेण भणिओ। एस लोइओ, लोगुत्तरेऽवि चरणकरणाणुयोगे कुस्सुतिभावियस्स तस्स तहा बंसगो पउज्जति जहा संमं पडिवजह । दव्वाणुओगे पुण कुप्पाचयणिओ |चोइजा-जहा जइ जिणपणीए मग्गे अस्थि जीवो अत्थि घडो, अस्थित्तं जीवेऽपि घडेवि, दोसु अविसेसेण| भणितं चानेन मम यदि शफट हतं तदा मामिदानी मध्यमानसन्तुकं सोपचार दापय, एवं भवस्थिति, गृहं नीता, महिला संदिष्टा, असंतविभूषिता परमेण विनयेनेती मध्यमानसक्तुकं देहि, सा वचनसममुपस्थिता, ततः स शाकटिको भणति-ममाहुली छिना, इयं चीवरेणावेष्टिता, न शक्नोमि मथितूं, त्यं मथायित्वा देहि, मथिका तेन एस्तेन गृहीता, प्रार्म तथा समं (याममाण) प्रस्थितः, लोकाय च कथयति-यथा मया सतित्तिरिकेण शकटेन गृहीता सक्तुमक्षिका, तदा तेन धूर्तेन शकट वितंच प्रसाद्य भार्या निर्तिता, एष धुनषका एवं कथानकवशेन भाणितः । एष लौकिका, लोकोत्तरेऽपि चरणकरणानुयोगे कुश्रुतिभावितस्य तस्य तथा व्यसका प्रयुज्यते यथा सम्यक् प्रतिपद्यते । द्रव्यानुयोगे पुनः कुप्रावचनिका चोदयेत् यथा यदि जिनप्रणीते मार्गेऽस्ति जीवः अस्ति घटः, अस्तित्वं जीवेऽपि घटेऽपि, दूयोरप्यविशेषेण, दीप अनुक्रम [१] ~122~ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [८८], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक दशवकावइत्ति, तेण अत्थित्तसद्दतुल्लत्तणेण जीवघडाणं एगत्तं भवति, अह अस्थिभावाओ वतिरित्तो जीवो, दुमपुहारि-वृत्तिः तेण जीवस्स अभावो भवइत्ति। एस किल एव्हमेत्तो चेव वंसगो, लूसगेण पुण एस्थ इमं उत्तरं भाणितव्वं- पिका जह जीवघडा अत्थिते वति, तम्हा तेसिमेगतं संभावेहि, एवं ते सव्वभावाणं एगत्तं भवति, कह?, अ-11 व्यंसकहेलास्थि घडो अस्थि पडो अस्थि परमाणू अस्थि दुपएसिए खंधे, एवं सब्वभावसु अस्थिभावो वइत्तिकातौ शकट किं सब्वभावा एगीभवंतु, एत्थ सीसो भणति-कई पुण एवं जाणियब्वं? सब्वभाषेसु अस्थिभावो यह तित्तिरी न य ते एगीभवंति, आयरिओ आह-अणेगताओ एयं सिज्झइ, एस्थ दिहतो-खइरो वणस्सई वणस्सई। पुण खदिरो पलासो वा, एवं जीवोऽवि णियमा अस्थि, अस्थिभावो पुण जीवो व होज्ज अन्नो वा धम्मा*धम्मागासादीणं ति । उक्तो व्यंसकः, साम्प्रतं लूषकमधिकृत्याह तउसगवंसग लूसगहेउम्मि य मोयओ य पुणो ॥ ८८॥ वर्तत इति, तेनास्तित्वशब्दतुल्यत्वेन जीवघटयोरेकत्वं भवति, अथालिभावाव्यतिरिको जीवस्तेन जीवस्वाभावो भवतीति । एष किल एतावन्मात्रथैव | व्यंसकः, षण पुनरौतदुत्तरं भनितव्यं यदि (यतो) जीरपटौ अस्तित्वे वत्तेते तस्मात्तयोरेकवं सम्भावयसि, एवं तव सर्वभावानामेकत्वं भवति, कथम्।। अन्ति घटः अस्ति पटः अस्ति परमाणुः अस्ति दिनदेशिकः स्कन्धः, एवं सर्वभावेमस्तिभावो वर्तत इतिकृया कि सर्वभावा एकीभवन्तु ? अत्र शिष्यो भगति It ॥६ ॥ कथं पुनरेतत् ज्ञातव्यं सर्वभावेष्वसिरवं वर्तत, नववे एकीभवन्ति, आचार्य आह-अनेकान्तादेत सिधाति, अत्र दृष्यन्तः अदिरो वनस्पतिः वनस्पतिः पुनः४ खदिर पलाशो वा, एवं जीयोऽपि नियमादस्ति, अस्तिभावः पुनर्जीयो वा भवेदन्यत्तमो वा धर्माधर्माकाशादीनामिति. दीप अनुक्रम [1] ~123~ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [८८], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक व्याख्या-त्रपुषव्यसकप्रयोगे पुनर्लेषके हेतौ च मोदको निदर्शनमिति गाथाक्षरार्थः ॥ भावार्थः कथानकादवसेया, तचेदम्-जहा एगो मणुस्सो तउसाणं भरिएण सगडेण नयरं पविसह, सो पविसंतो धुत्तेण भण्णइजो एयं तउसाण सगडं खाइज्जा तस्स तुमं किं देसि ?, ताहे सगडत्तेण सो धुत्तो भणिओ-तस्साहं तं मोयगं देमि जो नगरहारेण ण णिप्फडइ, धुत्तेण भण्णति-तोऽहं एयं तउससगड खयामि, तुमं पुण तं मोयगं देजासि जो नगरहारेण ण नीसरति, पच्छा सागडिएण अभुवगए धुत्तेण सक्खिणो कया, सगड अहि-४ द्वित्ता तेसिं तउसाणं एकेकायं खंडं अवणित्ता पच्छा तं सागडियं मोदकं मग्गति, ताहे सागडिओ भणतिइमे तउसा ण खाइया तुमे, धुत्तेण भषणति-जइ न खाइया तउसा अग्यवेह तुमं, तओ अग्घविएसु कइया | आगया, पासंति खंडिया तउसा, ताहे कइया भणंति-को एए खइए तउसे किणइ ?, तओ करणे ववहारो जाओ खइयत्ति, जिओ सागडिओ। एस वंसगो चेव लूसगनिमित्तमुवपणत्यो, ताहे धुत्तेण मोदर्ग मग्गि यको मनुष्य अपुषा भतेन धाकटेन नगर प्रविशति, स प्रविशन् एतेन भम्पते-य एतत् वपुषां शकर सावेत तसे वंकि ददाधि सदा शाकटिकेन स धूर्तो भणित:--तस्मायहं तं मोदकं ददामि यो नगरद्वारेण न निस्सरति, धूर्तेन मण्यते तदाहमेतबपुषां शकटं वादामि, स्वं पुना मोदकं दद्याः यो नगरद्वारेण न निस्सरति, पचात् शाकटिकेनाभ्युपगते धूर्तेन साक्षिणः कूताः, शकटमधिष्ठाय तेषां वपुषामेकैक खण्डमपनीय पश्चात्तं शाकटिक मोदकं मार्गपति. तदा शाकटिको भणति-इमानि अघि म खादितानि त्वया, भूतेन भण्पते.-यदा न खावितानि तदा प्रषित्वं अर्धय, ततोऽचितेषु कयिका भागताः अपश्यन् खण्डितानि प्रषि, तदा कयिका भणन्ति- एतानि खादितानिषि कीणाति, ततः करणे व्यवहारो जातः सादितानीति, जितः शाकटिकः, एष व्यं. कासकय छपकनिमित्तमुपन्यतः । तदा धूर्तन मोदको मायैते. दीप अनुक्रम [१] दश.२ Jamachar ~124~ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [८८], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक दशवैका जति, अचाइओ सागडिओ, जूतिकरा ओलग्गिया, ते तुट्टा पुच्छंति, तेसिं जहावसं सब कहेति, एवं कहिते दुमपु. हारि-वृत्तिः तेहिं उत्तरं सिक्खाविओ-जहा तुम खुड्यं मोदगं णगरदारे ठवित्ता भण एस स मोदगो ण णीसरह णग- पिका० रदारण, गिण्हाहि, जिओ धुत्तो । एस लोइओ, लोगुत्तरेवि चरणकरणाणुयोगे कुस्सुतिभावितस्स तहा लूस- लूषकहेतौ दिगो पउंजइ-जहा सम्म पडिवजा। दवाणुजोगे पुण पुज्जा भणति-पुवं दरिसिओ चेव । अण्णे पुण भणति-त्रपुषउदा. पुवं सयमेव सव्वभिचारं हे उच्चारेऊण परविसंभणानिमित्तं सहसा वा भणितो होला, पच्छा तमेव हे अण्णेणं निरुत्सवयणेणं ठायेह । उक्तो लूषकस्तदभिधानाच हेतुरपि । साम्प्रतं यदुक्तं 'कचित्पञ्चावयव मिति, तदधिकृतमेव सूत्रं 'धम्मो मंगल'मित्यादिलक्षणमधिकृत्य निदर्यते-अहिंसासंयमतपोरूपो धर्मः मङ्गलमुत्कृष्टमिति प्रतिज्ञा, इह च धर्म इति धर्मिनिर्देशः, अहिंसासंयमतपोरूप इति धर्मिविशेषणम् , उस्कृष्टं मङ्ग-1 | लमिति साध्यो धर्मः, धर्मिधर्मसमुदाया प्रतिज्ञा, इयं श्लोकानोक्ता इति, देवादिपूजितत्वादिति हेतुः, आ-13/ दिशब्दात् सिद्धविद्याधरनरपरिग्रहः, अयं च श्लोकतृतीयपादेन खलूक्तोऽवसेयः, अहंदादिवदिति दृष्टान्तः, दीप अनुक्रम [१] ॥६१ व्यथितः वायटिकी, चूतकरा अपलगिताः, ते तुष्टाः पृच्छन्ति, तेभ्यो यथारसं सर्व कथयति, एवं कथिते तैकतर शिक्षितं यथा संचालक मोदक नगरद्वारे स्थापयित्वा भण-एष स मोदको न निस्सरति नगरद्वारेण, गृहाण, जितो धूर्तः । एष लौकिका, लोकोत्तरेऽपि चरणकरणानुयोगे धुतिभाषिताय तथा |ळूषकः प्रयोक्तमो यथा सम्यक् प्रतिपद्यते । द्रव्यानुयोगे पुनः पूज्या भणन्ति-पूर्व दर्शित एव । अन्ये पुनर्भणन्ति-पूर्व खयमेव सव्यभिचार हेतुमुच्चार्य परविशम्भहेतवे सहसा वा भणितो भवेत् पश्चात् तमेव हेतुमन्येन निरुतवचनेन स्थापयति. ~125~ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक/ गाथांक |||| दीप अनुक्रम [?] Ja Education “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||१॥ निर्युक्ति: [८८], भाष्यं [-] अध्ययनं [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः अत्रापि चादिशब्दाद् गणधरादिपरिग्रहः, अयं च श्लोकचरमपादेनोक्तो वेदितव्य इति । न च भावमनोऽधिकृत्यादृष्टान्तेऽस्ति कञ्चिद्विरोध इति, इह यो यो देवादिपूजितः स स उत्कृष्टं मङ्गलं यथाऽर्हदादयस्तथा व देवाविपूजितो धर्म इत्युपनयः, तस्माद्देवादिपूजितत्वादुत्कृष्टं मङ्गलमिति निगमनम् । इदं वाक्यषद्वयं सूत्रोक्तावयवत्र्याविनाभूतमितिकृत्वा तेन सूचितमवगन्तव्यमित्यलं विस्तरेण ॥ ८८ ॥ साम्प्रतमेत्तानेवावयवान् सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्या प्रतिपादयन्नाह - धम्मो गुणा अहिंसाइया उ ते परममंगल पन्ना । देवावि लोगपुजा पणमंति सुधम्ममि हेऊ ॥ ८९ ॥ व्याख्या- 'धर्म:' प्राग्निरूपित शब्दार्थः, स च क हत्याह-गुणा अहिंसादयः, आदिशब्दात् संयमतपःपरिग्रहः, तुरेवकारार्थः, अहिंसादय एव, ते परममङ्गलमिति प्रतिज्ञा, तथा देवा अपि, अपिशब्दात् सिद्धविद्याधर नरपतिपरिग्रहः, 'लोकपूज्या' लोकपूजनीयाः 'प्रणमंति' नमस्कुर्वन्ति, कम् ? - 'सुधर्माणं' शोभनधर्मव्यवस्थितमिति, अयं हेत्वर्थसूचकत्वाद्धेतुरिति गाथार्थः ॥ ८९ ॥ दिहंतो अरहंता अणगारा बहवो जिणसीसा । वत्तणुवते नज्जइ जं नरवइणोऽवि पणमंति ॥ ९० ॥ व्याख्या- 'दृष्टान्तः' प्राग्निरूपितशब्दार्थः स चाशोकायष्टमहाप्रातिहार्यादिरूपां पूजार्हन्तीत्यर्हन्तः, तथा अनगारा बहव एव जिनशिष्या इति, न गच्छन्तीलगा-वृक्षास्तैः कृतमगारं गृहं वयेषां विद्यत इति १ द्रव्यमनः सत्वात् पूर्वावस्थामाष वा. For ane & Personal Use City ~126~ brary dig Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [२०], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत |पिका सूत्रांक/ गाथांक धर्म दीप अनुक्रम दशवैका०४ अर्शआदेराकृतिगणवादच्प्रत्ययः अगारा-गृहस्थाः न अगारा-अनगाराः, चशब्दः समुच्चयार्थः, तुरेवकारार्थः, दुमपुहारि-वृत्तिः ततश्च बहव एव नाल्पाः, रागादिजेतृत्वाजिनास्तच्छिष्याः-तद्विनेया गौतमादयः, आह-अहंदादीनां परो क्षत्वात् दृष्टान्तत्वमेवायुक्तम् , कथं चैतद्विनिश्चीयते? यथा ते देवादिपूजिता इति, उच्यते, यत्तावदुक्तं 'परोक्ष- पश्चावयवं ॥ ६२॥ त्वादिति, तदुष्टम् , सूत्रस्य त्रिकालगोचरत्वात् कदाचित्प्रत्यक्षत्वात्, देवादिपूजिता इति च एतद्विनिश्चया-1| याह-वृत्तम्-अतिक्रान्तम् अनुवत्तेमानेन-साम्प्रतकालभाविना ज्ञायते, कथमित्यत आह-'यद्' यस्माद । नरपतयोऽपि-राजानोऽपि प्रणमन्ति, इदानीमपि भावसाधू, ज्ञानादिगुणयुक्तमिति गम्यते । अनेन गुणानां पूज्यत्वमावेदितं भवतीति गाथार्थः ।। ९०॥ उपसंहारो देवा जह तह रायावि पणमइ सुधम्म । तम्हा धम्मो मंगलमुकिहमिद अ निगमणं ।। ९१ ॥ व्याख्या-'उपसंहारः' उपनया, स चायम्-देवा यथा तीर्थकरादीन् तथा राजाऽप्यन्योऽपि जनः प्रणमतीदानीमपि सुधर्माणमिति । यस्मादेवं तस्माद्देवादिपूजितत्वादू धर्मों मङ्गलमुत्कृष्टमिति च निगमनम् । 'प्रतिज्ञाहेत्वोः पुनर्वचनं निगमन मिति गाथार्थः ॥ ९१ ॥ उक्तं पञ्चावयवम्, एतदभिधानाचार्थाधिकारोऽपि धर्मप्रशंसा । साम्प्रतं दशावयवं तथा स चेहैव जिनशासन इत्यधिकारं चोपदर्शयति-इह च दशावयवाः-प्रति-| ॥६२।। ज्ञादय एवं प्रतिज्ञादिशुद्धिसहिता भवन्ति । अवयवत्वं च तच्छुद्धीनामधिकृतवाक्यार्थोपकारकत्वेन प्रतिज्ञा-IN [1] JanEducated ~127~ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं -1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [९१], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक दीनामिव भावनीयमिति, अत्र बहु वक्तव्यं, तत्तु नोच्यते, गमनिकामात्रत्वात् प्रारम्भस्येति ॥ साम्प्रतमधिकृतदशावयवप्रतिपादनायाह विश्वपइन्ना जिणसासणंमि साहेति साहबो धम्मं । हेऊ जम्हा सम्भाविएसुऽहिंसाइसु जयंति ।। ९२ ॥ | व्याख्या-द्वितीया पश्चावयबोपन्यस्तप्रथमप्रतिज्ञापेक्षया, प्रतिज्ञा पूर्ववत्, द्वितीया चासौ प्रतिज्ञा च द्वितीयप्रतिज्ञा, सा चेयम्-जिनशासने जिनप्रवचने, किम् ?–'साधयन्ति' निष्पादयन्ति 'साधवः' प्रबजिताः 'धर्म | माग्निरूपितशब्दार्थम् । इह च साधच इति धम्मिनिर्देशः, शेषस्तु साध्यधर्म इति, अयं प्रतिज्ञानिर्देशः । हेतु-1 निर्देशमाह-हेतुर्यमात् 'साभाविकेषु' पारमार्थिकेषु निरुपचरितेष्ववित्यर्थः अहिंसादिषु, आदिशब्दान्मूपावादादिविरतिपरिग्रहः, अन्ये तु व्याचक्षते-'सम्भाविएहिं ति सद्भावेन निरुपचरितसकलदुःखक्षयायवेत्यर्थः 'यतन्ते' प्रयत्नं कुर्वन्ति इति गाथार्थः ॥ ९२ ॥ साम्प्रतं प्रतिज्ञाशुद्धिमभिधातुकाम आह जह जिणसासणनिरया धम्म पालेंति साहयो सुद्धं । न कुतित्थिएसु एवं दीसइ परिचालणोवाओ ॥ ९३ ॥ व्याख्या-'यथा' येन प्रकारेण जिनशासननिरता-निश्चयेन रता 'धर्म' प्राग्निरूपितशब्दा) 'पालयन्ति' रक्षन्ति 'साधवः' प्रव्रजिताः षड्जीवनिकायपरिज्ञानेन कृतकारितादिपरिवर्जनेन च 'शुद्धम् अकलक, नैवं तत्रान्तरीयाः, यस्मान्न कुतीर्थिकेषु, 'एवं यथा साधुषु दृश्यते परिपालनोपायः, षड्जीवनिकायपरिज्ञानाद्य दीप अनुक्रम * ~128~ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक / गाथांक |||| दीप अनुक्रम [१] भाष्यं [१] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [१], उद्देशक [ - ], मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्ति: [९३], आगमसूत्र - [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित दशबैका ० भावात् । उपायग्रहणं च साभिप्रायकम्, शास्त्रोक्तः खलूपायोऽत्र चिन्त्यते, न पुरुषानुष्ठानं, कापुरुषा हि हारि-वृत्तिः ४ वितथकारिणोऽपि भवन्त्येवेति गाथार्थः ॥ ९३ ॥ अत्राह - ॥ ६३ ॥ Ja Education सुवि य धम्मसो धम्मं निचयं व ते पसंसंति । ननु भणिओ सावज्जो कुतित्थिधम्मो जिणवरेहिं ॥ ९४ ॥ व्याख्या- 'तेष्वपि च' तनान्तरीयधर्मेषु, किम् ? - धर्मशब्दो लोके रूढः, तथा धर्म 'निजं च' आत्मीयमेव यथातथं ते 'प्रशंसन्ति' स्तुवन्ति ततश्च कथमेतदिति, अत्रोच्यते, 'नन्वि'त्यक्षमायां 'भणित' उक्तः पूर्व 'सावद्यः' सपापः 'कुतीर्थिकधर्मः' चरकादिधर्मः । कः ? – 'जिनवरैः' तीर्थकरैः "ण जिणेहिं उ पसत्थों" इति वचनात्, षड्जीवनिकायपरिज्ञानाद्यभावादेवेति, अत्रापि बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थविस्तरभयादिति गाथार्थः ।। ९४ ।। तथा जो तेसु धम्मसदो सो उवयारेण निच्छपण इहं । जह सीहसद्दु सीहे पाहण्णुवयारओऽण्णत्थ ।। ९५ ।। व्याख्या-य: 'तेषु' तत्रान्तरीयधर्मेषु धर्मशब्दः स 'उपचारेण' अपरमार्थेन, निश्चयेन 'अत्र' जिनशासने, कथम् ? - यथा सिंहशब्दः सिंहे व्यवस्थितः प्राधान्येन, 'उपचारतः' उपचारेण 'अन्यत्र' माणवकादौ, यथा सिंहो माणचकः, उपचारनिमित्तं च शौर्यक्रौर्यादयः धर्मे वहिंसाद्यभिधानादय इति गाथार्थः ॥ ९५ ॥ एस पन्नासुद्धी हेऊ अहिंसाइएस पंचसुवि। सब्भावेण जयंती हेडविसुद्धी इमा तत्थ ॥ १ ॥ (भाष्यम्) | व्याख्या- 'एषा' उक्तस्वरूपा प्रतिज्ञायाः शुद्धिः प्रतिज्ञाशुद्धि:, हेतुरहिंसादिषु पञ्चस्खपि सद्भावेन यतन्त For late & Personal Use City ~ 129~ १ द्रुमपु. ष्पिका० प्रतिज्ञा शुद्धिः ॥ ६३ ॥ yog Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||||| दीप अनुक्रम [3] भाष्यं [२] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) अध्ययनं [१], उद्देशक [ - ], मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्ति: [९५], आगमसूत्र - [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित इति, अयं च प्राग् व्याख्यात एव, शुद्धिमभिधातुकामेन च भाव्यकृता पुनरुपन्यस्त इति, अत एवाह-हैतोर्विशुद्धिर्हेतुविशुद्धिः, विषयविभाषाव्यवस्थापनं विशुद्धिः, 'इमा' इयं 'तत्र' प्रयोग इति गाथार्थः ॥ जं भत्तपाणडबगरणवसहिसयणासणासु जयंति । फासूयञकय अकारियअणणुमयाणुट्टिभोई य ॥ २ ॥ ( भाष्यम्) | व्याख्या—'यद्' यस्मात्, भक्तं च पानं चोपकरणं च वसतिश्च शयनासनादयश्चेति समासस्तेषु, किम् ? – 'यतन्ते' प्रयत्नं कुर्वन्ति, कथमेतदेवमित्यत्राह यस्मात् प्रासुकं चाकृतं चाकारितं चाननुमतं चानुद्दिष्टं च तद्भोक्तुं शीलं येषां ते तथाविधाः, तत्रासवः प्राणाः प्रगता असवः प्राणा यस्मादिति प्रासुकं निर्जीवम्, तच्च स्वकृतमपि भवत्यत आह-अकृतम्, तदपि कारितमपि भवत्यत आह-अकारितम्, तदप्यनुमतमपि भवत्यत आह- अननुमतम्, तदप्युद्दिष्टमपि भवति यावदर्थिकादि न च तदिष्यत इत्यत आह-अनुद्दिष्टमिति । एतत्प| रिज्ञानोपायश्चोपन्यस्तसकलप्रदानादिलक्षणसूत्रादवगन्तव्य इति गाथार्थः ॥ तदन्ये पुनः किमित्यत आहअफासुयकयकारियअणुमयउद्दिडभोइणो हंदि । तस्थावरहिंसाए जणा अकुसला उ लिप्पति ॥ ३ ॥ (भाष्यम् ) ॥ व्याख्या- अप्रासुककृतकारितानुमोदितोद्दिष्टभोजिनश्वरकादयः, हन्दीत्युपप्रदर्शने, किमुपप्रदर्शयति ? -त्रसन्तीति त्रसाः - द्वीन्द्रियादयः तिष्ठन्तीति स्थावराः - पृथिव्यादयः तेषां हिंसा-प्राणव्यपरोपणलक्षणा तया 'जनाः' प्राणिनः 'अकुशला': अनिपुणाः स्थूलमतयश्वरकादयो 'लिप्यन्ते' सम्बध्यन्त इत्यर्थः इह च हिंसाक्रि For ane & Personal Use Oily ~130~ brary dig Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||2||| दीप अनुक्रम [२] भाष्यं [४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||२|| निर्युक्तिः [९५...], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः दशवैका हारि-वृत्तिः ४ ॥ ६४ ॥ ४४ ५ Ju Educatio याजनितेन कर्मणा लिप्यन्त इति भावनीयम्, कारणे कार्योपचारात्, ततश्च ते शुद्धधर्मसाधका न भवन्ति, साधव एव भवन्तीति गाथार्थः ॥ एसा उविसुद्ध दितो तस्स चैव य विसुद्धी । सुत्ते भणिया उ फुडा सुत्तफासे उ इयमन्ना || ४ || (भाष्यम् ) || व्याख्या- 'एषा' अनन्तरोक्ता 'हेतुविशुद्धिः' प्राग्निरूपितशब्दार्था, अधुना 'दृष्टान्तः' प्राग्निरूपितशब्दार्थः, तथा 'तस्यैव च' दृष्टान्तस्य विशुद्धिः, किम् ? सूत्रे 'भणिता, उक्तैव 'स्फुटा' स्पष्टा ॥ तचेदं सूत्रम्जहा दुमस्स पुष्फेसु, भमरो आवियइ रसं । ण य पुष्कं किलामेइ, सो अ पीणेइ अप्पयं ॥ २ ॥ अस्य व्याख्या अत्राह-अथ कस्माद्दशावयवनिरूपणायां प्रतिज्ञादीन् विहाय सूत्रकृता दृष्टान्त एवोक्त इति ?, उच्यते, दृष्टान्तादेव हेतुप्रतिज्ञे अभ्यूह्ये इति न्यायप्रदर्शनार्थम् कृतं प्रसङ्गेन प्रकृतं प्रस्तुमः । तत्र 'यथा' येन प्रकारेण 'द्रुमस्य' प्राग्निरूपितशब्दार्थस्य 'पुष्पेषु' प्रानिरूपितशब्दार्थेष्वेव असमस्तपदाभिधानमनुमेये (उपमेये) गृहिद्रुमाणामाहारादिपुष्पाण्यधिकृत्य विशिष्टसंबन्धप्रतिपादनार्थमिति, तथा च अन्यायोपार्जित वित्तदानेऽपि ग्रहणं प्रतिषिद्धमेव, 'भ्रमर' चतुरिन्द्रियविशेषः, किम् ? - 'आपिवति' मर्यादया पि बत्यापिवति, कम् ? -रस्यत इति रसस्तं-निर्यासं मकरन्दमित्यर्थः, एष दृष्टान्तः, अयं च तद्देशोदाहरणमधिकृत्य वेदितव्य इति एतच्च सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्तौ दर्शयिष्यति, उक्तं च 'सूत्रस्पर्शे स्त्वियमन्येति । अधुना दृष्टा १ उदाहरणभेदचतुष्के प्रथमभेदगतं, स्थापितं व प्राक् एतत् २ भाग्ययतचतुर्थनाथायाम् Forte & Personal Use City ~ 131~ १ द्रुमपुष्पिका० हेतुविशुद्धिः ॥ ६४ ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||R|| दीप अनुक्रम [२] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) निर्युक्ति: [९६], भाष्यं [४]...] अध्ययनं [१]. उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||२|| आगमसूत्र - [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित न्तविशुद्धिमाह-'न च' नैव 'पुष्पं' प्राग्निरूपितखरूपं 'क्लामयति' पीडयति, 'सच' भ्रमरः 'प्रीणाति' सर्पयत्यात्मानमिति सूत्रसमुदायार्थः ॥ अवयवार्थं तु निर्युक्तिकारो महता प्रपश्चेन व्याख्यास्यति । तथा चाहजह भ्रमरोति य एत्थं दितो होइ आहरणदेसे। चंदमुहि दारिगेयं सोमचवहारण ण सेसं ॥ ९६ ॥ व्याख्या- यथा भ्रमर इति च 'अ' प्रमाणे दृष्टान्तो भवत्युदाहरणदेशमधिकृत्य, यथा चन्द्रमुखी दारिकेयमित्यत्र सौम्यत्वावधारणं गृह्यते, न शेषं-कलङ्काङ्कितत्वानवस्थितत्वादीति गाथार्थः ॥ ९६ ॥ एवं भमराहरणे अणिययवित्तित्तणं न सेसाणं । ग्रहणं दिसंतविसुद्धि सुत्त भणिया इमा चन्ना ।। ९७ ।। व्याख्या एवं भ्रमरोदाहरणे अनियतवृत्तित्त्वं गृह्यत इति शेषः, न 'शेषाणाम्' अविरत्यादीनां भ्रमरधर्माणां ग्रहणं, दृष्टान्त इति । एषा दृष्टान्त विशुद्धिः सुत्रे भणिता, इयं चान्या सूत्रस्पर्शनिर्युक्ताविति गाथार्थः॥९७॥ एत्थ य भणिज कोई समणाणं कीरए सुबिहियाणं । पागोवजीविणो ति व लिप्तारंभदोसेणं ॥ ९८ ॥ व्याख्या - अन चैवं व्यवस्थिते सति ब्रूयात्कश्चिद्यथा-श्रमणानां क्रियते सुविहितानामिति, एतदुक्तं भवति-यदिदं पाकनिर्वर्तनं गृहिभिः क्रियते, इदं पुण्योपादानसंकल्पेन भ्रमणानां क्रियते 'सुविहिताना' मिति तपस्विनां गृह्णन्ति च ते ततो भिक्षामित्यतः पाकोपजीविन इतिकृत्वा लिप्यन्ते आरम्भदोषेण आहारकरक्रियाफलेनेत्यर्थः तथा च लौकिका अप्याहुः - 'क्रयेण क्रायको हन्ति, उपभोगेन खादकः । घातको वधचितेन, इत्येष त्रिविधो वधः ॥ १ ॥ इति गाथार्थः ॥ ९८ ॥ साम्प्रतमेतत्परिहरणाय गुरुराह— For ane & Personal Use City ~132~ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं -1 / गाथा ||२|| नियुक्ति: [९९], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत दशवैका० हारि-बृत्तिः सूत्रांक/ EN गाथांक ||२|| दीप अनुक्रम वासद्द न तणस्स कए न तणं बद कए भयकुलाणं । न य रुक्खा सयसाला फुलन्ति कए महुपराणं ॥ ९९ ।। । दुमपुव्याख्या-वर्षति न तृणस्य कृते, न तृणार्थमित्यर्थः, तथा न तृणं वर्धते कृते मृगकुलानाम्-अर्थाय सथापिका नच वृक्षाः शतशाखाः पुष्प्यन्ति 'कृते' अर्थाय मधुकराणाम् , एवं गृहिणोऽपि न साध्य पार्क निर्वतयन्ती- दृष्टान्तयभिप्राय इति गाथार्थः ॥ ९९ ॥ अत्र पुनरप्याह | विशुद्धिः अग्गिम्मि हवी हूबइ आइचो तेण पीणिओ संतो। वरिसइ पयाहियाए तेणोसहिओ परोहति ॥ १० ॥ हा व्याख्या-इह यदुक्तं वर्षति न तृणार्थ मित्यादि, तदसाधु, यस्मादनौ हविईयते, आदित्यः 'सेन' हविषा घृतेन प्रीणितः सन् वर्षति, किमर्थम्?–'प्रजाहितार्थ लोकहिताय, 'तेन' पर्षितेन, किम् ?, औषध्यः 'प्ररोहन्ति उद्गच्छन्ति, तथा चोक्तम्-"अग्नावाज्याहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते । आदित्याज्जायते वृष्टिवृष्टेर ततः प्रजाः ॥१॥” इति गाथार्थः ॥ १०॥ अधुनैतत्परिहारायेदमाह किं दुन्भिक्खं जायइ ? जइ एवं अह भवे दुरिलु तु । किं जायइ सव्वस्था दुब्भिक्खं अह भवे इंदो? ॥१०१॥ बासइ तो कि विग्धं निग्धायाईहिं जावए तस्स । अह वासइ उउसमए न वासई तो तणद्वाए ॥ १०॥ व्याख्या-किं दुर्भिक्षं जायते यद्येवम् ?, कोऽभिप्रायः-सद्धविः सदा हयत एव, ततश्च कारणाविच्छेदेन | कार्यविच्छेदो युक्त इति, अथ भवेद् 'दुरिष्टं तु दुर्नक्षत्रं दुर्यजनं वा, अत्राप्युत्तरम्-किं जायते सर्वत्र दु 30॥६५॥ १ वर्षातृणानि तस्य प्रतियेथे इत्येतच भाष्यकता पाक अपवितमेवेति वचनात् प्रतीयते यदुवैता एकोनविंशतिर्भाष्यगाथा.. ~ 133~ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-, मूलं [-1 / गाथा ||२|| नियुक्ति: [१०२], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||२|| भिक्ष !, नक्षत्रस्य दुरिष्टस्य वा नियतदेशविषयत्वात्, सदैव सयज्वनां भावात्, उक्तं च "सदैव देवाः। सद्गायो, ब्राह्मणाम क्रियापराः। यतयः साधवश्चैव, विद्यन्ते स्थितिहेतवः ॥ १ ॥” इत्यादि, अथ भवेदिन्द्र इति, किम् ?, वर्षति, ततः किं विनः' अन्तरायो निर्घातादिभिर्जायते?, आदिशब्दादिग्दाहादिपरिग्रहा, 'तस्य' इन्द्रस्थ, परमैश्वर्ययुक्तत्वेन विनानुपपत्तेरिति भावना, अथ वर्षति ऋतुसमये गर्भसवात इति वाक्पशेषः, न वर्षति ततस्तॄणार्थ, तस्येत्थम्भूतस्याभिसन्धेरभावादिति गाथाबयार्थः ॥१०१-१०२॥ किंच किं च दुमा पुष्प॑ति भमराणं कारणा अहासमयं । मा भमरमहुवरिगणा किलामएला अणाहारा ।। १०३ ॥ व्याख्या-किं च द्रुमाः पुष्प्यन्ति भ्रमराणां 'कारणात् कारणेन 'यथासमयं यथाकालं मा भ्रमरमधुकरीगणाः 'क्लामन्' (लामिषुः) ग्लानिं प्रतिपद्यरन् , 'अनाहारा अविद्यमानाहाराः सन्तः, काका नैवैतदित्यमिति गाथार्थः ॥ १०३ ।। साम्प्रतं पराभिप्रायमाह कस्सा बुद्धी एसा वित्ती उवकप्पिया पयावइणा । सत्ताणं तेण दुमा पुर्फति मटुयरिंगणट्ठा ॥ १०४ ॥ व्याख्या-अथ 'कस्यचिद्बुद्धिः कस्यचिदभिप्रायः स्याद्यदुत-एषा वृत्तिरुपकल्पिता, केन ?-प्रजापतिना, के-/ षाम् ?–'सत्यानां प्राणिनां तेन कारणेन द्रुमाः पुष्प्यन्ति मधुकरीगणार्थमेवेति गाथार्थः॥१०४॥अत्रोत्तरमाह तं न भवइ जेण दुमा नामागोयस्स पुञ्चविहिवस्स । उदएणं पुष्फफलं निवतयंती इमं चऽनं ॥ १०५ ॥ व्याख्या-पदुक्तं परेण तन भवति, कुत इत्याह-येन ट्रमा नामगोत्रस्य कर्मणः 'पूर्वविहितस्य' SANSARAMS दीप अनुक्रम Jamachar ~ 134~ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||२|| नियुक्ति: [१०५], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्तिः प्रत दशवैका० हारि-वृत्तिः पिका सूत्रांक/ ॥६६॥ गाथांक ||२|| न्तरोपात्तस्य 'उदयेन' विपाकानुभवलक्षणेन पुष्पफलं 'निवर्तयन्ति' कुर्वन्ति, अन्यथा सदैव तद्भावप्रसङ्ग|| दुमपुइति भावनीयम् । इदं चान्यत्कारणं, वक्ष्यमाणमिति गाथार्थः ॥ १०५॥ अस्थि बहू वणसंडा भमरा जत्थ न उति न वसंति । तत्थऽवि पुष्प॑ति दुमा पगई एसा दुमगणाणं ।। १०६॥ दृष्टान्तव्याख्या-सन्ति बहूनि बनखण्डानि तेषु तेषु स्थानेषु, भ्रमरा यत्र नोपयान्ति अन्यतः, न वसन्ति तेष्वेव, शुद्धिः तथापि पुष्प्यन्ति द्रुमाः, अतः 'प्रकृतिरेषा' स्वभाव एष द्रुमगणानामिति गाथार्थः॥१०६ ॥ अत्राह जइ पगई कीस पुणो सव्वं कालं न देंति पुष्फफलं । जं काले पुष्फफलं दयंति गुरुराह अत एव ।। १०७ ॥ पगई एस दुमाणं जं उउसमयम्मि आगए संते । पुर्फति पायवगणा फलं च कालेण पंधति ।। १०८॥ व्याख्या-यदि प्रकृतिः किमिति पुनः सर्वकालं 'न ददति' न प्रयच्छन्ति, किम् ?-पुष्पफलम् ?, एवमाश-18 थाह-पद्न्यस्मात्काले नियत एव पुष्पफलं ददति, गुरुराह-अत एव-अस्मादेव हेतोः ॥ प्रकृतिरेषा दुमाणां यदू 'ऋतुसमये वसन्तादावागते सति पुष्ष्यन्ति 'पादपगणा' वृक्षसङ्घाताः तथा फलं च कालेन वन्ति, तदर्थानभ्युपगमे तु नित्यप्रसङ्ग इति गाथाद्वयार्थः ॥ १०७-१०८ ॥ साम्प्रतं प्रकृतेऽप्युक्तार्ययोजना कुर्वनाह किं नु गिही रंधती समणाणं कारणा अहासमयं । मा समणा भगवंतो किलामएजा अणाहारा ।। १०९॥ दीप अनुक्रम 8 ॥६६॥ ~135~ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||R|| दीप अनुक्रम [२] दश. १२ “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) भाष्यं [४...] अध्ययनं [१], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||२|| निर्युक्ति: [१०९], आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित व्याख्या - किं नु गृहिणो 'राध्यन्ति' पाकं निर्वर्तयन्ति श्रमणानां कारणेन यथाकालं?, 'मा श्रमणा भगवन्तः क्लामन्ननाहारा' इति पूर्ववदिति गाथार्थः ॥ १०९ ॥ न चैतदित्थमित्यभिप्रायः ।। अत्राह- समणऽणुकंपनिमित्तं पुण्णनिमित्तं च गिनिवासी उ कोइ भणिज्जा पार्ग करेंति सो भण्णइ न जन्हा ॥ ११० ॥ कंतारे दुब्भिकले आयंके वा महद्द समुप्पन्ने। रतिं समणसुबिहिया सव्वाहारं न मुंजंति ॥ १११ ॥ आइ कीस पुण गिहत्था रत्ति आयरतरेण रंधति । समणेहिं सुविहिएहिं चउव्विहाहारविरहिं ? ॥ ११२ ॥ व्याख्या - श्रमणेभ्योऽनुकम्पा श्रमणानुकम्पा तन्निमित्तम् न होते हिरण्यग्रहणादिना अस्माकमनुकम्पां | कुर्वन्तीति मत्वा भिक्षादानार्थं पार्क निर्वर्तयन्त्यतः श्रमणानुकम्पानिमित्तं, तथा सामान्येन पुण्यनिमित्तं च गृहनिवासिन एव कश्चिद् ब्रूयात्पाकं कुर्वन्ति, स भण्यते नैतदेवम्, कुतः १ - यस्मात् 'कान्तारे' अरण्यादौ 'दुर्भिक्षे' अन्नाकाले 'आतङ्के वा' ज्वरादी महति समुत्पन्ने सति रात्री श्रमणाः 'सुविहिताः' शोभनानुछानाः, किम् ? - 'सर्वाहारम्' ओदनादि न भुञ्जते ॥ अथ किमिति पुनर्गृहस्थाः तत्रापि रात्रौ 'आदरतरेण' अत्यादरेण राध्यन्ति, श्रमणैः सुविहितैश्चतुर्विधाहारविरतैः सद्भिरिति गाथाश्रयार्थः ॥ ११०-१११११२ ॥ किंच अस्थि बहुगामनगरा समणा जत्थ न उवेंति न वसंति । तत्थवि रंथंति गिद्दी पगई एसा गिहत्थाणं ॥ ११३ ॥ १ प्राकृतवाक्प्रतिरूपकमिति, तत्र च सप्तम्यर्थे तृतीया हेतुत्वापेक्षया वा. For te&Personal Use City ~ 136~ jbrary diy Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||२|| नियुक्ति: [११३], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत १दुमपु. पिका सूत्रांक/ दशावयचं गाथांक ||२|| दीप अनुक्रम दशवैका व्याख्या-सन्ति बहूनि ग्रामनगराणि तेषु तेषु देशेषु 'श्रमणा' साधवो यत्र नोपयान्ति अन्यतो, न व-| हारि-वृत्तिः सन्ति तत्रैच, अथ च तत्रापि राध्यन्ति गृहिणः, अतः प्रकृतिरेषा गृहस्थानामिति गाथार्थः ॥ ११३ ॥ अमु 181 मेवार्थ स्पष्टयनाह॥६७॥ पगई एस गिहीणं जं गिहिणो गामनगरनिगमेसुं । रंधति अप्पणो परियणस्स कालेण अट्ठाए ।। ११४ ॥ व्याख्या-प्रकृतिरेषा गृहिणां वर्तते यहिणो ग्रामनगरनिगमेषु, निगमः-स्थानविशेषा, राध्यन्ति आमात्मनः परिजनस्य 'अर्थाय' निमित्तं कालेनेति योग इति गाथार्थः ।। ११४ ॥ सरथ समणा तवस्सी परकडपरनिहियं विगयधूमं । आहार एसति जोगाणं साहणढाए । ११५ ।। व्याख्या-तत्र अमणाः 'तपखिन' इति उद्यतविहारिणो नेतरे, परकृतपरनिष्ठितमिति, कोऽर्थः-परार्थ कृतम्-आरब्धं परार्थ च निष्ठितम्-अन्तं गतं, विगतधूमम्-धूमरहितम्, 'एकग्रहणे तजातीयग्रहण'मिति न्यायाद्विगताकारं प रागद्वेषमन्तरेणेत्यर्थः, उक्तं च-रागेण सइंगालं दोसेण सधूमग वियाणाहि" 'आहारम् । ओदनादिलक्षणम् एषन्ते' गवेषन्ते, किमर्थम् ? अत्राह-'योगानां मनोयोगादीनां संयमयोगानां वा साधनार्थ, न तु वर्णाद्यर्थमिति गाथार्थः ॥ ११५॥ नवकोडीपरिसुद्धं उग्गमलष्पायणेसणासुद्धं । छट्ठाणरक्षणढा अहिंसअणुपालणहाए ॥१॥ १ रागेण सासारं द्वषेण सघूमकं विजानीहि. 151525185% ॥३७॥ JanEducatatise ~ 137~ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-, मूलं [-1 / गाथा ||२|| नियुक्ति: [११६], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||३|| व्याख्या-इयं च किल भिन्नकर्तृकी, अस्या व्याख्या-नवकोटि परिशुद्धम् , तत्रैता नव कोट्यः, यदुत-ण हपणइ१ण हणावेइ २ हर्णतं नाणुजाणइ ३, एवं न किणइ ३, एवं न पयई ३, एताभिः परिशुद्धं, तथा उद्गमो-18 त्पादनैषणाशुद्धमिति, एतद्द्वस्तुतः सकलोपाधिविशुद्धकोटिख्यापनमेव, एवम्भूतमपि किमर्थं भुञ्जते?-पटस्थानरक्षणार्थम्, तानि चामूनि-वेर्यणचेयावचे इरिपट्ठाए य संजमहाए। तह पाणवत्तियाए छ8 पुण धम्मचिंताए ॥१॥ अमून्यपि च भवान्तरे प्रशस्तभावनाभ्यासादर्हिसानुपालनार्थम्, तथा चाह-"नाहारत्यागतोऽभावितमतेर्देहत्यागो भवान्तरेऽप्यहिंसायै भवती"तिगाथार्थः ॥१॥ विद्वतसुद्धि एसा उपसंहारो य सुत्तनिहिहो । संति विजंतित्ति य संति सिद्धिं च साहेति ॥ ११६॥ व्याख्या-दृष्टान्तशुद्धिरेषा, प्रतिपादिता, 'उपसंहारस्तु' उपनयस्तु 'सूत्रनिर्दिष्टः' सूत्रोक्तः, तचेदं सूत्रम्एमेए समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो। विहंगमा व पुप्फेसु, दाणभत्तेसणा(णे)रया ॥३॥ अस्य व्याख्या-एवम्' अनेन प्रकारेण 'एते येऽधिकृताः प्रत्यक्षेण वा परिभ्रमन्तो दृश्यन्ते, श्राम्यन्तीति श्रमणाः, तपस्यन्तीत्यर्थः, एते च तत्रान्तरीया अपि भवन्ति, यथोक्तम्-"निग्गंथसक्वतावसगेरुयआजीव पंचहा समणा" अत आह–'मुक्ता' बाह्याभ्यन्तरेण ग्रन्थेन, ये 'लोके' अर्धतृतीयद्वीपसमुद्रपरिमाणे 'सन्ति' न हन्ति न धीरायति मन्तं नानुजानाति, एवं न क्रीणाति ३, एनं न पचति ३. २ वेदनादै वैयावृत्त्यायेाथै च संयमाथै च । तथा प्राणवृत्त्यै षछ पुनः धर्मचिन्तायै ॥१॥३नियशाक्यतापसगैरिकाजीयाः पंथपा श्रमणाः. दीप अनुक्रम CASSESABAIRS ~ 138~ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-, मूलं [-1 / गाथा ||३|| नियुक्ति: [११६], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत गापिका दशवैका० हारि-वृत्तिः ॥६८॥ सूत्रांक/ गाथांक ||३|| विद्यन्ते, अनेन समयक्षेत्रे सदैव विद्यन्त इत्येतदाह, साधयन्तीति साधवः, किं साधयन्ति?-ज्ञानादीति ग-४१दुमपुम्यते । अत्राह-ये मुक्तास्ते साधव एवेत्यत इदमयुक्तम् , अत्रोच्यते, इह व्यवहारेण निहवा अपि मुक्ता भवन्त्येव न च ते साधव इति तद्वयवच्छेदार्थत्वान्न दोषः। आह-नच ते 'सदैवसन्ती'वनेनैव व्यवच्छिन्नाथदशावयवे इति, उच्यते, वर्तमानतीर्थापेक्षयैवेदं सूत्रमिति न दोषः, अथवा-अन्यथा व्याख्यायते-ये लोके सन्ति साधव | दृष्टान्तइत्यत्र य इत्युदेशा, लोक इत्यनेन समयक्षेत्र एव नान्यत्र, किम् ?-शान्ति:-सिद्धिरुच्यते तां साधयन्तीति | INI शुद्धिः शान्तिसाधवा, तथा चोक्तं नियुक्तिकारण-"संति विजंतित्ति य संतिं सिद्धिं व साहेति" इदं व्याख्यातमेव । 'विहंगमा इव' भ्रमरा इव पुष्पेषु, किम् ?-दानभक्तैषणासु रताः दानग्रहणादत्तं गृह्णन्ति नादत्तम्, भक्तग्रहणेन तदपि भक्तं प्रासुकं न पुनराधाकर्मादि, एषणाग्रहणेन गवेषणादित्रयपरिग्रह, तेषु स्थानेषु 'रताः' सक्ता इति सूत्रसमासार्थः । अवयवार्थ सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्या प्रतिपादयति-तत्रापि च विहङ्गमं व्याचष्टे-स द्विविधः-द्रव्यविहङ्गमो भावविहङ्गमश्च । तत्र तावद्रव्यविहङ्गमं प्रतिपादयन्नाह धार तं तु दवं तं दवविहङ्गमं वियाणाहि । भावे विहंगमो पुण गुणसन्नासिद्धिमओ दुविहो । ११७॥ व्याख्या-'धारयति' आत्मनि लीनं धत्ते तत्तु 'द्रव्य'मित्यनेन पूर्वोपातं कर्म निर्दिशति, येन हेतूभूतेन विहङ्गमेषूत्पत्स्यत इति, तुशब्द एवकारार्थः, अस्थानप्रयुक्तश्च, एवं तु द्रष्टव्यः-धारयत्येव, अनेन च धार-1 ॥६८॥ यत्येव यदा तदा द्रव्यविहङ्गमो भवति नोपभुत इत्येतदावेदितं भवति, द्रव्यमिति चात्र कर्मपुद्गलद्रव्य दीप अनुक्रम ~139~ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||३|| नियुक्ति: [११७], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||३|| गृह्यते, म पुनराकाशादि, तस्यामूर्त्तत्वेन धारणायोगात्, संसारिजीवस्य च कथञ्चिन्मूतवेऽपि प्रकृतादनुपयोगित्वात्, तथाहि-यदसौ भवान्तरं नेतुमलं यच्च विहङ्गमहेतुतां प्रतिपद्यते तदत्र प्रकृतं, न चैवमन्यः संसारिजीव इति, 'तं द्रव्यविहङ्गम'मित्यत्र यत्तदोर्नित्याभिसंबन्धादन्यतरोपादानेनान्यतरपरिग्रहादयं वाक्यार्थ उपजायते-धारयत्येव तद्रव्यं यस्तं द्रव्यविहङ्गममिति, द्रव्यं च तद्विहङ्गमश्च स इति द्रव्यविहङ्गमः, द्रव्य जीवद्रव्यमेव, विहङ्गमपर्यायेणाऽऽवर्तनाद्, विहङ्गमस्तु कारणे कार्योपचारादिति, तं विजानीहि' अनेकैः प्रकारैरागमतो ज्ञाताऽनुपयुक्त इत्येवमादिभिर्जानीहि भावे विहङ्गम' इत्यत्रायं भावशब्दो बहः, कचिद्रव्यवाचकस्तद्यथा 'नासओ भुवि भावस्स, सदोहवह केवलों भावस्य-द्रव्यस्य वस्तुन इति गम्यते, कचिच्छुक्लादिस्वपि वर्तते-"जं जं जे जे भावे परिणमई" इत्यादि यान २ शुक्लादीन भावानिति गम्यते, कचिदौदयिकादिष्वपि वर्तते यथा-ओदइए ओवसमिए' इत्यायुक्त्वा छविहो भावलोगो' औदयिकादय एव भावा? लोक्यमानत्वादु भावलोक इति, तदेवमनेकार्थवृत्तिः सन्नौदयिकादिष्वेव वर्तमान इह गृहीत इति, भवनं भावः भवन्त्यस्मिन्निति वा भावः तस्मिन भावे-कर्मविपाकलक्षणे, किम् ?-'विहङ्गमों वक्ष्यमाणशब्दार्थः, पुनःशब्दो विशेषणे, न पूर्वस्मादत्यन्तमयमन्य एव जीवः, किंतु स एव जीवस्त एव पुद्गलास्तथाभूता इति विशेषयति, गुणश्च संज्ञा च गुणसंज्ञे गुण:-अन्वर्थः संज्ञा पारिभाषिकी ताभ्यां सिद्धिः गुणसंज्ञासिद्धिः, सिद्धिशब्दः सम्ब 1 नासतो भुवि भागमा शब्दो भवति केवलः, २ यद्यद्याच्या भावान् परिणमति. बीदयिक श्रीपशमिका र पडिपो भावलोकः, दीप अनुक्रम ~140~ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक / गाथांक ||3|| दीप अनुक्रम [3] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) अध्ययनं [१], उद्देशक [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित दशवैका० हारि-वृत्तिः ॥ ६९ ॥ मूलं [-] / गाथा ||३|| निर्युक्ति: [११७], भाष्यं [ ४... ] आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः न्धवाचकः, तथा च लोकेऽपि "सिद्धिर्भवतु" इत्युक्ते इष्टार्थसम्बन्ध एव प्रतीयत इति, तया गुणसंज्ञासिद्ध्या हेतुभूतया, किम् ? - 'द्विविधो' द्विप्रकारः, गुणसिद्ध्या-अन्वर्थसम्बन्धेन तथा संज्ञासिद्ध्या च यदृच्छाभिधानयोगेन च। आह-पद्येवं द्विविध इति न वक्तव्यम्, गुणसंज्ञासिद्ध्येत्यनेनैव द्वैविध्यस्य गतत्वात् न, अनेनैव प्रकारेणेह वैविध्यं, आगमनोआगमादिभेदेन नेति ज्ञापनार्थमिति गाथार्थः ॥ ११७ ॥ तत्र यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायमाश्रित्य गुणसिद्ध्या यो भावविहङ्गमस्तमभिधित्सुराह— विमागासं भण्ण गुणसिद्धी तप्पइडिओ लोगो । तेण उ विहङ्गमो सो भावत्थो वा गई दुविधा ।। ११८ ॥ व्याख्या- विजहाति - विमुञ्चति जीवपुद्गलानिति विहं, ते हि स्थितिक्षयात्स्वयमेव तेभ्य आकाशप्रदेशेभ्य यवन्ते, ताँश्यवमानान्विमुञ्चतीति, शरीरमपि च मलगण्डोलकादि विमुञ्चत्येव (इति) मा भूत् संदेह इत्यत आह-आकाशं भण्यते, न शरीरादि, संज्ञाशब्दत्वात्, आकाशन्ते दीप्यन्ते स्वधर्मोपेता आत्मादयो यत्र तदाकाशम् किम् ? -संतिष्ठत इत्यादिक्रियाव्यपोहार्थमाह- 'भण्यते' आख्यायते, गुणसिद्धिरित्येतत्पदं गाथा भङ्गभयादस्थाने प्रयुक्तम्, संबन्धवास्य 'तेन तु विहंगमः स' इत्यन्त्र तेन त्वित्यनेन सह वेदितव्य इति, ततश्चायं वाक्यार्थः तेन तुशब्दस्यैवकारार्थत्वेनावधारणार्थत्वाद्येन विमाकाशं भण्यते तेनैव कारणेन गुणसिद्ध्या-अन्वर्थसम्बन्धेन विहङ्गमः कोऽभिधीयत ? इत्याह-'तत्प्रतिष्ठितो लोकः तदित्यनेनाकाशपरामर्शः, १ भेदेनेति प्र० २ विहङ्गमा० प्र० For ane & Personal Use Oily ~ 141 ~ १ द्रुमपु पिका० विहङ्गमनिक्षेपाः ।। ६९ ।। ibrary dig Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||३|| नियुक्ति: [११८], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||३|| ABO तस्मिन्नाकाशे प्रतिष्टितः तत्प्रतिष्ठितः, प्रतिष्ठति स्म प्रतिष्ठितः-प्रकर्षेण स्थितवानित्यर्थः, अनेन स्थितः स्थास्यति चेति गम्यते, कोऽसावित्थमित्यत आह-लोकः' लोक्यत इति लोकः, केवलज्ञानभावता दृश्यत इत्यर्थः, इह धर्मादिपश्चास्तिकायात्मकत्वेऽपि लोकस्याकाशास्तिकायस्थाधारखेन निर्दिष्टत्वाचत्वार एवास्तिकाया गृह्यन्ते, यतो नियुक्तिकारेणाभ्यघायि-तत्पतिष्ठितो लोक', 'विहङ्गमः से' इत्यत्र विहे-नभसि गतो गच्छति गमिष्यति चेति विहङ्गमः, गमिरयमनेकार्थत्वाद्धातूनामवस्थाने वर्तते, ततश्च विहे स्थितवांस्तिष्ठति स्थास्यति चेति भावार्थः, स.इति-चतुरस्तिकायात्मक, "भावार्थ' इति भावश्चासावर्थश्च भावार्थः, अयं भावविहङ्गम इत्यर्थः । उक्त एकेन प्रकारेण भावविहङ्गमा, पुनरपि गुणसिद्धिमन्पेन प्रकारेणाभिधातुकाम आह-वा गतिर्मिविधेति, वाशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः, एवं तु द्रष्टव्यः-गतिर्वा द्विविधेति, तत्र गमनं गच्छति वाऽनयेति गतिः, द्वे विधे यस्याः सेयं द्विविधा, द्वैविध्यं वक्ष्यमाणलक्षणमिति गाथाथैः ॥११८॥ तथा चेदमेव द्वैविध्यमुपदर्शयन्नाह भावगई कम्मगई भावगई पप्प अस्थिकाया उ । सव्वे विहंगमा खलु कम्मगईए इमे भेया ।। ११९ ॥ व्याख्या-भवन्ति भविष्यन्ति भूतवन्तश्चेति भावाः, अथवा भवन्त्येतेषु स्वगता उत्पादविगमनौव्याख्याः परिणामविशेषा इति भावा-अस्तिकायास्तेषांगतिः-तथापरिणामवृत्तिर्भावगतिः, तथा कर्मगतिरित्यत्र क्रियत इति कर्म-ज्ञानावरणादि पारिभाषिकम् , क्रिया वा, कर्म च तद्गतिश्चासौ कर्मगतिः, गमनं गच्छत्यनया वेति दीप अनुक्रम ~142~ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||3|| दीप अनुक्रम [3] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + | भाष्य|+वृत्तिः) भाष्यं [४...] अध्ययनं [१], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||३|| निर्युक्ति: [११९], आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ॥ ७० ॥ गतिः, तत्र 'भावगतिं प्राप्य अस्तिकायास्तु' इति अत्र भावगतिः पूर्ववत्तां प्राप्य - अभ्युपगम्याश्रित्य किम् ? 'अस्तिकापास्तु' धर्मादयः, तुशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, तस्य च व्यवहितः प्रयोगः, भावगतिमेव प्राप्य न पुनः कर्मगतिं, 'सर्वे विहङ्गमाः खलु' सर्वे चत्वारः नाकाशमाधारत्वात्, 'विहङ्गमा इति' विहं गच्छ * न्यवतिष्ठन्ते वसतां विभ्रतीति विहङ्गमाः, खलुशब्दोऽवधारणे, विहङ्गमा एवं, न कदाचिन्न विहङ्गमा इति । 'कर्मगते:' प्रानिरूपितशब्दार्थायाः, किम् ? – 'इमौ भेदी' वक्ष्यमाणलक्षणाविति गाथार्थः ॥ ११९ ॥ तावेवोपदर्शयन्नाह दशबैका ० हारि-वृत्तिः विहगगई चलणगई कम्मगई उ समासओ दुबिहा । तदुदयवेययजीवा विहंगमा पप्प बिराई ॥ १२० ॥ व्याख्या - इह गम्यतेऽनया नामकर्मान्तर्गतया प्रकृत्या प्राणिभिरिति गतिः, विहायसि - आकाशे गतिर्विहायोगतिः, कर्मप्रकृतिरित्यर्थः तथा चलनगतिरिति, चलिरयं परिस्पन्दने वर्त्तते, चलनं स्पन्दनमित्ये कोऽर्थः, चलनं च तद्गतिश्च सा चलनगतिः-गमनक्रियेति भावः । कर्मगतिस्तु समासतो द्विविधेत्यत्र तुशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, कर्मगतिरेव द्विविधा न भावगतिः, तस्या एकरूपत्वेन व्याख्यातत्वात् तत्र तदुदयवेदकजीवा' इति, अत्र तदित्यनेनानन्तरनिर्दिष्टां विहायोगतिं निर्दिशति, तस्या-विहायोगतेः उदयस्तद्दृदयो विपाक इत्यर्थः, तथा वेदयन्ति-निर्जरयन्ति उपभुञ्जन्तीति वेदकाः तदुदयस्य वेदकाश्च ते जीवाश्चेति समासः, आह-तदुदयवेदका जीवा एव भवन्तीति विशेषणानर्थक्यम्, न, जीवानां वेदकत्वावेदकत्वयोगेन सफल For ne&Personal Use City ~ 143~ १ दुमपुष्पिका० विहङ्गमनिक्षेपाः ॥ ७० ॥ brydy Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||३|| नियुक्ति: [१२०], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||३|| दीप अनुक्रम खात्, अवेदकाच सिद्धा इति । 'विहङ्गमाः प्राप्य विहायोगति मिति, अत्र विहे विहायोगतेरुदयादुद्गच्छतीति विहङ्गमाः,'प्राप्य' आश्रित्य, किं प्राप्य ?-'विहायोगतिम् विहायोगतिरुक्ता तां, विपर्यस्तान्यक्षराण्येवं तु दृष्टव्यानि-विहायोगतिं प्राप्य तदुदयवेदकजीवा विहङ्गमा इति गाथार्थः ॥ १२० ॥ अधुना द्वितीयकर्मग-2 तिभेदमधिकृत्याह चलनकम्मगई खलु पधुच संसारिणो भवे जीवा । पोग्गलवाई वा विहंगमा एस गुणसिद्धी ॥ १२१ ॥ IXI व्याण्या-चलनं-स्पन्दन, तेन कर्मगतिर्विशेष्यते, कथम् ?-चलनाख्या या कर्मगतिः सा चलनकर्मगतिः, एतदुक्तं भवति-कर्मशब्देन क्रियाऽभिधीयते, सैव गतिशब्देन सैव चलनशब्देन च । तत्र गतेर्विशेषण क्रिया क्रियाविशेषणं चलनम् । कुतः-मयभिचाराद, इह गतिस्तावन्नरकादिका भवति अतः क्रियया विशे ध्यते, क्रियाऽप्यनेकरूपा भोजनादिका ततश्चलनेन विशेष्यते, अतश्चलनाख्या कर्मगतिश्चलनकर्मगतिस्ताम् , * अनुखारोऽलाक्षणिका, खलुशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, चलनकर्मगतिमेव, न विहायोगति, 'प्रतीत्य' आश्रित्य, किम् ?-संसरणं संसारः, संसरणं ज्ञानावरणादिकर्मयुक्तानां गमनं, स एषामस्तीति संसारिणः, अनेन सिद्धानां व्युदासः, 'भवें' इति, अयं शब्दो भवेयुरित्यस्यार्थे प्रयुक्ता, 'जीवा' उपयोगादिलक्षणाः । ततवार्य वाक्यार्थ:-चलनकर्मगतिमेव प्रतीत्य संसारिणो भवेयुर्जीवा विहङ्गमा इति, विहं गच्छन्ति-चलन्ति सर्वैरात्मप्रदेशीरिति विहङ्गमाः । तथा 'पदलद्रव्याणि वे'त्यादि, पूरणगलनधर्माणः पुद्गलाः, पुद्गलाच ते द्र-15 [३] ~144~ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक / गाथांक ||3|| दीप अनुक्रम [3] दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ ७१ ॥ Ja Education अध्ययनं [१], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||३|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) निर्युक्तिः [१२१], भाष्यं [४...] आगमसूत्र - [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः व्याणि च तानि पुद्गलद्रव्याणि द्रव्यग्रहणं विप्रतिपत्तिनिरासार्थम्, तथा चैते पुद्गलाः केचिदद्रव्याः सन्तोsभ्युपगम्यन्ते, 'सर्वे भावा निरात्मानः' इत्यादिवचनाद्, अतः पुद्गलानां परमार्थसद्रूपताख्यापनार्थे द्रव्यप्रहणम्, वाशब्दो विकल्पवाची, पुद्गलद्रव्याणि वा संसारिणो वा जीवा विहङ्गमा इति । तत्र जीवानधिकृत्यान्वर्थो निदर्शितः, पुद्गलास्तु विहं गच्छन्तीति विहङ्गमाः, तब गमनमेषां खतः परत संभवति, अत्र स्वतः | परिगृह्यते, विहङ्गमा इति च प्राकृतशैल्या जीवापेक्षया वोक्तम्, अन्यथा द्रव्यपक्षे विहङ्गमानीति वक्तव्यम्, एष भावविहङ्गमः, कथम् ? – 'गुणसिद्ध्या' अन्वर्थसम्बन्धेन, प्राकृतशैल्या वाऽन्यथोपन्यास इति गाधार्थः ॥ १२१ ॥ एवं गुणसिङ्ख्या भावविहङ्गम उक्तः, साम्प्रतं संज्ञासिद्ध्या अभिघातुकाम आह सन्नासिद्धिं पप्पा विहंगमा होति पक्खिणो सब्बे । इहई पुण अहिगारो विहासगमणेहि भमरेहिं ॥ १२२ ॥ व्याख्या--संज्ञानं संज्ञा नाम रूढिरिति पर्यायाः तथा सिद्धिः संज्ञासिद्धिः, संज्ञासम्बन्ध इतियावत्, तां संज्ञासिद्धिं 'प्राप्य' आश्रित्य किम् ? -विहे गच्छन्तीति विहङ्गमा भवन्ति, के? - पक्षा येषां सन्ति ते पक्षिणः, 'सर्वे' समस्ता हंसादयः, पुद्गलादीनां विहङ्गमत्वे सत्यप्यमीषामेव लोके प्रतीतत्वात् इत्थमनेकप्रकारं विहङ्गममभिधाय प्रकृतोपयोगमुपदर्शयति- 'इह' सूत्रे, पुनः शब्दोऽवधारणे, इहैव नान्यत्र 'अधिकार' प्रस्तावः प्रयोजनम्, कैरित्याह-- विहायोगमनैः' आकाशगमनैः 'भ्रमरैः षट्पदैरिति गाथार्थः ॥ १२२ ॥ १ प्रयाणां नपुंसकत्वादत्र पुंस्स्वनिर्देशः प्रकृत्या तृतीयां प्रथमेति For ane & Personal Use City ~ 145~ १ द्रुमपुष्पिका० विहङ्गम निक्षेपाः ॥ ७१ ॥ brary dig Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक/ गाथांक ॥४॥ दीप अनुक्रम [8] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) अध्ययनं [१] उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||४|| निर्युक्तिः [१२३], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [४२] मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः दाणेति दत्तगिण भत्ते भज सेव फासुगेण्हणया । एसणतिगंमि निरया उवसंहारस्स सुद्धि इमा ॥ १२३ ॥ व्याख्या- 'दानेति' सूत्रे दानग्रहणं दत्तग्रहणप्रतिपादनार्थम्, दत्तमेव गृहन्ति, नादसम्, 'भक्त' इति भ क्तग्रहणं 'भज सेवायाम्' इत्यस्य निष्ठान्तस्य भवति, अर्थश्रास्य प्रासुकग्रहणं, प्रासुकम्-आधाकर्मादिरहितं गृहन्ति, नेतरदिति, एसण त्ति एषणाग्रहणम्, 'एषणात्रितये' गवेषणादिलक्षणे 'निरताः' सक्ताः, उपसं हारस्य-उपनयस्य शुद्धिः 'इयं वक्ष्यमाणलक्षणेति गाथार्थः ॥ १२३ ॥ अवि भमरमहुयरिगणा अविदिन्नं आवियंति कुसुमरसं । समणा पुण भगवन्तो नादिनं भोतुमिच्छति ॥ १२४ ॥ व्याख्या -अपि भ्रमरमधुकरीगणा, मधुकरीग्रहणमिहापि स्त्रीसंग्रहार्थं, जातिसंग्रहार्थमिति चान्ये, अविदत्तं सन्तं किम् ? - आपिबन्ति 'कुसुमरसं' कुसुमासवम्, श्रमणाः पुनर्भगवन्तो नादत्तं भोक्तुमिच्छन्तीति विशेष इति गाथार्थः ॥ १२४ ॥ साम्प्रतं सूत्रेणैवोपसंहारविशुद्धिरुच्यते कचिदाह - 'दाणभत्तेसणे या इत्युक्तम्, यत एवमत एव लोको भक्त्याकृष्टमानसस्तेभ्यः प्रयच्छत्याधाकर्मादि, अस्य ग्रहणे सत्त्वोपरोधः, अग्रहणे खवृत्त्यलाभ इति, अत्रोच्यते वयं च वित्तिं लभामो, न य कोइ उवहम्मइ । अहागडेसु रीयंते, पुष्फेसु भमरा जहा ||४|| अस्य व्याख्या-वयं च वृत्तिं 'लप्स्यामः' प्राप्स्यामः तथा यथा न कश्चिदुपहन्यते, वर्तमानैष्यत्कालोपन्या Forte & Personal Use City ~146~ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||५|| दीप अनुक्रम [9] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [१], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||५|| निर्युक्ति: [१२४], भाष्यं [ ४... ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र - [४२] मूल सूत्र [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः दशवैकro हारि-वृत्तिः ॥ ७२ ॥ Ja Education सस्त्रैकालिकन्यायप्रदर्शनार्थः तथा चैते साधवः सर्वकालमेव 'यथाकृतेषु' आत्मार्थमभिनिर्वर्तितेष्वाहारादिषु 'रीयन्ते' गच्छन्ति, वर्त्तन्ते इत्यर्थः, 'पुष्पेषु भ्रमरा यथा' इति एतच पूर्व भावितमेवेति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ यतचैवमतो महुगारसमा बुद्धा, जे भवंति अणिस्सिया । नाणापिंडरया दंता, तेण वुञ्चंति साहुणो ॥ ५ ॥ तिमि । पढमं दुमपुफियज्झयणं समत्तं ॥ १ ॥ अस्य व्याख्या- 'मधुकरसमा भ्रमरतुल्याः बुध्यन्ते स्म बुद्धा-अधिगततत्वा इत्यर्थः क एवंभूता इत्यत आह-ये भवन्ति भ्रमन्ति वा 'अनिश्रिताः' कुलादिष्वप्रतिबद्धा इत्यर्थः, अत्राह अस्संजएहिं भ्रमरेहिं जइ समा संजया खलु भवंति । एवं (यं) उबमं किच्चा नूणं अस्संजया समणा ।। १२५ ।। व्याख्या- 'असंयतैः' कुतश्चिदप्यनिवृत्तेः 'भ्रमरैः' षट्पदैः यदि 'समाः' तुल्याः 'संयताः' साधवः, खस्विति समा एव भवन्ति, ततञ्चासंज्ञिनोऽपि ते, अत एवैनामित्थंप्रकारामुपमां कृत्वा इदमापयते नूनमसंयताः श्रमणा इति गाथार्थः ॥ १२५ ॥ एवमुक्ते सत्याहाचार्य:- एतच्चायुक्तं, सूत्रोक्तविशेषणतिरस्कृतत्वात्, तथा च बुद्धग्रहणादसंज्ञिनो व्यवच्छेदः, अनिश्रितग्रहणाचासंयतत्वस्येति । निर्युक्तिकारस्त्वाहवमा खलु एस या पुत्रबुत्ता देसलक्खणोवणया । अणिययवित्तिनिमित्तं अहिंसअणुपालनहार ॥ १२६ ॥ For ane & Personal Use Oily ~ 147~ १ दुमपुष्पिका० उपसंहारशुद्धिः ॥ ७२ ॥ beary dig Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक / गाथांक ||५|| दीप अनुक्रम [4] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) निर्युक्ति: [१२६], भाष्यं [४ ...] अध्ययनं [१], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||५|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [४२] मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः दा. १३ Education i व्याख्या- उपमा खलु 'एषा' मधुकरसमेत्यादिरूपा कृता 'पूर्वोक्तात्' पूर्वोक्तेन 'देशलक्षणोपनयाद' देशलक्षणोपनयेन, यथा चन्द्रमुखी कन्येति, तृतीयार्थी चेह पञ्चमी, इयं चानियतवृत्तिनिमित्तं कृता, अहिंसानुपालनार्थम्, इदं च भावय (विष्य ) त्येवेति गाथार्थः ॥ १२६ ॥ जह दुमगणा उ तह नगरजणवया पयणपायणसहावा । जह भमरा तह मुणिणो नवरि अदत्तं न मुंजंति ॥ १२७ ॥ व्याख्या- यथा 'द्रुमगणाः' वृक्षसङ्घाताः खभावत एव पुष्पफलनखभावाः तथैव 'नगरजनपदा' नगरादिलोकाः स्वयमेव पचनपाचनस्वभावा वर्तन्ते, यथा भ्रमरा इति, भावार्थ वक्ष्यति, तथा मुनयो नवरम् - एतावाविशेष:- अदत्तं खामिभिर्न भुञ्जन्त इति गाथार्थः ॥ १२७ ॥ अनुमेवार्थ स्पष्टयति कुसुमे सहाबफुल्ले आहारंति भमरा जह तहा उ भन्तं सहावसिद्धं समणसुविहिया गवेति ॥ १२८ ॥ व्याख्या- 'कुसुमे' पुष्पे 'खभावफुल्ले' प्रकृतिविकसिते 'आहारयन्ति' कुमुमरसं पिबन्ति 'भ्रमरा' मधुकरा 'यथा' येन प्रकारेण कुसुमपीडामनुत्पादयन्तः 'तथा' तेनैव प्रकारेण 'भक्तम्' ओदनादि 'खभावसिद्धम्' आत्मार्थं कृतम् उद्गमादिदोषरहितम् इत्यर्थः, श्रमणाश्च ते सुविहिताच श्रमणसुविहिताः -शोभनानुष्ठानवन्त इत्यर्थः 'गवेषयन्ति' अन्वेषयन्तीति गाथार्थः ॥ १२८ ॥ साम्प्रतं पूर्वोको यो दोषः मधुकरसमा इत्यत्र तत्परिजिहीर्षयैव यावतोपसंहारः क्रियते तदुपदर्शयन्नाह उवसंहारो भमरा जह तह समणावि अवहजीवित्ति । दंतत्ति पुण परंमी नायव्वं वकसेसमिणं ॥ १२९ ॥ . Forte & Personal Use City ~148~ brary dig Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक / गाथांक ||५|| दीप अनुक्रम [4] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [१], उद्देशक [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित मूलं [-] / गाथा ||५|| निर्युक्तिः [१२९], भाष्यं [४...] आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः Ja Education In दशवैका० व्याख्या- 'उपसंहार' उपनयः, भ्रमरा यथा अवधजीविनः तथा 'श्रमणा अपि साधवोऽप्येतावतैवांहारि-वृत्तिःशेनेति गाथादलार्थः । इतश्च भ्रमरसाधूनां नानात्वमवसेयं, यत आह सूत्रकारः - 'नानापिण्डरया दन्ता' | इति नाना अनेकप्रकारोऽभिग्रहविशेषात्प्रतिगृमल्पाल्पग्रहणाच पिण्ड - आहारपिण्डः, नाना चासौ पिडच ॥ ७३ ॥ नानापिण्डः, अन्तप्रान्तादिर्वा, तस्मिन् रता-अनुदेगवन्तः, 'दान्ता' इन्द्रियदमनेन, अनयोश्च स्वरूपमधस्तूपसि प्रतिपादितमेव, अत्र चोपन्यस्तगाथाचरमदलस्यावसरः 'दान्ता' इति पुनः पदे सौत्रे, किम् ? - ज्ञातव्यो वाक्यशेषोऽयमिति गाथार्थः ॥ १२९ ॥ किंविशिष्टो वाक्यशेषः ?, दान्ता ईर्यादिसमिताश्च । तथा चाहजह इत्थ चेव इरियाइएसु सव्वंमि दिक्खियपयारे । तस्थावरभूयहियं जयंति सम्भावियं साहू ॥ १३० ॥ व्याख्या - प्रथा 'अत्रैव' अधिकृताध्ययने भ्रमरोपमयैषणासमितौ यतन्ते, तथा ईर्यादिष्वपि तथा सर्वस्मिन् 'दीक्षितप्रचारे' साध्वाचरितव्य इत्यर्थः किम् ? - बसस्थावरभूतहितं यतन्ते 'साद्भाविकं' पारमार्थिकं | साधव इति गाथार्थः ॥ १३० ॥ अन्ये पुनरिदं गाथादलं निगमने व्याख्यानयन्ति न च तदतिचारु, यत आहउवसंहारविसुद्धी एस समत्ता उ निगमणं तेणं । वुचंति साहुणोत्ति (य) जेणं ते महुयरसमाणा ॥ १३१ ॥ व्याख्या - उपसंहारविशुद्धिरेषा समाप्ता तु, अधुना निगमनावसरः, तच सौत्रमुपदर्शयति- 'निगमन'मिति' द्वारपरामर्शः, तेनोच्यन्ते साधव इति, येन प्रकारेण ते मधुकरसमाना-उक्तन्यायेन भ्रमरतुल्या इति गाथार्थः ॥ १३१ ॥ निगमनार्थमेव स्पष्टयति For ane & Personal Use City ~ 149~ १ द्रुमपुप्पिका० दशाव यवाः ॥ ७३ ॥ by di Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||५|| नियुक्ति: [१३२], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||५|| दीप तम्हा दयाइगुणमुट्ठिएहि भमरोव अपहवित्तीहिं । साहूहिं साहिउ ति उचिटुं मंगलं धम्मो ॥ १३२॥ व्याख्या-तस्मादयादिगुणसुस्थितः, आदिशब्दात् सत्यादिपरिग्रहः, भ्रमर इवावधवृत्तिभिः, कै?-साधुभिः 'साधितो निष्पादित, 'उत्कृष्टं मङ्गलम्' प्रधानं महाल 'धर्मः' प्राग्निरूपितशब्दार्थ इति गाथार्थः ॥१३२॥ इदानीं निगमनविशुद्धिमभिधातुकाम आह निगमणसुद्धी तित्वंतरावि धम्मस्थमुजया विहरे । भण्णइ कायाण ते जयणं न मुणति न फरेंति ॥ १३ ॥ व्याख्या-निगमनशुद्धिः प्रतिपाद्यते, अत्राह-तीर्थान्तरीया अपि' चरकपरिव्राजकादयः, किम् ?-'धर्मार्थ धर्माय 'उद्यता' उद्युक्ता विहरन्ति, अतस्तेऽपि साधवः एवेत्यभिप्रायः । भण्यतेऽत्र प्रतिवचनम्, 'कायानां| पृथिव्यादीनां 'ते' चरकादयः, किम्-यतना-प्रयत्नकरणलक्षणां 'न मन्यन्ते(मुणन्ति) न जानन्ति न मन्वते| वा तथाविधागमाश्रवणात्, न कुर्वन्ति, परिज्ञानाभावात्, भावितमेवेदमधस्तादिति गाथार्थः ॥१३शा किंच न य उम्पामाइसुखं भुजंती महुयरा वडणुवरोही । नेव य तिगुत्तिगुत्ता जह साहू निच्चकालंपि ॥ १३४ ॥ व्याख्या-न चोगमादिशुद्धं भुञ्जते, आदिशब्दादुत्पादनादिपरिग्रहा, 'मधुकरा हव' भ्रमरा इव सत्त्वानामनुपरोधिनः सन्तो, नैव च त्रिगुप्तिगुप्ताः, यथा साधवो नित्यकालमपि, एतदुक्तं भवति-यथा साधवो १ यथा साधयोऽवपरोधिनः सन्तो भ्रमरा इस उद्गमादिशुद्ध भुजते न तथा ते चरकादयः न च त्रिप्तिगुप्ता यथा साधवः, अनुक्रम (५ JElchannel ~150~ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||५|| नियुक्ति: [१३४], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||५|| दशका०18|नित्यकालं त्रिगुप्तिगुप्ता एवं ते न कदाचिदपि, तत्परिज्ञानशून्यत्वात् , तस्मान्नैते साधच इति गाथार्थः ॥१३४॥ दमा हारि-वृत्तिःसाधव एव तु साधवः, कथम् , यतः | पिका. कार्य वायं च मणं च इंदियाई च पंच दमयंति । धारेति यंभचेरं संजमयंति कसाए य ॥ १३५ ॥ दशाव॥७४।। || व्याख्या-कार्य वाचं मनश्शेन्द्रियाणि च पञ्च दमयन्ति, तत्र कापेन सुसमाहितपाणिपादास्तिष्ठन्ति यवा: गच्छन्ति वा, वाचा निष्प्रयोजनं न युवते प्रयोजनेऽप्यालोच्य सत्त्वानुपरोधेन, मनसा अकुशलमनोनिरोधं| कुशलमनउदीरणं च कुर्वन्ति, इन्द्रियाणि पश्च दमयन्ति इष्टानिष्टविषयेषु रागद्वेषाकरणेन, पञ्चेति साथपरिकल्पितकादशेन्द्रियव्यच्छेदार्थम् , तथा च वाक्पाणिपादपायूपस्थमनासीन्द्रियाणि तेषामित्ति, धारयन्ति[1 ब्रह्मचर्य, सकलगुसिपरिपालनात्, तथा संयमयन्ति कषायाँश्च, अनुदयेनोदयविफलीकरणेन चेति गाथार्थः॥१३५॥ जं च तवे उजुत्ता तेणेसि साछुलक्षणं पुणं । तो साहुणो त्ति भण्णति साहवो निगमणं घेयं ॥ १३६ ॥ व्याख्या-यच 'तपसि' प्राग्वर्णितस्वरूपे, किम् ?-'उद्युक्ता' उद्यताः तेन कारणेनैषां साधुलक्षणं 'पूर्णम्' अविकलम् , कथम् ?-अनेन प्रकारेण साधयन्त्यपवर्गमिति साधवः, यतश्चैवं ततः साधव एव भण्यन्ते साधयो, न चरकादय इति, निगमनं चैतदिति गाथार्थः ॥१३६॥ इत्थमुक्तं दशावयवम् , प्रयोगं खेवं वृद्धा दर्शयन्तिअहिंसादिलक्षणधर्मसाधकाः साधव एव, स्थावरजङ्गमभूतोपरोधपरिहारित्वात्, तदन्यैवंविधपुरुषवत्, विपक्षो दीप अनुक्रम ~151~ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||५|| नियुक्ति: [१३६], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||५|| दिगम्बरभिक्षुभौतादिवत्, इह ये स्थावरजङ्गमभूतोपरोधपरिहारिणस्ते उभयप्रसिद्धैवंविधपुरुषवदहिंसादिलक्षणधर्मसाधका दृष्टाः, तथा च साधवः स्थावरजङ्गमभूतोपरोधपरिहारिण इत्युपनयः, तस्मात्स्थावरजङ्गमभूतोपरोधपरिहारिवातेऽहिंसादिलक्षणधर्मसाधकाः साधव एवेति निगमनम्, पक्षादिशुद्धयस्तु निदर्शिता एवेति न प्रतन्यन्ते ॥१३६ ॥ एवमर्थाधिकारद्वयवशात् पश्चावयवदशावयवाभ्यां वाक्याभ्यां व्याख्यातमध्ययनमिदम्, इदानीं भूयोऽपि भयन्तरभाजा दशावयवेनैव वाक्येन सर्वमध्ययनं व्याचष्टे नियुक्तिकार: ते व पइन्न विभत्ती हे विर्भत्ती विवेकखपंडिसेहो । "विट्ठतो आँसंका तप्पेडिसेहो निर्गमणं च ।। १३७ ॥ ४ व्याख्या-'ते' इति अवयवाः, तुः पुनःशब्दार्थः, ते पुनरमी प्रतिज्ञादया-तन्त्र प्रतिज्ञानं प्रतिज्ञा-वक्ष्यमाणखरूपेत्येकोऽवयवः, तथा विभजनं विभक्तिः-तस्या एव विषयविभागकथनमिति द्वितीयः, तथा हिनोतिगमयति जिज्ञासितधर्मविशिष्टानानिति हेतुस्तृतीयः, तथा विभजनं विभक्तिरिति पूर्ववच्चतुर्थः, तथा विसदृशः पक्षो विपक्षः साध्यादिविपर्यय इति पश्चमः, तथा प्रतिषेधनं प्रतिषेधः विपक्षस्येति गम्यते इत्ययं षष्ठः, तथा दृष्टमर्थमन्तं नयतीति दृष्टान्त इति सप्तमः, तथा आशङ्कनमाशङ्का प्रक्रमाद् दृष्टान्तस्यैवेत्यष्टमः, तथा तत्प्रतिषेधः अधिकृताशङ्काप्रतिषेध इति नवमः, तथा निश्चितं गमनं निगमनं निश्चितोऽवसाय इति दशमः, चशब्द उक्तसमुचयार्थ इति गाथासमासार्थः ॥१३७॥ व्यासाथै तु प्रत्यवयवं वक्ष्यति अन्धकार एव, तथा चाह दीप अनुक्रम ~ 152~ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक / गाथांक ||५|| दीप अनुक्रम [4] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [१], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||५|| निर्युक्ति: [१३८], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [४२] मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ ७५ ॥ Education धम्म मंगलमुति पन्ना अत्तवयणनिदेसो । सो य इद्देव जिणमए नन्नत्थ पन्नपविभत्ती ॥ १३८ ॥ व्याख्या- 'धर्मो मङ्गलमुत्कृष्ट' मिति पूर्ववत् इयं प्रतिज्ञा, आह-केयं प्रतिज्ञेति ?, उच्यते, 'आसवचननिर्देश' इति तत्रासः - अप्रतारकः, अप्रतारकश्चाशेषरागादिक्षयाद्भवति, उक्तं च- " आगमो ह्याप्तवचनमासं दोष| क्षयाद्विदुः । वीतरागोऽनृतं वाक्यं, न ब्रूयाद्धेत्वसंभवात् ॥ १ ॥” तस्य वचनम् आप्तवचनं तस्य निर्देश आसवचननिर्देशः, आह-अयमागमं इति, उच्यते, विप्रतिपन्नसंप्रतिपत्तिनिबन्धनत्वेनैष एवं प्रतिज्ञेति में दोषः, पाठान्तरं वा साध्यवचननिर्देश इति, साध्यत इति साध्यम् उच्यत इति वचनम् अर्थः यस्मात्स एवोच्यते, साध्यं च तद्वचनं च साध्यवचनं साध्यार्थ इत्यर्थः, तस्य निर्देशः प्रतिज्ञेति, उक्तः प्रथमोऽवयवः, अधुना द्वितीय उच्यते-सच-अधिकृतो धर्मः किम् ? - 'इहैव जिनमते' अस्मिन्नेव मौनीन्द्रे प्रवचने 'नान्यत्र' कपिलादिमतेषु तथाहि प्रत्यक्षत एवोपलभ्यन्ते वस्त्राद्यपूतप्रभूतोदकाद्युपभोगेषु परिवाद्प्रभृतयः प्राप्युपमर्दे कुर्वाणाः, ततश्च कुतस्तेषु धर्मः ?, इत्यायन्त्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते, ग्रन्थविस्तरभयाद् भावितत्वाचेति । प्रतिज्ञाप्रविभक्तिरियं प्रतिज्ञाविषयविभागकथनमिति गाथार्थः ॥ १३८ ॥ उक्तो द्वितीयोऽवयवः, अधुना तृतीय उच्यते तत्र सुरपूओति हेऊ धम्मट्ठाणे ठिया उ जं परमे । हेडविभत्ति निरुवहि जियाण अवद्देण य जिवंति ॥ १३९ ॥ १ सम्म २ अथमागमो वचनरूपत्वात् न प्रतिज्ञा ३०प्र० ४ अर्थ, For ane & Personal Use Oily ~ 153~ १ दुमपु ष्पिका० दशावयवाः ॥ ७५ ॥ brary dig Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||५|| नियुक्ति: [१३९], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत ****** सूत्रांक/ * गाथांक ||५|| व्याख्या-सुरा-देवास्तैः पूजितः सुरपूजिता, सुरग्रहणमिन्द्रागुपलक्षणम्, इतिशब्द उपप्रदर्शने, कोऽयम् ?-16 हेतु' पूर्ववत्, हेत्वर्थसूचकं चेदं वाक्यम् , हेतुस्तु सुरेन्द्रादिपूजितत्वादिति द्रष्टव्या, अस्यैव सिद्धतां दर्शयति-धर्मः' पूर्ववत् तिष्ठत्यस्मिन्निति स्थानम्, धर्मश्चासौ स्थानं च धर्मस्थानम्, स्थानम्-आलयः, तस्मिन् स्थिताः, तुरयमेवकारार्थः, स चावधारणे, अयं चोपरिष्टात् क्रियया सह योक्ष्यते, 'यद' यस्मात, किंभूते ध-18 मस्थाने?-परमें प्रधाने, किम् ?-सुरेन्द्रादिभिः पूज्यन्त एवेति वाक्यशेषः, इति तृतीयोऽवयवः, अधुना चतुर्थे| उच्यते-हेतुविभक्तिरियम्-हेतुविषयविभागकधनम् , अथ क एते धर्मस्थाने स्थिता इत्यत्राह-निरुपधय' उपधिः छन मायेस्यनर्थान्तरम् , अयं च क्रोधाद्युपलक्षणम्, ततश्च निर्गता उपध्यादयः सर्व एवं कषाया ये-18 भ्यस्ते निरुपधयो-निष्कषायाः, 'जीवानां' पृथ्वीकायादीनाम् 'अवधेन' अपीडया, चशब्दात्तपश्चरणादिना च हेतुभूतेन 'जीवन्ति' प्राणान् धारयन्ति ये त एव धर्मस्थाने स्थिताः, नान्य इति गाथार्थः ॥ १३९ ॥ उक्तसूचतुर्थोऽवयवः, अधुना पश्चममभिधित्सुराह जिणवयणपढेवि हु समुराईए अधम्मरुइणोऽवि । मंगलबुद्धीइ जणो पणमइ आईदुयधिवकलो ॥ १४०॥ SI व्याख्या-इह विपक्षः पञ्चम इत्युक्तम्, स चायम्-प्रतिज्ञाविभक्त्योरिति, जिना:-तीर्थकराः तेषां वचनम्आगमलक्षणं तभिन् प्रद्विष्टा-अनीता इति समासस्तान, अपिशब्दादप्रद्विष्टानपि, हु इत्ययं निपातोऽवधा १ विपक्षः प्रतिज्ञाविभक्त्योः साकः, दीप अनुक्रम ** * * ~154~ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||५|| नियुक्ति: [१४०], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||५|| दीप अनुक्रम [१] दशबैकारणार्थः अस्थानप्रयुक्तश्च, स्थानं तु दर्शयिष्यामः, श्वशुरादीन् श्वशुरो-लोकप्रसिद्धः, आदिशब्दारिपत्रादि- दुमपुहारि-वृत्तिः परिग्रहः, न विद्यते धर्मे रुचिर्येषां तेऽधर्मरुचयस्तान्, अपिशब्दाद्धर्मरुचीनपि, किम् ?-'मङ्गलवुद्ध्या' मङ्गल- |पिका. प्रधानया धिया, मङ्गल बुद्ध्यैव नामङ्गलबुद्ध्येत्येवमवधारणस्थानम्, किम्-'जनों लोकः, प्रकर्षेण नमति प्रण दशावमति, 'आद्यद्वयविपक्ष' इति अत्रायद्वयं प्रतिज्ञा तच्छुद्धिश्च तस्य विपक्षः साध्यादिविपर्यय इति आयद्वय- यवाः विपक्षः, तत्राधर्मरुचीनपि मङ्गलबुद्ध्या जनः प्रणमतीत्यनेन प्रतिज्ञाविपक्षमाह, तेषामधर्माव्यतिरेकात्, जिनप्रवचनप्रद्विष्टानपीत्यनेन तु तच्छुद्धे, तत्रापि हेतुप्रयोगप्रवृत्त्या धर्मसिद्धेरिति गाथार्थः ॥ १४॥ बिइयदुयस्स विवक्खो सुरेहि पूजंति जण्णजाईवि । बुद्धाईवि सुरणया बुञ्चन्ते णायपडिवक्खो ॥ १४ ॥ व्याख्या-द्वयोः पूरणं द्वितीयं द्वितीयं च तद्वयं च द्वितीयद्वयं-हेतुस्तच्छुद्धिश्च, इदं च प्रागुक्तद्वयापेक्षया द्वितीयमुच्यते, तस्यायं विपक्ष:-इह सुरैः पूज्यन्ते यज्ञयाजिनोऽपीति, इयमत्र भावना-यज्ञयाजिनो हि महलरूपा न भवन्त्यथ च सुरैः पूज्यन्ते ततश्च सुरपूजितत्वमकारणमिति, एष हेतुविपक्षा, तथा अजितेन्द्रियाः सोपधआयश्च यतस्ते वर्तन्ते अतोऽनेनैव ग्रन्थेन 'धर्मस्थाने स्थिताः परम' इत्यादिकाया हेतुविभक्तेरपि विपक्ष उक्तो वेदितव्य इति । उदाहरणविपक्षमधिकृत्याह-बुद्धादयोऽप्यादिशब्दात्कपिलादिपरिग्रहः, ते किम् ?-'सुरनता' देवपूजिता 'उकयन्ते' भण्यन्ते तच्छासनप्रतिपन्नैरिति ज्ञातप्रतिपक्ष इति गाथार्थः ॥१४॥ आह-मनु दृष्टान्तमु-10७॥ परिष्ठाद्वक्ष्यति, एवं ततश्च तत्वरूप उक्ते तत्रैव विपक्षस्तत्प्रतिषेधश्च वक्तुं युक्तः तत्किमर्थमिह विपक्षः तत्प Jamaicahani ~155~ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-, मूलं [-1 / गाथा ||५|| नियुक्ति: [१४१], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: - प्रत - सूत्रांक/ गाथांक ||५|| SEXBA दीप अनुक्रम तिषेधवाभिधीयते?, उच्यते, विपक्षसाम्यादधिकृत एव विपक्षद्वारे लाघवार्थमभिधीयते, अन्यथेदमपि पृथ रद्वारं स्यात्, तथैव तत्प्रतिषेधोऽपि द्वारान्तरं प्रामोति, तथा च सति ग्रन्थगौरवं जायते, तस्माल्लाघवार्थमन्त्रैदबोच्यत इत्यदोषः । आह-"दिट्टतो आसंका तप्पडिसेहो" ति वचनात् उत्तरत्र दृष्टान्तमभिधाय पुनरा शा तत्प्रतिषेधं च वक्ष्यत्येव, तदाशङ्का च तद्विपक्ष एव, तत् किमर्थमिह पुनर्विपक्षप्रतिषेधावभिधीयेते?, उच्यते, अनन्तरपरम्पराभेदेन दृष्टान्तविध्यख्यापनार्थम्, यः खल्वनन्तरमुक्तोऽपि परोक्षत्वादागमगम्य-1 खाराष्टोन्तिकार्थसाधनायालं न भवति तत्प्रसिद्धये चाध्यक्षसिद्धो योऽन्य उच्यते स परम्परादृष्टान्तः, तथा। च तीथेकरांस्तथा साधश्च द्वावपि भिन्नावेवोत्तरत्र दृष्टान्तावभिधास्येते, तत्र तीधेकृल्लक्षणं दृष्टान्तमङ्गीकृत्येहग विपक्षपतिषेधावती, साधस्त्वधिकत्य तत्रैवाशकातत्पतिषेधौ दर्शयिष्येते इत्यदोषः । स्थान्मत-प्रागुक्तेन वि-13 लाधिना लाघवार्थमनुक्ते एव दृष्टान्ते उच्यता कामम् , इहैव दृष्टान्तविपक्षस्तत्प्रतिषेधश्न, स एव दृष्टान्तः किमिप्रत्युत्तरत्रोपदिश्यते? येन हेतुविभक्तेरनन्तरमिहैव न भण्यते, तथाहि-अत्र दृष्टान्ते भण्यमाने प्रतिज्ञादीना मिव द्विरूपस्यापि दृष्टान्तस्याहत्साधुलक्षणस्य एतावेव विपक्षतत्प्रतिषेधावुपपोते, ततश्च साधुलक्षणस्य दृष्टान्तस्याशङ्कातत्प्रतिषेधाबुसरत्र न पृथग् वक्तव्यौ भवतः, तथा च सति ग्रन्धलाघवं जायते, तथा प्रतिज्ञाहेतूदाहरणरूपाः सविशुद्धिकानयोऽप्यवयवाः क्रमेणोक्ता भवन्तीति, अत्रोच्यते, इहाभिधीयमाने दृष्टान्त १ दृशान्त भाशा तत्प्रतिवेधः. ~156~ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||५|| नियुक्ति: [१४१], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ यवा: गाथांक ||५|| दशवैकारस्येव प्रतिज्ञादीनामपि प्रत्येकमाशङ्कातत्प्रतिषेधौ वक्तब्यौ स्तर, तथा च सत्यवयवबहुत्वं, दृष्टान्तस्य वा प्रति- १दुमपुहारि-वृत्तिः ज्ञादीनामिव विपक्षतत्प्रतिषेधाभ्यां पृथगाशङ्कातत्प्रतिषेधौ न वक्तब्यौ स्याताम्, एवं सति दशावयवा न | ष्पिका० प्रामुवन्ति, दशावयवं चेदं वाक्यं भजयन्तरेण प्रतिपिपादयिषितम् , अस्यापि न्यायस्य प्रदर्शनार्थम् , अत एव दशाव॥७७॥ यदुक्तं 'साधुलक्षणदृष्टान्तस्याशङ्कातत्प्रतिषेधावुत्तरत्र न पृथग वक्तव्यौ स्याता मित्यादि तदपाकृतं वेदितव्यम्, इत्यलं प्रसङ्गेन । एवं प्रतिज्ञादीनां प्रत्येकं विपक्षोऽभिहितः, अधुनाऽयमेव प्रतिज्ञादिविपक्षः पश्चमोऽवयवो वर्तत इत्येतद्दर्शयन्निदमाह एवं तु अवयवाणं चतह परिवक्ल पंचमोऽवयवो । एत्तो छट्ठोऽवयवो विवक्खपतिसेह तं वोच्छं ।। १४२ ॥ व्याख्या-'एवम्' इत्ययम्, एव(व)कार उपप्रदर्शने, तुरवधारणे, अयमेव 'अवयवानां प्रमाणाङ्गलक्षणानां चितौँ' प्रतिज्ञादीनां 'प्रतिपक्षों विपक्षा, पञ्चमोऽवयव इति, आह-दृष्टान्तस्याप्पत्र विपक्ष उक्त एच, तत्कि-IN मर्थ चतुर्णामित्युक्तम् ?, उच्यते, हेतोः सपक्षविपक्षाभ्यामनुवृत्तिव्यावृत्तिरूपत्वेन दृष्टान्तधर्मत्वात् , तद्विपक्ष एव चास्यान्तर्भावाददोष इति । उक्तः पञ्चमोऽवयवः, षष्ठ उच्यते, तथा चाह-इत' उत्तरत्र 'षष्ठोऽवयवो' विपक्षप्रतिषेधस्तं 'वक्ष्ये' अभिधास्य इति गाथार्थः ॥ १४२ ॥ इत्थं सामान्येनाभिधायेदानीमाथद्वयविपक्षणतिषेधमभिधातुकाम आह सायं संमत्त पुमं हार्स रइ आउनामगोयसुहं । धम्मफलं आइदुगे विवक्खपडिसेह मो एसो ।। १४३ ॥ दीप अनुक्रम ॥ ७७॥ ~ 157~ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||५|| नियुक्ति: [१४३], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||५|| व्याख्या-'साय'ति सातवेदनीयं कर्म 'संमत ति सम्यक्त्वं सम्यग्भावः सम्यक्त्वं-सम्यक्त्वमोहनीयं कमैव. पुमति पुंवेदमोहनीयं 'हासंति हस्यतेऽनेनेति हासः तद्भावो हास्य-हास्यमोहनीयम्, रम्यतेऽनयेति रतिःक्रीडाहेतुःरतिमोहनीय कमैव, 'आउनामगोयसुहं ति अत्र शुभशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते अन्ते वचनात् ,ततश्च आय: शुभ नाम शुभं गोत्रं शुभम्, तत्रायुः शुभं तीर्थकरादिसम्बन्धि नामगोत्रे अपि कर्मणी शुभे तेषामेव भवतः, तथाहि-यशोनामादि शुभंतीर्थकरादीनामेव भवति, तथोर्गोषं तदपि शुभं तेषामेवेति, धर्मफल मिति धर्मस्य फलम् धर्मफलं, धर्मेण था फलं धर्मफलम् , एतद् अहिंसादेर्जिनोक्तस्यैव धर्मस्य फलम्, अहिंसादिना जिनोक्तेनैव वा धर्मेण फलमवाप्यते, सर्वमेव चैतत्सुखहेतुत्वाद्धितम् , अतः स एव धर्मो मङ्गलं न श्वशुरादयः, तथाहि-मायते हितमनेनेति मङ्गलम् , तच यथोक्तधर्मेणैव मन्यते नान्येन, तस्मादसावेव मङ्गलं न जिनवचनदयाह्याः श्वशुरादय इति स्थितम् । आह-'मङ्गलबुद्ध्यैव जनः प्रणमती'त्युक्तं तत्कथम् ? इति, उच्यते, मङ्गल बुद्ध्यापि गोपालाङ्गनादिर्मोहतिमिरोपप्लुतबुद्धिलोचनो जनः प्रणमन्नपि न मङ्गलवनिश्चयायालम्, तथाहिन तैमिरिकद्विचन्द्रोपदर्शनं सचेतसां चक्षुष्मतां द्विचन्द्राकारायाः प्रतीतेः प्रत्ययतां प्रतिपद्यते, अतद्रूप एव तद्रूपाध्यारोपद्वारेण तत्प्रवृत्तेरिति । 'आइदुर्गति आद्यद्वयं प्रागुक्तं तस्मिन् आद्यद्यविषये, विपक्षप्रतिषेधः, 'मों' इति निपातो वाक्यालङ्कारार्थः 'एष' इति यथा वर्णित इति गाथार्थः ॥ १४३ ॥ इत्थमाद्यद्वयविपक्षप्रतिषेधः प्रतिपादितः, सम्प्रति हेतुतच्छुद्ध्योर्विपक्षप्रतिषेधप्रतिपिपादयिषयेदमाह RECAREL दीप अनुक्रम Jamaicahan ~ 158~ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||५|| नियुक्ति: [१४४], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत १दुमपु पिका सूत्रांक/ गाथांक ||५|| दीप अनुक्रम [१] दशवैका० अजिईविय सोपहिया वहगा जइ तेऽपि नाम पुजंति । अग्गीवि होज सीओ हेउविभत्तीण पडिसेहो ॥ १४४ ॥ हारि-वृत्तिः व्याख्यान जितानि श्रोत्रादीनीन्द्रियाणि यैस्ते तथोच्यन्ते, उपधिश्छन मायेत्येनान्तरम् , उपधिना-1 सह वर्तन्त इति सोपधयो-मायाविनः परय॑सका इतियावत् अथवा उपधातीत्युपधिः-वस्त्राद्यनेकरूपः । दशाव परिग्रहः, तेन सह वर्तन्ते येते तथाविधा महापरिग्रहा इत्यर्थः, वर्धन्तीति वधका:-प्राण्युपमर्दकर्तारः यवा KI 'जइ तेवि नाम पुजति सि यदीति पराभ्युपगमसंसूचक, त इति याज्ञिकाः, अपिः संभावने, नाम इति । निपातो वाक्यालङ्कारार्थः, येऽजितेन्द्रियादिदोषदुष्टा यज्ञयाजिनो वर्तन्ते, यदि ते नाम पूज्यन्ते तयग्निरपि भवेच्छीतः, न च कदाचिदष्यसी शीतो भवति, तथा वियदिन्दीवरनजोऽपि वान्ध्येयोरस्थलशोभामाद-15 धीरन्, न चैतदू भवति, यथैवमादिरत्यन्ताभावस्तथेदमपीति मन्यते, अथापि कालदौर्गुण्येन कथञ्चिदविवेकिना जनेन पूज्यन्ते तथापि तेषां न मङ्गलस्वसंप्रसिद्धिः, अप्रेक्षावतामतद्रूपेऽपि वस्तूनि तद्रूपाध्यारोपेण प्रवृत्तः, तथाहि-अकलङ्कधियामेव प्रवृत्तिर्वस्तुनस्तद्वत्तां गमयति, अतथाभूते वस्तुनि तदुद्ध्या तेषामप्रवृत्तः, |सुविशुद्धबुद्धयश्च दैत्यामरेन्द्रादया, ते चाहिंसादिलक्षणं धर्ममेव पूजयन्ति न यज्ञयाजिना, तस्मादैत्यामरेन्द्रादिपूजितत्वाद्धर्म एवोत्कृष्टं मगलं न याज्ञिका इति स्थितम्, 'हेउविभत्तीणत्ति एष हेतुतद्विभक्त्योः पर्यायाः प्र. २ षध हिंसायामित्यन्यपठितधातुगणापेक्षयाऽयं प्रयोगः, अगणपठितं वधि हँसार्थमाश्रित्य स्यात्परै तन्त्रात्मनेपदसम्भवः, यदि ॥७८ ॥ | तेषामर्थान्तरेऽपि अनियमस्वादीन् प्रतीलपेक्ष्य स्वात्परस्मैपविता सदा तत्रापि न दोषः, 555 ~159~ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||५|| नियुक्ति: [१४४], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||५|| 54882%855 'पडिसेहोति विपक्षप्रतिषेधः, विपक्षशब्द इहानुक्तोऽपि प्रकरणाज्ज्ञातव्य इति गाथार्थः ॥ १४४ ॥ एवं हेतुतच्छुद्धयोर्विपक्षप्रतिषेधो दर्शितः, साम्प्रतं दृष्टान्तविपक्षप्रतिषेधं दर्शयन्नाह धुदाई उवयारे पूयाठाणं जिणा उ सम्भावं । दिढते पहिसेहो छट्ठो एसो अवयवो उ ॥ १४५ ॥ का व्याख्या-बुद्धादय आदिशब्दात्कपिलादिपरिग्रहः, उपचार इति 'सुपा सुपो भवन्तीति न्यायादुपचारेण | किश्चिदतीन्द्रियं कथयन्तीतिकृत्वा न वस्तुस्थित्या पूजायाः स्थानं पूजास्थानम् , जिनास्तु 'सद्भावं' परमाथे-1 मधिकृत्येति वाक्पशेषः सर्वज्ञत्वाद्यसाधारणगुणयुक्तत्वादिति भावना, 'दृष्टान्तप्रतिषेध' इति विपक्षशब्दलो- पाद दृष्टान्तविपक्षप्रतिषेधः, किम् ?-षष्ठ एषोऽवयवः, तुर्विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि ?-सर्वोऽप्ययमनन्तरोदितः प्रतिज्ञादिविपक्षप्रतिषेधः पञ्चप्रकारोऽप्येक एवेति गाथार्थः ॥ १४५ ॥ षष्ठमवयवमभिधायेदानीं सप्तमं दृष्टान्तनामानमभिधातुकाम आह अरिहंत मगागामी दिहतो साहुणोऽवि समचित्ता । पागरणसु गिहीसु पसते अवहमाणा ॥ १४६ ॥ व्याख्या-पूजामहन्तीत्यर्हन्ता, न रुहन्तीति वा अरुहन्तः, किम् ?-दृष्टान्त इति सम्बन्धः, तथा 'मार्गगाट्रामिन' इति प्रक्रमात्तदुपदिष्टेन मार्गेण गन्तुं शीलं येषां त एवं गृह्यन्ते, के च त इत्यत-आह-साधवः' सा धयन्ति सम्यग्दर्शनादियोगैरपवर्गमिति साधवः, तेऽपि दृष्टान्त इति योगः, किंभूताः?-समचित्ता' रागद्वेपरहितचित्ता इत्यर्थः, किमिति तेऽपि दृष्टान्त इति ?, अहिंसादिगुणयुक्त वात्, आह च-'पाकरतेषु' आत्मा-13 55555 दीप अनुक्रम [१] ~160~ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||५|| नियुक्ति: [१४६], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्तिः प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||५|| दीप अनुक्रम दशवैकाथेमेव पाकसक्तेषु 'गृहिषु' अगारिषु 'एषन्ते' गवेषयन्ति पिण्डपातमित्यध्याहारः, किं कुर्वाणा इत्यत आहु ४.१द्रुमपु'अवहमाणा उ'न घ्नन्तोऽनन्तः, तुरवधारणार्थः, ततश्चान्त एच, आरम्भाकरणेन पीडामकुर्वाणा इत्यर्थःपिका. एवं द्विविधोऽपि दृष्टान्त उक्तः, दृष्टान्तवाक्यं चेदं, स तु संस्कृत्य कर्तव्योऽर्हदादिवदिति गापाथें ॥ १४६ ॥1 प्रतिज्ञात॥७२॥ दिउक्तः सप्तमोऽवयवः, साम्प्रतमष्टममभिधित्सुराह इच्छुयाद्या तत्थ भवे आसंका उद्दिस्स जइवि कीरए पागो । तेण र विसमं नायं वासतणा तस्स पडिसेहे ॥ १४७ ।। दशाव| व्याख्या-तत्र' तस्मिन् दृष्टान्ते 'भवेदाशङ्का' भवत्याक्षेपः, यथा 'उद्दिश्य अङ्गीकृत्य 'यतीनपि' संयता- यवाः नपि, अपिशब्दादपत्यादीन्यपि, क्रियते' निर्बलते पाकः, कैः?-गृहिभिरिति गम्यते, ततः किमित्यत आहतेन कारणेन, र इति निपातः किलशब्दार्थः, 'विषमम्' अतुल्यं ज्ञातम्' उदाहरणं, वस्तुतः पाकोपजीवित्वेन साधूनामनवद्यवृत्त्यभावादिति, भावितमेवैतत् पूर्वम् , इत्यष्टमोऽवयवः, इदानीं नवममधिकृत्याह-वर्षातृ- |णानि तस्य प्रतिषेधे इति, एतच्च भाष्यकृता प्राक प्रपश्चितमेवेति न प्रतन्यत इति गाथार्थः ॥ १४७ ॥ उक्तो नवमोऽवयवः, साम्प्रतं चरममभिधित्सुराह तम्हा उ सुरनराणं पुज्जत्ता मंगलं सया धम्मो । दसमो एस अवयवो पइनहेऊ पुणोवयणं ।। १४८ ।। व्याख्या-यस्मादेवं तस्मात् 'सुरनराणां देवमनुष्याणां पूज्यत इति पूज्यस्तद्भावस्तस्मात् पूज्यत्वात् 'मङ्गलं प्राग्निरूपितशब्दार्थ 'सदा सर्वकालं 'धर्मः' प्रागुक्ता, 'दशम एषोऽवयव' इति सङ्ख्याकथनम् , किंविशिष्टो SALAMSANSAR ~ 161~ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||५|| नियुक्ति: [१४८], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत % सूत्रांक/ % % गाथांक ||५|| % यमित्यत आह-प्रतिज्ञाहेत्वोः पुनर्वचन' पुनर्हेतुप्रतिज्ञावचनमिति गाथार्थः ॥ १४८ ॥ उक्तं द्वितीयं दशा-- वयर्व, साधनाङ्गता चावयवानां विनेयापेक्षया विशिष्टप्रतिपत्तिजनकत्वेन भावनीयेति । उक्तोऽनुगमः, साम्प्रतं नया उच्यन्ते-ते च नैगमसंग्रहव्यवहारऋजुसूत्रशब्दसमभिरूदैवंभूतभेदभिन्नाः खल्वोघतः सप्स भवन्ति, स्वरूपं चैतेषामध आवश्यकसामायिकाध्ययने न्यक्षेण प्रदर्शितमेवातो नेह प्रतन्यते, इह पुनः स्थानाशून्यार्थमेते ज्ञानक्रियानयद्वयान्तर्भावद्वारेण समासतःप्रोच्यन्ते-ज्ञाननयः क्रियानयश्च, तत्र ज्ञाननयदशेनमिदम्-ज्ञानमेव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणं, युक्तियुक्तत्त्वात् , तथा चाह ___णायंनि गिव्हियन्वे अगिणियव्यंमि चेव अत्यंमि । जइयव्वमेव इइ जो उबएसो सो नओ नाम ॥ १४९ ॥ ख्याख्या 'णार्यमि'त्ति ज्ञाते सम्पपरिच्छिन्ने 'गिण्हियब्वेत्ति ग्रहीतव्य उपादेये 'अगिपिहयवंमित्ति अग्रहीतव्येऽनुपादेये हेय इत्यर्थः, चशब्दः खलूभयोग्रहीतव्याग्रहीतव्ययोतित्वानुकर्षणार्थ: उपेक्षणीयसमुचयार्थों वा, एवकारस्त्ववधारणार्थः, तस्य चैवं व्यवहितः प्रयोगो द्रष्टव्या-ज्ञात एव ग्रहीतब्ये तथाऽग्रहीतब्ये तथोपेक्षणीये चार्थे तु ज्ञात एव नाज्ञाते, 'अत्थंमिति अर्थे ऐहिकामुष्मिके, तत्रैहिको ग्रहीतव्यः सकुचन्दनाङ्गनादिः अग्रहीतव्यो विषशस्त्रकण्टकादिः उपेक्षणीयः तृणादिः, आमुष्मिको ग्रहीतव्यः सम्यग्दर्शनादिः अग्रहीतव्यो मिथ्यात्वादिः उपेक्षणीयो विवक्षयाऽभ्युदयादिरिति, तस्मिन्नर्थे 'यतितव्यमेवे'ति अनुखारलो४/ पाद्यतितव्यम्, एवम्-अनेन प्रक्रमेणैहिकामुष्मिकफलपास्यर्थिना सत्त्वेन प्रवृत्त्यादिलक्षणः प्रयत्नः कायें इ % दीप अनुक्रम % % 56- ~ 162~ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-, मूलं [-1 / गाथा ||५|| नियुक्ति: [१४९], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्तिः प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||५|| का त्यर्थः । इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम्, सम्यगज्ञाते प्रवर्तमानस्य फलविसंवाददर्शनात्, तथा चान्यैरप्युक्तम्- दूमपुहारि-वृत्तिः "विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता । मिथ्याज्ञानात्मवृत्तस्य, फलप्राप्तेरसंभवात् ॥१॥" तथाऽऽमु- पिका |ष्मिकफलप्रात्यर्थिनापि ज्ञात एव यतितव्यम् , तथा चागमोऽप्येवमेव व्यवस्थितः, यत उक्तम्-"पढमं नाणं ज्ञानकि॥ ८॥ीतओ दया, एवं चिट्ठ सव्वसंजए । अन्नाणी किं काही?, किंवा णाहिति छेयपावगं ? ॥१॥” इतश्चैतदेवाङ्गीक- यानयो व्यं यस्मात्तीर्थकरगणधरैरगीतार्थानां केवलानां विहारक्रियाऽपि निषिद्धा, तथा चागमः-"गीयस्थो य विहारो वीओ गीयत्वमीसिओ चेव । इत्तो तइयविहारो णाणुन्नाओ जिणवरेंहि ॥१॥” यस्मादन्धनान्धः समापाकृष्यमाणः सम्यक्पन्धानं न प्रतिपद्यत इत्यभिप्रायः । एवं तावत्क्षायोपशमिकं ज्ञानमधिकृत्योक्तं, क्षायिकम-18| (प्य)ङ्गीकृत्य विशिष्टफलसाधकत्वं तस्यैव विज्ञेयम् , यस्मादहतोऽपि भवाम्भोधितटस्थस्य दीक्षां प्रतिपन्नस्योत्कृटतपश्चरणवतोऽपि न तावदपवर्गप्राप्तिः संजायते यावजीवाजीवायखिलवस्तुपरिच्छेदरूपं केवलज्ञानं नोत्प-12 नमिति, तस्माज्ज्ञानमेव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणमिति स्थितम् 'इति जो उवएसो सो णओ णाम'|ति 'इति एवमुक्तेन न्यायेन य उपदेशो-ज्ञानप्राधान्यख्यापनपरः स नयो नाम-ज्ञाननय इत्यथें:, अयं च ज्ञानवचनक्रियारूपेऽस्मिन्नध्ययने ज्ञानरूपमेवेदमिच्छति, ज्ञानात्मकत्वादस्य, वचनक्रिये तु तत्कायेंत्वात्तदाय १ प्रथमं ज्ञानं ततो दया एवं शिप्रति सवैसंयतः । अहानी कि करिष्यति ! किया ज्ञास्थति छेकपापकम् ॥१॥ १ गीताव विहारो द्वितीयो गीतार्थमिवितवैव । इतस्तृतीयो विहारो नानुज्ञातो जिनवरैः॥१॥ दीप अनुक्रम ~ 163~ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-] / गाथा ||५|| नियुक्ति: [१४९R], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ ह गाथांक ||५|| 453SASEASE हात्तत्वानेच्छति, गुणभूते चेच्छति इति गाथार्थः ॥ १४९॥ उक्तो ज्ञाननयः, अधुना क्रियानयावसरः, तदर्शनं पाचवम्-क्रियैव प्रधान, ऐहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणं, युक्तियुक्तत्वात् , तथा चायमप्युक्तलक्षणामेव स्वपक्षसिद्धये गाथामाह णायमि गिहियग्वे अगिहियव्बंमि चेव अत्यमि । जइयत्वमेव इइ जो उबएसो सो नो नामं ॥ १४९ ॥ है। अस्याः क्रियानयदर्शनानुसारेण व्याख्या-ज्ञाते ग्रहीतव्ये अग्रहीतव्ये चैव अर्थे ऐहिकामुष्मिकफलप्राप्त्यहार्थिना यतितव्यमेव, न यस्मात्प्रवृत्त्यादिलक्षणप्रयत्नव्यतिरेकेण ज्ञानवतोऽप्यभिलषितार्थावाप्तिद्वेश्यते, तथा चान्यैरप्युक्तम्-"क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात्सुखितो भवेत् ॥१॥” तथाऽऽमुष्मिकफलप्राप्त्यर्थिनाऽपि क्रियैव कर्तव्या, तथा च मौनीन्द्रप्रवचनमप्येवमेव व्यवस्थितम् , यत उक्तम्-"चेइयकुलगणसंघे आयरियाणं च पवयणसुए य । सब्वेमुवि तेण कयं तवसंजममुजमंतेणं ॥१॥” इतश्चैतदेवमङ्गीकर्तव्यम्, यस्मात्तीर्थकरगणधरैः क्रियाविकलानां ज्ञानमपि विफलमेचोतं, तथा चागम:-"सुषहुंपि सुयमहीयं किं काही चरणविप्पमुकस्स ? । अंधस्स जह पलिता दीवसयसहस्सकोडीवि ॥१॥” इशिक्रियाविकलत्वात्तस्येत्यभिप्रायः । एवं तावत्क्षायोपशमिकं चारित्रमङ्गीकृत्योक्तम् , १चैत्यकुलगणसके आचार्येषु च प्रवचने भुते थ । सर्वध्वपि तेग कृतं तपःसंयमयोल्यछता २ मुबहकमपि श्रुतमवीतं किं करिष्यति चरणविप्रमुकस्स! । अन्धख यथा प्रदीप्ता दीपपातसहसकोग्यपि ॥१॥ दीप अनुक्रम 35453 अत्र मूल संपादने मुद्रणदोषात् नियुक्ति-क्रम १४९ द्विवारान् मुद्रितं, तत् कारणात् मया '१४९R' इति लिखितं ~164~ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-] / गाथा ||५|| नियुक्ति: [१४९R], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||५|| चारित्रं क्रियेत्यनर्थान्तरम् , क्षायिकमप्यङ्गीकृत्य प्रकृष्टफलसाधकल्वं तस्यैव विज्ञेयम्, यस्मादर्हतोऽपि भगवतः १दुमपु. हारि-वृत्तिः समुत्पन्नकेवलज्ञानस्यापि न तावन्मुक्त्यवाप्तिः संजायते, यस्मा(याव)दखिलकर्मेन्धनानलभूता इखपश्चाक्षरो-18| पिका० चारणमात्रकालावस्थायिनी सर्वसंवररूपा चारित्रक्रिया नावासति, तस्मात्क्रियैव प्रधानमैहिकामुष्मिकफल- स्थितपक्षः प्राप्तिकारणमिति स्थितम् । इति जो उवएसो सो णओ णामति 'इति' एवमुक्तेन न्यायेन य उपदेशः किम्?४/क्रियाप्राधान्यख्यापनपरः स नयो नाम-क्रियानय इत्यर्थः । अयं च ज्ञानवचनक्रियारूपेऽस्मिन्नध्ययने क्रियारूदिपमेवेदमिच्छति, तदात्मकत्वादस्य, ज्ञानवचने तु तदर्थमुपादीयमानत्वादप्रधानत्वान्नेच्छति गुणभूते चेच्छतीति गाथार्थः ॥ १४९ ॥ उक्तः क्रियानयः, इत्थं ज्ञाननयक्रियानयखरूपं श्रुत्वाऽविदिततदभिप्रायो विनेयः संशया पन्नः सन्नाह-किमन्त्र तत्त्वं ?, पक्षद्वयेऽपि युक्तिसंभवाद, आचार्यः पुनराह-अथवा ज्ञानक्रियानयमतं प्रत्येकमहै| भिधायाधुना स्थितपक्षमुपदर्शयन् पुनराह सव्येसिपि नयाणं बहुविहवत्तत्वयं निसामेत्ता । तं सव्वनयविसुद्धं जं चरणगुणहिओ साहू ।। १५० ।। व्याख्या-'सर्वेषामिति मूलनयानामपिशब्दात्त दानां च द्रव्यास्तिकादीनां 'बहुविधवक्तव्यता' सामान्यमेव विशेषा एव उभयमेव वाऽनपेक्षमित्यादिरूपाम् , अथवा नामादीनां नयानां कः कं साधुमिच्छतीया-1 दिरूपा 'निशम्य' श्रुत्वा तत् 'सर्वनयविशुद्ध सर्वनयसंमतं वचनं 'यचरणगुणस्थितः साधुः' यस्मात्सर्वनया एव (सर्वेऽपि नया)भावविषयं निक्षेपमिच्छन्तीति गाथार्थः ॥१५॥ दीप अनुक्रम ~165~ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||५|| दीप अनुक्रम [4] Jur Educato “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [१], उद्देशक [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित मूलं [-] / गाथा ||५|| निर्युक्ति: [१५१], भाष्यं [४ ...] आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः दुमपुष्कियनिज्बुत्ती समासओ वण्णिया विभासाए। जिणचउदसपुथ्वी वित्थरेण कयंति से अहं ॥ १५१ ॥ दुमपुष्फियनियुत्ती समता । सुगमा । इत्याचार्यश्रीहरिभद्रसूरिविरचितायां दशवैकालिकटीकायां द्रुमपुष्पिकाध्ययनं समाप्तम् । व्याख्यायाध्ययनमिदं प्राप्तं यत्कुशलमिह मया किञ्चित् । सद्धर्मलाभमखिलं लभतां भव्यो जनस्तेन ॥ १ ॥ इति सूरिपुरन्दर श्रीमद्धरि भद्रसूरिविरचितायां दशवैकालिक वृहद्वृत्तौ प्रथममध्ययनं द्रुमपुष्पिकाख्यं समाप्तम् ॥ For ane & Personal Use Oily अध्ययनं ९ परिसमाप्तं ~166~ brary dig Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||५...|| नियुक्ति: [१५२], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: दशका प्रत सूत्रांक गाथांक ||५..|| व्याख्यातं दुमपुष्पिकाध्ययनम् , अधुना श्रामण्यपूर्वकाख्यमारभ्यते, अस्य चायमभिसंवन्धः, इहानन्तरा २श्रमण्यहारि-वृत्तिःसाध्ययने धर्मप्रशंसोक्ता, सा चेहेव जिनशासन इति, इह तु तदभ्युपगमे सति मा भूदभिनवप्रवजितस्याधृतेः पर्वका संमोह इस्यतो प्रतिमता भवितव्यमित्येतदुपते, उक्तं च-"जस्स धिई तस्स तयो जस्स तबो तस्स मुग्गहाश्रमणावं. ॥८ ॥ सुलभा । जे अधिहमंत पुरिसा तयोऽवि खलु दुल्लहो तेसि ॥१॥" अनेनाभिसंबन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य योनिया चत्वार्यनुयोगद्वाराणि पूर्ववत्, नवरं नामवदध्ययनविषयत्वादुपक्रमादिद्वारकलापस्य व्याप्तिमाधान्यतो नामनिष्पन्नं निक्षेपमभिधित्सुराह नियुक्तिकार: सामण्णपुष्यगरस उ निकखेबो होइ नामनिफनो । सामण्णस्स चउको तेरसगो पुव्वयस्स भवे ॥ १५२ ॥ व्याख्या-श्राम्यतीति श्रमणः, [श्राम्यति तपस्यति तद्भावः श्रामण्यं, तस्य पूर्व-कारणं श्रामण्यपूर्व तदेव श्रामण्यपूर्वकमिति संज्ञायां कन, श्रामण्यकारणं च धृतिः, तन्मूलत्वात्तस्य, तत्प्रतिपादकं चेदमध्ययनमिति | भावार्थः। अतः श्रामण्यपूर्वकस्य तु निक्षेपो भवति नामनिष्पन्नः, कोऽसौ ?-अन्यस्याश्रुतत्त्वात् श्रामण्यपूर्वकमित्ययमेव, तुशन्दा सामान्यविशेषवन्नामविशेषणार्थः, श्रामण्यपूर्वकमिति सामान्यम्, श्रामण्यं पूर्व चेति विशेषः, तथा चाह-श्रामण्यस्य चतुष्ककस्त्रयोदशक: पूर्वकस्य भवेन्निक्षेप इति गाथार्थः ॥ १५२॥ निक्षेपमेव विवृणोति १ यस प्रतिस्तस्य तपो या तपस्तस्य सुगतिः सुलभा । यतिमन्तः पुरुषासापोऽपि खल दुर्समें तेषाम् ॥१॥२रुवनामेति ३ नामनिपानिक्षेपस्य. दीप ॐॐॐॐॐॐॐॐ-5+कर अनुक्रम + [५..] S अध्ययनं -२- श्रामण्यपूर्वकं आरभ्यते ~167~ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||५...|| नियुक्ति: [१५३], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत Bॐॐॐॐ सूत्रांक/ गाथांक ||५..|| समणस्स उ निकखेवो चउक्को होइ आणुपुबीए । दवे सरीरभविओ भावेण उ संजओ समणी ॥ १५३॥ व्याख्या-श्रमणस्य तु तुशब्दोऽन्येषां च मङ्गलादीनामिह तु श्रमणेनाधिकार इति विशेषणार्थः, निक्षेप|श्चतुर्विधो भवति, 'आनुपूा' नामादिक्रमेण, नामस्थापने पूर्ववत्, द्रव्यश्रमणो द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, आगमतो ज्ञाताऽनुपयुक्ता, नोआगमतस्तु ज्ञशरीरभव्यशरीरतद्यतिरिक्तोऽभिलापभेदेन दुमवदवसेयः, तं चानेनोपलक्षयति-'दव्ये सरीरभविउत्ति । भावभ्रमणोऽपि द्विविध एक्-आगमतो ज्ञातोपयुक्तः नोआगमतस्तु चारित्रपरिणामवान् यतिः, तथा चाह-भावतस्तु संयतः श्रमण इति गाथार्थः॥ १५३ ॥ अ-16 स्यैव स्वरूपमाह४ जह मम न पियं दुक्खं जाणिय एमेव सब्वजीवाणं । न हणइ न हणावेइ य सममणई तेण सो समणो ॥ १५४॥ व्याख्या-यथा मम न प्रियं दुःखं, प्रतिकूल वात्, ज्ञात्वैवमेव सर्वजीवानां दुःखप्रतिकूलत्वम् न हन्ति खयं न घातयत्यन्यैः, चशब्दाद अन्तं च नानुमन्यतेऽन्यम् , इत्यनेन प्रकारेण समम् अणति-तुल्यं गच्छति यतस्तेनासौ श्रमण इति गाथार्थः ॥१५४॥ नधि य सि कोइ वेसो पिओ व सव्वेसु चेव जीवेसु । एएण होह समणो एसो अन्नोऽवि पज्जाओ ।। १५५ ।। व्याख्या-नास्ति च 'सि' तस्य कश्चिद् द्वेष्यः प्रियो वा सर्वेष्वेव जीवेषु, तुल्यमनस्त्वात्, एतेन भवति सममनाः, समं मनोऽस्येति सममना, एषोऽन्योऽपि पर्याय इति गाधार्थः ॥ १५५ ॥ ॐॐॐॐSEE दीप अनुक्रम [५..] 'श्रमण' शब्दस्य निक्षेपा: एवं व्याख्या: ~168~ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक / गाथांक ||..|| दीप अनुक्रम [..] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [२], उद्देशक [-] निर्युक्ति: [१५६], भाष्यं [ ४... ] मूलं [-] / गाथा ||५...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ ८३ ॥ Ja Education तो समणो जग सुमणो भावेण व जइ न होइ पावमणो । सबणे व जणे व सभो समो व माणावमाणेसु ॥ १५६ ॥ व्याख्या - ततः श्रमणो यदि सुमनाः, द्रव्यमनः प्रतीत्य, भावेन च यदि न भवति पापमनाः, एतत्फलमेव दर्शयति-खजने च जने च समः, समश्च मानापमानयोरिति गाथार्थः ॥ १५३ ॥ उरगगिरिजलणसागरनयछतरुगणसमो य जो होई। भमरमिगधरणिजलरुहरविपवणसमो जओ समणो ॥ १५७ ॥ व्याख्या-उरगसमः परकृतविलनिवासित्वादाहारानाखाद नात्संयमैकदृष्टित्वाब, गिरिसमः परीषहपवनाकम्प्यत्वात् ज्वलनसमः तपस्तेजः प्रधानत्वात् तृणादिष्विव सूत्रार्थेष्वतृसेः एषणीयाशनादौ चाविशेषप्र वृत्तेरिति, सागरसमो गम्भीरत्वाज्ज्ञानादिरत्नाकरत्वात् स्वमर्यादानतिक्रमाच्च, नभस्तलसमः सर्वत्र निरा|लम्बनत्वात् तरुगणसमः अपवर्गफलार्थिसत्वशकुनालयत्वात् वासीचन्दनकल्पत्वाथ, भ्रमरसमः अनियतवृत्तित्वात्, मृगसमः संसारभयोद्विग्रत्वात्, धरणिसमः सर्ववेदसहिष्णुत्वात्, जलरुहसमः कामभोगोद्भवत्वेऽपि पङ्कजलाभ्यामिव तदूर्ध्ववृत्तेः, रविसमः धर्मास्तिकायादिलोकमधिकृत्य विशेषेण प्रकाशकत्वात्, पवनसमः अप्रतिबद्धविहारित्वात्, इत्थमुरगादिसमश्च यतो भवति ततः भ्रमण इति गाथार्थः ॥ १५७ ॥ विसतिणिसवायचंजुलकणियारूप्पलसमेण समणेणं । भमरंदुरुनडकुकुडअद्दागसमेण होयच्वं ॥ १ ॥ (प्र.) व्याख्या - श्रमणेन विषसमेन भवितव्यं भावतः सर्वरसानुपातित्वमधिकृत्य, तथा तिनिशसमेन मानपरि1 विषे सर्व रसानामन्तर्भावात् न तेषामनुभवस्तस्मिन् प्रक्षेपगाथा For ane & Personal Use Oily ~169~ २ श्रमण्य पूर्वकाभ्य० श्रमणपूर्वयोर्निक्षेपाः ॥ ८३ ॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||५...|| नियुक्ति: [१५७], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||५..|| त्यागतो नयेण, वातसमेनेति पूर्ववत, वञ्जुलो-वेतसस्तत्समेन क्रोधादिविषाभिभूतजीवानां तदपनयनेन, एवं हि श्रूयते-किल वेतसमवाप्य निर्विषा भवन्ति सर्पा इति, कर्णिकारसमेनेति तत्पुष्पवत्प्रकटेन अशुचिगन्धा-15 पेक्षया च निर्गन्धेनेति, उत्पलसदृशेन प्रकृतिधवलतया सुगन्धित्वेन च, भ्रमरसमेनेति पूर्ववत्, उन्दुरुसमेन उपयुक्तदेशकालचारितया, नटसमेन तेषु तेषु प्रयोजनेषु तत्तद्वेषकरणेन, कुकुंदसमेन संविभागशीलतया, स ४. हि किल प्राप्तमाहारं पादेन विक्षिप्यान्यैः सह भुङ्ग इति, आदर्शसमेन निर्मलतया तरुणायनुत्तिप्रतिवि-18 दम्बभावेन च, उक्तंच-"तरुणमि होइ तरुणो थेरो थेरोहिं डहरए डहरो। अदाओविव एवं अणुपत्तइ जस्स का सीलं ॥१॥" एवंभूतेन श्रमणेन भवितव्यमिति गाथार्थः ॥ इयं किल गाथा भिन्नकर्तृकी, अतः पवनादिषु ४.न पुनरुक्तदोष इति ॥१॥ साम्प्रतं 'तत्त्वभेदपर्यायैाख्ये ति न्यायाच्छ्मणस्यैव पर्यायशब्दानभिधित्सुराह पवइए अणगारे पासंडे चरग तावसे मिक्खू । परिवाइए व समणे निग्गंधे संजए मुत्ते ।। १५८ ॥ व्याख्या-प्रकर्षेण ब्रजितो-गतः प्रवजितः, आरम्भपरिग्रहादिति गम्यते, अगारं-गृहं तदस्यास्तीत्यगारो| गृही न अगारोऽनगारः, द्रव्यभावगृहरहित इत्यर्थः, पाखण्डं-व्रतं तदस्यास्तीति पाखण्डी, उक्तं च-"पाखण्ड व्रतमित्याहुस्तद्यस्यास्त्यमलं भुवि।स पाखण्डी वदन्त्यन्ये, कर्मपाशाद्विनिर्गतः (तम्) ॥२॥ चरतीति चरकः १ तरुणे भवति तरुणः स्थविरः स्थविरेषु वाले बालः । आदर्श इव रूपमनुवर्तते यस्प गरछीलम् ॥ १॥ दीप । अनुक्रम [५..] 'श्रमण' शब्दस्य पर्याय-शब्दानाम् व्याख्या: ~170~ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||५...|| नियुक्ति: [१५८], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||५..|| दशबैका तप इति गम्यते, तपोऽस्यास्तीति तापसः, भिक्षणशीलो भिक्षुः भिनत्ति वाऽष्टप्रकारं कर्मेति भिक्षुः, परि-1 श्रमण्यहारि-वृत्तिः समन्तात्पापवर्जनेन व्रजति-गच्छतीति परिव्राजकः, चः समुचये, अमणः पूर्ववत्, निर्गतो ग्रन्धान्निग्रंन्धःपूर्वकाध्य. बाह्याभ्यन्तरग्रन्धरहित इत्यर्थः, सम्-एकीभावेनाहिंसादिषु यतः-प्रयत्नवान् संयतः, मुक्तो बाह्याभ्यन्तरेणाश्रमणप॥८४॥ ग्रन्थेनैवेति गाथार्थः ॥१५८॥ र्याया० तिने ताई दबिए मुणी व खते य दन्त विरए य । लहे तीरद्धेऽविय हवंति समणस्स नामाई ।। १५९ ॥ व्याख्या-तीर्णवांस्तीर्णः, संसारमिति गम्यते, त्रायत इति त्राता, धर्मकथादिना संसारदुःखेभ्य इति भावः, रागादिभावरहितत्वाद्रव्यम् , द्रवति-गच्छति ताँस्तान ज्ञानादिप्रकारानिति द्रव्यम् , मुनिः पूर्ववत्, चः समुचये, क्षाम्यतीति क्षान्त:-क्रोधविजयी, एवमिन्द्रियादिदमनाहान्तः, विरत:-प्राणातिपातादिनिवृत्तः, स्नेहपरित्यागाद्भक्षा, तीरेणार्थोऽस्येति तीरार्थी, संसारस्येति गम्यते, तीरस्थो वा सम्यक्त्वादिप्राप्तेः संसारपरिमाणात, एतानि भवन्ति श्रमणस्य 'नामानि अभिधानानीति गाथार्थः ॥ १५९॥ निरूपितः श्रमणशब्दः, अधुना पूर्वशब्दश्चिन्त्यते-अस्य च त्रयोदशषिधो निक्षेपः, तथा चाह णाम ठवणा दविए खेत्ते काले दिसि तावखेत्ते य । पन्नवगपुव्ववत्थू पाटुडअइपाहुढे भावे ।। १६० ॥ 4. व्याख्या-नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यपूर्वम् अकराबीजं वनः क्षीरं फाणितास इत्यादि, क्षेत्रपूर्व यवक्षेत्राच्छा-14॥४॥ लिक्षेत्रं, तत्पूर्वकत्वात्तस्य, अपेक्षया चान्यथाऽप्यदोषः, कालपूर्व पूर्वः कालः शरदः प्रावृह रजन्या दिवस दीप अनुक्रम [५.] JamEachan ~ 171~ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक/ गाथांक |||| दीप अनुक्रम [६] दश. १५ Ja Education “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [२], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्ति: [१६०], भाष्यं [४... ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [४२] मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः इत्यादि आवलिकाया वा समय इत्यादि, दिक्पूर्वं पूर्वा दिग, इयं च रुचकापेक्षया, तापक्षेत्रपूर्वम् - आदित्योदयमधिकृत्य यत्र या पूर्वा दिक, उक्तं च- "जस्स जओ आदियो उदेह सा तस्स होइ पुच्चविसा" इत्यादि, प्रज्ञापकपूर्व-प्रज्ञापनं (कं) प्रतीत्य पूर्वा दिक यदभिमुख एवासौ सैव पूर्वा, पूर्वपूर्व चतुर्दशानां पूर्वाणामाद्यं तच उत्पाद पूर्वम्, एवं वस्तुप्राभृतातिप्राभृतेष्वपि योजनीयम्, अप्रत्यक्ष खरूपाणि चैतानि, भावपूर्वम्-आयो भावः स चौदधिक इति गाथार्थः ॥ १६० ॥ उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपस्यावसरः, इत्यादिचर्चः पूर्ववन्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारणीयम्, तचेदम् कहं नु कुजा सामपणं, जो कामे न निवारए। पए पए विसीदंतो, संकप्पस्स वसं गओ ? ॥१॥ अस्य व्याख्या - इह च संहितादिक्रमेण प्रतिसूत्रं व्याख्याने ग्रन्थगौरवमिति तत्परिज्ञाननिबन्धनं भावार्थमात्रमुच्यते-तत्रापि कत्यहं कदाहं कथमहमित्याद्यदृश्यैपाठान्तरपरित्यागेन दृइयं व्याख्यायते - 'कथं नु कुर्याच्छ्रामण्यं यः कामान्न निवारयति ?' 'कथं' केन प्रकारेण, नु क्षेपे, यथा कथं तु स राजा यो न रक्षति, कथं नु स वैयाकरणो योऽपशब्दान् प्रयुङ्क्ते, एवं कथं नु स कुर्यात् 'श्रामण्यं' भ्रमणभावं यः कामान् 'न निवारयति' न प्रतिषेधते ?, किमिति न करोति ?, तत्र “निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शनम्” इति वचनात् ५ यस्य यत आदित्य उदेति सा तस्य भवति पूर्वदिग् २ पूर्ववृत्त दर्शनेऽप्याशेषु दयमानेष्वदृश्यमानता For & Personal Use City ~ 172~ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१६०], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक दीप दशकाकारणमाह-'पदे पदे विषीदन् संकल्पस्य वशं गतः' कामानिवारणेनेन्द्रियाद्यपराधपदापेक्षया पदे पदे वि-IARश्रामण्यहारि-वृत्तिविषीदनात्संकल्पस्य वशंगतत्वात् । [अप्रास्ताध्यवसाय: संकल्पः] इति सूत्रसमासार्थः॥ १॥ अवयवार्थ तुपूर्वकाध्य. सूत्रस्पर्शनियुक्त्या प्रतिपादयति-तत्रापि शेषपदार्थान् परित्यज्य कामपदार्थस्य हेयतयोपयोगिखाल्ख- कामनिरूपमाह क्षेपाः नामंठवणाकामा दबकामा य भावकामा य । एसो खलु कामाणं निकलेवो चउबिहो होइ ।। १६१ ।। व्याख्या-नामस्थापनाकामा इत्यत्र कामशब्दः प्रत्येकमभिसंवध्यते, द्रव्यकामाश्च भावकामाश्च, चशब्दो खगतानेकभेदसमुच्चयाओं, एष खलु कामानां निक्षेपश्चतुर्विधो भवतीति गाथार्थः ॥ ११॥ तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य द्रव्यकामान् प्रतिपादयन्नाह सहरसरूवगंधाफासा उदयंकरा य जे दव्या । दुविहा य भावकामा इच्छाकामा मवणकामा ॥ १६२ ।। व्याख्या-शब्दरसरूपगन्धस्पर्शाः मोहोदयाभिभूतैः सत्त्वैः काम्यन्त इति कामाः, मोहोदयकारीणि च यानि द्रव्याणि संघाटकविकटमासादीनि तान्यपि मदनकामाख्यभावकामहेतुत्वाद्रव्यकामा इति, भावकामानाह-'द्विविधाच द्विप्रकाराश्च भावकामा:, इच्छाकामा मदनकामाश्च, तत्रैषणमिच्छा सैव चित्ताभिलाषरूपत्वात्कामा इतीच्छाकामा, मदयतीति तथा मदन:-चित्रोमोहोदयः स एव कामप्रवृत्तिहेतुत्वात्कामा मदनकामा इति गाथार्थः ।। १६२॥ इच्छाकामान् प्रतिपादयति अनुक्रम 'काम' शब्दस्य निक्षेपा: वर्णयते ~173~ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१६३], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक इच्छा पसत्यमपसत्थिगा व मयणमि वेवउवओगो । तेणहिगारो तस्स उ अयंति धीरा निरुत्तमिणं ।। १६३ ॥ व्याख्या-इच्छा प्रशस्ता अप्रशस्ता च, अनुस्वारोऽलाक्षणिकः सुखमुखोचारणार्थः, तत्र प्रशस्ता धर्मेच्छा मोक्षेच्छा, अप्रशस्ता युद्धेच्छा राज्येच्छा, उक्ता इच्छाकामाः, मदनकामानाह-'मदने' इति उपलक्षणार्थत्वान्मदनकामे निरूप्ये कोऽसावित्यत आह-वेदोपयोगः' वेद्यत इति वेदः-स्त्रीवेदादिस्तदुपयोगः-तद्विपाकानुभवनम् , तद्धापार इत्यन्ये, यथा स्त्रीवेदोदयेन पुरुषं प्रार्थयत इत्यादि, 'तेनाधिकार' इति मदनकामेन, |शेषा उच्चारितसदृशा इति प्ररूपिता, 'तस्य तु' मदनकामस्य वदन्ति 'धीराः' तीर्थकरगणधरा निरुक्तम् , 'इदं वक्ष्यमाणलक्षणमिति गाथार्थः ॥१६३ ॥ विसबमुहेसु पसत्तं अबुहजणं कामरागपडिबद्धं । उक्कामयंति जीवं धम्माओ तेण ते कामा ॥ १६४ ॥ व्याख्या-विषीदन्ति-अवबध्यन्ते एतेषु प्राणिन इति विषयाः-शब्दादयः तेभ्यः सुखानि तेषु प्रसक्ताआसक्तस्तं, जीवमिति योगः, स एव विशेष्यते-अबुधः-अविपश्चिजना-परिजनो यस्य सः अबुधजनस्तम्, अकल्याणमित्रपरिजनमित्यर्थः, अनेन बाचं विषयसुखप्रसक्तिहेतुमाह, कामरागप्रतिवद्ध'मिति कामा-15 मदनकामास्तेभ्यो रागा-विषयाभिष्वङ्गास्तैः प्रतिबद्धो-व्यासस्तम्, अनेन त्वान्तरं विषयसुखप्रसक्तिहेतुमाह, ततश्चाबुधजनत्वात्कामरागप्रतिबद्धत्वाच विषयसुखेषु प्रसक्तमिति भावः, किम् ?-निरुक्तवैचित्र्यादाहतत्प्रत्यनीकत्वादुत्क्रामयन्ति-अपनयन्ति जीवमनन्तरविशेषितम्, कुतो, धर्मात्, यत्तदोर्नित्याभिसंबन्धात् दीप अनुक्रम [६] JaEcon ~ 174~ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक/ गाथांक |||| दीप अनुक्रम [६] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) निर्युक्ति: [१६४], भाष्यं [ ४... ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [४२] मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः अध्ययनं [२], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||१|| दशयैका ० हारि-वृत्तिः ॥ ८६ ॥ येन कारणेन तेन (ते) सामान्येनैव कामरागः कामा इति गायार्थः ॥ अन्ये पठन्ति उत्क्रामयन्ति यस्मादिति, अत्र चाबुधजन एवं विशेष्यः, शेषं पूर्ववत् ॥ १६४ ॥ अन्नंपिय से नाम कामा रोगति पंडिया विंति । कामे परमाणो रोगे परथेइ खलु जंतू ।। १६५ ।। व्याख्या - अन्यदपि च 'एषां' कामानां नाम, किंभूतमित्याह-कामा रोगा 'इति' एवं पण्डिता ब्रुवते, किमित्येतदेवमत आह- कामान प्रार्थयमान:-अभिलषन रोगान् प्रार्थयते खलु जन्तुः, तद्रूपत्वादेव, कारणे कायोपचारादिति गाथार्थः ॥ १६५ ॥ इत्थं पूर्वार्धे सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्तिमभिधायाधुनोत्तरार्धे पदावयवमधि कृत्याह णामपयं ठवणपर्यं दव्वपर्य चेव होइ भावपयं । एवेत्कंपिय एत्तो णेगविहं होइ नायव्यं ।। १६६ ।। व्याख्या नामपदं स्थापनापदं द्रव्यपदं चैव भवति भाषपदम् एकैकमपि च 'अत' एतेभ्योऽनेकविधं भवति ज्ञातव्यमिति गाथासमासार्थः ॥ १६६ ॥ अवयवार्थ तु नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य द्रव्यपदमभि|धित्सुराह आउट्टिमडकिनं उण्णेजं पीलिमं च रंगं च गंधिमवेदिमपूरिम वाइमसंघाइमच्छेजं ॥ १६७ ॥ व्याख्या आकोहिमं जहा रूवओ हेट्ठा वि उबरिं पि मुहं काऊन आउडिज्जति, उत्कीर्ण शिलादिषु ना १ आकुट्टिकं यथा रूप्यकोऽपस्थादपि उपयंति मुखं कृत्वाऽकुते. For ne&Personal Use City ~ 175 ~ २ श्रामण्यपूर्वकाध्य० कामस्य पदस्य च निक्षेपाः ॥ ८६ ॥ brary dig Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१६७], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक मकादि, तहा बउलादिपुप्फसंठाणाणि चिक्खिल्लमयपडिबिगाणि काउं पचंति, तओ तेसु बग्घारित्ता म-18 यणं छुम्भति, तओ मयणमया पुष्फा हवन्ति, एतदुपनेयम्, पीडावच्च-संवेष्टितवस्त्र भावलीरूपं, रत्तावयवच्छविविचित्तरूवं रझं, चः समुच्चये, 'अथितं मालादि, 'वेष्टिमं' पुष्पमयमुकुटरूपं, चिकिखल्लमयं कुण्डिकारूपं अणेगच्छिदं पुप्फथामं पूरिम, वातव्यं कुविन्दैवस्त्रविनिर्मितमश्वादि, संघात्यं-कञ्चकादि, छेद्य-पत्रच्छेद्यादि। पदता चास्य पद्यतेऽनेनेत्यर्थयोगात्, द्रव्यता च तद्रूपत्वादिति गाथाः ॥ १६७ ।। उक्तं द्रव्यपदम्, अधुना भावपदमाह भावपर्यपि य दुविई अवराहपयं च नो व अवराई । नोअबराह दुविहं माउगनोमाउगं चेव ।। १६८॥ व्याख्या-भावपदमपि च द्विविधम् , द्वैविध्यमेव दर्शयति-अपराधहेतुभूतं पदमपराधपदम्-इन्द्रियादि| वस्तु, चशब्द: खगतानेकभेदसमुचयार्थः, 'णोअवराहति चशब्दस्य व्यवहितोपन्यासान्नोअपराधपदं च, चः पूर्ववत्, नोअपराधमिति-नोअपराधपदं द्विविधम्-माउअ नोमाउअं चेवत्ति मातृकापदं नोमातृकापदं च, तत्र मातृकापदं-मातृकाक्षराणि, मातृकाभूतं वा पदं मातृकापदं, यथा दृष्टिवादे "उप्पन्ने इ वा" इत्यादि, नोमातृकापदं त्वनन्तरगाथया वक्ष्यतीति गाथार्थः ॥ १६८॥ १ तथा अकुलाविपुष्पसंस्थानानि कर्दममयप्रतिबिम्बानि कृत्वा पच्यन्ते ततस्तेषु उनी कृत्य मदनं क्षिप्यते, ततो मदनमयानि पुष्पाणि भवन्ति, २ रकाजयपछविविचित्ररूपम्, ३ कर्दनमयं कृषिटकारूपम् अनेकच्छिदं पुष्पस्थानम्. दीप अनुक्रम 345-45%-4504 ~ 176~ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१६९], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: 9%2584 प्रत श्रामण्यपूर्वकाध्य सूत्रांक/ पदनि गाथांक II क्षेपाः दीप दशवैका० नोमाउगपि दुविहं गद्वियं च पइन्नयं च बोद्धव्वं । गहियं चउप्पयारं पइन्नग होइ[४]गविहं ॥ १६९ ॥ हारि-वृत्तिः व्याख्या-'नोमाउयपि ति नोमातृकापदमपि द्विविधम् , कथमित्याह-'ग्रथितं च प्रकीर्णकं च योद्धव्यम्' है ग्रथितं रचितं वद्धमित्यनर्थान्तरम्, अतोऽन्यत्प्रकीर्णक-प्रकीर्णककथोपयोगिज्ञानपदमित्यर्थः, ग्रथितं चतुष्पकारं गद्यादिभेदात्, प्रकीर्णकं भवत्यनेकविधम्, उक्तलक्षणवादेवेति गाथार्थः ॥ १६९ ॥ प्रथितमभिधातुकाम आह गर्ज पर्ज गेयं चुणं च चउल्विहं तु गहियपयं । तिसमुहाणं सव्वं इइ बेंति सलक्षणा करणी ।। १७० ॥ महुरं हेउनि जुलै गहियमपायं विरामसंजुत्तं । अपरिमियं चऽवसाणे कव्वं गज ति नायथ्यं ॥ १७१ ॥ पज तु होइ तिविहं सममद्धसमं च नाम विसमं च । पाएहि अक्खरेहि व एव विहिण्णू कई बेति ।। १७२ ।। तंतिसमं तालसमं वण्णसमं गहसमं लयसमं च । कव्वं तु होइ गेयं पंचविहं गीयसनाए ॥ १७३ ॥ अत्थबहुलं महत्थं हेउनिवाओवसग्गगंभीरं । बहुपायमवोच्छिन्नं गमणयसुद्धं च चुण्णपयं ।। १७४ । नोअवराहपर्य गर्व व्याख्या-गयं पयं गेयं चौर्ण च चतुर्विधमेव अथितपदम्, एभिरेव प्रकारैर्ग्रथनात्, एतच त्रिभ्यो धर्मापर्थकामेभ्यः समुत्थान-तद्विषयत्वेनोत्पत्तिरस्येति त्रिसमुत्थानं 'सर्व' निरवशेषम्, आह-एवं मोक्षसमुत्था नस्य गद्यादेरभावप्रसङ्गः, न, तस्य धर्मसमुत्थान एवान्तर्भावात्, धर्मकार्यवादेच मोक्षस्येति, लौकिकपदलक्षणमेवैतदित्यन्ये, अतस्त्रिसमुत्थानं सर्वम् , 'इई' एवं ब्रुवते 'सलक्षणा' लक्षणज्ञाः कवय इति गाथार्थः ॥१७॥ अनुक्रम A [६] D८७॥ SCARSA Jantacananा ~ 177~ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१७४], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक गद्यलक्षणमाह-मधुरं सूत्रार्थोभयैः श्रव्यम् 'हेतुनियुक्तं सोपपत्तिकम् 'ग्रथितं' बद्धमानुपूा 'अपादं विशिष्टच्छन्दोरचनायोगात्पादवर्जितम् विरामः-अवसानं तत्संयुक्तमर्थतो न तु पाठतः इत्येके, जहा-जिणवरपादारविंदसंदाणिउरुणिम्मल्लसहस्स एवमादि असमाणि न चिट्टइत्ति, यतिविशेषसंयुक्तं अन्ये, अप-2 रिमितं चावसाने बृहद्भवतीत्येके, अन्ये त्वपरिमितमेव भवति बृहदित्यर्थः, अवसाने मृदु पठ्यत इति शेषः, काव्यं गद्यम् , 'इति' एवंप्रकारं ज्ञातव्यमिति गाथार्थः ॥ १७१ ॥ अधुना पचमाह-पद्यं तु, तुशब्दो विशेषणार्थः, भवति 'त्रिविधं त्रिप्रकार, सममर्धसमं च नाम विषमंच, कैः सममित्यादि, अब्राह-पादैरक्षरैश्च, पादैः चतुःपादादिभिरक्षरैः गुरुलघुभिा, अन्ये तु व्याचक्षते-समं यत्र चतुर्वपि पादेषु समान्यक्षराणि, अर्ध-15 समं यत्र प्रथमतृतीययोतिीयचतुर्थयोश्च समान्यक्षराणि, विषमं तु सर्वपादेष्वेव विषमाक्षरमित्येवं विधिज्ञा छन्दःप्रकारज्ञाः कवयो ब्रुवत इति गाथार्थः ॥ १७२ ॥ अधुना गेयमाह-तश्रीसमं तालसमं वर्णसमं ग्रहसमं । लयसमं च काव्यं तु भवति, तुशब्दोऽवधारणार्थ एव, गीयत इति गेयं, 'पञ्चविधम्' उक्तैर्विधिभिः 'गीतसंज्ञायां' गेयाख्यायाम्, तत्र तत्रीसम वीणादितन्त्रीशब्देन तुल्यं मिलितंच, एवं तालादिष्वपि.योजनीयम. नवरं ताला-हस्तगमाः, वर्णा-निषादपञ्चमादयः, ग्रहा-उत्क्षेपाः, प्रारम्भरसविशेषा इत्यन्ये, लया:-तश्रीखन १ यथा जिनवरपादारविन्दसदानितोनिमलसहस एवमाबसमाप्य न तिष्ठति. दीप अनुक्रम [६] ~178~ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक / गाथांक |||| दीप अनुक्रम [६] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) अध्ययनं [२], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्ति: [१७४], आगमसूत्र - [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित दशवैकro हारि-वृत्तिः || ૮૮ ॥ Education | विशेषाः । तत्थं किल कोणएण तंती छिप्पड़ तओ हेहि अणुमज्जिज्जइ, तत् अण्णारिसो सरो उट्ठेइ, सो लयो ति गाथार्थः ॥ १७३ ॥ साम्प्रतं चौर्ण पदमाह- अर्थो बहुलो यस्मिंस्तदर्थबहुलम्, 'कचित्प्रवृत्तिः कचिप्रवृत्तिः, कचिद्विभाषा कचिदन्यदेव । विधेर्विधानं बहुधा समीक्ष्य, चतुर्विधं बाहुलकं वदन्ति ॥ १ ॥ ततवैभिः प्रकारैर्वहर्थम्, महान प्रधानो हेयोपादेयप्रतिपादकत्वेनार्थी यस्मिंस्तन्महार्थम्, 'हेतुनिपातोपसर्गभीरम्' तत्रान्यथाऽनुपपत्तिलक्षणो हेतु:, यथा-मदीपोऽयमश्वो विशिष्टचिहोपलक्षितत्वात्, चवाखल्वादयो निपाताः पर्युतसमवादय उपसर्गाः, एभिरगाधम्, 'बहुपादम्' अपरिमितपादम् 'अव्यवच्छिन्नं' लोकवनिरामरहितम्, गमनयैः शुद्धम्, गमाः तदक्षरोचारणप्रवणा भिन्नार्थाः, यथा 'इह खलु जीवणिया० कयरा खलु सा छज्जीवणिया०' इत्यादि, नयाः - नैगमादयः प्रतीताः, तुरवधारणे, गमनयशुद्धमेव चौर्ण पदं ब्रह्मचर्याध्ययन पदवदिति गाधार्थः ॥ १७४ ॥ उक्तं ग्रथितं प्रकीर्णकं लोकादवसेयम्, उक्तं नो अपराधपदम् अधुना अपराधपदमाह - इंदियविसयकसाया परीसदा बेयणा य उवसग्गा । एए अवराहपया जत्थ वितीयंति दुम्मेहा ॥ १७५ ॥ व्याख्या- इन्द्रियाणि-स्पर्शनादीनि विषया:- स्पर्शादयः कषायाः क्रोधादयः इन्द्रियाणि चेत्यादिद्वन्द्वः, 'परीषहाः' क्षुत्पिपासादयः 'वेदना' असातानुभवलक्षणा उपसर्गा-दिव्यादयः, एतानि 'अपराधपदानि' १ तत्र किल कोणकेन तत्री स्पृश्यते, ततो नखैरनुभ्यते, तत्रान्यादृशः खर उत्तिष्ठते, राज्य इति २ इह खलु षड्जीवनिका कतरा खसा पड्जीवनिका. अपराधपदस्य वर्णनं क्रियते Fore&Personal Use City ~ 179~ २ श्रामण्य पूर्वकाध्य० पदनिक्षेपाः ॥ ८८ ॥ brary dig Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१७५], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत HSS सूत्रांक/ गाथांक मोक्षमार्ग प्रत्यपराधस्थानानि, 'यत्र' येष्विन्द्रियादिषु सत्सु 'विषीदन्ति' आ(अव)वध्यन्ते, किंसर्व एव?, नेत्याह -दुर्मेधसः क्षुल्लकवत्, कृतिनस्तु एभिरेव कारणभूतैः संसारकान्तारमुत्तरन्तीति गाथार्थः ॥१७॥ क्षुल्लकस्तु पदे पदे विषीदन् संकल्पस्य वशं गतः, कोऽसौ खुल्लओ त्ति?, कहाणयं-कुंकुणओ जहा एगो खंतो सपुत्तो पब्वइओ, सो य चेल्लओ तस्स अईव इट्टो, सीयमाणो य भणइ-खंता! ण सकेमि अणुवाहणो हिंडिलं, अणुकंपाए खंतेण दिण्णाओ उचाहणाओ, ताहे भणइ-उवरितलासीएणं फुटंति, खल्लिता से कयाओ, पुणो भणइसीसं में अईव डज्झइ, ताहे सीसवारिया से अणुण्णाया, ताहे भणइ-ण सोमि भिक्खं हिंडिलं,तो से पडिसए ठियस्स आणेइ, एवं ण तरामि खंत! भूमिए सुविउं, ताहे संथारो से अणुण्णाओ, पुणो भणइ-ण तरामि खंता लोयं काउं, तो खुरेण पकिल्जियं, ताहे भणइ-अण्हाणयं न सकेमि, तओ से फासुयपाणएण कप्पो| दिजइ, आयरियपाउग्गं वत्थजुयलयं धिप्पड़, एवं जं जं भणइ तं तं सो खंतोणेहपडिबडो तस्सणुजाणइ, एवं काले गच्छमाणे पणिओ-न तरामि अविरइयाए विणा अच्छिउँ खंतत्ति, ताहे खंतो भणइ-सढो, अजो १ क्षुल्लक इति ?, कथानकम्-कोकणकः वथा एको श्रद्धः सपुत्रः प्रबजितः, स च क्षुलकः तस्यातीचेष्टः, सीदंश्च भणति-वृद्ध ! न शक्रोमि भनुषानरको हिण्डितुमनुकम्पया वृद्धेन दत्तो उपानहौ, तदा भणति-उपरितली शीतेन स्काटयतः, खल्यौ तस्य कृते, पुनर्भणति-शोष मे अतीव दह्यते, तदा शीर्घद्वारिका तस्मायनुज्ञाता, तदा भणति-न शक्नोमि भिक्षा हिण्डितुं, ततस्तस्य प्रतिश्रये स्थितस्य आनयति, एवं न शक्रोमि वृद्ध! भूमौ सतुम, तदा संस्तारकः तस्य अनुज्ञातः, पुनर्भणतिन शक्रोमि पद! लोचं कर्तुं, ततः क्षुरेण प्रकृतं, तदा भवति-अमानतां न शक्नोमि, ततस्तस्य प्राकानकेन कल्यं ददाति, आचार्यप्रायोग्य वस्त्र युगलकं गृह्यते, एवं यद् समयति तत्तत् स वृद्धः स्नेह प्रतिबद्धः तस्यानुजानाति, एवं काले गच्छति प्रभनतिन शक्रोमि अविरतिकया विना स्थातुं वृद्ध ! इति, तदा युद्धो भणति दीप अनुक्रम -NERASE ~180~ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१७५], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्तिः प्रत श्रामण्यपूर्वकाध्य. संकल्पकक्षुलको. सूत्रांक/ गाथांक दशवैका गोसि काऊण पडिसयाओ णिप्फेडिओ, कम्म कार्ड ण याणेइ, अयाणतो खणसंखडीए धाणिं काउं अजिण्णेण हारि-वृत्तिःमओ, विसयविसट्टो मरिउं महिसो आयाओ,वाहिज्जइ य, सो य खंतो सामण्णपरियागं पालेऊण आउकखए कालगओ देवेसु उववण्णो, ओहिं पउंजइ, ओहिणा आभोएऊण तं चेल्लयं तेण पुब्वणेहेणं तेसिं गोहाणं हत्थओ किणह, वेउब्धियभंडीए जोपड, वाहेइ य गरुग, तं अतरंतो वोढुं तोत्तएण विंधे भणइ-ण तरामि खंता |भिक्खं हिण्डि, एवं भूमीए सयणं लोपं काउं एवं ताणि वयणानि सवाणि उच्चारेइ जाब अविरययाए विणा न तरामि खंतत्ति, ताहे एवं भर्णतस्स तस्स महिसस्स इमं चित्तं जायं-कहिं एरिसं वकं सुअंति, ताहे ईहावुहमग्गणगवेसणं करेइ, एवं चिंतयंतस्स तस्स जाईसरणं समुप्पन्नं, देवेण ओही पउत्ता, संबुद्धो, पच्छा भत्तं पचक्खाइत्ता देवलोगं गओ। एवं पए पए विसीदन्तो संकप्पस्स वसं गच्छह, जम्हा एस दोसो तम्हा अट्ठारससीलंगसहस्साणं सारणाणिमित्तं एए अवराहपए वज्जेज । तथा चाह १.शठः, अयोग्य इतिकृत्वा प्रतिश्रयात् निष्कासितः, कर्म कर्तुन जानाति, अजानन् क्षणसंखण्डयां प्राणि कृत्वाऽजीर्णेन मृतः, विषयविषातों मृत्वा महियो जातः, बाह्यते थ, सच पद्धः श्रामण्यपर्याय पालयित्या आयुक्षये कालगतो देवे घूत्पन्नः अवधि प्रयुपकि, अवधिना आभोगयित्वा द शुजकं तेन पूर्वस्नेहेन तेषां गोधान्दो हखात् कोणाति, वैकिवगमया योजयति, वाहयति व गुरुकतं अवाकुवन्तं बोई तोत्रकेण वेधयित्वा भणति न शक्रोमि वृद्ध! भिक्षा हिण्डितुम् , एवं भूमी शयनं, लोचं *कर्तुम , एवं तानि बचनानि सर्वाणि उच्चारयति, याचदविरतिकया बिना न मानोमि वृद्धति, तदा एवं भणतस्वस्थ महिपस्य इदं चित्तं जातं-कृष। एतादर्श वाक्यं । [ तमिति, तदा देशापोहमार्गणगवेषणाः करोति, एवं चिन्तयतकास्य जातिस्मरणं समुत्तर्ण, देवेनावधिः प्रयुक्तः संबुदः पवाद भर्फ प्रत्यास्याव, देवलोकं गतः *एवं पदे पदे विषीदन् संकल्पस्य वर्श गच्छति, मसात् एष दोषः तस्मादष्टादशीलासहसाणा सरणनिमित्तं एतानि अपराधपदानि बजयत, दीप अनुक्रम ॥ ९॥ ~ 181~ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१७६], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक अट्ठारस उ सहरसा सीलंगाणं जिणेहिं पन्नत्ता । तेसिँ पडि(रि)रक्षणवा अवराहपए उ बोशा ॥ १७६ ॥ व्याख्या-अष्टादश सहस्राणि, तुरवधारणे, अष्टादशैव, शीलं-भावसमाधिलक्षणं तस्याङ्गानि-भेदाः कार-12 दणानि वा शीलाङ्गानि तेषां जिनैः प्राग्निरूपितशब्दाथै: 'प्रज्ञप्तानि' प्ररूपितानि, 'तेषां शीलाङ्गानां 'परिर-8 क्षणार्थ'परिरक्षणनिमित्तम् 'अपराधपदानि' प्राग्निरूपितस्वरूपाणि 'वर्जयेत्' जह्यादिति गाथार्थः ॥१७६ ॥ साम्मतं शीलाङ्गसहस्रप्रतिपादनोपायभूतमिदं गाथासूत्रमाह जोए करणे सन्ना इंदिय भोमाइ समणधम्मे य । सीलंगसहस्साणं अट्ठारसगस्स निष्फत्ती ॥ १७४ ।। सामण्णपुब्वयनिजुत्ती समत्ता ॥२॥ र व्याख्या-तस्थ ताव जोगो तिविहो, कायेण वायाए मणेणं ति, करणं तिविहं-कयं कारियं अणुमोइयं, सन्ना चउम्विहा. तंजहा-आहारसपणा भयसण्णा मेहुणसण्णा परिग्गहसण्णा, इंदिए पंच, तंजहा-सोइंदिए चर्किखदिएघाणिदिए जिभिदिए फासिदिए, पुढविकाइयाइया पञ्च, बेइंदिया जाव पंचेंदिया अजीबनिकायपंचमा,समणधम्मो दसविहो, तंजहा-खंती मुत्ती अजवे महवे लाघवे सचे तवे संजमे य आकिंचणया बंभचेरवासे ।। CAR दीप अनुक्रम CASAALAACROS तत्र तावद्योगनिविधः-कायेन वाचा मनसेति, करणं त्रिविध-कृतं कारितमनुमोदितं, संज्ञा चतुर्विषा, तयथा-आहारसंक्षा भवसंझा मैथुनसंज्ञा परिमह-18 संज्ञा, इन्द्रियाणि पक्ष, तयथा-श्रोत्रेन्द्रियं चहुरिन्द्रियं प्राणेन्दियं जिलेन्द्रियं स्पर्शनेन्द्रिय, पृथ्वीकाविकादयः पञ्च, दीन्द्रिया यावत् पश्चेन्द्रियाः अजीवनिकायपश्चमाः, धमणधर्मी दशविधः, तद्यथा-शान्तिर्मुक्तिराजवं मादेने लापर्व सहा तपः संयमध अकिमानता माचर्यवासः, "अष्टादश सहस्राणि शिलांग"स्य वर्णनं ~ 182~ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-, मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१७७], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ ॥९॥ गाथांक दीप दशका०एसा ठाणपरूवणा, इयाणिं अट्ठारसहं सीलंगसहस्साणं समुकित्तणा-काएणं न करेमि आहारसन्नाप- श्रामण्यहारि-वृत्ति डिविरए सोहंदियपरिसंवुडे पुढविकायसमारंभपडिविरए खंतिसंपजुत्ते, एस पढमो गमओ १, इयाणि [विइओ भण्णइ-काएणण करेमि आहारसपणापडिविरए सोइंदियपरिसंवुढे पुढविकायसमारंभपडिविरुए मुत्ति-१८ स. |संपजुत्ते, एस बीइओगमओ, इयाणिं तइयओएवं एएण कमेण जाव दसमो गमओ बंभचेरसंपउत्सो, एस दस- शीलाङ्गानि ट्रमओ गमओ । एए दस गमा पुढचिकायसंजर्म अमुचमाणेण लद्धा, एवं आउकाएणवि दस चेच, एवं जाव अ-13 जीवकाएणवि दस चेव, एवमेयं अणूणं सयं गमयाणं सोइंदियसंवुडं अमुचमाणेण लळू, एवं चकिंखदिएणवि सर्य, धार्णिदिएणवि सयं, जिन्भिदिएणवि सयं, फासिदिएणवि सयं, एवमेयाणि पंच गमसयाणि आहारसण्णापडिविरयममुंचमाणेणं लद्धवाणि, एवं भयसपणाएविपंच सयाणि, मेहुणसपणाएवि पंचसयाणि, परिग्गह एषा स्थानप्ररूपणा, इदानी अष्टायाना धौलांसहस्राणां समुत्कीर्तना-कायेन न करोमि भाचारसंशापतिविरतः धोत्रेन्नियचंयतः पृथ्वीकायसमारम्भप्रति| विरतः शान्तिसंप्रयुक्तः, एष प्रथमो गमः, इदानी द्वितीयो भव्यते-कायेन न करोमि भादारसंशाप्रतिपिरतः ओमेन्द्रियसंवतः पृथ्वीकायसमारम्भप्रतिविरतः मुक्तिसंप्रयुक्तः एष द्वितीयो गमः,इदानीं तृतीयः, एवमेतेन क्रमेण यावदशमो गमः ब्रह्मचर्यसंप्रयुक्तः एष दयामो गमः, एते दश गमाः पृथ्वीकायसंयमममुपता लन्भार, एवमकायेनाऽपि दीव, एवं यावदजीवकायेनापि दशैष, एवमेतत् अनून शतं गमकाना श्रोत्रेन्द्रियसंघृतममुखता सम्धम् , एवं वधुरिन्द्रियेणापि शतं, प्राणेन्द्रियेणापि शतं, जिडेन्दियेणापि शतं, स्पर्शनेन्द्रियेगापि शत, एवमेतानि पाश गभशतानि याहारसंझापतिविरतममुचता सन्मानि, एवं भयसंज्ञयाऽपि पञ्च शतानि मैथुनसे संज्ञयाऽपि पश्च शतानि परिग्रहसंज्ञवापि अनुक्रम IL ॥ e JaElication सूत्रकारकृत् त्यागी-अत्यागिनाम् व्याख्या ~ 183~ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||२|| नियुक्ति: [१७७], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ * गाथांक ||२|| दीप अनुक्रम सण्णाएवि पंच सयाणि, एवमेयाणि चीसं गमसयाणि ण करेमि अमुश्त्रमाणेण लद्धाणि, एवं ण कारवेमित्ति वीसं सयाणि, करतंपि अन्नं न समणुजाणामित्ति वीसं सयाणि, एवमेयाणि छ सहस्साणि कार्य अमुचमाणेण लद्धाणि, एवं वायाएवि छ सहस्साणि, एवं मणेणवि छ सहस्साणि । एवमेतेन प्रकारेण शीलाङ्गसहस्राणामष्टादशकस्य निष्पत्तिर्भवतीति गाथार्थः ॥ १७७॥ न केवलमयमधिकृतसूत्रोक्तः उक्तवच्छ्रामण्याकरजणादश्रमणः किन्वाजीविकादिभयप्रवजितः संक्लिष्टचित्तो द्रव्यक्रियां कुर्वन्नप्यश्रमण एव-अस्याग्येव, कथम्?, यत आह सूत्रकारः वस्थगंधमलंकारं, इत्थीओ सयणाणि य । अच्छंदा जे न भुंजंति, न से चाइत्ति वुच्चइ ॥२॥ अस्य व्याख्या-'वनगन्धालङ्कारानिति, अब वस्त्राणि-चीनांशुकादीनि गन्धा:-कोष्ठपुटादयः अलङ्काराः -कटकादयः, अनुस्वारोऽलाक्षणिकः, स्त्रियोऽनेकप्रकाराः, 'शयनानि' पर्यडूकादीनि, चशब्द आसनाद्यनुक्तसमुच्चयार्थः, एतानि वस्त्रादीनि किम् ?, 'अच्छन्दाः अखवशा ये केचन 'न भुञ्जते' नासेवन्ते, किं बहुवचनोदेशेऽप्येकवचननिर्देशः?, विचित्रत्वात्सूत्रगतेर्विपर्ययश्च भवत्येवेतिकृत्वा, आह–'नासी त्यागीत्युच्यते सुबन्धुवन्नासी श्रमण इति सूत्रार्थः ॥२॥ कः पुनः सुबन्धुरिति?, अत्र कथानकम्-जया दो चंदगुत्तेण पच शसानि, एवमेतानि विंशतिर्गमशतानि न परोमीति अमुभता लब्धानि, एवं न कारयामीति विवातिः शतानि, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुज्ञानामीति विशतिः शतानि, एवमेतानि पद सहसागि कायममुखता लब्धानि, एवं वाचाऽपि षद् सहस्राणि, एवं मनसाऽपि पर सबलानि यदा नन्दचन्द्रगुप्तेन ७] दश. १६ ~ 184~ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||२|| नियुक्ति: [१७७...], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: हारि-वृत्तिः प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||२|| दशवैका०णिच्छुहो, तया तस्स दारेण निगच्छंतस्स दुहिया चंदगुत्ते दिहि बंधेइ, एयं अक्खाणयं जहा आवस्सए जावर श्रामण्य |विंदुसारो राया जाओ, गंदसंतिओ य सुबंधू णाम अमचो, सो चाणकस्स पदोसमावण्णो छिद्दाणि मग्गइ. पूर्वकाध्य. का अण्णया रायाणं विण्णवेइ-जइवि तुम्हे अहं वित्तंण देह तहावि अम्हेहिं तुम्ह हियं वत्तव्यं, भणियं च-तुम्हा सुवन्धू॥११॥ माया चाणक्केण मारिया, रण्णा धाई पुच्छिया, आमंति, कारणं ण पुच्छियं, केणवि कारणेण रपणो य सगासंदाहरणं चाणको आगओ, जाय दिहि न देई ताव चाणको चिंतेइ-रुट्ठो एस राया, अहं गयाउओत्तिकाउं दव्वं पुत्त-1 हैपउत्ताणं दाऊणं संगोवित्ता य गंधा संजोइआ, पत्तयं च लिहिऊण सोऽवि जोगो समुग्गे छूढो, समुग्गी| य चउसु मंजूसासु छूढो, तासु छुभित्ता पुणो गन्धोवरए छुढो, तं बहहिं कीलियाहिं सुघडियं करेत्ता दब्बजायं णातिवग्गं च धम्मे णिओइत्ता अडवीए गोकुलट्ठाणे इंगिणिमरणं अन्भुवगओ, रण्णा य पुच्छियं GADCHOPARACAAKANGANA दीप अनुक्रम [७] निक्षिसः (निष्काशितः), तदा तस्स द्वारेण निर्गच्छतो पुत्री चन्द्रगुप्ते दृष्टिं बध्नाति, एतदाख्यानर्क यथाऽऽवश्यके यावद्विन्दुसारो राजा जातः, नन्दसत्कश्च | सुबन्धुनामाऽमालयः, स चाणक्ये प्रदेषमापना, छिदाणि मार्गयति, अन्यदा राजानं विज्ञपयति-यपि यूयमसभ्यं विसं न दत्य तथाप्यस्माभिर्युष्माकं हितं वक्तव्यं, भणितं च-युष्माकं माता चाणक्येन मारिता, राहा धात्री पृष्टा, ओमिति, कारणं न पूष्ट, केनापि कारणेन राशभ सकार्य चाणक्य आगतः, यावधि न ददाति तादचाणक्यः चिन्तयति-कृष्ट एष राजा, अहं गतायुरितिकावा द्रव्यं पुत्रपौत्रेभ्यो दया संगोप्य च गन्धाः संयोगिताः, पपर्क च लिखित्या। सोऽपि योगः समुद्रे क्षिप्तः, समुद्रव मरायषु माषासु क्षिप्तः, तासु क्षिावा पुनर्गन्धापवरके क्षिप्तः, तंबहुभिः कीलिकाभिः सुघटितं कृत्वा यज्ञातं हातिवगै| चभमें नियोज्याटव्यां गोकुलस्थाने इशिनीमरणमभ्युपगतवान् , राज्ञा व पृष्ट ९१ JanEesatara ~185~ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||२|| नियुक्ति: [१७७...], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||२|| चाणको किं करेइ?, धाई य से सवं जहावत्तं परिकहेइ, गहियपरमत्थेण य भणियं-अहो मया असमिक्खियं कयं, सब्बतेउरजोहबलसमग्गो खामेउं निग्गओ, दिट्ठो अणेण करीसमज्झटिओ, खामियं सबहुमाणं, भ|णिओ अणेण-गरं बचामो, भणइ-मए सब्बपरिचाओ कओत्ति । तओ सुबंधुणा राया विष्णविओ-अहं से पूर्व करेमि अणुजाणह, अणुण्णाए धूवं डहिऊण तंमि व एगप्पएसे करीसस्सोवरि ते अंगारे परिहवेइ, सो द्रय करीसो पलित्तो, दह्रो चाणको, ताहे सुबंधुणा राया विषणविओ-चाणकस्स संतियं घरं ममं अणुजाणह, अणुण्णाए गओ, पवुविक्खमाणेण य घरं विट्ठो अपवरओ घट्टिओ, सुबंधू चिंतेइ-किमवि इत्थत्ति कवाडे भंजित्ता उग्घाडिओ, मंजूसं पासइ, सावि उग्घाडिया, जाव समुग्गं पासइ, मघमघंतं गंधं सपत्तयं पेच्छह, तं पत्तयं वाएर, तस्स य पत्तगस्स एसो अस्थो-जो एयं चुपणयं अग्घाइ सो जइ हाइ वा समालभइ वा अलंकारेइ सीउदगं पिवइ महईए सेजाए सुबइ जाणेण गच्छइ गंधव्वं वा सुणेइ एवमाई अपणे वा इडे चाणक्यः किं करोति !, भात्री च तस्मै सर्वं यथावसं परिकथयति, ग्रहीतपरमार्थेन च भगित-अहो मया असगीक्षितं कृतं, सन्तःपुरयोधवलसमप्रः क्षमयितुं निर्गतः, स्टोऽनेन करीषमध्यस्थितः, क्षमितं सबहुमाने, माणितमनेन-नगरं ब्रजामः, भणति-मया सर्वपरित्यागः कृत इति । ततः सुबन्धुना राजा विज्ञप्तः -अहं तस्य पूजा करोमि अनुजागीत, अनुज्ञाते धूपं दावा तमिवैकप्रदेशे करीषस्योपरि तामहारान् परिस्थापयति, सच करीषः प्रदीप्तः, दग्धचाणक्यः, तदा सुबन्धुनाराजा विज्ञतःचाणक्यख सकं गृहं महयमनमानीत.अनुज्ञाते गत्ता, प्रत्यक्षमाणेन च गृह रोवरको पहिता, सुबन्धुधिन्तयति-किमप्योति कपाटी, भक्त्वोद्घाटितः, मजूषां पश्यति, साऽप्युपादिता, यावरसमुह पश्यति,मघमघायमानं गन्धं सपत्रकं पश्यति, तं पत्रं वाचयति, तसच पत्रषोऽर्थः- एतचूर्ण | जिप्रति स यदि नाति वा समालभते दाउलधारयति शीतोदकं पिबति महलो शव्यायां खपिति यानेन गच्छति गान्धर्व वा शृणोति एषमादीनन्यानपि इथन् दीप अनुक्रम ~186~ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||३|| नियुक्ति: [१७७...], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ दाहरणं गाथांक ||३|| दशका०18 विसए सेवेइ जहा साहुणो अच्छंति तह सो जइ ण अच्छेइ तो मरइ, ताहे सुबंधुणा विण्णासणत्धं अपणो र श्रामण्यहारि-वृत्तिःपुरिसो अग्घावित्ता सदाइणो विसए मुंजाविओ मओ य, तओ सुबंधू जीवियट्ठी अकामो साहू जहा पूर्वकाध्य. अच्छंतोवि ण साहू । एवमधिकृतसाधुरपि न साधुः, अतो न त्यागीत्युच्यते, अभिधेयार्थाभावात् ॥ सुबन्धू. ॥१२॥ यथा चोच्यते तथाऽभिधातुकाम आह- . | जे य कंते पिए भोए, लद्धे विपिट्टिकुव्वइ । साहीणे चयई भोए, से हु चाइत्ति वुच्चई ॥३॥ __अस्य व्याख्या-चशब्दस्यावधार(णार्थ)त्वात्य एव 'कान्तान् कमनीयान् शोभनानित्यर्थः 'प्रियान्' इष्टान् इह कान्तमपि किश्चित् कस्यचित् कुतश्चिन्निमितान्तरादप्रियं भवति, यथोक्तम्-"उहिं ठाणेहिं संते गुणे णासेजा, तंजहा-रोसेणं पडिनिवेसेणं अकयण्णुयाए मिच्छत्ताभिनिवेसणं" अतो विशेषणं प्रियानिति, 'भोगान् शब्दादीन् विषयान् लब्धान्' प्राप्तान् उपनतानितियावत्, 'विपिट्टिकुवईत्ति विविधम्-अनैकैः प्रकारैःशुभभावनादिभिः पृष्ठतः करोति, परित्यजतीत्यर्थः, स च न बन्धनबद्धः प्रोषितो वा किन्तु? 'खाधीनः' अपरायत्तः खाधीनानेव त्यजति भोगान् , पुनस्त्यागग्रहणं प्रतिसमयं त्यागपरिणामवृद्धिसंसूचनार्थम्, भोगग्रहणं तु विषयान् सेवते अथा साधवस्तिष्ठन्ति तथा स पि न तिष्ठति तदा नियवे । तदा सुबन्धुना विन्यासना) (जिज्ञासाथै) पुरुषोऽन्य आनाप्य शब्दादीन ॥१२॥ विषबान भोजितः मृतब । ततः सुबन्धुभाषितार्थी अकामः साधुर्वथा तिष्ठश्नपि न साधुः । २ चतुर्भिः स्थानः रातो गुणानाशयेत्, तद्यथा-रोषेण प्रतिनिवेशेन । दीप अनुक्रम ८] अफूततया मिथ्यात्वाभिनिवेशेन. ~ 187~ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||३|| नियुक्ति: [१७७...], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||३|| संपूर्णभोगग्रहणार्थ-त्यक्तोपनतभोगसूचनार्थ वा, ततश्च य ईदृशः हुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् स एव त्यागीत्युच्यते, भरतादिवदिति । अत्राह-जइ भरहजबुनामाइणो जे संते भोए परिचयंति ते परिचाइणो, एवं ते भणंतस्स अयं दोसो हवह-जे केवि अत्थसारहीणा दमगाइणो पब्वइऊण भावओ अहिंसाइगुणजुत्ते सामपणे अन्भुजुया ते किं अपरिचाइणो हवंति?, आयरिय आह-तेऽवि तिण्णि रयणकोडीओ परिचइऊण पब्वइया-अग्गी उदयं महिला तिण्णि रयणाणि लोगसाराणि परिचइऊण पब्बइया, दिलुतो-एगो पुरिसो सुधम्म-IN सामिणो सयासे कट्ठहारओ पव्वइओ, सो भिक्खं हिंडतो लोएण भण्णइ-एसो कट्टहारओ पव्वइओ, सो सेहत्तेण आयरियं भणइ-ममं अण्णत्थ णेह, अहं न सकेमि अहियासेत्तए, आयरिएहिं अभओ आपुच्छिओ -बच्चामोत्ति, अभओ भणइ-मासकप्पपाउग्गं खित्तं किं एयं न भवइ ? जेण अत्थके अपणत्थ बच्चह?, आयरिमाएहि भणियं-जहा सेहनिमित्तं, अभओ भणइ-अच्छह बीसत्था, अहमेयं लोग उवाएण निवारेमि, ठिओ दीप अनुक्रम KOROSCORRESh OS ___ यदि भरतजम्यूनामादयः ये रातो भोगान् परित्यजन्ति ते परित्यागिनः एवं तब भणतोऽयं दोषो भयति-ये केऽपि अर्थसारहीना इमकादयः प्रजज्य भावका तोऽहिसादियुक्त श्रामण्ये अभ्युद्यताः ते किमपरित्यागिनो भवन्ति ? आचार्य आह-तेऽपि तिनो रखकोटीः परित्यज्य प्रबजिता:---अग्निरुदकं महिला वीनि रत्नानि लोकसाराणि परित्यज्य प्रजिताः, दृष्टान्तः-एकः पुरुषः सुधर्मखामिनः सकाशे काष्टहारका याजितः, स भिक्षा हिण्डमानो लोकेन भष्यते-एष काछदारकः प्रनजितः, स शैक्षरवनाथा भणति-मामन्यत्र नयत, अहं न शक्नोम्पध्यासितुम् , आचारभव आवृष्टो अजाम इति, अभयो भणति-मासस्पप्रायोग्य क्षेत्रं किमतन्न भ. बति येनाकाण्डेऽन्यत्र बजथ-आचार्य भणितं यथा शैक्ष निमित्तम्, अभयो भणति-तिष्टय विश्वस्ताः, अहमेनं लोकमुपायेन निवारयाभि, स्थितः ~ 188~ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||३|| नियुक्ति: [१७७...], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||३|| % दशवैकाआयरिओ। बिइए दिवसे तिण्णि रयणकोडीओ ठवियाओ, उग्घोसावियं नगरे-जहा अभओ दाणं देइ, श्रामण्यहारि-वृत्तिःलोगो आगओ, भणियं चऽणेण-तस्साहं एयाओ तिषिण कोडिओ देमि जो एयाई तिषिण परिहरइ-अग्गीपूर्वकाध्य पाणियं महिलियं च, लोगो भणइ-एएहिं विणा किं सुवन्नकोडिहिं ?, अभओ भणइ-ता किं भणह-दमओ- अयादि॥१३॥ त्ति पव्वइओ, जोऽवि णिरत्यओ पव्वइओ तेणवि एयाओ तिणि सुवन्नकोडीओ परिचत्ताओ, सच्चं सामित्यागे त्याठिओ लोगो पत्तीओ। तम्हा अस्थपरिहीणोऽवि संजमे ठिओ तिणि लोगसाराणि अग्गी उदयं महिलाओगी काष्ठ|य परिचयंतो चाइत्ति लब्भइ । कृतं प्रसङ्गेनेति सूत्रार्थः ॥ ३॥ |हारोदा. समाइ पेहाइ परिव्ययंतो, सिया मणो निस्सरई बहिद्धा । न सा महं नोवि अहंपि तीसे, इच्चेव ताओ विणइज रागं ॥४॥ तस्यैवं त्यागिनः 'समया' आत्मपरतल्पया प्रेक्ष्यतेऽनयेति प्रेक्षा-दृष्टिस्तया प्रेक्षया-दृष्ट्या परि-समन्ताद १ आचार्यः । द्वितीये दिवसे तिखो रमकोब्धः स्थापिताः, उद्घोषितं नगरे-यथा अभयो दानं ददाति, लोक आगतः, भणितं पानेन-तस्मायहमेतातितोऽपि कोटीददामि य एतानि त्रीणि परिहरति-अमिं पानीय महिलांच, लोको भणति-रविना कि सुवर्णकोटीभिः १, भभयो भणति तदा कि भणथ ९३॥ दमक इति प्रबजितः, योऽपि निरर्थकः प्रबजितः तेना बेवास्तिनः सुपर्णकोव्यः परित्यकाः, सर्व खानिन्। स्थितो लोकः प्रवीतः । तस्मादर्थपरिहीनोऽपि संयमे स्थितनीणि लोकसाराणि-अभिमुदकं महिलाच परिवजन् खागीति लभ्यते. 26-4540 दीप अनुक्रम 9-561 ~ 189~ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||४|| नियुक्ति: [१७७...], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ROSIS प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||४|| बजतो-गच्छतः परिव्रजतः, गुरूपदेशादिना संयमयोगेषु वर्तमानस्येत्यर्थः, 'स्यात् कदाचिदचिन्त्यत्वात् कर्म-18 गतेः मनो निःसरति 'बहिर्धा' वहिः भुक्तभोगिनः पूर्वक्रीडितानुस्मरणादिना अभुक्तभोगिनस्तु कुतूहलादिना मन:-अन्तःकरणं निःसरति-निर्गच्छति बहिर्धा-संयमगेहाहहिरित्यर्थः। एत्थ उदाहरणम्-जहा एगो रायपुत्तो बाहिरियाए उबट्ठाणसालाए अमिरमंतो अच्छइ, दासी य तेण अंतेण जलभरियघडेण बोलेइ, प्रतओ तेण तीए दासीए सो घडो गोलियाए भिन्नो, तं च अधिई करिति दहण पुणरायसी जाया, चिंतियं च | -जे चेव रक्खगा ते चेव लोलगा कत्थ कुविउं सका?। उदगाउ समुज्जलिओ अग्गी किह विज्झयब्बो ॥१॥ पुणो चिक्खलगोलएण तक्खणा एव लहुहत्थयाए तं घडछिडुं दक्कियं । एवं जइ संजयस्स संजमं करेंतस्स ब-15 हिया मणो णिग्गच्छद तत्थ पसत्येण परिणामेण तं असुहसंकप्पछि९ चरित्तजलरक्खणहाए ढक्केयव्वं । केनालम्बनेनेति ?, यस्यां राग उत्पन्नस्तां प्रति चिन्तनीयम्-न सा मम नाप्यहं तस्याः, पृथक्कर्मफलभुजो हि प्रा-10 णिन इति, एवं ततस्तस्याः सकाशाद्व्यपनयेत रागं, तत्त्वदर्शिनो हि सन्निवर्तन्त (स निवर्त्तते) एव, अतत्त्व दीप अनुक्रम ___ १ अनोबाहरणम्-यथैको राजपुत्रः बाहिरिकायामास्थानसभायामभिरममाणस्तिति, दासी च तेन मार्मेण अमृतपटेन ब्रजति, ततस्तेन तस्सा दास्याः स घटो गोलिकया भिन्नः, तां चाभूति कुर्वती रष्ट्वा पुनरावृत्ति ता, चिन्तितं च, य एव रक्षकास्त एव लोठकाः कुत्र कूजितुं शक्यम् । उदकान् समुपलितोऽभिः कथं विध्यापयितव्यः । ॥१॥ पुनः कर्दमगोलकेन तत्क्षणादेव वहस्ततया तद् घटच्छिदं स्थगितम् । एवं सदि संयतस्य संयम कुवैतो बहिर्मनो निर्गच्छति तत्र प्रशस्तेन परिणामेन तदशुभसंकल्पच्छिदं भारित्रजलरक्षणार्थाय स्थगयितव्यम्, ~190~ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||४|| नियुक्ति: [१७७...], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||४|| दीप अनुक्रम दशका दर्शननिमित्तत्वात्तस्येति । तत्थ न सा महं णोऽवि अहंवि तीसेत्ति, एस्थ उदाहरण-एगो वाणियदारओ.INR श्रामण्यहारि-वृत्तिः सो जायं उज्झित्ता पब्बइओ, सो य ओहाणुप्पेही भूओ, इमं च घोसेइ-न सा महं णोवि अहंपि तीसे, सोपूर्वकाध्य. |चिंतेइ-सावि ममं अहंपि तीसे, सा ममाणुरत्ता कहमहं तं छड्डेहामित्तिकार्ड गहियायारभंडगणेवस्थो चेवर नसेत्यत्र॥९४ ॥ संपट्टिओ। गओ अतं गामं जत्थ सा सोद (य) णिवाणतई संपत्तो, तत्थ य सा पुथ्वजाया पाणियस्स आ-16 वणिग्दार कोदा० गया, सा य साविया जाया पब्बइउकामा य, ताए सो जाओ, इयरो तं न याणइ, तेण सा पुच्छिया-अम-12 गस्स धया किं मया जीवह पा?, सो चिंतेइ-जइ सासहरा तो उपव्ययामि, इयरहा ण, ताए णायं-जहा एस| पव्यजं पयहिउकामो, तो दोथि संसारे भमिस्सामि (मो) त्ति, भणियं चऽणाए-सा अण्णस्स दिण्णा, तओ। सो चिंतिउमारद्धो-सच्चे भगवंतेहिं साहूहिं अहं पाढिओ-जहा ण सा महं णोवि. अहंपि तीसे, परमसंवेग तत्र न सा गम नो भपि अहमपि तस्या इति । अत्रोदाहरणम् -एको वप्पिग्दारकः, स जायामुजिल्ला प्राशितः, स चावधावनायुप्रेक्षी भूतः, इदं घोषयति-मसाममनो अपि अदमपि तस्याः स चिन्तयति-सापि मम अहमपि तस्याः, सा मण्यनुरका कथमई ता खजामीतिला हीताचारभाधनेपथ्य एव संस्थितागतष प्रामं यत्र सा, धोतो (स ) निपानतर्द प्राप्ता तत्र सा पूर्वजाया पानीवावागता, सा चश्राविका आता प्रजितकामा च. तयास शात इतरता न जानाति, तेन सा पुश-अमुकस्य दुहिता किंमूता जीवति वा स चिन्तयति-यदिवासघरा तदोत्सवमामि, इतरधान,सया हात-- यथेष e xn | प्रवज्यां प्रहातुकामः, ततो द्वापि संसारे भ्रमिष्याव इति, भणितं चानया-साऽन्यले दत्ता, ततः स चिन्तयितुमारक्षःखं भगवनिः साधुभिरब पाठितः यथा लि कानसा मम नो अपि अहमपि तस्याः, परमसंवेग ~191~ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||५|| नियुक्ति: [१७७...], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||५|| दीप मावण्णो, भणियं चणेण-पडिणियत्तामि, तीए वेरग्गपडिओत्ति णाऊण अणुसासिओ 'अणिचं जीवियं कासमभोगा इत्तरिया एवं तस्स केवलिपन्नत्तं धम्म पडिकहेइ, असिहो जाणाविओ य पडिगओ आयरियस-1x गासं पवजाए चिरीभूओ। एवं अप्पा साहारेतब्बो जहा तेणंति सूत्रार्थः ॥ ४॥ एवं तावदान्तरो मनोनिग्र-8 हविधिरुक्ता, न चायं वाह्यविधिमन्तरेण कर्तुं शक्यते अतस्तद्विधानार्थमाह आयावयाहि चय सोगमल्लं, कामे कमाही कमियं खु दुक्खं । छिंदाहि दोसं विणएज रागं, एवं सुही होहिसि संपराए ॥५॥ अस्य व्याख्या-संयमगेहान्मनसोऽनिर्गमनार्थम् 'आतापर्य' आतापनां कुरु, 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणसमिति न्यायाद्यथानुरूपमूनोदरतादेरपि विधिः, अनेनात्मसमुत्थदोषपरिहारमाह, तथा 'त्यज सौकुमार्य परि त्यज सुकुमारत्वम्, अनेन तूभयसमुत्थदोषपरिहारम् , तथाहि-सौकुमार्यात्कामेच्छा प्रवर्तते योषितां च | मार्थनीयो भवति, एवमुभयासेवनेन 'कामान' प्राग्निरूपितस्वरूपान् 'क्राम उल्लङ्य, यतस्तैः कान्तः क्रान्तमेव दुःखं, भवति इति शेषः, कामनिवन्धनवाहुःखस्य,खुशब्दोऽवधारणे, अधुनाऽऽन्तरकामक्रमणविधिमाहछिन्द्धि द्वेषं व्यपनय रागं सम्यग्ज्ञानबलेन विपाकालोचनादिना, क?, कामेष्विति गम्यते, शब्दादयो हि मापनः, भणितं चानेन–प्रतिनिवते, तथा वैराग्यपतित इति ज्ञात्वाऽनुशासितः, 'अनिलं जीवितं कामभोगा इश्वराः' एवं सस्मै केवलिप्रज्ञप्तं धर्म कापरिकथयति, अनुशियेशापितच प्रतिगत आचार्यसकाशं प्रत्रयायो स्थिरीमतः, एबमामा धारयितव्या या वनात. अनुक्रम [१०] ~192~ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||६|| नियुक्ति: [१७७...], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक गाथांक ||६|| दीप अनुक्रम [११] दशका०विषया एव कामा इतिकृत्वा । एवं कृते फलमाह-एवम् अनेन प्रकारेण प्रवर्तमानः, किम् ?-सुखमस्या-४२ श्रामण्यहारि-वृत्तिःस्तीति सुखी भविष्यसि, क?-संपराये' संसारे, यावदपवर्ग न प्राप्स्यसि तावत्सुखी भविष्यसि, 'संपराये पूर्वकाध्य० परीषहोपसर्गसंग्राम इत्यन्ये । कृतं प्रसङ्गेनेति सूत्रार्थः ॥५॥ किं च संयमगेहान्मनस एवानिर्गमनार्थमिदं नसेत्यत्र॥ ९५॥ चिन्तयेत् , यदुत वणिग्दारपक्खंदे जलियं जोइं, धूमकेउं दुरासयं । नेच्छन्ति वंतयं भोत्तुं, कुले जाया अगंधणे ॥६॥ | कोदा० अस्य व्याख्या-'प्रस्कन्दन्ति' अध्यवस्यन्ति 'ज्वलितं' ज्यालामालाकुलं न मुर्मुरादिरूपं, कम् ?-'ज्योतिषम् अग्निं 'धूमकेतुं धूमचिहूं धूमध्वजं नोल्कादिरूपं 'दुरासद' दुःखेनासाद्यतेऽभिभूयत इति दुरासदस्तं, है दुरभिभवमित्यर्थः, पशब्दलोपात् न चेच्छन्ति-न च वाञ्छन्ति 'वान्तं भोक्तुं' परित्यक्तमादातुं, विषमिति गम्यते, के ?-नागा इति गम्यते, किंविशिष्टा इत्याह-कुले 'जाताः समुत्पन्ना अगन्धने । नागानां हि भेदद्वयं-गन्धनाश्चागन्धनाच, तत्थ गंधणा णाम जे डसिए मंतेहिं आकडिया तं विसं वणमुहाओ आवियंति, अगंधणाओ अवि मरणमझवस्संति ण य वंतमावियंति । उदाहरणं दुमपुष्पिकायामुक्तमेव । उपसंहारस्त्वे भावनीयः-यदि तावत्तिर्यशोऽप्यभिमानमात्रादपि जीवितं परित्यजन्ति न च बान्तं भुञ्जते तत्कथमहं जिनवचनाभिज्ञो विपाकदारुणान् विषयान् वान्तान भोक्ष्ये ? इति सूत्रार्थः ॥ अस्मिन्नेवार्थे द्वितीयमुदाहरणम्- x ॥९५॥ पतन गधना नाम ये दशा मग्राकृटास्तद्विष वणमुसादापिकन्ति, अगन्धना अपि मरणमध्यवस्यन्ति न च वान्तमापियन्ति इति. JanElication ~193~ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||७|| नियुक्ति: [१७७...], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||७|| यदा किल अरिहणेमी पब्बइओ तया रहणेमी तस्स जेट्टो भाउओ राइमई उवयरइ, जइ णाम एसा मम | 81इच्छिज्जा, सावि भगवई निविष्णकामभोगा, णायं च तीए-जहा एसो मम अज्झोववण्णो, अपणया य तीए18 माधयसंजुत्ता पेज्जा पीया, रहनेमी आगओ, मयणफलं मुहे काऊण य तीए बंतं, भणियं च-एयं पेज पियाहि, तेण भणियं-कहं वन्तं पिज्जइ ?, तीए भणिओ-जइ न पिज्जा वंतं तओ अहंपि अरिष्टनेमिसामिणा वंता कहं पिविउमिच्छसि? । तथा ह्यधिकृतार्थसंवाद्यवाह धिरत्थु ते जसोकामी, जो तं जीवियकारणा । वंतं इच्छसि आवेडं, सेयं ते मरणं भवे ॥७॥ व्याख्या-तत्र राजीमतिः किलैवमुक्तवती-धिगस्तु धिक्शब्दः कुत्सायाम् 'अस्तु' भवतु 'ते' तव, पौरुषटामिति गम्यते, हे यशस्कामिनिति सासूर्य क्षत्रियामन्त्रणम्, अथवा अकारणलेषादयशस्कामिन !, धिगस्तु तव यस्त्वं 'जीवितकारणात्' असंयमजीवितहेतोः वान्तमिच्छस्यापातुं-परित्यक्तां भगवता अभिलषसि भो-10 तुम् , अत उत्क्रान्तमयोदस्य 'श्रेयस्ते मरणं भवेत् शोभनतरं तव मरणं, न पुनरिदमकार्यासेवनमिति सू दीप अनुक्रम [१२] यदा किलारिनेमिः प्रमजितः तदा स्थने मिस्तस्य ज्येष्डो मासा राजीमतीमुपचरति, यदि मामैया मामिच्छेन, सापि भगवती निर्विणकामभोगा, हातं च तया-बर्थप मवि अध्युपपमः। अन्यदा च तया मथपतसंबक्का पेया पीता, रचनेमिरागतः, मदनफल प्रतसंबका पेया पीता, रखनेमिरागतः, मदनफले मुखे कृत्वा व तया वान्त, भणितं च--एना पेयां पिब, तेन । का भणितम्-कथं वान्त पीयते?, तया भणित:---यदि न पीयते धान्तं तदाऽहमपि भरिष्टनेमिखामिना वान्ता कथं पातुमिच्छसि १. ~194~ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||७|| नियुक्ति: [१७७...], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक गाथांक ||७|| दशवकावार्थः ॥ तओ धम्मो से कहिओ, संयुद्धो पन्चइओ य, राईमईवितं बोहेऊणं पम्वइया । पच्छा अन्नया कयाइरश्रामण्यहारि-वृत्तिः सो रहनेमी बारवईए भिक्खं हिंडिऊणं सामिसगासमागच्छन्तो वासवद्दल एण अभाहओ एकं गुहं अणु- Iपूर्वकाध्य बाप्पविट्ठो । राईमईवि सामिणो बंदणाए गया, बंदित्ता पडिस्सयमागच्छइ, अंतरे य वरिसिउमादत्तो, तिता ॥९ ॥ रथने मिय (भिन्ना) तमेव गुहमणुप्पविट्ठा-जत्थ सो रहनेमी, वत्थाणि य पविसारियाणि, ताहे तीए अंगपञ्चंग दि, बोधः सो रहणेमी तीए अज्झोयवन्नो, दिट्ठो अणाए इंगियागारकुसलाए य णाओ असोहणो भावो एयस्स । ततो|ऽसाविदमवोचत अहं च भोगरायस्स, तं चऽसि अंधगवण्हिणो । मा कुले गंधणा होमो, संजमं निहुओ चर ॥८॥ जइ तं काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि नारीओ । वायाविडुव्व हडो, अटिअप्पा भविस्ससि ॥९॥ तीसे सो वयणं सोच्चा, संजयाइ सुभासियं । अंकुसेण जहा नागो, धम्मे संपडिवाइओ ॥ १०॥ एवं करंति संबुद्धा, पंडिया पवि१ ततो धर्मसी कथितः, संबुद्धः प्रबजितच, राजीमयपि तं बोधयित्वा प्रजिता । पश्चादन्यदा कदाचित स रचनेनिहारिकायां मिक्षां हिण्डवित्या खानिसकाशमायछन्, वर्षायादलेनाभ्यात एकां गुफा अनुप्रविष्टः, राजीमलपि स्वामिनो वन्दनाय गता, पन्दित्वा प्रतिध्यमागच्छति, अन्तरा प वर्षितुमारब्धः, मित्रा (किमा) सामेक गुफामनुप्रविष्टा, यत्र स रथने मिः, बत्राणि च प्रबिसारितानि । तदा तथा अप्रानि दृष्टानि, स रथनेमिस्तस्यामप्युपपनो, इष्टोऽनया, इशिताकार ॥९६॥ कुशलया च ज्ञातोऽशोभनो भाव एतस्य. ACCOCRACY दीप अनुक्रम MORE [१२] ~195~ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||११|| नियुक्ति: [१७७...], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: 4-6-4-% प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||११|| 85%256 - ** 5555545 यक्खणा । विणियति भोगेसु, जहा से पुरिसुत्तमो ॥ ११ ॥ तिमि ॥ सामन्नपुवियज्झयणं समत्तं ॥२॥ अहं च भोगराज्ञः-उग्रसेनस्य, दुहितेति गम्यते, त्वं च भवसि अन्धकवृष्णे:-समुद्रविजयस्य, सुत इति लगम्यते, अतो मा एकैकप्रधानकुले आवां गन्धनौ भूव, उक्तं च-जह न सप्पतुल्ला होमुत्ति भणियं होई अतः संयमं निभृतश्चर-सर्वदुःखनिवारणं क्रियाकलापमव्याक्षिप्तः कुर्विति सूत्रार्थः ॥८॥ किञ्च-यदि त्वं करिष्यसि भावम्-अभिप्रायं प्रार्थनामित्यर्थः, क?-या या द्रक्ष्यसि नारी:-खिया, तासु तासु एताः शोभना एताश्चाशोभना अतः सेवे काममित्येवंभूतं भावं यदिकरिष्यसि ततो वाताविद्ध इव हडा-वातप्रेरित इबावद्धमूलो| वनस्पतिविशेषः अस्थितात्मा भविष्यसि, सकलदुःखक्षयनिवन्धनेषु संयमगुणेष्व[प्रतिवद्धमूलत्वात् संसारसागरे प्रमादपवनप्रेरित इतश्चेतश्च पर्यटिष्यसीति सूत्रार्थः ॥९॥ तस्याः राजीमत्या 'असी' रथनेमिः 'वचनम् अनन्तरोदितं श्रुत्वा' आकर्ण्य, किंविशिष्टायास्तस्याः?-'संयतायाः' प्रबजिताया इत्यर्थः, किंविशिष्टं वचनम्?सुभाषितं संवेगनिवन्धनम् , अकुशेन यथा 'नागो' हस्ती एवं धर्म संप्रतिपादित धर्मे स्थापित इत्यर्थः, केन ?अकुशतुल्येन वचनेन। 'अङ्कुशेन जहा नागों'त्ति, एस्थ उदाहरणं-घसंतपुरं नयरं, तत्थ एगा इन्भण्हुया नदीए, __ यथा न (गन्धन) सर्पतुल्यो भयाव इति भगितं भवति. २ रथा नाग इति, अत्रोदाहरणं, बसन्तपुर नगर, राकेभ्यपधूनयाँ स्वाति, अन्यञ्च तरुणस्तां दृष्ट्वा भगति-सुनातं ते पृच्छति एषा नदी दीप -- अनुक्रम [१६] श.१७ अत्र 'नूपुरपण्डिता या; दृष्टांत: प्रस्तुयते ~ 196~ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||११|| नियुक्ति: [१७७...], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||११|| दीप अनुक्रम दशवैका हाइ, अन्नो य तरूणो तं दद्गुण भणइ-मुण्हायं ते पुच्छइ एसा नइ पवरसोहियतरङ्गा ।एए य नदीरुक्खा अहंश्रामण्यहारि-वृत्तिः 8|च पाएसु ते पडिओ ॥१॥ताहे सा पडिभणइ-सुहया होउ नईते चिरं च जीवंतु जे नईरुक्खा । सुण्हा- पूर्वकाध्य. यपुच्छयाणं घत्तीहामो पियं काउं ॥१॥ सो य तीसे घरं वा दारं वा ण याणइ, तीसे य बितिजियाणि दीनूपुरपताचेडरूवाणि रुक्खे पलोयंताणि अच्छंति, तेण ताणं पुष्फफलाणि सुबहूणि दिपणाणि पुच्छियाणि य-का एसा,ण्डिता ताणि भणन्ति-अमुगस्स सुण्हा, सोय तीए विरहं न लहति, तओ परिवाइयं ओलग्गिउमाढत्तो, भिकखा दि- ख्यानं ह४ना, सा तुहा भणइ-किं करेमि ओलग्गाए फलं?, तेण भणिया-अमुगस्स सुहं मम कए भणाहितीए गन्तण स्तिदृष्टान्ते भणिया-अमुगोते एवंगुणजातीओपुच्छई,ताए रुहाए पउल्लगाणि धोवन्तीए मसिलित्तएण हत्येण पिट्ठीए आहनया, पंचंगुलियं उहियं, अवदारेण निच्छुहा, गया तस्स साहइ-णाम पि सातव ण सुणेइ,तेण णायं-कालपंचमीए अवदारेण अइगंतव्वं, अइगओ य, असोगवणियाए मिलियाणि मुत्ताणि य, जाव पस्सवणागएण ससुरेण प्रवरशोभितत्तरमा । एते च नदीक्षा अहं च पादयोस्ते पतितः॥१॥ तदा सा प्रतिभणति-शुभता भवतु नद्याः चिरं च जीवन्तु ते नदीक्षाः । सुनातरछकानां यतिभ्यामहे प्रियं कर्तुम् ॥ १॥ स च तस्या गृह वा द्वारं वा न जानाति, तस्याथ द्वैतीयिकाभेटरूपा पक्षान प्रलोकयन्तस्तिष्ठन्ति, तेन तेभ्यः पुष्पफलानि सुबहनि दसानि पृष्ठाव-षा ते भणन्ति-अमुकस भुषा,सतया विरईन लमते, ततः परिमानिकामवलगितुमारब्धः, भिक्षा दत्ता, सा तुष्टा | भणति-किं करोमि सेवायाः फलं, तेन भणिता--अमुक पा मम कृते भणेः, तया गला भणिता-एवंगुणजातीयोमुकरते पृच्छति, तथा स्टया भाज G ॥१७॥ | नानि प्रक्षालयन्या मषीलिसेन हस्तेन पृण्मामाहता, पचालक उत्थितः अपद्वारेण निष्काशिता, गता ती कथयति-मामापि सा तवनवृणोति, तेन ज्ञातं| कृष्णपश्चम्यामपद्वारेणातिगन्तव्य, अतिगतव, अशोकवनिकायां मिलिती सुप्ती ब, यावर प्रश्रवणायागतेन वारेण [१६] JanElicatanita ~197~ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक गाथांक दीप अनुक्रम [१६] “दशवैकालिक" - मूलसूत्र ३ ( मूलं निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||१९|| उद्देशक (-1 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित अध्ययनं [२], [...]] निर्युक्तिः [ १७७..... आगमसूत्र [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः दिहाणि, तेण णायं ण एस मम पुत्तो, पारदारिओ कोह, पच्छा पायाओ तेण णेउरं गहियं, चेइयं च तीए, सो भणिओ-णास लहुं, आवइकाले साहेज्जं करेजासि, इयरी गंतॄण भत्तारं भणइ - एत्थ धम्मो असोयवणियं बच्चामो, गंतॄण सुत्ताणि, खणमेत्तं सुविकणं भत्तारं उडवेह भणइ य एयं तुझ कुलाणुरूवं ? जं णं मम पायाओ ससुरो णेउरं कहइ, सो भणइ सुवसु पभाए लम्भिहिति, पभाए थेरेणं सिहं, सो य रुडो भइविवरीओ थेरोन्ति, थेरो भाइ-मया दिट्ठो अन्नो पुरिसो, विवाए जाए सा भणइ अहं अप्पाणं सोहयामि ?, एवं करेहि, तओ व्हाया कयवलिकम्मा गया जक्खघरं, तस्स जक्खस्स अंतरेणं गच्छंतो जो कारगारी सो लग्गर, अकारगारी नीसरइ, तओ सो विडपियतमो पिसायरूवं काऊण निरंतरं घणं कंठे गिण्हइ, तओ सागंतूण तं जक्वं भणइ जो मम मायापिउदिन्नओ भत्तारो तं च पिसायं मोत्तृण जइ अन्नं पुरिसं जाणामि १, तेना ने मम पुत्रः पारदारिकः कञ्चित् पश्चात्पदो नूपुरं तेन गृहीतं ज्ञातं च तथा स भक्तिः श्य लघु, आपत्काले साहाय्यं कुर्याः, इतरा गत्वा भर्त्तारं भगति - अत्र धर्मः अशोकवनिकां बजावः, गवा सुप्तौ क्षणमात्रं सुप्त्या मतीरमुत्थापयति भणति च एतत्तव कुळानुरूपं यन्मम पदः श्ररो नूपुरं कर्णेति स भणति खपिहि प्रातप्यते प्रभाते स्थदिरेण शिष्टं, स च रुष्टो भणति विपरीतः स्थविर इति, स्थविरो भणति मया दृष्टोऽन्यः पुरुषः, विवादे जाते सा भणति अहमात्मानं शोधयामि ?, एवं कुरु ततः स्राता तबलिकर्मा यता यक्षगृहं तस्य यक्षस्य पदोरन्तरेण गच्छन् बोऽपराधी स लगति, अनपराधो निस्सरति, ततः स विटः प्रियतमः पिशाचरूपं कृत्वा निरन्तरं पनं कण्ठे गृहादि ततः सा गत्या तं यक्ष भगतियो मम मातापितृदत्तो भर्त्ता तं च पिशाचं मुक्तदा यद्ययं पुरुषं जानामि For ane & Personal Use City ~ 198~ brary dig Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||११|| नियुक्ति: [१७७...], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||११|| दशवैका०४ातो मे तुम जाणिज्जसित्ति, जक्खो विलक्खो चिंतेइ-एस य (पास) केरिसाई धुत्ती मतेइ ?, अहगंपि वंचिओ श्रामण्यहारि-वृत्तिःलातीए, णत्थि सइत्तणं खु धुत्तीए, जाब जक्खो चिंतेइ ताव सा णिप्फिडिया, तओ सो थेरो सव्वलोगेण विल- पूर्वकाध्य क्खीकओ हीलिओ य । तओ थेरस्स तीए अधिईए णिद्दा णहा, रन्नो य कन्ने गर्य, रना सहाविऊण अंतेउर नूपुरप॥ ९८॥ चालओ कओ, अभिसेकं च हस्थिरयणं वासघरस्स हेट्ठा बद्धं अच्छइ, इओ य एगा देवी हथिमिठे आ-18 | ण्डितासत्ता, णवरं हत्थी चोंवालयाओ हत्थेण अवतारेइ, पभाए पडिणीणेइ, एवं वचइ कालो । अन्नया य एगाए | ख्यानं हरयणीए चिरस्स आगया हस्थिमिंठेण रुटेण हत्थिसंकलाए आया, सा भणइ-एयारिसो तारिसो य णस्तिदृष्टान्ते सुब्बइ, मा मज्म रूसह, तं धेरो पिच्छा, चिंतियं च णेण-एवंपि रक्खिजमाणीओ एयाओ एवं ववहरंति. किं पुण ताओ सदा सच्छंदाओ त्ति? मुत्तो, पभाए सब्बलोगो एडिओ, सोण उडेह, रनो कहियं, रना भणियं-सुवउ, चिरस्स य उडिओ पुच्छिओ य, कहियं सव्वं, भणइ-जहा एगा देवीण याणामि कयरावि, तओ तदा मां वं जानीया इति, यक्षो विलक्षान्तियति-एषा धूतो कीशि मणप्रयति !, अहमपि यश्चितोऽनया, नाति सतीत्वं पूसायाः, यावद्यक्षचिन्तयति सावत्, खा निर्गता, ततः स स्थविरः सर्वलोकेन विलक्षीकतो हीलितप । ततः स्वविरस तयाासा निद्रा नश, राक्षच करें गतं, राज्ञा पादयित्वा अन्त:पुरपालकः कृतः, अभिषेकीय हस्तिर वासगृहस्याधस्तादू पर्व तिष्ठति । इतवैका राजी हस्तिमिष्ठे आसक्का, परं हस्ती मालात हस्तेनावतारयति, प्रभाते प्रतिमुशति, (एवं ब्रजति कालः । अन्यदा चैकस्य रजन्या विरेणागता हलिमिण्टेन रुष्टेन हसितल्याऽऽहता, सा भगति-शतावश्च न खपिति मा मयं रोषोः, तत् स्वविरः प्रक्षत, चिन्तितं चानेन-एवमपि रक्ष्यमाणा एता एवं व्यवहरन्ति किं पुनस्खा: सदा खच्छन्दा इति गुप्ता, अमावेसा लोक उत्थितः सनोतिष्ठते, राजे ९ ८॥ कचितं, राज्ञा मणितं-खपिता विरेणोस्थितः पृष्ठः, कथितं सर्व, भणति-यथैका देवी न जाने कतरापि, ततो दीप अनुक्रम [१६] ~199~ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||११|| नियुक्ति: [१७७...], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||११|| रोहणा भंडहत्थी काराविओ, भणियाओ-एयस्स अचणियं काऊणं ओलंडेह, तओ सव्वाहिं ओलंडिओ, एगा णेच्छइ, भणइ य-अहं बीहेमि, तओ रन्ना उप्पलेण आहया, मुच्छिया पडिया, रन्ना जाणियं-एसा कारिसि, भणियं चणेण-मत्तगयं आरुहंतीऍ भंडमयस्स गयस्स बीहीहि । तत्थ न मुच्छिय संकलाहया, एत्य मुच्छिय उप्पलाहया ॥१॥ तओ सरीरं जोइयं जाव संकलापहारो दिट्ठो। तओ परु?ण रणा देवी मिठो| हत्थी य तिपिणवि छिन्नकडए चडावियाणि, भणियो य मिठो-एत्थं वाहेहि हथि, दोहि य पासेहिं ते(वे)लुग्गाहा उहिया, जाव एगो पाओ आगासे ठविओ, जणो भणइ-कि एस तिरिओ जाणइ?, एयाणि मारि-15 यब्वाणि, तहवि राया रोसं न मुपद, जाव तिपिण पाया आगासे कया, एगेण ठिओ, लोगेण कओ अक्कन्दो -किमेयं हत्थिरयणं विणासिजई, रपणा मिठो भणिओ-तरसि णियत्ते?, भणइ-जइ दुयगाणंपि अभयं देसि, दिपण, तओ तेण अंकुसेण नियत्तिओ हस्थित्ति । दाष्टोन्तिकयोजना कृतवेति सूत्रार्थः ॥१०॥ एवं रामा भिण्ड(मृत्मय हस्ती कारितः, भणिताः एतस्यार्चनं कृत्वोयत, ततः सर्वाभिललितः, एका नेपछति, भणति च-अहं विभमि, ततो राजोपले । नाहता मूर्षियता पतिता, राक्षा ज्ञात-एषाऽपराधिनीति, भणितंचानेन-मसंगजमारोहन्ती निण्ड(मन)मबागजादिभेषि! । तत्रन मूर्षिछता भ्यालाहतान मूछितोपलादता ।। १॥ ततः शरीरंदर,श्यालापहारो हटा यावत्, ततः प्रश्न राज्ञा देवी मेष्ठो हसी च त्रयोऽपि छिन्नकटके चटापितानि. भणितबार भेष्ठः-अत्र पातय हस्तिन, योश्च पार्थयोर्वेणुगाहाः स्थापिताः, यावदेकः पाद आकाशे स्थापितः, अनो भगति-एष तियर किं जानीते, एती मारयितव्या, तथापि राजा रोपं न मुञ्चति, यावत्रयः पादा आकायो कृताः एकेन स्थितः, लोकेनाकन्दः कृतः विमेतत् हस्तिर मिनारयते ।, राशा मिष्ठो भणित---वाकोपिर निवर्सयि १, भणति-यदि द्वाभ्यामप्यमयं ददासि, दतं, ततस्तेनाइशेन निवर्सितो हस्तीति. दीप अनुक्रम [१६] ~200~ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||११|| नियुक्ति: [१७७...], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||११|| दशवैका कुर्वन्ति 'संबुद्धा' बुद्धिमन्तो बुद्धाः सम्यग-दर्शनसाहचर्येण दर्शनैकीभावेन वा बुद्धाः संबुद्धा-विदितविषय- श्रामण्यहारि-वृत्तिः खभावाः, सम्यग्दृष्टय इत्यर्धेः, त एव विशेष्यन्ते-पण्डिताः प्रविचक्षणाः, तत्र पण्डिताः-सम्यग्ज्ञानवन्तः प्र-पूर्वकाध्य. ॥१९॥ द विचक्षणा:-चरणपरिणामवन्तः, अन्ये तु ब्याचक्षते-संबुद्धाः सामान्येन बुद्धिमन्तः पण्डिता वान्तभोगासे- रथनेम्यु वनदोषज्ञाः प्रविचक्षणा अवद्यभीरव इति, किं कुर्वन्ति?-'विनिवर्तन्ते भोगेभ्या विविधम्-अनेकैः प्रकार-1 दाहरणद्रनादिभवाभ्यासवलेन कदर्थ्यमाना अपि मोहोदयेन [विनिवर्तन्ते भोगेभ्यो-विषयेभ्यः, यथा क इत्यत्राह-य- मनियत थाऽसौ 'पुरुषोत्तमः' रथनेमिः । आह-कथं तस्य पुरुषोत्तमत्वं, यो हि प्रव्रजितोऽपि विषयाभिलाषीति ?, उ- त्वात् च्यते, अभिलाषेऽप्यप्रवृत्ते, कापुरुषस्त्वभिलाषानुरूपं चेष्टत एवेति । अपरस्त्वाह-दशवकालिकं नियतश्रुतहमव, यत उक्तम्-"णायज्झयणाहरणा इसिभासियमो पइन्नयसुया य । एए होति अणियया णिययं पुण|४| सेसमुस्सन्नं ॥१॥" तत्कथमभिनवोत्पन्नमिदमुदाहरणं युज्यते इति?, उच्यते, एवम्भूतार्थस्यैव नियतश्रुतेऽपि भावाद, उत्सन्नग्रहणाचादोषः, प्रायो नियतं न तु सर्वथा नियतमेवेत्यर्थः । ब्रवीमीति न खमनीषिकया किन्तु तीर्थकरगणधरोपदेशेन । उक्तोऽनुगमो, नयाः पूर्ववदिति ॥ इत्याचार्यश्रीहरिभद्रसरिविरचितायां दशकालिकटीकायां द्वितीयं श्रामण्यपूर्वकाध्ययनं सम्पूर्णम् ॥ २॥ इति श्रीदशवकालिके द्वितीयाध्ययनं सवृत्तिकं समाप्तम् ।। १ दर्शनपरिणाम प्र. २ शाताध्ययनाहरणानि अपिभाषितानि प्रकीर्णकश्रुतं च । एतानि भवन्ति भनियतानि नियतं पुनः शेषमुत्तमं (प्रायः) ॥१॥ दीप अनुक्रम - [१६] - - -- अध्ययनं २- परिसमाप्तं ~ 201~ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||११...|| नियुक्ति: [१७८], भाष्यं [४...] (४२) प्रत सूत्रांक ||११..|| अथ तृतीयाध्ययनं क्षुल्लिकाचारकथाख्यं ॥ व्याख्यातं श्रामण्यपूर्वकाध्ययनमिदानी क्षुल्लिकाचारकथाख्यमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्त-16 राध्ययने धर्माभ्युपगमे सति मा भूदभिनवप्रवजितस्याधृतेः संमोह इत्यतो धृतिमता भवितव्यमित्युक्तं, इह तु सा धृतिराचारे कार्या नत्वनाचारे, अयमेवात्मसंयमोपाय इत्येतदुच्यते, उक्तश-"तस्यात्मा संपतो यो हि, सदाचारे रतः सदा । स एव धृतिमान् धर्मस्तस्यैव च जिनोदितः ॥ १॥” इत्यनेनाभिसम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि पूर्ववत्, नामनिष्पन्ने निक्षेपे क्षुल्लिकाचारकथेति नाम, तत्र क्षुल्लक-12 निक्षेपः कार्य, आचारस्य कथायाश्च, महदपेक्षया च क्षुल्लकमित्यतश्चित्रन्यायप्रदर्शनार्थमपेक्षणीयमेव महदभिधित्सुह नामंठवणादविए खेते काले पहाण पइभावे । एएसि महंताणं पडिवखे खुडया होंति ॥ १७८॥ पइखुट्टएण पगयं आयारस्स उ चउकनिक्खेवो । नामंठवणादधिए भावायारे य बोडब्बे ॥ १७९ ॥ नामणधावणवासणसिक्खावणसुकरणाविरोहीणि । दुव्याणि जाणि लोए दव्वायारं वियाणाहि ।। १८० ॥ नाममहन्महदिति नाम, स्थापनामहन्महदिति स्थापना, द्रव्यमहानचित्तमहास्कन्धः,क्षेत्रमहल्लोकालोकाका दीप अनुक्रम [१६..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] "दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति : अध्ययनं -३- "क्षुल्लिकाचारकथा" आरभ्यते ~ 202~ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||११...|| नियुक्ति: [९८०], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||११..|| दीप अनुक्रम [१६..] दशवकाशम् , कालमहानतीतादिभेदः सम्पूर्णः कालः, प्रधानमहत्रिविधम्-सचित्ताचित्तमिश्रभेदात्, सचितं त्रिविधम्- क्षलिकाहारि-वृत्तिः द्विपदचतुष्पदापदभेदात्, तत्र द्विपदानां तीर्थकरः प्रधानः चतुष्पदानां हस्ती अपदानां पनसः अचित्तानांसाचारकथा वैडूर्यरत्नं मिश्राणां तीर्थकर एव वैडूर्यादिविभूषितः प्रधान इत्यत एव चैतेषां महत्वमिति, प्रतीत्यमहदू- महालक॥१०॥ आपेक्षिकम् , तद्यथा-आमलकं प्रतीत्य महत् बिल्वं बिल्वं प्रतीत्य कपित्थमित्यादि, भावमहविविध-प्राधान्यतः निक्षेपाः कालत आश्रयतश्चेति, प्राधान्यतः क्षायिको महान् मुक्तिहेतुखेन तस्यैव प्रधानत्वात्, कालतः पारिणामिका, जीवत्वाजीवत्वपरिणामस्यानाद्यपर्यवसितत्वान्न कदाचिज्जीवा अजीवतया परिणमन्ते अजीवाश्च जीवतयेति, आश्रयतस्त्वौदपिका, प्रभूत[संसारि] सत्त्वाश्रयत्वात् सर्वसंसारिणामेवासी विद्यत इति, 'एतेषाम्'अनन्तरोदितानां महतां प्रतिपक्षे क्षुल्लकानि भवन्ति, 'अभिधेयवल्लिङ्गवचनानि भवन्तीति न्यायात् यथार्थ क्षुल्लकलिङ्गवचनमिति, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यक्षुल्लकः परमाणुः, द्रव्यं चासी क्षुल्लकबेति, क्षेत्रक्षुल्लक आकाशप्रदेशः, कालक्षुल्लक: समयः, प्रधानक्षुल्लक त्रिविधम्-सचित्ताचित्तमिश्रभेदात्, सचित्तं त्रिविधम्-द्विपदचतु पदापदभेदात्, द्विपदेषु क्षुल्लकाः प्रधानाचानुत्तरमुराः, शरीरेषु क्षुल्लकमाहारकम् , चतुष्पदेषु प्रधानः क्षुशल्लकच सिंहः, अपदेषु जातिकुसुमानि, अचित्तेषु वजं प्रधानं क्षुल्लकं च, मिश्रेष्वनुत्तरसुरा एव शयनीयगता इति, प्रतीत्यक्षुल्लकं तु कपित्थं प्रतीत्य बिल्वं क्षुल्लकं बिल्वं प्रतीत्यामलकमित्यादि, भावक्षुल्लकस्तु क्षायिको ॥१०॥ भावः स्तोकजीवाश्रयत्वादिति गाथार्थः । इत्थं क्षुल्लकनिक्षेपमभिधायाधुना प्रकृतयोजनापुरःसरमाचारनि RRCARE क्षुल्लक एवं आचार शब्दयो: व्याख्यानम् ~203~ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं -1 / गाथा ||११...|| नियुक्ति: [१८०], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक RE ||११..|| दीप अनुक्रम [१६..] क्षेपमाह-प्रतीत्य यत् क्षुल्लकमुपदिष्टं तेनात्राधिकारः, यतो महती खल्वाचारकथा धर्मार्थकामाध्ययनं तदपेक्षया क्षुल्लिकेयमिति ॥ आचारस्य तु चतुष्को निक्षेपः, स चायम्-नामाचारः स्थापनाचारो द्रव्याचारो भावाचारश्च योद्धव्य इति गाथाक्षरार्थः ॥भावार्थ तु वक्ष्यति, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, अतो द्रव्याचारमाह-नामनधा वनवासनशिक्षापनसुकरणाविरोधीनि द्रव्याणि यानि लोके तानि द्रव्याचारं विजानीहि । अयमत्र भावार्थः BI-आचरणं आचार: द्रब्यस्याचारो द्रव्याचार, द्रव्यस्य यदाचरणं तेन तेन प्रकारेण परिणमनमित्यर्थः, तत्र नामनमवनतिकरणमुच्यते, तत्पति द्विविधं द्रव्यं भवति-आचारवदनाचारवच, तत्परिणामयुक्तमयुक्तं चेत्यर्थः, तत्र तिनिशलतादि आचारवत्, एरण्डायनाचारवत्, एतदुक्तं भवति-तिनिशलताचाचरति तंग भावं-तेन रूपेण परिणमति न त्वेरण्डादि, एवं सर्वत्र भावना कार्या, नवरमुदाहरणानि प्रदयन्ते-धावनं प्रति हरिद्रारक्तं वस्नमाचारवत् सुखेन प्रक्षालनात्, कृमिरागरक्तमनाचारवत् तदस्मनोऽपि रागानपगमात्, वासनं प्रति कवेलुकायाचारवत् सुखेन पाटलाकुसुमादिभिर्वास्यमानखात्, वैडूर्योयनाचारवत् अशक्यत्वात्, शिक्षणं प्रत्याचारवच्छुकसारिकादि सुखेन मानुषभाषासम्पादनात्, अनाचारवच्छकुन्तादि तदनुपपत्तेः, सुकरणं प्रत्याचारवत् सुवर्णादि सुखेन तस्य तस्य कटकादेः करणात्, अनाचारवत् घण्टालोहादि तनान्यस्य तथाविधस्य कर्तुमशक्यत्वादिति, अविरोधं प्रत्याचारवन्ति गुडध्यादीनि रसोत्कर्षादुपभोगगुणाच, अनाचारवन्ति तैलक्षीरादीनि विपर्ययादिति, एवम्भूतानि द्रव्याणि यानि लोके तान्येव तस्याचारस्य तद्र ~ 204~ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||88..|| दीप अनुक्रम [१६.. ] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||११...|| निर्युक्तिः [१८० ], भाष्यं [ ४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ १०१ ॥ व्याव्यतिरेकाद्रव्याचारस्य च विवक्षितत्वात्तथाऽऽचरणपरिणामस्य भावत्वेऽपि गुणाभावाद्रव्याचारं विजानीहिअवबुध्यखेति गाथार्थः । उक्तो द्रव्याचारः, साम्प्रतं भावाचारमाह दंसणनाणचरिते तबआयारे य वीरियायारे। एसो भावायारो पंचदिहो होइ नायव्वो । १८१ ॥ निस्संकिय निर्ऋत्रिय निव्वितिगच्छा अमूढदिडी अ । उवयूह थिरीकरणे वच्छपभावणे अट्ठ ॥ १८२ ॥ अइसेसइडियायरियवाइधम्मकही मगनेमित्ती । विचारायागणसंमया यतित्थं पभाविति ॥ १८३ ।। काले विणए बहुमाणे उवहाणे तह य अनिण्हवणे वंजणअत्थतदुभए अवि नाणमायारो ॥ १८४ ॥ पणिहाणजोगजुसो पंचहिं समिईहिं तिहि व गुत्तीहिं । एस चरित्तायारो अट्ठविहो होइ नायवी ।। १८५ ॥ बारसविहम्मिवि तवे सम्भितरबाहिरे कुसल दिडे । अगिलाइ अणाजीवी नायथ्यो सो तवायारो || १८६ | अणिगृहियवलबिरियो परकमइ जो जहुत्तमाउत्तो । जुजइ अ जहाथामं नायब्वो वीरियायारो ॥ १८७ ॥ व्याख्या - दर्शनज्ञानचारित्रादिष्वाचारशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, दर्शनाचारो ज्ञानाचारश्चारित्राचारस्तपआचारो वीर्याचारश्चेति, तत्र दर्शनं सम्यग्दर्शनमुच्यते, न चक्षुरादिदर्शनं तच क्षायोपशमिकादिरूपत्वाद्भाव एव, ततश्च तदाचरणं दर्शनाचार इत्येवं शेषेष्वपि योजनीयं, भावार्थे तु वक्ष्यति एष भावाचारः पञ्चविधो भ वति ज्ञातव्यः, इति गाथाक्षरार्थः । अधुना भावार्थ उच्यते तत्र 'यथोद्देशं निर्देश' इत्यादी दर्शनाचारभावार्थः, दर्शनाचारश्राष्टधा, तथा चाह गाथा - 'निस्संकी' त्यादि, निःशङ्कित इत्यत्र शङ्का शङ्कितं निर्गतं शङ्कितं यतोऽसौ निःशङ्कितः देशसर्वशङ्कारहित इत्यर्थः, तत्र देशशङ्का समाने जीवत्वे कथमेको भव्योऽपरस्त्वऽभव्य इति श दर्शन आदि पंच- आचाराणां निर्युक्तिः तथा तेषां भेदानां व्याख्याः | For sane & Personal Use City ~ 205~ ३ क्षुल्लिका चारकथा० आचारनिक्षेपाः ५ आचाराः ॥ १०१ ॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||88..|| दीप अनुक्रम [१६.. ] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||११...|| निर्युक्तिः [१८७ ], भाष्यं [ ४...] आगमसूत्र - [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित कुते, सर्वशङ्का तु प्राकृतनिबद्धत्वात्सकलमेवेदं परिकल्पितं भविष्यतीति, न पुनरालोचयति यथा-भावा हेतुग्राह्या अहेतुग्राह्याश्च तत्र हेतुग्राह्या जीवास्तित्वादयः, अहेतुग्राह्या भव्यत्वादयः, अस्मदाद्यपेक्षया प्रकृष्टज्ञानगोचरत्वात् तद्धेतूनामिति, प्राकृतनिबन्धोऽपि वालादिसाधारण इति उक्तञ्च - "बालस्त्रीमूढमूर्खाणां, नृणां चारित्रकाङ्क्षिणाम् | अनुग्रहार्थं तत्वज्ञः, सिद्धान्तः प्राकृतः स्मृतः ॥ १ ॥” दृष्टेष्टाविरुद्धश्चेति, उदाहरणं चात्र पेयापेयको यथाऽऽवश्यके, ततञ्च निःशङ्कितो जीव एवार्हच्छासनप्रतिपन्नो दर्शनाचरणात् तत्प्राधान्यविवक्षया दर्शनाचार उच्यते, अनेन दर्शनदर्शनिनोर भेदमाह, तदेकान्तभेदे त्वदर्शनिन इव तत्फलाभावात् मोक्षाभाव इति, एवं शेषपदेष्वपि भावना कार्येति १ । तथा निष्काङ्क्षितो-देशसर्वकाङ्क्षारहितः, तत्र देशकाङ्क्षा एवं दर्शनं काङ्गति दिगम्बरदर्शनादि, सर्वकाङ्क्षा तु सर्वाण्येवेति, नालोचयति षड्जीवनिकायपीडामसत्प्ररूपणां च, उदाहरणं चात्र राजामात्यौ यथाऽऽवश्यक इति २ । विचिकित्सा-मतिविभ्रमः निर्गता विचिकित्सा-मतिविभ्रमो यतोऽसौ निर्विचिकित्सः, साध्वेव जिनदर्शनं किन्तु प्रवृत्तस्यापि सतो ममास्मात्फलं भविष्यति न भविष्यतीति ?, क्रियायाः कृषीवलादिषूभयोपलब्धेरिति विकल्परहितः, न ह्यविकल्प उपाय उपेयवस्तुपरिप्रापको न भवतीति सञ्जातनिश्चयो निर्विचिकित्स उच्यते एतावताऽंशेन निःशङ्किताद्भिन्नः, उदाहरणं चात्र विद्यासाघको यथाऽऽवश्यक इति यद्वा निर्विजुगुप्सः - साधुजुगुप्सारहितः, उदाहरणं चात्र श्रावकदुहिता यथाऽऽवश्यक एव ३। तथाऽमूढदृष्टिश्च बालतपखितपोविद्याऽतिशयदर्शनेन मूढा - खरूपान्न च For ne&Personal Use City ~206~ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||88..|| दीप अनुक्रम [१६..] भाष्यं [ ४...] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||११...|| निर्युक्तिः [१८७ ], आगमसूत्र - [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित दशवैका० हारि-वृत्तिः ॥ १०२ ॥ Ja Education लिता दृष्टिः- सम्यग्दर्शनरूपा यस्यासावमूढदृष्टिः, अत्रोदाहरणं सुलसी साविया, जहा लोइयरिसी अंबडो रायगिहं गच्छंतो बहुयाणं भवियाणं थिरीकरणणिमित्तं सामिणा भणिओ-सुलसं पुच्छिनासि, अंबडो चिंतेह -पुन्नमतिया सुलसा जं अरहा पुच्छेइ, तओ अम्बडेण परिक्खणाणिमित्तं सा भत्तं मग्गिया, ताए ण दिनं, तओ तेण बहुणि स्वाणि विउब्वियाणि, तहवि ण दिन्नं, ण य संमूढा, तह कुतित्थियरिद्धीओ दहूण अमूढदिट्टिणा भवियब्वं ४। एतावान् गुणिप्रधानो दर्शनाचारनिर्देशः, अधुना गुणप्रधानः 'उपबृंहणस्थिरीकरणे' इति, उपबृहणं च स्थिरीकरणं च उपबृंहणस्थिरीकरणे, तत्रोपबृंहणं नाम समानधार्मिकाणां सद्गुणप्रशंसनेन तद्वृद्धिकरणम्, स्थिरीकरणं तु धर्माद्विषीदतां सतां तत्रैव स्थापनं । उववूहणाए उदाहरणं जहा रायगिहे नयरे सेणिओ राया, इओ य सक्को देवराया सम्मत्तं पसंसइ । इओ य एगो देवो असदहंतो नगरबाहि सेणियस्स णिग्गयस्स चेल्लरूवं काऊणं अणिमिसे गेहह, ताहे तं निवारेइ, पुणरवि अण्णत्थ संजई गुब्विणी पुरओ ठिया, ताहे अपवरगे ठविऊण जहा ण कोइ जाणइ तहा सृइगिहं कारवेद, जं किंचि सुइकम्मं तं सयमेव १ ला धाविका यथा लौकिक परम्यो राजगृहं गच्छन् बहूनां भव्यानां स्थिरीकरणनिमित्तं खामिना भणितः मुलां पृच्छे, अम्बरविन्तयतिपुण्यवती मुसा यामन् पृच्छति, ततोऽम्बडेन परीक्षणनिमित्तं सा मक्तं मार्चिता, तथा न दतं ततस्तेन बहूनि रूपाणि विकुर्वितानि तथापि न दत्तं न च संमूढा, तथा कुतीर्थिकद्वाऽमूडरटिना भवितव्यं २ उपबृंहणायामुदाहरणं यथा राजगृहे नगरे श्रेणिको राजा, इतच शक्रो देवराजः सम्यत्वं प्रशंसति, इतक देवोऽश्रद्दधानो नगराद्वहिः श्रेणिके निर्माते रूपं कृत्वाऽनिमेषान् गृह्णाति तदा तं निवारयति पुनरप्यभ्यत्र संयती गर्भिणी पुरतः स्थिता, तदाऽपवर के स्थापयित्वा यथा न कोऽपि जानाति तथा सूतिकागृहं कारयति यत्किचिदपि सूतिकाकर्म तत् खयमेव For ane & Personal Use City ~207~ ३ भुलिकाचारकथा० दर्शनाचा राः ८ ॥ १०२ ॥ bryg Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं -1 / गाथा ||११...|| नियुक्ति: [१८७], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक कल * ||११..|| दीप अनुक्रम [१६..] करेइ, तओ सो देवो संजईरूवं परिचाहऊण दिव्वं देवरूवं दरिसेह, भणह य-भो सेणिय! मुलद्धं ते जम्म-17 जीवियस्स फलं जेण ते पवयणस्सुवरि एरिसी भत्ती भवइत्ति उबवूहेऊण गओ। एवं उवहियव्वा साह-15 |म्मिया ॥ स्थिरीकरणे उदाहरणं जहा उजेणीप अजासाटो कालं करेंते संजए अप्पाहेइ-मम दरिसावं दिजह, जहा उत्तरज्झयणेसु एतं अक्खाणयं सव्वं तहेच, तम्हा जहा सो अजासाढो थिरो कओ एवं जे भविया ते थिरीकरेयचा । तथा 'वात्सल्यप्रभावना' इति वात्सल्यं च प्रभावना च वात्सल्यप्रभावने, तत्र वात्सल्यंसमानधार्मिकमीत्युपकारकरणं प्रभावना-धर्मकथादिभिस्तीर्थख्यापनेति, तत्र वात्सल्ये उदाहरणं अजवइरा, जहा तेहिं दुम्भिक्खे संघो निस्थारिओ एवं सव्यं जहा आवस्सए तहा नेयं, पभावणाए उदाहरणं ते व | अजवइरा जहा तेहिं अग्गिसिहाओ सुहुमकाइआई आणेऊण सासणस्स उम्भावणा कया एयमक्खाणयं जहा आवस्सए तहा कहेयव्वं, एवं साहुणावि सब्वपयत्तेण सासणं उम्भावेयब्वं । अष्टावित्यष्टप्रकारो दर्श १ करोति, रातः स देवः संयतीरूपं परित्यज्य दिव्यं देवरूपं दर्शयति, भणति च-भोः श्रेणिक! मुलम् त्वया जम्मजीवितयोः फलं येन ते प्रवचनमोपरि। | ईरशी भक्तिरस्तीति उपबुंध गतः, एवमुपयाः सामिकाः ॥ स्थिरीकरणे उदाहरणं यथोनायिन्यामार्याषाढः कालं कुर्यतः संपतान संदिशति-मम दर्शनं 12 | दद्यात, यथोत्तराध्ययनेषु एतदाख्यान सर्व तय, तस्मात् स यथा आयौपाडः स्थिरीकृत एवं चे भव्यास्ते स्थिरीकर्तव्याः, २ आर्यवजा यथा तैदुर्भिक्षे सको & निस्तारित एतत, सर्व वयाऽऽवश्यके तथा शेयं, प्रभावनायो त एवोदाहरणमार्यवत्रा यथा तैरमिशिवात् (पुष्पाणि) सूक्ष्मकायिकाण्यानीय शासनस्योडावना कृता एतवामधानकं यथाऽऽनश्यके तथा कथयितव्यं, एवं साधुनाऽपि सर्वप्रयनेन शासनमुद्राययितव्यम्. - - इश.१८ ~ 208~ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं -1 / गाथा ||११...|| नियुक्ति: [१८७], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||११..|| चारा CONCERNA 465 दशबैका० नाचारः, प्रकाराश्चोक्ता एव निःशङ्कितादयः, गुणप्रधानश्चायं निर्देशो गुणगुणिनोः कथंचिनेदख्यापनार्थः, क्षुलिकाहारि-वृत्तिः एकान्ताभेदे तन्निवृत्ती गुणिनोऽपि निवृत्तेः शून्यतापत्तिरिति गाथार्थः ।स्वपरोपकारिणी प्रवचनप्रभावना तीर्थ-चारकथा करनामकर्मनिवन्धनं चेति भेदेन प्रवचनप्रभावकानाह-अतिशयी-अवध्यादिज्ञानयुक्तः ऋद्धिग्रहणादामपौषध्यादिऋद्धिमाप्तः ऋद्धि(मत)मनजितो वा आचार्यवादिधर्मकथिक्षपकनैमित्तिकाः प्रकटार्थाः विद्याग्रहणादू विद्यासिद्धः आर्यखपुटवत् सिद्धमनः 'रायगणसंमया' राजगणसंमताश्चेति राजसंमता-मच्यादयः गणसंमता-महत्तरादयः चशब्दादानश्राद्धकादिपरिग्रहा, एते तीर्थ-प्रवचनं प्रभावयन्ति-वतः प्रकाशस्वभावमेव सहकारितया प्रकाशयन्तीति गाथार्थः। उक्तो दर्शनाचारः, साम्प्रतं ज्ञानाचारमाह-'काल' इति, यो यस्याङ्गप्रविष्ठादेः श्रुतस्य काल उक्तः तस्य तस्मिन्नेव काले स्वाध्यायः कर्तव्यो नान्यदा, तीर्थकरवचनात्, दृष्टं च कृष्यादेरपि कालग्रहणे फलं विपर्यये च विपर्यय इति, अत्रोदाहरणम्-एको साहू पादोसियं कालं घेत्तूण अइक्कताएवि पदमपोरिसीए अणुवओगेण पढइ कालियं सुयं, सम्मट्टिी देवया चिंतेइ-मा अण्णा पंतदेवया छलिजइत्तिकाउं तक कुंडे घेतूणं तक तकति तस्स पुरओ अभिक्खणं अभिक्खणं आगयागयाइं करेइ, तेण य चिरस्स सज्झायस्स १ एकः साधुः प्रादोषिकं कालं गृहीत्वा अतिकान्तायामपि प्रथमपोयामनुपयोगेन पठति कालिकश्रुतं, सम्यग्दृष्टिदेवता चिन्तयति माऽन्या प्रान्ता देवता ॥१० ॥ Pीदितिवरमा त कुन्दे गृहीत्वा तक तकमिति तल्प पुरखोऽभीषणमभीषणं गतागतानि करोति, देन च चिराय खाध्यायस्थ दीप अनुक्रम [१६..] ~ 209~ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||88..|| दीप अनुक्रम [१६.. ] भाष्यं [ ४...] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||११...|| निर्युक्तिः [१८७ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः वाघायं करेइति, भणिआ य-अयाणिए ! को इमो तस्स विकणकालो ?, वेलं ता पलोएह, तीएवि भणियं - अहो को इमो कालियसुअस्स य सज्झायकालोत्ति, तओ साहुणा णायं जहा ण एसा पागइत्थित्ति उवउत्तो, णाओ अहरतो, दिष्णं मिच्छादुक्कडं, देवयाए भणियं मा एवं करेज्जासि, मा पंता छलेजा, तओ काले सज्झाइयव्वं ण ड अकालेति । तथा श्रुतग्रहणं कुर्वता गुरोर्विनयः कार्यः, विनयः - अभ्युत्थानपादधावनादिः, अविनयगृहीतं हि तदफलं भवति, इत्थ उदाहरणं सेणिओ राया भनाए भण्णइ-ममेगखंभं पासायं करेहि, एवं दुमपुस्फियज्झयणे वक्खाणियं, तम्हा विणएण अहिज्झियव्वं णो अविणएण । तथा श्रुतग्रहणोद्यतेन गुरोबहुमानः कार्यः, बहुमानो नामाऽऽन्तरो भावप्रतिबन्धः, एतस्मिन् सत्यक्षेपेणाधिकफलं श्रुतं भवति, विर्णयबहुमाणेसु चभंगा- एगस्स विणओ ण बहुमाणो अवरस्स बहुमाणो ण विणओ अण्णस्स विणओऽवि बहुमाणोऽवि अन्नस्स ण विणओण बहुमाणो । एत्थ दोण्हवि विसेसोवदंसणत्थं इमं उदाहरणं - एमि १ व्याघातं करोतीति, भणिता आहे कोऽयं तस्य विक्रयकालः १, वेळां तावत् प्रलोकय तयाऽपि भणितं अहो अयं कः कालिकतस्य च स्वाध्याय-इति, ततः साधुना ज्ञातं यथा नैषा प्राकृता श्रीत्युपयुक्तः, ज्ञातोऽर्धरात्रः, दत्तं मिध्यादुष्कृतं देवतया भणितं मैवं कुर्याः मा प्रान्ता छडी, ततः काले स्वाध्येयं नत्वकाल इति २ अत्रोदाहरणं श्रेणिको राजा भारीया गण्यते-ममै कस्तम्भं प्रासादं कुरु एवं गधा दुमपुष्पिकाध्ययने व्याख्यातं तस्माद्विनयेनाध्येयं नाविनयेन ३ विनयबहुमानयोश्चतुर्भङ्गी एकस्य विनयो न बहुमानोऽपरस्व बहुमानो न विन्नयोऽन्यस्य विनयोऽपि बहुमानोऽपि अन्यस्य न विनयो न बहुमानः । अत्र द्वयोरपि विशेषोपदर्शनार्थमिदमुदाहरणं एकस्यां For ane & Personal Use City ~ 210~ brary dig Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं -1 / गाथा ||११..|| नियुक्ति: [१८७], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: दशबैका हारि-वृत्ति प्रत सूत्रांक ॥१०४ ॥ ||११..|| दीप अनुक्रम [१६..] गिरिकंदरे सियो,तं चर्षभणो पुलिंदोय अचंति, बंभणो उवलेवणसम्मजणावरिसे य पयओ सहभूओ अचित्ता क्षुल्लिकाधुणइ विणयजुत्तो, ण पुण बहुमाणेण, पुलिंदो पुण तंमि सिवे भावपडिबद्धो गल्लोदएण पहावेह, पहविऊणचारकथा उबविट्ठो, सियो य तेण समं आलावर्सलावकहाहिं अच्छइ, अपणया य तेसिं बंभणेणं उल्लावसहो सुओ, तेण ८ज्ञानापडियरिऊण उवलडो-तुर्म एरिसो चेव कडपूयणसिवो जो एरिसेण उच्छिट्टएण समं मंतेसि, तओ सिवो चाराः भणइ-एसो मे बमाणेइ, तुमं पुणो ण तहा, अण्णया य अच्छीणि उक्खणिऊण अच्छह सिवो, बंभणो अIN आगंतुं रडिजमुवसतो, पुलिंदो य आगओ सिवस्स अछि ण पेच्छा, तओ अप्पणयं अच्छि कंडफलेण ओक्खणित्ता सिवस्स लाएइ, तओ सिबेण बंभणो पत्तियाविओ, एवं णाणमंतेसु विणओ बहुमाणो य दोऽपि कायब्वाणि । तथा श्रुतग्रहणमभीप्सतोपधानं कार्य, उपधातीत्युपधानं-तपः, तद्धि यात्राध्ययने आगाढादियोगलक्षणमुक्तं तत्तत्र कार्य, तत्पूवेकश्रुतग्रहणस्यैव सफलत्वात्, अनोदाहरणम्-एगे आपरिया, ते वायणाए गिरिकन्दरायां शिवा, संचमााणः पुलिन्दधार्च यता, माह्मण उपलेपनसंमार्जनयर्षणेषु प्रवचः शुचीभूतोऽविश्वा भौति विनययुको न पुनहुमानेन, पुलिन्दः पुनस्तसिन् शिवे भावप्रतिबद्धो गोदकेन अपयति, स्पयित्वोपविष्टः, शिपथ तेन सममालापसंलापकथाभितिष्ठति, अन्यथा च तयो झनोलापशब्दः *श्रुतः, तेन प्रतिथयाँपालम्पा-यमीदश एवं कटपूतनाशियो य ईदशेनोरिण्टेन समं मन्नयसे, ततः शियो गणति-एष मा बहुमानयति, वं पुनर्न तथा, अन्यदा चाक्षि उत्साय तिष्ठति शिवः, साह्मणवागत्य रुदित्योपशान्तः, पुलिन्दश्चागतः शिवस्माक्षि नेक्षते, तत आत्मीयमति कायफलेमोत्साय शिवाय ददाति, ततः १०४॥ शिवेन प्रादाणः प्रत्यायितः, एवं ज्ञानवत्यु चिनयो बहुमानश्च द्वावपि कर्त्तव्यौ. १ एके भाचार्याः ते वाचनायो ~211~ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं -1 / गाथा ||११...|| नियुक्ति: [१८७], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||११..|| संता परितंता सज्झाएऽवि असज्झाइयं घोसेउमारद्धा, णाणतरायं पंधिऊण कालं काऊण देवलोकं गया, तओ देवलोगाओ आउक्खएण चुया आहीरकुले पचायाया भोगे भुंजंति, अन्नया य से धूया जाया, सा य अईव रूवस्सिणी, ताणि य पचंतयाणि गोचारणणिमित्तं अन्नत्य वचंति, तीए दारियाए पिउणो सगड सव्वसगडाणं पुरओ गच्छद, सा य दारिया तस्स सगडस्स धुरतुंडे ठिया वचइ, तरुणइत्तेहिं चिंतियंसमाई काउंसगडाई दारियं पेच्छामो, तेहिं सगडाओ उप्पहेण खेडिया, विसमे आवडिया समाणा भग्गा, तओ लोएण तीए दारियाए णाम कयं असगडत्ति, ताए दारियाए असगडाए पिया असगडपियत्ति, तओ तस्स तं चेव वेरग्गं जायं, तं दारियं एगस्स दाऊण पब्वइओ जाव चाउरंगिजं ताव पढिओ, असंखए उदि तं णाणावरणिजं से कम्म उदिन्नं, पढ़तस्सऽवि किंचि ण ठाइ, आयरिया भणंति, छटेणं ते अणुन्नवइत्ति, दीप अनुक्रम [१६..] आन्तपरिधान्ताः साध्यायिफेऽध्यखाध्यायिक घोषवितुमारब्धाः, शानान्तरायं बढा कालं कृत्वा देवलोकं गताः, ततो देवलोकादायुःक्षयेण च्युता आभीरफूले प्रत्यायाता भोगान् भुअन्ति, अभ्यदा प तस्य दुहिता जाता, सा चातीवरूपिणी, तौ च प्रत्यन्तग्रामान् गोचारणनिमित्तमन्यत्र प्रजतः, | तस्या दारिकायाः पितुः पाकलं सर्वशकढाना पुरतो गच्छति, सा च दारिका तव शकटस्य धुरि स्थिता गति, तबिन्तितं, समानि शकठानि कृत्या दारिका प्रेक्षामहे, ते शकटान्युत्तथे खेटितानि, विषमे आपतितानि सन्ति भन्मानि, ततो लोकेन तस्या दारिकाया नाम स्तमशकटेति, तस्या दारिकाया अशकटायाः सापिता अशकवितेति, सतस्तस्य तदैव वैराग्यं जातं, ता दारिकामेकसौ दत्वा प्रनजितः बावचतुरमीय तावत् पठितः, असंस्कृते रिसे तक भानावरणीय वसा कर्मोदीण, पटतोऽपि न किञ्चित्तिष्ठति, आचार्या भणन्ति-तष षष्ठेनानुमायते इति, SHARE ~ 212~ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं -1 / गाथा ||११...|| नियुक्ति: [१८७], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक क्षुल्लिकाचारकथा ज्ञानाचाराः ||११..|| दीप अनुक्रम [१६..] दशवैकातिओ सो भणइ-एयस्स केरिसो जोओ?, आयरिया भणंति-जाव ण ठाइ ताव आयंबिलं कायब्वं, हारि-वृत्तिःतओ सो भणह-तो एवं चेव पढामि, तेण तहा पढ़तेण वारस रूवाणि पारससंबच्छरेहिं अहियाणि, ताव से आयंबिलं कयं, तओ णाणावरणिशं कम्मं खीणं, एवं जहाऽसगडपियाए आगाढजोगो अणुपालिओ तहा सम्म अणुपालियव्वं, उवहाणेत्ति गयं । तथा 'अनिण्हवणि'त्ति गृहीतश्रुतेनानिहवः कार्यः, य- द्यस्य सकाशेऽधीतं तत्र स एव कथनीयो नान्यः, चित्तकालुष्यापत्तेरिति, अत्र दृष्टान्त:-ऐगस्स पहावियस्स खुरभंड विजासामत्येण आगासे अच्छा, तं च एगो परिवायगो वहहिं उवसंपजणाहिं उवसंपज्जिऊण, तेण सा विजा लद्धा, ताहे अन्नत्थ गंतुं तिदंडेण आगासगएण महाजणेण पूहजइत्ति, रन्ना य पुच्छिओ-भयवं! ४ किमेस विजाइसयो उय तवाइसओ त्ति?, सो भणइ-विजाइसओ, कस्स सगासाओ गहिओ?, सो भणइ |-हिमवंते फलाहारस्स रिसिणो सगासे अहिजिओ, एवं तु वुत्ते समाणे संकिलेसदुट्टयाए तं तिदंडं खडसि ततः स भणति-एतस्य कीडशो योगः१, आचार्या भणन्ति-यावमायाति तावदाचामाम्लं कर्त्तव्यं, ततः स भणति-तदैवमेव पठामि, तेन तथा पन्ता। द्वादश काव्यानि द्वादशभिः संवत्सरैरधीतानि, तावत्तेनाचाम्लानि कृतानि, ततो ज्ञानावरण कर्म क्षीणं, एवं यथाऽशकट पित्राऽऽगादयोगोऽनुपालितसाधा। सम्यगनुपालवितव्यः उपचानमिति गतं। २ एकस्य नापितस्य सुरप्राविभाजन विश्वासामोनाकाशे विष्वति, तं का परिवार बहुभिरूपसंपद्भिरूपसंपय (स्थितः), ततस्ता विद्या सन्धवान्, ततोऽन्यत्र गरवा त्रिदण्टेनाकाशगतेन महामनेन पूज्यते.राशा च पृष्ठ-भगवन् । किमेष विद्यातिशय उत। तपोऽतिशय इति!, स भणति--विद्यातिशया, फस्य सकाशाद् गृहीतः, स भणति-हिमवति फलाहाराहपेः सकाशे अधीतः, एवं तूकमाने संक्लेशदुष्टतया ताभिदण्टं सटदिति Gn ~213~ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||११..|| नियुक्ति: [१८७], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||११..|| CAN दीप अनुक्रम [१६..] पडियं, एवं जो अप्पागमं आपरियं निण्हवेऊण अन्नं कहेइ तस्स चित्तसंकिलेसदोसेणं सा विजा परलोए ण हवइत्ति, अनिण्हवणित्ति गयं । तथा व्यञ्जनार्थतदुभयान्याश्रित्य भेदो न कार्य इति वाक्यशेषः, एतदुक्तं है। भवति-श्रुतप्रवृत्तेन तत्फलमभीप्सता व्यञ्जनभेदोऽर्थभेद उभयभेदश्च न कार्य इति, तत्र व्यञ्जनभेदो यथा -'धम्मो मंगलमुफिहमिति वक्तव्ये 'पुण्णं कल्लाणमुकोस'मिति, अर्थभेदस्तु यथा 'आवन्ती केयावन्ती लो-131 गंसि विपरामुसन्ती' स्यत्राचारसूत्रे यावन्तः केचन लोके-अस्मिन् पाखण्डिलोके विपरामृशन्तीत्येवंविधार्थाभिधाने अवन्तिजनपदे केया-रज्जुर्वान्ता-पतिता लोकः परामृशति कूप इत्याह, उभयभेदस्तु द्वयोरपि याथाम्योपमर्देन यथा-'धर्मों मङ्गलमुत्कृष्टः अहिंसा पर्वतमस्तक' इत्यादि, दोषश्चात्र व्यञ्जनभेदेऽर्थभेदस्त दे क्रिया-12 या भेदस्तङ्गेदे मोक्षाभावस्तदभावे च निरर्थिका दीक्षेति, उदाहरणं चात्रांधीयतां कुमार इति सर्वत्र योज-18 नीयं, क्षुण्णत्वादनुयोगद्वारेषु चोक्तत्त्वान्नेह दर्शितमिति । अष्टविधः-अष्टप्रकार कालादिभेदद्वारेण ज्ञानाचारो -ज्ञानासेवनाप्रकार इति गाथार्थः ॥ उक्तो ज्ञानाचारः, साम्प्रतं चारित्राचारमाह-प्रणिधानं-चेतःस्वास्थ्यं तत्प्रधाना योगा-व्यापारास्तैर्युक्तः-समन्वितः प्रणिधानयोगयुक्तः, अयं चौघतोऽविरतसम्यग्दृष्टिरपि भवत्यत आह-पञ्चभिः समितिभिस्तिमृभिश्च गुप्तिभिर्यः प्रणिधानयोगयुक्तः, एतद्योगयुक्त एतद्योगवानेच, अथवा ६ १ पतितं, एवं योऽस्यागमामाचार्य निस्वान्यं कथयति तस्य वित्तसंकित्तादोषेण सा विद्या परलोके न भवति । अनिलव इति गतं । JElcom ~214~ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||११...|| नियुक्ति: [९८७], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||११..|| दीप अनुक्रम [१६..] दशवैका०पञ्चसु समितिसुतिसृषु गुप्तिष्वस्मिन् विषये-एता आश्रित्य प्रणिधानयोगयुक्तो य एष चारित्राचारः, आचारा- क्षुल्लिकाहारि-वृत्तिः चारवतोः कथंचिदव्यतिरेकादष्टविधो भवति ज्ञातव्या, समितिगुप्तियोगभेदात्, समितिगुप्तिरूपं च शुभं प्रवी- 1चारकथाः चाराप्रवीचाररूपं यथा प्रतिक्रमणे इति गाथार्थः ।। उक्तश्चारित्राचारः, साम्प्रतं तपआचारमाह-द्वादशविधेऽपिचारिचत॥१०६॥ तपसि-प्रथमाध्ययनोक्तखरूपे साभ्यन्तरवाद्येऽनशनादिप्रायश्चित्तादिलक्षणे कुशलदृष्टे-तीर्थंकरोपलब्धे अ- पआचारी ग्लान्या न राजवेष्टिकल्पेन यथाशक्त्या वा अनाजीविको-नि:स्पृहः फलान्तरमधिकृत्य यो ज्ञातव्योऽसौ तप-४ आचारः, आचारतद्वतोरभेदादिति गाथार्थः । उक्तस्तपआचारः, अधुना वीर्याचारमाह-अनिहितबलवीर्य:अनिद्भुतवाद्याभ्यन्तरसामर्थ्यः सन् पराक्रमते-चेष्टते यो यथोक्तं षट्त्रिंशल्लक्षणमाचारमाश्रित्येति वाक्यशेषः, षट्त्रिंशद्विधत्त्वं चाचारस्य ज्ञानदर्शनचारित्राचाराणामष्टविधत्वात्सपआचारस्य च द्वादशविधत्त्वाचेति, उपयुक्त इत्यनन्यचित्तः, पराक्रमते ग्रहणकाले, तत ऊर्ध्व युनक्ति च योजयति च-प्रवर्तयति च यथोक्तं षट्त्रिंशल्लक्षणमाचारमिति सामागम्यते, यथास्थाम-पथासामर्थ्य यो ज्ञातव्योऽसौ वीर्याचारः आचाराचार|वतोः कश्चिदव्यतिरेकादिति गाथार्थः । अभिहितो वीर्याचार, तदभिधानाचाचार इति, साम्प्रतं कथामाह अत्थकहा कामकहा धम्मकहा चेव मीसिया व कहा । एत्तो एकेकावि य णेगविहा होइ नायव्या ॥ १८८ ॥ विजासिपमुवाओ अणिवेओ संचओ य दक्खत्तं । साम दंडो भेओ उवप्पयाणं च अस्थकहा ।। १८९ ।। सस्थाहसुनो दक्खत्तणेण सेट्ठीसुओ य रूवेणं । बुद्धी' अमच्चसुओ जीवइ पुनेहिं रायसुओ ॥ १९ ॥ 555 RECTOR अथ 'कथा' शब्दस्य व्याख्या (भेदादि सहित) ~215~ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||88..|| दीप अनुक्रम [१६.. ] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [३], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [१९१], भाष्यं [ ४...] मूलं [-] / गाथा ||११...|| आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित दक्खत्तणयं पुरिसस्स पंचगं सङ्गमाहु सुंदरं । बुद्धी पुण साहस्सा सरसाहस्साई पुनाई ॥ १९९ ॥ व्याख्या- 'अर्थकथे 'ति विद्यादिरर्थस्तत्प्रधाना कथाsर्थकथा, एवं कामकथा धर्मकथा चैव मिश्रा च कथा, अत आसां कथानां चैकैकापि च कथा अनेकविधा भवति ज्ञातव्येत्युपन्यस्तगाथार्थः । अधुनाऽर्थकथामाह-विद्याशिल्पं उपायोऽनिर्वेदः सञ्चयश्च दक्षत्वं साम दण्डो भेद उपप्रदानं चार्थकथा, अर्थप्रधानत्वादित्यक्षरार्थः, भावार्थस्तु वृद्धविवरणादवसेयः, तचेदम्-विलं पचत्थकहा जो विजाए अत्थं उवज्जिणति, जा एगेण विज्ञा साहिया सा तस्स पंचयं पइप्पभायं देह, जहा वा सचइस्स विजाहरचकवहिस्स विज्ञापभावेण भोगा उवगया, सबइस्स उप्पत्ती जहा य सहकुलेऽवस्थितो जहा य महेसरो नाम कयं एवं निरवसेसं जहावस्सए जोगसंग हेसु तहा भाणियत्वं विजत्ति गयं । इयाणि सिप्पत्ति, सिप्पेणत्थो उवज्जिणइ त्ति, एत्थ उदाहरणं कोकासो जहावस्सए, सिप्पेत्ति गयं, इयाणिं उवाएत्ति, एत्थ दिहंतो चाणक्को, जहा चाणक्केण नाणाविहेहिं उवायेहिं अत्थो उवजिओ, कहं? दो मज्झ घाउरसाओ०, एयंपि अक्खाणयं जहावस्सए तहा भाणियव्वं । उवाए ति १ विद्यां प्रतीत्यार्थकथा यो विद्ययाऽर्धमुपार्जयति यावदेकेन विद्या साधिता सा तस्मै पच्चर्क प्रतिप्रभातं ददाति यथा वा सत्यकिनो विद्याधरचक्रवर्त्तिनो विद्याप्रभावेण भोगा उपनताः, सत्यकिन उत्पत्तिर्यथा च श्राद्धकुलेऽवस्थितो यथा च महेश्वरो नाम कृतं एतभिरवशेषं यथाऽऽपश्यके योगसंग्रहेषु तथा गणितव्यं । विधे विगतं इदानीं शिल्पमिति, शिल्पेनार्थ उपायते इति अत्रोदाहरणं कोकाशी यथाऽवश्यके शिल्पमिति यतं इदानीमुपाव इति, अत्र दृष्टान्तचाणक्यः, यथा चाणक्येन बहुविधैपायैरर्थं उपार्जितः कथं द्वे मम धातुरके, एतदप्याख्यानकं यथावश्यके तथा भणितव्यं उपाय प्रति अर्थकथा आदि चत्वारः कथानां दृष्टान्ता: Forte & Personal Use City ~ 216~ brary dig Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||88..|| दीप अनुक्रम [१६.. ] दशबैका ० हारि-वृत्तिः ॥ १०७ ॥ भाष्यं [ ४...] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||११...|| निर्युक्तिः [१९१], आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित यां दक्षत्वा 'गयं, इयाणिं अणिब्बेए संचए य एकमेव उदाहरणं मम्मणवाणिओ, सोवि जहावस्सए तहा भाणियच्चो ॥ साम्प्रतं दक्षत्वं तत्सप्रसङ्गमाह - दक्षत्वं पुरुषस्य सार्थवाहसुतस्य पञ्चगमिति पश्ञ्चरूपकफलं, शतिकं - शतफलमाहुः सौन्दर्य श्रेष्ठीपुत्रस्य, बुद्धिः पुनः सहस्रवती - सहस्रफला मन्त्रिपुत्रस्य, शतसहस्राणि पुण्यानि - शतसहस्रफलानि राजपुत्रस्येति गाथाक्षरार्थः । भावार्थस्तु कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-जहा बंभदत्तो कुमारो कुमादिषु सार्थ| रामचपुत्तो सेट्ठिपुत्तो सत्थवाहपुत्तो, एए चउरोऽवि परोप्परं उल्ला बेड़ जहा को भे केण जीवइ ?, तत्थ राय पुत्तेण भणियं अहं पुन्नेहिं जीवामि, कुमारामचपुतेण भणियं अहं बुद्धीए, सेट्ठिपुत्तेण भणियं अहं रूवस्सितणेण, सत्थवाहपुत्तो भाइ- अहं दक्खसणेण, ते भांति अन्नत्थ गंतुं विन्नाणेमो, ते गया अन्नं णयरं जत्थ ण णनंति, उजाणे आवासिया, दक्खस्स आदेसो दिन्नो, सिग्धं भत्तपरिव्वयं आणेहि, सो बीहिं गंतुं एगस्स थेरवाणिययस्स आवणे ठिओ, तस्स बहुगा कहया एंति, तद्दिवसं कोवि ऊसवो, सो ण पहुंष्पति पुत्रादि कथा १ गतं इदानीमनिर्वेदे संचये च एकमेवोदाहरणं मम्मणरमिग, सोऽपि यथावश्यके तथा भवितव्यः २ यथा ब्रह्मदत्तः कुमारः कुमारामात्यपुत्रः श्रेष्ठिपुत्रः सार्थवाहपुत्रः एते चत्वारोऽपि परस्पर मुखरन्ति यथाऽस्माकं कः केन जीवति, तत्र राजपुत्रेणोक्तं अहं पुण्यजीवामि, कुमारामात्यपुत्रेण भणितं बुद्ध्या, श्रेष्ठिपुत्रेण भणितं अहं रूपिया, सार्ववाहपुत्री भणति - अहं दक्षत्वेन से भणन्ति — अन्यत्र गत्या परीक्षामहे दे गता अन्यन्नगरं यत्र न ज्ञायन्ते, उद्याने आवासिताः, दक्षायादेशो दत्तः शीघ्रं भक्तपरिव्ययमानय स बीच गत्वा एकल स्थविरणिय आपणे स्थितः, तस्य बहवः कविका आयान्ति तद्दिवसे कोऽप्युत्सवः, स न प्रभवति For ne&Personal Use City ३ क्षुल्लिकाचारकथा० ४ अर्थकथा ~ 217~ ॥ १०७ ॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [3], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||११...|| नियुक्ति: [१९१], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||११..|| दीप अनुक्रम [१६..] पुंडए बंधेडं, तओ सत्यवाहपुत्तो दक्खत्तणेण जस्स जं उबउजइ लवणतेल्लघयगुडसुंठिमिरियएचमाइ तस्स . तं देइ, अइविसिट्ठो लाहो लद्धो, तुट्ठो भणइ-तुम्हेत्थ आगंतुया उदाहु वत्थव्वया?, सो भणइ-आगंतुया, तो अम्ह गिहे असणपरिग्गहं करेजह, सो भणइ-अन्ने मम सहाया उजाणे अच्छति तेहिं विणा नाहं eजामि, तेण भणियं-सब्वेवि एंतु, आगया, तेण तेसिं भत्तसमालहणतंबोलाइ उवउत्तं तं पश्चण्हं रूवयाणं । बिइयदिवसे रूवस्सी वणियपुत्तो कुत्तो-अज्ज तुमे दायब्वो भत्तपरिव्यओ, एवं भवउत्ति, सो उट्ठेऊण गणि-IN यापाडगं गओ अप्पयं मंडेउ, तत्थ य देवदत्ता नाम गणिया पुरिसवेसिणी बहुहिं रायपुत्तसेट्टिपुत्तादीहिं5 मग्गिया णेच्छइ, तस्स य तं रूवसमुदयं दट्ठण खुन्भिया पडिदासियाए गंतूण तीए माऊए कहियं जहा दारिया सुंदरजुवाणे दिष्टिं देइ, तओ सा भणइ-भण एवं मम गिहमणुवरोहेण एजह इहेव भत्सवेलं करेजह से १ पुटिका बडूं, ततः सार्थवाहपुत्रो दक्षत्वेन यद्यस्योपयुज्यते लवणतलगृतगुरशुण्ठीमरीच्यावि तस तददाति, अतिविशिष्टो लाभो लब्धः, तुरी भणति-- | यूयमत्र आगन्तुका उताहो वालव्याः ?, स भणति-आगन्तुकाः, तदाऽस्माकं गृहेऽशनपरिग्रहं कुर्वात, स भणति-अन्ये मम साहाय्यका उद्याने विधन्ति तैर्चिना नाह मुझे, तेन भणितं-सर्वेऽप्यायान्तु, आगताः, तेन तेषां भक्तसमालभगताम्बूलायुपयुक्त यत्तद्रूपकाणां पश्चानां । द्वितीयदिवसे रूपी वणिक पुत्र उक्तः-अब रक्या भक्तपरिव्ययो दातव्यः, एवं भवरिवति, स उत्थाव गणिकापाटकं गव आत्मानं मन्डयित्वा, तत्र च देवदत्तानाम्नी चणिका पुरुषद्वेषिणी बहुभिः राजपुत्रवेष्ठि-IN पुत्रादिभिर्मागिता नेच्छति, तख च वत् रूपसमुदयं दृष्ट्वा क्षुब्धा प्रतिदास्या गत्वा तस्या मातुः कथितं यथा दारिका गुन्दरयूनि दृष्टिं ददाति, ततः सा भणतिभणैतान्न मम गृहमनुषरोधेनायास्त इहैव भक्तवेलां कुर्याद. ~ 218~ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ।।११..।। दीप अनुक्रम [re..] दशका० हारि-वृत्तिः ॥ १०८ ॥ “दशवैकालिक" - मूलसूत्र ३ ( मूलं निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) (मूलं+निर्युक्तिः+|भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [३], उद्देशक [ - ], मूलं [-] / गाथा ||११...|| निर्युक्ति: [१९१], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः तहेबागया सहओ दव्यवओ कओ । तइयदिवसे बुद्धिमन्तो अमदपुत्तो संदिट्ठो अज तुमे भत्तपरिव्वओ दायव्वो, एवं हवड ति, सो गओ करणसालं, तत्थ य तईओ दिवसो वबहारस्स छिज्जतस्स परिच्छेजं न गच्छह, दो सबत्तीओ, तासिं भत्ता उवरओ, एक्काए पुत्तो अस्थि इयरी अपुत्ता य, सा तं दारयं णेहेण उबचरइ, भणइ य-मम पुत्तो, पुत्तमाया भणइ य-मम पुत्तो, तासिं ण परिजिइ, तेण भणियं-अहं छिंदामि ववहारं, दारओ दुहा कज्जड दव्वंपि दुहा एव, पुत्तमाया भगह ण मे दध्वेण कजं दारगोऽवि तीए भव जीवन्तं पासिहामि पुतं, इयरी तुसिणिया अच्छइ, ताहे पुतमायाए दिष्णो, तहेव सहस्सं उबओगो । चउत्थे दिवसे रायपुत्तो भणिओ-अज रायपुत्त! तुम्हेहिं पुण्णाहिएहिं जोगवहणं वहियव्वं, एवं भवड त्ति, तओ रायपुरतो तेसिं अंतियाओ णिरगंतुं उज्जाणे दियो, तंभि य णयरे अपुसो राया मओ, आसो अहिवा सिओ, जीए रुकखछायाए रायपुत्तो णिवण्णो सा ण ओयत्तति, तओ आसेण तस्सोवरि ठाइऊण हिंसितं, १ तथैवागताः पतिको द्रव्यव्ययः कृतः तृतीयदिवसे बुद्धिमान् अमात्यपुत्रः संदिष्टः- अय स्वया भक्तपरिव्यय दातव्यः एवं भवत्विति स गतः करणशाला, तत्र च तृतीयो दिवसो व्यवहार चिन्दतः परिच्छेदं न गच्छति द्वे सपत्न्यी, तयोर्भतोंपरतः, एकस्याः पुत्रोऽस्ति इतरापुत्रा च सा से दारकं स्नेहेनोपचरति भगति च मम पुत्रः पुत्रमाता भणति च मम पुत्रः तयोर्न परिच्छियते, तेन भणितं निधि व्यवहारं दारकं द्विधा करोतु द्रव्यमपि द्विधैव पुत्रमाता भगति न मे द्रव्येण कार्य दारकोऽपि तस्या भवतु जीवन्तं द्रक्ष्यामि पुत्रं इतरा तूष्णीका तिष्ठति तदा पुत्रमात्रे दत्तः तथैव सहस्रस्योपयोगः । चतुर्थे दिवसे राजपुत्रो भणितः अथ राजपुत्र भवता पुण्याधिकेन योगवहनं बोढव्यं, एवं भवत्विति ततो राजपुत्रस्तेषां पार्श्वत् निर्मखोयाने स्थितः तस्मिथ नगरेऽपुत्रो राजा मृतः, अभोऽधिवासितः यस्यां वृक्षच्छायायां राजपुत्रो निषण्णो न सा परावर्तते, ततोऽथेन तस्योपरि स्थित्वा हेषितं For ane & Personal Use City ~219~ ३ क्षुल्लिकाचारकथा० अर्थकथा यां दक्षत्वा दिषु सार्थ कथा ॥ १०८ ॥ brary dig Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||११...|| नियुक्ति: [१९१], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||११..|| दीप अनुक्रम [१६..] राया य अभिसित्तो, अणेगाणि सयसहस्साणि जायाणि, एवं अत्थुप्पत्ती भवइ । दक्खत्तणं ति दारं गये, इयाणि सामभेयदण्डवप्पयाणेहिं चउहिं जहा अत्थो विढप्पति, एस्थिमं उदाहरणं-सियालेण भमंतेण हत्थी मओ दिहो, सो चिंतेइ-लद्धो मए उवाएण ताव णिच्छएण खाइयब्वो, जाव सिंहो आगओ, तेण चिन्तियं-सचिट्टेण ठाइयव्वं एयस्स, सिंहेण भणियं-किं अरे! भाइणेज अच्छिज्जइ?, सियालेण भणियं|आमंति माम!, सिंहो भणइ-किमेयं मयं ति?, सियालो भणइ-हत्थी, केण मारिओ ?-वग्घेण, सिंहो चिं-IX तेइ-कहमहं ऊणजातिएण मारियं भक्खामि?, गओ सिंहो, णवरं वरघो आगओ, तस्स कहियं-सीहेण | मारिओ, सो पाणियं पाउं णिग्गओ, वग्यो णट्ठो, एस भेओ, जाव काओ आगओ, तेण चिन्तियं-जइ एयस्स ण देमि तओ काउ काउत्तिवासियसद्देणं अण्णे कागा एहिंति, तेसिं कागरडणसद्देणं सियालादि अण्णे राजा चाभिषिकः, अनेकानि शतसहस्राणि जातानि, एवमधोत्पतिर्मयति । दक्षस्वमिति द्वारं गतं, इदानीं सामभेददण्डोपप्रदानश्चतुभिर्यथाऽर्थ उपाज्यंते, अत्रेदमुदाहरणं-गालेन ब्राम्यता हस्ती मृतो राष्टः, स चिन्तयति-लब्धो मयोपायेन तावनिययेन खादितव्यः, यापरिसह आगतः, तेन चिन्तित एतस्य संपेष्टेन स्थातव्यं, सिंहेन भाणितं-फिमरे भागिनेय ! स्वीयते !, भृगालेन भणितं- ओमिति माशुल!, सिंहो भणति-किमेतत् मृतमिति, शृगालो भणति-हस्ती, केन मा रितः !, ब्यानेण, सिंहश्चिन्तयति-कथमहमूनजाती येन मारितं मक्षयामि !, गतः सिंहः, नवरं व्याघ्र आगतः, तसै कथित-सिंहेन मारितः, स पानीयं पातुं निर्गतः, न्यानो मधः, एष भेदः, यावत् काक आगतः, तेन चिन्तितं-ययेतस्मै म ददामि ततः काक काकेति वासितशब्देनान्ये काका एष्पन्ति, केषां | काकरटनमान्देन भगालादयोऽन्ये पश.१९ JamElicational ~220~ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं -1 / गाथा ||११..|| नियुक्ति: [१९१], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत दशका हारि-वृत्तिः सूत्रांक ||११..|| दीप अनुक्रम [१६..] बहवे एहिंति, कित्तिया वारेहामि, ता एयस्स उवप्पयाणं देमि, तेण तओ तस्स खंड छित्ता दिपणं, सो क्षुलिकातं घेचूण गओ, जाच सियालो आगओ, तेण णायमेयस्स हठेण वारणं करेमित्ति भिउडिं काऊण गोचारकथा. दिण्णो, णडो सियालो, उक्तंच-"उत्तम प्रणिपातेन, शूरं भेदेन योजयेत् । नीचमल्पप्रदानेन, सदृशं च | अर्थकथापराक्रमः॥१॥” इत्युक्तः कथागाधाया भावार्थः, उक्ताऽर्थकथा, साम्प्रतं कामकथामाह यां शृगा. रूवं वओ य बेसो दक्षत सिक्खियं च विसपमुं । दिई सुयमणुभूयं च संथवो चेव कामकहा ।। १९२ ।। लदृष्टान्तः रूपं सुन्दरं वयश्चोदग्रं वेषः उज्ज्वला दाक्षिण्यं-मादेवं, शिक्षितं च विषयेषु-शिक्षा च कलासु, दृष्टमद्भुतद- कामकथा र्शनमाश्रित्य श्रुतं चानुभूतं च संस्तवन-परिचयश्चेति कामकथा । रूपे च वसुदेवादय उदाहरणं, वयसि सर्व एव प्रायः कमनीयो भवति लावण्यात्, उक्तं च-"यौवनमुदग्रकाले विदधाति विरूपकेपि लावण्यम् । दर्शयति पाकसमये निम्बफलस्यापि माधुर्यम् ॥१॥" इति, वेष उज्जवलः कामाझं, 'यं कश्चन उजवलवेषं पुरुष दृष्ट्वा स्त्री कामयते' इति वचनात्, एवं दाक्षिण्यमपि “पश्चाल: स्त्रीषु मादेवम्" इति वचनात्, शिक्षा च कलासु कामा वैदग्ध्यात्, उक्तं च-"कलानां ग्रहणादेव, सौभाग्यमुपजायते । देशकालौ खपेक्ष्यासा, प्रयोगः संभवेन्न वा ॥१॥" अन्ये त्वत्राचलमूलदेवी देवदत्तां प्रतीत्येक्षुयाचनायां प्रभूतासंस्कृतस्तोकसंस्कृतप्र १ यहव एष्यन्ति, क्रियतो वारयिष्यामि १, तस्मादेतसी उपनदानं ददामि, तेन ततस्तस्मै स प्रिया दत, सतह महीला गतः, यावच्छृगाल आगतः, १०९॥ तेन हात-एतस्य हठेन चारणां करोमि, मृकुटि कृत्वा वेगो दत्तः, गधः भगालः, ~221~ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं -1 / गाथा ||११...|| नियुक्ति: [१९२], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत 6456564 सूत्रांक ||११..|| दीप अनुक्रम [१६..] नादानद्वारेणोदाहरणमभिदधति, दृष्टमधिकृत्य कामकथा यथा नारदेन रुक्मिणीरूपं दृष्ट्वा वासुदेचे कृता, श्रुतं त्वधिकृत्य यथा पद्मनाभेन राज्ञा नारदाद्रौपदीरूपमाकर्ण्य पूर्वसंस्तुतदेवेभ्यः कथिता, अनुभूतं चाधिकृत्य कामकथा यथा-तरङ्गवत्या निजानुभवकथने, संस्तवश्च-कामकथापरिचयः 'कारणानीतिकामसूत्रपाठात्, अन्ये त्वभिदधति-'सइदसणाउ पेम्म पेमाउ रई रईय विस्संभो । विस्संभाओ पणओ पञ्चविहं वहुए || पेम्म ॥१॥” इति गाथार्थः । उक्ता कामकथा, धर्मकथामाह धम्मकहा बोद्धव्वा चउब्विहा धीरपुरिसपन्नत्ता । अखेवणि विक्खेवणि संवेगे चेव निव्वेए ॥ १९३ ।। आयारे ववहारे पन्नती व दिट्टीवाए य । एसा चउब्विहा खलु कहा उ अक्खेवणी होइ ।। १९४ ॥ विजा परणं च तवो पुरिसकारो य समिइगुत्तीओ । उवइस्सइ खलु जहियं कहाइ अक्खेवणीइ रसो।। १९५॥ कहिऊण ससमयं तो कहेइ परसमयमह विवचासा । मिच्छासम्मावाए एमेव हवंति दो भेया ॥ १९६ ॥ जा ससमयवजा खलु होइ कहा लोगवेयसंजुता । परसमयाणं च कहा एसा विक्खेवणी नाम ॥ १९७ ॥ जा ससमएण पुब्बि अक्खाया तं छुभेज परसमए । परसासणवक्खेवा परस्स समयं परिकहेइ ॥ १९८ ॥ आयपरसरीरगया इहलोए चेव तहय परलोए । एसा चउबिहा खलु कहा उ संवेयणी होई ॥ १९९ ॥ बीरियविउव्वणिड्डी नाणचरणदसणाण तह इट्टी । उवइस्सइ खलु जहियं कहाइ संवेयणीइ रसो ॥ २०॥ पावाणं कम्माण असुभविवागो कहिजए जत्थ । इह य परत्थ य लोए कहा उणिवेयणी नाम ॥२०१॥ थोपि पमायकयं कम्मं साहिजई जहिं नियमा । पउरासुहपरिणामं कहाइ निवेयणीइ रसो । २०२ ।। सिद्धी य JanEducationindia ~222~ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं -1 / गाथा ||११...|| नियुक्ति: [२०३], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: 44 प्रत सूत्रांक क्षुल्लिकाचारकथा आक्षेपण्याचा धर्मकथाः ||११..|| दीप अनुक्रम [१६..] दशवका० देवलोगो मुकुलुपती य होइ संवेगो । नरगो तिरिक्खजोणी कुमाणुसत्तं च निवेओ। २०३ ॥ येणइयरस [पढमया हारि-वृत्तिः कहा उ अक्खेवणी कहेयव्या । तो ससमयगहियस्थो कहिज विक्खेवणी पच्छा ॥ २०४॥ अक्खेवणीअक्खित्ता जे ॥११ ॥ जीवा ते लभन्ति संमत्तं । विक्खेवणीऍ भज गाढतरागं च मिच्छतं ॥ २०५ ।। धर्मविषया कथा धर्मकथा असौ बोद्धव्या चतुर्विधा धीरपुरुषप्रज्ञप्ता-तीर्थकरगणधरप्ररूपितेत्यर्थः, चातुर्वि&ाध्यमेवाह-आक्षेपणी विक्षेपणी संवेगश्चैव निर्वेद इति, 'सूचनात्सूत्र'मितिन्यायात् संवेजनी निर्वेदनी चैवे त्युपन्यासगाथाक्षरार्थः॥ भावार्थ त्वाह-आचारो-लोचारलानादिः व्यवहार:-कथञ्चिदापन्नदोषव्यपोहाय प्रायश्चित्तलक्षणः प्रज्ञप्तिश्चैव-संशयापन्नस्य मधुरवचनैः प्रज्ञापना दृष्टिवादश्च-श्रोत्रपेक्षया सूक्ष्मजीवादिभावकधनं, अन्ये त्वभिधति-आचारादयो ग्रन्था एव परिगृह्यन्ते, आचाराद्यभिधानादिति, एषा-अनन्तरोदिता चतुर्विधा खलुशब्दो विशेषणार्थः श्रोत्रपेक्षयाऽऽचारादिभेदानाश्रित्यानेकप्रकारेति कथा त्वाक्षेपणी भवति, तुरेवकारार्थः, कथैव प्रज्ञापकेनोच्यमाना नान्येन, आक्षिप्यन्ते मोहात्तत्त्वं प्रत्यनया भव्यप्राणिन इत्याक्षेपणी भवतीति गाथार्थः । इदानीमस्या रसमाह-विद्या-ज्ञानं अत्यन्तापकारिभावतमोभैदकं चरणं-चारित्रं समग्रविरतिरूपं तपः-अनशनादि पुरुषकारश्च-कर्मशत्रून प्रति खवीर्योत्कर्षलक्षणः समितिगुप्तया-पूर्वोक्ता ४ एव, एतदुपदिश्यते खलु-श्रोतृभावापेक्षया सामीप्येन कथ्यते, एवं यत्र कचिदसावुपदेशः कथाया आक्षे पण्या रसो-निष्यन्दा सार इति गाथार्थः । गताऽऽक्षेपणी, विक्षेपणीमाह-कथयित्वा खसमयं-खसिद्धान्तं ततः JanEducation ~223~ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं -1 / गाथा ||११...|| नियुक्ति: [२०५], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||११..|| दीप अनुक्रम [१६..] कथयति परसमयं-परसिद्धान्तमित्येको 'भेदः, अथवा विपर्यासाद-व्यत्ययेन कथयति-परसमयं कथयित्त्वा खसमयमिति द्वितीयः, मिध्यासम्यग्वादयोरेवमेव भवतो द्वौ भेदाविति, मिथ्यावादं कथयित्वा सम्यग्वाद कथयति सम्यग्वादं च कथयित्वा मिथ्यावादमिति, एवं विक्षिप्यतेऽनया सन्मार्गात् कुमार्गे कुमार्गाद्वा सन्मार्गे श्रोतेति विक्षेपणीति गाथाक्षरार्थः। भावार्थस्तु वृद्धविवरणादवसेयः, तचेदम्-विक्खेवणी सा चउविवहा पनत्ता, तंजहा-ससमयं कहेत्ता परसमयं कहेइ १ परसमयं कहेत्ता ससमयं कहेइ २ मिच्छावादं कहेत्ता सम्मावादं कहेइ ३ सम्मावादं कहेत्ता मिच्छावायं कहेइ ४ तस्थ पुब्धि ससमयं कहेत्ता परसमयं कहेइ-ससमयगुणे दीवेइ परसमयदोसे उचदंसेइ, एसा पढमा विक्खेवणी गया। इयाणि बिइया भन्नइ-पुचि परसमयं कहेता तस्सेव दोसे उवदंसेइ, पुणों ससमयं कहेइ, गुणे य से उवदंसेह, एसा विइया विक्खेवणी गया। इयाणिं तइया-परसमयं कहेता तेसु चेव परसमएम जे भावा जिणप्पणीएहिं भावेहिं सह विरुद्धा असंता चेव वियप्पिया ते पुब्बि कहित्ता दोसा तेसिं भाविऊण पुणो जे जिणप्पणीयभावसरिसा घुणक्खरमिव १ विक्षेपणी सा चतुर्विधा प्रशता, तद्यथा-खसमय कथयित्वा पररामयं कथयति, परसमयं कथयित्वा खसमयं कथयति, मिथ्यावावं कथयित्वा सम्यवाद। | कथयति, सम्यग्वादं कथयित्वा मिथ्यावाद कथयति, तत्र पूर्व खसमयं कथयित्वा परसमयं कथयति-खसमयगुणान् दीपयति परसमयदोषान् उपदर्शयति, एषा प्रथमा विक्षेपदी गता । इदानी द्वितीया भव्यते-पूर्व परसमयं कथयित्वा तस्यैव दोषान् उपदर्शयति पुनः खसमयं कथयति गुणांच तस्योपदर्शयति, एषा द्वितीया विक्षेपणी मता । इदानीं तृतीया-परसमयं कवयित्या सेवेव परसमयेषु ये भावा जिनप्रणीत वैविरुद्धा असन्त एवं विकल्पितासान, पूर्व कथाविरवा दोषास्तेषामुक्त्वा पुनय जिनप्रणीतभावसहशा धुणाक्षरमिच. ~ 224~ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||88..|| दीप अनुक्रम [१६..] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [३] उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा || १९...|| निर्युक्ति: [ २०५ ], भाष्यं [ ४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ १११ ॥ Jar Education कवि सोभणा भणिया ते कहयह, अहवा मिच्छावादो णत्थित्तं भन्नइ सम्माबादो अत्थितं भण्णति, तत्थ पुव्विं णाहियवाईणं दिडीओ कहित्ता पच्छा अस्थिसपक्खवाईणं दिट्ठीओ कहेह, एसा तझ्या विक्खेवणी गया । इयाणिं चडत्थी विक्लेवणी, सा वि एवं चेव, णवरं पुव्विं सोभणे कहेइ पच्छा इयरेत्ति, एवं विक्खिवति सोयारं ति गाधाभावार्थः । साम्प्रतमधिकृतकथामेव प्रकारान्तरेणाह या खसमयवज खशब्दस्य विशेषणार्थस्वादत्यन्तं प्रसिद्धनीत्या खसिद्धान्तशून्या, अन्यथा विधिप्रतिषेधद्वारेण विश्वव्यापकत्वात् स्वसमयस्य तद्वर्जा कथैव नास्ति, भवति कथा 'लोकवेदसंयुक्ता', लोकग्रहणाद्रामायणादिपरिग्रहः वेदास्तु ऋग्वेदादय एव, एतदुक्ता कथेत्यर्थः, परसमयानां च सायशाक्यादिसिद्धान्तानां च कथा या सा सामान्यतो दोषदर्शनद्वारेण वा एषा विक्षेपणी नाम, विक्षिप्यतेऽनया सन्मार्गात् कुमार्गे कुमार्गाद्वा सन्मार्गे श्रोतेति विक्षेपणी, तथाहि सामान्यत एव रामायणादिकथायामिदमपि तत्त्वमिति भवति सन्मार्गाभिमुखस्य ऋजुमतेः कुमार्गप्रवृत्तिः, दोषदर्शनद्वारेणाप्येकेन्द्रियप्रायस्याहो मत्सरिण एत इति मिध्यालोचनेनेति गाथार्थः । अस्या अकधने प्राप्ते विधिमाह-या खसमयेन खसिद्धान्तेन करणभूतेन पूर्वमाख्याता आदी कथिता तां क्षिपेत् परस १ कथमपि शोभना भणितास्तान् कथयति, अथवा मिध्यावादो नास्तिक्यं भप्यते सम्यम्बाद आस्तिक्यं भव्यते, तत्र पूर्वं नास्तिकवादिनां दृष्टीः कथयित्वा पक्षादास्तिकपक्षवादिनां दृष्टीः कथयति एषा तृतीया निक्षेपणी गता, इदानीं चतुर्थी विक्षेपणी-साऽप्येवमेव, नवरं पूर्व शोभनान् कथयति पश्चादितरान् इत्येवं विक्षिपति ओतामिति For & Personal Use City ~225~ क्षुलिका चारकथा० आक्षेप ण्याचा धर्मकथाः १११ ॥ beary dig Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [3], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||११...|| नियुक्ति: [२०५], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||११..|| दीप अनुक्रम [१६..] मये कचिदोषदर्शनद्वारेण यथाऽस्माकमहिंसादिलक्षणो धर्मः साङ्ख्यादीनामप्येवं, 'हिंसा नाम भवेद्धर्मों न भूतो न भविष्यति' इत्यादिवचनप्रामाण्यात्, किंवसावपरिणामिन्यात्मनि न युज्यते, एकान्तनित्यानित्ययो|हिंसाया अमावादिति, अथवा परशासनब्याक्षेपात्-'सुपा सुपो भवन्ति' इति सप्तम्यर्थे पञ्चमी, परशासनेन कथ्यमानेन व्याक्षेपे-सन्मार्गाभिमुखतायां सत्यां परस्य समयं कथयति, दोषदर्शनद्वारेण केबलमपीति गाथार्थः । उक्ता विक्षेपणी, अधुना संवेजनीमाह-आत्मपरशरीरविषया इहलोके चैव तथा परलोके-इहलोक-| विषया परलोकविषया च एषा चतुर्विधा खलु अनन्तरोक्तेन प्रकारेण कथा तु संवेजनी भवति, संवेज्यतेसंवेगं ग्राह्यतेऽनया श्रोतेति संजनी, एषोऽधिकृतगाथाक्षरार्थः । भावार्थस्तु वृद्धविवरणादवसेयः, तचेदम्-1 संवेयणी कहा चउम्विहा, तंजहा-आयसरीरसंवेयणी परसरीरसंवेयणी इहलोयसंवेयणी परलोयसंवेयणी, तत्थ आयसरीरसंवेयणी जहा जमेयं अम्हचयं सरीरयं एवं सुक्कसोणियमंसवसामेदमजविण्हारुचम्मकेसरोमणदंतअंतादिसंघायणिफण्णत्तणेण मुत्तपुरीसभायणत्तणेण य असुइत्ति कहेमाणो सोयारस्स संवेगं उप्पाएइ, एसा आयसरीरसंवेयणी, एवं परसरीरसंवेयणीवि परसरीरं एरिसं चेव असुई, अहवा परस्स सरीरं संवेजनी कथा चतुर्विधा, तपथा-आत्मशरीरसंवेजनी परशरीरसंवेजनी इहलोकसंवेजनी परलोकसंवैजनी, तत्रामशरीरसंवैजनी यथा यदेतदस्मदीयं | शरीरकमेवं शुकशोणितमांसवसामेदोमजास्थिमायुचर्मकेशरोमनखदन्तानादिसंघातनिष्पन्नत्वेन मूत्रपुरीषभाजनस्वेन चावचीति कथयन् श्रोतुः संवेगमुत्पादयति, एषा|ऽऽत्मशरीरसंवेबनी, एवं परशारीरसंवेजन्यपि परशरीरमीदशमेवाशुचि, अथवा परस्य शरीर F%25 ~ 226~ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं -1 / गाथा ||११...|| नियुक्ति: [२०५], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक क्षुलिकाचारकथा. आक्षेपण्याद्या धर्मकथा: ||११..|| दशवकावणेमाणो सोयारस्स संवेगमुप्पाएइ, परसरीरसंवेयणी गया, इयाणि इहलोयसंवेयणी-जहा सब्वमेयं माणुस- हारि-वृत्तिः त्तणं असारमधुवं कदलीघंभसमार्ण एरिसं कहं कहेमाणो धम्मकही सोयारस्स संबेगमुप्पाएइ, एसा इह- ॥११२॥ लोयसंवेयणी गया, इयाणि परलोयसंवेयणी जहा देवावि इस्साविसायमयकोहलोहाइएहिं दुक्खेहिं अभिभूया |किमंग पुण तिरियनारया, एयारिसं कहं कहेमाणो धम्मकही सोयारस्स संवेगमुप्पाएइ, एसा परलोयसंवेयणी गयत्ति गाथाभावार्थः । साम्प्रतं शुभकर्मोदयाशुभकर्मक्षयफलकथनतः संवेजनीरसमाह-वीर्यवेक्रियर्द्धि' तपासामोद्भवा आकाशगमनजङ्घाचारणादिवीर्यवैक्रियनिर्माणलक्षणा 'ज्ञानचरणदर्शनानां तथर्डि' तत्र ज्ञानद्धिः 'पभू णं भंते ! चोदसपुब्बी घडाओ घडसहस्सं पडाओ पडसहस्सं विउम्बित्तए ?, हंता पहू विउवित्तए' तहा-"जं अन्नाणी कम्म खवेइ यहुयाहिं वासकोडीहिं । तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेइ ऊसासमित्तेणं ॥१॥" इत्यादि, तथा चरणद्धिः नास्त्यसाध्यं नाम चरणस्य, तद्वन्तो हि देवैरपि पूज्यन्त इ १ वर्णवन् श्रोतुः संवेगमुत्पादयति, परशरीरसंवेजनी गता, इदानी मिहलोकसंवेजनी-यथा सर्वमेतत् मानुषमसारमनुवं कदलीस्तम्भसमानमीदशी कथा कथयन् धर्मकथी श्रोतुः संवेगमुत्पादयति, एषा इहलोकसंवेजनी बता, इदानी परलोकसंबेजनी, यथा देवा अपि या विषादमदकोषलोमादिभिःसैरभिभूता *किमा पुनः वियनारका, इंदशी कथा कथयन् धर्मकथी श्रोतुः संवेगमुत्पादयति, एषा परलोकसबैजनी गतेति. २ प्रभुर्भदन्त ! चतुर्दशपूर्वी पात् घटस पटात् पटसहवं विकर्षितुं १, हन्त प्रभुर्विकर्षितु. ३ यदज्ञानी कर्म क्षपयति बटुकाभियपकोटीभिः । तद् ज्ञानी तिसभितः क्षपयत्युच्यासमात्रेण ॥1॥ दीप अनुक्रम [१६..] 45 ॥११२॥ ~ 227~ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं -1 / गाथा ||११...|| नियुक्ति: [२०५], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत 1-25 KASAR सूत्रांक % ||११..|| त्यादि, दर्शनर्दिः प्रशमादिरूपा, तथा-"सम्मरिट्ठी जीवो विमाणवलं ण बंधए आउं । जइवि ण सम्मत्तजदो अहब ण बद्धाउओ पुचि ॥१॥” इत्यादि, उपदिश्यते-कथ्यते खलु यत्र प्रक्रमे कथायाः संवेजन्या रसो निष्यन्द एष इति गाथार्थः । उक्ता संवेजनी, निर्वेदनीमाह-पापानां कर्मणां चौर्यादिकृतानामशुभवि पाक:-दारुणपरिणामः कथ्यते यत्र-यस्यां कथायामिह च परब च लोके-इहलोके कृतानि कर्माणि इहलोक माएवोदीर्यन्ते इति, अनेन चतुर्भगिकामाह, कथा तु निवेदनी नाम, निर्वेद्यते भवादनया श्रोतेति निर्वेदनी राएष गाथाक्षरार्थः । भावार्थस्तु वृद्धविवरणादवसेयः, तचेदम्-इयाणि निव्वेयणी, सा थउविहा, तंजहा इहलोए दुचिपणा कम्मा इहलोए चेव दुहविवागसंजुत्ता भवन्तित्ति, जहा चोराणं पारदारियाणं एवमाइ|| एसा पढमा निब्वेयणी, इयाणि पिइया, इहलोए दुचिण्णा कम्मा परलोए दुहविवागसंजुत्ता भवन्ति, कहं ?.IX जहा नेरइयाणं अन्नम्मि भवे कयं कर्म निरयभवे फलं देइ, एसा बिइया निब्वेयणी गया, इयाणी तइया, परलोए दुचिपणा कम्मा इहलोए दुहविवागसंजुत्ता भवंति, कहं ?, जहा बालप्पभितिमेव अंतकुलेसु उप्पन्ना १ सम्यग्दमिजावो विमानवजैन यनाव्यायुः । यदि नैव यकसम्यक्त्वोऽथवा न पूर्व बदायुष्कः ॥१॥ २६दानी निवेदनी, सा चतुर्विधा, तयथा--- खोके दुधीर्णानि कमागि इहलोक शुव दुःखविपाकसयुक्तानि भवन्तीति, यथा चौराणी पारदारिकाणा एवमायेषा प्रथमा निरनी, इदानी द्वितीया -इहलोक दुम्बीणानि कर्माणि परलोके दुःखविपाकसंयुलानि भवन्ति, कथं ?, यथा नैरविकैरन्यस्मिन् भये कृतं कर्म निरयभवे फलं ददाति, एषा द्वितीया निवेदनी गता, पानी तृतीया, परलोके दुधीर्णागि कमाणि इहलोके दुःखविपाकसंयुक्तानि भवन्ति, कय !, यथा यास्याप्रमत्येवान्तकुलेषरपन्नाः दीप अनुक्रम [१६..] % CAM JamEducat ional ~ 228~ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं -1 / गाथा ||११...|| नियुक्ति: [२०५], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||११..|| दीप अनुक्रम [१६..] दशवैका खयकोढादीहिं रोगेहिं दारिदेण य अभिभूया दीसन्ति, एसा तइया णिव्वेयणी, इयाणि चउत्थी णिब्वेयणी, ४३क्षुल्लिकाहारि-वृत्तिापरलोए दुचिपणा कम्मा परलोए चेव दुहविवागसंजुत्ता भवति, कह?, जहा पुलिंब दुचिपणेहिं कम्मेहिं जीवाचारकथा० संडासतुंडेहिं पक्खीहिं उववजति, तओतेणरयपाउग्गाणि कम्माणि असंपुण्णाणि ताणि ताए जातीए पूरिति, आक्षेप॥११३॥ दिपूरिऊण नरयभवे वेदेन्ति, एसा चउत्था निब्वेयणी गया, एवं इहलोगो परलोगो वा पण्णवयं पडच भवइ, ण्याद्या तत्थ पन्नवयस्स मणुस्सभवो इहलोगो अवसेसाओ तिणिवि गईओ परलोगोत्ति गाथाभावार्थः ॥ इदानी-धर्मकथाः समस्या एव रसमाह-स्तोकमपि प्रमादकृतम्-अल्पमपि प्रमादजनितं कर्म-वेदनीयादि 'साहिजईत्ति कथ्यते | यत्र नियमात्-नियमेन, किंविशिष्टमित्याह-प्रभूताशुभपरिणाम बहुतीव्रफलमित्यथें, यथा यशोधरादी-18 नामिति कथाया निदिन्या रसः-एष निष्यन्द इति गाथार्थः संक्षेपतः । संवेगनिर्वेदनिबन्धनमाह-सिद्विश्च देवलोकः सुकुलोत्पत्तिश्च भवति संवेगा, एतत्परूपणं, संवेगहेतुत्वादिति भावः, एवं नरकस्तिर्यग्योनिः | |कुमानुषत्वं च निर्वेद इति गाथार्थः । आसां कथानां या यस्य कथनीयेत्येतदाह-विनयेन चरति वैनयिक: १क्षयकुष्टादिमौ रोगैरिण चाभिभूता श्यन्ते, एषा तृतीया निवेदनी, इदानी चतुर्थी निदनी-परलोके दुधीर्णानि कर्माणि परलोक एप दुःसवि. पाकयुकानि भवन्ति, कथे !, यथा पूर्व दुधीर्णैः कर्मभिजायाः संबंशतुण्डेषु पक्षिषु उत्पद्यन्ते, ततस्ते नरकमायोग्याणि कर्माणि असंपूर्णानि तानि तरूया जाती पूर| सन्ति, पूरयित्वा नरकमाये वेदयन्ति, एषा चतुर्थी निवेदनी गता, एवं इहलोक परलोको पा प्रशापर्क प्रतीस भवति, तत्र प्रज्ञापकस्य मनुष्यभव इहलोकः अवशे- ॥११३॥ पासिलोऽपि गतयः परलोक इति. --- ~229~ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||88..|| दीप अनुक्रम [१६..] Jur Educatio भाष्यं [ ४...] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [३], उद्देशक [-1, मूलं [-] / गाथा ||११...|| निर्युक्ति: [ २०५ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः | शिष्यस्तस्मै प्रथमतया - आदिकथनेन कथा तु आक्षेपणी उक्तलक्षणा कथयितव्या, ततः खसमयगृहीतार्थे सति तस्मिन् कथयेद् विक्षेपण - उक्तलक्षणामेव पश्चादिति गाथार्थः । किमित्येतदेवमित्याह - आक्षेपण्या कथया आक्षिप्ताः- आवर्जिता आक्षेपण्याक्षिप्ता ये जीवास्ते लभन्ते सम्यक्त्वम्, तथा आवर्जनं शुभभावस्य मिथ्यात्वमोहनीयक्षयोपशमोपायत्वात्, विक्षेपण्यां भाज्यं सम्यक्त्वं कदाचिल्लभन्ते कदाचिन्नेति तच्छ्रवणात्तथाविधपरिणामभावात्, गाढतरं वा मिध्यात्वं, जडमतेः परसमयदोषानवबोधान्निन्दाकरिण एते न द्रष्टव्या इत्यभिनिवेशेनेति गाथार्थः । उक्ता धर्मकथा, साम्प्रतं मिश्रामाह धम्म अथ काम सह जस्थ सुत्तकब्वेसुं । लोगे बेए समये सा उ कहा मीसिया णाम ||२०६|| इत्थिकहा भत्तकहा रायकहा चोरजणवयकहा व नडन जलमुट्टियकहा उ एसा भवे विकहा ॥ २०७ ॥ एवा चैव कहाओ पन्नगपरूवगं समासज्ज | अकहा कहा य बिकहा हविज्ज पुरिसंतरं पप्प ।। २०८ ।। मिच्छत्तं वेयन्तो जं अन्नाणी कहं परिकहेइ । लिंगस्थो व गिही वा सा अकहा देसिया समए ॥ २०९ ॥ तवसंजमगुणधारी जं चरणत्था कहिति सम्भावं । सव्यजगज्जीवहियं साउ कहा देसिया समए ॥ २९० ॥ जो संजओ पमतो रागोसवसगओ परिकहेइ सा उ विकहा पवयणे पण्णत्ता धीरपुरिसेहिं ॥ २११ ॥ सिंगाररसुतइया मोहकुवियफुंफुंगा सहासिंति । जं सुणमाणस्स कहूं समणेण ण सा कहेयव्या ॥ २१२ ॥ समणेण कयच्या तवनियमका विरागसंजुत्ता । जं सोऊण मणुरसो बच्चइ संवेगनिध्येयं ॥ २१३ ॥ अस्य For ane & Personal Use Oily ~ 230~ www.brary dig Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं -1 / गाथा ||११...|| नियुक्ति: [२१४], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||११..|| दीप अनुक्रम [१६..] दशवैका० महंतीवि कहा अपरिकिलेसबहुला कहेवन्या । हंदि महया चङगरतणेण अत्थं कहा हणइ ।। २१४ । खेतं कालं पुरिसं ४३ क्षुल्लिकाहारि-वृत्तिः । सामत्वं चप्पणो वियाणेत्ता । समणेण उ अणवजा पगयंमि कहा कहेयन्या ।। २१५ ।। तइयज्झयणनि जुत्ती समता ।। चारकथा व्याख्या-धर्म:-प्रवृत्यादिरूपः अर्थी-विद्यादिः काम:-इच्छादिः उपदिश्यते-कथ्यते यत्र 'सूत्रकाव्येषु' सू-2 ॥११४॥ त्रेषु काव्येषु च-तल्लक्षणवत्सु, केत्यत आह-लोके-रामायणादिषु वेदे-यज्ञक्रियादिषु समये-तरङ्गवत्यादिषु कथाsक सा पुनः कथा 'मिश्रा' मिश्रानाम, संकीर्णपुरुषार्थाभिधानात् इति गाथार्थः । उक्ता मिश्रकथा, तदभिधानाचतु-धाविकथासर्विधा कथेति । साम्प्रतं कथाविपक्षभूतां त्याज्यां विकथामाह, अज्ञातखरूपायास्त्यागासंभवादिति-स्त्रीकथा- खरूपं च एवंभूता द्रविडा इत्यादिलक्षणा भक्तकथा सुन्दर शाल्योदन इत्यादिरूपा राजकथा अमुकः शोभन इत्यादिलक्षणा चौरजनपदकथा च गृहीतोऽद्य चौरः स इत्थं कदर्थितः तथा रम्यो मध्यदेश इत्यादिरूपा नटनर्तकजल्लमुष्टिककथा च एषा भवेद्विकथा प्रेक्षणीयकानां नटो रमणीयः यद्वा नर्तकः यद्वा जल्लः, जल्लो नाम धरनाखेलका मुष्टिको मल्ला, इत्यादिलक्षणा विकथा, कथालक्षणविरहादिति गाथार्थः । उक्ता विकथा, इदानीं|| प्रज्ञापकापेक्षयाऽऽसां प्राधान्यमाह-एता एवोक्तलक्षणा: कथाः प्रज्ञापयतीति प्रज्ञापकः प्रज्ञापकश्वासी प्ररूपकश्चेति विग्रहस्तमवबोधकमरूपकं न तु घरभ्रमणकल्पं यतो न किञ्चिदवगम्यत इत्यर्थः समाश्रित्य-प्राप्य | किमित्याह-'अकथा' वक्ष्यमाणलक्षणा कथा चोक्तखरूपा विकथा चोक्तखरूपैच भवति, पुरुषान्तरं-श्रीलक्षणं प्राप्य-आसाद्य, साध्वसाध्वाशयवैचित्र्यात् सम्यकश्रुतादिवत्, अन्ये तु प्रज्ञापर्क-मूलक रं प्ररू *BOSS JanEducation ~231~ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं -1 / गाथा ||११...|| नियुक्ति: [२१४], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||११..|| दीप अनुक्रम [१६..] पर्क-तत्कृतस्याख्यातारमिति व्याचक्षते, न चैतदतिशोभनं, 'पपणवयपरूवगे समासज्ज'त्ति पाठप्रसङ्गादिति गाधार्थः । इदानीमकथालक्षणमाह-मिथ्यात्वमिति-मिथ्यात्वमोहनीयं कर्म वेदयन् विपाकेन यां काश्चिदज्ञानी कथां कथयति, अज्ञानिस्त्वं चास्य मिध्यादृष्टित्वादेव, यवं नार्थोऽज्ञानिग्रहणेन मिथ्यात्ववेदकस्याज्ञानित्त्वाव्यभिचारादिति चेद, न, प्रदेशानुभववेदकेन सम्यग्दृष्टिना व्यभिचारादिति, किंविशिष्टोऽसावित्याह-लिङ्गस्थो वा' द्रव्यमब्रजितोऽङ्गारमर्दकादिः 'गृही वा' यः कश्चिदितर एव 'सा' एवं प्ररूपकप्रयुक्तलायुक्त्या श्रोतर्यपि प्रज्ञापकतुल्यपरिणामनिवन्धना अकथा देशिता समये, ततः प्रतिविशिष्टकथाफलाभावा-13 | दिति गाथार्थः ॥ अव प्रक्रमे कथामाह-तपासंयमगुणान् धारयन्ति तच्छीलाश्चेति तपासंयमगुणधारिणः ४ायां काश्चम चरणरता:-चरणप्रतिबद्धा न स्वन्यत्र निदानादिना कथयन्ति सद्भाव-परमार्थ, किंविशिष्टमिप्रत्याह-सर्वजगज्जीवहितं, नतु व्यवहारतः कतिपयसत्त्वहितमित्यर्थः, तुशब्दस्यावधारणा,त्वात्, सैव कथा| का निश्चयतो देशिता समये, निर्जराख्यखफलसाधनाकर्तृणां ओणामपि चेत कुशलपरिणामनिवन्धना क-1 साथैव, नो चेद्राज्येति गाथार्थः॥ इहैव विकथामाह-यः संयतः प्रमस:-कषायादिना प्रमादेन रागद्वेषवशं गतः सन् | लान तु मध्यस्थः परिकथयति किश्चित् सा तु विकथा प्रवचने-सा पुनर्विकथा सिद्धान्ते मज्ञप्ता धीरपुरुषः-तीक रादिभिः, तथाविधपरिणामनिवन्धनत्वात् कर्तृश्रोनोरिति, श्रोतृपरिणामभेदे तु तं प्रति कथान्तरमेव, एवं सदश. २०वत्र भावना कार्येति गाथार्थः । साम्प्रतं श्रमणेन यथाविधान कार्या तथाविधामाह-शृङ्गाररसेन-मन्मथदी ~232~ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [१७] दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ ११५ ॥ भाष्यं [ ४... ] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [३], उद्देशक [−], मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्तिः [२१४], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र -[ ४२ ], मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः पकेन उत्तेजिता अधिकं दीपिता, केत्याह-मोह एव चारित्रमोहनीयकर्मोदयसमुत्थात्मपरिणामरूपः कुपितफुफुका-घटितकुकुला 'हसहसिंति'त्ति जाज्वल्यमाना जायत इति वाक्यशेषः, यां शृण्वतः कथां मोहोदयो जायत इत्यर्थः, श्रमणेन - साधुना न सा कथयितव्या, अकुशल भावनिबन्धनत्वादिति गाथार्थः । यत्प्रकारा कथनीया तत्प्रकारामाह-श्रमणेन कथयितव्या, किंविशिष्टेत्याह- 'तपोनियमकथा' अनशनादिपञ्चाश्रवविरमणादिरूपा, साऽपि विरागसंयुक्ता न निदानादिना रागादिसंगता, अत एवाह-यां कथां श्रुत्वा मनुष्यःश्रोता व्रजति-गच्छति 'संवेयणिव्वेद'ति संवेगं निर्वेदं चेति गाथार्थः । कथाकथनविधिमाह - महार्थापि कथा अपरिक्लेशबहुला कथयितव्या, नातिविस्तरकथनेन परिक्लेशः कार्य इत्यर्थः किमित्येवमित्यत आह--'हंदी'त्युपदर्शने महता चडकरत्वेन - अतिप्रपञ्चकथनेनेत्यर्थः किमित्याह - अर्थ कथा हन्ति-भावार्थं नाशयतीति गाथार्थः । विधिशेषमाह-क्षेत्रं- भौताविभावितं कालं श्रीयमाणादिलक्षणं पुरुषं पारिणामिकादिरूपं सामर्थ्य चात्मनो ज्ञात्वा प्रकृते वस्तुनीति योगः श्रमणेन त्वनवद्या- पापानुबन्धरहिता कथा कथयितव्या, नान्येति गाधार्थः । उक्ता कथा, तदभिधानाद्वतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसर इत्यादिचर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम्, तचेदम् संजमे सुट्टिअप्पाणं, विप्पमुक्काण ताइणं । तेसिमेयमणाइण्णं, निग्गंथाण महेसिणं Ja Education matunal Forte & Personal Use City ~ 233~ क्षुल्लिकाचारकथा० कथादिस्वरूपं ॥ ११५ ॥ by dig Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [३], उद्देशक [-1, मूलं [-] / गाथा ||१-१०|| नियुक्ति: [२१४...], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१-१०|| दीप अनुक्रम [१७-२६] ॥१॥ उदेसिथं कीयगडं, नियागमभिहडाणि य । राइभत्ते सिणाणे य, गंधमल्ले य वीपणे ॥२॥ संनिही गिहिमत्ते य, रायपिंडे किमिच्छए । संवाहणा दंतपहोयणा य संपुच्छणा देहपलोयणा य ॥३॥ अट्ठावए य नालीए, छत्तस्स य धारणहाए । तेगिच्छं पाहणा पाए, समारंभं च जोइणो॥४॥ सिज्जायरपिंडं च, आसंदीपलियंकए । गिहतरनिसिज्जा य, गायस्सुव्वदृणाणि य ॥ ५ ॥ गिहिणो वेआवडियं, जा य आजीववत्तिया । तत्तानिव्वुडभोइत्तं, आउरस्सरणाणि य॥ ६॥ मूलए सिंगबेरे य, उच्छखंडे अनिव्वुडे । कंदे मूले य सञ्चित्ते, फले बीए य आमए ॥ ७॥ सोवच्चले सिंधवे लोणे, रोमालोणे य आमए । सामुद्दे पंसुखारे य, कालालोणे य आमए ॥८॥ धुवणे त्ति वमणे य, वत्थीकम्म विरेयणे । अंजणे दंतवणे य, गायाब्भंगविभूसणे ॥९॥ सव्वमेयमणाइन्नं, निग्गंथाण महेसिणं । संजमंमि अ जुत्ताणं, लहभूयविहारिणं ॥१०॥ अनाचरित' वस्तूनां स्वरुप्-कथनं ~234~ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक | ॥१-१०|| दीप अनुक्रम [१७-२६] दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ ११६ ॥ “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [३], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||१- १० || निर्युक्ति: [ २१४...], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [४२] मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः अस्य व्याख्या - इह संहितादिक्रमः क्षुण्णः, भावार्थस्त्वयम् - 'संयमे' द्रुमपुष्पिकाव्यावर्णितखरूपे शोभनेन प्रकारेण आगमनीत्या स्थित आत्मा येषां ते सुस्थितात्मानस्तेषां त एवं विशेष्यन्ते विविधम्- अनेकैः प्रकारै: प्रकर्षेण-भावसारं मुक्ताः परित्यक्ताः बाह्याभ्यन्तरेण ग्रन्धेनेति विप्रमुक्तास्तेषां त एवं विशेष्यन्ते - त्रायन्ते आत्मानं परमुभयं चेति त्रातारः, आत्मानं प्रत्येकबुद्धाः परं तीर्थकराः, खतस्तीर्णत्वाद्, उभयं स्थविरा इति तेषामिदं वक्ष्यमाणलक्षणं अनाचरितम् अकल्प्यं, केषामित्याह-निर्ग्रन्थानां' साधूनामित्यभिधानमेतत् महान्तश्च ते ऋषयश्च महर्षयो यतय इत्यर्थः अथवा महान्तं एषितुं शीलं येषां ते महेषिणस्तेषां, इह च पूर्वपूर्वभाव एवं उत्तरोत्तरभावो नियमितो हेतुहेतुमद्भावेन वेदितव्यः, यत एव संयमे सुस्थितात्मानोऽत एव विप्रमुक्ताः, संयमसुस्थितात्मनिबन्धनत्वाद्विप्रमुक्तेः, एवं शेषेष्वपि भावनीयं, अन्ये तु पश्चानुपूर्व्या हेतुहेतुमद्भावमित्थं वर्णयन्ति यत एव महर्षयोऽत एव निर्ग्रन्थाः, एवं शेषेष्वपि द्रष्टव्यमिति सूत्रार्थः ॥ सा|म्प्रतं यदनाचरितं तदाह- 'उद्देसियं'ति उद्देशनं साध्वायाश्रित्य दानारम्भस्येत्युद्देशः तत्र भवमौदेशिकं १, क्रयणं क्रीतं, भावे निष्ठाप्रत्ययः, साध्वादिनिमित्तमिति गम्यते, तेन कृतं निवर्तितं क्रीतकृतं २, 'नियाग'मित्यामन्त्रितस्य पिण्डस्य ग्रहणं नित्यं न त्वनामन्त्रितस्य ३, 'अभिहडाणि यत्ति खग्रामादेः साधुनिमित्तमभिमुखमानीसमभ्याहृतं बहुवचनं स्वग्रामपरग्रामनिशीथादिभेदख्यापनार्थ४, तथा 'रात्रिभक्तं' रात्रिभोजनं दिवसगृहीतदिवस मुक्तादिचतुर्भङ्गलक्षणं ५, 'स्वानं च' देशसर्वभेदभिन्नं, देशस्नानमधिष्ठानशौचातिरेकेणा ॥ ११६ ॥ For ne&Personal Use City ~ 235~ ३ क्षुल्लिका चारकथा० अनाचीर्णस्वरूपं Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक |॥१-१०|| दीप अनुक्रम [१७-२६] Jan Education in “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [३], उद्देशक [ - ], मूलं [-] / गाथा ||१-१० || निर्युक्ति: [ २१४...], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः क्षिपक्ष्मप्रक्षालनमपि, सर्वनानं तु प्रतीतं ६ तथा 'गन्धमाल्यव्यजनं च' गन्धग्रहणात्कोष्ठपुटादिपरिग्रहः माल्यग्रहणास प्रथितवेष्टितादेर्माल्यस्य वीजनं तालवृन्तादिना धर्म एव, ७८-९ इदमनाचरितं, दोषाश्श्रीदेशि| कादिष्वारम्भप्रवर्तनादयः स्वधियाऽवगन्तव्या इति सूत्रार्थः ॥ इदं चानाचरितमित्याह- 'संनिहि'त्ति सूत्रम्, अस्य व्याख्या-संनिधीयतेऽनयाऽऽत्मा दुर्गताविति संनिधिः- घृतगुडादीनां संचयक्रिया १०, 'गृहिमात्र ' गृहस्थभाजनं च ११, तथा 'राजपिण्डो' नृपाहारः कः किमिच्छतीत्येवं यो दीयते स किमिच्छकः, राजपिण्डोउन्यो वा सामान्येन १२, तथा 'संबाधनम्' अस्थिमांसत्वग्रोमसुखतया चतुर्विधं मर्दनं १३, 'दन्तप्रधावनं' चाङ्गुल्यादिना क्षालनं १४, तथा 'संप्रश्नः' सावयो गृहस्थविषयः, राढार्थ कीदृशो वाऽहमित्यादिरूपः १५, 'देहप्रलोकनं च' आदर्शादावनाचरितम् १६, दोषाश्च संनिधिप्रभृतिषु परिग्रहप्राणातिपातादयः स्वधियैव वाच्या इति सूत्रार्थः ॥ किंच- 'अट्ठावए य' सूत्रम्, अस्य व्याख्या - अष्टापदं चेति, 'अष्टापदं' द्यूतम्, अर्थपदं वा गृहस्थमधिकृत्य नीत्यादिविषयमनाचरितं १७, तथा 'नालिका चेति द्यूतविशेषलक्षणा, यत्र मा भूस्कलयाऽन्यथा पाशकपातनमिति नलिकया पात्यन्त इति, इयं चानाचरिता १८, अष्टापदेन सामान्यतो द्यूतग्रहणे सत्यप्यभिनिवेशनिबन्धनत्वेन नालिकायाः प्राधान्यख्यापनार्थ भेदेन उपादानम्, अर्धपदमेवोक्तार्थं तदित्यन्ये अभिदधति, अस्मिन् पक्षे सकलद्यूतोपलक्षणार्थं नालिकाग्रहणम्, अष्टापदद्यूतविशेषपक्षे चोभायोरिति । तथा 'छत्रस्य च' लोकप्रसिद्धस्य धारणमात्मानं परं वा प्रत्यनर्थायेति, आगाढग्लानाद्याल For ne&Personal Use City ~236~ ibrary dig Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [३], उद्देशक [-1, मूलं [-] / गाथा ||१-१०|| नियुक्ति: [२१४...], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१-१०|| दीप अनुक्रम [१७-२६] दसवैका०म्बनं मुक्त्वाऽनाचरितं, प्राकृतशैल्या चात्रानुस्खारलोपोऽकारनकारलोपौ च द्रष्टव्यौ, तथाश्रुतिप्रामाण्या- क्षुल्लिकाहारि-पत्ति दिति १९, तथा 'तेगिच्छति, चिकित्साया भावश्चकित्स्य-व्याधिप्रतिक्रियारूपमनाचरितं २०, तथोपानही चारकथा. ॥ ११७॥ पादयोरनाचरिते, पादयोरिति साभिप्रायक, न वापत्कल्पपरिहारार्थमुपग्रहधारणेन २१, तथा 'समारम्भश्च । अनाचीसमारम्भणं च 'ज्योतिषः' अग्नेस्तदनाचरितमिति २२, दोषा अष्टापदादीनां क्षुण्णा एवेति सूत्रार्थः॥४॥ राणस्व. किंच-'सज्जायर'सूत्रम्, अस्य व्याख्या-शय्यातरपिण्डवानाचरितः, शय्या-वसतिस्तया तरति संसारमिति |शय्यातर:-साधुवसतिदाता, तत्पिण्डः २३, तथा आसन्दकपर्यो अनाचरिती, एतौ च लोकमसिद्धावेव |२४-२५, तथा गृहान्तरनिषद्या अनाचरिता, गृहमेव गृहान्तरं गृहयोर्चा अपान्तरालं तत्रोपवेशनम्, चशब्दात्पाटकादिपरिग्रहः २६, तथा गात्रस्य-कायस्योद्वर्तनानि चानाचरितानि, उद्वर्तनानि-पङ्कापनयनलक्षणानि, चशब्दावन्यसंस्कारपरिग्रहः २७, इति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ तथा-'गिहिणों त्ति सूत्रम्, अस्य व्याख्या-'गृ[हिणो' गृहस्थस्य 'वैयावृत्त्य' व्यावृत्तभावो-वैयावृत्य, गृहस्थं प्रत्यन्नादिसंपादनमित्यर्थः, एतदनाचरितमिति 18|२८, तथा च 'आजीववृत्तिता' जातिकुलगणकर्मशिल्पानामाजीवनम् आजीवस्तेन वृत्तिस्तद्भाव आजीवनवृत्तिता-जात्याद्याजीवनेनात्मपालनेत्यर्थः, इयं चानाचरिता २९, तथा 'तसानिर्वृतभोजित्वम् तप्तं च तद निवृतं च-अत्रिदण्डोवृत्तं चेति विग्रहा, उदकमिति विशेषणान्यथानुपपत्त्या गम्यते, तगोजित्वं-मिश्रसचि- ॥११७॥ त्तोदकभोजित्वम् इत्यर्थः, इदं चानाचरितम् ३०, तथा 'आतुरस्मरणानि च' क्षुधाद्यातुराणां पूर्वोपभुक्तस्म %A4%ACCHAR T rmbanyang ~ 237~ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा ||१-१०|| नियुक्ति: [२१४...], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१-१०|| दीप अनुक्रम [१७-२६] रणानि च अनाचरितानि, आतुरशरणानि वा-दोषातुराश्रयदानानि ३१, इति सूत्रार्थः॥६॥ किंच-मूलए'त्ति सूत्रम् , अस्य व्याख्या-मूलको लोकप्रतीतः, 'शृङ्गवेरं च आर्द्रकम् च तथा 'इक्षुखण्डं च लोकप्रतीतम् , अनिर्वृतग्रहणं सर्वत्राभिसंबध्यते, अनिर्घतम्-अपरिणतमनाचरितमिति, इक्षुखर्ड चापरिणतं द्विपर्वान्तं | यद्वर्तते ३२-३३-३४, तथा 'कन्दो' बज्रकन्दादिः ३५, 'मूलं च सद्दामूलादि, सचित्तमनाचरितम् ३६, तथा| | फलं' अपुष्यादि ३७. 'बीजं च तिलादि ३८, 'आमक' सचित्तमनाचरितमिति सूत्रार्थः॥७॥ किंचा -'सोचञ्चले'त्ति सूत्रम् , अस्य व्याख्या-सौवर्चलं ३९, सैन्धवं ४०, 'लवणं च' सांभरिलवणं ४१, रुमालवणं ६च ४२, आमकमिति सचित्तमनाचरितम् , सामुद्र-समुद्रलवणमेव ४३, 'पांशुक्षारच' ऊषरलवणं ४४, 'कृष्ण-18 लवणं च सैन्धवलवणपर्वतैकदेशजम् ४५, आमकमनाचरितमिति सूत्रार्थः ॥ ८ ॥ किंच-'धूवणे'त्ति सूत्रम्, अस्य व्याख्या-धूपनमित्यात्मवत्रादेरनाचरितम्, प्राकृतशेल्या अनागतब्याधिनिवृत्तये धमपान-IN ४|मित्यन्ये व्याचक्षते ४६, वमनं मदनफलादिना ४७, वस्तिकर्म पुटकेनाधिष्ठाने स्नेहदानं ४८, विरेचनं द-13 न्यादिना ४९, तथा अञ्जनं रसाञ्जनादिना ५०, दन्तकाष्ठं च प्रतीतं ५१, तथा गात्राभ्यङ्गस्तैलादिना ५२, विभूषणं गात्राणामेव ५३, इति सूत्रार्थः॥९॥ क्रियासूत्रमाह-सबमेयं ति सूत्रम्, अस्य व्याख्या-सर्व६|मेतद्-औद्देशिकादि यदनन्तरमुक्तमिदमनाचरितं, केषामित्याह-निर्ग्रन्धानां महर्षीणां साधूनामित्यर्थः, त8 एव विशेष्यन्ते-संयमे, चशब्दात्तपसि, युक्तानाम्-अभियुक्तानां 'लघुभूतविहारिणां लघुभूतो-चायुः, त ~238~ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं -1 / गाथा ||११-१५|| नियुक्ति: [२१४...], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत दशवैका. हारि-वृत्तिः क्षुल्लिकाचारकथा. साधुस्वरूपं सूत्रांक -१५|| तश्च वायुभूतोऽप्रतिबद्धतया विहारो येषां ते लघुभूतविहारिणस्तेषां, निगमनक्रियापदमेतदिति सूत्रार्थः ॥१०॥ किमित्यनाचरितं ?, यतस्त एवंभूता भवन्तीत्याह पंचासवपरिषणाया, तिगुत्ता छसु संजया । पंचनिग्गहणा धीरा, निग्गंथा उज्जुदंसिणो ॥ ११॥ आयावयंति गिम्हेसु, हेमंतेसु अवाउडा । वासासु पडिसंलीणा, सं. जया सुसमाहिया ॥ १२॥ परीसहरिऊदंता, धूअमोहा जिइंदिया। सव्वदुक्खप्पहीणट्रा, पक्कमंति महेसिणो ॥ १३ ॥ दुक्कराई करित्ताणं, दुस्सहाई सहेत्तु य । केइस्थ देवलोएसु, केइ सिज्झंति नीरया ॥ १४ ॥ खवित्ता पुव्वकम्माई, संजमेण तवेण य । सिद्धिमग्गमणुप्पत्ता, ताइणो परिणिव्वुड ॥१५॥ त्ति बेमि। गाथा पं०३१॥इइ खुड्डि यायारकहज्झयणं तइयं ॥३॥ 'पञ्चाश्रवा' हिंसादयः 'परिज्ञाता द्विविधया परिज्ञया-ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परि-समन्ताज्ज्ञाता यैस्ते पश्चाश्रवपरिज्ञाताः, आहितान्यादेराकृतिगणत्वान्न निष्ठायाः पूर्वनिपात इति समासो युक्त एव, परिज्ञातपशाश्रवा इति वा, यत एव चैर्वभूता अत एव 'त्रिगुप्ता' मनोवाक्कायगुप्तिभिः गुप्ता । 'षट्सु संयता दीप अनुक्रम [२७-३१] ला॥११८॥ अथ साधुत्व-स्वरुपस्य कथनं क्रियते ~239~ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||११-१५|| नियुक्ति: [२१४...], भाष्यं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक जन्म -१५|| षट्सु जीवनिकायेषु पृथिव्यादिषु सामस्त्येन यताः, 'पञ्चनिग्रहणा' इति निगृह्णन्तीति निग्रहणाः कर्तरिम ल्युट् पश्चानां निग्रहणाः पश्चनिग्रहणाः, पश्चानामितीन्द्रियाणां, 'धीरा' बुद्धिमन्तः स्थिरावा, 'निर्ग्रन्थाः' साधवा, 'ऋजुदर्शिन' इति ऋजुर्मोक्षं प्रति ऋजुत्वात्संयमस्तं पश्यन्त्युपादेयतयेति ऋजुदर्शिनः-संयमप्रतिबद्धाः इति सूत्रार्थः ॥११॥तेच ऋजुदर्शिनः कालमधिकृत्य यथाशक्तयेतत्कुर्वन्ति-'आयावयंति'त्ति सूत्रम् , अस्य व्याख्या-'आतापयन्ति-ऊर्ध्वस्थानादिना आतापनां कुर्वन्ति 'ग्रीष्मेषु' उष्णकालेषु, तथा हेमन्तेषु' शीतकालेषु 'अमावृता' इति प्रावरणरहितास्तिष्ठन्ति, तथा 'वर्षासु' वर्षाकालेषु 'संलीना' इत्येकाश्रयस्था भवन्ति 'संयता' साधवः 'सुसमाहिता' ज्ञानादिषु यत्नपराः, ग्रीष्मादिषु बहुवचनं प्रतिवर्षकरणज्ञापनार्थमिति सूत्रार्थः ।। १२॥ 'परीसह सि सूत्रम् , अस्य व्याख्या-मार्गाच्यवननिर्जराथ परिषोढव्याः परीषहा:-क्षुत्पिपासादयात एव रिपवस्तत्तुल्यधर्मस्वात्परीषहरिपवस्ते दान्ता-उपशमं नीता यैस्ते परीषहरिपुदान्ताः, समासः पूर्ववत्, न प्राकृते पूर्वापरपदनियमव्यवस्था 'नाणविमलजोहाग मिति यथा, तथा 'धुतमोहा' विक्षिप्तमोहा इत्यर्थः, मोह-अज्ञानं, तथा 'जितेन्द्रियाः शब्दादिषु रागद्वेषरहिता इत्यर्थः, त एवंभूताः 'स-13 बदुःखप्रक्षयाथै शारीरमानसाशेषदुःखप्रक्षयनिमित्तं 'प्रक्रामन्ति' प्रवर्तन्ते, किंभूताः ?-'महर्षयः' साधव इति सूत्रार्थः॥ १३ ॥ इदानीमेतेषां फलमाह-दुक्कराईति सूत्रम्, अस्य व्याख्या-एवं दुष्कराणि कृत्वौद्देशिकादित्यागादीनि तथा दुःसहानि सहित्त्वाऽऽतापनादीनि केचन तन्त्र 'देवलोकेषु' सौधर्मादिषु, गच्छन्तीति ल दीप अनुक्रम [२७-३१] ~240~ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||११ -१५|| दीप अनुक्रम [२७-३१] दशका हारि-वृत्तिः ॥ ११९ ॥ Ja Education “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [३], उद्देशक [ - ], मूलं [-] / गाथा ||११- १५ || निर्युक्तिः [ २१४...], भाष्यं [४...] आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित वाक्यशेषः । तथा केचन सिद्ध्यन्ति तेनैव भवेन सिद्धिं प्राप्नुवन्ति । वर्तमाननिर्देशः सूत्रस्य त्रिकालविघयत्वज्ञापनार्थः । 'नीरजस्का' इत्यष्टविधकर्मविप्रमुक्ताः, न त्वेकेन्द्रिया इव कर्मयुक्ता एवेति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ येऽपि चैवंविधानुष्ठानतो देवलोकेषु गच्छन्ति तेऽपि ततयुता आर्यदेशेषु सुकुले जन्मावाप्य शीघ्रं सिड्यन्त्येतदाह - 'खवित्त 'ति सूत्रम्, अस्य व्याख्या- ते देवलोकच्युताः क्षपयित्वा पूर्वकर्माणि सावशेषाणि, केनेत्याह- 'संयमेन' उक्तलक्षणेन तपसा च एवं प्रवाहेण सिद्धिमार्ग' सम्यग्दर्शनादिलक्षणमनुप्राप्ताः सन्तखातार आत्मादीनां 'परिनिर्वान्ति' सर्वथा सिद्धिं प्राप्नुवन्ति, अन्ये तु पठन्ति - 'परिनिव्वुड त्ति, तत्रापि प्राकृत शैल्या छान्दसत्वाचायमेव पाठो ज्यायान् इति ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः । उक्तोऽनुगमः, साम्प्रतं नयाः, ते च पूर्ववद्रष्टव्याः । इति व्याख्यातं क्षुल्लकाचारकथाध्ययनम् ॥ ३ ॥ इति श्रीदशवेकालिके हरिभद्रसूरिकृतटीकायां तृतीयमध्ययनम् ॥ ३ ॥ For ane & Personal Use Cily अध्ययनं 3- परिसमाप्तं ~ 241~ ३ धुलिका चारकथा० साधुखरूपं ॥ ११९ ॥ brary dig Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२१५], भाष्यं [५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप ॥ अथ चतुर्थाध्ययनम् ॥ सुअं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं इह खलु छज्जीवणियानामज्झयणं सभणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया सुअक्खाया सुपन्नत्ता सेअं मे अहिजिउं अज्झ यणं धम्मपन्नत्ती॥ (सू०१) व्याख्यातं क्षुल्लिकाचारकथाध्ययनमिदानी षड्जीवनिकायाख्यमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः-इहानन्तराध्ययने 'साधुना धृतिराचारे कार्या न त्वनाचारे, अयमेव चात्मसंयमोपाय' इत्युक्तम्, इह पुनः स आचारः षड्जीवनिकायगोचरःप्राय इत्येतदुच्यते, उक्तं च-"छसु जीवनिकाएसु, जे बुहे संजए सया। से चेव होइ विण्णेए, परमत्थेण संजए ॥१॥” इत्यनेनाभिसंबन्धेनायातमिदमध्ययनम्, आह च भाष्यकार: जीवाहारो भण्णइ आयारो तेणिमं तु आयावं । छज्जीवणियज्झयणं तस्सऽहिगारा इमे होति ।। भाष्यम् ।। २१५ ।। व्याख्या-जीवाधारो भण्यत आचारः, तत्परिज्ञानपालनद्वारेणेति भावः, येनैतदेवं तेनेदम् 'आयातम्' १ षट्स जीवनिकायेषु यो बुधः रोयतः सदा । स एल भवति विशेवः परमार्थेन संपतः ॥ १॥ अनुक्रम [३२] अध्ययनं -४- "षड्जीवनिकाय" आरभ्यते ~ 242~ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२१५], भाष्यं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप दशवैका अवसरप्राप्त, किं तदित्याह-पडूजीवनिकाध्ययनम् , अत्रान्तरे अनुयोगद्वारोपन्यासावसरः, तथा चाहहारि-वृत्तिः तस्य' षड्जीवनिकाध्ययनस्यार्थाधिकाराः 'एते भवन्ति' वक्ष्यमाणलक्षणा इति गाथार्थः॥ तानाह निकाया० जीवाजीवाहिगमो परित्तधम्मो तहेव जयणा य । उबएसो धम्मफलं छजीवणियाइ अहिगारा ॥ २१६ ॥ ॥१२॥ एकपट्योव्याख्या-जीवाजीवाभिगमों' जीवाजीवखरूपमभिगम्यतेऽस्मिन्नित्यभिगम इतिकृस्खा, खरूपे च सत्यभि-निपाः गम्यत इति भावः, तथा 'चारित्रधर्म:' प्राणातिपातादिनिवृत्तिरूपः, तथैव 'यतना च' पृथिव्यादिष्वारम्भपरिहारयत्नरूपा, तथा 'उपदेशः' यथाऽऽत्मा न बध्यत इत्यादिविषयः, तथा धर्मफलम्' अनुत्तरज्ञानादि, एते षड्जीवनिकाया अधिकारा इति गाथा । अत्रान्तरे गत उपक्रमः, निक्षेपमधिकृत्याह छजीवणियाए खलु निक्खेवो होइ नामनिफनो । एएसि तिण्हपि उ पत्तेयपरूवणं वोच्छ । २१७ ॥ मा व्याख्या-'षड्जीवनिकायाया' प्रक्रान्तायाः खल्विति पूरणार्थों निपातः, निक्षेपो भवति नामनिष्पन्नः षड्जीवनिकायिकेत्ययमेव, यतश्चैवमत एतेषां 'त्रयाणामपि षड्जीवनिकायपदानां 'प्रत्येक मिति एकमेकं| प्रति प्ररूपणां सूत्रानुसारेण 'वक्ष्ये अभिधास्य इति गाथार्थः ॥ तत्रैकस्याभावे षण्णामभाव इत्येकररूपणामाहणाम ठवणा दविए मालगपवसंगहेकर चेव । पञवभावे य तहा सत्तेए एकगा होति ।। २१८॥ ॥१२०॥ नाम ठवणा दबिए खेते काले तहेब भाचे अ । एसो उ छकगस्सा निक्खेवो छठिवहो होइ ॥ २१९ ॥ अनुक्रम [३२] षड् जीवनिकायं स्वरुपम् प्रकाश्यते ~ 243~ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [३२] दश. २१ Ja Education “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [४], उद्देशक [-] मूलं [१] / गाथा ||१५...|| निर्युक्ति: [ २१९], भाष्यं [५...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः व्याख्या - इयं द्रुमपुष्पिकायां व्याख्यातेति नेह व्याख्यायते, संग्रहककेन चात्राधिकारः ॥ साम्प्रतं द्वयादीन् विहाय षट्प्ररूपणामाह-तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यषटुं षड् द्रव्याणि सचिताचित्तमिश्राणि पुरुषकार्षापणालङ्कृतपुरुषलक्षणानि, क्षेत्रप-पडाकाशप्रदेशाः यद्वा भरतादीनि कालष- षट् समयाः षड् ऋतवः, तथैव 'भावे चे'ति भावषद्धं षड् भावा औदयिकादयः, अत्र च सचित्तद्रव्यषटेनाधिकार इति गाथार्थः ॥ आह-अत्र द्वयायनभिधानं किमर्थम् ?, उच्यते, एकषडभिधानतः आयन्तग्रहणेन तद्वतेरिति । व्याख्यातं षट्पदम् अधुना जीवपदमाह - atara उ निक्लेव परूवणा लक्खणं च अत्थितं । अन्नामुत्तत्तं निचकारगो देवावित्तं ॥ २२० ॥ गुणिउडगइते या निम्मयसाफलता य परिमाणे जीवस्स तिविहकालम्मि परिक्खा होइ कायव्या ।। २२१ ।। दो दारगाहाओ ।। एतद्वारगाथाद्वयम् अस्य व्याख्या- जीवस्य तु 'निक्षेपो' नामादि:, 'प्ररूपणा' द्विविधाश्च भवन्ति जीवा इत्या दिरूपा लक्षणं च आदानादि 'अस्तित्वं' सत्त्वं शुद्धपदवाच्यत्वादिना 'अन्यत्वं' देहात् 'अमूर्तत्वं' स्वतः 'नित्यत्वं' विकारानुपलम्भेन 'कर्तृत्वं' स्वकर्मफलभोगात् 'देहव्यापित्वं' तत्रैव तलिङ्गोपलब्ध्या 'गुणित्वं' योगादिना 'ऊर्ध्वगतित्वम्' अगुरुलघुभावेन 'निर्मा ( मैं ) यता' विकाररहितत्वेन, सफलता-च कर्मण: 'परिमाणं' लोकाकाशमात्र इत्यादि ( ग्रन्थानं ३०००) एवं जीवस्य 'त्रिविधकाल' इति त्रिकालविषया परीक्षा भ वति कर्तव्या इति द्वारगाधाद्वयसमासार्थः ॥ व्यासार्थस्तु भाष्यादवसेयः तथा च निक्षेपमाह Forane & Personal Use City ~ 244~ by dig Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२२], भाष्यं [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप दशवैका० नामंठवणाजीवो दव्वजीवो य भावजीवो य । ओह भवग्गहणमि य तब्भवजीवे व भावम्मि ॥ २२२ ॥ ४ षड्जीवहारि-वृत्तिः | व्याख्या-नामस्थापनाजीव' इति जीवशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, नामजीवः स्थापनाजीव इति, तथा निकाध्य. द्रव्यजीवश्च 'भावजीवश्च वक्ष्यमाणलक्षणः, तत्र 'ओघ' इति ओघजीवः, 'भवग्रहणे चेति भवजीवः, 'तद्भ- जीवसिद्धिः वजीवश्च तद्भव एवोत्पन्न:, 'भावें भावजीव इति गाथासमासार्थः ॥ ब्यासार्थ त्वाहका नामंठवण गयाओ पव्वे गुणपजवेहि रहिउत्ति । तिविहो य होइ भावे ओहे भव तब्भवे पेव ॥ ६॥ भाष्यम् ॥ व्याख्या-नामस्थापने गते, क्षुण्णत्वादिति भावः, 'द्रव्य' इति द्रव्यजीवो 'गुणपर्यापाभ्यां चैतन्यमनुष्यत्वा18दिलक्षणाभ्यां रहितः, बुद्धिपरिकल्पितो, न त्वसावित्थंविधः संभवतीति, विविधश्च भवति भाव इति, भावदाजीववैविध्यमाह-ओघजीवो भवजीवस्तद्भवजीवश्चेति, प्राग्गाधोक्तमप्येतदित्थंविधभाष्यकारशैलीप्रामाण्यतो दुष्टमेवेति । अन्ये तु पठन्ति-भावे उ तिहा भणिओ, तं पुण संखेवओ बोच्छं' 'भाव' इति भावजीवः, KI'निधेति त्रिप्रकारो भणितो' नियुक्तिकारेण ओघजीवादिः, तमपि च भावार्थमधिकृत्य संक्षेपतो वक्ष्य इति || गाथार्थः। तत्रौघजीवमाहसंते आउयकम्मे धरई तस्सेच जीवई उदए । तस्सेव निजराए मओ ति सिद्धो नयमएणं ।। ७ ॥ भाष्यम् ॥ ॥१२१॥ व्याख्या-'सति' विद्यमान आयुष्कर्मणि सामान्यरूपे भियते सामान्येनैव तिष्ठति भवोदधौ, कथमित्थम-15 वस्थानमात्राजीवत्वमस्येत्याशङ्कयात्रैवान्वर्थयोजनामाह-तस्यैव' ओघायुष्ककर्मणो 'जीवत्युदयें उदये सति अनुक्रम [३२] 'जीव' शब्दस्य नामादि निक्षेपा: कथयते ~245~ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [३२] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [४], उद्देशक [ - ], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| निर्युक्तिः [२२२...], भाष्यं [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः जीवत्यासंसारं प्राणान् धारयति, अतो जीवनाज्जीव इति, तस्यैवौघायुष्ककर्मणो 'निर्जरया' क्षयेण, मृत इति, सर्वथा जीवनाभावात्, स च सिद्धो मृतो, नान्यः, विग्रहगतावपि तथाजीवनसद्भावात्, 'नयमतेने' ति सर्वनयमतेनैव मृत इति गांधार्थः । उक्त ओघजीवितविशिष्ट ओघजीवः, साम्प्रतं भवजीवं तद्भवजीवं चाह— जेण य धरइ भवगओ जीवो जेण य भवाउ संकनई। जाणाहि तं भवाउं चउब्विहं तव्भवे दुविहं ॥ ८ ॥ भाष्यम् || निक्लेवोत्ति गयं ॥ व्याख्या- 'येन चं' नारकायायुष्केण 'प्रियते' तिष्ठति 'भवगतो' नारकादिभवस्थितो जीवः, तथा 'येन च' मनुष्यायायुष्केण 'भवात्' नारकादिलक्षणात् 'संक्रामति' याति, मनुष्यादिभवान्तरमिति सामर्थ्याद्गम्यते, 'जानीहि' विद्धि, तदित्थंभूतं 'भवायु' भवजीवितं चतुर्विधं नारकतिर्यमनुष्यामरभेदेन, तथा 'तद्भवे' तद्भवविषयम्, आयुरिति वर्तते तच द्विविधं तिर्यकतद्भवायुर्मनुष्यतद्भवायुश्च यस्मात्तावेव सृती सन्तौ भूयस्तस्मिन्नेव भव उत्पद्येते, नान्ये, तद्भवजीवितं च तस्मान्मृतस्य तस्मिन्नेवोत्पन्नस्य यत्तदुच्यत इति । अत्रापि च भावजीवाधिकारात्तद्भवजीवितविशिष्टश्च जीव एव ग्राह्यः जीवितं तु तद्विशेषणत्वादुक्तमिति गाथार्थः ॥ उक्तो निक्षेपः, इदानीं प्ररूपणामाह- दुविधा यहुंति जीवा सुहुमा तह बायरा य लोगम्मि | सुडुमा य सव्वलोए दो चेत्र य बायरविहाणे ॥ ९ ॥ भाष्यम् ॥ १ अत्र 'जीवत्यनेनेति जीव ओषेन सामान्येन जीव ओमजीवितविशिष्ठ जीवः, मध्यमपदोत्तरपदलोपाद इथं भवति' इत्यधिकं केषुचिदादर्शेषु. For ane & Personal Use City ~246~ brary dig Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति : [२२२...], भाष्यं [९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत दशबैका० सूत्रांक ॥ १२२॥ दीप अनुक्रम व्याख्या-द्विविधाश्च द्विप्रकाराश्च, चशब्दान्नवविधाश्च पृथिव्यादिद्वीन्द्रियादिभेदेन भवन्ति जीवाः, द्वैवि-1 पड़जीवध्यमाह-सूक्ष्मास्तथा बादराश्न, तत्र सूक्ष्मनामकर्मोदयात्सूक्ष्मा बादरनामकर्मोदयाच बादरा इति, 'लोकनिकाध्य इति लोकग्रहणमलोके जीवभवनव्यवच्छेदार्थ, तत्र सूक्ष्माश्च सर्वलोक इति, चशब्दस्यावधारणार्थत्वात्सूक्ष्मा || जीवसिद्धिः एव सर्वलोकेषु, न बादरा, कचित्तेषामसंभवात्,'द्वे एव च पर्याप्तकापर्याप्तकलक्षणे 'बादरविधाने बादरविधी, पशब्दात्सूक्ष्मविधाने च, तेषामपि पर्याप्तकापर्याप्तकरूपत्वादिति गाथार्थः । एतदेव स्पष्टयन्नाह सुहुमा य सबलोए परियावन्ना भवंति नायब्वा ।दो चेव बायराणं पजत्तियरे अ नायव्वा ॥ १०॥भाष्यम् ।। परूवणादार गयं ति॥ व्याख्या-सूक्ष्मा एव पृथिव्यादयः 'सर्वलोके चतुर्दशरज्वात्मके 'पर्यायापन्ना भवन्ति ज्ञातव्याः' 'पर्या&ायापन्ना' इति तमेव सूक्ष्मपयोयमापन्नाः भावसूक्ष्मा न तु भूतभाविनो द्रव्यसूक्ष्मा इति भावः । तथा द्वौ भेदी नाबादराणां पृथिव्यादीनां, चशब्दात् सूक्ष्माणां च, 'पर्याप्तकेतरी ज्ञातव्यो' पर्याप्तकापर्याप्तकाविति गाथार्थः ।। | उक्ता प्ररूपणा, अधुना लक्षणमुच्यते, तथा चाह भाष्यकार: लक्खणमियाणि दारं चिंध हेऊ अ कारणं लिंगं । लक्खणमिइ जीयस्स उ आयाणाई इमं तं च ॥ ११ ॥ भाष्यम् ॥ व्याख्या-लक्षणमिदानी द्वारमवसरमाप्तम्, अस्य च प्रतिपत्त्यतया प्रधानत्वात्सामान्यतस्तावत्तत्स्वरूप|| मेवाह-चिह्न हेतुश्च कारणं लिङ्ग लक्षणमिति । तत्र चिहम्-उपलक्षणं, यथा पताका देवकुलस्य, हेतु:-नि-II सा॥१२२ मित्तलक्षणं यथा कुम्भकारनैपुण्यं घटसौन्दर्यस्य, कारणम्-उपादानलक्षणं, यथा मृन्ममृणत्वं घटवलीय [३२] ~ 247~ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [३२] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) अध्ययनं [४], उद्देशक [ - ], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| निर्युक्ति: [ २२३ ], भाष्यं [११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [४२] मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः स्त्वस्य, लिंग-कार्यलक्षणं यथा धूमोऽग्नेः पर्यायशब्दा वा एत इति । लक्षणमित्येतल्लक्षणं लक्ष्यतेऽनेन परोक्षं वस्त्वितिकृत्वा, जीवस्य पुनरादानादि लक्षणमनेकप्रकारमिदं तच्च वक्ष्यमाणमिति गाथार्थः ॥ आयाणे परिभोगे जोगुवओोगे कसायलेसा य । आणापाणू इंदिय बंधोदयनिजरा चैव ।। २२३ ।। चित्तं चेयण सन्ना विनाणं धारणा य बुद्धी अ । ईहामईवियका जीवरस द लक्खणा एए ॥ २२४ ॥ दारं || व्याख्या - एतत्प्रतिद्वारगाथाद्वयम् अस्य व्याख्या-आदानं परिभोगस्तथा योगोपयोगी कषायलेश्याश्च तथाऽऽनापानी इन्द्रियाणि बन्धोदयनिर्जराश्चैव तथा चिसं चेतना संज्ञा विज्ञानं धारणा च बुद्धिश्व तथा ईहामतिवितर्का जीवस्य तु लक्षणान्येतानि तुशब्दस्यावधारणार्थत्वाज्जीवस्यैव नाजीवस्य इति प्रतिद्वारगाथाद्वयसमासार्थः ॥ व्यासार्थस्तु भाष्यादवसेयः, तच्चेदम् लक्खइति न पञ्चक्खियरो व जेण जो अस्थो । तं तस्स लक्खणं खलु धूमुण्हाइ व्व अग्गिस्स ॥ १२ ॥ भाष्यम् ॥ व्याख्या - लक्ष्यत इति ज्ञायते कोऽसावित्याह- 'प्रत्यक्ष:' अक्षगोचरापन्नः 'इतरो वा' परोक्षः 'येन' उष्णत्वादिना 'योऽर्थः ' अभ्यादिस्तत्तस्य लक्षणं खल्विति, तदेव स्पष्टयति-धूमौष्ण्यादिवदनेरिति, स यौष्ण्येन प्रत्यक्षो लक्ष्यते, परोक्षो धूमेनेति गाथार्थः ॥ तत्रादानादीनां दृष्टान्तानाह अयगार क्रूर परसू अग्गि सुबण्णे अ खीरनरवासी आहारो दिहुंता आयाणाईण जहसंखं ॥ १३ ॥ भाष्यम् ।। व्याख्या - अयस्कारः करस्तथा परशुरग्निः सुवर्ण क्षीरनरवास्यः तथा आहारो दृष्टान्ता 'आदानादीनां' For ane & Personal Use Oily ~248~ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [३२] दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ १२३ ॥ “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [४], उद्देशक [-] मूलं [१] / गाथा ||१५...|| निर्युक्तिः [२२४...], भाष्यं [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः प्रक्रान्तानां यथासंख्यं, प्रतिज्ञाद्युल्लङ्घनेन चैतदभिधानं परोक्षार्थप्रतिपत्तिं प्रति प्रायः प्रधानाङ्गताख्यापनार्थ|मिति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं प्रयोगानाह देहिंदियाइरितो आया खलु गझगाहगपओगा । संडासा अवपिंडो अययाराइन् विन्नेओ ॥ १४ ॥ भाष्यम् ॥ व्याख्या - देहेन्द्रियातिरिक्त आत्मा, खलुशब्दो विशेषणार्थः, कथंचित्, न सर्वथाऽतिरिक्त एव तदसंबेदनादिप्रसङ्गादिति, अनेन प्रतिज्ञार्थमाह, प्रतिज्ञा पुनः- अर्थेन्द्रियाणि आदेयादानानि विद्यमानादातृकाणि, कुत इत्याह-ग्राह्यग्राहकप्रयोगात्, ग्राह्या रूपादयः ग्राहकाणि-इन्द्रियाणि तेषां प्रयोगः-खफलसाधनव्यापारस्तस्मात् न शमीषां कर्मकरणभावः कर्तारमन्तरेण खकार्यसाधनप्रयोगः संभवति, अनेनापि हेत्वर्थमाह, हेतु| श्रादेयादानरूपत्वादिति । दृष्टान्तमाह-संदेशाद् आदानात् अयस्पिण्डावू आदेयात् 'अयस्कारादिवत्' लोहकारवद्विज्ञेयः अतिरिक्तो विद्यमान आदातेत्यनेनापि दृष्टान्तार्थमाह, दृष्टान्तस्तु संदेश कायस्पिण्डवत्, यस्तु तद्नतिरिक्तः न ततो ग्राह्यग्राहकप्रयोगः, यथा देहादिभ्य एवेति व्यतिरेकार्थः, व्यतिरेकस्तु यानि विद्यमानादातृकाणि न भवन्ति तान्यादानादेयरूपाण्यपि न भवन्ति, यथा मृतकद्रव्येन्द्रियादीनीति गाथार्थः ॥ उक्तमादानद्वारम् अधुना परिभोगद्वारमाह देहो सभोतिओ खलु भोजन्त्ता ओयणाइथालं व अन्नप्पउत्तिगा खलु जोगा परसुब्ब करणत्ता ॥ १५ ॥ भाष्यम् ॥ व्याख्या- देहः सभोक्तृकः खल्विति प्रतिज्ञा, भोग्यत्वादिति हेतु:, ओदनादिस्थालयत्- स्थालस्थितौदनव For ane & Personal Use City ~ 249~ | ४ षड्जीवनिकाध्य० जीवसिद्धिः | ।। १२३ ।। brary dig Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२४...], भाष्यं [१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक SROSREALACE [१] दीप दिति दृष्टान्तः, भोग्यत्वं च देहस्य जीवेन तथा निवसतोपभुज्यमानस्वादिति । उक्तं परिभोगद्वारम्, अधुना योगद्वारमाह-अन्यप्रयोक्तृकाः खलु योगाः, योगाः-साधनानि मनःप्रभृतीनि करणानीति प्रतिज्ञार्थः, करणवादिति हेतुः, परशुचदिति दृष्टान्तः । भवति च विशेषे पक्षीकृते सामान्य हेतुः-यथा अनित्यो वर्णात्मकः शब्दः, शब्दत्वात्, मेघशब्दवदिति गाथार्थः ॥ उक्तं योगद्वारं, साम्प्रतमुपयोगद्वारमाह वोगा नाभावो अग्गिब्व सलक्खणापरिचागा । सकसाया णाभावो पजयगमणा सुघण्णं व ॥ १६ ।। भाष्यम् ।। । व्याख्या-'उपयोगात्' साकारानाकारभेदभिन्नान्नाभावो, जीव इति गम्यते, कुत इत्याह-खलक्षणापरि-12 त्यागाद्' उपयोगलक्षणासाधारणात्मीयलक्षणापरित्यागात्, अग्निवद्, यथाऽग्निरौष्ण्यादिखलक्षणापरित्या-15 गानाभावः तथा जीवोऽपीति प्रयोगार्थः, प्रयोगस्तु-सन्नात्मा, स्वलक्षणापरित्यागाद्, अग्निवदिति । उक्तमु|पयोगद्वारम्, अधुना कषायद्वारमाह-सकषायस्वादू-अचेतनविलक्षणक्रोधादिपरिणामोपेतत्त्वादित्यर्थः, नाभावो जीवा, कुत इत्याह-पर्यायगमनात्-क्रोधमानादिपर्यायप्राप्ते, सुवर्णवत्, कटकादिपर्यायगमनोपेतसुवर्णवदिति प्रयोगाथें, प्रयोगस्तु-सन्नात्मा, पर्यायगमनात्, सुवर्णवदिति गाथार्थः ॥ उक्तं कषायद्वारम्, इदानीं लेश्याद्वारमाह लेसाओ णाभावो परिणमणसभाबओ य खीरं व । उस्सासा णाभावो समसभावा खउ व्व नरो॥ १७ ॥ भाष्यम् ।। व्याख्या-लेण्यातो' लेश्यासद्भावेन नाभावो जीवः, किंतु भाव इति, कुत इत्याह-परिणमनखभावत्वात् अनुक्रम [३२] ~250~ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२४...], भाष्यं [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत निकाध्य सूत्रांक ॥१२४॥ दीप अनुक्रम [३२] दशवैका०|-कृष्णादिद्रव्यसाचिव्येन जम्बूखादकादिदृष्टान्तसिद्धतथाविधपरिणामधर्मस्वात्, क्षीरवदिति प्रयोगार्थः, का पड्जीवहारि-वृत्तिः प्रयोगस्तु-सन्नात्मा, परिणामित्वात् , क्षीरवदिति । गतं लेण्याद्वारम्, प्राणापानद्वारमाह-पुच्छ्रासादिति, अ-| चेतनधर्मविलक्षणप्राणापानसद्भावानाभावो जीवः, किंतु भाव एवेति, श्रमसद्भावेन परिस्पन्दोपेतपुरुषवदिति जीवसिद्धि प्रयोगार्थः, प्रयोगस्तु पुनरब व्यतिरेकी द्रष्टव्यः, सात्मकं जीवच्छरीरं, प्राणादिमत्वादू, यत्तु सात्मकं न भवति तत्प्राणादिमदपि न भवति, यथाऽऽकाशमिति गाथार्थः ॥ उक्तं प्राणापानद्वारम्, अधुना इन्द्रियद्वारमुच्यते___ अक्खाणेयाणि परस्थगाणि वासाइवेह करणत्ता । गहवेयगनिजरओ कम्मस्सऽनो जहाहारो ।। १८ ।। भाष्यम् ।। व्याख्या-'अक्षाणि' इन्द्रियाणि 'एतानीति लोकप्रसिद्धानि देहाश्रयाणि 'परार्थानि' आत्मप्रयोजनानि, वास्यादिवदिह करणत्वात् इहलोके वास्यादिवदिति प्रयोगार्थः । आह-आदानान्येवेन्द्रियाणि तत् किमर्थं भेदोपन्यासः?, उच्यते, निवृत्युपकरणद्वारेण द्वैविध्यख्यापनार्थ, ततश्च तत्रोपकरणस्य ग्रहणमिह त नियंत्ते-12 रिति, प्रयोगस्तु-परार्थाश्चक्षुरादयः, संघातत्वात्, शयनासनादिवत् , न चायं विशेषविरुद्धः, कर्मसंवद्धस्यात्मनः संघातरूपत्वाभ्युपगमात् । गतमिन्द्रियद्वारम् , अधुना बन्धादिद्वाराण्याह-ग्रहणवेदकनिर्जरकः कर्मणो|न्यो, यथाऽऽहार इति,तत्र ग्रहणं-कर्मणो बन्धः वेदनम्-उदयः निर्जरा-क्षयः, यधाऽऽहारे इति-आहारविषयाणि १२४॥ ग्रहणादीनि न कळदिव्यतिरेकेण तथा कर्मणोऽपीति प्रयोगार्थः, प्रयोगस्तु-विद्यमानभोक्तृकमिदं कर्म, ग्रह 496 %-15 ~ 251~ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२४...], भाष्यं [१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप गणवेदननिर्जरणसद्भावाद, आहारवदिति गाथार्थः ॥ उक्तानि बन्धादिद्वाराणि, व्याख्याता च प्रथमा प्रतिद्वा४ रगाथा, साम्प्रतं द्वितीयामधिकृत्य चित्तादिखरूपव्याचिख्यासयाऽऽह चित्तं तिकालविसयं चेयण पक्षक्ख सन्नमणुसरणं । विण्णाणऽणेगभेयं कालमसंखेयर धरणा ॥ १९ ॥ भाध्यम ।। व्याख्या-चितं त्रिकालविषयम्-ओघतोऽतीतानागतवर्तमानग्राहि, चेतनं चेतना-सा प्रत्यक्षवर्तमानार्थग्राहिणी, संज्ञानं संज्ञा-सा अनुस्मरणमिदं तदिति ज्ञानं, विविधं ज्ञानं विज्ञानम् अनेकभेदम्-अनेकप्रकारम् , अनेकर्मिणि वस्तुनि तथा तथाऽध्यवसाय इत्यर्थः, 'कालमसंख्येयेतरम्' असंख्येयं संख्येयं वा, धारणाअविच्युतिस्मृतिवासनारूपा, तत्र वासनारूपा असंख्येयवर्षायुषामसंख्येयं संख्येयवर्षायुषां च संख्येयमिति | गाथार्थः ॥ अस्थस्स ऊह बुद्धी ईहा चेट्टत्थअवगमो उ मई । संभावणस्थतका गुणपञ्चक्खा घडोव्वऽस्थि ॥ २० ॥ भाष्यम् ।। व्याख्या-अर्थस्योहा बुद्धिः संशिनः परनिरपेक्षोऽर्धपरिच्छेद इति भावः, ईहा-चेष्टा किमयं स्थाणुः। किंवा पुरुष ? इति सदर्थपर्यालोचनरूपा, 'अर्थावगमस्तु' अर्थपरिच्छेदस्तु शिरकण्डूयनादिधर्मोपपत्तेः पुरुष एवायमित्येवंरूपा मतिः, 'संभावणत्थतकत्ति प्राकृतशैल्या अर्थसंभावना-एवमेव चायमर्थे उपपद्यत इत्यादिरूपा तर्का। इत्थं द्वाराणि व्याख्याय सर्व एते चित्तादयो गुणा वर्तन्त इति जीवाख्यगुणिप्रतिपादकेन प्रयोगार्थेनोपसंहरनाह-गुणप्रत्यक्षत्वाद्धेतीर्घटवदस्ति जीव इति गम्यते, एप गाथार्थः । एतदेव स्पष्टयति अनुक्रम [३२] SSCGESSAGAROSAROK SEARSAWAR**** ~252~ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२४...], भाष्यं [२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप दशवैका जम्हा चित्ताईया जीवस्स गुणा हवंति पञ्चक्खा । गुणपश्चरखतणओ घडुब्ब जीवो अओ अस्थि ॥ २१ ॥ भाष्यम् ।। ४ षड्जीवहारि-वृत्तिा व्याख्या-यस्मात् 'चित्तादयः अनन्तरोक्ताः जीवस्य गुणाः, नाजीवस्य, शरीरादिगुणविधर्मत्वात्, एते निकाध्य च भवन्ति प्रत्यक्षाः, वसंवेद्यत्वात्, यतश्चैवं गुणप्रत्यक्षवाद्धेतोघंटवजीवः अतोऽस्तीति प्रयोगार्थः, प्रयोगस्तु जीवसिद्धिः ॥१२५॥ 3-सन्नात्मा, गुणप्रत्यक्षखात्, घटवत्, नायं घटवदात्मनोऽचेतनत्वापादनेन विरुद्धा, 'विरुद्धोऽसति बाधने इतिवचनात्, एतचैतन्यं प्रत्यक्षेणैव बाधनमिति गाथार्थः ॥ व्याख्यातं मूलद्वारगाथाद्वये प्रतिद्वारगाथाद्वयन लक्षणद्वारम् , इदानीमस्तित्वद्वारावसर, तथा चाह भाष्यकार: अधित्ति दारमहुणा जीवस्सइ अस्थि विजए नियमा । लोआवयमवधायस्थमुचए तथिमो देऊ ॥ २२ ॥ भाष्यम् ।। टा व्याख्या-अस्तीति द्वारमधुना-साम्प्रतमवसरमाप्त, तत्रैतदुच्यते-जीवः सन, पृथिव्यादिविकारदेहमात्ररूपः। सन्निति सिद्धसाध्यता न तु ततोऽन्योऽस्तीत्याशङ्कापनोदायाह-अस्त्यन्यश्चैतन्यरूपः, तदपि मातृचैतन्योपा-12 दानं भविष्यति परलोकयापी तु न विद्यते इति मोहापोहायाह-विद्यते 'नियमात् नियमेन, तथा चाहहा'लोकायतमतघातार्थ नास्तिकाभिप्रायनिराकरणामुच्यत एतत्, तस्य चानन्तरोदित एवाभिप्राय इति स फलानि विशेषणानि, 'तत्र' लोकायतमतविघाते कर्तव्ये 'अयं वक्ष्यमाणलक्षणो 'हेतुः' अन्यथानुपपत्तिरूपो ४ युक्तिमार्ग इति गाथार्थः॥ ॥ १२५॥ जो चिंतेइ सरीरे नस्थि अहं स एव होइ जीवो ति । न हु जीयमि असंते संसयउप्पायओ अन्नो ॥ २३ ॥ भाष्यम् ।। अनुक्रम [३२] ~253~ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२४...], भाष्यं [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक CASESCAR [१] व्याख्या-यश्चिन्तयति 'शरीरें' अन लोकप्रतीते नास्त्यहं 'स एवं' चिन्तयिता भवति जीव इति । कथमेतदेवमित्याह-न यस्माजीवेऽसति मृतदेहादी संशयोत्पादकः 'अन्य' प्राणादिः, चैतन्यरूपत्वात्संशयस्येति गाथार्थः ॥ एतदेव भावयतिआ जीवस्स एस धम्मो जा ईहा अस्थि नस्थि वा जीवो । खाणुमणुस्साणुगया जह ईहा देवदत्तस्स ॥ २४ ॥ भाष्यम् ॥ व्याख्या-जीवस्यैष खभाव:-एष धर्मः या 'ईहा' सदर्थपर्यालोचनात्मिका, किंविशिष्टेत्याह-अस्ति नास्ति | चा जीव इति, लोकप्रसिद्धं निदर्शनमाह-'स्थाणुमनुष्यानुगता' किमयं स्थाणुः किं वा पुरुष इत्येवंरूपा येहा| देवदत्तस्य जीवतो धर्म इति गाथार्थः ॥ प्रकारान्तरेणैतदेवाह सिद्धं जीवस्स अस्थित्तं, सद्दादेवाणुमीयए । नासओ भुवि भावस्स, सहो हवइ केवलो ॥ २५ ।। भाष्यम् ।। व्याख्या-सिद्धं प्रतिष्ठितं 'जीवस्य उपयोगलक्षणस्यास्तित्वं, कुत इत्याह-'शब्दादेव' जीव इत्यस्मादनुमीयते, कथमेतदेवमित्याह-'नासत' इति न असता-अविद्यमानस्य 'भुवि' पृथिव्यां 'भावस्य' पदार्थस्य शब्दो भवति वाचक इति, खरविषाणादिशब्दैयभिचारमाशङ्कयाह-'केवल' शुद्धः अन्यपदासंसृष्टः, खराविपदसंसृष्टाय विषाणादिशब्दा इति गाथार्थः ॥ एतद्विवरणायैवाह भाष्यकार: अस्थिति निव्यिगप्पो जीवो नियमाउ सहओ सिद्धी । कम्हा ? सुद्धपयत्ता घडखरसिंगाणुमाणाओ ।। २६ ॥ भाष्यम् । व्याख्या-अस्तीति निर्विकल्पो जीचा, 'निर्विकल्प' इति निःसंदिग्धः, 'नियमात्' नियमेनैव, प्रतिपत्रपेक्षया| CRACC+ दीप अनुक्रम [३२] Ch S ACSCLAS ~254~ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [३२] दशकाo हारि-वृत्तिः ।। १२६ ।। Ja Education “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [४], उद्देशक [-] मूलं [१] / गाथा ||१५...|| निर्युक्तिः [२२४...], भाष्यं [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः 'शब्दतः सिद्धिः' वाचकाद्वाच्यप्रतीतेः, एतदेव प्रश्नद्वारेणाह - 'कस्मात् ' कुत एतदेवमिति ?, आह-'शुद्धपदत्वात्' केवल पदत्वाज्जीवशब्दस्य, घटखरशृङ्गानुमानादू, अनुमानशब्दो दृष्टान्तवचनः घटखरशृङ्गदृष्टान्तादिति प्रयोगार्थः, प्रयोगस्तु- मुख्येनार्थेनार्थवान् जीवशब्दः, शुद्धपदत्वाद्, घटशब्दवत्, यस्तु मुख्येनार्थेनार्थवान् न भवति स शुद्धपदमपि न भवति, यथा खरशृङ्गशब्द इति गाधार्थः ॥ पराभिप्रायमाशङ्कय परिहरन्नाह चोयग सुद्धपयत्ता सिद्धी जइ एवं सुण्णसिद्धि अम्हं पि । तं न भवइ संतेणं जं सुनं सुनगेहूं व ॥ २७ ॥ भाष्यम् || व्याख्या-उक्तवच्छुद्धपदत्वात्सिद्धिर्यदि जीवस्य एवं तर्हि शून्यसिद्धिरस्माकमपि, शून्यनष्टशब्दस्यापि शुद्धपदत्वादित्यभिप्रायः, अत्रोत्तरमाह तन्न भवति यदुक्तं परेण, कुत इत्याह-'सता' विद्यमानेन पदार्थेन 'यद्' यस्माच्छून्यं शून्यमुच्यते, किंवदित्याह - शून्यगृहमिव, तथाहि - देवदत्तेन रहितं शून्यगृहमुच्यते, निवृत्तो घटो नष्ट इति, नत्वनयोर्जीवशब्दस्य जीववदच (वि) शिष्टं वाच्यमस्तीति गाथार्थः ॥ प्रकारान्तरेणास्तित्वपक्षमेव समर्थयन्नाह मिच्छा भas acer, जे केई पारलोइया । कता चैवोपभोत्ता य, जइ जीवो न विजइ ॥ २८ ॥ भाष्यम् ।। व्याख्या- 'मिथ्या भवेयुः' अन्नृताः स्युः सर्वेऽर्धा ये केचन पारलौकिका - दानादयः, यदि किमित्याह-कर्ता चैव कर्मणः उपभोक्ता च तत्फलस्य, यदि जीवो न विद्यते परलोकपायीति गाथार्थः ॥ एतदेवाव्युत्पन्नशि ध्यानुग्रहार्थ स्पष्टतरमाह Forane & Personal Use City ~ 255~ ४ षड्जीवनिकाध्य० जीवसिद्धिः ॥ १२६ ॥ ibrary dig Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-1, मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२४...], भाष्यं [२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप पाणिदयातवनियमा बंभं दिक्खा य इंदियनिरोहो । सब्बं निरस्थयमेयं जइ जीवो म विजई ॥ २९ ॥ भाष्यम् ।। व्याख्या-प्राणिदयातपोनियमाः करुणोपवासहिंसाविरत्यादिरूपाः, तथा 'ब्रह्म ब्रह्मचर्य 'दीक्षा च' याग-| लक्षणा 'इन्द्रियनिरोध' प्रव्रज्याप्रतिपत्तिरूपः, सर्व 'निरर्थक' निष्फलमेतत्, यदि जीवो न विद्यते परलोमाकयायीति गाधार्थः ॥ किंच-शिष्टाचरितो मार्गः.शिष्टरनगन्तव्य' इति. तन्मार्गख्यापनायाह लोइया वेइया चेव, तहा सामाइया विऊ । निशो जीवो पिहो देहा, इइ सव्वे वत्थिया ।। ३० ।। भाष्यम् । * व्याख्या-लोके भवा लोके वा विदिता इति लौकिका-इतिहासादिकर्तारः, एवं वैदिकाश्चैव-त्रैविद्यवृद्धाः, तथा सामयिका:-ब्रिपिटकादिसमयवृत्तयो 'विद्वांसः' पण्डिताः, नित्यो जीवो, नानित्यः, एवं पृथग् 'देहात्र शरीरादित्येवं सर्वे व्यवस्थिताः, नान्यथेति गाथार्थः ॥ एतदेव व्याचष्टे लोगे अच्छे नभेजो वेए सपुरीसदद्धगसियालो । समएजहमासि गओ तिविहो दिवाइसंसारो ॥ ३१ ।। भाष्यम् ।। व्याख्या-लोकेऽच्छेद्योऽभेद्य आत्मा पठ्यते, यथोक्तं गीतासु-"अच्छेद्योऽयमभेद्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते। नित्यः संततगः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥१॥” इत्यादि । तथा वेदे सपुरीषो दग्धः शृगालः पठ्यत इति, यथोक्तम्-शृगालो वै एष जायते यः सपुरीषो दह्यते, अधापुरीषो दह्यते आक्षोधुका अस्य प्रजाः प्रादुलाभेवन्ति" इत्यादि । तथा समये "अहमासीगजः" इति पठ्यते, तथा च बुद्धवचनम्-"अहमासं भिक्षवो १ आयहिमासंगज इति । अहति प्र. २ क्षुधा रहिता इति वि• प०. अनुक्रम [३२] HA-%DERARM दश०२२ अथ जीवस्वरुपम् प्रकाश्यते ~256~ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२४...], भाष्यं [३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [३२] दशवैका हस्ती, षड्दन्तः शसंनिभः । शुकः पञ्जरवासी च, शकुन्तो जीवजीवकः॥१॥" इत्यादि । तथा विविधोरपडूजीवहारि-वृत्तिः दिव्यादिसंसारः कैश्चिदिष्यते, देवमानुषतिर्यगभेदेन, आदिशब्दाचतुर्विधः कैश्चिन्नारकाधिक्येनेति गाथार्थः॥निकाध्यक अत्रैव प्रकारान्तरेण तदस्तित्वमाह जीवस्वरूपं ॥१२७॥ अस्थि सरीरविहाया पइनिययागारयाइभावाओ । कुंभस्स जह कुलालो सो मुत्तो कम्मजोगाओ ॥ ३२ ॥ भाष्यम् ॥ व्याख्या-अस्ति शरीरस्य-औदारिकादेर्विधाता, विधातेति कर्ता, कुत इत्याह-'प्रतिनियताकारादिसावात् आदिमत्प्रतिनियताकारत्खादित्यर्थः, दृष्टान्तमाह-कुम्भस्य यथा कुलालो विधाता । कुलालवदेवमसादावपि मूर्तः प्रामोतीति विरुद्धमाशङ्कय परिहरन्नाह-'स' आत्मा यः शरीरविधाता असी मूतः 'कर्मयोगा-18 दिति मूर्तकर्मसंबन्धादिति गाथार्थः । अत्रैव शिष्यव्युत्पत्तयेऽन्यथा तद्हणविधिमाह फरिसेण जहा वाऊ, गिज्याई कायसंसिओ । नाणाईहिं तहा जीवो, गिज्हाई कायसंसिओ ।। ३३ ।। भाष्यम् ।। व्याख्या-'स्पर्शन' शीतादिना यथा वायुद्यते 'कायसंस्तों देहसंगतः अदृष्टोऽपि, तथा 'ज्ञानादिभिः' ज्ञानदर्शनेच्छादिभिर्जीवो गृह्यते 'कायसंस्तों देहसंगत इति गाथार्थः ॥ असकृदनुमानादस्तित्वमुक्तं जीवस्य, अनुमानं च प्रत्यक्षपूर्वकं, न चैनं केचन पश्यन्तीति, ततश्वाशोभनमेतदित्याशङ्कयाहअणिदियगुणं जीवं, दुन्नेयं मंसचक्खुणा । सिद्धा पासंति सव्वन्नू, नाणसिद्धा य साहुणो ॥ ३४ ॥ भाष्यम् ॥ १२७॥ व्याख्या-'अनिन्द्रियगुणम्' अविद्यमानरूपादीन्द्रियग्राह्यगुणं 'जीवम्' अमूर्तत्वादिधर्मकं 'दुर्जेयं दुर्लक्ष ~ 257~ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-1, मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२४...], भाष्यं [३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप |'मांसचक्षुषा' छद्मस्थेन, पश्यन्ति सिद्धाः सर्वज्ञाः, अञ्जनसिद्धादिव्यबच्छेदार्थ सर्वज्ञग्रहणं, ततश्च ऋषभादय इत्यर्थः, ज्ञानसिद्धाश्च साधयो-भवस्थकेवलिन इति गाधार्थः ॥ साम्पतमागमादस्तित्वमाह अत्तववणं तु सत्यं दिहा य तओ अइंदियाणपि । सिद्धी गहणाईणं तहेव जीवस्स विन्नेया ।। ३५ ।। भाष्यम् ॥ .. व्याख्या-आसवचनं तु शास्त्रम् , आप्तो-रागादिरहितः, तुशब्दोऽवधारणे, आप्तवचनमेव, अनेनापौरुषेयव्यवच्छेदमाह, तस्यासंभवादिति । 'दृष्टा च तत' इति उपलब्धा च ततः-आसवचनशास्त्रात् 'अतीन्द्रियाणामपि इन्द्रियगोचराप्तिक्रान्तानामपि, 'सिद्धिः ग्रहणादीना'मिति उपलब्धिश्चन्द्रोपरागादीनामित्यर्थः, तथैव जीवस्य विज्ञेयेति, अतीन्द्रियस्याप्याप्तवचनप्रामाण्यादिति गाथार्थः ॥ मूलद्वारगाथायां व्याख्यातमस्तित्वद्वारम्, अधुनाऽन्यत्वादिद्वारत्रयव्याचिख्यासुराह अण्णत्तमगुत्तत्तं निशर्त चेव भण्णए समयं । कारणअविभागाईहेऊहिं इमाहि गाहाहिं ।। ३६ ॥ भाष्यम् ।। व्याख्या-अन्यत्वं देहादू अमूर्तत्वं स्वरूपेण नित्यत्वं चैव-परिणामिनित्यत्वं भण्यते 'समकम्' एकैकेन हेतुना त्रितयमपि युगपदिति-एककालमित्यर्थः, 'कारणाविभागादिभिः' वक्ष्यमाणलक्षणहेतुभिः 'हमाभिः' तिमभिर्नियुक्तिगाधाभिरेवेति गाथार्थः॥ कारणविभागकारणविणासबंधस्स पञ्चथाभावा । विरुद्धस्स य अत्थस्सापाउम्भावाविणासा य ।। २२५ ।। व्याख्या-'कारणविभागकारणविनाशवन्धस्य प्रत्ययाभावादिति अब्राभावशब्दः प्रत्येकमभिसंवध्यते, का अनुक्रम [३२] ~258~ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [३२] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + | भाष्य |+वृत्तिः) अध्ययनं [४], उद्देशक [ - ], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| निर्युक्ति: [ २२५], भाष्यं [ ३६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः दशवैका० रणविभागाभावात् न खलु जीवस्य पटादेरिव तन्त्वादिकारणविभागोऽस्ति, कारणाभावादेव । एवं कारणहारि-वृत्तिः तु विनाशाभावेऽपि योज्यं, तथा बन्धस्य-ज्ञानावरणादिपुद्गलयोगलक्षणस्य प्रत्ययाभावात् हेतुत्वानुपपत्तेः, षन्धस्येति बध्यमानव्यतिरिक्तबन्धज्ञापनार्थमसमासः, व्यतिरेकी चायमन्वयव्यतिरेकावर्थसाधकाविति दर्श॥ १२८ ॥ ॐ नार्थमिति तथा विरुद्धस्य चार्थस्य पटादिनाशे भस्मादेखि 'अप्रादुर्भावादविनाशाच' अप्रादुर्भावेऽनुत्पत्तौ + सत्यामविनाशाच हेतोः जीवस्य नित्यत्वं, नित्यत्वादमूर्तत्वम्, अमूर्तत्वाच्च देहादन्यत्वमिति प्रतिपत्त्यानुगुण्यतो व्यत्ययेन साध्यनिर्देशः । वक्ष्यति च नियुक्तिकार:- 'जीवस्स सिद्धमेवं, निचत्तममुत्तमन्नन्तं' इति गाथासमासार्थः । व्यासार्थस्तु भाष्यादवसेयः, तत्राव्युत्पन्नविनेयासंमोहनिमित्तं यथोपन्यासं तावद्वाराणि व्याख्याय पश्चान्निर्युक्तिकाराभिप्रायेण मीलयिष्यतीत्यत आह अन्नति दारमहुणा अन्नो देहा गिहाउ पुरिसो व्व । तज्जीवतस्तरीरियमयघायत्थं इमं भणियं ॥ ३७ ॥ भाष्यम् ॥ व्याख्या-अन्यो देहादिति द्वारमधुना, तदेतद्व्याख्यायते-अन्यो देहात्, जीव इति गम्यते, गृहादिगतपुरुषवदिति दृष्टान्तः, तद्भावेऽपि तत्रानियमतो भावादिति हेतुरभ्यूह्यः, न चासिद्धोऽयं, मृतदेहेऽदर्शनात्, प्रयोगफलमाह-तज्जीवतच्छरीरवादिमतविघातार्थम् 'इदं' प्रयोगरूपं भणितमिति गाथार्थः ॥ प्रयोगान्तरमाह देहिंदियाइरितो आया खलु तदुबलद्धअत्थाणं । तब्बिगमेऽवि सरणओ गेहगवक्खेहिं पुरिसो व्व ॥ ३८ ॥ भाष्यम् ॥ १ निर्युकमूलद्वारापेक्षा संगृहीतार्थवाचका गाथा नियुक्तिः, तस्याश्च यद्विवरणं तद्धाप्यं कर्त्ता त्वनयोरेक एवोभयोरपीति वि० प For ane & Personal Use Oily ~ 259~ ४ षड्जीवनिकाध्य० जीवस्वरूपं ॥ १२८ ॥ ibrary dig Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२५...], भाष्यं [३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] 388 दीप व्याख्या-खलुशब्दः विशेषणार्थत्वात्कथञ्चिदेहेन्द्रियातिरिक्त आत्मेति प्रतिज्ञार्थः, 'तदुपलब्धार्थाना मिति संभवतः परामर्शत्वात् इन्द्रियोपलब्धार्थानां तद्विगमेऽपि' इन्द्रियविगमेऽपि स्मरणादिति हेत्वर्थः, स्मरन्ति चान्धवधिरादयः पूर्वानुभूतं रूपादीति, गेहगवाक्षैः पुरुषवदिति दृष्टान्तः । प्रयोगस्तु-कथश्चिदेहेन्द्रियातिरिक्त आत्मा, तद्विगमेऽपि तदुपलब्धार्थानुस्मरणात, पञ्चवातायनोपलब्धार्थानुस्मर्तृदेवदत्तवदिति गाथार्थः ॥ इन्द्रि-18 योपलब्धिमत्त्वाशङ्कापोहायाह न : इंदिवाई उपलद्धिर्मति विगएसु विसयसंभरणा । जह गेहगवखेहिं जो अणुसरिया स उबलशा ।। ३९ ॥ भाष्यम् ।। व्याख्या-न पुनरिन्द्रियाण्येवोपलब्धिमन्ति-द्रष्टणि, कुत इत्याह-विगतेष्विन्द्रियेषु विषयसंस्मरणात्-तहीतरूपाद्यनुस्मृतेरन्धवधिरादीनामिति, निदर्शनमाह-यथा गेहगवाक्षः करणभूतैः दृष्टानाननुस्मरन् योऽनुस्मर्ता स उपलब्धा, न तु गवाक्षाः, एवमत्रापीति गाथार्थः ॥ उक्तमेकेन प्रकारेणान्यत्वद्वारम्, अधुना अ-121 मूतेद्वारावसर इत्याह भाष्यकार: संपयममुत्तदारं अइंदियत्ता अछेयभेयत्ता । रूवाइविरहओ वा अणाइपरिणामभावाओ ॥ ४०॥ भाष्यम् । व्याख्या साम्प्रतममूर्तद्वारं, तद्व्याख्यायते, अमूर्ती जीवः, 'अतीन्द्रियत्वात्' द्रव्येन्द्रियाग्राणत्वात् , अच्छेद्याभेयत्वात्-खड्गशूलादिना, रूपादिविरहतश्च-अरूपत्वादित्यर्थः । तथा 'अनादिपरिणामभावादिति खभा- वतोऽनाद्यमूर्तपरिणामत्वादिति गाथार्थः ।। अनुक्रम [३२] 45454 % % %* 5 ~260~ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२५...], भाष्यं [४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत दशवैका. हारि-वृत्तिः सूत्रांक षड्जीवनिकाध्य जीवस्वरूपं ॥ १२९॥ दीप अनुक्रम [३२] उत्तमत्थाणुवलंभा तहेव सम्वन्नुवयणी चेव । लोयाइपसिद्धीओ जीवोऽमुचो ति नायन्वो ॥४१॥ भाष्यम् ॥ . व्याख्या-छद्मस्थानुपलम्भादू' अवधिज्ञानिप्रभृतिभिरपि साक्षादगृह्यमाणत्वात्, तथैव 'सर्वज्ञवचनाचैव |सत्यवतवीतरागवचनादित्यर्थः, "लोकादिप्रसिद्धे' लोकादावमूर्तत्वेन प्रसिद्धत्वात्, आदिशब्दावेदसमयप|रिग्रहः, अमूर्ती जीव इति ज्ञातव्या, सर्वत्रैवेयं प्रतिज्ञेति गाधाथैः । उक्तममूतेंद्वारम्, अधुना नित्यत्वद्वारप्रस्तावः, तथा चाह भाष्यकार: णिघोत्ति दारमहुणा णिको अविणासि सासओ जीवो । भावत्ते सइ जम्माभावाउ नई व विन्नेओ ॥ ४२ ॥ भाष्यम् ॥ व्याख्या-'नित्य' इति नित्यद्वारमधुनाऽवसरप्राप्तं, तयाचिख्यासयाऽऽह-नित्यो जीव इति, एतावत्युच्यमाने परैरपि संतानस्य नित्यत्वाभ्युपगमात्सिद्धसाध्यतेति तन्निराकरणायाह-अविनाशी-क्षणापेक्षयापिन निरन्वयनाशधर्मा, एवमपि परिमितकालावस्थायी कैश्चिदिष्यते–'कम्पवाई पुढवी भिक्खू वेति वचनात्तदपोहायाह-शाश्वत' इति सर्वकालावस्थायी, कुत इत्याह-भावत्वे सति वस्तुत्वे सतीत्यर्थः, 'जन्माभावात्' अनुत्पत्तेः 'नभोवंद' आकाशवद्विज्ञेयः, भावत्वे सतीति विशेषणं खरविषाणादिव्यवच्छेदार्थमिति गाधार्थः ॥ हेत्वन्तराण्याह १ कल्पस्थायिनी पृथ्वी निक्षयो पा. २ न ५ वायं मनुर्नभोऽझिरो यती' (ति० १-१-२४)ल्यनेन नभखवित्येव स्यादिति, लोकप्रसिद्धच्छान्दसशब्दसाधनमूलस्वात्तरप्रयासस्य, अत एव 'नमोऽशिरोमनुषां नेत्युपसंख्यान मिति वैदिक्यामाख्यातवान् दीक्षितः, कैबटो भाष्यप्रदीपेऽपि 'उपसंस्थानान्येतानि छन्दोविषयाणीसाहु रिति | जमाद, नभोऽस्याश्रयत्वेनेति मभखच्छन्द व्युत्पादयामामुन व्याख्याकारा अतः वायुशब्दपयोयब्याख्याने। SAEXA4 ॥१२९॥ ~261~ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-1, मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२५...], भाष्यं [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप संसाराओ आलोवणाउ तह पणभिन्नभावाने । खणभंगविघावत्थं भणि तेलोणावंसीहिं ।। ४३ ।। भाष्यम् ।। व्याख्या-संसारादिति संसरण संसारस्तस्मात्, स एव नारकः स एव तिर्यगादिरिति नित्या, 'आलोच-18 नादिति आलोचनं-करोम्यहं कृतवानहं करिष्येऽहमित्यादिरूपं त्रिकालविषयमिति नित्यः, तथा 'प्रत्यभिज्ञाभावात् स एष इति प्रत्यभिज्ञाप्रत्यय आविद्ववङ्गानादिसिद्धः तदभेदग्राहीति निस्य इति, उक्ताभिधानफलमाह-क्षणभङ्गविघाताथै निरन्वयक्षणिकवस्तुवादविघातार्थ भणितं त्रैलोक्यदर्शिभिः' तीर्थकरैः एतदनन्तरोदितं, न पुनरेष एव परमार्थ इति गाथार्थः ॥ एतदेव दर्शयति लोगे बेए समए निको जीवो बिभासओ अम्हं । इहरा संसाराई सव्वंपि न जुज्जए तस्स ।। ४४ । भाष्यम् ॥ व्याख्या-लोके–'नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणी'त्यादिवचनप्रामाण्यात्, वेदे ‘स एष अक्षयोज' इत्यादिश्रुतिप्रामाण्यात् समये 'न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुष' इति वचनप्रामाण्यात्, किमित्याह-नित्यो जीव-अपच्युतानुत्पन्नस्थिरैकखभावः, एकान्तनित्य एव, न चैतन्याय्यम्, एकखभावतया संसरणादिव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गादिति वक्ष्यति, अत आह-'विभाषयाऽस्माकं' विकल्पेन-भजनया स्यान्नित्य इत्यादिरूपया न्यार्थादेशा-1 नित्यः पर्यायार्थादेशादनित्य इत्यर्थः, 'इतरथा' यद्येवं नाभ्युपगम्यते ततः 'संसारादि' संसारालोचनादि स-2 विमेव न युज्यते 'तस्य' आत्मनः, खभावान्तरानापत्त्या एकखभावतया वार्तमानिकभावातिरेकेण भावान्त-18 रानापत्तेः, एवममूर्तस्वान्यत्वयोरपि विभाषा वेदितव्या, अन्यथा व्यवहाराभावप्रसङ्गात, एकान्तामूर्तस्यै ॐ5575555 अनुक्रम CASSES [३२] ~ 262~ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२५...], भाष्यं [४४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत पजीवनिकाध्य जीवस्वरूपं सूत्रांक दीप अनुक्रम दशकाकान्तदेहभिन्नस्य चातिपाताद्यसंभवादित्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते, अक्षरगमनिकामानत्वात्मारभ्भस्येति हारि-वृत्तिः४गाधार्थः ॥ एवमन्यत्वादिद्वारत्रयं व्याख्यायाधिकृतनियुक्तिगाथा व्याचिल्यासुराह ___कारणअविभागामओ कारणअविणासओ य जीवस्स । निश्चत्तं विनेयं आगासपडाणुमाणाओ ॥ ४५ ॥ भाष्यम् ॥ व्याख्या-'कारणाविभागात्' पटादेस्तन्वादेरिव कारणविभागाभावादित्यर्थः, 'कारणाविनाशतश्च' कारमीणाविनाशश्च कारणानामेवाभावात्, किमित्याह-जीवस्य आत्मनो नित्यत्वं विज्ञेयम्, कुत इत्याह-आ काशपटानुमानात्' अत्रानुमानशब्दो दृष्टान्तवचनः, आकाशपटदृष्टान्तात् । ततश्चैवं प्रयोग:-नित्य आत्मा, स्वकारणविभागाभाबाद, आकाशवत्, तथा कारणविनाशाभावाद, आकाशवदेव, यस्त्वनित्यस्तस्य कारणविभागभावः कारणविनाशभावो वा यथा पटस्येति व्यतिरेका, पटाद्धि तन्तवो विभज्यन्ते विनश्यन्ति | चेति नित्यत्वसिद्धिः । नित्यत्वादमूर्तः, अमूर्तत्वाद्देहादन्य इति गाथार्थः ॥ नियुक्तिगाथायां कारणविभागाभावात्कारणविनाशाभावाचेति द्वारद्वयं व्याख्याय साम्प्रतं बन्धस्य प्रत्ययाभावादिति व्याचिख्यासुराह४ा हेप्पभवो बंधो जम्माणतरहयस्स नो जुत्तो । तज्जोगविरहओ खलु चोराइघडाणुमाणाओ ॥ ४६॥ भाष्यम् ॥ व्याख्या-हेतुप्रभवों' हेतुजन्मा 'बन्धों ज्ञानावरणादिपुद्गलयोगलक्षणः, 'जन्मानन्तरहतस्य उत्पत्त्यनन्त-| रविनष्टस्य 'न युक्तों' न घटमानः 'तयोगविरहत' इति तै:-बन्धहेतुभिर्मिध्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगलक्षणैर्यो योगः-संवन्धस्तद्विरहतः-तदभावादेव, खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात्, 'चौरादिघटानुमाना'दित्यनु [३२] ॥१३० ~263~ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२५...], भाष्यं [४६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप मानशब्दो दृष्टान्तवचना, चौराविघटादिदृष्टान्तात्, न हि उत्पत्त्यनन्तरविनाशी चौरचौर्यक्रियाभावेन बध्यते, स्थायी हि घटो जलादिना संयुज्यते इति व्यतिरेकार्थः, प्रयोगश्चात्र-न क्षणिक आत्मा, बन्धप्रत्ययत्वाचीरदावत्, नित्यत्वामूर्तत्वदेहान्यत्वयोजना पूर्ववदिति गाथार्थः ॥ नियुक्तिगाथायां बन्धस्य प्रत्ययाभावादिति व्याख्यातम् , अधुना 'विरुद्धस्य चार्थस्याप्रादुर्भावाविनाशाचेति व्याख्यायते अविणासी खलु जीवो विगारणुवलंभओ जहागासं । उबलन्भंति विगारा कुंभाइविणासिव्वाणं ।। ४७ ।। भाष्यम् ।। ला व्याख्या-अविनाशी खलु जीवो, नित्य इत्यर्थः, कुत इत्याह 'विकारानुपलम्भात् घटादिविनाशे कपालादिवद्विशेषादर्शनाद्, यथाऽऽकाशम्-आकाशवदित्यर्थः, एतदेव स्पष्टयति-उपलभ्यन्ते विकारा' दृश्यन्ते कपालादयः कुम्भादिविनाशिद्रव्याणां, न चैवमत्रेत्यभिप्रायः, नित्यखामूर्तत्वदेहान्यत्वयोजना पूर्ववत्, इति गाथार्थः । प्रकृतसंबहामेव नियुक्तिगाथामाह निरामयामयभावा बालकयाणुसरणादुवत्थाणा । सुत्ताईहिं अगहणा जाईसरणा थणभिलासा ।। २२६ ॥ व्याख्या-निरामयामयभावात् निरामयस्य-नीरोगस्याऽऽमयभावाद-रोगोत्पत्तेः, उपलक्षणं चैतत् सामयपानिरामयभावस्य, तथा चैवं वक्तार उपलभ्यन्ते-पूर्व निरामयोऽहमासं सम्पति सामयो जातः सामयो था| निरामय इति, न चैतन्निरन्वयलक्षणविनाशिन्यात्मन्युपपद्यते, उत्पत्यनन्तराभावादिति प्रयोगार्थः, प्रयोगस्तु-अवस्थित आत्मा, अनेकावस्थानुभवनात्, बालकुमाराद्यवस्थानुभवितृदेवदत्तवत्, नित्यत्वादमूर्तः || ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ5 ॐॐॐॐ% 555 अनुक्रम [३२] ~264~ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२६], भाज्यं [४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [३२] दशका० अमूर्तत्वादेहावन्य इति योजना सर्वत्र कार्या । तथा 'बालकृतानुस्मरणात् कृतशब्दोऽत्रानुभूतवचनः, ततश्च पड्जीवहारि-वृत्सिवालानुभूतानुस्मरणात्, तथा च बालेनानुभूतं वृद्धोऽप्यनुस्मरन् दृश्यते, न च अन्येनानुभूतमन्यः स्मरति निकाध्य० अतिप्रसवात्, न चेदमनुस्मरणं भ्रान्तं, बाधाऽसिद्धेः, न च हेतुफलभावनिवन्धनमेतत्, निरन्वयक्षणविना- जीवस्वरूपं ॥१३१॥ शपक्षे तस्यैवासिद्धेः, हेतोरनन्तरक्षणेऽभावापत्तेः, असतश्च सद्भावविरोधादिति प्रयोगार्थः, प्रयोगस्तु-अब-18 स्थित आत्मा, पूर्वानुभूतार्थानुस्मरणात्, तदन्यैवंविधपुरुषवत् । उपस्थानादिति कर्मफलोपस्थानमत्र गृह्यते. ययेनोपातं कर्म स एव तत्फलमुपभुले, अन्यश्च क्रियाकालोऽन्यश्च फलकाल:, एकाधिकरणं चैतद्यम् , अ-12 न्यथा खकृतवेदनासिद्धेः, अन्यकृतान्योपभोगस्य निरुपपत्तिकत्वात्, कृतनाशाकृताभ्यागमप्रसङ्गात्, संतानपक्षेऽपि कर्तृभोक्तृसंतानिनो नावाविशेषात, शक्तिभेदात्, तस्यैव तथाभावाभ्युपगमे नित्यत्वापत्तेरिति प्रयोगार्थः, प्रयोगश्च-अवस्थित आत्मा, खकृतकर्मफलवेदनात्, कृषीवलादिवत् । श्रोत्रादिभिरग्रहणात्-17 श्रोत्रादिभिरिन्द्रियैरपरिच्छित्तेः, न च श्रोत्रादिभिरपरिच्छिद्यमानस्य असत्वम्, अवग्रहादीनां खसंवेदनटासिद्धत्वात्, बौद्धैरप्यतीन्द्रियज्ञानाभ्युपगमात्, ज्ञानस्य च गुणत्वात्, गुणस्य च गुणिनमन्तरेणाभावात्, प्राक्तनज्ञानस्यैव गुणित्वानुपपत्तेः, तस्यापि गुणत्वादिति प्रयोगार्थः, प्रयोगश्च-नित्य आत्मा, गुणिखे सत्यतीन्द्रियत्वात्, आकाशवत् । तथा जातिस्मरणादिति, जातेरतिक्रान्तायाः स्मरणात्, न चेदमनुस्मरणमननुभूतस्यान्यानुभूतस्य च भवति, अतिप्रसङ्गात्, दृश्यते च कचिदिदं, न चासौ प्रतारका, तत्कथितार्थसंवा 156-05-45-56056456056456 all॥१३१॥ ~265~ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२६], भाष्यं [४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप दनात्, अनुभवाविशेषे सर्वेषामेव कमान्न भवतीति चेद, उच्यते, कर्मप्रतिबन्धाद् दृढानुभवाभावाद्, इह लोकेऽपि सर्वेषां सर्वत्रानुस्मरणादर्शनात्, न खलु इह लोके सर्वत्रानुस्मरणदर्शनं, तदिहापि, कचि-18/ दजाती सर्वेषामस्त्विति चेन्न, नष्टचेतसां सर्वत्रानुस्मरणशून्येन व्यभिचारादिति प्रयोगार्थः, प्रयोगश्च बाल कृतानुस्मरणवद्रष्टव्य इति । तथा स्तनाभिलाषादिति, तद्हर्जातबालकस्यापि स्तनाभिलाषदर्शनात्, न चान्यकालाननुभूतस्तनपानस्यायमुपपद्यते, प्रयोगश्च-तदहातबालकस्याऽऽयस्तनाभिलाषोऽभिलाषान्तरपूर्वक, अभिलाषत्वाद् , तदन्यस्तनाभिलाषवत् , तद्वदप्रथमत्वसाधना विरुद्धो हेतुरिति चेन्न, प्रथमस्वानुभवेन वाधनात्, 'असति च बाधने विरुद्ध' इति न्यायाद्, अन्यथा हेतूच्छेदप्रसङ्गादित्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते, | अक्षरगमनिकामात्रस्य प्रस्तुतत्वादिति । नित्यादिक्रियायोजना पूर्ववदिति नियुक्तिगाथार्थः ॥ एतामेव नियु-18 |क्तिगाथा लेशतो व्याचिख्यासुराह भाष्यकार: रोगस्सामयसन्ना बालकयं जं जुवाऽणुसंभरइ । जं कयमन्नंमि भवे तस्सेवन्नत्थुवत्थाणा ।। ४८ ॥ भाष्यम् ।। व्याख्या-रोगस्यामय इति संज्ञा, बालकृतं किमपि वस्तु 'यदू' यस्मागुवाउनुस्मरति, तथा यत्कृतमन्यस्मिन् दाभवे-कुशलाकुशलं कर्म तस्यैव-कर्मणोऽन्यत्र-भवान्तरे उपस्थानात, सर्वत्र भावार्थपोजना कृतैवेति गाथार्थः॥ णियो मणिवियत्ता खणिो नवि होइ जाइसंभरणा | थणअभिलासा य तहा अमभो नउ मिम्मजन घडो ।। ४९ ॥ भाच्यम् ।। अनुक्रम [३२] JamEAL ~266~ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [३२] दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ १३२ ॥ Ja Education “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + | भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [४], उद्देशक [ - ], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| निर्युक्ति: [ २२७], भाष्यं [४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [४२] मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः व्याख्या - नित्य इति, सर्वत्र क्रियाभिसंबध्यते, अतीन्द्रियत्वात् श्रोत्रादिभिरग्रहणादित्यर्थः, 'विज्ञेयो' ज्ञातव्यः । तथा च जातिस्मरणात, पाठान्तरं वा 'क्षणिको न भवति जातिस्मरणादिति, एतदप्यदुष्टमेव, वि| धिप्रतिषेधाभ्यां साध्यार्थाभिधानात्, स्तनाभिलाषाच्च, तथा अमयोऽयमात्मा, नतु मृन्मय इव घटः, ततश्चाकारण इत्यर्थः । एतदपि नित्यत्वादिप्रसाधकमिति नियुक्तिगाथायामनुपन्यस्तमप्युक्तं सूक्ष्मधिया भाष्यकारेणेति गाधार्थः ॥ तृतीयां नियुक्तिगाथामाह सब्वन्नुवदिद्वत्ता सकम्मफलभोयणा अमुत्तत्ता । जीवस्स सिद्धमेवं निचत्तममुत्तमन्नन्तं ॥ २२७ ॥ व्याख्या- 'सर्वज्ञोपदिष्टत्वादिति नित्यो जीव इति सर्वज्ञोक्तत्वात्, अवितथं च सर्वज्ञवचनं, तस्य रागादिरहितत्वादिति । तथा 'स्वकर्मफलभोजनादिति खोपात्तकर्मफलभोगादित्यर्थः, उपस्थानादेतन्न भियत इति चेन्न, अभिप्रायापरिज्ञानात्, तत्र हि येन कृतं तस्मिन्नेव कर्तरि कर्मोपतिष्ठत इत्युक्तं तचैकस्मिन्नपि जन्मनि संभवति, इदं त्वन्यजन्मान्तरापेक्षयाऽपि गृह्यत इति न दोषः । तथा 'अमूर्तत्वादिति मूर्तिरहितत्वाद्, एतदपि श्रोत्रादिभिरग्रहणादित्यस्मान्न भिद्यत इति चेन्न, तत्र हि श्रोत्रादिभिर्न गृह्यते इत्येतदुक्तम्, इह तु तत्स्वरूपमेव नियम्यते इति, सूर्तानामपि श्रोत्रादिभिरग्रहणादिति । द्वारत्रयमप्युपसंहरन्नाह-जीवस्य सिद्धमेवं नित्यत्वममूर्तत्वमन्यत्वमिति गाथार्थः ॥ मूलद्वारगाथाद्वये व्याख्यातमन्यत्वादिद्वारत्रयम् इदानीं ४ ॥ ११२ ॥ कर्तृद्रारावसरः, तथा चाह Fore&Personal Use City पजीवनिकाध्य० जीवस्वरूपं ~267~ anbrary dig Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२७...], भाष्यं [५०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] कत्तत्ति दारमहुणा सकम्मफलभोइणो जभो जीवा । वाणियकिसीवला इस कविलमयनिसेहणं एयं ॥ ५० ॥ भाष्यम् ॥ व्याख्या-कर्तेति द्वारमधुना-तदेतद्व्याख्यायते, खकर्मफलभोगिनो यतो जीवास्ततः कर्तार इति, वणिकषी-|| चलादय इव, म हामी अकृतमुपभुञ्जते इति प्रयोगार्थः, प्रयोगस्तु-कर्ताऽऽत्मा, खकर्मफलभोकृत्वात् , करेकादिवत् । ऐदम्पर्यमाह-कपिलमतनिषेधनमेतत् सांख्यमतनिराकरणमेतत्, तत्राकर्तृवादपसिडेरिति गाथार्थः॥ मूलद्वारगाथाद्वये व्याख्यातं कर्तृद्वारम्, इदानी देहव्यापित्वद्वारावसर इत्याह भाष्यकार: वावित्ति दारमहुणा देहब्बावी मओऽग्गिउण्हं व । जीवो नउ सव्वगओ देहे लिंगोवलंभाओ ।। ५१ ।। भाष्यम् ।। NI व्याख्या-व्यापीति द्वारमधुना-तदेतदयाख्यायते, 'देहव्यापी शरीरमानं व्याप्तुं शीलमस्येति तथा 'मत' इष्टः प्रवचनज्ञैः जीवो, नतु सर्वग इति योगः, तुशब्दस्यावधारणार्थवान्न चाण्वादिमात्रा, कुत इत्याह-'देहे| लिङ्गोपलम्भात्' शरीर एवं सुखादितल्लिकोपलब्धः, अग्यौष्पयवत्, उष्णत्वं हाग्निलिई नान्यत्राग्नेः न च ना-1 प्राविति [गाथा प्रयोगार्थः। प्रयोगस्तु-शरीरनियतदेश आत्मा, परिमितदेशे लिटोपलब्धेः, अन्योष्ण्यवत् इति | गाथा: ।। व्याख्याता प्रथमा मूलद्वारगाथा, साम्प्रतं द्वितीया व्याख्यायते-तत्र प्रथमं गुणीत्याद्यद्वारं, तव्या|चिख्यासयाऽऽह भाष्यकार: अहुणा गुणित्ति दारं होद गुणेहिं गुणित्ति विन्नेओ। ते भोगजोगउवओगमाइ रुवाइ व पडस्स ।। ५२ ॥ भाष्यम् ।। व्याख्या-अधुना गुणीति द्वारं-तदेतद्वयाख्यायते, भवति गुणैर्हि गुणी, न तव्यतिरेकेण 'इति एवं वि. *MXXXSEX दीप अनुक्रम [३२] दश०२३ ~268~ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२७...], भाष्यं [२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम क ज्ञेयः, अमेन गुणगुणिनोर्मेदाभेदमाह, ते भोगयोगोपयोगादयो गुणा इति, आदिशब्दादमःखादिपरिग्रहः. ४ षड्जीवहारि-वृत्तिः निदर्शनमाह-रूपादय इव घटस्य गुणा इति गाथार्थः ।। व्याख्यातं मूलद्वारगाथायां गुणिद्वारम्, अधुनोर्व-निकाध्य. गतिद्वाराषसर इत्याह भाष्यकार: जीवस्वरूपं ॥१३॥ उडुंगइत्ति अहुणा अगुरुलहुत्ता सभावउड़गई । दिटुंतलाउएर्ण एरंडफलाइएहिं च ।। ५३ ॥ भाष्यम् ।। व्याख्या-ऊर्द्धगतिरित्यधुना द्वारं-तदेतद्व्याख्यायते, अगुरुलघुत्वात्कारणात्स्वभावतः कर्मविप्रमुक्तः सर्वगतिः, जीव इति गम्यते, यद्येवं तर्हि कथमधो गच्छति?, अत्राह-दृष्टान्तः 'अलावुना' तुम्बकेन, यथा तत्व भावत ऊर्ध्वगमनरूपमपि मृल्लेपाजलेऽधो गच्छति तदपगमादूर्वमा जलान्ताद्, एवमात्माऽपि कर्मलेपारो ट्र गच्छति तदपगमादूर्वमा लोकान्तादिति । एरण्डफलादिभिश्च दृष्टान्त इति, अनेन दृष्टान्तबाहुल्यं दर्शयति, पायथा चैरण्डफलमपि बन्धनपरिभ्रष्टमूर्द्ध गच्छति, आदिशब्दादग्न्यादिपरिग्रह इति गाथार्थः ॥ व्याख्यातं द्वि४ातीयमूलद्वारगाथायामूर्ध्वगतिद्वारं, साम्प्रतं निर्मयद्वारव्याचिख्यासयाऽऽह अमओ य होइ जीवो कारणविरहा जहेच आगासं । समर्व च होअनिच्चं मिम्मवघडतंतुमाईयं ॥ ५४ । भाष्यम् । व्याख्या-अमयश्च भवति जीवः, न किम्मयोऽपीत्यर्थः, कुत इत्याह-कारणविरहात्' अकारणत्वात् , य- ॥१३ थैवाकाशम्-आकाशवदित्यर्थः, समयं च वस्तु भवत्यनित्यम्, एतदेव दर्शयति-मृन्मयघटतन्त्वादि, यथा IPEARNA [३२] JamaicationFoll ~ 269~ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-1, मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२७...], भाष्यं [१४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप मुन्मयो घटस्तन्तुमयः पट इत्यादि, न पुनरात्मा, नित्य इति दर्शितम् । आह-अस्मिन् द्वारे सति 'अमयो नतु| मृन्मय इव घट' इति प्राकिमर्थमुक्तमिति, उच्यते, अत एव द्वारादनुग्रहार्थमुक्तमिति लक्ष्यते, भवति चासकच्वणादकृच्छ्रेण परिज्ञानमित्यनुग्रहः, अतिगम्भीरत्वाद्भाष्यकाराभिप्रायस्य न (वा) वयमभिप्राय विद्म इति ।। अन्ये त्वभिदधति-अन्यकर्तृकैवासी गाथेति गाथार्थः॥ व्याख्यातं द्वितीयमूलद्वारगाथायां निर्मयद्वारम्, अधुना साफल्यद्वारावसरः, तथा चाह भाष्यकार: साफलदारमहुणा निच्चानिच्चपरिणामिजीवम्मि । होइ तयं कम्माणं इहरेगसभावओऽजुत्तं ॥ ५५ ॥ भाष्यम् ।। व्याख्या-साफल्यद्वारमधुना-तदेतद्व्याख्यायते, नित्यानित्य एव परिणामिनि जीव इति योग, भवति तत् साफल्यं कालान्तरफलमदानलक्षणम् , केषामित्याह-कर्मणां-कुशलाकुशलानां, कालभेदेन कर्तृभोक्तपरिणा-II2 मभेदे सत्यात्मनस्तदुभयोपपत्तेः कर्मणां कालान्तरफलप्रदानमिति, 'इतरथा' पुनर्ययेवं नाभ्युपगम्यते तत एकस्वभावत्वतः कारणादयुक्तं 'तत्' कर्मणां साफल्यमिति, एतदुक्तं भवति-यदि नित्य आत्मा कर्तृवभाव एव कुतोऽस्य भोगः?, भोक्तृखभावत्वे चाकर्तृवं, क्षणिकस्य तु कालद्वयाभावादेवैतदुभयमनुपपन्नम् , उभये है च सति कालान्तरफलप्रदानेन कर्म सफलमिति गाथार्थः ।। द्वितीयमूलद्वारगाथायां व्याख्यातं साफल्यद्वारम्, अधुना परिमाणद्वारमाह भाष्यगाथा ४९ अन्यभागः अनुक्रम [३२] JamEacharHAR ~270~ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२७...], भाष्यं [५६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [३२] दशवका० जीवस्स उ परिमाणं विस्थरपओ जाव लोगमेत्तं तु । ओगाहणा य सुहुमा तस्स पएसा असंखेजा ।। ५६ ॥ भाष्यम् ॥ ४४ षड्जीवहारि-वृत्तिः हा व्याख्या-जीवस्य तु परिमाणं विततस्य 'विस्तरतो विस्तरेण यावल्लोकमात्रमेव, एतच केवलिसमुद्घातच- निकाध्यक तुर्थेसमये भवति, तत्रावगाहना च 'सूक्ष्मा' विततैकैकप्रदेशरूपा भवति, 'तस्य' जीवस्य प्रदेशाश्चासंख्येयाः जीवस्वरूपं ॥१३४॥ सवें एव लोकाकाशप्रदेशतुल्या इति गाधार्थः ।। अनेकेषां जीवानां गणनापरिमाणमाह पत्थेण व कुलएण व जह कोइ मिणेज सव्वधन्नाई । एवं मविजमाणा हवंति लोगा अर्णता उ ।। ५७ ॥ भाष्यम् ।। व्याख्या-'प्रस्थेन वा चतु:कुडवमानेन 'कुडचेन वा चतुःसेतिकामानेन यथा कश्चित्तमाता मिनुयात् 'स-15 विधान्यानि' बीयादीनि एवं मीयमाना असद्भावस्थापनया भवन्ति लोका अनन्तास्तु, जीवभूता इति भावः।। आह-यद्येवं कथमेकस्मिन्नेव ते लोके माता इति?, उच्यते, सूक्ष्मावगाहनया, यत्रैकस्तत्रानन्ता व्यवस्थिताः, इह तु प्रत्येकावगाहनया चिन्त्यन्ते इति न दोषः, दृष्टं च चादरद्रव्याणामपि प्रदीपप्रभापरमाण्वादीनां तथापरिणामतो भूयसामेकत्रैवावस्थानमिति गाथार्थः ॥ व्याख्यातं द्वितीयमूलद्वारगाथायां परिमाणद्वार, तद्वया-1 ख्यानाच द्वितीया मूलद्वारगाथा जीवपदं चेति । साम्प्रतं निकायपदं व्यापिण्यामुराह-- __णामं ठवणसरीरे गई णिकाय स्थिकाय दविए य । माजगपजवसंगहमारे सह भावकाए य ।। २२८ ॥ व्याख्या-नामस्थापने क्षुण्णे, शरीरकाय:-शरीरमेव, तत्प्रायोग्याणुसंघातात्मकत्वात्, गतिकायो-यो भवा-II न्तरगती, स च तैजसकार्मणलक्षणः, निकायकाय:-षड्जीवनिकाया, अस्तिकायो-धर्मास्तिकायादिः, द्रव्य *SHAR JanEcuadTM ~ 271~ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२८], भाष्यं [१७...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] कायश्च-व्यादिघटादिद्वव्यसमुदायः, मातृकाकायः त्र्यादीनि मातृकाक्षराणि, पर्यायकायो द्वेषा-जीवाजीMवभेदेन, जीवपर्यायकायो-ज्ञानादिसमुदायः, अजीवपर्यायकायो-रूपादिसमुदायः, संग्रहकाया-संग्रहकश-IN ब्दवाच्यविकटुकादिवत्, भारकाय:-कापोती, वृद्धास्तु व्याचक्षते-'एगो काओ दुहा जाओ, एगो चिट्ठह ४ एगो मारिओ। जीवंतो मएण मारिओ, तल्लव माणव! केण हेउणा? ॥१॥ उदाहरणम्-एगो काहरो तलाए दो घडा पाणियस्स भरेऊण कावोडीए वहइ, सो एगो आउकायकायो दोसु घडेसु दुहा कओ, तओ सो काहरो गच्छंतो पक्खलिओ, एगो घडो भग्गो, तम्मि जो आउक्काओ सो मओ, इयरम्मि जीवइ, तस्स अभावे सोऽवि भग्गो, ताहे सो तेण पुब्वमएण मारिओ त्ति भण्णइ । अहवा-एगो घडो आउक्कायभरिओ, दाताह तमाउकार्य दुहा काऊण अद्धो ताविओ, सो मओ, अताविओ जीवइ, ताहे सोऽवि तत्व पक्खित्तो, तण मएण जीवंतो मारिओ त्ति । एस भारकाओ गओ । भावकायश्चौदयिकादिसमुदाय:, इह च निकायः काय इत्यनर्थान्तरमितिकृत्वा कायनिक्षेप इत्यदुष्ट एवेति गाथार्थः॥ दीप अनुक्रम [३२] १ एका कायो विधा जात एकत्तिपतिएको मतः । जीवन मतेन मारितः तापमान! केन हेतुना ॥१॥उदाहरण एका कापोतीकखटाका द्वी पा. नायस्थ घटी मत्वा कापोखा बहति. स एकोऽप्कायो योधडयोबिधा क्रत्तः, ततः स कापोतीको गच्छन् प्रस्वालितः, एको घढी भभः, तमिन् योऽकायः स वृतः, तस्मिन् जीवति, तसाभावे सोऽपि भनः तदा स तेन पूर्वमतेन मारित इति भण्यते । अबको घटोऽष्कायन्तः, ततस्तमकार्य विधाकृत्वाखापितः, स | सत्तः, भतापितो बीचति, ततः सोऽपि तत्रैव प्रक्षिप्तः, तेन मृतेन जीवन् मारित इति । एष भारकायो गतः, ~272~ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२९], भाष्यं [१७...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत दसवका हारिकृति सूत्रांक ॥१५॥ दीप अनुक्रम [३२] इत्थं पुण अधिगारो विकावकारण होइ सुत्तनि । उचारिअत्थसदिसाण कित्सक सेसगाणपि ।। २२९ ॥ षड्जीव| व्याख्या-अत्र पुनः सूत्र इति योगः, [सूत्र इत्यधिकृताध्ययने] किमित्याह-अधिकारी निकायकायेन भवति, निकाध्य जीवस्वरूपं अधिकार:-प्रयोजनं, शेषाणामुपन्यासयय॑माशयाह-उच्चरितार्थसाशामां-उच्चरितो निकायः तदर्थेतु-12 ल्यानां कीर्तन-संशब्दनं शेषाणामपि-नामादिकायानां व्युत्पत्तिहेतुत्वात्मदेशान्तरोपयोगित्वाचेति गा-1 पार्थः॥ व्याख्यातं निकायपदम् , उक्तो नाममिपनो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसर इत्यादिचर्चः पूर्ववत्तापद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तवेदम् सुयं मे आउसंतेण भगवया एवमक्खायं-इह खल छज्जीवणिया नामज्झयणं, समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेड्या सुअक्खाया सुपन्नत्ता सेयं मे अहिजिउं अज्झयणं धम्मपपणती। कयरा खल्लु सा छज्जीवणियानामज्झयणं समजेणं भयवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया सुअक्खाया सुपन्नत्ता सेये मे अहिजिउं अज्झयणं धम्मपन्नती।इमा खलु सा छजीवणिया नामज्झयणं समजेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया सुअक्खाया ॥१३५॥ सुपन्नत्ता सेयं मे अहिजिउं अज्झयणं धम्मपन्नत्ती ॥ तंजहा-पुढविकाइया आउकाइया सूत्रकारेण सूत्रितं पृथ्वि आदि षड् जीवनिकाय स्वरुपम् ~273~ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२९...], भाष्यं [१७...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप तेउकाइया वाउकाइया वणस्सइकाइया ससकाइया। पुडवी चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्य सत्थपरिणएणं, आऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढो सत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं, तेऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसता अन्नस्थ सत्थपरिणएणं वाऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नस्थ सत्थपरिणएणं, वणस्सई चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं, तंजहाअग्गबीया मूलबीया पोरबीया खंधबीया बीयरुहा संमुच्छिमा तणलया, वणस्सइकाइया सबीया चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्य सत्यपरिणएणं ॥ से जे पुण इमे अणेगे बहवे तसा पाणा, तंजहा-अंडया पोयया जराउया रसया संसेइमा समुच्छिमा उब्भिया उववाइया । जेसिं केसिंचि पाणाणं अभिकंतं पडिकतं संकुचियं पसारियं रुयं भंतं तसियं पलाइयं आगइगइविन्नाया जे य कीडपयंगा जा य कुंथुपिपीलिया सव्वे बेइंदिया सव्वे तेइंदिया सव्वे चउरिंदिया सव्वे पं. अनुक्रम [३२] ~274~ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [३२] दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ १३६ ॥ Jam Education “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [४], उद्देशक [ - ], मूलं [१] / गाथा ||१५..|| निर्युक्ति: [२२९...], भाष्यं [५७...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः चिंदिया सव्वे तिरिक्खजोणिया सव्वे नेरइया सव्वे मणुआ सव्वे देवा सव्वे पाणा परमाहम्मिआ । एसो खलु छट्टो जीवनिकाओ तसकाउ ति पच्चइ ॥ (सूत्रं १ ) श्रूयते तदिति श्रुतम् प्रतिविशिष्टार्थप्रतिपादनफलं वाग्योगमात्रं भगवता निस्सृष्टमात्मीयश्रवणकोटरप्रविष्टं क्षायोपशमिकभावपरिणामाविर्भावकारणं श्रुतमित्युच्यते श्रुतमवधृतमवगृहीतमिति पर्यायाः, 'मये' त्यात्मपरामर्शः, आयुरस्यास्तीत्यायुष्मान् तस्यामन्त्रणं हे आयुष्मन्!, का कमेवमाह ? - सुधर्मस्वामी जम्बूखामिनमिति, 'तेनेति भुवनभर्तुः परामर्शः, भगः समत्रैश्वर्यादिलक्षण इति उक्तं च- "ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः । धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, षण्णां भग इतीङ्गना ॥ १ ॥” सोऽस्यास्तीति भगवांस्तेन भगवता वर्षमानखामिनेत्यर्थः, 'एव'मिति प्रकारवचनः शब्दः, 'आख्यात' मिति केवलज्ञानेनोपलभ्यावेदितं, किमत आह-इह | खलु षड्जीवनिकायनामाध्ययनम्, अस्तीति वाक्यशेष:, 'इहेति लोके प्रवचने वा, खलुशब्दादन्यतीर्थक त्प्रवचनेषु च, 'षड्जीवनिकायेति पूर्ववत्, 'नामेत्यभिधानम्, 'अध्ययन' मिति पूर्ववदेव । इह च 'श्रुतं भये - त्यनेनात्मपरामर्शनैकान्तक्षणभङ्गापोहमाह, तत्रेत्थंभूतार्थानुपपत्तेरिति, उक्तं च "एगतखणियपक्खे गहणं चिअ सव्वहा ण अत्थाणं । अणुसरणसासणाहं कुओ उ तेलोगसिद्धाई १ ॥ १ ॥” तथा 'आयुष्मन्निति च १ एकान्तक्षणिकपक्षे ग्रहणमेव सर्वथा नार्थानाम् । अनुस्मरणशासनानि कुतस्तु त्रैलोक्य ( ते लोक० ) सिद्धानि ॥ १ ॥ २० प्र For ane & Personal Use Oily ~275~ ४ षड्जीवनिकाध्य० जीवस्वरूप ॥ १३६ ॥ by dig Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२९...], भाष्यं [१७...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] *5*35* प्रधानगुणनिष्पन्नेनामन्त्रणवचसा गुणवते शिष्यायागमरहस्यं देयं नागुणवत इत्याह, तदनुकम्पाप्रवृत्तेरिति, उक्तं च-"आमे घडे निहतं जहा जलं तं घड विणासह । इअ सिद्धृतरहस्सं अप्पाहारं विणासेइ ॥१॥" आयुख प्रधानो गुणः, सति तस्मिन्नव्यवच्छित्तिभावात् , तथा तेन भगवता एवमाख्यात'मित्यनेन खमनीपिकानिरासाच्छाखपारतक्यप्रदर्शनेन न घसर्वज्ञेन अनात्मवता अन्यतस्तथाभूतात्सम्यगनिश्चित्य परलोक-1 देशना कार्येत्येतदाह, विपर्ययसंभवाद, उक्तं च-"किं' इत्तो पावयरं? संमं अणहिगयधम्मसम्भावो । अण्णं कुदेसणाए कट्टयरागमि पाडेइ ॥१॥" अथवाऽन्यथा व्याख्यायते सूत्रैकदेश:-आउसंतेणं'ति भगवत एव विशेषणम् , आयुष्मता भगवता-चिरजीविनेत्यर्थः, मङ्गलवचनं चैतद्, अथवा जीवता साक्षादेव, अनेन च गणधरपरम्परागमस्य जीवनविमुक्तानादिशुद्धवक्तचापोहमाह, देहायभावेन तथाविधप्रयत्नाभावात्, उक्तं च-"वयर्ण न कायजोगाभावे ण य सो अणादिसुद्धस्स । गहणंमि य णो हे सत्थं अत्तागमो कह णु ॥१॥" अथवा 'आवसंतेणं ति गुरुमूलमावसता, अनेन च शिष्येण गुरुचरणसेविना सदा भान्यमित्येतदाह, ज्ञानादिवृद्धिसद्भावाद, उक्तं च-"णाणस्स होइ भागी थिरयरओ दंसणे चरिते य । धन्ना दीप अनुक्रम [३२] 545354 मामे घटे निहितं यथा जलं ते घट विनाशयति । इति (एवं) सिद्धान्तरहस्यमल्पाधार बिनाशयति ॥१॥ २ किमेतमायापकर सम्यगनषिमतधमः *सद्भावः । अन्य देशमया कहकरागसि पातयति ॥१॥३वचनं न काययोगाभावेन सोऽनादिशुद्धस्य पदणे चनो देता शाखमात्मागमः (आप्तागमः) कथा॥१॥ ४ कायस्येति. ५ज्ञानस भागी भवति स्थिरतरः दर्शने चारित्रे च । धन्या यावत्कथं गुमकुछवासन मुवन्ति ॥१॥ ~ 276~ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [३२] दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ १३७ ॥ “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [४], उद्देशक [ - ], मूलं [१] / गाथा ||१५..|| निर्युक्ति: [२२९...], भाष्यं [५७...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः १ षड्जीव निकाध्य० आवकहाए गुरुकुलवासं न मुंचति ॥ १ ॥" अथवा 'आमुसंतेणं' आमृशता भगवत्पादारविन्दयुगलमुत्तमाट्रेन, अनेन च विनयप्रतिप सेर्गरीयस्त्वमाह, विनयस्य मोक्षमूलत्वात् उक्तं च- "मूलं संसारस्सा होंति कसाया अणतपत्तस्स । विणओ ठाणपउत्तो दुक्खविमुक्खस्स मोक्खस्स ॥ १ ॥” कृतं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः जीवस्वरूपं -तत्र इह खलु षड्जीवनिकायिकानामाध्ययनमस्तीत्युक्तम्, अत्राह एषा षड्जीवनिकायिका केन प्रवेदिता प्ररूपिता वेति ?, अन्नोच्यते, तेनैव भगवता, यत आह- 'समणेणं भगवया महावीरेण कासवेणं पवेइया सुअक्खाया सुपन्नत्ते'ति, सा च तेन 'श्रमणेन' महातपखिना 'भगवता' समग्रैश्वर्यादियुक्तेन 'महावीरेण ' 'शूर वीर विक्रान्ताविति कषायादिशत्रुजयान्महाविक्रान्तो महावीरः, उतं च - "विदारयति यत्कर्म, तपसा च विराजते । तपोवीर्येण युक्त, तस्माद्वीर इति स्मृतः ॥ १ ॥” महांश्चासौ वीरच महावीरः तेन महावीरेण, 'काश्यपेने ति काश्यपसगोत्रेण, 'प्रवेदिता' नान्यतः कुतश्चिदाकर्ण्य ज्ञाता किं तर्हि ?, स्वयमेव केवलालोकेन प्रकर्षेण वेदिता प्रवेदिता-विज्ञातेत्यर्थः तथा 'खाख्यातेति सदेवमनुष्यासुरायां पर्षदि सुष्ठु आख्याता वाख्याता, तथा 'सुप्रज्ञसेति सुष्ठु प्रज्ञप्ता यथैवाख्याता तथैव सुष्ठु सूक्ष्मपरिहारासेवनेन प्रकर्षेण सम्यगासेवितेत्यर्थः, अनेकार्थत्वाद्धातूनां ज्ञपिरासेवनार्थः, तां चैवंभूतां षड्जीवनिकायिकां 'श्रेयो मेध्येतुं' श्रेयः पथ्यं हितं ममेत्यात्मंनिर्देशः, छान्दसत्वात्सामान्येन ममेत्यात्मनिर्देश इत्यन्ये, ततश्च श्रेय १ मूल संसारस्य भवन्ति कषाया अनन्तपत्रस्य विनयः स्थानप्रयुक्तो दुःखविमुक्तस्य मोक्षस्य ॥ १ ॥ २ आत्मार्थः For ane & Personal Use Oly ~277~ ॥ १३७ ॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२९...], भाष्यं [१७...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप आत्मनोऽध्येतुम्, 'अध्येतु मिति पठितुं श्रोतुं भावयितुं, कुत इत्याह-'अध्ययनं धर्मप्रशसिः निमि सकारणहेतुषु सर्वासां प्रायो दर्शन मिति वचनात् हेती प्रथमा, अध्ययनवादू-अध्यात्मानयनाचेतसो ताविशुद्ध्यापादनादित्यर्थः, एतदेव कुत इस्याह-'धर्मप्रज्ञप्ते' प्रज्ञपनं प्रज्ञप्तिः धर्मस्य प्रज्ञप्तिः धर्मप्रशसिः ततो धर्मप्रज्ञप्तेः कारणाञ्चेतसो विशुद्ध्यापादनं चेतसो विशुद्ध्यापादनाच श्रेय आत्मनोऽध्येतुमिति । अन्ये तु व्याचक्षते-अध्ययनं धर्मप्रज्ञप्तिरिति पूर्वोपन्यस्ताध्ययनस्यैवोपादेयतयाऽनुवादमात्रमेतदिति ॥ शिष्यः पृछति-कतरा खल्वि'त्यादि, सूत्रमुक्तार्थमेव, अनेनैतदर्शयति-विहायाभिमान संविग्नेन शिध्येण सर्वकार्येष्वेव गुरुः प्रष्टव्य इति, आचार्य आह-इमा खस्वि'त्यादि सूत्रमुक्तार्थमेव, अनेनाप्येतदर्शयति-गुणवते शिष्याय गुरुणाऽप्युपदेशो दातव्य एवेति । 'तंजहा-पुढविकाइया' इत्यादि, अन्न तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, पृथिवी-काठिन्यादिलक्षणा प्रतीता सैव काय:-शरीरं येषां ते पृथिवीकायाः पृथिवीकाया एवं पृथिवीकायिकाः, स्वार्थिकष्ठक, आपो-द्रवाः प्रतीता एव ता एव काय:-शरीरं येषां तेऽप्कायाः अप्काया एष अप्कायिकाः। तेज-उष्णलक्षणं प्रतीतं तदेव काय:-शरीरं येषां ते तेजाकायाः तेजाकाया एव तेजाकायिकाः। वायु:-चलनधर्मा प्रतीत एव स एव काय:-शरीरं येषां ते वायुकायाः वायुकाया एव वायुकायिकाः । वनस्पति:-लतादिरूपः प्रतीतः, स एव काय:-शरीरं येषां ते वनस्पतिकायाः, वनस्पतिकाया एवं १ विभक्तीना. अनुक्रम [३२] JaEkannal ~ 278~ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२९...], भाष्यं [१७...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत पड़जीवनिकाध्य सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम दशवकाशवनस्पतिकायिकाः। एवं त्रसनशीलास्त्रसाः-प्रतीता एव, प्रसाः कायाः-शरीराणि येषां ते त्रसकाया, बस- हारि-वृत्तिः । काया एव त्रसकायिकाः । इह च सर्वभूताधारत्वात् पृथिव्याः प्रथमं पृथिवीकायिकानामभिधानं, तदनन्तरं तत्पतिष्ठितत्वादप्कायिकानामपि, तदनन्तरं तत्प्रतिपक्षत्वात्तेजस्कायिकानां, तदनन्तरं तेजस उपष्टम्भकत्वा॥१३८॥ द्वायुकायिकानां, तदनन्तरं वायोः शाखाप्रचलनादिगम्यत्वानस्पतिकायिकानां, तदनन्तरं वनस्पतेरसोपग्राहकत्वाप्रसकायिकानामिति । विप्रतिपत्तिनिरासाथै पुनराह-'पुढवी चित्तमंतमक्खाया' 'पृथिवी' उक्तलक्षणा 'चित्तवती ति चित्तं-जीवलक्षणं तदस्या अस्तीति चित्तवती-सजीवेत्यर्थः, पाठान्तरं वा 'पुढबी चित्तमत्तमक्खाया' अन मात्रशब्दः स्तोकवाची, यथा सर्षपत्रिभागमात्रमिति, ततश्च चित्समात्रा-स्तोकचित्ते-| त्यर्थः, तथा च प्रबलमोहोदयात्सर्वजघन्यं चैतन्यमेकेन्द्रियाणां, तदभ्यधिक द्वीन्द्रियादीनामिति, 'आख्याता' सर्वज्ञेन कथिता, इयं च 'अनेकजीवा' अनेके जीवा यस्यां साऽनेकजीवा, न पुनरेकजीवा, यथा वैदिकानां 'पृथिवी देवतेत्येवमादिवचनप्रामाण्यादिति । अनेकजीवाऽपि कैश्चिदेकभूतात्मापेक्षयेष्यत एव, यथाहुरेके"एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥१॥” अत आह -'पृथकसत्त्वा' पृथग्भूताः सत्त्वा-आत्मानो यस्यां सा पृथक्सत्त्वा, अङ्गुलासंख्येयभागमात्रावगाहनया पाजरमार्थिक्याऽनेकजीवसमाश्रितेति भावः । आह-यद्येवं जीवपिण्डरूपा पृथिवी ततस्तस्यामुचारादिकरणे |नियमतस्तदतिपातादहिंसकत्वानुपपत्तिरित्यसंभवी साधुधर्म इत्यत्राह-'अन्यत्र शत्रपरिणतायाः' शखप [३२] ॥१३८॥ JamEache ~ 279~ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [३२] वृश० २४ “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [ ४ ], उद्देशक [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित मूलं [१] / गाथा || १५... || निर्युक्तिः [ २३० ], भाष्यं [ ५७...] आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः रिणतां पृथिवीं विहाय परित्यज्यान्या चित्तवत्याख्यातेत्यर्थः । अथ किमिदं पृथिव्याः शस्त्रमिति शस्त्रप्रस्तावात्सामान्यत एवेदं द्रव्यभावभेदभिन्नं शस्त्रमभिधित्सुराह दव्वं सत्यग्गविसंनेविल खारलोणमाईयं । भावो उ दुप्पउत्तो वाया काओ अबिरई अ ।। २३० ॥ व्याख्या- 'द्रष्य' मिति द्वारपरामर्शः, तत्र द्रव्यशस्त्रं खड्गादि, अग्निविषस्नेहाम्लानि प्रसिद्धानि, 'क्षारलवणादीनि' अत्र तु क्षारः - करीरादिप्रभवः, लवणं-प्रतीतम्, आदिशब्दात्करीषादिपरिग्रहः । उक्तं द्रव्यशस्त्रम्, अधुना भावशस्त्रमाह-भावस्तु दुष्प्रयुक्तौ वाक्कायौ अविरतिश्च भावशस्त्रमिति, तत्र भावो दुष्प्रयुक्त इत्यनेन द्रोहाभिमानेर्ष्यादिलक्षणो मनोदुष्प्रयोगो गृह्यते, वाग्दुष्प्रयोगस्तु हिंस्रपरुषादिवचनलक्षणः, कायदुष्प्रयो गस्तु धावनवल्गनादिः, अविरतिस्त्वविशिष्टा प्राणातिपातादिपापस्थानकप्रवृत्तिः, एतानि खपरव्यापादकस्वात्कर्मबन्धनिमित्तत्वाद्भावशस्त्रमिति गाथार्थः ॥ इह न भावशस्त्रेणाधिकारः, अपितु द्रव्यशस्त्रेण, तच्च त्रिप्रकारं भवतीत्याह किंची सकायथं किंची परकाय तदुभयं किंचि । एयं तु दव्यसत्थं भाषे अस्संजमो सत्यं । २३१ ।। व्याख्या- किंचित्स्वकायशस्त्रं, यथा कृष्णा मृदू नीलादिमृदः शस्त्रम्, एवं गन्धरसस्पर्शभेदेऽपि शस्त्रयोजना कार्या, तथा 'किञ्चित्परकाये'ति परकायशस्त्रं यथा पृथ्वी असेजःप्रभृतीनाम् असेजःप्रभृतयो वा - थिव्याः, 'तदुभयं किञ्चिदिति किञ्चित्तदुभयशस्त्रं भवति, यथा कृष्णा मृद् उदकस्य स्पर्शरसगन्धादिभिः For ane & Personal Use Oily ~ 280~ brary dig Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [३२] दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ १३९ ॥ Education “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [४], उद्देशक [ - ], मूलं [१] / गाथा || १५...|| निर्युक्तिः [ २३१], भाष्यं [ ५७...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः पाण्डुमृदश्च यदा कृष्णमृदा कलुषितमुदकं भवति तदाऽसौ कृष्णमृद् उदकस्य पाण्डुमृदश्च शस्त्रं भवति, एवं (तत्) तु द्रव्यशस्त्रं, तुशब्दोऽनेकप्रकारविशेषणार्थः, एतदनेकप्रकारं द्रव्यशस्त्रम्, 'भाव' इति द्वारपरामर्शः, असंयमः शस्त्रं चरणस्येति गाथार्थः । एवं च परिणतायां पृथ्व्यामुचारादिकरणेऽपि नास्ति तदतिपात इत्यहिंसकत्वोपपत्तेः संभवी साधुधर्म इति । एष तावदागमः, अनुमानमप्यत्र विद्यते - सात्मका विद्रुमलवणोपलादयः पृथिवीविकाराः, समानजातीयाङ्करोत्पस्युपलम्भात्, देवदत्तमांसाङ्कुरवत्, एवमागमोपपत्तिभ्यां व्यवस्थितं पृथिवीकायिकानां जीवत्वम् उक्तं च- “ आगमयोपपत्तिश्च, संपूर्ण दृष्टिलक्षणम् । अतीन्द्रियाणामर्थानां सद्भावप्रतिपत्तये || १ || आगमो ह्याप्तवचनमाप्तं दोषक्षयाद्विदुः । वीतरागोऽनृतं वाक्यं, न ब्रूयाद्धे| त्वसंभवात् || २ ||" इत्यलं प्रसङ्गेन । एवमापश्चित्तवत्य आख्याताः, तेजश्चित्तवदाख्यातं, वायुवित्तवानाख्यातः, वनस्पतिश्चित्तवानाख्यातः, इत्याद्यपि द्रष्टव्यम्। विशेषस्त्वभिधीयते - सात्मकं जलं, भूमिस्वातस्वाभा विकसंभवात्, दर्दुरवत्। सात्मकोऽग्निः, आहारेण वृद्धिदर्शनात्, बालकवत् । सात्मकः पवनः, अपरप्रेरिततिर्यग्निगनियमित दिग्गमनाद्, गोवत्। सचेतनास्तरवः सर्वस्वगपहरणे मरणाद्, गर्दभवत् । वनस्पतिजीवविशे| प्रतिपादनायाह-'संजहा अग्गबीया' इत्यादि, तद्यथेत्युपन्यासार्थः, अग्रवीजा इति-अनं बीजं येषां ते अग्रबीजा:- कोरण्टकादयः, एवं मूलं बीजं येषां ते मूलबीजा-उत्पलकन्दादयः, पर्व बीजं येषां ते पर्वबीजा -इक्ष्वादयः, स्कन्धो बीजं येषां ते स्कन्धवीजाः शलक्यादयः, तथा बीजाद्रोहन्तीति बीजरुहाः शाल्यादयः, For ane & Personal Use City ~ 281~ ४ षड्जीवनिकाध्य० जीवस्वरूपं ॥ १३९ ॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-1, मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३१], भाष्यं [५७...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप संमूर्छन्तीति संमूछिमाः-प्रसिद्धबीजाभावेन पृथिवीवर्षादिसमुद्भवास्तथाविधास्तृणादयः, न चैते न संभ वन्ति, दग्धभूमावपि संभवात् , तथा तृणलतावनस्पतिकायिका इति, अत्र तृणलताग्रहणं खगतानेकभेदसंदादर्शनार्थ, वनस्पतिकायिकग्रहणं सूक्ष्मयादराद्यशेषवनस्पतिभेदसंग्रहार्थम्, एतेन पृथिव्यादीनामपि खगताः भेदाः पृथिवीशर्करादया तथाऽवश्यायमिहिकादया तथा अङ्गारज्वालादयः, तथा झण्झामण्डलिकादयो [भेदा:]] सूचिता इति । 'सथीजाश्चित्तवन्त आख्याता' इति, एते धनन्तरोदिता वनस्पतिविशेषाः सबीजा:-खस्खनिवन्धनाश्चित्तवन्तः-आत्मवन्त आख्याता:-कथिताः । एते च अनेकजीवा इत्यादि ध्रुवगण्डिका पूर्ववत् । सबीजाश्चित्तवन्त आख्याता इत्युक्तम्, अत्र च भवत्याशङ्का-किं बीजजीव एवं मूलादिजीवो भवत्युतान्यस्तमिनुकान्ते उत्पद्यते इति?, अस्य व्यपोहायाह-" श्रीए जोणिन्भूए जीवो तुकमा सो व अन्नो वा । जोऽवि य मूले जीवो सोऽवि य पत्ते पढमयाए ॥ २३२ ॥ व्याख्या-धीजे योनिभूते इति, बीजं हि द्विविधं भवति-योनिभूतमयोनिभूतं च, अविध्वस्तयोनि विध्वस्तयोनि च, प्ररोहसमर्थं तदसमर्थ चेत्यर्थः । तत्र योनिभूतं सचेतनमचेतनं च, अयोनिभूतं तु नियमादचेतदानमिति । तत्र वीजे योनिभूते इत्यनेनायोनिभूतस्य व्यवच्छेदमाह, तत्रोत्पत्यसंभवाद, अबीजवादित्यर्थः ।। योनिभूते तु-योन्यवस्थे बीजे, योनिपरिणाममत्यजतीत्युक्तं भवति, किमित्याह-जीचो व्युत्क्रामति-उत्पद्यते, स एव-पूर्वको बीजजीवा, बीजनामगोत्रे कर्मणी वेदायित्वा मूलादिनामगोत्रे चोपनियख्य, अन्यो वा पृथिवी अनुक्रम [३२] ~282~ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-1, मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२], भाष्यं [५७...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत ४ षड्जीवनिकाध्य. जीवस्वरूप सूत्रांक दीप दशवैका० कायिकादिजीव एवमेव, 'योऽपि च मूले जीव' इति य एव मूलतया परिणमते जीवः सोऽपि च पत्रे प्रथ- हारि-वृत्तिःमतयेति स एव प्रथमपत्रतयाऽपि परिणमत इत्येकजीवकर्तृके मूलप्रथमपत्रे इति । आह-यद्येवं 'सव्वोऽवि किसलओ खलु उग्गममाणो अणंतओ भणिओं' इत्यादि कथं न विरुध्यते इति?, उच्यते, इह बीजजी॥१४॥ वोऽन्यो वा बीजमूलखेनोत्पद्य तदुच्छूनावस्थां करोति, ततस्तदनन्तरभाविनी किसलयावस्थां नियमेनानन्तजीवाः कुर्वन्ति, पुनश्च तेषु स्थितिक्षयात्परिणतेष्वसावेव मूलजीवोऽनन्तजीवतनुं परिणम्य(मय्य) खशरीरतया तावद्र्धते यावत्प्रथमपत्रमिति न विरोधः । अन्ये तु व्याचक्षते-प्रथमपत्रकमिह याऽसौ बीजस्य समुच्छूनावस्था, नियमप्रदर्शनपरमेतत्, शेषं किसलयादि सकलं नावश्यं मूलजीवपरिणामाविर्भावितमिति मन्तव्यं, ततश्च 'सब्वोऽवि किसलओ खलु उग्गममाणो अर्णतओ होई' इत्याद्यप्यविरुडं, मूलपत्रनिर्वर्तनारम्भकाले |किसलयत्वाभावादिति गाथार्थः ॥ एतदेवाह भाष्यकार: विद्वत्थाविद्वत्था जोणी जीवाण होइ नायब्वा । तत्थ अविद्धत्याए बुकमई सो य अन्नो वा ।। ५८ ॥ भाष्यम् ॥ व्याख्या-विध्वस्ताऽविध्वस्ता-अप्ररोहप्ररोहसमर्था योनिर्जीवानां भवति ज्ञातव्या, तत्राविध्वस्तायां योनौ व्युत्क्रामति स चान्यो वा, जीव इति गम्यत इति गाथार्थः॥ जो पुण मूले जीवो सो निव्वत्तेइ जा पढमपत्तं । कंदाइ जाव बीर्य सेसं अन्ने पकुवंति ।। ५९ ॥ भाष्यम् ।। १ सर्वोऽपि किशलया खलु उद्गच्छन् अनन्तको भणितः, अनुक्रम [३२] का॥१४॥ CCESCORE ~ 283~ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [५९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] %5C%5ॐॐॐॐ दीप व्याख्या-या पुनर्मूले जीवो बीजगतोऽन्यो वा स निवर्तयति यावत् प्रथमपत्रं तावदेक एवेति, अत्रापि भावार्थः पूर्ववदेव । कन्दादि यावडीजं शेषमन्ये प्रकुर्वन्ति, वनस्पतिजीचा एव, व्याख्याद्वयपक्षेऽप्येतविसारोधि, एकता समुच्छूनावस्थाया एवं प्रथमपत्रतया विवक्षितत्वात्तदनु कन्दादिभावतः अन्यत्र कन्दादेवेन-12 स्पतिभेदत्वात्तस्य च प्रथमपत्रोत्तरकालमेव भावादिति गाथार्थः ॥ अतिदेशमाह सेसं सुत्ताकासं काए काए अहकाम बूया । अज्झयणत्था पंच य पगरणपयवंजणविसुद्धा ।। ६० ॥ भाष्यम् ।। | व्याख्या-शेषं सूत्रस्पर्श उक्तलक्षणं 'काये कायें पृथिव्यादी 'यथाक्रम यथापरिपाटि ब्रूयात् अनुयोगधर एच, न केवलं सूत्रस्पर्शमेव, किंतु अध्ययनार्थान् पञ्च च-प्रागुपन्यस्तान् जीवाजीवाभिगमादीन् प्रकरणपद-3 व्यञ्जनविशुद्धान ब्रूयात, सूत्र एव जीवाभिगमः काये काये इत्यनेनैव लब्ध इति पञ्चग्रहणम्, अन्यथा षडिहााधिकारा इति । प्रक्रियन्तेऽर्था अस्मिन्निति प्रकरणम्-अनेकार्थाधिकारवस्कायप्रकरणादि, पदं सुबन्तादि, कादीनि व्यञ्जनानि, एभिर्विशुद्धान ब्यादिति गाथार्थः । इदानीं त्रसाधिकार एतदाह-से जे पुण इमें इति, सेशब्दोऽथशब्दार्थः, असावप्युपन्यासार्थः, 'अब प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्गालोपन्यासप्रतिवचनसमुच्चयेविति वचनात्, अथ ये पुनरमी-बालादीनामपि प्रसिद्धा अनेके-द्वीन्द्रियादिभेदेन बहवः एकैकस्यां जाती। |त्रसाः प्राणिन:-त्रस्यन्तीति त्रसाः प्राणा-उच्छ्रासादय एषां विद्यन्त इति प्राणिनः, तद्यथा-अण्डजा इत्यादि.13 एष खलु षष्ठो जीवनिकायः त्रसकाय इति प्रोच्यत इति योगः, तत्राण्डाजाता अण्डजा:-पक्षिगृहकोकि अनुक्रम [३२] ~ 284~ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत हारि-वृत्तिः सूत्रांक (3) दीप दशवैकालादयः, पोता एव जायन्त इति पोतजाः, "अन्येष्वपि दृश्यते"(पा०३-२-१०१) डप्रत्ययो जनेरिति वच- ४ षड्जीव नात् । ते च हस्तिवल्गुलीचर्मजलौकाप्रभूतयः, जरायुवेष्टिता जायन्त इति जरायुजा-गोमहिष्यजाविकमनु-हानिकाध्य.. दाव्यादयः, अत्रापि पूर्ववडप्रत्ययः, रसाजाता रसजा:-तक्रारनालदधितीमनादिषु पायुकृम्याकृतयोऽतिसूक्ष्मा जीवस्वरूप ॥१४॥ भवन्ति, संखेदाजाता इति संखेदजा-मत्कुणयूकाशतपदिकादयः, संमूर्च्छनाजाताः संमूच्र्छनजाः-शलभपि पीलिकामक्षिकाशालूकादयः, उद्भेदाजन्म येषां ते उद्भेदाः, अथवा उद्भेदनमुद्रित् उद्भिज्जन्म येषां ते उद्भिजाः दि-पतङ्गखञ्जरीटपारिप्लवादयः, उपपाताजाता उपपातजाः अथवा उपपाते भवा औपपातिका-देवा नारकाश्च । एतेषामेव लक्षणमाह-येषां केषाश्चित्सामान्येनैव प्राणिनां-जीवानामभिक्रान्तं भवतीति वाक्यशेषः, अभिक्रमणमभिक्रान्तं, भावे निष्ठाप्रत्ययः, प्रज्ञापकं प्रत्यभिमुखं क्रमणमित्यर्थः, एवं प्रतिक्रमणं प्रतिक्रान्तं-प्रज्ञापकात्मतीपं क्रमणमिति भावः, संकुचनं संकुचितं-गात्रसंकोचकरणं, प्रसारणं प्रसारित-पात्रविततकरणं,|वणं रुतं-शब्दकरणं, भ्रमणं भ्रान्तम्-इतश्चेतश्च गमनं, असनं त्रस्तं-दुःखादुद्वेजनं, पलायनं पलायितं-फुतश्चिनाशनं, तथाऽऽगते:-कुतश्चित्कचित्, गतेश्च-कुतश्चित्कचिदेव, 'विण्णाया' विज्ञातारः । आह-अभिक्रान्तमतिकान्ताभ्यां नागतिगत्योः कश्चिद्भेद इति किमर्थ भेदेनाभिधानम्?, उच्यते, विज्ञानविशेषख्यापनार्थम्, एतदुक्तं भवति-य एव विजानन्ति यथा वयमभिक्रमामः प्रतिक्रमामो वा त एवं प्रसाः, न तु वृतिं प्रत्यभिकमणवन्तोऽपि वयादय इति । आह-एवमपि द्वीन्द्रियादीनामत्रसत्वप्रसङ्गः, अभिक्रमणप्रतिक्रमणभावेऽप्येवं अनुक्रम [३२] ॥१४१॥ Jantacaroni ~285~ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-1, मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप विज्ञानाभावात्, नैतदेवं, हेतुसंज्ञाया अवगतः, बुद्धिपूर्वकमिव छायात उष्णमुष्णाद्वा छायां प्रति तेषामभिक्रमणादिभावात्, न चैवं बल्ल्यादीनामभिक्रमणादि, ओघसंज्ञया प्रवृत्तेरिति कृतं प्रसङ्गेन । अधिकृतनसभेदानाह-'जे य' इत्यादि, ये च कीटपतङ्गा इत्यत्र कीटा:-कृमयः, 'एकग्रहणे तजातीयग्रहण मिति द्वीन्द्रियाः। शङ्खादयोऽपि गृह्यन्ते, पतङ्गाः-शलभा, अत्रापि पूर्ववच्चतुरिन्द्रिया भ्रमरादयोऽपि गृयन्त इति, तथा याश्च कुन्थुपिपीलिका इत्यनेन ब्रीन्द्रियाः सर्व एव गृह्यन्ते, अत एवाह-सर्वे द्वीन्द्रिया:-कृम्यादयः सर्वे जीन्द्रियाःकुन्ध्वादयः, सर्वे चतुरिन्द्रिया-पतङ्गादयः । आह-ये च कीटपतङ्गा इत्यादावुद्देशव्यत्ययः किमर्थम् ?, उच्यते, 'विचित्रा सूत्रगतिरतन्नः क्रम इति ज्ञापनार्थम् , सर्वे पश्चेन्द्रियाः सामान्यतो, विशेषतः पुनः सर्वे तिर्यग्योनयो-गवादयः, सर्वे नारका-रत्नप्रभानारकादिभेदभिन्नाः, सर्वे मनुजा:-कर्मभूमिजादयः, सर्वे देवा-भवनवास्यादयः, सर्वशब्दश्चात्र परिशेषभेदानां त्रसत्वख्यापनार्थः, सर्व एवैते बसाः न वेकेन्द्रिया इव प्रसाः स्थावराश्चेति, उक्तं च-"पृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावराः" "तेजोवायू द्वीन्द्रियादयश्च त्रसाः" (तत्त्वा० अ० २ सू०१३-१४) इति । 'सर्वे प्राणिनः परमधर्माण' इति सर्व एते प्राणिनो-दीन्द्रियादयः पृथिव्यादयश्च परमधर्माण इति-अत्र परमं-मुखं तद्धर्माणः सुखधर्माण:-सुखाभिलाषिण इत्यर्थः, यतश्चैवमित्यतो दुःखोत्पादपरिजिहीर्षया एतेषां षण्णां जीवनिकायानां नैव स्वयं दण्डं समारभेतेति योगः। षष्ठं जीवनिकायं निगमयन्नाह-एष खलु-अनन्तरोदितः कीटादिः 'षष्ठो जीवनिकायो' पृथिव्यादिपश्चकापेक्षया षष्ठत्वमस्य, त्रसकाय अनुक्रम [३२] ~286~ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दशवैका० इति 'प्रोच्यते' प्रकर्षणोच्यते सर्वैरेवतीर्थकरगणधरैरिति प्रयोगार्थः॥ प्रयोगश्च-विद्यमानकर्तृकमिदं शरीरम् , आ- ४ षड्जीवहारि-वृत्तिः । दिमत्प्रतिनियताकारत्वात् , घटवत् । आह-इदं त्रसकायनिगमनमनभिधाय अस्थाने 'सर्वे प्राणिनः परमध- निकाध्य. माण' इत्यनन्तरसूत्रसंबन्धिसूत्राभिधानं किमर्थम् ?, उच्यते, निगमनसूत्रव्यवधानवदर्थान्तरेण व्यवधानख्याप- जीवस्वरूप ॥१४२॥ नार्थम्, तथाहि-त्रसकायनिगमनसूत्रावसानो जीवाभिगमः, अत्रान्तरे अजीवाभिगमाधिकारः, तदर्थमभिधाय चारित्रधर्मों वक्तव्यः, तथा च वृद्धव्याख्या-एसो खलु छट्टो जीवनिकाओ तसकाउत्ति पचह, एस ते जीवाभिगमो भणिओ, इयाणि अजीवाभिगमो भण्णइ-अजीचा दुविहा, तंजहा-पुग्गला य नोपोग्गला य, पर पोग्गला छविहा, तंजहा-सुहमसुहुमा सुहुमा सुहुमबायरा बायरसुहुमा बायरा बायरबायरा । सुहुमसुहमा परमाणुपोग्गला, सुहमा दुपएसियाओ आढत्तो जाव सुहुमपरिणओ अणंतपएसिओ खंधो, सुहुमवायरा गंधपोग्गला, बायरसुहुमा वाउक्कायसरीरा, बादरा आउकायसरीरा उस्सादीणं, बायरबायरा तेउवणस्सइपुढवितससरीराणि । अहवा चउब्विहा पोग्गला, तंजहा-खंधा खंधदेसा खंधपएसा परमाणुपोग्गला, दीप अनुक्रम [३२] एष खल षष्ठो जीवनिकायः प्रसकाय इति प्रोच्यते, एष तुभ्यं जीवाभिगमो भणितः, इदानीमजीवाभिगमो भव्यते-भजीवा द्विविधाः, तद्यथा-पुलाच नोपुद्गलाच, पुद्गलाः पवियाः, सयथा--सूक्ष्मसूक्ष्माः सूक्ष्माः सूक्ष्मवादरा बादरसूक्ष्मा बादरा बादस्यादराः । सूक्ष्मसूक्ष्माः परमाणुपुङ्गलाः, सूक्ष्मा द्विप्रदेशिकादा थी यानरसूक्ष्मपरिणतोऽनन्तप्रदेशिकः स्कन्धः, सूक्ष्मबादरा गन्धपुरलाः, बादरसूक्ष्मा वायुकायशरीरागि, बादरा बकायशरीराणि अवश्यायादीनां, बादरबावरा-IR॥१४॥ |स्तेजोवनस्पतिचीत्रसशरीराणि । अथवा चतुर्विधाः पुरलाः, तबया-स्कन्धाः स्वन्धवेशाः स्कन्यप्रदेशात परमाणपदकाः । ~ 287~ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप एस पोग्गलस्थिकाओ गहणलक्षणो, णोपोग्गलत्यिकाओ तिविहो, तंजहा-धम्मस्थिकाओ अधम्मत्थिकाओ आगासस्थिकाओ, तत्थ धम्मधिकाओ गइलक्षणो, अधम्मस्थिकाओ ठिइलक्षणो, आगासस्थिकाओ अवगाहलक्षणो, तथा चैतत्संवाद्यार्षम्-"दुविहा हुंति अजीवा पोग्गलनोपोग्गला य छ सिविहा परमाणुमादि पोग्गल णोपोग्गल धम्ममादीया ॥१॥ सुहुमसुहुमा य मुडमा तह चेव य मुहुमायरा णेया। वायरसुहमा बोयर तह वायरवायरा चेव ॥२॥ परमाणु दुप्पएसादिगा उ तह गंधपोग्गला होन्ति । बीऊ आउसरीरा तेऊमादीण चरिमा उ ॥ ३॥ धम्माधम्माऽऽगासा लोए णोपोग्गला तिहा होति । जीवाईण गइहिइअवगाहणिमित्तगा णेया ॥४॥” इच्चेसि छण्हं जीवनिकायाणं नेव सयं दंडं समारंभिजा नेवन्नेहिं दंडं समारंभाविजा दंडं समारंभंतेऽवि अन्ने न समणुजाणामि जावजीवाए तिविहं तिविहेणं १ एष पुनलासिकायो ग्रहणलक्षणः, नोपुगणस्तिकायविविधः, तद्यथा-धर्मास्तिकायः अधति कायः भाकाषाास्तिकायः, तत्र धर्मास्तिकायो गतिलक्षणः अधमर्मास्तिकायः स्थितिलक्षणः आकाशास्तिकायोऽवगाहलक्षणः ।-विविधा भवन्यजीवाः पुगला नोपुलाव पद्मिविधाः । परमावादयः पुगला | नोपला धमोखिकायादयः ॥१॥सुक्ष्मसूश्माबसमाखन सूक्ष्मवादरा शेषाः। बादरसमा बादरास्तथा बादरवादराव ॥२॥ परमात प्रवेशिकास्तु तथा गन्धपुरला भवन्ति । वायुरछरीराणि तेजभादीनां परमारतु ॥ ३॥ धर्माधर्माकाशास्तिकामा लोके नोपुलानिया भवन्ति । जीवादीनां गतिथिसमाहानिमित्ता शियाः॥४॥ अनुक्रम [३२] षड् जीव-निकायानाम् हिंसाया: विरमणस्य प्रतिज्ञा ~288~ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [२] दीप अनुक्रम [33] दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ १४३ ॥ Ja Education “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [४], उद्देशक [ - ], मूलं [२] / गाथा ||१५...|| निर्युक्तिः [२३२...], भाष्यं [६०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः मणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि तस्स भंते! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । ( सूत्र० २ ) उक्तो जीवाभिगमः, साम्प्रतं चारित्रधर्मः, तत्रोक्तसंबन्धमेवेदं सूत्रम् — 'इचेसिं' इत्यादि, सर्वे प्राणिनः परमधर्माण इत्यनेन हेतुना 'एतेषां षण्णां जीवनिकायाना' मिति, सुपां सुपो भवन्तीति सप्तम्यर्थे पछी, एतेषु षट्सु जीवनिकायेषु-अनन्तरोदितखरूपेषु नैव 'स्वयम्' आत्मना 'दण्डं' संघट्टन परितापनादिलक्षणं 'समारभेत' प्रवर्तयेत् तथा नैव 'अन्यैः' प्रेष्यादिभिः 'दण्डम्' उक्तलक्षणं 'समारंभपेत्' कारयेदित्यर्थः, दण्डं समारभमाणानप्यन्यान् प्राणिनो 'न समनुजानीयात' नानुमोदयेदिति विधायकं भगवद्वचनम् । यतश्चैवमतो 'यावज्जीव'मित्यादि यावद् व्युत्सृजामि, एवमिदं सम्यक प्रतिपद्येतेत्यैदम्पर्य, पदार्थस्तु - जीवनं जीवा यावज्जीवा यावज्जीवम्-आप्राणोपरमादित्यर्थः किमित्याह - 'त्रिविधं त्रिविधेनेति तिस्रो विधा विधानानि कृतादिरूपा अस्येति त्रिविधः, दण्ड इति गम्यते, तं त्रिविधेन करणेन, एतदुपन्यस्यति मनसा वाचा कायेन, एतेषां स्वरूपं प्रसिद्धमेव, अस्य च करणस्य कर्म उक्तलक्षणो दण्डः, तं वस्तुतो निराकार्यतया सूत्रेणैवोपन्यस्यन्नाह 'न करोमि स्वयं, न कारयाम्यन्यैः कुर्वन्तमध्यम्यं न समनुजानामीति, 'तस्य भवन्त ! प्रतिक्रामामी'ति १] लिडोकवाद, तथा च नायपुरुषवचनेनाप्युको क्षतिः, For ane & Personal Use Oily ~289~ ४ षड्जीवनिकाध्य० जीवस्वरूपं ॥ १४३ ॥ anetary dig Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [२] दीप अनुक्रम [३३] Jur Education “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + | भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [४], उद्देशक [ - ], मूलं [२] / गाथा ||१५...|| निर्युक्तिः [२३२...], भाष्यं [६०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः तस्येत्यधिकृतो दण्डः संबध्यते, संबन्धलक्षणा अवयवलक्षणा वा षष्ठी, योऽसौ त्रिकालविषयो दण्डस्तस्य संबन्धिनमतीतमवयवं प्रतिक्रामामि, न वर्तमानमनागतं वा, अतीतस्यैव प्रतिक्रमणात्, प्रत्युत्पन्नस्य संवरणा|दनागतस्य प्रत्याख्यानादिति, भदन्तेति गुरोरामन्त्रणम्, भदन्त भवान्त भयान्त इति साधारणा श्रुतिः, एतच गुरुसाक्षिक्येव व्रतप्रतिपत्तिः साध्वीति ज्ञापनार्थ, प्रतिक्रामामीति भूताद्दण्डान्निवर्तेऽहमित्युक्तं भ वति, तस्माच निवृत्तिर्यसदनुमतेर्विरमणमिति, तथा 'निन्दामि गर्हामी 'ति, अत्रात्मसाक्षिकी निन्दा परसाक्षिकी गह- जुगुप्सोच्यते, 'आत्मानम्' अतीतदण्डकारिणमइलाध्यं 'व्युत्सृजामी'ति विविधार्थी विशेषार्थो वा विशब्दः उच्छन्दो भृशार्थः सृजामीति-त्यजामि ततश्च विविधं विशेषेण वा भृशं त्यजामि व्युत्सृजामीति । आह-यद्येवमतीतदण्ड प्रतिक्रमणमात्रमस्यैदम्पर्ये न प्रत्युत्पन्नसंवरणमनागतप्रत्याख्यानं चेति, नैतदेवं न करोमीत्यादिना तदुभयसिद्धेरिति ॥ पढमे भंते! महत्वए पाणाइवायाओ वेरमणं, सव्वं भंते! पाणाइवायं पञ्चकखामि, से सुहुमं वा बायरं वा तसं वा थावरं वा, नेव सयं पाणे अइवाइज्जा नेवऽन्नेहिं पाणे अइवायाविज्जा पाणे अड्वायंतेऽवि अन्ने न समणुजाणामि, जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करंतंपि अन्नं न समणुजा For ane & Personal Use Oily प्राणातिपात विरमणस्य प्रत्याख्यानं एवं अस्य सूत्रस्य विस्तृत व्याख्या ~ 290~ brary dig Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [३] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत पडूजीव सूत्रांक निकाध्य जीवस्वरूपं दीप अनुक्रम [३४] दशवैका०॥ णामि, तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । पढमे भंते ! हारि-वृत्तिः महन्वए उवढिओमि सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं ॥ १॥ (सूत्र०३) ॥१४४॥ अयं चात्मप्रतिपत्य) दण्डनिक्षेपः सामान्यविशेषरूप इति, सामान्येनोक्तलक्षण एव, स तु विशेषतः पञ्चमहाव्रतरूपतयाऽप्यनीकर्तव्य इति महाव्रतान्याह-'पढमे भंते' इत्यादि, सूत्रक्रमप्रामाण्यात् प्राणातिपातविरमणं प्रधर्म तस्मिन, भदन्तेति गुरोरामन्नणं, 'महाव्रत इति महच तदूतं च महावतं, महत्त्वं चास्य || श्रावकसंबन्ध्यणुव्रतापेक्षयेति । अत्रान्तरे सप्तचत्वारिंशदधिकप्रत्याख्यानभङ्गकशताधिकारः, तत्रेयं गाथाKI'सीयालं भंगसय पचक्खाणंमि जस्स उवलद्धं । सो पच्चखाणकुसलो सेसा सब्वे अकुसला उ ॥१॥ एनां चासंमोहार्थमुपरिष्टाव्याख्यास्यामः । तस्मिन् महावते 'प्राणातिपाताद्विरमणमिति प्राणा-इन्द्रियादयः तेषामितिपात: प्राणातिपात:-जीवस्य महादुःखोत्पादनं, न तु जीवातिपात एव, तस्मात्-प्राणातिपाताद्विरमणं, विरमणं नाम सम्पगज्ञानश्रद्धानपूर्वकं सर्वथा निवर्तन, भगवतोक्तमिति वाक्यशेषः, यतश्चैवमत उपादेयमेतदिति विनिश्चित्य 'सर्व भदन्त ! प्राणातिपातं प्रत्याख्यामीति सर्वमिति-निरवशेष, न तु परिस्थरमेव, भदन्तेति गुर्वा मन्त्रण, प्राणातिपातमिति पूर्ववत्, प्रत्याख्यामीति प्रतिशब्दः प्रतिषेधे आङाभिमुख्ये ख्या प्रकथने, प्रतीपमभिमुखं ख्यापनं प्राणातिपातस्य करोमि प्रत्यास्यामीति, अथवा-प्रत्याचक्षे-संवृतात्मा साम्प्रतमनाग-1 ॥१४४॥ JamEachand ~ 291~ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [३] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३] दीप अनुक्रम [३४] तप्रतिषेधस्य आदरेणाभिधानं करोमीत्यर्थः, अनेन व्रतार्थपरिज्ञानादिगुणयुक्त उपस्थानाई इत्येतदाह, उक्तं बाच-"पढिए य कहिय अहिगय परिहरउघठावणाइ जोगोत्ति । छकं तीहिं विसुद्धं परिहर णवएण भेदेण| M॥१॥ पडपासाउरमादी दिढता होति वयसमारुहणे । जह मलिणाइसु दोसा सुद्धाइसु णेवमिहइंपि ॥२॥" इत्यादि, एतेसिं लेसुद्देसेण सीसहियट्ठयाए अत्थो भण्णइ-पढियाए सस्थपरिणाए दसकालिए छज्जीवणिकाए वा, कहियाए अत्थओ, अभिगयाए संमं परिक्खिऊण-परिहरइ छज्जीवणियाए मणवयणकाएहिं कयकारावियागुमइभेदेण, तओ ठाविजइ, ण अन्नहा । इमे य इत्थ पड़ादी दिटुंता-मइलो पडो ण रंगिनदर सोहिओ रंगिजइ, असोहिए मूलपाए पासाओ ण किन्नइ सोहिए किजइ, वमणाईहिं असोहिए आउरे ओसहं न दिन्नइ सोहिए दिजइ, असंठविए रयणे पंडिबंधो न किजा संठविए किजह, एवं पढियकहिया १ पठिते व करिते अधिगते परिहरति उपस्थापनाश योग्य इति । पटू निभिर्विशुद्धं परिहर नवकेन भेदेन ॥१॥ पटप्रासादातुरादयो दृष्टान्ता भवन्ति तिसमारोहणे । यथा मलिनादिषु दोषाः शष नैवमिहापि ॥२॥ एतयोलेशद्देशेन शिष्यहितार्थायार्थी भण्पते-पठितायो शत्रपरिज्ञायाँ दशवैकालिकस्य पथ् जीवनिकायां वा, कथितायामर्धतः, अमिगतायो सम्यक् परीक्ष्य-परिहरति षड्जीवनि कायान् मनोवचनकायैः कृतकारितानुमति देन तत उपस्थाप्यते, ना| न्यथा । इने चात्र पटादयो दृष्टान्ताः-मलिनः पटो न रज्यते शोधितो रज्यते, अशोषिते मूलपादे प्रासादो न क्रियते शोभिते क्रियते, वमनादिभिरशोधिते आतुरे औषधं न दीयते शोधिते दीयते, असंस्थापिते रने प्रतिबन्धो न क्रियते संस्थापित क्रियते, एवं पठितकवितादिभिरशोधिते शिष्य न तारोपणं कियते शोधिते | कियते, अशोधिते च (उपस्थापनायाः) करणे गरोदोषाः, शोधितेभालने शिष्यस्य दोष इति तं प्रसन. २ अलदारेषु न्यासः दश०२५ NARAYARI-KA-%% ल ~292~ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [३] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: सूत्रांक SEARS दीप अनुक्रम दशवैका०हि असोहिए सीसे ण वयारोवणं किलह सोहिए किज्जइ, असोहिए य करणे गुरुणो दोसा, सोहियापालणे षड्जीवहारि-वृत्तिासिस्सस्स दोसो त्ति कयं पसंगेण । यदुक्तम्-'सर्व भदन्त ! प्राणातिपातं प्रत्याख्यामीति तदेतद्विशेषेण अ-|| निकाध्य भिधित्सुराह-से सुहुमं वेत्यादि, सेशन्दो मागधदेशीप्रसिद्धः अधशब्दार्थः, स चोपन्यासे, तद्यथा-'सूक्ष्म जीवस्वरूप वा बादरं वा असं वा स्थावरं वा' अत्र सूक्ष्मोऽल्पः परिगृह्यते न तु सूक्ष्मनामकर्मोदयात्सूक्ष्म, तस्य कायेन म व्यापादनासंभवात्, तदेतद्विशेषतोऽभिधिस्सुराह-'बादरोऽपि स्थूरः, स चैकैको द्विधा-त्रसः स्थावरच, सूक्ष्मनसः कुन्थ्वादिः स्थावरो वनस्पत्यादिः, बादरस्त्रसो गवादिः स्थावरः पृथिव्यादिः, एतान् , 'णेव सयं पाणे अइवाएजति प्राकृतशैल्या छान्दसत्वात्, 'तिङ तिङो भवन्तीति न्यायात् नैव स्वयं प्राणिनः अतिपातयामि, नैवान्यैः प्राणिनोऽतिपातयामि, प्राणिनोऽतिपातयतोऽप्यन्यान्न समनुजानामि, यावजीवमित्यादि पूर्ववत् । इह च 'सूक्ष्म या बादरं वेत्यादिनोपलक्षित 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहण'मिति चतुर्विधःप्राणातिपातो द्रष्टव्यः, तद्यथा-व्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्चेति, तत्र द्रव्यतः षट्सु जीवनिकायेषु सूक्ष्मादिभेदभिन्नेषु,। क्षेत्रतो लोके तिर्यग्लोकादिभेदभिन्ने, कालतोऽतीतादौ रात्र्यादी वा, भावतो रागेण वा द्वेषेण वा, मांसादिरागशत्रुद्वेषाभ्यां तदुपपत्तेरिति । चतुर्भङ्गिका चात्र-दवओ णामेगे पाणाहवाए ण भावओ इत्यादिरूपा यथा द्रुमपुष्पिकायां तथा द्रष्टव्येति । व्रतप्रतिपतिं निगमयन्नाह-प्रथमे भदन्त ! महाव्रते 'उपस्थितोऽस्मि'उप-सा १व्यतो नामकः प्राणाशिपातो न भावतः. [३४] AXY JEconomic ~ 293~ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [४], उद्देशक [ - ], मूलं [३] / गाथा ||१५...|| निर्युक्तिः [२३२...], भाष्यं [६०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः | मीप्येन तत्परिणामापत्त्या स्थितः इत आरभ्य मम सर्वस्मात्प्राणातिपाताद्विरमणमिति । 'भदन्त' इत्य नेन चादिमध्यावसानेषु गुरुमनापृच्छय न किंचित्कर्तव्यं कृतं च तस्मै निवेदनीयमेवं तदाराधितं भवतीत्येवमाह ॥ उक्तं प्रथमं महाव्रतम् ॥ अहावरे दुच्चे भंते! महत्वए मुसावायाओ वेरमणं, सव्वं भंते! मुसावायं पञ्चक्खामि, से कोहा वा लोहा वा भया वा हासा वा, नेव सयं मुसं वइज्जा नेवऽन्नेहिं मुसं वायाविजा मुसं वयंतेऽवि अन्ने न समणुजाणामि जावजीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कापणं न करेमि न कारवेमि करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । दुच्चे भंते! महत्वए उवओमि सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं २ ॥ ( सू० ४ ) इदानीं द्वितीयमाह - 'अहावरे' इत्यादि, 'अधापरस्मिन् द्वितीये भदन्त ! महात्रते मृषावादाद्विरमणं, सर्वे भदन्त । मृषावादं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत्, तथथा— 'क्रोधाद्वा लोभाद्वे' त्यनेनाद्यन्तग्रहणान्मानमायाप रिग्रहः, 'भयाद्वा हास्याद्वा' इत्यनेन तु प्रेमद्वेषकलहाभ्याख्यानादिपरिग्रहः, 'णेव सयं मुखं वएज्ज'त्ति नैव मृषावाद - विरमणस्य प्रत्याख्यानं एवं अस्य सूत्रस्य व्याख्या Forane & Personal Use City ~ 294~ brary dig Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [४] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४] दशवैका खयं मृषा वदामि नैवान्यैर्मृषा वादयामि मृषा वदतोऽप्यन्यान् न समनुजानामि इत्येतत् 'यावज्जीव'मि- पद्धजीवहारि-वृत्तिः त्यादि च भावार्थमधिकृत्य पूर्ववत् । विशेषस्त्वयम्-मृषावादश्चतुर्विधा, तयधा-सद्भावप्रतिषेधः असद्भावो-निकाध्य ॥१४॥ दावन अर्थान्तरं गहीच, तत्र सद्भावप्रतिषेधो यथा-नास्त्यात्मा नास्ति पुण्यं पापं घेत्यादि, असद्भावो- जीवस्वरूप द्भावनं यथा-अस्त्यात्मा सर्वगतः श्यामाकतन्दुलमात्रो बेत्यादि, अर्थान्तरं गामश्वमभिदधत इत्यादि, गहो| काणं काणमभिदधत इत्यादिः, पुनरयं क्रोधादिभावोपलक्षितश्चतुर्विधः, तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, द्रव्यतः सर्वद्रव्येष्वन्यथाप्ररूपणात् क्षेत्रतो लोकालोकयोः कालतो राव्यादी भावतः क्रोधादिभिः [इति । द्रव्यादिचतुर्भश्री पुनरियम्-दवओ णामेगे मुसावाए णो भावओ भावओ णामेगे णो दव्वओ एगे || दव्वओऽवि भावओऽवि एगे णो दव्यओ णो भावओ । तत्थ कोइ कहिंचि हिंसुजओ भणइ-इओ तए पसुमिणा(गा)इणो दिट्टत्ति?, सो दयाए दिहावि भणइ-ण विट्ठत्ति, एस दब्बओ मुसावाओ नो भावओ, अवरो मुसं भणीहामित्तिपरिणओ सहसा सर्च भणइ एस भावओ नो दध्वओ, अवरो मुसं भणीहा|मित्तिपरिणओ मुसं चेव भणह, एस ब्वओऽवि भावओऽषि, चरमभंगो पुण सुण्णो २॥ १व्यतो नामैको मृषावाद नो भावतः भावतो नामैको नो द्रव्यतः एको द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि एको नो द्रव्यतो नो भावतः, तत्र कोऽपि कुत्रचित् हिंसोकायतो भणति-इतस्वचा पारागादयो या इति !, स दयया दृधा अपि भणति न रश इति, एष इव्यतो मृषाबादो न भावतः, अपरी भूषा भणियामीति परिणतः। BIL१४६॥ &सहसा सहा भणति एष भावतो नो द्रव्यतः, अपरो सूषा भणिष्यामीवि परिपतो मुषैव भापति एष व्यतोऽपि भावतोऽपि, चरमभाः पुनः शून्यः, । दीप अनुक्रम [३५]] Jamaicahani ~295~ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [५] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम अहावरे तच्चे भंते! महव्वए अदिन्नादाणाओ वेरमणं, सव्वं भंते! अदिन्नादाणं पञ्चक्खामि, से गामे वा नगरे वा रणे वा अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा नेव सयं अदिन्नं गिहिजा नेवऽन्नेहिं अदिन्नं गिहाविज्जा अदिन्नं गिण्हते वि अन्ने न समणुजाणामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स भंते! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । तच्चे भंते ! महव्वए उवढिओमि सव्वाओ अदिन्नादाणाओ वेरमणं ३॥ (सू०५) उक्तं द्वितीय महाव्रतम्, अधुना तृतीयमाह-'अहावरे' इत्यादि, अथापरमिंस्तृतीये भदन्त ! महावते अदत्तादानाद्विरमणं, सर्व भदन्त! अदसादानं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत्, तद्यथा-'ग्रामे वा नगरे वा अरण्ये वा' इति, अनेम क्षेत्रपरिग्रहः, तत्र ग्रसति बुढ्यादीन गुणानिति ग्रामः तस्मिन्, नामिन् करो विद्यत इति। नकरम्, अरण्य-काननादि । तथा 'अल्पं वा वह वा अणु वा स्थूलं वा चित्तबदा अचित्तवद्दा इति, अनेन तु द्रव्यपरिग्रहः, तत्राल्प-मूल्यत एरण्डकाष्ठादि बहु-बज्रादि अणु-प्रमाणतो वज्रादि स्थूलम्-एरण्डकाष्ठादि, MORMACRORSCORN [३६] अदत्तादान-विरमणस्य प्रत्याख्यानं एवं अस्य सूत्रस्य व्याख्या ~296~ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [३६] दशवैका. एतच चित्तवदा अचित्सवद्वेति-चेतनाचेतनमित्यर्थः । 'णेव सयमदिपणं गेण्हिजत्ति नैव खयमदत्तं गृहामि षड्जीवहारि-वृत्तिः 18 नवान्यैरदत्तं ग्राहयामि अदत्तं गृहृतोऽप्यन्यान न समनुजानामीत्येतद्यावजीवमित्यादि च भावार्थमधिकृत्य निकाध्य ॥ १४७॥ पूर्ववत, विशेषस्त्वयम्-अदत्तादानं चतुर्विध-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भाधतश्च, द्रव्यतोऽल्पादौ क्षेत्रतोजीचस्वरूप ग्रामादौ कालतो राथ्यादी भावतो रागद्वेषाभ्याम् । द्रव्यादिचतुर्भङ्गी पुनरियम्-दव्यओ णामेगे अदिण्णादाणे| प्राणो भावओ भावओ णामेगे णो दव्यओ एगे दव्वओवि भावओऽवि एगे णो दवओ णो भावओ। सातत्थ अरसदुट्ठस्स साहुणो कहिंचि अणणुपणवेऊण तणाइ गेण्हओ दवओ अदिण्णादाणं णो भावओ. हरामीति अन्भुजयस्स तदसंपत्तीए भावओ नो दब्बओ, एवं चेव संपत्तीए बच्चओपि भावओषि, चरिमभंगो पुण सुन्नो॥ अहावरे चउत्थे भंते ! महव्वए मेहुणाओ वेरमणं, सव्वं भंते ! मेहणं पञ्चक्खामि, से दिव्वं वा माणुसं वा तिरिक्खजोणियं वा, नेव सयं मेहणं सेविजा नेवऽन्नेहि मेहणं १दव्यतो नामैकमदत्तादानं नो भावतः भावतो नामैकं नो द्रव्यतः एकं दव्यतोऽपि भावतोऽपि एकं नो द्रव्यतो नो भावतः, तबारक्तद्विष्टस्य साधोः फुत्रचित् अननुज्ञाप्य तृणादि गहतो द्रव्यतोऽवत्तादानं न भावतः हरामीसभ्युद्यतस्य तदसंपत्तौ भावतो नो इव्यतः एवमेव संपत्ती द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि, परमभः IM॥१४७॥ पुनःशून्यः। JanEdi.cahani मैथुन-विरमणस्य प्रत्याख्यानं एवं अस्य सूत्रस्य व्याख्या ~297~ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [६] दीप अनुक्रम [३७] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [४], उद्देशक [ - ], मूलं [६] / गाथा ||१५...|| निर्युक्तिः [२३२...], भाष्यं [६०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [४२] मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः सेवाविज्जा मेहुणं सेवतेऽवि अन्ने न समणुजाणामि जावजीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । चउत्थे भंते! महत्वप ओमि सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं ४ ॥ ( सू० ६ ) उक्तं तृतीयं महाव्रतम्, इदानीं चतुर्थमाह- 'अहावरे' इत्यादि, अथापरस्मिंश्चतुर्थे भदन्त ! महाव्रते मैथु नाद्विरमणं, सर्व भदन्त ! मैथुनं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत्, तद्यथा-देवं वा मानुषं वा तैर्यग्योनं वा, अनेन द्रव्यपरिग्रहः, देवीनामिदं दैवम्, अप्सरोऽमरसंबन्धीतिभावः, एतच रूपेषु वा रूपसहगतेषु वा द्रव्येषु भवति, तत्र रूपाणि-निर्जीवानि प्रतिमारूपाण्युच्यन्ते, रूपसहगतानि तु सजीवानि, भूषणविकलानि वा रूपाणि भूषणसहितानि तु रूपसहगतानि एवं मानुषं तैर्यग्योनं च वेदितव्यमिति, 'णेव सयं मेहुणं सेविज्जा' नैव स्वयं मैथुनं सेवे, नैवान्यैमैथुनं सेवयामि, मैथुनं सेवमानानप्यन्यान्न समनुजानामि इत्येतद्यावज्जीवमित्यादि च भावार्थमधिकृत्य पूर्ववत् । विशेषस्त्वयम् - मैथुनं चतुर्विधं द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतञ्च द्रव्यतो दिव्यादौ क्षेत्रतस्त्रिषु लोकेषु कालतो राज्यादौ भावतो रागद्वेषाभ्याम् । दोसेर्णमिमीए वयं भंजेमिति दोलुद्वेषेणास्य तं भक्षामि इति द्वेषोद्भवं, रागेण भवति. Forane & Personal Use City ~298~ wbrary dig Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [६] दीप अनुक्रम [३७] दशवैका० हारि-वृत्तिः ॥ १४८ ॥ “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [४], उद्देशक [ - ], मूलं [६] / गाथा ||१५..|| निर्युक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः व्भवं, रागेण होइ । द्रव्यादिचतुर्भङ्गी वियम् दव्वओ णामेगे मेहुणे णो भावओ १ भावओ णामेगे णो दव्वओ २ एगे दव्वओऽवि भावओऽवि ३ एगे णो दुव्वओ णो भावओ ४, तत्थ अरत्तदुट्ठाए इत्थियाए बला परिभुंजमाणीए दव्वओ मेहुणं णो भावओ, मेहुणसण्णापरिणयस्स तदसंपत्तीए भावओ णो दव्चओ, | एवं चैव संपत्तीए दब्बओऽवि भावओऽवि, चरमभंगो पुण सुनो ॥ अहावरे पंचमे भंते! महत्वए परिग्गहाओ वेरमणं, सव्वं भंते! परिग्गहं पञ्चक्खामि, से अप्पं वा बहुं वा अणुं वा धूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा नेव सयं परिग्गहं परिगिहिजा नवन्नेहिं परिग्गहं परिगिण्हाविजा परिग्गहं परिगिण्हंतेऽवि अन्ने न समणुजाणिजा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेम करतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरि १ द्रव्यतो नामैकं मैथुनं न भावतः १ भावतो नामेकं न द्रव्यतः २ एकं द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि ३ एकं न द्रव्यतो न भावतः ४ । तत्र भरद्विष्टायाः स्त्रिया बखात् परिभुज्यमानाया द्रव्यतो मैथुनं न भावतः मैथुनसंज्ञा परिणतस्य तदसंपत्ती भावतो न द्रव्यतः, एवमेव संपत्तौ द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि चरमभङ्गः पुनः शून्यः. परिग्रह - विरमणस्य प्रत्याख्यानं एवं अस्य सूत्रस्य व्याख्या For te&Personal Use Oily ~299~ ४ षड्जीवनिकाध्य० जीवस्वरूपं ॥ १४८ ॥ brary dig Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-1, मूलं [७] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७]] दीप अनुक्रम हामि अप्पाणं वोसिरामि । पंचमे भंते! महब्बए उवट्रिओमि सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं ५॥ (सू०७) उक्तं चतुर्थं महाव्रत, साम्प्रतं पश्चममाह-'अहावरे' इत्यादि, अथापरस्मिन् पञ्चमे भदन्त ! महाबते परिग्रहाद्विरमण, सर्व भदन्त ! परिग्रहं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत् । तद्यथा-अल्पं वेत्याद्यवयवव्याख्यापि पूर्ववदेव, नैव खयं परिग्रहं परिगृहामि नैवान्यैः परिग्रहं परिग्राहयामि परिग्रहं परिगृह्णतोऽप्यन्यान समनुजानामीत्येतद्यावज्जीवमित्यादि च भावार्थमधिकृत्य पूर्ववत्, विशेषस्त्वयम्-परिग्रहश्चतुर्विधः, तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः । कालतो भावतश्च, द्रव्यतः सर्वद्रव्येषु क्षेत्रतो लोके कालतो राश्यादौ भावतो रागद्वेषाभ्याम् , अन्यद्वेष परिग्रहोपपत्तेः । द्रव्यादिचतुर्भङ्गी पुनरियम्-दवओ नामेगे परिग्गहे णो भावओ१ भावओ णामेगे णो दवओ २ एगे दब्बओवि भावोऽवि ३ एगे णो दब्वओ णो भावओ८ा तत्थ अरत्तदुहस्स धम्मोवगरणं| दचओ परिग्गहो णो भावओ, मुच्छियस्स तदसंपत्तीए भावओ ण दब्बओ, एवं चेव संपत्तीए दब्बओऽवि भावओऽवि, चरमभंगो उण सुन्नो । ..१व्यतो नामैका परिग्रहो भो भावतः १ भावठो नामैको मो द्रव्यतः २ एको दव्यतोऽपि भावतोऽपि । एको मोव्यतो नो भावतः । तत्रारद्विष्टल्या साधर्मोपकरण द्रव्यतः परिग्रहो नो भावतः, मूर्षियतस्य तदसंपत्ती भावतो नो द्रव्यतः, एषनेव संपत्तौ द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि, धरममाः पुनः कान्यः. [३८] ~300~ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [८-९] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: षड्जीव निकाध्य प्रत सूत्रांक [८-९] जीवस्वरूप दीप अनुक्रम [३९-४०] दशवैका अहावरे छट्टे भंते ! वए राईभोयणाओ वेरमणं, सव्वं भंते! राईभोयणं पच्चक्खामि, हारि-वृत्तिः से असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा, नेव सयं राई भुंजेज्जा नेवऽन्नेहिं राई ॥ १४९॥ भुंजाविजा राई भुंजंतेऽवि अन्ने न समणुजाणेजा जावजीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कापणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते ! पमिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । छट्टे भंते! वए उवट्रिओमि सव्वाओ राईभोयणाओ वेरमणं ६॥ (सू०८) इच्चेयाई पंच महव्वयाई राइभोयणवेरमणछटाई अत्तहियट्टयाए उवसंपजित्ता णं विहरामि ॥ (सू०९) उक्तं पञ्चमं महाव्रतम्, अधुना षष्ठं व्रतमाह-'अहावरें' इत्यादि, अथापरस्मिन् षष्ठे भदन्त ! व्रते रात्रिभोजनाद्विरमणं, सर्व भदन्त ! रात्रिभोजनं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत्, तद्यथा-अशनं वा पानं वा खाद्य वा वाचं वा, अश्यत इत्यशनम्-ओदनादि, पीयत इति पानं-मृदीकापानादि खाद्यत इति खाद्य-वर्जूरादि| र खाद्यत इति खाय-ताम्बूलादि, 'णेव सयं राई भुंजेजा' नैव वयं रात्री मुझे नैवान्यै रात्री भोजयामि रात्री भुञानानप्यन्याय समनुजानामि इत्येतद्यावज्जीवमित्यादि च भावार्धमधिकृत्य पूर्ववत् । विशेषस्त्वयम्-रात्रि-] 2016-0-505495%4--594-96 ॥१४९॥ | रात्रिभोजन-विरमणस्य प्रत्याख्यानं एवं अस्य सूत्रस्य व्याख्या ~ 301~ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [८-९] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८-९] दीप अनुक्रम [३९-४०] भोजनं चतुर्विध, तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, द्रव्यतस्त्वशनादौ क्षेत्रतोऽर्धतृतीयेषु द्वीपस-| मुद्रेषु कालतो राण्यादी भावतो रागद्वेषाभ्यामिति । स्वरूपतोऽप्यस्य चातुर्विध्यं, तद्यथा-रात्री गृह्णाति रात्री मुझे रात्री गृह्णाति दिवा भुङ्क्ते २ दिवा गृह्णाति रात्रौ भुङ्क्ते ३ दिवा गृह्णाति दिवा भुङ्गे ४ संनिधिपरिभोगे, द्रव्यादिचतर्भली पुनरियम्-दव्यओ णामेगे राई मुंजइ णो भावओभावओ णामेगे णो दब्वओर एगे| दवओऽवि भावओऽवि ३ एगे णो दवओ णो भावओ ४, तत्थ अणुग्गए सूरिए उग्गओत्ति अत्थमिए8 सावा अणथमिओत्ति अरत्तदुहस्स कारणओत्ति रयणीए वा भुजमाणस्स दव्वओ राईभोअणं णो भावओ. रयणीए भुंजामि मुच्छियस्स तदसंपत्तीए भावओ णो दव्यओ, एवं चेव संपत्तीए दब्बओऽवि भाव४ ओऽवि, चउत्थभंगो उण सुन्नो । एतच रात्रिभोजनं प्रथमचरमतीर्थकरतीथयोः फजुजडवक्रजडपुरुषापेक्षया मूलगुणत्वख्यापनार्थं महाव्रतोपरि पठितं, मध्यमतीर्थकरतीर्थेषु पुनः ऋजुप्रज्ञपुरुषापेक्षयोत्तरगुणवर्ग इति । समस्तवताभ्युपगमख्यापनायाह-'इयाई इत्यादि, 'इत्येतानि' अनन्तरोदितानि पञ्च महाव्रतानि रात्रिभोजनविरमणषष्ठानि, किमित्याह-'आत्महिताय' आत्महितो-मोक्षस्तदर्थम्, अनेनान्यार्थं तत्त्वतो व्रता १व्यतो नामैको रात्री भुक्ते नो भावतः १ भावतो नामैको नो दव्यतः २ एको दव्यतोऽपि भावतोऽपि ३ एको नो द्रव्यतो नो भावतः ४ । तत्रानुगते | सूर्ये उद्त इति अस्तमिते पाउनसामित इति अरक्तद्विष्टस्य कारणतो वा रात्री भुभानस्य द्रव्यतो रात्रिभोजनं नो भावतः, रात्री भुओ इवि मूछितस्य तदसंपत्तौ | | भावतो नो द्रव्यतः, एवमेव संपनी द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि, चतुर्क भनः पुनः शून्यः. ~302~ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [८-९] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८-९] दीप अनुक्रम [३९-४०] दशबैका भावमाह, तदेभिलाषानुमत्या हिंसादावनुमत्यादिभावात्, 'उपसंपद्य सामीप्येनाङ्गीकृत्य व्रतानि 'विहरामिषड्जीवहारि-वृत्तिः सुसाधुविहारेण, तदभावे चाङ्गीकृतानामपि व्रतानामभावात् , दोषाश्च हिंसादिकर्दणामल्पायुर्जिहाच्छेद- निकाध्य. ॥१५॥ दारियपण्डकदुःखितत्वादयो वाच्या इति । साम्प्रतं प्रागुपन्यस्तगाथा व्याख्यायते–'सप्तचत्वारिंशदधिक-जीवस्वरूप भङ्गशतं वक्ष्यमाणलक्षणं 'प्रत्याख्याने प्रत्याख्यानविषयं, यस्योपलब्धं भवति 'स' इत्थंभूतः प्रत्याख्याने कुशलो-निपुणः, शेषाः सर्वे 'अकुशलाः तदनभिज्ञा इति गाथासमासार्थः । अवयवार्थस्तु भङ्गकयोजनाप्रधाना, स चैवं द्रष्टव्यः-'तिन्नि तिया तिन्नि दुया तिनिकेका य होति जोएसु । तिदुएकं तिदुएकं तिदुएक चेव करणाई ॥१॥ त्रयस्त्रिकाः (३३३) त्रयो द्विकाः (२२२) त्रयश्चैकका (१११) भवन्ति योगेषु । कायवाङ्मनोव्यापारलक्षणेषु, त्रीणि द्वयमेकं त्रीणि द्वयमेकं त्रीणि द्वयमेकं चैव करणानि-मनोवाकायलक्षणानि इति पदघटना । भावार्थस्तु स्थापनया निर्दिश्यते, (दश्य) सा चेयम्-11 काऽत्र भावना ?, न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि मणेणं वायाए कारणं एको भेओ । इयाणि विइओ-ण करेइ ण साकारवेइ करतंपि अन्नं न समणुजाणइ मणेणं वायाए इको भंगो तहा मणेणं कारणं बिहओ भंगो तहा चायाए कारण य तइओ भंगो, बिइओ मूलभेओ गओ । इयाणिं तइओ-ण करेइ ण कारवेइ करतंपि अन्नं न Mil॥१५॥ १ नरेन्द्रत्वाधभिलापहेतुना. २ दोषप्रात्यवगमान. ३ प्रथमनते त्रिविधं त्रिविधेनेयस्य व्यास्थाने. ट्रसॐAKAL ~303~ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [८-९] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८-९] दीप अनुक्रम [३९-४०] समणुजाणइ मणेणं एको वायाए विडयो कारणं तइओ. गओ तहओ मूलभेओ।इयाणि चउत्थो-ण करेड ण कारवेइ मणेणं वायाए काएणं इक्को न करेइ करतं णाणुजाणइ बिइओ ण कारवेइ करतं णाणुजाणइ तइओ, गओ चउत्थो मूलभेओ । इयाणि पंचमो-ण करेइ ण कारवेइ मणेणं वायाए एकोण करेह करतं णाणुजाणइ विइओ ण कारवेइ करतं णाणुजाणइ तइओ, एए तिन्नि भंगा मणेणं वायाए लद्धा, अन्नेवि तिन्नि मणेणं पकाएण य लभंति, तहावरेऽवि वायाए काएण य लभंति तिन्नि, एवमेव सव्वे एए नय, पंचमोऽप्युक्तो मूल-13 भेदः । इदानीं षष्ठः-ण करेइ ण कारवेइ मणेणं इको, तहा ण करेइ करतं णाणुजाणइ मणेणं बिइओ, ण कार-1 वेइ करंतं णाणुजाणइ मनसैव तृतीया, एवं चायाए काएणवि तिन्नि तिन्नि भंगा लन्भंति, एएऽवि सब्वे णव, उक्तः षष्ठो मूलभेदः । सप्तमोऽभिधीयते-ण करेइ मणेणं वायाए कारणं एको, एवं ण कारवेद मणादीहिं बिइओ, करंतं णाणुजाणइ तइओ, सप्तमोऽप्युक्तो मूलभेदः । इदानीमष्टमः-ण करेइ मणेणं वायाए एको, मणेणं कारण य बिइओ, तहा वायाए कारण य तइओ, एवं ण कारवेइ एत्थंपि तिन्नि भंगा, एवमेव करतं | णाणुजाणइ एत्यपि तिन्नि भंगा, एए सब्बे णव, उक्तोऽष्टमः । इदानीं नवमः-ण करेइ मणेणं एको, ण कारवह विइओ, करंतं णाणुजाणइ तइओ, एवं वायाए बिइयं कायणवि होइ तइयं, एवमेते सब्वेऽवि मिलिया णव, नवमोऽप्युक्तः । आगतगुणनमिदानी क्रियते-लद्धफलमाणमेयं भंगा उ हवंति अउणपन्नास । १ लब्धं पासमानमेतत् मज्जास्तु भवन्ति एकोनपश्चाशत् । पश०२६ ~ 304~ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [८-९] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८-९] षड्जीवनिकाध्य. जीवस्वरूपं %25 ॐ दीप अनुक्रम [३९-४०] दशकातीयाणागयसंपतिगुणियं कालेण होइ इम॥१॥सीयालं भंगसयं, कह ? कालतिएण होति गुणणा उ । तीतस्स हारि-वृत्तिः पडिकमणं पशुप्पन्नस्स संवरणं ॥२॥ पचक्खाणं च तहा होइ य एसस्स एस गुणणा उ । कालतिएणं भणियं |जिणगणधरवायएहिं च ॥ ३ ॥ इति गाथार्थः ॥ उक्तश्चारित्रधर्मः, साम्प्रतं यतनाया अवसर, सथा चाह- ॥१५१॥ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे दिआ वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से पुढविं वा भित्तिं वा सिलं वा लेलं वा ससरक्खं वा कार्य ससरक्खं वा वत्थं हत्थेण वा पाएण वा कटेण या किलिंचेण वा अंगुलियाए वा सिलागाए वा सिलागहत्थेण वा न आलिहिज्जा न विलिहिज्जा न घहिजा न भिंदिजा अन्नं न आलिहाविजा न विलिहाविजा न घट्टाविज्जा न भिंदाविज्जा अन्नं आलिहंतं वा विलिहंतं वा घहतं वा भिंदंतं वा न सम णुजाणेजा जावजीचाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कापणं न करेमि न कार१ अतीतानागतसंप्रतिकालेन गुणितं भवतीयम् ॥१॥ सप्तचत्वारिंशं भाशतं, कषं ! कालत्रयेण भवति गुणनातु । अतीतस प्रतिक्रमणं प्रत्युत्पन्नस्त्र | (संवरणम् ॥ २॥ प्रत्याख्यानं च तथा भवति च एष्यात एषा (एतस्मात् ) गुणना तु । कालत्रिकेण भणिता जिनगणधरखापर्कः ॥३॥ MOREXCLEO M॥१५॥ JanEcitatil अथ "यतना" धर्म प्रकाश्यते ~305~ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१०] दीप अनुक्रम [४१] Ja Education in “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [४], उद्देशक [ - ], मूलं [१०] / गाथा ||१५...|| निर्युक्तिः [२३२...], भाष्यं [६०...] आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित मि करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि १ ॥ ( सू० १० ) 'से' इति निर्देशे स योऽसौ महाव्रतयुक्तो, भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा आरम्भपरित्यागाद्धर्मकायपालनाय भिक्षणशीलो भिक्षु, एवं भिक्षुक्यपि, पुरुषोत्तमो धर्म इति भिक्षुर्विशेष्यते, तद्विशेषणानि च भिक्षुक्या अपि द्रष्टव्यानीति, आह-'संयतविरत प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा तत्र सामस्त्येन यतः संयतः - सप्तदशप्रकारसंयमोपेतः, विविधम्- अनेकधा द्वादशविधे तपसि रतो विरतः, प्रतिहृतप्रत्याख्यातपापकर्मेति प्रतिहतंस्थितिहासतो ग्रन्थिभेदेन प्रत्याख्यातं हेत्वभावतः पुनर्वृद्ध्यभावेन पापं कर्म- ज्ञानावरणीयादि येन स तथाविधः, 'दिवा वा रात्रौ वा एको वा परिषद्वतो वा सुसो वा जाग्रद्वा' रात्रौ सुप्तो दिवा जाग्रत्, कारणिक एक:, शेषकालं परिषङ्गतः, इदं च वक्ष्यमाणं न कुर्यात् । 'से पुढविं या' इत्यादि, तद्यथा- पृथिवीं या भित्तिं वा शिलां वा लोष्टं वा, तत्र पृथिवी- लोष्टादिरहिता भित्तिः-नदीतटी शिला-विशालः पाषाणः लोष्ट:-प्रसिद्ध:, तथा सह रजसा-आरण्यपांशुलक्षणेन वर्तत इति सरजस्कस्तं सरजस्कं वा 'कायम्' कायमिति देहं तथा सरजस्कं वा वस्त्रं- चोलपद्दकादि 'एकग्रहणे सज्जातीयग्रहणमिति पात्रादिपरिग्रहः, एतत् किमित्याहहस्तेन वा पादेन वा काष्ठेन वा कलिञ्जेन वा शुद्रकाष्ठरूपेण अङ्गुल्या वा शलाकया वा-अयःशलाकादिरु Forane & Personal Use City ~306~ brary dig Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१०] दीप अनुक्रम [४१] दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ १५२ ॥ Ja Education “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [४], उद्देशक [ - ], मूलं [१०] / गाथा ||१५...|| निर्युक्तिः [२३२...], भाष्यं [६०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [४२] मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः |पया शलाकाहस्तेन वा शलाकासंघातरूपेण 'णालिहिज्जन्ति नालिखेत् न विलिखेत् न घट्टयेत् न भिन्द्यात्, तत्र ईषत्सकृद्वाऽऽलेखनं, नितरामनेकशो वा विलेखनं, घटनं चालनं, भेदो विदारणम्, एतत् स्वयं न कुर्यात्, तथा अन्यमन्येन वा मालेखयेत् न विलेखयेत् न घट्टयेत् न भेदयेत् तथाऽन्यं स्वत एव आलिखन्तं वा विलिखन्तं वा घट्टयन्तं वा भिन्दन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववत् ॥ सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपञ्चकखायपावकम्मे दिआ वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुते वा जागरमाणे वा से उदगं वा ओसं वा हिमं वा महियं वा करगं वा हरतणुगं वा सुद्धोदगं वा उदउ वा कार्य उदउल्लं वा वत्थं ससिणिद्धं वा कार्य ससिणिद्धं वा वत्थं न आमुसिज्जा न संफुसिजा न आवीलिजा न पवीलिजा न अक्खोडिज्जा न पक्खोडिज्जा न आयाविज्जा न पयाविज्जा अन्नं न आमुसाविज्जा न संफुसाविज्जा न आवीलाविज्जा न पवीलाविज्जा न अक्खोडाविजा न पक्खोडाविज्जा न आयाविजा न पयाविज्जा अन्नं आमुसंतं वा संफुसंतं वा आवीतं वा पवितं वा अक्खोडतं वा पक्खोडतं वा आयावंतं वा पयावंतं वा न सम For one & Personal Use City ~307~ ४] पड्जीव निकाध्य० जीवस्वरूपं ॥ १५२ ॥ brary dig Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [११] दीप अनुक्रम [४२] Jar Education “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [४], उद्देशक [ - ], मूलं [११] / गाथा ||१५...|| निर्युक्तिः [२३२...], भाष्यं [६०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः जाणेजा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पार्ण वोसिरामि ॥ ( सू० ११ ) तथा 'से भिक्खू वा इत्यादि यावज्जागरमाणे वत्ति पूर्ववदेव । 'से उदगं वेत्यादि, तद्यथा-उदकं वा अवश्यायं वा हिमं वा महिकां वा करकं वा हरतनुं वा शुद्धोदकं वा, तत्रोदकं-शिरापानीयम् अवश्यायःहः हिमं-स्त्यानोदकम् महिका - घूमिका करक:- कठिनोदकरूपः हरतनुः- भुवमुद्भिय तृणाग्रादिषु भवति, शुद्धोदकम्-अन्तरिक्षोदकं, तथा उदका वा कार्य उदकार्ड वा वस्त्रं, उदकार्द्रता चेह गलहिन्दुतुषाराद्यनन्तरोदितोदक भेदसंमिश्रता तथा सस्निग्धं वा कार्य सलिग्धं वा वस्त्रम्, अत्र स्नेहनं निग्धमिति भावे निष्ठाप्रत्ययः, सह निग्धेन वर्तत इति सस्निग्धः, सस्निग्धता बेह विन्दुरहितानन्तरोदितोदक भेदसंमिश्रता, एतत् किमित्याह-'णामुसेज' ति नामुषेन्न संस्पृशेत् नापीडयेन्न प्रपीडयेत् नास्फोटयेत् न प्रस्फोटयेत् नातापयेत् न प्रतापयेत्, तत्र सकृदीषद्वा स्पर्शनमामर्षणम् अतोऽन्यत्संस्पर्शनम्, एवं सकृदीषद्वा पीडनमापीडनमतोऽन्यत्प्रपीडनम्, एवं सकृदीषद्वा स्फोटनमास्फोटनमतोऽन्यत्प्रस्फोटनम्, एवं सकृदीपद्वा तापनमातापनं विप रीतं प्रतापनम् एतत्स्वयं न कुर्यात्तथाऽन्यमन्येन वा नामर्षयेन संस्पर्शयेत् नापीडयेत् न प्रपीडयेत् नास्फो For re&Personal Use Oily ~308~ brary dig Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [११] दीप अनुक्रम [४२] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [४], उद्देशक [ - ], मूलं [११] / गाथा ||१५...|| निर्युक्तिः [२३२...], भाष्यं [६०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र -[ ४२ ], मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ १५३ ॥ Ja Education टयेत् न प्रस्फोटयेत् नातापयेत् न प्रतापयेत्, तथाऽन्यं खत एव आमृषन्तं वा संस्पृशन्तं वा आपीडयन्तं वा प्रपीडयन्तं वा आस्फोटयन्तं वा प्रस्फोटयन्तं वा आतापयन्तं वा प्रतापयन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववत् ॥ सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरय पडिहयपश्च क्खायपावकम्मे दिआ वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ने वा जागरमाणे वा से अगणिं वा इंगालं वा मुम्मुरं वा अचिं वा जालं वा अलायं वा सुद्धागणिं वा उक्कं वा न उंजेज्या न घद्वेजा न उज्जालेज्जा न निव्वावेजा अन्नं न उंजावेजा न घट्टावेजा न उज्जालावेजा न निव्वावेजा अन्नं उजंतं वा घट्टतं वा उज्जातं वा निव्वावतं वा न समणुजाणेजा जावजीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ (सू०१२ ) 'से भिक्खू वा इत्यादि जाव जागरमाणे वत्ति पूर्ववदेव, 'से अगणि वे'स्वादि, तथथा - अनि वा अङ्गारं For ane & Personal Use Oily ~309~ ४ षड्जीव निकाध्य० जीवस्वरूपं ॥ १५३ ॥ byg Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१२] दीप अनुक्रम [४३] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [४], उद्देशक [ - ], मूलं [१२] / गाथा ||१५...|| निर्युक्तिः [२३२...], भाष्यं [६०...] आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित वा मुर्मुरं वाऽचिव ज्वालां वा अलातं वा शुद्धाग्निं वा उल्कां वा, इह अयस्पिण्डानुमतोऽग्निः ज्वालारहितोऽङ्गारः, विरलाग्निकणं भस्म मुर्मुरः, मूलाग्निविच्छिन्ना ज्वाला अर्चिः प्रतिबद्धा ज्वाला, अलातमुल्मुकं, निरिन्धनः- शुद्धोऽग्निः उल्का - गगनाग्निः, एतत् किमित्याह - 'न उजेज्जा' नोत्सिंचेत् 'न घहेजा' न घट्टयेत् न उज्ज्वालयेत् न निर्वापयेत् तत्रोञ्जनमुत्सेचनं, घट्टनं सजातीयादिना चालनम्, उज्ज्वालनं व्यजनादिभिर्वृद्ध्यापादनं, निर्वापणं-विध्यापनम् एतत्स्वयं न कुर्यात्, तथाऽन्यमन्येन वा नोत्सेचयेन्न घट्टयेन्नोज्ज्वालयेन्न निर्वापयेत्, तथाऽन्यं स्वत एव उत्सिञ्चयन्तं वा घट्टयन्तं वा उज्ज्वालयन्तं वा निर्वापयन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववत् ॥ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपञ्चक्खायपावकम्मे दिआ वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से सिएण वा विहुणेण वा तालिअंटेण वा पतेण वा पत्तभंगेण वा साहाए वा साहाभंगेण वा पिहुणेण वा पिहुहत्थेण वा वेलेण वा चेलकपणेण वा हत्थेण वा मुहेण वा अप्पणो वा कार्य बाहिरं वावि पुग्गलं न फुमेजा न वीएज्जा अन्नं न फुमावेजा न वीआवेज्जा अन्नं फुमंतं वा वी १ न टीकाकृता व्याख्यातं परं दीपिकानां व्याख्यानात् स्थितिः, अभ्यवाऽतिकाये 'निदेशा कायाकोपो भविष्यदस्य. For ane & Personal Use City ~ 310~ by dig Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-1, मूलं [१३/ गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ४ षडूजीवनिकाध्य जीवस्वरूपं [१३] दीप अनुक्रम [४४] दशवैका. अंतं वा न समणुजाणेजा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कारणं न हारि-वृत्तिः करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते! पडिक्कमामि निं॥१५४॥ दामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ (सू०१३) 'से भिक्खू वा इत्यादि जाव जागरमाणे वत्ति पूर्ववदेव, ‘से सिएण वेत्यादि, तद्यथा-सितेन वा विधबनेन वा तालवृन्तेन वा पत्रेण वा शाखया वा शाखाभङ्गेन वा पेहुणेन वा पेहुणहस्तेन वा चेलेन वा चेलकर्णेन वा हस्तेन वा मुखेन वा, इह सितं-चामरं विधवन-व्यजनं तालवृन्तं-तदेव मध्यग्रहणच्छिद्रं द्विपुट पत्र-पद्मिनीपत्रादि शाखा-वृक्षडालं शाखाभङ्गं-तदेकदेशः पेहुण-मयूरादिपिच्छ पेहुणहस्त:-तत्समूहः चेलं-वस्त्रं चेलकर्णः-तदेकदेशः हस्तमुखे-प्रतीते, एभिः किमित्याह-आत्मनो वा कार्य-खदेहमित्यर्थः, बाह्य वा पुद्गलम्-उष्णौदनादि, एतत् किमित्याह-'न फुमेला' इत्यादि, न फूत्कुर्यात् न व्यजेत्, तत्र फूत्कपारणं मुखेन धमनं व्यजनं चमरादिना वायुकरणम्, एतत्वयं न कुर्यात्, तथाऽन्यमन्येन वा न फूत्कारयेन्न | व्याजयेत्, तथाऽन्यं स्वत एव फूत्कुर्वन्तं व्यजन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववदेव ॥ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे दिआ वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से बीएसु वा बीयपइटेसु वा ॥१५४॥ ~311~ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-1, मूलं [१४] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: 为 प्रत सत्राक [१४) 45955-5 %*%***% रूढेसु वा रूढपइट्टेसु वा जाएसु वा जायपइटेसु वा हरिएसु वा हरियपइट्रेसु वा छिन्नेसु वा छिन्नपइहेसु वा सचित्तेसु वा सचित्तकोलपडिनिस्सिपसु वा न गच्छेज्जा न चिटेजा न निसीइजा न तुअद्वेज्जा अन्नं न गच्छावेजा न चिट्टावेजा न निसीयावेजा न तुअट्टाविजा अन्नं गच्छंतं वा चिटुंतं वा निसीयंतं वा तुयदृतं वा न समणुजाणेजा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ (सू०१४) 'से भिक्खू वा इत्यादि जाव जागरमाणे वत्ति पूर्ववदेव, 'से बीएसु वेत्यादि, तद्यथा-बीजेषु वा बीजप्रतिष्ठितेषु वा रूढेषु वा रूढप्रतिष्ठितेषु वा जातेषु वा जातप्रतिष्ठितेषु वा हरितेषु वा हरितप्रतिष्ठितेषु वा छिनेषु वा छिन्नप्रतिष्ठितेषु वा सचित्तेषु वा सचित्तकोलप्रतिनिश्रितेषु वा, इह बीज-शाल्यादि तत्पतिष्ठितम्आहारशयनादि गृह्यते, एवं सर्वत्र वेदितव्यं, रूढानि-स्फुटितवीजानि जातानि-स्तम्बीभूतानि हरितानिदूर्वादीनि छिन्नानि-परश्वादिभिषक्षात् पृथक स्थापितान्याणि अपरिणतानि तदङ्गानि गृह्यन्ते सचित्तानि दीप अनुक्रम [४५] % % % % % % ~312~ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१४] दीप अनुक्रम [४५] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [४], उद्देशक [ - ], मूलं [१४] / गाथा ||१५...|| निर्युक्तिः [२३२...], भाष्यं [६०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [४२] मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ १५५ ॥ Ja Education अण्डकादीनि कोलो- गुणस्तत्प्रतिनिश्रितानि तदुपरिवर्तनि दार्षादीनि गृह्यन्ते, एतेषु किमित्याह--'म - ४४ पड्जीवच्छेजा' न गच्छेत् न तिष्ठेत् न निषीदेत् न त्वग्वर्तेत, तत्र गमनम्-अन्यतोऽन्यत्र स्थानम् - एकमेव निपीडनम्उपवेशनं त्वग्वर्तनं खपनम् एतत्स्वयं न कुर्यात्, तथाऽन्यमेतेषु न गमयेत् न स्वापयेत् न निषीदयेत् न स्वापयेत्, तथाऽन्यं स्वत एव गच्छन्तं वा तिष्ठन्तं वा निषीदन्तं वा खपन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववत् ॥ निकाध्य● जीवस्वरूपं सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपञ्चक्खायपावकम्मे दिआ वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से कीडं वा पयंगं वा कुंथुं वा पिपीलियं वा हत्यंसि वा पायंसि वा बाहुंसि वा ऊरुंसि वा उदरंसि वा सीसंसि वा वत्स वा पडिग्र्गहंसि वा कंबेलंसि वा पोयपुंछणंसि वा रयहरणंसि वा गोच्छगंसि वा उंडगंसि वा दंडगंसि वा पीढगंसि वा फलगंसि वा सेजंसि वा संथारगंसि वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारे उवगरणजाए तओ संजयामेव पडिलेहिअ पडिलेहिअ पमजिअ पमजिअ एगंतमवणेजा नो णं संघायमावजेज्जा ॥ ( सू० १५ ) १ नैतानि व्याख्यातानि टीकायां दीपिकायां तु व्याख्यातानि For ne&Personal Use City ~313~ ॥ १५५ ॥ sembrary dig Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१५] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक [१५] दीप 'से भिक्खू चा इत्यादि यावजागरमाणे वत्ति पूर्ववत्, से कीडं बा' इत्यादि, तद्यथा-कीटं वा पत्ता । वा कुन्युं वा पिपीलिकां वा, किमित्याह-हस्ते या पादे वा बाहो वा अरुणि या उदरे वा वस्ने वा रजोहरणे वा गुछ वा उन्दके या दण्डके वा पीठे वा फलके वा शय्यायां वा संस्तारके वा अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे साधुक्रियोपयोगिनि उपकरणजाते कीटादिरूपं त्रसं कथञ्चिदापतितं सन्तं संयत एव सन प्रयवेन वा| प्रत्युपेक्ष्य प्रत्युपेक्ष्य-पौनापुन्येन सम्यक प्रमृज्य प्रमृज्य-पौनापुन्येनैव सम्पक, किमित्याह-एकान्ते' तस्यादनुपघातफे स्थाने 'अपनयेत्' परित्यजेत् , 'नैनं असं संघातमापादयेत् नैनं त्रसं संघात-परस्परगात्रसंस्पर्शपीडा रूपमापादयेत्-पापयेत्, अनेन परितापनादिप्रतिषेध उक्तो वेदितव्या, 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणादू' अन्यकारणानुमतिप्रतिषेधश्च, शेषमत्र प्रकटार्थमेव, नवरमुन्दकं-स्थण्डिलं, शय्या-संस्तारिका वसतिर्वा । इत्युक्ता |यतना, गतश्चतुर्थोऽर्थाधिकारः॥ अजयं चरमाणो अ (उ), पाणभूयाइं हिंसइ । बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुअंफलं ॥१॥ अजयं चिट्ठमाणो अ, पाणभूयाई हिंसइ । बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुअंफलं ॥२॥ अजयं आसमाणो अ, पाणभूयाइ हिंसइ । बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुअंफलं ॥३॥ अजयं सयमाणो अ, पाणभूयाई हिंसइ । बंधई पावयं अनुक्रम [४६] "अयतना"या: फ़लस्य वर्णनं तथा यतनया प्रवर्तने उपदेश: ~314~ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१-९|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१-९|| दशवैका. हारि-वृत्तिः ॥१५६॥ दीप अनुक्रम [४७-५५] कम्म, तं से होइ कडुअंफलं ॥ ४॥ अजयं भुंजमाणो अ, पाणभूयाई हिंसइ । बंधई ४ षड्जीवपावयं कम्म, तं से होइ कडुअंफलं ॥५॥ अजय भासमाणो अ, पाणभूयाई हिंसइ । |निकाध्य. जीवस्वरूपं बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुअंफलं ॥ ६॥ कहं चरे कहं चिट्टे, कहमासे कह सए । कहं भुजंतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधइ ? ॥ ७॥ जयं चरे जयं चिट्ठे, जयमासे जयं सए । जयं भुंजंतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधइ॥८॥ सव्वभूयप्पभू अस्स, सम्मं भूयाई पासओ। पिहिआसवस्स दंतस्स, पावं कम्मं न बंधइ ॥९॥ साम्प्रतमुपदेशाख्यः पञ्चम उच्यते-'अजय'मित्यादि, 'अयतं चरन्' अयतम् अनुपदेशेनासूत्राज्ञया इति, क्रियाविशेषणमेतत्, चरन्-गच्छन्, तुरेवकारार्थः, अयतमेव चरन्, ईर्यासमितिमुल्लङ्घ्य, न खन्यथा, किमित्याह-प्राणिभूतानि हिनस्ति' प्राणिनो-दीन्द्रियादयः भूतानि-एकेन्द्रियास्तानि हिनस्ति-प्रमादाना-IK भोगाभ्यां व्यापादयतीति भावः, तानि च हिंसन् 'बध्नाति पापं कर्म' अकुशलपरिणामादादत्ते क्लिष्टं ज्ञानावरणीयादि, 'तत् से भवति कटुकफलं' तत्-पापं कर्म से-तस्यायतचारिणो भवति, कटुकफलमित्यनुस्खारोडलाक्षणिक: अशुभफलं भवति, मोहादिहेतुतया विपाकदारुणमित्यर्थः ॥१॥ एवमयतं तिष्ठन् ऊर्ध्वस्थाने ||॥१५६॥ ~315~ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||१-९|| दीप अनुक्रम [४७-५५] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) अध्ययनं [४], उद्देशक [ - ], मूलं [ १५...] / गाथा ||१-९ || निर्युक्ति: [ २३२...], भाष्यं [६०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [४२] मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः दश० २७ नासमाहितो हस्तपादादि विक्षिपन् शेषं पूर्ववत् ॥ २ ॥ एवमयतमासीनो निषण्णतया अनुपयुक्त आकुञ्चनादिभावेन, शेषं पूर्ववत् ॥ ३ ॥ एवमयतं खपन्-असमाहितो दिवा प्रकामशय्यादिना (वा), शेषं पूर्ववत् ||४|| एवमयतं भुञ्जानो - निष्प्रयोजनं प्रणीतं काकशृगालभक्षितादिना (बा), शेषं पूर्ववत् ||५|| एवमयतं भाषमाणोगृहस्थभाषया निष्ठुरमन्तर भाषादिना (चा), शेषं पूर्ववत् ॥६॥ अत्राह-यद्येवं पापकर्मबन्धस्ततः 'कहं चरे' इत्यादि, 'कथं केन प्रकारेण चरेत् कथं तिष्ठेत् कथमासीत, कथं खपेत्, कथं भुञ्जानो भाषमाणः पापं कर्म न बना तीति ? ॥ ७ ॥ आचार्य आह- 'जयं चरे' इत्यादि, यतं चरेत् सूत्रोपदेशेनेर्यासमितः, यतं तिष्ठेत् समाहितो हस्तपादाद्यविक्षेपेण, यतमासीत उपयुक्त आकुञ्चनाद्यकरणेन, यतं खपेत् समाहितो रात्रौ प्रकामशय्यादिपरिहारेण, यतं भुञ्जानः- सप्रयोजनमप्रणीतं प्रतरसिंह भक्षितादिना एवं यतं भाषमाणः - साधुभाषया मृदु कालप्राप्तं च 'पापं कर्म' क्लिष्टमकुशलानुबन्धि ज्ञानावरणीयादि 'न बनाति' नादत्ते, निराश्रवत्वात् विहितानुष्ठानपरत्वादिति ॥ ८ ॥ किंच- 'सव्वभूय' इत्यादि, सर्वभूतेष्वात्मभूतः सर्वभूतात्मभूतो, य आत्मवत् सर्वभूतानि पश्यतीत्यर्थः, तस्यैवं सम्यग वीतरागोक्तेन विधिना भूतानि पृथिव्यादीनि पश्यतः सतः 'पिहि ताश्रवस्य' स्थगितप्राणातिपाताद्याश्रवस्य 'दान्तस्य' इन्द्रियनोइन्द्रियदमेन 'पापं कर्म न बध्यते' तस्य पापकर्म [१] प्रतिक्रमणं कृत्वा खाध्यायः ततः शयनं वि. प. For ane & Personal Use City ~ 316~ by dig Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||१० -१३॥ दीप अनुक्रम [५६-५९] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [४], उद्देशक [ - ], मूलं [ १५...] / गाथा ||१०- १३ || निर्युक्तिः [२३२...] भाष्यं [६०... ] आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ १५७ ॥ बन्धो न भवतीत्यर्थः ॥ ९ ॥ एवं सति सर्वभूतदयावतः पापकर्मबन्धो न भवतीति, ततश्च सर्वात्मना दयायामेव यतितव्यम्, अलं ज्ञानाभ्यासेनापि (नेति) मा भूदव्युत्पन्नविनेयमतिविभ्रम इति तदपोहायाह पढमं नाणं तर दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए । अन्नाणी किं काही, किंवा नाही छेअपावगं ? ॥ १० ॥ सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं । उभयंपि जाणए सोच्चा, जं छेयं तं समायरे ॥ ११ ॥ जो जीवेवि न याणेइ, अजीवेवि न याणेइ । जीवाजीवे अयाणंतो, कह सो नाहीइ संजमं? ॥ १२ ॥ जो जीवेवि वियाणेइ, अजीवेवि वियाणेइ । जीवाजीवे वियाणंतो, सो हु नाहीइ संजमं ॥ १३ ॥ 'पढमं णाणमित्यादि, प्रथमम् आदौ ज्ञानं जीवस्वरूपसंरक्षणोपायफलविषयं 'ततः' तथाविधज्ञानसमनन्तरं 'दया' संयमस्तदेकान्तोपादेयतया भावतस्तत्प्रवृत्तेः, 'एवम्' अनेन प्रकारेण ज्ञानपूर्वकक्रियाप्रतिपत्तिरूपेण 'तिष्ठति' आस्ते 'सर्वसंयतः' सर्वः प्रव्रजितः, यः पुनः 'अज्ञानी' साध्योपायफल परिज्ञानविकलः स किं करिष्यति ?, सर्वत्रान्धतुल्यत्वात्प्रवृत्तिनिवृत्तिनिमित्ताभावात् किं वा कुर्वन् ज्ञास्यति 'छेक' निपुणं हितं कालोचितं 'पापकं वा' अतो विपरीतमिति, ततश्च तत्करणं भावतोऽकरणमेव, समग्रनिमित्ताभावात्, ज्ञानस्य महत्ता प्रतिपाद्यते Forane & Personal Use City ~317~ १ षड्जीवनिकाध्य० जीवस्वरूपं ॥ १५७ ॥ brary dig Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१०-१३|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१० -१३|| अन्धप्रदीप्सपलायनपुणाक्षरकरणवत्, अत एवान्यत्राप्युक्तम्-"गीअत्यो अ विहारो पीओ गीअत्धमीसिओ भणिओ" इत्यादि, अतो ज्ञानाभ्यासः कार्यः॥१०॥ तथा चाह-'सोचा' इत्यादि, 'श्रुत्वा' आकये ससाधनखरूपविपाक 'जानाति' बुद्ध्यते 'कल्याणं कल्यो-मोक्षस्तमणति-प्रापयतीति कल्याण-दयाख्यं संयमस्वरूपं, तथा श्रुत्वा जानाति पापकम्-असंयमस्वरूपम्, 'उभयमपि संयमासंयमस्वरूपं श्रावकोपयोगि जानाति श्रुत्वा, नाश्रुत्वा, यतश्चैवमत इत्थं विज्ञाय यत् छेकं-निपुणं हितं कालोचितं तत्समाचरेत्कुर्यादित्यर्थः ॥११॥ उक्तमेवार्थ स्पष्टयन्नाह-'जो जीवेऽवि'इत्यादि, यो 'जीवानपि' पृथिवीकायिकादिभेदभिन्नान् न जा नाति 'अजीवानपि' संयमोपघातिनो मद्यहिरण्यादीन्न जानाति, जीवाजीवानजानन्कथमसी ज्ञास्यति 'सं४ यमं?' तबिषयं, तद्विषयाज्ञानादिति भावः ॥ १२ ॥ ततश्च यो जीवानपि जानात्यजीवानपि जानाति जीवा-1 जीवान् विजानन् स एव ज्ञास्यति संयममिति । प्रतिपादितः पश्चम उपदेशार्थाधिकारः॥१३॥ जया जीवमजीवे अ, दोऽवि एए वियाणइ । तया गई बहुविहं, सव्वजीवाण जाणइ ॥ १४ ॥ जया गई बहुविहं, सव्वजीवाण जाणइ । तया पुण्णं च पावं च, बंधं मुक्खं च जाणइ ॥ १५॥ जया पुण्णं च पावं च, बंधं मुक्खं च जाणइ । तया नि१ गीताश्च बिहारो द्वितीयो गौतार्थमिश्रितो भणितः. दीप अनुक्रम [५६-५९] धर्मफ़ल्स्य अधिकार: वर्णयते ~318~ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१४-२५|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: दशवैका०19 षड्जीवनिकाध्य. जीवस्वरूप हारि-वृत्तिः ॥ १५८॥ प्रत सूत्रांक ||१४-२५|| दिए भोए, जे दिव्वे जे अ माणुसे ॥ १६ ॥ जया निविदए भोगे, जे दिब्वे जे अ माणुसे । तया चयइ संजोगं, सभितरबाहिरं ॥ १७॥ जया चयइ संजोगं, सभितरबाहिरं । तया मुंडे भवित्ता णं, पव्वइए अणगारिअं ॥ १८॥ जया मुंडे भवित्ता णं, पब्वइए अणगारिअं । तया संवरमुक्टुिं, धम्म फासे अणुत्तरं ॥ १९ ॥ जया संवरमुक्टुिं, धम्म फासे अणुत्तरं । तया धुणइ कम्मरयं, अबोहिकलुसंकडं ॥ २० ॥ जया धुणइ कम्मरयं, अबोहिकलुसंकडं । तया सव्वत्तगं नाणं, दंसणं चाभिगच्छइ ॥ २१ ॥ जया सव्वत्तगं नाणं, दंसणं चाभिगच्छइ । तया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली ॥ २२ ॥ जया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली। तया जोगे निलंभित्ता, सेलेसिं पडिवजइ ॥ २३ ॥ जया जोगे निलंभित्ता, सेलेसि पडिवजइ। तया कम्मं खवित्ता णं, सिद्धिं गच्छइ नीरओ ॥२४॥ जया कम्मं खवित्ता णं, सिद्धिं गच्छइ नीरओ । तया लोगमत्थयत्थो, सिद्धो हवइ सासओ ॥२५॥ दीप अनुक्रम [६०-७१]] 4% ARॐ ॥१५८॥ ~ 319~ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-1, मूलं [१५...] / गाथा ||१४-२५|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: 1% प्रत सूत्रांक ॥१४ -२५|| | साम्पतं पष्ठेऽधिकारे धर्मफलमाह-'जया' इत्यादि, 'यदा' यस्मिन् काले जीवानजीवांश्च द्वावप्येती विजानाति-विविधं जानाति 'तदा' तस्मिन् काले 'गति' नरकगत्यादिरूपां 'बहुविधां खपरगतभेदेनानेकप्रकारां सर्वजीवानां जानाति, यथाऽवस्थितजीवाजीवपरिज्ञानमन्तरेण गतिपरिज्ञानाभावात् ॥१४॥ उत्तरोत्तरां लफलवृद्धिमाह-'जया' इत्यादि, यदा गतिं बहुविधां सर्वजीवानां जानाति तदा पुण्यं च पापं च-बहुविधगतिनिवन्धनं [च तथा 'वन्ध जीवकर्मयोगदुःखलक्षणं 'मोक्षं च तद्वियोगसुखलक्षणं जानाति ॥ १५॥ 'जया इत्यादि, यदा पुण्यं च पापं च बन्धं मोक्षं च जानाति तदा निर्विन्ते-मोहाभावात् सम्यग्विचारयत्यसारदु:खरूपतया "भोगान्' शब्दादीन् यान दिव्यान् यांश्च मानुषान, शेषास्तु वस्तुतो भोगा एव न भवन्ति ॥१६॥ 'जया' इत्यादि, यदा निर्विन्ते भोगान् यान् दिव्यान् यांश्च मानुषान् तदा त्यजति 'संयोग' संबन्ध द्रव्यतो भावतः 'साभ्यन्तरवाह्य क्रोधादिहिरण्यादिसंबन्धमित्यर्थः ॥ १७॥ 'जया' इत्यादि, यदा त्यजति संयोग साभ्यन्तरवायं तदा मुण्डो भूत्वा द्रब्यतो भावतश्च 'प्रव्रजति' प्रकर्षेण व्रजस्यपवर्ग प्रत्यनगार, द्रव्यतो भाव-18 तश्चाविद्यमानागारमिति भावः ॥१८॥ जया' इत्यादि, यदा मुण्डो भूत्वा प्रव्रजत्यनगारं तदा 'संवरमुक्किट ति | प्राकृतशैल्या उत्कृष्टसंवरं धर्म-सर्वप्राणातिपातादिविनिवृत्तिरूपं, चारित्रधर्ममित्यर्थः, स्पृशत्यनुत्तरं-सम्यगासेवत इत्यर्थः ॥ १९ ॥ 'जया' इत्यादि, यदोत्कृष्टसंवरं धर्म स्पृशत्यनुत्तरं तदा धुनोति-अनेकार्थत्वात्पात-ट्रि यति 'कौरजः कर्मव आत्मरक्षनाद्रज इव रजा, किंविशिष्टमित्याह-अयोधिकलुषकृतम्' अयोधिकलुषण %%%4% 9551कर दीप अनुक्रम [६०-७१]] ~320~ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ॥१४ -२५|| दीप अनुक्रम [६०-७१] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [४], उद्देशक [ - ], मूलं [ १५...] / गाथा || १४- २५ || निर्युक्तिः [२३२...] भाष्यं [६०... ] आगमसूत्र - [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित दशबैका ० हारि-वृत्तिः ॥ १५९ ॥ Ja Education मिथ्यादृष्टिनोपात्तमित्यर्थः ॥ २० ॥ 'जया' इत्यादि, यदा धुनोति कर्मरजः अबोधिकलुषकृतं तदा 'सर्वत्रगं ४ षड्जीवज्ञानम्' अशेषज्ञेयविषयं 'दर्शनं च' अशेषदृश्यविषयम् 'अधिगच्छति' आवरणाभावादाधिक्येन प्राप्नोती- 5 निकाध्य० त्यर्थः ॥ २१ ॥ 'जया' इत्यादि, यदा सर्वत्रगं ज्ञानं दर्शनं चाधिगच्छति तदा 'लोक' चतुर्दशरजवात्मकम् 'अ- जीवस्वरूपं लोकं च' अनन्तं जिनो जानाति केवली, लोकालोको च सर्वे नान्यतरमेवेत्यर्थः ॥ २२ ॥ 'जया' इत्यादि, यदा लोकमलोकं च जिनो जानाति केवली तदोचितसमयेन योगान्निरुद्ध्य मनोयोगादीन् शैलेशीं प्रतिपद्यते, भवोपग्राहिक मशक्षयाय ॥ २३ ॥ 'जया' इत्यादि, यदा योगान्निरुद्ध्य शैलेशीं प्रतिपद्यते तदा कर्म क्षपयित्वा भवोपग्राह्यपि 'सिद्धिं गच्छति' लोकान्तक्षेत्ररूपां 'नीरजा' सकलकर्मरजोविनिर्मुक्तः ॥ २४ ॥ 'जया' इत्यादि, यदा कर्म क्षपयित्वा सिद्धिं गच्छति नीरजा' तदा 'लोकमस्तकस्थः' त्रैलोक्योपरिवर्त्ती सिद्धो भवति 'शाश्वतः' कर्मबीजाभावादनुत्पत्तिधर्मेति भावः । उक्तो धर्मफलाख्यः षष्ठोऽधिकारः ॥ २५ ॥ सुहसायगस्स समणस्स, सायाउलगस्स निगामसाइस्स । उच्छोलणापहोअस्स, दुलहा सुगई तारिसगस्स ॥ २६ ॥ तवोगुणपहाणस्स उज्जुमइ खंतिसंजमरयस्स । परीसहे जिणंतस्स सुलहा सुगई तारिसगस्स ॥ २७ ॥ पेच्छावि ते पयाया, खिष्पं १ नैया गाथा वित्रता पूज्यैः हरिभद्राचार्यै For ne&Personal Use City ~321~ *** ॥ १५९ ॥ brary dig Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-1, मूलं [१५...] / गाथा ||२६-२८|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सुत्रांक ||२६-२८|| गच्छंति अमरभवणाई। जेसि पिओ तवो संजमो अखंती अ बंभचेरं च ॥१॥ (प्र.) प्रक्षेप-गाथा इच्चेअं छज्जीवणिअं सम्मट्टिी सया जए । दुल्लहं लहित्तु सामपणं, कम्मुणा न विराहिजासि ॥ २८ ॥ तिबेमि ॥ चउत्थं छज्जीवणिआणामज्झयणं समत्तं ॥ ४ ॥ साम्प्रतमिदं धर्मफलं यस्य दुर्लभं तमभिधित्सुराह-सुहे'ति, सुखास्वादकस्य-अभिष्वङ्गेण प्राप्तसुखभोक्तुः 'श्रमणस्य' द्रव्यप्रवजितस्य 'साताकुलस्य भाविसुखार्थे व्याक्षिप्तस्य 'निकामशायिनः सूत्रार्थवेलाम प्युल्लध्य शयानस्य 'उत्सोलनाप्रधाविन' उत्सोलनया-उदकायतनया प्रकर्षेण धावति-पादादिशुद्धिं करोति टयः स तथा तस्य, किमित्याह-'दुर्लभा' दुष्पापा 'सुगतिः सिद्धिपर्यवसाना 'तादृशस्य' भगवदाज्ञालोपका रिण इति गाथार्थः ॥ २६ ॥ इदानीमिदं धर्मफलं यस्य सुलभं तमाह-तवोगुणे'त्यादि, 'तपोगुणप्रधानस्य। षष्ठाष्टमादितपोधनवतः 'ऋजुमतेः' मार्गप्रवृत्तबुद्धेः 'क्षान्तिसंयमरतस्य' क्षान्तिप्रधानसंयमासेविन इत्यर्थः, 'परीषहान् क्षुत्पिपासादीन 'जयतः' अभिभवतः सुलभा 'सुगतिः' उक्तलक्षणा तादृशस्य' भगवदाज्ञाकारिण का इति गाथार्थः ॥ २७ ॥ महार्था षड्जीवनिकायिकेति विधिनोपसंहरनाह-'इचेय'मित्यादि, 'इत्येतां षड्जीवनिकायिकाम्' अधिकृताध्ययनप्रतिपादितार्थरूपां, न विराधयेदितियोगः, 'सम्यग्दृष्टिः' जीवस्तत्त्वश्रद्धावान 'सदा यतः' सर्वकालं प्रयत्नपरः सन्, किमित्याह-'दुर्लभं लब्ध्वा श्रामण्यं दुष्पापं प्राप्य अमणभावं-पड् दीप अनुक्रम [७२-७५]] JamElication.IN ~322~ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [-1, मूलं [१५...] / गाथा ||२६-२८|| नियुक्ति: [२३३], भाष्यं [६०...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२६-२८|| दशबैका जीवनिकायसंरक्षणकरूपं 'कर्मणा' मनोवाकायक्रियया प्रमादेन 'न विराधयेत्न खण्डयेत, अप्रमत्तस्य तापजीवहारि-वृत्तिः द्रव्यविराधना यद्यपि कथञ्चिद् भवति तथाऽप्यसावविराधनैवेत्यर्थः । एतेन 'जले जीवाः स्थले जीवा, आ-|| निकाध्य काशे जीवमालिनि । जीवमालाकुले लोके, कथं भिक्षुरहिंसकः? ॥१॥' इत्येतत्प्रत्युक्तं, तथा सूक्ष्माणां वि- जीवस्वरूप ॥१६॥ माराधनाभावाच । ब्रवीमीति पूर्ववत् । अधिकृताध्ययनपर्यायशब्दप्रतिपादनायाह नियुक्तिकार: जीवाजीवाभिगमो आयारो चेव धम्मपन्नत्ती । तत्तो चरित्तधम्मो चरणे धम्मे अ एगट्ठा ।। २३३ ॥ KI व्याख्या-'जीवाजीवाभिगमः' सम्यग्जीवाजीवाभिगमहेतुत्वात् एवम् 'आचारच' आचारोपदेशत्वात 'धर्मपज्ञप्तिः' यथावस्थितधर्मप्रज्ञापनात् ततः 'चारित्रधर्मः' तन्निमित्तत्वात् 'चरणं' चरणविषयत्वात् 'धर्मचर श्रुतधर्मस्तत्सारभूतत्वात्, एकार्थिका एते शब्दा इति गाथार्थः । अन्ये स्विदं गाथासूत्रमनन्तरोदितसूत्रस्थाधो व्याख्यानयन्ति, तत्राप्यविरुद्धमेव । उक्तोऽनुगमः, साम्प्रतं नयास्ते च पूर्ववदेव । व्याख्यातं षड्जीवनिकाध्ययनम् ॥ २८॥ दीप अनुक्रम [७२-७५]] + इति श्रीहरिभद्रसूरिकृतौ दशवकालिकटीकायां चतुर्थाध्ययनम् ॥ ४॥ 4 + अध्ययनं -४- परिसमाप्तं ~323~ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [9], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२८...|| नियुक्ति: [२३४], भाष्यं [६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत - सूत्रांक ||२८..|| BASSES % %* दीप अनुक्रम [७५..] अथ पञ्चमाध्ययनम् । Demaem. अधुना पिण्डैषणाख्यमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः-इहानन्तराध्ययने 'साधोराचारः षड्जीवनिकाय४ गोचरः प्राय' इत्येतदुक्तम् , इह तु धर्मकाये सत्यसो खस्थे सम्यक्पाल्यते, स चाहारमन्तरेण प्रायः खस्थो न भवति, स च सावयेतरभेद इत्यनवद्यो ग्राह्य इत्येतदुच्यते, उक्तं च-"से संजए समक्खाए, निरवजाहारि जे बिऊ । धम्मकायट्टिए सम्मं, सुहजोगाण साहए ॥१॥” इत्यनेनाभिसंवन्धेनायातमिदमध्ययनं, भद्य-| न्तरेणैतदेवाह भाष्यकार: मूलगुणा वक्खाया उत्तरगुणअवसरेण आयायं । पिंडल्झयणमिवाणि निक्खेवे नामनिष्फन्ने ॥ ६१ ॥ भाष्यम् ॥ ___ व्याख्या-'मूलगुणा'प्राणातिपातनिवृत्यादयः 'व्याख्याता सम्यक् प्रतिपादिता अनन्तराध्ययने, ततश्च XI'उत्सरगुणावसरेण' उत्सरगुणप्रस्तावेनायातमिदमध्ययनम्-इदानीं यत्प्रस्तुतम् । इह चानुयोगद्वारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्यावन्नामनिष्पन्नो निक्षेपः, तथा चाह-निक्षेपे नामनिष्पन्ने, किमित्याह पिंडो म एसणा व दुपयं नामं तु तस्स नायव्यं । चउचउनिक्खेवेहिं परुवणा तस्स कायव्वा ।। २३४॥ १स संयतः समाख्यातो निरवद्याहार यो विद्वान् । धर्मकायस्थितः सम्यक् शुभयोगाना साधकः ॥ १॥ ** JamEscahonlineKI अध्ययनं -- "पिन्डैषणा" आरभ्यते ~324~ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ॥२८..॥ टीप अनुक्रम [७५..] “दशवैकालिक" - मूलसूत्र 3 (मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) अध्ययनं [५] उद्देशक [-1. मूलं [१५...]/ गाथा ||२८...|| निर्मुक्तिः [२३५-२४४] आयं [ ६२] दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ १६१ ॥ Educationa 1 नाठवणापिंडो दुव्वे भावे अ होइ नायव्वो । गुडओयणाइ दव्वे भावे कोहाइया चउरो ।। २३५ ।। पिढि संघार जहा ते उइया संघया व संसारे संघाययंति जीवं कम्मेणहप्पगारेण ॥ २३६ ॥ दब्वेसणा उ तिविहा सचित्ताचित्तमीसव्वाणं । दुपयच उप्पय अपया नरगयकरिसावणदुमाणं ॥ २३७ ॥ भासणा उदुविधा पत्थ अपसत्थगा य नायव्वा । नाणाईण पसत्था अपसत्था कोहमाईणं ॥ २३८ ॥ भावस्सुवगारित्ता एत्यं दव्वेसणाइ अहिगारो। तीइ पुण अत्थजुत्ती वत्तव्वा पिंडनिती ॥ २३९ ॥ पिण्डेसणा य सव्वा संखेवेशोयरइ नवसु कोडीसु । न हाइ न पयइ न किगइ कारावणअणुमईहि नव || २४० || सा नवा दुह कीरइ उग्गमकोडी बिसोहिकोडी अ । छसु पढमा ओयरह कीयतियम्मी विसोही उ ॥ २४१ ॥ कोडीकरणं दुबिहं उग्गमकोडी विसोहिकोडी अ । उग्गमकोडी छकं विसोहिकोडी अणेगविहा ॥ ६२ ॥ भाष्यम् ॥ कम्मुद्देसिअचरिमतिग पूइयं मीसचरिमपाहुडिआ । अज्झोयर अविसोही विसोहिकोडी भवे सेसा ॥ २४२ ॥ नव चेवद्वारसगा सत्तावीसा तहेव चउपन्ना । नउई दो चेव सया सत्तरिआ हुंति कोडीणं ॥ २४३ ॥ रोगाई मिच्छाई रागाई समणधम्म नाणाई नव नव सत्तावीसा नव नउईए य गुणगारा ।। २४४ ॥ व्याख्या-पिण्डषणा च 'द्विपदं नाम तु' द्विपदमेव विशेषाभिधानं 'तस्य' उक्तसंबन्धस्याध्ययनस्य ज्ञा १ प्रतिभातीयं प्रक्षिप्तप्राया, पदघटना त्वेवम् रागद्वेषी नवभिर्मिथ्यात्वाज्ञानाविरतयो नवमिः रागद्वेषौ सप्तविंशत्या श्रमणधर्मदशकं नवभिः ज्ञानदर्शनचारित्राणि नवखा च ( एवं ) गुणकाराः, 'पिण्ड' तथा 'एषणा' शब्दयोः निक्षेपा: Far P&Personally ~ 325~ ५ पिण्डैपणाध्य० ।। १६१ ॥ bruary Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [५], उद्देशक [-1, मूलं [१५...] / गाथा ||२८...|| नियुक्ति: [२३५-२४४], भाष्यं [६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२८..|| दीप अनुक्रम [७५..] तव्यं, चतुश्चतुर्निक्षेपाभ्यां नामादिलक्षणाभ्यां प्ररूपणा 'तस्य' पदद्वयस्य कर्तव्येति गाथार्थः ॥ अधिकृतप्ररू-1 पणामाह-नामस्थापनापिण्डो द्रव्ये भावे च भवति ज्ञातव्या, पिण्डशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यपिण्डं वाह-गुडौदनादिः 'द्रव्य' मिति द्रव्यपिण्डा, भावे क्रोधादयश्चत्वारः पिण्डा इति गाथार्थः॥ अत्रैवान्वर्थमाह-'पिडि संघाते' धातुरिति शब्दवित्समयः, यस्मात्ते क्रोधादय उदिताः सन्तो चिपाकप्रदेशो४ दयाभ्यां संहता एव संसारिणं संघातयन्ति-जीवं योजयन्तीत्यर्थः, केनेत्याह-कर्मणाऽष्टप्रकारेण-ज्ञानावरणी यादिना, अतः क्रोधादयः पिण्ड इति गाथार्थः ॥ प्ररूपितः पिण्डा, साम्प्रतमेषणाऽवसरः, तत्र क्षुण्णत्वान्ना-III मस्थापने अनादृत्य द्रव्यैषणामाह-द्रव्यैषणा तु त्रिविधा भवति, सचित्ताचित्तमिश्रद्रव्याणामेषणा द्रव्यैषणा, सचित्तानां द्विपदचतुष्पदापदानां यथासंख्यं नरगजदुमाणामिति, कार्षापणग्रहणादचित्तद्रव्यैषणा अलङ्कृत-18 द्विपदादिगोचरमिश्राद्रव्यैषणा च द्रष्टव्येति गाथार्थः ॥ भावैषणामाह-भावैषणा तु पुनर्द्विविधा, प्रशस्ता अप्रशस्ता च ज्ञातव्या, एतदेवाह-'ज्ञानादीना मिति ज्ञानादीनामेषणा प्रशस्ता क्रोधादीनामप्रशस्तैषणेति गाधार्थः ॥ प्रकृतयोजनामाह-'भावस्य ज्ञानादेरुपकारित्वाद् 'अत्र' प्रक्रमे द्रव्यैषणयाधिकार', 'तस्याः पुनद्रव्यैषणायाः 'अर्धयुक्ति' हेयेतररूपा अर्थयोजना वक्तव्या पिण्डनियुक्तिरिति गाथार्थः ॥ सा च| | पिण्डनियुकेः पृथक्स्थापितत्वात् तत्र भद्रबाहुलामिनाऽर्थयुक्तिाल्यानेति नानाध्ययनाधिकारे तयाख्यानम् । अन्यथा वाऽस्ति हरिभद्रसूरिकता पिडनियुक्तिवृत्तिरिति तामाविलापि स्वादिदं वचः. ~326~ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [५], उद्देशक [-1, मूलं [१५...] / गाथा ||२८...|| नियुक्ति: [२३५-२४४], भाष्यं [६२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: हारि-वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||२८..|| दशबैका०पृथक्स्थापनतो मया व्याख्यातैवेति नेह व्याख्यायते । अधुना प्रकृताध्ययनावतारप्रपञ्चमाह-पिण्डैषणा च४५ पिण्डै 'सर्वा उद्गमादिभेदभिन्ना संक्षेपेणावतरति नवसु कोटीषु, ताश्चेमा:-न हन्ति न पचति न क्रीणाति खयं, तथा पणाध्य. न घातयति न पाचयति न क्रापयत्यन्येन, तथा नन्तं वा पचन्तं वा क्रीणन्तं वा न समनुजानात्यन्यमिति नव।। ॥१६२॥ ॥ एतदेवाह-कारणानुमतिभ्यां नवेति गाथार्थः ।। सा नवधा स्थिता पिण्डैषणा द्विविधा क्रियते-पुदमकोटी विशो|धिकोटी च, तत्र पदसु हननधातनानुमोदनपचनपाचनानुमोदनेषु प्रथमा-उद्गमकोटी अविशोधिकोट्यवतरति, क्रीतत्रितये क्रयणकापणानुमतिरूपे विशोधिस्तु-विशोधिकोटी द्वितीयेति गाधार्थः । एतदेव व्याचिख्यासुराह| भाष्यकार:-'कोटीकरण मिति कोट्येव कोटीकरणं, कोटी(करण) द्विविधम्-उद्गमकोटी विशोधिकोटी | च, उनमकोटी षट-हननादिनिष्पन्नमाधाकर्मादि, विशोधिकोटी-क्रीतत्रितयनिष्पना अनेकथा ओघौदेशिकादिभेदेनेति गाथार्थः ॥ षटकोट्याह-कर्म-संपूर्णमेव औद्देशिकचरमत्रितयं-कौदेशिकस्य पाखण्डश्रमणनि-18 ग्रन्थविषयं, पूति-भक्तपानपूत्येव मिश्रग्रहणात्पाखण्डश्रमणनिर्ग्रन्थमिश्रजातं चरमप्राभृतिका बादरेत्यर्थः, अध्यवपूरक इत्यविशोधिरित्येतत्पदं। विशोधिकोटीभवति शेषा-ओघौद्देशिकादिभेदभिन्नाऽनेकविधेति गाधार्थः।। इहैव रागादियोजनया कोटीसंख्यामाह-नव चैव कोव्यः तथाऽष्टादशकं कोटीनां तथा सप्तविंशतिः कोदीनां ॥१३२ ।। तथैव चतुष्पश्चाशत्कोटीनां तथा नवतिः कोटीनां वे एव च शते सप्तत्यधिके कोटीनामिति गाथाक्षरार्थः ।। १ संख्या समाहारे द्विगुधानाध्ययम् (सि-३-1-९९) इति द्विगुभावेनैकगानः. ERA दीप अनुक्रम [७५..] र ~327~ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५..] / गाथा ||१-२|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१-२|| दीप अनुक्रम [७६-७७] भावार्थस्तु वृद्धसंप्रदायादवसेयः, स चायम्-ण कोडीओ दोहिं रागहोसेहिं गुणियाओ अद्वारस हवंति, ताओ चेव नव तिहिं मिच्छत्ताणाणअविरतीहिं गुणिताओ सत्तावीसं हवंति, सत्तावीसा रागदोसेहिं गुणिया। चउप्पन्ना हवंति, ताओ चेव णच दसविहेण समणधम्मेण गुणिआओ विसुद्धाओ णउती भवंति, सा उती तिहिं नाणदसणचरित्तेहिं गुणिया दो सया सत्तरा भवंतीति गाथार्थः ॥ उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसर इत्यादिचर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचार-12 णीयं, तच्चेदम् संपत्ते भिक्खकालंमि, असंभंतो अमुच्छिओ।इमेण कमजोगेण, भत्तपाणं गवेसए॥१॥ से गामे वा नगरे वा, गोअरग्गगओ मुणी । चरे मंदमणुव्विग्गो, अव्वक्खित्तेण चेअसा ॥२॥ अस्य व्याख्या-'संप्रासे' शोभनेन प्रकारेण स्वाध्यायकरणादिना प्राप्ते 'भिक्षाकाले' भिक्षासमये, अनेनासंप्राप्ते भक्तपानैषणाप्रतिषेधमाह, अलाभाज्ञाखण्डनाभ्यां दृष्टादृष्टविरोधादिति, 'असंभ्रान्तः' अनाकुलो १नव कोब्यो द्वाभ्यो रागद्वेषाभ्यां गुणिता अष्टादन भवन्ति, सा एवं नव त्रिभिमिथ्यात्वाशानाविरतिभिर्मुगिताः सप्तविंशतिः भवति, सप्तविंशतिः रागद्वेषाभ्यां गुणिता चनुपश्चाशत् भवति, ता एवं नव दशविधेन अमणधर्मेण गुगिता बिशुद्धा नवतिर्भवति, सा एव नवतिः त्रिभिः शानदर्शनचारित्रैर्गुणिता द्वेशते सप्ततिश्च भवति. दश०२८1 JamElicataries पंचमे अध्ययने प्रथम उद्देशक: आरब्ध: ~328~ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [9], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||१-२|| नियुक्ति : [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१२|| %E5%ार दीप अनुक्रम [७६-७७] दशबैका. यथावदुपयोगादि कृत्वा, नान्यथेत्यर्थः, 'अमूछितः पिण्डे शब्दादिषु वा अगृद्धो, विहितानुष्ठानमितिकृत्वा, ५पिण्डैहारि-वृत्तिः न तु पिण्डादावेवासक्त इति, 'अनेन' वक्ष्यमाणलक्षणेन 'क्रमयोगेन' परिपाटीव्यापारेण "भक्तपानं' यति- भाषणाध्य योग्यमोदनारनालादि गवेषयेद' अन्वेषयेदिति सूत्रार्थः॥१॥ यत्र यथा गवेषयेत्सदाह-'से' इत्यादि सूत्र, व्याख्या-से' इत्यसंभ्रान्तोऽमूञ्छितः ग्रामे वा नगरे वा, उपलक्षणवादस्य कर्बटादौ वा, 'गोचराग्रगत' इति गोरिव चरणं गोचरः-उत्तमाधममध्यमकुलेष्वरक्तद्विष्टस्य भिक्षाटनम् अग्र:-प्रधानोऽध्याहृताधाकर्मादिपरि|त्यागेन तद्गत:-तद्वर्ती मुनि:-भावसाधुः चरेत-गच्छेत् 'मन्दं शनैः शनैर्न दुतमित्यर्थः, 'अनुद्विग्न' प्रशान्तः KI परीषहादिभ्योऽविभ्यत् 'अव्याक्षिप्तेन चेतसा' वत्सवणिग्जायादृष्टान्तात् शब्दादिष्वगतेन 'चेतसा' अन्त:करणेन एषणोपयुक्तेनेति सूत्रार्थः ॥२॥ पुरओ जुगमायाए, पेहमाणो महिं चरे । वजंतो बीअहरियाई, पाणे अ दगमहि॥३॥ ओवायं विसमं खाणुं, विज्जलं परिवजए । संकमेण न गच्छिज्जा, विजमाणे परक्कमे ॥ ४॥ पवडते व से तत्थ, पक्खलंते व संजए । हिंसेज पाणभूयाई, तसे अदुव थावरे ॥ ५॥ तम्हा तेण न गच्छिज्जा, संजए सुसमाहिए । सइ अन्नेण मग्गेण, जयमेव परक्कमे ॥ ६॥ इंगालं छारियं रासिं, तुसरासिं च गोमयं । ससर -%-% -4 १९३R - - - | अथ प्रथम-व्रते यतना-अधिकार: ~329~ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||३-८|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३-८|| दीप अनुक्रम [७८-८३] क्खेहिं पाएहि, संजओ तं नइक्कमे ॥ ७॥ न चरेज वासे वासंते, महियाए वा पडं तिए । महावाए व वायंते, तिरिच्छसंपाइमेसु वा ॥८॥ PI यथा चरेत्तथैवाह-पुरतो' इति सूत्रं, व्याख्या-पुरतः' अग्रतो 'युगमात्रया' शरीरप्रमाणया शकटोर्द्धि संस्थितया, दृष्ट्येति वाक्यशेषः, 'प्रेक्षमाणः' प्रकर्षेण पश्यन् 'महीं भुवं 'चरेत्' यायात्, केचिन्नेत्ति योजयन्ति, Kान शेषदिगुपयोगेनेति गम्यते, न प्रेक्षमाण एव अपि तु 'वर्जयन्' परिहरन वीजहरितानीति, अनेमानेकभे दस्य वनस्पतेः परिहारमाह, तथा 'प्राणिनों द्वीन्द्रियादीन् तथा 'उदकम् अकार्य 'मृत्तिकां च पृथिवी कायं, चशब्दात्तेजोवायुपरिग्रहः । दृष्टिमानं त्वत्र लघुतरयोपलब्धावपि प्रवृत्तितो रक्षणायोगात् महत्सरया दातु देशविप्रकर्षणानुपलब्धेरिति सूत्रार्थः॥३॥ उक्तः संयमविराधनापरिहारः, अधुना त्वात्मसंयमविराधना परिहारमाह-ओवाय मिति सूत्रं, व्याख्या-'अवपातं गादिरूपं 'विषम निमोन्नतं 'स्थाणुम्' अर्चकाष्ठं 'विजल' विगतजलं कर्दम 'परिवर्जयेत् एतत्सर्वं परिहरेत् , तथा 'संक्रमण' जलगर्तापरिहाराय पाषाणकालाठरचितेन न गच्छेत् , आत्मसंयमविराधनासंभवात्, अपवादमाह-विद्यमाने पराक्रमे-अन्धमार्ग इत्यर्थः, असति तु तस्मिन् प्रयोजनमाश्रित्य यतनया गच्छेदिति सूत्रार्थः॥४॥ अवपातादौ दोषमाह-पवईतेति ४|| सूत्र, व्याख्या-प्रपतन्याऽसी 'तन' अवपातादी प्रस्खलन्या 'संयतः साधुः 'हिंस्याद् व्यापादयेत् प्राणिमू-IM ~330~ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||३-८|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३-८|| दीप अनुक्रम [७८-८३] दशकातानि' प्राणिनो-द्वीन्द्रियादयः भूतानि-एकेन्द्रियाः, एतदेवाह-त्रसानधवा स्थावरान्, प्रपातेनात्मानं चेत्ये- ५ पिण्डैहारि-यत्तिःवमुभयविराधनेति सूत्रार्थः ॥५॥ यतश्चैवं 'तम्हा' सूत्रं, व्याख्या-तस्मात्तेन-अवपातादिमार्गेण न गच्छेत पणाध्य० संयतः सुसमाहितो, भगवदाज्ञावर्तीत्यर्थः, 'सत्यन्येनेति अन्यस्मिन् समादौ 'मार्गेणेति मार्ग, छान्दसत्वा॥ १६४॥ात्सप्तम्यर्थे तृतीया, असति त्वन्यस्मिन्मार्गे तेनैवावपातादिना 'यतमेव पराक्रमेत्' यतमिति क्रियाविशेषणं.॥ कायतमात्मसंयमविराधनापरिहारेण यायादिति सूत्रार्थः ॥ ६॥ अत्रैव विशेषतः पृथिवीकाययतनामाह-- गाल'मिति सूत्रम्, आजारमिति अङ्काराणामयमाङ्गारस्तमाङ्गार राशिम्, एवं क्षारराशि, तुषराशिं च गोम-12 सायराशि च, राशिशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते 'सरजस्काभ्यां पङ्ग्यां' सचित्तपृथिवीरजोगुण्डिताभ्यां पादाभ्यां 'संयतः साधुः तम् अनन्तरोदितं राशि नाकामेत्, मा भूत्पृथिवीरजोविराधनेति सूत्रार्थः ॥ ७॥ अत्रैवाकायादियतनामाह-'न चरेज'त्ति सूत्रं, न चरेद्वर्षे वर्षति, भिक्षार्थ प्रविष्टो वर्षणे तु प्रच्छन्ने तिष्ठेत्, तथा महिकायां वा पतन्त्यां, सा च प्रायो गर्भमासेषु पतति, महाबाते या वाति सति, तदुत्खातरजोविराधनादोपात्, तिर्यक्संपतन्तीति तिर्यसंपाता-पतङ्गादयः तेषु वा सत्सु कचिदशनिरूपेण न चरेदिति सूत्रार्थः ॥८॥ न चरेज वेससामंते, बंभचेरवसाणु(ण)ए । बंभयारिस्स दंतस्स, हुज्जा तत्थ विसु ॥१६४ १ ईतिरूपो हि पतङ्गादेरापात इति पूर्वणान्वयः, यता हेतौ तृतीयेति साधुस्वरूपाख्यानं. %* JamElicationlid चतुर्थ-व्रते यतना-अधिकारः ~331~ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||९-११|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||९-११|| दीप अनुक्रम [८४-८६] त्तिआ ॥९॥ अणायणे चरंतस्स, संसग्गीए अभिक्खणं । हुज वयाणं पीला, सामनंमि अ संसओ ॥१०॥ तम्हा एअंविआणित्ता, दोसं दुग्गइवडणं । वजए वेससा मंतं, मुणी एगंतमस्सिए ॥ ११॥ उक्ता प्रथमवतयतना, साम्प्रतं चतुर्धवतपतनोच्यते-'न चरेज'त्ति सूत्रं, 'न चरेद्वेश्यासामन्ते' न गच्छेद्गणिकागृहसमीपे, किंविशिष्ट इत्याह-ब्रह्मचर्यवशानयने(नये) ब्रह्मचर्य-मैथुनविरतिरूपं वशमानयति-आत्मायत्तं करोति दर्शनाक्षेपादिनेति ब्रह्मचर्यवशानयनं तस्मिन् , दोषमाह-ब्रह्मचारिणः' साधोः 'दान्तस्य' इन्द्रियनोइन्द्रियदमाभ्यां भवेत् तत्र' वेश्यासामन्ते 'विस्रोतसिका' तद्रूपसंदर्शनस्मरणापध्यानकचवरनिरोधतः ज्ञानश्रद्धाजलोज्झनेन संयमस(श)स्यशोषफला चित्तविक्रियेति सूत्रार्थः ॥९॥ एष सकृचरणदोषो वेश्यासामन्तसंगत उक्तः, साम्प्रतमिहान्यत्र चासकृचरणदोषमाह-'अणायणे त्ति सूत्रम्, अनायतने-अस्थाने वेश्यासामन्तादी 'चरतो' गच्छतः 'संसर्गेण' संबन्धेन 'अभीक्ष्णं' पुनः पुनः, किमित्याह-भवेत् 'व्रतानां प्राणातिपातविरत्यादीनां पीडा, तदाक्षिप्तचेतसो भावविराधना, 'श्रामण्ये च श्रमणभावे च द्रष्यतो रजोहरणादिधारणरूपे भूयो भाववतप्रधानहेती संशया, कदाचिदुनिष्क्रामत्येवेत्यर्थः, तथा च वृद्धव्याख्या-वेसा वेश्यादिगतभावस्य मधुनं पीव्यते, अनुपयोगेनैषणाऽकरणे हिंसा, प्रत्युत्पादने (वर्तमाने ) अन्यपृच्छायानपलापेऽसलवचनम्, अननुशात वैश्माया दर्शने|अपत्तादान, ममताकरणे परिप्रदः, एवं सर्ववतपीटा, द्रव्यधामण्ये पुनः संशय उनिष्फमणेन, ~ 332~ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||९-११|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||९-११|| दीप अनुक्रम [८४-८६] दशवैका दिगयभावस्स मेहुणं पीडिज्जा, अणुवओगेणं एसणाकरणे हिंसा, पडुपायणे अन्नपुच्छणअवलवणाऽसचव-८५ पिण्डैहारि-वृत्तिाायणं, अणणुण्णायवेसाइदसणे अदत्तादाणं, ममत्तकरणे परिग्गहो, एवं सम्बवयपीडा, दव्वसामन्ने पुण सं-II षणाध्य सयो उण्णिक्षमणेण त्ति सूत्रार्थः ॥१०॥ निगमयन्नाह–तम्हा' इति सूत्रम् , यस्मादेवं तस्मादेतत् विज्ञाय | 'दोषम् अनन्तरोदितं दुर्गतिवर्धनं वर्जयेद्वेश्यासामन्तं मुनि' 'एकान्तं' मोक्षमाश्रित इति सूत्रार्थः ॥ ११॥ आह-प्रथमव्रतविराधनानन्तरं चतुर्थव्रतविराधनोपन्यासः किमर्थम् ?, उच्यते, प्राधान्यख्यापनार्थम्, अन्यव्रतविराधनाहेतुत्वेन प्राधान्यम् , तच्च लेशतो दर्शितमेवेति । अत्रैव विशेषमाह साणं सूइअं गाविं, दित्तं गोणं हयं गयं । संडिम्भं कलह जुद्धं, दूरओ परिवजए ॥१२॥ अणुन्नए नावणए, अप्पहिढे अणाउले । इंदिआणि जहाभागं, दमइत्ता मुणी चरे ॥ १३ ॥ दवदवस्स न गच्छेजा, भासमाणो अ गोअरे । हसंतो नाभिगच्छिज्जा, कुलं उच्चावयं सया ॥ १४ ॥ आलोअंथिग्गलं दारं, संधि दगभवणाणि अ । चरंतो न विनिज्झाए, संकटाणं विवजए ॥ १५॥ रणो गिहबईणं च, रहस्सारक्खियाण १ पमबणाऽकरणे प्र. २ दर्शने वि. प. --14 ॥१६५॥ 5-5 भिक्षाचर्या-गमने विधि: ~333~ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [9], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||१२-१८|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१२ -१८|| य। संकिलेसकरं ठाणं, दूरओ परिवजए ॥१६॥ पडिकुट्रकुलं न पविसे, मामगं परिवजए । अचिअत्तकुलं न पविसे, चिअत्तं पविसे कुलं ॥ १७॥ साणीपावारपिहि, अप्पणा नावपंगुरे । कवाडं नो पणुल्लिज्जा, उग्गहंसि अजाइआ ॥१८॥ 'साणति सूत्रं, 'श्वान' लोकप्रतीतम्, 'सूतां गाम्' अभिनवप्रसूतामित्यर्थः 'दृसं' च दर्पित, किमित्याहगावं हयं गर्ज, गौः बलीवर्दो हया-अश्वो गजो-हस्ती। तथा 'संडिम्भ' बालक्रीडास्थानं 'कलह वाक्प्रतिबद्धं 'युद्ध' खड्गादिभिः, एतत् 'दरतों' दरेण परिवर्जयेत्, आत्मसंयमविराधनासंभवात् , श्वसूतगोप्रभृतिभ्य आत्मविराधना, डिम्भस्थाने चन्दनायागमनपतमभण्डनप्रलुठनादिना संयमविराधना, सर्वत्र चात्मपात्रभेदादिनो-| भयविराधनेति सूत्रार्थः॥१२॥ अत्रैव विधिमाह-'अणुण्णएत्ति सूत्रम्, 'अनुन्नतों' द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यतो नाकाशदर्शी भावतो न जात्यायभिमानवान्, 'नावनतो द्रव्यभावाभ्यामेव, द्रव्यानवनतोऽनीचकायः भावानवनतः अलब्ध्यादिनाऽदीनः 'अपहृष्टः' अहसन् 'अनाकुलः' क्रोधादिरहितः 'इन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि | 'यथाभार्ग' यथाविषयं 'दमयित्वा' इष्टानिष्टेषु स्पर्शादिषु रागद्वेषरहितो 'मुनि' साधुः 'चरेदू' गच्छेत्, विपर्यये| प्रभूतदोषप्रसङ्गात्, तथाहि-द्रव्योन्नतो लोकहास्यः भावोन्नत ईयां न रक्षति द्रव्यावनतः बक इति संभाव्यते भावावनतः क्षुद्रसत्व हति, महष्टो योषिद्दर्शनाद्रक्त इति लक्ष्यते, आकुल एवमेव, अदान्तः प्रवज्यानह इति *%E0%AVARANASI दीप अनुक्रम [८७-९३] ~334~ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||१२ -१८|| दीप अनुक्रम [८७-९३] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा || १२- १८ || निर्युक्तिः [ २४४...], भाष्यं [६२...] आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित दशवैका० हारि-वृत्तिः ॥ १६६ ॥ Ja Education सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ किं च-- 'दवदवस्स' ति सूत्रं, 'दुतं द्रुतं त्वरितमित्यर्थः न गच्छेत् भाषमाणो वा न गोचरे गच्छेत्, तथा हसन्नाभिगच्छेत्, कुलमुच्चावचं सदा, उयं द्रव्यभावभेदाद्विधा द्रव्योवं धवलगृहवासि भावोचं जात्यादियुक्तम्, एवमवचमपि द्रव्यतः कुटीरकवासि भावतो जात्यादिहीनमिति । दोषा उभयविराधनालोकोपघातादय इति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ अत्रैव विधिमाह - 'आलोअं थिग्गले' ति सूत्रम्, 'अवलोकं' निर्यूहकादिरूपं 'थिग्गलं' चितं द्वारादि, संधिः- चितं क्षत्रम्, 'उदकभवनानि' पानीयगृहाणि चरन् भिक्षार्थ न 'विनिध्यायेत्' विशेषेण पश्येत्, शङ्कास्थानमेतदवलोकादि अतो विवर्जयेत्, तथा च नष्टादौ तत्राशङ्कोपजायत इति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ किंच- 'रपणोति सूत्रं राज्ञः- चक्रवर्त्यादेः 'गृहपतीनां' श्रेष्ठप्रभृतीनां रहसाठाणमिति योगः, 'आरक्षकाणां च दण्डनायकादीनां 'रहस्थानं' गुद्यापवरकमन्त्रगृहादि 'संक्लेशकरम्' असदिच्छाप्रवृत्त्या मन्त्रभेदे वा कर्षणादिनेति दूरतः परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ किंच- 'पढिकुट्ट' त्ति सूत्रं, प्रतिकुष्टकुलं द्विविधम्-इत्वरं यावत्कथिकं च, इत्वरं सूतकयुक्तं, यावत्कथिकम् - अभोज्यम्, एतन प्रविशेत् शासनलघुत्वप्रसङ्गात्, 'मामकं' यन्त्राऽऽह गृहपतिः - मा मम कचिगृहमागच्छेत् एतत् वर्जयेत्, भण्डनादिप्रसङ्गात्, 'अचिअत्तकुलम्' अप्रीतिकुलं पत्र प्रविशद्भिः साधुभिरप्रीतिरुत्पद्यते, न च निवारयन्ति, कुतश्चिनिमित्तान्तरात्, एतदपि न प्रविशेत्, तत्संक्लेशनिमित्तत्वप्रसङ्गात्, 'चिअसम्' अचिअत्तविपरीतं प्रविशेत्कुलं, तदनुग्रहप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ १७॥ किं च 'साणित्ति सूत्रं, 'शाणीप्रावारपिहित' मिति शाणी Forte & Personal Use City ~ 335~ ५ पिण्डैषणाध्य० ॥ १६६ ॥ brary dig Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [9], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||१९|| नियुक्ति : [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: * प्रत * सूत्रांक * ||१२ -१८|| अतसीवल्कजा पटी, प्राचार:-प्रतीतः कम्बल्याग्रुपलक्षणमेतत्, एवमादिभिः पिहितं-स्थगितं, गृहमिति वा क्यशेषः । 'आत्मना' स्वयं 'नापवृणुयात् नोदूघाटयेदित्यर्थः, अलौकिकत्वेन तदन्तर्गत जिक्रियादिकारिणां पापद्वेषप्रसङ्गात्, तथा 'कपार्ट' द्वारस्थगनं 'न प्रेरयेत्' नोद्घाटयेत्, पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गात, किमविशेषेण ?, नेत्याह-'अवग्रहमयाचित्वा' आगाढप्रयोजनेऽननुज्ञाप्यावग्रह-विधिना धर्मलाभमकृत्वेति सूत्रार्थः ॥१८॥ गोअरग्गपविठ्ठो अ, वञ्चमुत्तं न धारए।ओगासं फासुअंनच्चा, अणुन्नविअ वोसिरे॥१९॥ विधिशेषमाह-गोयरग्गत्ति सूत्रं, गोचरामप्रविष्टस्तु वर्षों मूत्रं वा न धारयेत् , अवकाशं प्रासुकं ज्ञात्वानुज्ञाप्य व्युत्सृजेदिति । अस्य विषयो वृद्धसंप्रदायादवसेयः, स चायम्-पुख्वमेव साहुणा सन्नाकाइओ-18 वयोगं काफण गोअरे पविसिअव्वं, कहिंविण कओ कए वा पुणो होजा ताहे वचमुत्तं ण धारेअव्वं, जओ मुत्तनिरोहे चक्खुवधाओ भवति, वचनिरोहे जीविओवघाओ, असोहणा अ आयविराहणा, जओ भणि -'सब्वत्थ संजम'मित्यादि, अओ संघाडयस्स सयभायणाणि समप्पिा पडिस्सए पाणयं गहाय सन्नाभूमीए विहिणा बोसिरिज्जा । वित्थरओ जहा ओहणिजसीए । इति सूत्रार्थः॥१९॥ पूर्वमेष साधुना संज्ञाकाविकोपयोग कूला गोचरे प्रवेव्यं, कदाचित्र कृतः कृते वा पुनर्भवेत् तदा बर्बोमूत्रं न धारयितव्यं, मतो भूत्रनिरोधे चक्षुष उपपाती भवति, पानिरीधे जीवितोपपातः, अशोभना चात्मविराधना. बतो भणितम्-सर्वत्र संयममित्यादि, अतः सदाटकाम सकभाजनानि समय प्रतिधयाया-1 सनीयं गृहीत्वा संहाभूमी विधिना व्युत्सजेन, विसरतो यथा ओधनियुचौ. SATORIAL ***** * दीप अनुक्रम [८७-९३] *** *** * ~336~ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [9], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||२०-२२|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२०-२२|| दशवैका० णीअदुवारं तमसं, कुछगं परिवज्जए । अचक्खुविसओ जत्थ, पाणा दुप्पडिलेहा (हगा) ५ पिण्डैहारि-वृत्तिः । षणाध्य ॥२०॥ जत्थ पुप्फाई बीआई, विप्पइन्नाई कुट्ठए। अहुणोवलितं उल्लं, दट्टणं परिवजए ॥१६॥ ॥२१॥ एलगं दारगं साणं, बच्छगं बावि कुट्टए । उल्लंघिआ न पविसे, विउहित्ताण व संजए ॥ २२॥ तथा 'नीयदुवारन्ति सूत्रं, 'नीचद्वारं नीचनिर्गमप्रवेशं 'तमसमिति तमोवन्तं 'कोष्ठकम्' अपवरकं प-17 रिवर्जयेत्, न तत्र भिक्षां गृह्णीयात्, सामान्यापेक्षया सर्व एवंविधो भवत्यत आह-अचक्षुर्विषयो यन्त्र' न चक्षुापारो यत्रेत्यर्थः, अत्र दोषमाह-प्राणिनो दुष्प्रत्युपेक्षणीया भवन्ति, ईर्याशुद्धिन भवतीति सूत्रार्थः ॥२०॥ किंच-'जत्यत्ति सूत्र, यत्र 'पुष्पाणि' जातिपुष्पादीनि 'बीजानि' शालिबीजादीनि 'विपकीणोंनि' अनेकधा विक्षिप्सानि, परिहर्तुमशक्यानीत्यर्थः, कोष्टके कोष्ठकद्वारे वा, तथा 'अधुनोपलिस' साम्पतोपलिप्तम् 'आद्रेम्' अशुष्कं कोष्ठकमन्यद्बा दृष्ट्वा परिवर्जयेहरत एव, न तु तत्र धर्मलाभं कुर्यात, संपमात्मविराध-| नापत्तेरिति सूत्रायः ॥ २१ ॥ किंच-'एलगति सूत्रम्, 'एडक' मेषं 'दारक' बाल 'श्वानं' मण्डलं 'चरसकं वापि क्षुद्रवृषभलक्षणं कोष्ठके उल्लङ्घय पदुभ्यां न प्रविशत्, 'व्यूष वा प्रेर्य वेत्यर्थः, 'संयतः' साधुः आ-18॥१६७ ॥ त्मसंयमविराधनादोषाल्लाघवाचेति सूत्रार्थः ।। २२ ।। दीप अनुक्रम [९५-९७] ~337~ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [9], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||२३-२६|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२३-२६|| KAXXXXXX दीप अनुक्रम असंसत्तं पलोइजा, नाइदूरा बलोअए । उप्फुल्लं न विनिज्झाए, निअहिज अयंपिरो ॥ २३ ॥ अइभूमि न गच्छेज्जा, गोअरग्गगओ मुणी । कुलस्स भूमि जाणित्ता, मिअं भूमि परक्कमे ॥ २४ ॥ तत्थेव पडिलेहिजा, भूमिभागं विअक्खणो । सिणाणस्स य वच्चस्स, संलोगं परिवजए ॥ २५ ॥ दगमट्टिअआयाणे, बीआणि हरिआणि अ। परिवजंतो चिट्ठिजा, सविदिअसमाहिए ॥ २६ ॥ इहैव विशेषमाह-'असंसत्त' ति सूत्रम्, 'असंसक्तं प्रलोकयेत्' न योषिदृष्टेदृष्टिं मलयेदित्यर्थः, रागोत्पत्तिलोकोपघातदोषप्रसङ्गात् , तथा 'नातिदूरं प्रलोकयेत्' दायकस्यागमनमात्रदेश प्रलोकयेत, परतश्वीरादिशङ्कादोषः, तथा 'उत्फुल्लं' विकसितलोचनं 'न विणिज्झाए' तिन निरीक्षेत गृहपरिच्छदमपि, अदृष्ट-18 कल्याण इति लाघवोत्पत्तेः, तथा निवर्सत गृहादलब्धेऽपि सति अजल्पन्-वीनवचनमनुचारयन्निति ॥ २३ ॥ तथा-'अइभूमि न गच्छि जा' इति सूत्रम्, अतिभूमि न गच्छेद्-अननुज्ञातां गृहस्थैः, यत्रान्ये भिक्षाचरा पान यान्तीत्यर्थः, गोचराग्रगतो मुनिः, अनेनान्यदा तद्गमनासंभवमाह, किं तर्हि, कुलस्य भूमिम्-पुत्तमादि रूपामवस्थां ज्ञात्वा 'मितां भूमि तैरनुज्ञातां पराक्रमेत, यत्रैषामप्रीतिर्नोपजायत इति सूत्रार्थः ॥ २४ ॥ विविशेषमाह-'तत्थेव'त्ति सूत्रं, 'तत्रैव' तस्यामेव मितायां भूमौ प्रत्युपेक्षेत सूत्रोक्तेन विधिना 'भूमिभागम्' [९८ -१०१] भिक्षा-ग्रहणे यत् विधि: तत् प्रदर्श्यते ~338~ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [9], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||२३-२६|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दशका० हारि-वृत्तिः पणाध्य. ||२३-२६|| ॥१६८॥ दीप अनुक्रम उचितं भूमिदेशं 'विचक्षणों विद्वान्, अने न केवलागीतार्थस्य भिक्षाटनप्रतिषेधमाह, तत्र च तिष्ठन् स्नानस्य५ पिण्डैतथा 'वर्चसो' विष्ठायाः संलोकं परिवर्जयेत्, एतदुक्तं भवति-लानभूमिकायिकादिभूमिसंदर्शनं परिहरेत्, प्रवचनलाघवप्रसङ्गात् , अपावृतस्त्रीदर्शनाच रागादिभावादिति सूत्रार्थः ॥ २५ ॥ किंच-'दर्गत्ति सूत्रम्, 'उदकमृत्तिकादानम्' आदीयतेऽनेनेत्यादानो-मार्गः, उदकमृत्तिकानयनमार्गमित्यर्थः, 'बीजानि' शाल्यादीनि | 'हरितानि च दूर्वादीनि, चशब्दादन्यानि च सचेतनानि परिवर्जयस्तिछेदनन्तरोदिते देशे 'सर्वेन्द्रियसमा[हित' शब्दादिभिरनाक्षिप्तचित्त इति सूत्रार्थः ॥ २६ ॥ तत्थ से चिट्ठमाणस्स, आहरे पाणभोअणं । अकप्पिन गेण्हिज्जा, पडिगाहिज कप्पि ॥ २७ ॥ आहरती सिआ तत्थ, परिसाडिज भोअणं । दिति पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ २८ ॥ संमद्दमाणी पाणाणि, बीआणि हरिआणि अ। असंज मकर नच्चा, तारिसिं परिवज्जए ॥ २९ ॥ 'तत्यत्ति सूत्रं, 'तत्र' कुलोचितभूमौ से तस्य साधोस्तिष्ठतः सतः 'आहरेद' नयेत्पानभोजनं, गृहीति गम्यते, तत्रायं विधिः-अकल्पिकम्' अनेषणीयं न गृह्णीयात्, प्रतिगृह्णीयात् 'कल्पिकम् एषणीयम्, एतचार्थापन्नमपि कल्पिकग्रहणं द्रव्यतः शोभनमशोभनमप्येतदविशेषेण ग्राह्यमिति दर्शनार्थ साक्षादुक्तमिति का [९८ -१०१] ॥१६८॥ JanEducationie ll ~339~ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [9], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||२७-२९|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक XBABB ||२७-२९|| दीप अनुक्रम [१०२-१०४] सूत्रार्थः ॥ २७ ॥'आहरंति' त्ति सूत्रम्, 'आहरन्ती' आनयन्ती भिक्षामगारीति गम्यते 'स्यात्' कदाचित् प्रतत्र' देशे 'परिशारयेदू'इतश्चेतश्च विक्षिपद भोजनं वा पानं वा, ततः किमित्याह-ददती 'प्रत्याचक्षीत प्रतिषेधयेत्तामगारी, ख्येव प्रायो भिक्षां ददातीति स्त्रीग्रहणं, कथं प्रत्याचक्षीतेत्यत आह-न मम कल्पते तादृशं-परिशाटनावत्, समयोक्तदोषप्रसङ्गात्, दोषांश्च भावं ज्ञात्वा कथयेद् मधुविन्ददाहरणादिनेति सूत्रार्थः ॥२८॥ किंच-संमद्दत्ति सूत्रं, 'संमर्दयन्ती' पद्भ्यां समाक्रामन्ती, कानित्याह-प्राणिनोंदीन्द्रियादीन् 'बी-12 जानि' शालिवीजादीनि 'हरितानि दूर्वादीनि 'असंयमकरीं साधुनिमित्तमसंयमकरणशीला ज्ञात्वा तादृशीं| परिवर्जयेत्, ददतीं प्रत्याचक्षीत इति सूत्रार्थः ॥२९॥ साहद्द निक्खिवित्ता णं, सचित्तं घट्टियाणि यातहेव समणट्राए, उदगं संपणुल्लिया॥३०॥ ओगाहइत्ता चलइत्ता, आहरे पाणभोअणं । दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥३१॥ पुरेकम्मेण हत्थेण, दळवीए भायणेण वा । दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ३२ ॥ एवं उदउल्ले ससिणिद्धे, ससरक्खे महिआउसे । हरि१ मधु क्षीरे जले गये इति हैमोक्रेरितककथाप्रतिपादितक्षीरेयीदृष्टान्तोऽत्र गम्पः, ARASTRA 2022%A4%ES दश० २९ ~340~ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||३०-३४|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ५ पिण्डैपणाध्य १ उद्देशः ||३०-३४|| दीप अनुक्रम [१०५-१०९] दशवैका. आले हिंगुलए, मणोसिला अंजणे लोणे ॥ ३३ ॥ गेरुअवन्निअसेढिअसोरट्रिअपिट्रहारि-वृत्तिः कुक्कुसकए य । उकिट्ठमसंसट्टे, संसट्टे चेव बोद्धव्वे ॥ ३४॥ ॥१९॥ तथा 'साहहुँत्ति सूत्रं, संहल्यान्यस्मिन् भाजने ददाति, 'तं फासुगमवि वजए, तत्थ फासुए फासुयं साहै हरइ फासुए अफासुअं साहरइ अफामुए फासुयं साहरइ अफामुए अफासु साहरइ, तत्थ जं फासुअं फासुए साहरइ तत्थवि थेवे घेवं साहरइ थेवे बहुअं साहरइ बहुए थेवं साहरइ बहुए बहुअं साहरइ । एवमादि यथा पिण्डनियुक्तौ । तथा निक्षिप्य भाजनगतमदेयं षट्सु जीवनिकायेषु ददाति, 'सचित्तम्' अलातपुष्पादि 'घदृयित्वा' संचाल्य च ददाति तथैव 'श्रमणार्थ' प्रव्रजितनिमित्तमुदकं 'संप्रणुद्य' भाजनस्थं प्रेर्य ददातीति सूत्रार्थः ॥ ३० ॥ 'ओगाहइत्ता' सूत्रं, तथा च 'अवगाह्य उदकमेवात्माभिमुखमाकृष्य ददाति तथा चालयित्वा उदकमेव ददाति, उदके नियमादनन्तवनस्पतिरिति प्राधान्यख्यापनार्थ सचित्तं घदृयिवेत्युक्तेऽपि भेदेनोपादानम्, अस्ति चार्य न्यायो-यदुत सामान्यग्रहणेऽपि प्राधान्यख्यापनार्थ भेदेनोपादानं, यथा-बामणा आयाता वशिष्ठोऽप्यायात इति, ततश्चोदकं चालयित्वा 'आहरेत् आनीय दद्यादित्यर्थः, किं तदित्याह तत् प्रामुकमपि वर्जयेत, तत्र प्रासुके प्रासुफ गहरति प्रामुकेमासुकै संदरति अप्रासुके प्रासुकै रोहति अप्रामुके अप्रासुकै सहरति, तत्र यत् प्रामुके प्रा. सुकं संदरति तत्रापि तोके सोक संहरति स्तोके बहु संहरति यही स्तोर्क सहरति यही बहुसहरति. 2444 ॥१६९॥ ~341~ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||३० -३४|| दीप अनुक्रम [१०५ -१०९] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [ १५...] / गाथा ||३०-३४|| निर्युक्तिः [ २४४ ...], भाष्यं [६२...] आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित Ja Education in 'पानभोजनम्' ओदनारनालादि तदित्थंभूतां ददतीं 'प्रत्याचक्षीत' निराकुर्यात् न मम कल्पते तादृशमिति पूर्ववदेवेति सूत्रद्वयार्थः ||३१|| 'पुरेकम्मे 'न्ति सूत्रं पुरःकर्मणा हस्तेन- साधुनिमित्तं प्राकृतजलोज्झनव्यापारेण, तथा 'दया' डोवसदृशया 'भाजनेन वा' कांस्य भाजनादिना ददतीं 'प्रत्याचक्षीत' प्रतिषेधयेत्, न मम क ल्पते तादृशमिति पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ॥ ३२ ॥ एवं'ति सूत्रम्, 'एवम्' उदकार्येण 'हस्तेन' करेण, उदकाद्र नाम गलदुदकविन्दुयुक्तः, एवं सस्निग्धेन हस्तेन सस्निग्धो नाम ईषदुदकयुक्तः, एवं 'सरजस्केन हस्तेन सरजस्को नाम-पृथिवीरजोगुण्डितः, एवं 'मृद्धतेन हस्तेन' मृतो नाम-कर्दमयुक्तः, एवमूषादिष्वपि योजनीयम्, एतावन्ति एव एतानि सूत्राणि, नवरमूष:-पांशुक्षारः, हरितालहिङ्गुलकमनःशिलाः- पार्थिवा वर्णकभेदाः, अञ्जनं- रसाञ्जनादि लवणं- सामुद्रादि ॥ ३३ ॥ तथा 'गेरुअ'त्ति सूत्रं, गैरिका - धातुः, वर्णिकापीतमृत्तिका, श्वेतिका-शुक्लमृत्तिका, सौराष्ट्रका तुवरिका, पिष्टम्-आमतण्डुलक्षोदः, कुकुसाः प्रतीताः, 'कृतेनेति' एभिः कृतेन, हस्तेनेति गम्यते, तथोत्कृष्ट इति उत्कृष्टशब्देन कालिङ्गालावुत्रपुषफलादीनां शस्त्रकृतानि श्लक्ष्णखण्डानि भण्यन्ते, चिञ्चिणिकादिपत्रसमुदायो वा उदूखलकण्डित इति, तथा असंसृष्टोव्यञ्जनादिना अलिप्तः, संसृष्टश्चैव व्यञ्जनादिलिप्सो बोद्धव्यो हस्त इति, विधिं पुनरत्रोद्धुं वक्ष्यति स्वयमेवेति सूत्रार्थः ॥ ३४ ॥ असंसण हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा । दिजमाणं न इच्छिज्जा, पच्छाकम्मं जहिं For ane & Personal Use City ~342~ brary dig Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [9], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||३५-३६|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: 4 प्रत सूत्रांक षणाध्यक ||३५ %E0 उद्देशा -३६|| दशवैका. भवे ॥ ३५॥ संसट्टेण य हत्थेण, दळवीए भायणेण वा । दिजमाणं पडिच्छिजा, जं हारि-वृत्तिः तत्थेसणियं भवे ॥ ३६॥ ॥ १७०॥ आह च-'असंसट्टेण ति सूत्रम् , असंसृष्टेन हस्तेन-अन्नादिभिरलिप्तेन दा भाजनेन वा दीयमानं मानेच्छेत, किं सामान्येन ?, नेत्याह-पश्चात्कर्म भवति यत्र' ध्यादौ, शुष्कमण्डकादिवत् तदन्यदोषरहितं | 5 गृह्णीयादिति सूत्रार्थः ॥ ३५ ॥ 'संस?ण' ति सूत्रं, संसृष्टेन हस्तेन-अन्नादिलिप्तेन, तथा दा भाजनेन वा दीयमानं 'प्रतीच्छेद्' गृह्णीयात्, किं सामान्येन ? नेत्याह-यत्तत्रैषणीयं भवति, तदन्यदोषरहितमित्यर्थः, इह || च वृद्धसंप्रदाया-संसढे हत्थे संसढे मत्ते सावसेसे दब्बे, संसट्टे हत्थे संसट्टे मत्ते हिरवसेसे दब्वे, एवं अट्ठ | भंगा, एस्थ पढमभंगो सब्बुत्तमो, अन्नेसुऽवि जत्थ सावसेसं दव्वं तस्थ घिप्पड़, ण इयरेसु, पच्छाकम्मदोहै साउ सि सूत्रार्थः ॥ ३६॥ किंच दुण्हं तु भुंजमाणाणं, एगो तत्थ निमंतए । दिजमाणं न इच्छिज्जा, छंदं से पडि लेहए ॥३७॥ दुहं तु भुंजमाणाणं, दोऽवि तत्थ निमंतए । दिजमाणं पडिच्छिज्जा, 1 संसृष्टो हसः संपष्ट मात्रक ( ममत्र ) सावशेष द्रव्य, संसृष्टो हस्तः संसृष्टं मात्र निरवशेष द्रव्यम्, एवमष्टी भाः, अत्र प्रथमो भागः सर्वोत्तमः, ब-| न्येष्वपि यत्र सावशेषं द्रव्यं तत्र गृहीवाद, नेतरेषु, पधारकर्मदोषान. दीप अनुक्रम [११० %A5% 8 ।॥१७०॥ Jamaicanonil ~343~ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||३७-४४|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३७ -४४|| दीप अनुक्रम [११२-११९] जं तत्थेसणियं भवे ॥ ३८ ॥ युक्षिणीए उवपणत्थं, विविहं पाणभोअणं । भुंजमाणं विवज्जिज्जा, भुत्तसेसं पडिच्छए ॥ ३९ ॥ सिआ य समणटाए, गुठ्विणी कालमासिणी । उद्विआ वा निसीइजा, निसन्ना वा पुणुटुए ॥ ४० ॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पि । दिति पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिस ॥४१॥ थणगं पिजेमाणी, दारगं वा कुमारिअं। तं निक्खिवित्तु रोअंतं, आहरे पाणभोअणं ॥ ४२ ॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पि। दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥४३॥ जं भवे भत्तपाणं तु, कप्पाकप्पंमि संकि। दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥४४॥ 'दुहति सूत्र, 'द्वयोर्भुजतो' पालनां कुर्वतोः, एकस्य वस्तुनः स्वामिनोरित्यर्थः, एकस्तत्र 'निमन्त्रयेत्' तहान प्रत्यामनयेत, तद्दीयमानं नेच्छेदुत्सर्गतः, अपितु 'छन्दम्' अभिप्राय 'सें तस्य द्वितीयस्य प्रत्युपेक्षेत नेत्रवकादिविकारः, किमस्येदमिष्टं दीयमानं नवेति, इष्टं चेलहीयान्न चेन्नैवेति, एवं शुञ्जओनयोः-अभ्यवहारायोद्य १ टिस्याकाण्यत्वाइजिः पालनार्थोऽत्र. २ अत्राणे 'भुनजोमाणे' इत्यात्मनेपदभावाव, अकल्पित वस्तून: विधानं प्रदर्श्यते ~344~ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||36 -४४|| दीप अनुक्रम [११२ -११९] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||३७-४४ || निर्युक्तिः [ २४४...], भाष्यं [६२...] आगमसूत्र [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित दशवैका हारि-वृत्तिः ॥ १७१ ॥ तयोरपि योजनीयं, यतो भुजिः पालनेऽभ्यवहारे च वर्तत इति सूत्रार्थः ॥ ३७ ॥ ततो 'दुण्हं'ति सूत्रं द्वयोस्तु पूर्ववत् भुञ्जतोर्भुञ्जानयोर्वा द्वावपि तंत्रातिप्रसादेन निमन्त्रयेयातां तत्रायं विधिः दीयमानं 'प्रतीच्छेद्' गृहीयात् यत्तत्रैषणीयं भवेत्, तदन्यदोषरहितमिति सूत्रार्थः ||३८|| विशेषमाह - 'गुब्विणीए' त्ति सूत्रं, 'गुर्विण्या' गर्भवत्या 'उपन्यस्तम्' उपकल्पितं, किं तदित्याह - 'विविधम्' अनेकप्रकारं 'पानभोजनं' द्राक्षापानखण्डखायकादि, तत्र भुज्यमानं तया विवर्ज्य, मा भूत्तस्या अल्पत्वेनाभिलाषानिवृत्त्या गर्भपतनादिदोष इति, 'भुक्तशेषं भुक्तोद्धरितं प्रतीच्छेत्, यत्र तस्या निवृत्तोऽभिलाष इति सूत्रार्थः ॥ ३९ ॥ किंच- 'सिआ य' त्ति सूत्रं, | 'स्याच्च' कदाचिच 'श्रमणार्थे' साधुनिमित्तं 'गुर्विणी' पूर्वोक्ता 'कालमासवती गर्भाधानान्नवममासवती त्यर्थः, | उत्थिता वा यथाकथञ्चिन्निषीदेद् निषण्णा ददामीति साधुनिमित्तं, निषण्णा वा खव्यापारेण पुनरुत्तिष्ठेद् ददामीति साधुनिमित्तमेवेति सूत्रार्थः ॥ ४० ॥ तं भवे' ति सूत्रं तद्भवेद्भक्तपानं तु तथा निषीद्नोत्थानाभ्यां दीयमानं संयतानामकल्पिकम्, इह च स्थविरकल्पिकानामनिषीदनोत्थानाभ्यां यथावस्थितया दीयमानं कल्पिकं, जिनकल्पिकानां त्वापन्नसत्त्वया प्रथमदिवसादारभ्य सर्वथा दीयमानमकल्पिक मेवेति सम्प्रदायः, यतश्चैवमतो ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमित्येतत्पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ॥ ४१ ॥ किं च- 'थणगं'ति सूत्रं, स्तनं (न्यं) पाययन्ती, किमित्याह- दारकं वा कुमारिकां, वाशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः, अत एव नपुंसकं वा, १ छन्देन निमन्त्रणाज्ञानातीत्यादि. For ane & Personal Use City ~345~ ५ पिण्डैषणाध्य० १ उद्देशः ॥ १७१ ॥ brary dig Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [9], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||३७-४४|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३७ -४४|| दीप अनुक्रम [११२-११९] दातदारकादि निक्षिप्य रुदद्भूम्यादी आहरेस्पानभोजनम्, अत्रायं वृद्धसंप्रदाया-गच्छवासी जइ थणजीवी पि अंतो णिक्खितो तो न गिण्डंति, रोबउ वा मा वा, अह अन्नंपि आहारेइ तो जति ण रोवर तो गिण्हंति, अह रोवई तो न गिण्हंति, अह अपिअंतो णिक्खित्तो थणजीवी रोबइ तओ ण गिण्हंति, अहण रोवइ तो गिण्हंति, गच्छणिग्गया पुण जाव थणजीवी ताव रोवउ वा मा वा पिवंतओ (वा) अपिवंतओ वा ण गिण्हंति, जाहे अन्नपि आहारे आढत्तो भवति ताहे जइ पिवंतओ तो रोवउ वा मा वा ण गेण्हंति, 'अह अपिबतओ तो जह रोवइ तो परिहरंति, अरोविए गेण्हंति, सीसो आह-को तत्थ दोसोऽस्थि?, आयरिओ भणइतस्स णिक्खिप्पमाणस्स खरेहिं हत्थेहिं घिप्पमाणस्स अथिरत्तणेण परितावणादोसा मज्जारादि वा अवह-| रेज त्ति सूत्रार्थः ॥ ४२ ॥ तं भवें' त्ति सूत्र, तद्भवेद्भक्तपानं त्वनन्तरोदितं संयतानामकल्पिकं, यतश्चैवमतो ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ॥४३॥ कि यहुनेति, उपदेशसर्वखमाह-'जं भवें गच्छदासी यदि स्तन्यजीवी पियन् निक्षिप्तस्तदान गृहाति, रोदितु वा मा वा, अथान्यदप्याहारयति तदा यदि न रोदिति तदा गृह्णाति, अथ रोदिति तदान रहाति, अथापियन् निक्षिप्तः सान्यजीवी रोदिति तदान गृहाति, अब न रोविति तदा एकाति, यच्छनिर्गताः पुनयाँवरस्वन्यजीजी तावद रोदिति वा मा वा पिबन् अपिबन् वा न गृहन्ति, यदा अन्यदप्याह माहतो भवति तदा यदि पिचन् तदा रोदिति वा मा वा न शान्ति, अथापिचन् तदा यदि रोपिति तदा परिहरन्ति अरुदति गृहन्ति । शिष्य बाह-कस्तत्र दोषोऽस्ति !, आचार्यो भणति-तस्य निक्षिप्यमाणस्य खराभ्यां हस्ताभ्यां गृहामाणस्यास्थिरत्नेन परितापनादोषा माजोरादि | | वाऽपहरेत, JanElicatatli ~346~ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [9], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||४५-४६|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक C ||४५ -४६|| दशबैका त्ति सूत्रं, यद्भवेद्भक्तपानं तु 'कल्पाकल्पयोः' कल्पनीयाकल्पनीयधर्मविषय इत्यर्थः, किम् ?-शङ्कितं न विद्मः५ पिण्डै. हारि-वृत्तिः किमिदमुद्गमादिदोषयुक्तं किंवा नेत्याशङ्कास्पदीभूतं, तदित्थंभूतमसति कल्पनीयनिश्चये ददती प्रत्याचक्षीत साषणाध्य. न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः॥४४॥ १ उद्देशः ॥१७२॥ दगवारेण पिहि, नीसाए पीढएण वा लोढेण वावि लेवेण, सिलेसेणवि केणइ ॥४५॥ तं च उभिदिआ दिजा, समणट्राए व दावए । दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ॥४६॥ || किं च-'दगवारेण त्ति सूत्र, 'दकवारेण' उदककुम्भेन 'पिहित भाजनस्थं सन्तं स्थगित, तथा 'नीसा-12 ए'त्ति पेषण्या, 'पीठकेन वा' काष्ठपीठादिना, 'लोन वापि' शिलापुत्रकेण, तथा 'लेपेन' मूल्लेपनादिना 'श्लेषेण वा' केनचिजतुसिक्थादिनेति सूत्रार्थः ॥ ४५ ॥ तं च' ति सूत्रं, 'तच' स्थगितं लिप्तं वा सत् उद्भिद्य | दद्याच्छ्रमणार्थ दायका, नात्माद्यर्थ, तदित्थंभूतं ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ॥४६॥ असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । जं जाणिज सुणिज्जा वा, दाणट्ठा पगडं इमं ॥४७॥ तारिसं भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पि। दितिअं पडिआइक्खे, न १ मधूच्छिदं तु सिक्थकम्, HERONSTABASAHAS दीप अनुक्रम [१२०-१२१] ॥१७२॥ JanElicatana ~347~ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||४७-५४|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॥४७-५४|| दीप अनुक्रम [१२२-१२९] *5555538454: 5555 मे कप्पइ तारिस ॥४८॥ असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । जं जाणिज सुणिज्जा वा, पुण्णट्ठा पगडं इमं ॥ ४९ ॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पि। दिति पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥५०॥ असणं पाणगं वावि, खाइम साइमं तहा । जं जाणिज सुणिज्जा वा, वणिमद्रा पगडं इमं ॥ ५१ ॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं। दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ५२ ॥ असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । जं जाणिज्ज सुणिज्जा वा, समणट्ठा पगडं इमं ॥ ५३॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पि। दिति पडिआइक्खे, न मे कप्पड तारिसं॥५४॥ किंच-'असणंति सूत्रं, अशनं पानकं वापि खाद्यं खाद्यम्, 'अशनम्' ओदनादि 'पानक'च आरनालादि, दा'खाद्य लडकादि, 'खाद्य हरीतक्यादि, यजानीयादामन्त्रणादिना, शृणुयादा अन्यतः, यथा दानार्थ प्रकृत १ दृश्यमानेष्वादशं तु 'ओदनारनाललडकहरीतक्यादि' इत्येतावन्मात्रमेय. २ गुडसंस्कृतदन्तपयनादि प्रात्य, बायकावधिधायोकपत्तिमोदकादिभोजनसाप्रकार इति पश्चाक्षको के. + ~348~ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [9], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||४७-१४|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॥४७-५४|| दीप अनुक्रम [१२२-१२९] दशवैका०मिवं, दानार्थ प्रकृतं नाम-साधुवादनिमित्तं यो ददास्यव्यापारपाखण्डिभ्यो देशान्तरादेरागतो वणिक्प्रभृति- ५ पिण्डैहारि-वृत्तिः रिति सूत्रार्थः॥४७॥'तारिसंति सूत्रं, तादृशं भक्तपानं दानार्थ प्रवृत्तव्यापार संयतानामकल्पिकं, यतश्चै- |षणाध्य वमतो ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः॥४८॥'असणं' ति सूत्रम्, एवं पुण्यार्थ, पुण्यार्थी |१ उद्देशः प्रकृतं नाम-साधुवादानङ्गीकरणेन यत्पुण्यार्थं कृतमिति । अत्राह-पुण्यार्थप्रकृतपरित्यागे शिष्टकुलेषु वस्तुतो |भिक्षाया अग्रहणमेव, शिष्टानां पुण्यार्थमेव पाकप्रवृत्तेः, तथाहि-न पितृकर्मादिव्यपोहेनात्मार्थमेव क्षुद्रसस्ववत्प्रवर्तन्ते शिष्टा इति, नैतदेवम्, अभिप्रायापरिज्ञानात्, स्वभोग्यातिरिक्तस्य देयस्यैव पुण्यार्थकृतस्य निषेधात् , स्वभृत्यभोग्यस्य पुनरुचितप्रमाणस्येत्त्वरयदृच्छादेयस्य कुशलप्रणिधानकृतस्याप्यनिषेधादिति, एतेनाऽ-18 देयदानाभावः प्रत्युक्तः, देयस्यैव यदृच्छादानानुपपत्तेः, कदाचिदपि वा दाने यहच्छादानोपपत्तेः, तथा व्यवहारदर्शनात्, अनीदशस्यैव प्रतिषेधात्, तदारम्भदोषेण योगात्, यदृच्छादाने तु तदभावेऽप्यारम्भप्रवृत्तेः नासी तदर्थे हत्यारम्भदोषायोगात्, दृश्यते च कदाचित्सूतकादाविव सर्वेश्य एव प्रदानविकला शिष्टाभिम-15 तानामपि पाकप्रवृत्तिरिति, विहितानुष्ठानत्वाच्च तथाविधग्रहणान्न दोष इत्यलं प्रसङ्गेन, अक्षरगमनिकामात्रफल खात्प्रयासस्येति ।। ४९॥ तं भवें त्ति सूत्रं, प्रतिषेधः पूर्ववत् ॥ ५० ॥'असणं ति सूत्रं, एवं वनीपकार्थे । वनीपका:-कृपणाः ॥५१॥'तं भवें त्ति सूत्रं, प्रतिषेधः पूर्ववत् ॥५२॥'असणं ति सूत्रं, एवं अमणार्थ,5॥१७३ ॥ श्रमणा-निन्धाः शाक्यादयः ॥ १३ ॥ 'तं भवे' त्ति सूत्रं, प्रतिषेधः पूर्ववत् ॥५४॥ ~349~ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||५५|| दीप अनुक्रम [१३०] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित मूलं [ १५...] / गाथा || ५५ || निर्युक्तिः [२४४...], भाष्यं [६२...] आगमसूत्र [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः उद्देसिअं कीअगडं, पूइकम्मं च आहडं । अज्झोअर पामिचं, मीसजायं विवज्जए ॥ ५५ ॥ किंच— 'उद्देसिअं'ति सूत्रं, उद्दिश्य कृतमौदेशिकम् - उद्दिष्टकृतकर्मादिभेदं क्रीतकृतं - द्रव्यभावक्रयक्री तभेदं पूतिकर्म संभाव्यमानाद्याकर्मावयवसंमिश्रलक्षणम्, आहृतं स्वग्रामाहृतादि, तथा अध्यवपुरकं-स्वार्थमूलाद्रहणप्रक्षेपरूपं प्रामित्यं साध्वर्थमुच्छिद्य दानलक्षणं, मिश्रजातं च-आदित एव गृहिसंयतमिश्रपस्कृ तरूपं, वर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ ५५ ॥ गौरी संबंधी दोषाणां वर्णनं उग्गमं से अ पुच्छिजा, कस्सट्ठा केण वा कर्ड ? । सुच्चा निस्संकिअं सुद्धं, पडिगाहिज संजए ॥ ५६ ॥ संशयव्यपोहायोपायमाह – 'उग्गमं' ति सूत्रं, 'उद्गमं' तत्प्रसूतिरूपम् 'से' तस्य शङ्कितस्याशनादेः 'प्रच्छेत्' तत्स्वामिनं कर्मकरं वा, यथा- कस्यार्थमेतत् केन वा कृतमिति श्रुत्वा तद्वचो न भवदर्थं किं त्वन्यार्थमित्येवंभूतं निःशङ्कितं 'शुद्ध' सदृजुत्वादिभावगत्या प्रतिगृह्णीयात्संयतो, विपर्ययग्रहणे दोषादिति सूत्रार्थः ॥५३॥ असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । पुष्फेसु हुज उम्मीसं, बीएस हरिसु वा ॥ ५७ ॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं । दितिअं पडिआइक्खे, न मे For & Personal Use City ~ 350~ brary dig Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [9], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||५७-६४|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: दशवैका० हारि-वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||५७-६४|| ५ पिण्डैपणाध्यक १उद्देश: ॥१७४॥ 1535 कप्पइ तारिसं ॥ ५८ ॥ असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । उदगंमि हुज निक्खित्तं, उत्तिंगपणगेसु वा ॥ ५९॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पि। दिति पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ६० ॥ असणं पाणगं वावि, खाइम साइमं तहा। तेउम्मि हुज निक्खित्तं, तं च संघट्टिआ दए ॥ ६१ ॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पि।दिति पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ६२ ॥ एवं उस्सक्किया, ओसकिया, उज्जालिआ, पजालिआ, निव्वाविया, उस्सिचिया, निसिंचिया, उववत्तिया, ओयारिया दए ॥६३॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाणं अकप्पिअं। दिति पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ६॥ SAEXEका दीप अनुक्रम [१३२-१३९] तथा 'असणं' ति सूत्रं, अशनं पानकं वापि खाद्यं स्वायं तथा 'पुष्पैः' जातिपाटलादिभिः भवेदुन्मिनं, वीजैहरितैर्वेति सूत्रार्थः ॥ ५७॥ तारिसंति सूत्र, तादृशं भक्तपानं तु संपतानामकल्पिकं, यतश्चैवमतो ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ।। ५८॥ तथा 'असणं' ति सूत्रं, अशनं पान वापि * ~351~ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [9], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||५७-६४|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: - 56*50 - प्रत - सूत्रांक - ||५७-६४|| %0-964- - दीप अनुक्रम [१३२-१३९] खाद्यं खायं तथा, उदके भवेन्निक्षिप्तमुत्तिंगपनकेषु वा कीटिकानगरोल्लीषु वेत्यर्थः, उदयनिक्खित्तं दुविहंअणंतरं परंपरं च, अणंतरं णवणीतपोग्गलियमादि, परोप्परं जलघडोवरिभायणत्थं दधिमादि, एवं उत्तिंगपणएसु भावनीयमिति सूत्रार्थः ।। ५९ ॥ तं भवेत्ति सूत्रं, तद्भवेद्भक्तपानं तु संयतानामकल्पिकं, यतश्चैवमतो दवती प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ।। ६० ॥ तथा 'असणीति सूत्रं, अशनं पानकं वापि| खाद्य खाद्य तथा, तेजसि भवेन्निक्षित, 'तेजसि' इत्यग्नौ तेजस्काय इत्यर्थः, तच संघट्य, यावद्भिक्षां ददामि। तावत्तापातिशयेन मा भूदुर्तिष्यत इत्याघट्य दद्यादिति सूत्रार्थः ।। ६१ ॥ 'तं भवेत्ति सूत्रं, तद्भवेद्भक्तपानं, तु संयतानामकल्पिकमतो दवती प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ।। ६२ ॥ एवं 'उस्सकि यत्ति यावद्भिक्षां ददामि तावन्मा भूद्विध्यास्थतीत्युत्सिच्य दद्याद्, एवं 'ओसक्किया' अवसl अतिदाहभहायादुल्मकान्युत्सार्येत्यर्थः, एवं 'उजालिया पजालिया' 'उवाल्य' अर्धविध्यातं सकृदिन्धनप्रक्षेपेण, 'प्रज्वाल्य' पुनः पुनः । एवं 'निव्वाविया' निर्वाप्य दाहभयादेवेति भावः, एवं उस्सिंचिया निस्सिचिया, 'उत्सिच्य' अतिभृतादुज्झनभयेन ततो वा दानार्थं तीमनादीनि, 'निषिच्य तद्भाजनारहितं द्रव्यमन्यत्र भाजने तेन दद्यात्, उद्वर्तनभयेन चाऽऽद्रहितमुदकेन निषिच्य, एवं 'ओवत्तिया ओयारिया', 'अपवर्य' तेनैवाग्निनिक्षिप्तेन १ उपकनिक्षिप्त विविधम्-अनन्तरं परम्परंप, अनन्तरं नवनीतमासादि, परम्पर अलपटोपरिभाजनवं दयादि, एवमुत्तिापनकयो, -- - ARE वश०३० Jamaicational ~ 352~ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [9], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||६५-६९|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दशका. हारि-वृत्तिः ||६५-६९|| दीप अनुक्रम [१४०-१४२] भाजनेनान्येन चा दद्यात्, तथा 'अवतार्य' दाहभयाद्दानार्थ वा दद्यात्, अत्र तदन्यच साधुनिमित्तयोगे न ४५ पिण्डैकल्पते ॥ ६३ ॥ 'तं भवें सि सूत्रं पूर्ववत् ।। ६४ ॥ पणाध्य० हुज कट्रं सिलं वावि, इट्टालं वावि एगया । ठविअं संकमटाए, तं च होज चला १ उद्देशः चलं ॥६५॥ ण तेण भिक्खू गच्छिज्जा, दिट्ठो तत्थ असंजमो । गंभीरं झुसिरं चेव, सविदिअसमाहिए ॥ ६६ ॥ निस्सेणि फलगं पीढं, उस्सवित्ता णमारुहे । मंचं कीलं च पासायं, समणट्रा एवं दावए ॥६७॥ दुरूहमाणी पवडिजा, हत्थं पायं व लूसए । पुढविजीवे विहिंसिज्जा, जे अ तन्निस्सिया जगे ॥ ६८ ॥ एआरिसे महादोसे, जाणिऊण महेसिणो । तम्हा मालोहडं भिक्खं, न पडिगिण्हंति संजया ॥ ६९ ॥ गोचराधिकार एव गोचरप्रविष्टस्य होज' त्ति सूत्रं, भवेत् काष्ठं शिला वापि इहालं वाऽपि 'एकदा' एकमिन् काले प्रायडादी स्थापितं संक्रमार्थ, तच भवेत् 'चलाचलम् अप्रतिष्ठितं, न तु स्थिरमेवेति सूत्रार्थः | ॥६५॥ण तेण'त्ति सूत्रं, न 'तेन काष्ठादिना भिक्षुर्गच्छेत्, किमिति?, अत्राह-दृष्टस्तत्रासंयमः, तच्चलने १७५ ॥ प्राण्युपमर्दसंभवात् , तथा 'गम्भीरम्' अप्रकाशं 'शुषिरं चैव' अन्तःसाररहितम् , 'सर्वेन्द्रियसमाहितः' शब्दा JamElicationliHARA ~353~ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||७०-७४|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||७० -७४|| दीप दिषु रागद्वेषावगच्छन् , परिहरेदिति सूत्रार्थः ॥६६॥ किं च-णिस्सेणि' ति सूत्रं, निश्रेणिं फलकं पीठम् 'उस्सवित्ता' उत्सृत्य ऊर्द्ध कृत्वा इत्यर्थः, आरोहेन्मञ्च, कीलकं च उत्सृत्य कमारोहेदित्याह-प्रासाद, 'श्रमणार्थ साधुनिमित्तं 'दायकों दाता आरोहेत्, एतदप्यग्राह्यमिति सूत्रार्थः ।। ६७ ॥ अत्रैव दोषमाह-दुरूहमाणि त्ति सूत्र, आरोहन्ती प्रपतेत्, प्रपतन्ती च हस्तं पादं वा 'लूपयेत्' खर्क खत एव खण्डयेत, तथा पृथ्वीजी-III वान् विहिं स्यात, कथंचित्तत्रस्थान, तथा यानि च तनिश्रितानि 'जगन्ति' प्राणिनस्तांश्च हिंस्यादिति सूत्रार्थः॥ १८॥'एआरिसे' सि सूत्रं, ईशान्' अनन्तरोदितरूपान्महादोषान् ज्ञात्वा 'महर्षयः साधवः। यस्मादोषकारिणीयं तस्मात् 'मालापहतां मालादानीतां भिक्षां न प्रतिगृहन्ति संयताः, पाठान्तरं वा| | हंदि मालोहडं' ति, हन्दीत्युपप्रदर्शन इति सूत्रार्थः ॥ ६९ ॥ कंदं मूलं पलंब वा, आमं छिन्नं व सन्निरं । तुंबागं सिंगबेरं च, आमगं परिवजए ॥ ७० ॥ तहेव सत्तुचुन्नाई, कोलचुन्नाइं आवणे । सकुलिं फाणिपूअं, अन्नं वावि तहाविहं ॥७१॥ विकायमाणं पसदं, रएणं परिफासि।दिति पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ७२ ॥ बहुअद्वियं पुग्गलं, अणिमिसं वा बहुकंटयं । अच्छियं अनुक्रम [१४५ -१४९] ~354~ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [9], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||७०-७४|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 455 ५पिण्डैपणाध्य | १ उद्देशः ||७०-७४|| दीप अनुक्रम दशवैका तिंदुयं बिल्लं, उच्छृखंडं व सिंबलिं ॥ ७३ ॥ अप्पे सिआ भोअणज्जाए, बहुउज्झियधहारि-वृत्तिः म्मियं । दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ७४ ॥ ॥ १७६॥ प्रतिषेधाधिकार एवाह-'कंदं मूलं' ति सूत्रं, 'कन्द' सूरणादिलक्षणम् 'मूलं' विदारिकारूपम् 'प्रलम्ब भावा' तालफलादि, आमं छिन्नं वा 'सन्निरम्' सन्निरमिति पत्रशाकम्, 'तुम्बा' त्वग्मिजान्तर्वति आद्री वा तुलसीमित्यन्ये, 'शृङ्गायेर चाकम् , आम परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ ७० ॥'तहेव' त्ति सूत्रं, तथैव 'सक्त न' सक्तून् 'कोलचूर्णान' बदरसक्तून् 'आपणे वीथ्यां, तथा 'शाकुली' तिलपर्पटिकां 'फाणितं' वगुट I'पूर्व' कणिकादिमयम् , अन्पदा तथाविधं मोदकादि ।।७१॥ किमित्याह-विकायमाण' ति सूत्र, विक्रीयमाणमापणे इति वर्तते, 'प्रसह्य' अनेकदिवसस्थापनेन प्रकटम्, अत एव 'रजसा पार्थिवेन 'परिस्पृष्टं व्याप्त, तदित्थमभूतं तत्र ददती प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रद्वयार्थः ॥७२॥ किंच-'बहुअद्वियं|ति सूत्रं, यहस्थि 'पुद्गल' मांसम् 'अनिमिषं वा' मत्स्य वा बहुकण्टकम् , अयं किल कालावपेक्षया ग्रहणे प्रतिषेधः, अन्ये त्वभिदधति-वनस्पत्यधिकारात्तथाविधफलाभिधाने एते इति, तथा चाह-अस्थिकं' अस्थिलकवृक्षफलम्, 'तेंदुकं तेंदुरुकीफलम् , विल्वम् इक्षुखण्डमिति च प्रतीते, 'शाल्मलिं वा' बल्लादिफलिं वा, वाशब्दस्य व्यवहितः संवन्ध इति सूत्रार्थः ॥ ७३ ॥ अत्रैव दोषमाह-'अप्पे'त्ति सूत्र, अल्पं| -2--05 [१४५ -१४९] ॥१७६॥ -22 JanElcanonlinा ~355~ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [9], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||७५-८१|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||७५-८१|| दीप स्थाभोजनजातमत्र, अपि तु बहुज्झनधर्मकमेतत्, यतश्चैवमतो ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ॥ ७४॥ तहेवुच्चावयं पाणं, अदुवा वारधोअणं । संसेइमं चाउलोदगं, अहणाधो विवजए ॥ ७५॥ जं जाणेज चिराधोयं, मईए दंसणेण वा । पडिपुच्छिऊण सुच्चा वा, जं च निस्संकिअं भवे ॥ ७६ ॥ अजीवं परिणयं नच्चा, पडिगाहिज्ज संजए । अह संकियं भविजा, आसाइत्ताण रोअए ॥७७॥ थोवमासायणटाए, हत्थगंमि दलाहि मे । मा मे अचंबिलं पूअं, नालं तण्हं विणित्तए ॥ ७८॥ तं च अचंबिलं प्रयं, नालं तण्हं विणित्तए । दिति पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ७९ ॥ तं च होज्ज अकामेण, विमणेणं पडिच्छि। तं अप्पणा न पिये, नोवि अन्नस्स दावए ॥८॥ एगंतमवक्कमित्ता, अचित्तं पडिलेहिआ। जयं परिट्रविज्जा, परिट्रप्प पडिक्कमे ॥ १॥ उक्तोऽशनविधिः, साम्प्रतं पानविधिमाह-तहेब'त्ति सूत्र, तथैव यथाशनमुच्चावचं तथा पानम् 'उच्चं' वर्णागुपेतं द्राक्षापानादि 'अवचं वर्णादिहीनं पूत्यारनालादि अथवा 'वारकधावनं' गुढघदधावनमित्यर्थः अनुक्रम [१५०-१५६] अशन संबंधी विधि: प्रदर्शिता: अथ पान संबंधी विधि: कथयते ~356~ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||७५ -८१|| दीप अनुक्रम [१५० -१५६] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||७५-८९ || निर्युक्तिः [ २४४...], भाष्यं [६२...] आगमसूत्र [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित दशवेका० हारि-वृत्तिः ॥ १७७॥ Ja Education i 'संस्वेदजं' पिष्टोदकादि एतदशनवदुत्सर्गापवादाभ्यां गृह्णीयादिति वाक्यशेषः, 'तन्दुलोदकम्' अद्विकरकं 'अधुनाधीतम्' अपरिणतं विवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ ७५ ॥ अत्रैव विधिमाह - 'जं जाणिज’'त्ति सूत्रं, यत्तन्दुलोकं 'जानीयात्' विद्याविरघातम्, कथं जानीयादित्यत आह-मत्या दर्शनेन वा, 'मत्या' तग्रहणादिकर्मजया 'दर्शनेन वा' वर्णादिपरिणत सूत्रानुसारेण च, वा चशब्दार्थः, तदप्येवंभूतं किती वेलाऽस्य घौतस्येति पृष्ट्वा गृहस्थं, 'श्रुत्वा वा' महती वेलेति श्रुत्वा च प्रतिवचनं 'यथेति यदेव निःशङ्कितं भवति निरवयवप्रशान्ततया तन्दुलोदकं तत्प्रतिगृह्णीयादिति, विशेषः पिण्डनिर्युक्तायुक्त इति सूत्रार्थः ॥ ७६ ॥ उष्णोदकादिविधिमाह - 'अजीवंति सूत्रं, उष्णोदकमजीवं परिणतं 'ज्ञात्वा' त्रिदण्डपरिवर्तनादिरूपं मत्या दर्शनेन वेत्यादि वर्तते, तदित्थंभूतं प्रतिगृह्णीयात्संयतः, चतुर्थरसमपूत्यादि देहोपकारकं मत्यादिना ज्ञात्वेत्यर्थः अथ शङ्कितं भवेत् तत आखाद्य 'रोचयेद्' विनिश्रयं कुर्यादिति सूत्रार्थः ॥ ७७ ॥ तचैवं- 'थोवं'ति सूत्रं, स्तोकमाखादनार्थं प्रथमं तावत् हस्ते देहि मे, यदि साधुप्रायोग्यं ततो ग्रहीष्ये, मा मे अत्यम्लं पूति नाल तडपनोदाय । ततः किमनेनानुपयोगिनेति सूत्रार्थः ॥ ७८ ॥ 'तं च'सि सूत्रं, सुगमम् ॥ ७९ ॥ आखादितं च सत्साधुप्रायोग्यं चेट्टह्यत एव 'चेदग्राह्यं । 'तं च'ति सूत्रं, 'तच' अत्यम्लादि भवेद् 'अकामेन' उपरोधशीलतया 'विमनस्केन' अन्यचिसेन 'प्रतीप्सितं' गृहीतम् तदात्मना कायापकारकमित्यनाभोगधर्मश्रद्धया न पिबेत् नाप्यन्येभ्यो दापयेत्, रत्नाधिकेनापि स्वयं दानस्य प्रतिषेधज्ञापनार्थ दापनग्रहणम्, इह च 'सम्वत्थ संजमं संज For re&Personal Use Oily ~357~ ५. पिण्डै षणाध्य० १ उद्देशः ॥ १७७ ॥ brary dig Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [9], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||८२-८६|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||८२ -0-96--582-% -८६|| 0- 0-3 दीप अनुक्रम [१५७-१६१] माओ अप्पाणमेवे'त्यादि भावनयेति सूत्रार्थः ॥ ८॥ अस्यैव विधिमाह-एगतंति सूत्रं, एकान्तम् 'अवक्रम्य' गत्वा 'अचित्तं' दग्धदेशादि प्रत्युपेक्ष्य चक्षुषा प्रमृज्य रजोहरणेन स्थण्डिलमिति गम्यते 'यतम्। अत्वरित प्रतिष्ठापयेद्विधिना निर्वाक्यपूर्व व्युत्सृजेत् । प्रतिष्ठाप्य वसतिमागतः प्रतिक्रामेदीर्यापथिकाम् । दाएतच बहिरागतनियमकरणसिद्धं प्रतिक्रमणमवहिरपि प्रतिष्ठाप्य प्रतिक्रमणनियमज्ञापनार्थमिति सूत्रार्थः॥८॥ सिआ अ गोयरग्गगओ, इच्छिज्जा परिभुत्तुअं(भुंजिउं)। कुटुगं भित्तिमूलं वा, पडिलेहिताण फासुअं ॥ ८२ ॥ अणुन्नवित्तु मेहावी, पडिच्छन्नंमि संवुडे । हत्थगं संपमज्जित्ता, तत्थ भुंजिज्ज संजए ॥ ८३॥ तत्थ से भुंजमाणस्स, अट्रिअं कंटओ सिआ। तणकटुसकर बावि, अन्नं वावि तहाविहं ॥ ८४ ॥ तं उक्खिवित्तु न निक्खिवें, आसपण न छड्डए । हत्थेण तं गहेऊण, एगतमवक्कमे ॥ ८५॥ एगंतमवक्कमित्ता, अचित्तं पडिलेहिआ। जयं परिदृविज्जा, परिटुप्प पडिक्कमे ॥ ८६ ॥ एवमन्नपानग्रहणविधिमभिधाय भोजनविधिमाह-'सिआ अत्ति सूत्रं, 'स्यात्' कदाचिद् 'गोचराग्रगतों ग्रामान्तरं भिक्षा प्रविष्ट इच्छेत्परिभोक्तुं पानादि पिपासाद्यभिभूतः सन, तत्र साधुवसत्यभावे 'कोष्टक' 20-56-0- प्रतिक्रमण व परिष्ठापन संबंधी उपदेश: ~358~ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||८२-८६|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक S ||८२-८६|| दीप अनुक्रम [१५७-१६१] दशकान्प चमठादि 'भित्तिमूलं वा कुज्यैकदेशादि, प्रत्युपेक्ष्य चक्षुषा प्रमृज्य च रजोहरणेन 'पास' बीजादिर- ५ पिण्डैहारि-वृत्तिःहितं चेति सूत्राधेः ॥ ८२॥ तत्र 'अणुन्नवित्ति सूत्रं, 'अनुज्ञाप्य' सागारिकपरिहारतो विभ्रमणण्याजेन त- पणाध्य. स्वामिनमवग्रहं 'मेधावी' साधुः 'प्रतिच्छन्ने तत्र कोष्ठकादौ 'संवृत' उपयुक्तः सन् साधुरीर्याप्रतिक्रमणं कृत्वा । |१ उद्देशः ॥१७८॥ तदनु 'हस्तकं मुखवत्रिकारूपम्, आदायेति वाक्यशेषः, संप्रमृज्य विधिना तेन कायं तत्र भुञ्जीत 'संयतो' रागद्वेषावपाकृत्येति सूत्रार्थः ॥ ८३ ॥ 'तत्यत्ति सूत्रं, 'तत्र' कोष्ठकादौ 'से' तस्य साधो खानस्य अस्थि क& ण्टको वा स्यात्, कथंचिगृहिणां प्रमाददोषात् , कारणगृहीते पुद्गल एवेत्यन्ये, तृणकाष्ठशर्करादि चापि स्यात्, उचितभोजनेऽन्यदापि तथाविधं बदरकर्कटकादीति सूत्रार्थः ।। ८४॥ 'तं उक्खिवितु' इति सूत्रं, 'तद्'अस्थ्यादि उत्क्षिप्य हस्तेन यत्र कचिन्न निक्षिपेत्, तथा 'आस्येन' मुखेन नोज्झेत्, मा भूद्विराधनेति, अपितु हस्तेन गृहीत्वा तदू' अस्थ्यादि एकान्तमवक्रामेदिति सूत्रार्थः ॥ ८५ ।। 'एगंतति सम्र, एकान्तमचक्रम्य अचित्तं प्रत्युपेक्ष्य यतं प्रतिष्ठापयेत्, प्रतिष्ठाप्य प्रतिक्रामेदिति, भावार्थः पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ।। ८६ ॥ सिआ य भिक्खू इच्छिज्जा, सिजमागम्म भुतु। सपिंडपायमागम्म, उंडुरं पडिलेहिआ॥ ८७ ॥ विणएणं पविसित्ता, सगासे गुरुणो मुणी । इरियावहियमायाय, ॥१७८॥ आगओ अ पडिकमे ॥ ८८ ॥ आभोइत्ताण नीसेसं, अईआरं जहक्कम । गमणाग AREENA ~359~ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [9], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||८७-९६|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: % प्रत % सूत्रांक % ||८७ % -९६|| %A5- 2 मणे चेव, भत्तपाणे व संजए ॥ ८९ ॥ उजुप्पन्नो अणुव्विग्गो, अव्वक्खित्तेण चेअसा । आलोए गुरुसगासे, जं जहा गहिअं भवे ॥ ९० ॥न सम्ममालोइअं हुजा, पुञ्चि पच्छा व जं कडं । पुणो पडिक्कमे तस्स, वोसट्टो चिंतए इमं ॥ ९१ ॥ अहो जिणेहिं असावज्जा, वित्ती साहण देसिआ। मुक्खसाहणहे उस्स, साहुदेहस्स धारणा ॥९२॥ णमुक्कारेण पारित्ता, करिता जिणसंथवं । सज्झायं पटुवित्ता णं, वीसमेज खणं मुणी ॥ ९३ ॥ वीसमंतो इमं चिंते, हियम, लाभमस्सिओ। जइ मे अणुग्गहं कुज्जा, साहू हुज्जामि तारिओ ॥९४॥ साहवो तो चिअत्तेणं, निमंतिज जहक्कम । जइ तत्थ केइ इच्छिज्जा, तेहिं सद्धिं तु भुंजए ॥ ९५ ॥ अह कोई न इच्छिज्जा, तओ भुंजिज्ज एक्कओ। आलोए भायणे साहू, जयं अप्परिसाडियं ॥ ९६ ॥ वसतिमधिकृत्य भोजनविधिमाह-'सिआ यत्ति सूत्रं, 'स्यात् कदाचित् तदन्यकारणाभावे सति भिक्षुरिच्छेत् ‘शय्यां वसतिमागम्य परिभोक्तुं, तत्रायं विधिः-सह पिण्डपातेन-विशुद्धसमुदानेनागम्य, वसति दीप अनुक्रम [१६२-१७१] 5 ASSESAKAL ~360~ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||८७-९६|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: S प्रत दशवैका सूत्रांक ||८७ ॥१७९॥ -९६|| दीप अनुक्रम [१६२-१७१] ********* मिति गम्यते, तन्त्र बहिरेवोन्दुकं-स्थानं प्रत्युपेक्ष्य विधिना तत्रस्थः पिण्डपातं विशोधयेदिति सूत्रार्थः॥८॥ ५ पिण्डै तत ऊर्ध्व 'विणएण'त्ति सूत्रं, विशोध्य पिण्डं बहिः 'विनयेन नैषेधिकीनमःक्षमाश्रमणेभ्योऽञ्जलिकरणलक्ष- पणाध्य ठाणेन प्रविश्य, वसतिमिति गम्यते, सकाशे गुरोः मुनिः, गुरुसमीप इत्यर्थः, ईर्यापथिकामादाय' "इच्छामि ||१ उद्देशः |पडिमिउं इरियावहियाए” इत्यादि पठित्वा सूत्र, आगतश्च गुरुसमीपं प्रतिक्रामेत्-कायोत्सर्ग कुर्यादिति सूत्रार्थः ॥ ८८॥ 'आभोइत्ताण'त्ति सूत्रं, तत्र कायोत्सर्गे 'आभोगयित्वा' ज्ञाखा निःशेषमतिचारं 'यथाक्रम परिपाट्या, केत्याह-गमनागमनयोश्चैव' गमने गच्छत आगमन आगच्छतो योऽतिचारः तथा 'भक्तपानयोश्च' भक्त पाने च योऽतिचारः तं 'संयतः साधुः कायोत्सर्गस्थो हृदये स्थापयेदिति सूत्रार्थः ॥ ८९॥ विधिनोत्सारिते चैतस्मिन् 'उज्जुप्पन्न'त्ति सूत्रं, 'ऋजुप्रज्ञः' अकुटिलमतिः सर्वत्र 'अनुद्विनः क्षुवादिजयात्म-| शान्तः अव्याक्षिप्तेन चेतसा, अन्यत्रोपयोगमगच्छतेत्यर्थः, आलोचयेद्गुरुसकाशे, गुरोर्निवेदयेदिति भावः, 'यदू' अशनादि 'यथा' येन प्रकारेण हस्तदा (धाव) नादिना गृहीतं भवेदिति सूत्रार्थः ॥१०॥ तदनु च 'न संमति सूत्रं, न सम्यगालोचितं भवेत् सूक्ष्मम् अज्ञानात्-अनाभोगेनाननुस्मरणाद्वा, पूर्व पश्चाद्वा यत्कृतं, पुरस्कर्म पश्चात्कर्म वेत्यर्थः, 'पुनः' आलोचनोत्तरकालं प्रतिक्रामेत् 'तस्य' सूक्ष्मातिचारस्य 'इच्छामि पडिकमिउं गोअरचरिआए, इत्यादि सूत्रं पठित्वा 'व्युत्सृष्टः' कायोत्सर्गस्थश्चिन्तयेदिद-वक्ष्यमाणलक्षणमिति सूत्रार्थः॥११॥ 'अहो जिणेहिं' सूत्रं, 'अहो' विस्मये 'जिन' तीर्थकरैः 'असावद्या' अपापा 'वृत्तिः' वर्तना साधूनां दर्शिता| ॥ १७९॥ *** ~361~ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||८७-९६|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: * प्रत सूत्रांक E ||८७ -९६|| देशिता या 'मोक्षसाधनहेतोः सम्यगदर्शनज्ञानचारित्रसाधनस्य साधुदेहस्य 'धारणाय' संधारणार्थमिति | सूत्रार्थः॥९२ ॥ ततश्च–णमोकारेण'त्ति सूत्रं, नमस्कारेण पारपित्या 'नमो अरिहंताण'मित्यनेन, कृत्वा| जिनसंस्तवं "लोगस्सुजोअगरे" इत्यादिरूपं, ततो न यदि पूर्व प्रस्थापितस्ततः खाध्यायं प्रस्थाप्य मण्डल्युपजीवकस्तमेव कुर्यात् यावदन्य आगच्छन्ति, य: पुनस्तदन्यः क्षपकादिः सोऽपि प्रस्थाप्य विश्राम्येत् 'क्षणं' स्तोककालं मुनिरिति सूत्रार्थः ॥ ९३ ॥ 'वीसमंत'त्ति सूत्रं, विश्राम्यन्निदं चिन्तयेत् परिणतेन चेतसा,-हित कल्याणप्रापकमर्थ-वक्ष्यमाणं, किंविशिष्टः सन् ?-भावलाभेन-निर्जरादिनाऽर्थोऽस्येति लाभार्थिकः, यदि में मम अनुग्रहं कुर्युः साधवः प्रासुकपिण्डग्रहणेन ततः स्यामहं तारितो भवसमुद्रादिति सूत्रार्थः ॥ ९४ ॥ एवं संचिन्त्योचितवेलायामाचार्यमामब्रयेद्, यदि गृह्णाति शोभनं, नो चेद्वक्तव्योऽसौ भगवन् ! देहि केभ्योऽप्यतो यद्दातव्यं, ततो यदि ददाति सुन्दरम् , अथ भणति त्वमेव प्रयच्छ, अत्रान्तरे-'साहवोत्ति सूत्रं, साधूंस्ततो , गुर्वनुज्ञातः सन् 'चिअत्तेणं'ति मन:प्रणिधानेन निमअयेत् 'यथाक्रम' यथारनाधिकनया, ग्रहणौचित्यापेक्षया बालादिक्रमेणेत्यन्ये, यदि तत्र 'केचन' धर्मवान्धवाः 'इच्छेयुः अभ्युपगच्छेयुस्ततस्तैः सार्धं भुञ्जीत उचितसं-1 विभागदानेनेति सूत्रार्थः ॥९४-९५।। 'अह कोईत्ति सूत्रं, अथ कश्चिन्नेच्छेत् साधुस्ततो भुञ्जीत 'एकको' रागा-11 |दिरहित इति, कथं भुञ्जीतेत्यत्राह-'आलोके भाजने मक्षिकाद्यपोहाय प्रकाशप्रधाने भाजन इत्यर्थः 'साधुः। 18|| प्रवजितः 'यतं' प्रयत्नेन तन्नोपयुक्तः 'अपरिशाट' हस्तमुखाभ्यामनुजझन् इति सूत्रार्थः ॥ ९ ॥ % AE-%CE दीप अनुक्रम [१६२-१७१] % % A टा ~362~ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||९७ -१००|| दीप अनुक्रम [१७२ -१७५] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [५], उद्देशक [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित दशवेका० हारि-वृत्तिः ।। १८० ।। मूलं [ १५...] / गाथा ||९७-१०० || निर्युक्तिः [ २४४...] भाष्यं [ ६२...] आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः तित्तगं व कडुअं व कसायं, अंबिलं व महुरं लवणं वा । एअलद्धमन्नत्थ पउत्तं, महुघयं व भुंजिज संजए ॥ ९७ ॥ अरसं विरसं वावि, सूइअं वा असूइअं । उलं वा जड़वा सुकं, मधुकुम्मासभोअणं ॥ ९८ ॥ उप्पवणं नाइहीलिजा, अप्पं वा बहु फासु। मुहालद्धं मुहाजीवी, भुंजिज्जा दोसवज्जिअं ॥ ९९ ॥ दुलहा उ मुहादाई, मुहाजीवि दुहा। मुहादाई मुहाजीवी, दोऽवि गच्छति सुग्गई ॥ १०० ॥ ति बेमि । पिंडेसणाए पढमो उद्देसो समत्तो ॥ १ ॥ भोज्यमधिकृत्य विशेषमाह - तित्तगं वत्ति सूत्रं, तिक्तकं वा एलुकवालुङ्कादि, कटुकं वा आर्द्रकतीमनादि, कषायं बल्लादि, अम्लं तक्रारनालादि, मधुरं क्षीरमध्वादि, लवणं वा प्रकृतिक्षारं तथाविवं शाकादि लवणोत्कटं वाऽन्यत्, एतत्सिक्तादि 'लब्धम्' आगमोक्तेन विधिना प्राप्तम् 'अन्यार्थम्' अक्षोपाङ्गन्यायेन परमार्थतो मोक्षार्थं प्रयुक्तं तत्साधकमितिकृत्वा मधुघृतमिव च भुञ्जीत संयतः, न वर्णाद्यर्थम्, अथवा मधुष्टतमिव 'णो वामाओ हणुआओ दाहिणं हणुअं संचारेज'ति सूत्रार्थः ॥ ९७ ॥ किंच- 'अरसंति सूत्रं, अर१ द्रवत्वात् यथाशीघ्र जेगल्यते तथा. २ न वामादनुनी दक्षिणं नु संवारयेत् भोज्यं अधिकृत्य विशेष उपदेश: Forte & Personal Use City ~363~ ५ पिण्डैपणाध्य० १ उद्देशः ॥ १८० ॥ brary dig Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||९७ -१००|| दीप अनुक्रम [१७२ -१७५] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [५], उद्देशक [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित दश० ३१ Jair Education मूलं [ १५...] / गाथा ||९७ - १०० || निर्युक्तिः [२४४...], भाष्यं [६२...] आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः सम्-असंप्राप्तरसं हिङ्ग्वादिभिरसंस्कृतमित्यर्थः, 'विरसं वापि' विगतरसमतिपुराणौदनादि 'सूचितं' व्यञ्जनादियुक्तम् 'असूचितं वा' तद्रहितं वा, कथयित्वा अकथयित्वा वा दत्तमित्यन्ये, 'आई' प्रचुरव्यञ्जनम्, यदिचा शुष्कं स्तोकव्यञ्जनं वा, किं तदित्याह- 'मन्धुकुल्माष भोजनं' मन्धु-बदरचूर्णादि कुल्माषाः- सिभाषाः, यवमाषा इत्यन्ये इति सूत्रार्थः ॥ ९८ ॥ एतद्भोजनं किमित्याह- 'उप्पण्णं'ति सूत्रं, 'उत्पन्न' विधिना प्राप्तं 'नातिहीलयेत्' सर्वथा न निन्देत्, अल्पमेतन्न देहपूरकमिति किमनेन ?, बहु वा असारप्रायमिति, वाशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः, किंविशिष्टं तदित्याह - 'प्रासुकं' प्रगतासु निर्जीवमित्यर्थः अन्ये तु व्याचक्षते -अल्पं वा, वाशब्दाद्विरसादि वा बहुप्रासु सर्वथा शुद्धं नातिही लपेदिति, अपि त्वेवं भावयेत्-पदेवेह लोका ममानुपकारिणः प्रयच्छन्ति तदेव शोभनमिति । एवं 'मुधालधं' कोण्डलादिव्यतिरेकेण प्राप्तं 'मुधाजीवी' सर्वथा अनिदानजीवी, जात्यायनाजीवक इत्यन्ये, भुञ्जीत 'दोषवर्जितं' संयोजनादिरहितमिति सूत्रार्थः ॥ ९९ ॥ एतद्दुरापमिति दर्शयति- 'दुल्लह'त्ति, दुर्लभा एवं मुधादातारः, तथाविधभागवतवत्, मुधाजीविनोऽपि दुर्लभाः, तथाविधचेल्लकवत् । अमीषां फलमाह-मुधादातारो मुधाजीविनश्च द्वावप्येती गच्छतः 'सुगतिं' सिद्धिगतिं कदाचिदनन्तरमेव कदाचिद्देवलोकमानुपप्रत्यागमनपरम्परया । ब्रवीमीति पूर्ववत् । अत्र भागवतोदाहरणम्-जहां एगो परिव्वायगो सो एगं भागवयं उबडिओ, अहं तव गिहे १ यथैकः परिब्राजकः स एक भागवतमुपस्थितः अहं तव गृहे For ane & Personal Use Oily ~364~ brary dig Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||९७-१००|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||९७-१००|| दीप दशवैका बरिसार करेमि, मम उदंतं वहाहि, तेण भणिओ-जइ मम उदंतं न वहसि, एवं हवउ त्ति।सो से भागवओ ५पिण्डेहारि-वृत्तिः सेजभत्तपाणादिणा उदंतं वहति । अन्नया य तस्स घोडओ चोरोहिं हिओ, अतिप्पभायंतिकाऊण जालीए पणाध्य. Vबद्धो, सो अ परिब्बायगो तलाए पहायओ गओ, तेण सो घोडओ दिहो, आगंतुं भणइ-मम पाणीयतडे 18|१ उद्देशः पोती चिस्सरिया, गोहो विसजिओ, तेण घोडओ दिट्ठो, आगंतं कहियं, तेण भागवएण णायं. जहा-परि-12 व्वायगेण कहियं । तेण परिव्वायगो भण्णति-जाहि, णाहं तव णिब्बिर्ट उदंतं वहामि, णिग्विद अप्पफलं भवति । एरिसो मुधादाई ।। मुधाजीविमि उदाहरणं-एको राया धम्म परिक्खई, को धम्मो ?, जो अणिव्विर्ट हाभुंजइ ति, तोतं परिक्खामित्ति काऊण मणुस्सा संदिट्ठा, राया मोदए देह, तस्थ बहवे कप्पडियादयो| आगया, पुच्छिशति-तुम्हे केण भुंजह ?, अन्नो भणइ-अहं मुहेण भुंजामि, अन्नो-अहं पाएहिं, अन्नो-अहं हत्थेहि, अन्नो-अहं लोगाणुग्गहेण, चेल्लगो भणइ-अहं मुहियाए । रण्णा पुच्छिअं-कहं चि, एगेण वर्षारानं करोमि ममोदन्तं यह, तेन भपितः यदि ममोदन्तं न वह सि, एवं भवरिवति, सभागवतस्तस्मै शय्याभकपानादिनोदन्तं वहति । अन्यदा च तख पोटकबार हतः, अतिप्रभातमितिकृत्वा जाल्या बद्धः, सच परिव्राजकस्तटाके नातं गतः, तेन स घोटको स्टः, भागल भणति-मम पोतिका पानीयतटे विस्मृता, कर्मकरो बिसष्टः, तेन घोटको दृधः, भागय कवितं । टेन भागवतेन ज्ञातं, यथा-परिमाजकेन कथितं । तेन परिवाजको भण्यते-याहि, नाई तव ₹ निविट (ससेव) उदन्तं बहामि, निश्मिल्पफलं भवति । ईदृशो मुधादायी। मुभाजीविन्युदाहरणम्-एको राजा धर्म परीक्षते, को राजा धर्मपरीक्षते.को धर्मः, योऽनिर्विष्टं मुझे इति, ततखत परीक्षे इति कृत्वा मनुष्याः संदिशः, राजा मोदकान् ददाति, तत्र महतः काठिकादब आगताः, पृच्छयन्ते-यूर्य केन भुवम् !, अन्यो भणति--अहं* मुखेन भुजे, अन्यः-अहं पादाभ्याम् , अन्यः-अहं हस्ताभ्याम्, अन्यः-अई लोकानुग्रहेण, शुरुको भणति-अई मुधिकया । राज्ञा पृष्-कथमेव है, एकेन अनुक्रम [१७२-१७५] H ॥१८१ ~365~ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [9], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||९७-१००|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||९७-१००|| कहिअं-अहं कहगो अओ मुहेण, अण्णेण भणिअं-अहं लेहवाहगो अओ पाएहिं, अण्णेण भणिअं-अहं लेहगो । अओ हत्थेहि, भिक्खुणा भणि-अहं पब्बइओ अओ लोगाणुग्गहेण, चेल्लएण भणि-अहं संजायसंसारविरागो अओ मुहियाए, ताहे सो राया एस धम्मोत्तिकाऊण आयरियसमीवं गओ, पडिबुद्धो पब्व-18 इओ य । एसो मुहाजीवित्ति सूत्रार्थः ॥१०॥ इति श्रीहरिभद्सरिविरचितायां दशवकालिकवृत्तौ पिण्डैषणाध्ययनस्य प्रथमोदेशकः॥१॥ दीप अनुक्रम [१७२-१७५] पडिग्गहं संलिहिता णं, लेवमायाए संजए । दुगंधं वा सुगंधं वा, सव्वं भुंजे न छड्डुए ॥१॥ पिण्डैषणायाः प्रथमोदशके प्रक्रान्तोपयोगि यन्नोक्तं तदाह-पडिग्गह'ति सूत्रं, 'प्रतिग्रह भाजनं 'संलिख्य' प्रदेशिन्या निरवयवं कृत्वा, कथमित्याह-लेपमर्यादया' अलेपं संलिहा 'संयतः' साधुः दुर्गन्धि वा १ कथितम्-अहं कथकः अतो मुखेन, अन्येन भगितम्-नई लेख्वाहकः अतः पादाभ्यां, अन्येन भणितम्-अहं लेखकोऽतो हस्ताभ्याम् , अन्येन भणितम्-नई भिक्षुरतो लोकानुग्रहेग, शुक्रकेन भनितम्-अहं संजातसंसारवैराम्योऽतो मुधिकया । तदा स राजा एष धर्म इतिकरवाचार्यसमीपं गतः, प्रतिबुद्धः प्रवजितच, एष मुघाजीवीति. अत्र पञ्चम-अध्ययने प्रथम-उद्देशकः समाप्त: एवं वितिय उद्देशक: आरम्भ: ~366~ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [9], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत दशवैका हारि-वृत्तिः २ उद्देश: सत्राक ॥१८२॥ ॥१॥ C सुगन्धि वा भोजनजातं, गन्धग्रहणं रसागुपलक्षणं, 'सबै निरवशेषं 'भुञ्जीत' अश्नीयात् 'नोजोत्५ पिण्डैनोत्सृजेत् किश्चिदपि, मा भूसंयमविराधना । अस्यैवार्थस्य गरीयस्वख्यापनाय सूत्रार्घयोर्व्यत्ययोपन्यास, पणाध्य. प्रतिग्रहशग्दो माङ्गलिक इत्युदेशादी तदुपन्यासार्थ वा, अन्यथैवं स्यात्-दुर्गन्धि वा सुगन्धि वा, सर्वका भुञ्जीत नोझेत् । प्रतिग्रहं संलिह्य लेपमर्यादया संयतः । विचित्रा च सूत्रगतिरिति सूत्रार्थः ॥१॥ सेजा निसीहियाए, समावन्नो अ गोअरे । अयावयट्टा भुच्चा णं, जइ तेणं न संथरे ॥२॥ तओ कारणमुप्पण्णे, भत्तपाणं गवेसए । विहिणा पुव्वउत्तेणं, इमेणं उत्तरेण य ॥३॥ विधिविशेषमाह-'सेज्ज'त्ति सूत्रं, 'शय्यायां वसती 'नषेधिक्यां' खाध्यायभूमी, शय्यैव वाऽसमञ्जसनिषेधानषेधिकी तस्यां समापनो चा गोचरे, क्षपकादिः छन्नमठादौ अयावद भुक्त्वा न यावदर्थम्-|| अपरिसमाप्तमित्यर्थः, णमिति वाक्यालङ्कारे । यदि तेन भुक्तेन 'न संस्तरेत्न यापयितुं समर्थः, क्षपको विषमवेलापत्तनस्थो ग्लानो वेति सूत्रार्थः ॥२॥'तओ'त्ति सूत्र, ततः 'कारणे' वेदनादावुत्पन्ने पुष्टालम्बनः सन् भक्तपानं 'गवेषपेत्' अन्विष्ये(न्वेषये)त्, अन्यथा सकृद्रुक्तमेव यतीनामिति 'विधिना' पूर्वोक्तन संप्राप्त |भिक्षाकाल इत्यादिना, अनेन च वक्ष्यमाणलक्षणेनोत्तरेण चेति सूत्रार्थः ॥३॥ ॥१८२॥ कालेण निक्खमे भिक्खू , कालेण य पडिक्कमे । अकालं च विवजित्ता, काले कालं स दीप अनुक्रम [१७६] R- शय्या, नैषेधिक्या आदि संबंधी विशेष विधि: प्रदर्श्यते ~367~ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||४-१३|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||४-१३|| दीप अनुक्रम [१७९-१८८] मायरे ॥ ४॥ अकाले चरसी भिक्खू , कालं न पडिलेहसि । अप्पाणं च किलामेसि, सं. निवेसं च गरिहसि ॥५॥ सइ काले चरे भिक्खू , कुज्जा पुरिसकारिअं। अलाभुत्ति न सोइजा, तवृत्ति अहिआसए ॥ ६॥ तहेवुच्चावया पाणा, भत्तट्टाए समागया । तं उजुअं न गच्छिज्जा, जयमेव परकमे ॥ ७ ॥ गोअरग्गपविट्ठो अ, न निसीइज कस्थई । कहं च न पबंधिज्जा, चिट्टित्ता ण व संजए ॥ ८ ॥ अग्गलं फलिहं दारं, कवाडं वावि संजए । अवलंबिआ न चिट्ठिज्जा, गोअरग्गगओ मुणी ॥९॥ समणं माहणं वावि, किविणं वा वणीमगं । उवसंकमंतं भत्तट्ठा, पाणटाए व संजए ॥१०॥ तमइकमित्तु न पविसे, नवि चिट्टे चक्खुगोअरे । एर्गतमवक्कमित्ता, तत्थ चिट्रिज संजय ॥ ११॥ वणीमगस्स वा तस्स, दायगस्सुभयस्स वा। अप्पत्तिअं सिआ हुजा, लहुत्तं पवयणस्स वा ॥ १२॥ पडिसेहिए व दिन्ने वा, तओ तम्मि नियत्तिए । उवसंकमिज भत्तहा, पाणट्ठाए व संजए ॥ १३॥ JanElicitatli ~368~ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [9], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||४-१३|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||४-१३|| पिण्डेपणाध्य २ उद्देशः दीप अनुक्रम [१७९-१८८] दशका. 'कालेणं ति सूत्रं, यो यस्मिन् ग्रामादावुचितो भिक्षाकालस्तेन करणभूतेन 'निष्कामेद'भिक्षुर्वसतेभिक्षाय, हारि-वृत्तिः काकालेन चोचितेनैव यावता स्वाध्यायादि निष्पद्यते तावता प्रतिक्रामेत्' निवर्तेत । भर्णिअंच-स्वेतं कालो भायणं तिन्निवि पहुप्पंति हिंडउत्ति अट्ट भंगा। अकालं च वर्जयित्वा' येन स्वाध्यायादि न संभाव्यते स ॥ १८ ॥ खल्वकालस्तमपास्य काले कालं समाचरेदिति सर्वयोगोपसंग्रहार्थ निगमनं, भिक्षावेलायां भिक्षा समाचरेत् , खाध्यायादिवेलायां खाध्यायादीनीति, उक्तं च-जोगो जोगो जिणसासणंमी'त्यादि, इति सूत्रार्थः ॥४॥ अकालचरणे दोषमाह-'अकाले त्ति सूत्रं, अकालचारी कश्चित् साधुरलब्धभैक्षः केनचित् साधुना प्राप्ता भिक्षा नवेत्यभिहितः सन्नेचं ब्रूयात्-कुतोऽत्र स्थण्डिलसंनिवेशे भिक्षा?, स तेनोच्यते-अकाले चरसि भिक्षो ! प्रमासादात्वाध्यायलोभादा, कालं न प्रत्युपेक्षसे, किमयं भिक्षाकालो नवेति, अकालचरणेनात्मानं च ग्लपयसि दीदीर्घाटनन्यूनोदरभावेन, संनिवेशं च गर्हसि भगवदाज्ञालोपतो दैन्यं प्रतिपद्येति सूत्रार्थः॥५॥ यस्मादयं दोषः संभाव्यते तस्मादकालाटनं न कुर्यादिति । 'सति'त्ति सूत्रं, 'सति' विद्यमाने 'काले भिक्षासमये चरेद्भिक्षुः, अन्ये तु व्याचक्षते-स्मृतिकाल एव भिक्षाकालोऽभिधीयते, स्मर्यन्ते यत्र भिक्षाकाः स स्मृतिकालस्तमिन, 'चरेद्भिक्षुः' भिक्षार्थ यायात्, कुर्यात् पुरुषकारं, जावले सति वीर्याचारं न लइयेत्। तत्र चालाभेऽपि भिक्षाया |अलाभ इति न शोचयेद्, वीर्याचाराराधनस्य निष्पन्नत्वात् , तदर्थं च भिक्षाटनं नाहारार्थमेवातो न शोचेत्, १ भणितं च-क्षेत्र कालो भाजन श्रीव्यषि प्रभवन्ति हिण्डमानस्पेसटी भनाः २ योगो योगो जिनशासने. ॥१८३ ~369~ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ॥४-१३|| दीप अनुक्रम [१७९ -१८८] Jan Education “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित मूलं [ १५...] / गाथा ||४- १३ || निर्युक्तिः [ २४४...], भाष्यं [ ६२...] आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः अपितु तप इत्यधिसहेत, अनशनन्यूनोदरतालक्षणं तपो भविष्यतीति सम्यग्विचिन्तयेदिति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ उक्ता कालयतना, अधुना क्षेत्रयतनामाह- 'तहेब'त्ति, तथैव 'उच्चावचाः' शोभनाशोभनभेदेन नानाप्रकाराः प्राणिनो भक्तार्थ समागता बलिप्राभृतिकादिष्वागता भवन्ति, 'तदृजुक' तेषामभिमुखं न गच्छेत्, तत्संत्रासनेनान्तरायाधिकरणादिदोषात्, किंतु यतमेव पराक्रामेत्, तदुद्वेगमनुत्पादयन्निति सूत्रार्थः ॥ ७॥ किं च 'गोअरग्गत्ति सूत्र, गोचराग्रप्रविष्टस्तु भिक्षार्थी प्रविष्ट इत्यर्थः 'न निषीदेत्' नोपविशेत् 'कचिद्' गृहदेवकुलादौ, संयमोपघातादिप्रसङ्गात्, 'कथां च' धर्मकथादिरूपां 'न प्रबभीयात्' प्रबन्धेन न कुर्यात्, अनेनैकव्याकरणैकज्ञातानुज्ञामाह, अत एवाह-स्थित्वा कालपरिग्रहेण संयत इति, अनेषणाद्वेषादिदोषप्रसंगादिति सूत्रार्थः ॥ ८ ॥ उक्ता क्षेत्रयतना, द्रव्ययतनामाह — 'अग्गलं'ति सूत्रं, 'अर्गल' गोपुरकपाटादिसंबन्धिनं 'परिघं नगरद्वारादिसंबन्धिनं 'द्वारं' शाखामयं 'कपाटं' द्वारयत्रं वाऽपि संयतः अवलम्ब्य न तिष्ठेत्, लाघवविराधनादोषात्, 'गोचराग्रगतो' भिक्षाप्रविष्टः, मुनिः संयत इति पर्यायौ तदुपदेशाधिकाराददुष्टावेवेति सूत्रार्थः ॥ ९ ॥ उक्ता द्रव्ययतना, भावयतनामाह - 'समणं'ति सूत्रं, 'श्रमणं' निर्ग्रन्थादिरूपं, 'ब्राह्मणं' धिग्वर्ण वापि 'कृपणं वा' पिण्डोलकं 'वनीपक' पञ्चानां वनीपका) नामप्यन्यतमम् 'उपसंक्रामन्तः सामीप्येन गच्छन्तं गतं वा भ कार्य पानार्थ वा 'संयतः साधुरिति सूत्रार्थः ॥ १० ॥ 'त'मिति सूत्रं 'त' श्रमणादिम् 'अतिक्रम्य' उल्लय न प्रविशेत्, दीयमाने च समुद्राने तेभ्यो न तिष्ठेच्चक्षुगोचरे । कस्तत्र विधिरित्याह-एकान्तमवक्रम्य तत्र ति Forane & Personal Use City ~ 370~ brary dig Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ॥४-१३|| दीप अनुक्रम [१७९ -१८८] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [ १५...] / गाथा ||४- १३ || निर्युक्तिः [ २४४...], भाष्यं [ ६२...] आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित दशवेका० हारि-वृत्तिः ॥ १८४ ॥ ष्ठेत् संयत इति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥ अन्ययैते दोषा इत्याह-'वणीमगस्स'त्ति सूत्रं, 'वनीपकस्य वा तस्येत्येतच्छ्रमणाग्रुपलक्षणं, दातुर्वा उभयोर्वा अप्रीतिः कदाचित् स्यात् अहो अलोकज्ञतैतेषामिति, लघुत्वं प्रवचनस्य वाऽन्तरायदोषश्चेति सूत्रार्थः ॥ १२ ॥ तस्मान्नैवं कुर्यात्, किंतु- 'पडिसेहिअ'त्ति सूत्रं, प्रतिषिद्धे वा दत्ते वा 'ततः' स्थानात् 'तस्मिन्' वनीपकादौ निवर्त्तिते सति उपसंक्रामेद्भक्तार्थं पानार्थं वापि संयत इति सूत्रार्थः॥ १३ ॥ उप्पलं परमं वावि, कुमुअं वा मगदंतिअं । अन्नं वा पुष्फसच्चित्तं तं च संलुंचिआ द ॥ १४ ॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं । दिंतिअं पडिआइक्खे, न मे कपड़ तारिसं ॥ १५ ॥ उप्पलं पउमं वावि, कुमुअं वा मगदंतिअं । अन्नं वा पुप्फसच्चित्तं तं च संमद्दिआ दए ॥ १६ ॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकपिअं । दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ १७ ॥ सालुअं वा विरालिअं, कुमुअं उप्पलनालिअं । मुणालिअं सासवनालिअं, उच्छुखंड अनिव्वुडं ॥ १८ ॥ तरुगं वा पवालं, रुक्खस्स तणगस्स वा । अन्नस्स वावि हरिअस्स, आमगं परिवजए ॥ १९ ॥ तरुणिअं वा छिवाडिं, आमिअं भजिअं सई । दिंतिअं पडिआइक्खे, For re&Personal Use Oily ~371~ ५ पिण्डैषणाध्य० २ उद्देशः ॥ १८४ ॥ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||१४ -२४|| दीप अनुक्रम [१८९ -१९९] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा || १४-२४ || निर्युक्तिः [ २४४...], भाष्यं [६२...] आगमसूत्र - [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित न मे कप्पड़ तारिसं ॥ २० ॥ तहा कोलमणुस्सिन्नं, वेलुअं कासवनालिअं । तिलपप्पडगं नीमं, आमगं परिवज्जए ॥ २१ ॥ तहेव चाउलं पिट्ठ, विअर्ड वा तत्तऽनिव्वुडं । तिलपिट्टपूइपिन्नागं, आमगं परिवजए ॥ २२ ॥ कविट्ठे माउलिंगं च, मूलगं मूलगत्तिअं । आमं असत्थपरिणयं, मणसावि न पत्थए ॥ २३ ॥ तहेव फलमंधूणि, बीअमंथूणि जाणिआ । बिहेलगं पियालं च, आमगं परिवज्जए ॥ २४ ॥ परपीडाप्रतिषेधाधिकारादिदमाह - 'उप्पल'ति सूत्रं, 'उत्पलं' नीलोत्पलादि 'पद्मम्' अरविन्दं वापि 'कुमुदं वा' गर्दभकं वा 'मगदन्तिका' मेत्तिकां, मल्लिकामित्यन्ये, तथाऽन्यद्वा पुष्पं सचित्तं - शाल्मलीपुप्यादि, तच 'संजय' अपनीय छित्त्वा दद्यादिति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ 'तारिसं'ति सूत्रं तादृशं भक्तपानं तु संयतानामकल्पिकं, यतश्चैवमतो ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ एवं तच संमृद्य दद्यात्, संमर्दनं नाम पूर्वच्छिन्नानामेवापरिणतानां मर्दनं, शेषं सूत्रद्वयेऽपि तुल्यम् । आह एतत्पूर्वमप्युक्तमेव - 'संमदमाणी पाणाणि वीआणि हरिआणि अ' इत्यत्र, उच्यते, उकं सामान्येन विशेषाभिधा| नाददोषः ।। १६-१७ ॥ तथा 'सालुअं'ति सूत्रं, 'शालूकं वा' उत्पलकन्दं 'विरालिकां' पलाशकन्दरूपां पर्वव For ane & Personal Use Oily ~372~ beary dig Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||१४ -२४|| दीप अनुक्रम [१८९ -१९९] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा || १४-२४ || निर्युक्तिः [ २४४...], भाष्यं [६२...] आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित दशवैका० हारि-वृत्तिः ।। १८५ ।। Jam Education ५ पिण्डै पणाध्य० ल्लिप्रतिपर्ववल्लिप्रतिपर्वकन्दमित्यन्ये, कुमुदोत्पलनाला प्रतीतौ तथा 'मृणालिकां' पद्मिनीकन्दोत्थां 'सर्षपनालिकां' सिद्धार्थकमञ्जरीं तथा इक्षुखण्डम् 'अनिर्वृतं' सचित्तम् । एतचानिर्वृतग्रहणं सर्वत्राभिसंबध्यत इति | सूत्रार्थः ॥ १८ ॥ किंच- 'तरुणयं'ति सूत्रं, तरुणं वा 'प्रवाल' पल्लवं 'वृक्षस्य' चिञ्चिणिकादेः 'तृणस्य वा' म- २ उद्देशः धुरतृणादेः अन्यस्य वापि हरितस्य आर्यकादेः 'आमम्' अपरिणतं परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ १९ ॥ तथा'तरुणिअं'ति सूत्रं, 'तरुणां वां' असंजातां 'छिवाडि' मिति मुङ्गादिफलम् 'आमाम् असिद्धां सचेतनां, तथा भर्जितां 'सकृद्' एकवारं ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशं भोजनमिति सूत्रार्थः ॥ २० ॥ 'तहा कोलं'ति सूत्रं, तथा 'कोलं' बदरम् 'अखिन्नं' बयुद्धकयोगेनानापादितविकारान्तरं, 'वेणुक' वंशकरिल्लं 'कासवनालिअं श्रीपर्णीफलम् अस्विन्नमिति सर्वत्र योज्यं, तथा 'तिलपर्पट' पिष्टतिलमयम् 'नीम' नीमफलमामं परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ २१ ॥ 'तहेब'त्ति सूत्रं, तथैव तान्दुलं पिष्टं, लोहमित्यर्थः, विकटं वा शुद्धोदकं तथा तप्तनिर्वृतं कथितं सत् शीतीभूतम्, तप्तानिर्वृतं वा अप्रवृत्तत्रिदण्डं, तिलपिष्टं-तिललोहं, 'पूतिपिण्याकं' सर्षपखलमामं परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ २२ ॥ 'कवि'ति सूत्रं, 'कपित्थं' कपित्थफलं, 'मातुलिङ्गं च' बीजपूरकं, 'मूलकं' सपत्रजालकं 'मूलवर्त्तिकां' मूलकन्दचक्कलिम् 'आमाम्' अपकामशस्त्रपरिणतां स्वकायशस्त्रा- १ ॥ १८५ ॥ दिनाऽविध्वस्ताम्, अनन्तकायत्वाद्गुरुत्वख्यापनार्थमुभयं मनसापि न प्रार्थयेदिति सूत्रार्थः ॥ २३ ॥ 'तहेब' ति For P&Personal Use City ~373~ by dig Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [9], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||२५-२८|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२५-२८|| सूत्रं, तथैव 'फलमन्थून्' बदरचूर्णान् 'बीजमन्यून' यवादिचूर्णान् ज्ञात्वा प्रवचनतो विभीतक' विभीतकफल। ठा'प्रियालं वा' प्रियालफलं च 'आमम्' अपरिणतं परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ २४ ॥ समुआणं चरे भिक्खू , कुलमुच्चावयं सया। नीयं कुलमइक्कम्म, ऊसढं नाभिधारए ॥२५॥ अदीणो वित्तिमेसिज्जा, न विसीइज पंडिए । अमुच्छिओ भोअणमि, मायपणे एसणारए ॥ २६ ॥ बहुं परघरे अत्थि, विविहं खाइमसाइमं । न तत्थ पंडिओ कुप्पे, इच्छा दिज परो न वा ॥ २७ ॥ सयणासणवत्थं वा, भत्तं पाणं व संजए । अदितस्स न कुप्पिज्जा, पञ्चक्खेवि अ दीसओ ॥ २८॥ | विधिमाह-समुआण'ति सूत्र, समुदानं भावभक्ष्यमाश्रित्य चरेद्रिक्षुः, केत्याह-कुलमुचावचं सदा, अगर्हितत्वे सति विभवापेक्षया प्रधानमप्रधानं च, यथापरिपाट्येव चरेत् 'सदा' सर्वकालं, नीचं कुलमतिक्रम्य विभवापेक्षया प्रभूततरलाभार्थम् 'उत्सृतम्' ऋद्धिमत्कुलं 'नाभिधारयेत्' न यायात, अभिष्वङ्गलोकलाघवादिप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥२५॥ किंच-अदीण'त्ति सूत्र, 'अदीनों' द्रव्यदैन्यमङ्गीकृत्याम्लानवदनः 'वृत्ति' वर्सनम् 'एषयेद्' गवेषयेत्, 'न विषीदेदू' अलाभे सति विषादं न कुर्यात् 'पण्डितः साधुः 'अमूञ्छितः' दीप अनुक्रम [२००-२०३] 16 ~374~ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||२५ -२८|| दीप अनुक्रम [२०० -२०३] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||२५-२८ || निर्युक्तिः [ २४४...], भाष्यं [६२...] आगमसूत्र [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ १८६ ॥ Ja Education अगृडो भोजने, लाने सति मात्राज्ञ आहारमात्रां प्रति 'एषणारतः' उद्गमोत्पादनेषणापक्षपातीति सूत्रार्थः ॥ २६ ॥ एवं च भावयेत् -'बहुं'ति सूत्रं, 'बहु' प्रमाणतः प्रभूतं 'परगृहे' असंयतादिगृहेऽस्ति 'विविधम् अनेकप्रकारं खायं खायम्, एतचाशनाद्युपलक्षणं, 'न तत्र पण्डितः कुप्येत्' सदपि न ददातीति न रोषं कु र्यात्, किंतु- इच्छया दद्यात् परो न वेति इच्छा परस्य, न तन्त्रान्यत् किञ्चिदपि चिन्तयेद्, सामायिकबाधनादिति सूत्रार्थः ॥ २७ ॥ एतदेव विशेषेणाह - 'सयण' ति सूत्रं शयनासनवस्त्रं चेत्येकवद्भावः भक्तं पानं वा संयतोऽददतो न कुप्येत् तत्स्वामिनः, प्रत्यक्षेऽपि च दृश्यमाने शयनासनादाविति सूत्रार्थः ॥ २८ ॥ इत्थ पुरिसं वावि, डहरं वा महल्लगं । वंदमाणं न जाइज्जा, नो अ णं फरुसं वए ॥ २९ ॥ जे न वंदे न से कुप्पे, वंदिओ न समुकसे । एवमन्नेसमाणस्त, सामपणमचिट्ठा ॥ ३० ॥ 'इत्थि ति सूत्रं, स्त्रियं वा पुरुषं वापि, अपिशब्दात्तथाविधं नपुंसकं वा, 'डहरं' तरुणं 'महलकं वा वृद्धं वा, वाशब्दान्मध्यमं वा, वन्दमानं सन्तं भद्रकोऽयमिति न याचेत, विपरिणामदोषात्, अन्नाद्यभावेन याचितादाने न चैनं परुषं ब्रूयात् वृथा ते वन्दनमित्यादि, पाठान्तरं वा वन्दमानो न याचेत लल्लिव्याकरणेन । शेषं पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥ २९ ॥ तथा- 'जेण वंदि'त्ति सूत्रं यो न वन्दते कचिद्गृहस्थादिः न तस्मै For ane & Personal Use City ~ 375~ ५ पिण्डैपणाध्य० २ उद्देशः ॥ १८६ ॥ brary dig Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [9], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||२९-३०|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२९ -३०|| दीप अनुक्रम [२०४-२०५] कुप्येत् तथा वन्दितः केनचिन्नृपादिना न समुत्कर्षेत् । 'एवम् उक्तेन प्रकारेण 'अन्वेषमाणस्य भगवदा-11 ज्ञामनुपालयतः श्रामण्यमनुतिष्ठत्यखण्डमिति सूत्रार्थः ॥ ३०॥ सिआ एगइओ लहूं, लोभेण विणिगूहइ । मामेयं दाइयं संतं, दणं सयमायए ॥३१॥ अत्तट्ठा गुरुओ लुतो, बहुं पावं पकुव्वइ । दुत्तोसओ अ सो होइ, निव्वाणं च न गच्छइ ॥ ३२ ॥ सिआ एगइओ लड़े, विविहं पाणभोअणं । भद्दगं भद्दगं भुच्चा, विवन्नं विरसमाहरे ॥ ३३ ॥ जाणंतु ता इमे समणा, आययट्ठी अयं मुणी । संतुट्टो सेवए पंतं, लूहवित्ती सुतोसओ ॥ ३४ ॥ पूअणट्ठा जसोकामी, माणसम्माण कामए । बहुं पसवई पावं, मायासल्लं च कुव्वइ ॥३५॥ स्वपक्षस्तेयप्रतिषेधमाह-' सित्ति सूत्र, 'स्यात्' कदाचिद् 'एक' कश्चिदत्यन्तजघन्यो लब्ध्वोत्कृष्टमाहारं 'लोभेन' अभिष्वङ्गेण 'विनिगहते' अहमेव भोक्ष्य इत्यन्तप्रान्तादिनाऽऽच्छादयति-किमित्यत आह-मा| मम 'इदं भोजनजातं दर्शितं सदृष्ट्वाऽऽचार्यादिः "स्वयमादद्यादू' आत्मनैव गृह्णीयादिति सूत्रार्थः ॥३१॥ अस्य दोषमाह-'अत्तत्ति सूत्रं, आत्मार्थ एव जघन्यो-गुरुः पापप्रधानो यस्य स आत्मार्थगुरुलुब्धः दश०३२ ~376~ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||३१ -३५|| दीप अनुक्रम [२०६ -२१०] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||३१-३५ || निर्युक्तिः [ २४४...], भाष्यं [६२...] आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ १८७ ॥ | सन् क्षुद्रभोजने 'बहु' प्रभूतं पापं करोति, मायया दारिद्रं कर्मेत्यर्थः अयं परलोकदोषः, इहलोकदोषमाह'दुस्तोषश्च भवति' येन केनचिदाहारेणास्य क्षुद्रसत्त्वस्य तुष्टिः कर्तुं न शक्यते, अत एव 'निर्वाणं च न गच्छति इहलोक एव धृतिं न लभते, अनन्तसंसारिकत्वाद्वा मोक्षं न गच्छतीति सूत्रार्थः ॥ ३२ ॥ एवं यः प्रत्यक्षमपहरति स उक्तः, अधुना यः परोक्षमपहरति स उच्यते- 'सिअत्ति सूत्रं, स्यादेको लब्ध्वेति पूर्ववत्, 'विविधम्' अनेकप्रकारं पानभोजनं भिक्षाचर्यागत एव 'भद्रकं भद्रकं' घृतपूर्णादि भुक्त्वा 'विवर्ण' विगतवर्णमाम्लखलादि 'विरसं' विगतरसं शीतोदनादि 'आहरेद्' आनयेदिति सूत्रार्थः ॥ ३३ ॥ स किमर्थमेवं कुर्यादित्यत आह- 'जाणंतु 'त्ति सूत्रं, जानन्तु तावन्मां 'श्रमणाः' शेषसाधवो यथा 'आयतार्थी' मोक्षार्थी अयं 'मुनिः' साधुः 'संतुष्टो' लाभालाभयोः समः सेवते 'प्रान्तम्' असारं 'रूक्षवृत्तिः' संयमवृत्तिः' 'सुतोष्यः' येन केनचित्सोषं नीयत इति सूत्रार्थः ॥ ३४ ॥ एतदपि किमर्थमेवं कुर्यात्तत्राह - 'पूअण त्ति सूत्रं, 'पूजार्थम्' एवं कुर्वतः खपक्षपरपक्षाभ्यां सामान्येन पूजा भविष्यतीति 'यशस्कामी' अहो अयमिति प्रवादार्थं वा, तथा मानसन्मानकाम एवं कुर्यात्, तत्र वन्दनाभ्युत्थानलाभनिमित्तो मानः- वस्त्रपात्रादिलाभनिमित्तः सन्मानः स चैवंभूतः 'बहु' अतिप्रचुरं प्रधानसंक्लेशयोगात् 'प्रसूते' निर्वर्त्तयति पापं तद्गुरुत्वादेव सम्यगनालोचयन् 'मायाशल्यं च' भावशल्यं च करोतीति सूत्रार्थः ॥ ३५ ॥ Forte & Personal Use City ~377~ ५ पिण्डैपणाध्य० २ उद्देशः ॥ १८७ ॥ brary dig Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [9], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||३६-४१|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३६ 4+C+SANCESC -४१|| सुरं वा मेरगं वावि, अन्नं वा मजगं रसं । ससक्खं न पिबे भिक्खू, जसं सारक्खमप्पणो ॥ ३६॥ पियए एगओ तेणो, न मे कोइ विआणइ । तस्स पस्सह दोसाई, निअर्डिं च सुणेह मे ॥ ३७॥ वडई सुंडिआ तस्स, मायामोसं च भिक्खुणो । अयसो अ अनिव्वाणं, सययं च असाहुआ ॥३८॥ निञ्चविग्गो जहा तेणो, अत्तकम्मेहिं दुम्मई । तारिसो मरणंतेवि, न आराहेइ संवरं ॥ ३९ ॥ आयरिए नाराहेइ, समणे आवि तारिसे । गिहत्थावि ण गरिहंति, जेण जाणंति तारिसं ॥४०॥ एवं तु अगुणप्पेही, गुणाणं च विवजए । तारिसो मरणंतेऽवि, ण आराहेइ संवरं ॥४१॥ प्रतिषेधान्तरमाह-'सुरं वत्ति सूत्रं-'सुरां वा' पिष्टादिनिष्पन्नां, 'मेरकं वापि' प्रसन्नाख्या, सुराप्रायोKI ग्यद्रव्यनिष्पन्नमन्यं वा 'मायं रसं सीध्वादिरूपं 'ससाक्षिक' सदापरित्यागसाक्षिकेवलिप्रतिषिद्धं न पियेशिक्षुः, अनेनात्यन्तिक एव तत्प्रतिषेधः, सदासाक्षिभावात् । किमिति न पिबेदित्याह-यशः संरक्षनात्मनः, यशाशब्देन संयमोऽभिधीयते, अन्ये तु ग्लानापवादविषयमेतत्सूत्रं अल्पसागारिकविधानेन व्याचक्षत । सदा परित्यागे साक्षिणा केवल्यावयो ये तैः प्रतिसिदं, अरिहतसक्रियमित्यागुतेभवन्त्येष ते साक्षिणः... दीप अनुक्रम [२११-२१६] +ACANCY ~378~ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||३६-४१|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: * प्रत सूत्रांक * ||३६ -४१|| दशवैका. इति सूत्रार्थः ॥ ३६ ॥ अत्रैव दोषमाह-'पियएत्ति सूत्रं, पियति ‘एको' धर्मसहायविप्रमुक्तोऽल्पसागारिहारि-वृत्तिः कस्थितो वा 'स्तेन चौरोऽसौ भगवददत्तग्रहणात् अन्यापदेशयाचनाद्वा न मां कश्चिजानातीति भावयन, पणाध्य तस्येत्थंभूतस्य पश्यत दोषानैहिकान् पारलौकिकांश्च निकृति च' मायारूपां शृणुत ममेति सूत्रार्थः॥ ३७॥ ॥१८८॥ 'चड्डइ'त्ति सूत्रं, वर्धते 'शौण्डिका' तदत्यन्ताभिष्वङ्गरूपा तस्य माया मृषावादं चेत्येकवद्भावः प्रत्युपलब्धाप-18 लापेन वर्धते तस्य भिक्षोः, इदं च भवपरम्पराहेतुः, अनुबन्धदोषात्, तथा अयशश्च स्वपक्षपरपक्षयोः, तथा अनिर्वाणं तदलाभे सततं चासाधुता लोके व्यवहारतः चरणपरिणामवाधनेन परमार्थत इति सूत्रार्थः ॥ ३८॥|| लाकिंच-'निघुब्बिग्गो'त्ति सूत्रं, स इत्थंभूतो 'नित्योद्विग्नः सदाऽप्रशान्तो यथा 'स्तेना' चौरः 'आत्मकर्मभिः' खदुश्चरितैः दुर्मतिः-दुष्टबुद्धिः 'तादृशः' क्लिष्टसत्त्वो मरणान्तेऽपि' चरमकालेऽपि नाराधयति 'संवरं चारित्रं, सदैवाकुशलबुद्ध्या तबीजाभावादिति सूत्रार्थः ॥ ३९॥ तथा-'आयरिएत्ति सूत्रं, आचार्यान्नाराधयति, अशुद्धभावत्वात्-श्रमणांश्चापि तादृशान्नाराधयत्यशुभभावत्वादेव, गृहस्था अप्येनं दुष्टशीलं 'गर्हन्ते कुत्स-18 न्ति, किमिति ?-येन जानन्ति 'तादृशं दुष्टशीलमिति सूत्रार्थः॥४०॥ एवं तु'त्ति सूत्र, 'एवं तु' उक्तेन प्रकारेण 'अगुणप्रेक्षी' अगुणान्-प्रमादादीन् प्रेक्षते तच्छीलश्च य इत्यर्थः, तथा 'गुणानां च अप्रमादादीनां खग-1 तानामनासेवनेन परगतानां च प्रद्वेषेण 'विवर्जक त्यागी 'तादृशः क्लिष्टचित्तो मरणान्तेऽपि नाराधयति 20 संवर चारित्रमिति सूत्रार्थः ॥ ४१ ।। 155555 दीप अनुक्रम [२११-२१६] * * -5 ~379~ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||४२ -४५|| दीप अनुक्रम [२१७ -२२०] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||४२-४५ || निर्युक्तिः [ २४४...], भाष्यं [६२...] आगमसूत्र - [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित Ja Education तवं कुब्बइ मेहावी, पणीअं वज्जए रसं । मज्जप्पमायविरओ, तवस्सी अइउक्कसो ॥ ४२ ॥ तस्स पस्सह कल्लाणं, अणेगसाहुपूइअं । विउलं अत्थसंजुत्तं, कित्तइस्सं सुह मे ॥ ४३ ॥ एवं तु सगुणप्पेही, अगुणाणं च विवज्जए । तारिसो मरणंतेऽवि, आराहेइ संवरं ॥ ४४ ॥ आयरिए आराहेइ, समणे आवि तारिसे । गिहत्थावि ण पूयंति, जेण जाणंति तारिसं ॥ ४५ ॥ यतश्चैवमत एतद्दोषपरिहारेण 'सर्व'ति सूत्रं तपः करोति 'मेधावी' मर्यादावर्ती 'प्रणीतं' स्निग्धं वर्जयति 'रसं' घृतादिकं, न केवलमेतत्करोति, अपितु मद्यप्रमादविरतो, नास्ति क्लिष्टसत्त्वानामकृत्यमित्येवं प्रतिषेधः, 'तपखी' साधुः 'अत्युत्कर्षः' अहं तपस्वीत्युत्कर्षरहित इति सूत्रार्थः ॥ ४२ ॥ 'तस्स'ति सूत्रं, 'तस्य' इत्थंभूतस्य पश्यत 'कल्याण' गुणसंपद्रूपं संयमं, किंविशिष्टमित्याह- अनेक साधुपूजितं, पूजितमिति सेवितमाचरितं, 'विपुल' विस्तीर्ण विपुलमोक्षावहत्वात् 'अर्थसंयुक्तं ' तुच्छतादिपरिहारेण निरुपमसुखरूपमोक्षसाधनत्वात् कीर्तयिष्येऽहं शृणुत 'मे' ममेति सूत्रार्थः ॥ ४३ ॥ एवं तु' उक्तेन प्रकारेण 'स' साधुः 'गुणप्रेक्षी' गुणानअप्रमादादीन् प्रेक्षते तच्छीलच य इत्यर्थः, तथा 'अगुणानां च' प्रमादादीनां स्वगतानामनासेवनेन परगतानां For hate & Personal Use Oily ~380~ anbrary dig Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [9], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||४२-४५|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दशवैका हारि-वृत्तिः ॥ १८९॥ ||४२ -४५|| दीप चाननुमत्या 'विवर्जक त्यागी तादृशः' शुद्धवृत्तो 'मरणान्तेऽपि' चरमकालेऽप्याराधयति 'संवर' चारित्रं, पिण्डैसदैव कुशलबुद्ध्या तदबीजपोषणादिति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ तथा 'आयरिए'त्ति सूत्र, आचार्यानाराधयति. || शुद्धभावत्वात, श्रमणांश्चापि तादृश आराधयति, शुद्धभावत्वादेव, गृहस्था अपि शुद्धवृत्तमेनं पूजयन्ति,18|२ उद्देश: किमिति ?, येन जानन्ति 'तादृशं शुद्धवृत्तमिति सूत्रार्थः ॥ ४५ ॥ तवतेणे वयतेणे, रूवतेणे अ जे नरे । आयारभावतेणे अ, कुठबई देवकिविसं ॥४६॥ लद्रूणवि देवत्तं, उववन्नो देवकिव्विसे । तत्थावि से न याणाइ, किं मे किच्चा इम फलं? ॥ ४७॥ तत्तोवि से चइत्ताणं, लब्भिही एलमूअयं । नरगं तिरिक्खजोणि वा, बोही जत्थ सुदुल्लहा ॥ ४८ ॥ एअं च दोसं दट्ठणं, नायपुत्तेण भासिअं । अणुमा यपि मेहावी, मायामोसं विवजए ॥ १९ ॥ स्तेनाधिकार एवेदमाह-तव'त्ति सूत्रं, तपस्तेनो वास्तेनो रूपस्तेनस्तु यो नरः कश्चित् आचारभावस्तेनश्च, पालयन्नपि क्रियां तथाभावदोषादेवकिल्विषं करोति-किल्बिषिकं कर्म निर्वतयतीत्यर्थः, तपस्तेनो नाम क्षपकरूपकल्पः कश्चित् केनचित् पृष्टस्त्वमसौ क्षपक इति, स पूजाद्यर्थमाह-अहम्, अथवा वक्ति-साधव एव अनुक्रम [२१७ -२२०] SAKAL ~381~ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||४६-४९|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॥४६-४९|| दीप क्षपकाः, तूष्णीं वाऽऽस्ते, एवं वाकस्तेनो धर्मकथकादितुल्यरूपः कश्चित्केनचित् पृष्ट इति, एवं रूपस्तेनो राजपुत्रादितुल्यरूपः, एवमाचारस्तेनो विशिष्टाचारवत्तुल्परूप इति, भावस्तेनस्तु परोत्प्रेक्षितं कथञ्चित् किश्चित् श्रुस्खा स्वयमनुत्प्रेक्षितमपि मयैतत्प्रपञ्चेन चर्चितमित्याहेति सूत्रार्थः॥४६॥ अयं चेत्थंभूतः 'लण सि सूत्र, लब्ध्वापि देवत्वं तथाविधक्रियापालनवशेन उपपन्नो 'देवकिल्बिर्षे देवकिल्बिषिका ये, तत्राप्यसौ न जानात्यविशुद्धाहै बधिना, किं मम कृत्वा 'इदं फलं किल्बिषिकदेवत्वमिति सूत्रार्थः ।। ४७ ॥ अत्रैव दोषान्तरमाह-तत्तोवित्ति सूत्रं, 'ततोऽपि देवलोकादसौ च्युत्वा लप्स्यते 'एलमूकताम्' अजाभाषानुकारित्वं मानुषत्वे, तथा नरकं तिर्यगयोनि वा पारम्पर्येण लप्स्यते, 'बोधिर्यत्र सुदुर्लभः सकलसंपन्निबन्धना यत्र जिनधर्मप्राप्तिरापा । इह च प्रामोत्येलमूकतामिति वाच्ये असकृद्धावप्रासिख्यापनाय लप्स्यत इति भविष्यत्कालनिर्देश इति सूत्रार्थः॥४८॥ प्रकृतमुपसंहरति-'एअंचत्ति सूत्रं, एनं च दोषम्-अनन्तरोदितं सत्यपि श्रामण्ये किल्बिषिकस्वादिमाप्तिरूपं दृष्ट्रा आगमतो 'ज्ञातपुत्रेण भगवता वर्द्धमानेन 'भाषितम्' उक्तम् 'अणुमात्रमपि स्तोकमात्रमपि किमुत प्रभूतं? 'मेधावी' मर्यादावर्ती 'मायामृषावादम् अनन्तरोदितं 'वर्जयेत् परित्यजेदिति सूत्रार्थः ॥ ४९॥ सिक्खिऊण भिक्खेसणसोहिं, संजयाण बुद्धाण सगासे । तत्थ भिक्खु सुप्पणिहिई अनुक्रम [२२१-२२४] ~382~ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||१०|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दवावका हारि-वृत्तिः ॥१९॥ ||५०|| दिए, तिव्वलज्जगुणवं विहरिजासि ॥५०॥ तिबेमि समत्तं पिंडेसणानामज्झयण ५ पिण्डे षणाध्य. पंचमं ॥५॥ २ उद्देश: अध्ययनार्थमुपसंहरन्नाह-'सिक्खिऊणत्ति सूत्रं, 'शिक्षित्वा' अधीत्य 'भिषणाशुद्धिम् पिण्डमार्गणाशुद्धिमुद्गमादिरूपां, केश्यः सकाशादित्याह-संयतेभ्यः' साधुभ्यो 'बुद्धेश्या' अवगततत्त्वेभ्यः गीतार्थेभ्यो न द्रव्यसाधुभ्यः सकाशात्, ततः किमित्याह-तत्र भिषणायां 'भिक्षुः साधुः 'सुप्रणिहितेन्द्रियः श्रोत्रा-12 दिभिर्गादं तदुपयुक्तः 'तीवलज्ज' उत्कृष्टसंयमः सन् , अनेन प्रकारेण गुणवान् विहरेत्-सामाचारीपालनं कुर्याद्, इति ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः । उक्तोऽनुगमः । साम्प्रतं नयाः,ते च पूर्ववदेव । व्याख्यातं पिण्डैपणाध्ययनम् ॥५०॥ अत्र अध्ययन ५ उद्देशक: २ समाप्त: दीप अनुक्रम [२२५] इति श्रीहरिभद्रसूरिबिरचितायां दशवैकालिकशब्दार्थवृत्ती पिण्डैषणाध्ययनं समासम् ॥५॥ 2595%25 ॥१९ ॥ अध्ययनं -4- परिसमाप्तं ~383~ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||५०...|| नियुक्ति: [२४५], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||५०..|| ॐॐॐ दीप अनुक्रम [२२५..] अथ महाचारकथाख्यं षष्ठमध्ययनम् । अधुना महाचारकथाण्यमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः-हहानन्तराध्ययने साधोर्भिक्षाविशोधिरुक्ता. ४ इह तु गोचरप्रविष्टेन सता खाचारं पृष्टेन तद्विदाऽपि न महाजनसमक्षं तत्रैव विस्तरतः कथयितव्य इति, अपि त्वालये गुरवो वा कथयन्तीति वक्तव्यमित्येतदुच्यते, उक्तं च-"गोअरग्गपविट्ठो उ, न निसीएज्ज कत्था । कहं च न पबंधेजा, चिद्वित्ता ण व संजए॥१॥” इत्यनेनाभिसंबन्धेनायातमिदमध्ययनम्, अस्य | चानुयोगद्वारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्यावन्नामनिष्पन्नो निक्षेपः, तत्र च महाचारकथेति नाम, एतच तत्त्वतः प्रानिरूपितमेवेत्यतिदिशन्नाह जो पुरिव दिवो आयारो सो अहीणमइरित्तो । सच्चेव य होइ कहा आयारकहाए महईए ॥ २४५ ॥ व्याख्या-यः 'पूर्व क्षुल्लकाचारकथायां निर्दिष्ट' उक्तः 'आचारों ज्ञानाचारादिः असावहीनातिरिक्तो वMक्तव्यः, सैव च भवति 'कथा' आक्षेपण्यादिलक्षणा वक्तव्या, चशब्दात्तदेव क्षुल्लकप्रतिपक्षोक्तं महद्वक्तव्यम् , आचारकथायां महस्यां प्रस्तुतायामिति गाथार्थः ॥ उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेप इत्यादिचर्चः पूर्ववत्तावद्याव|त्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारणीयं, तचेदम् १ गोचरामप्रविष्टस्तु न निषीदेत कुत्रचित् । कथा च न प्रबन्धयेत् स्थिरवा च संयतः ॥१॥ अध्ययन -६- "महाचारकथा" आरभ्यते ~384~ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१-५|| नियुक्ति : [२४५...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: बसवैका हारि-वृत्तिः ** ६महाचारकथाध्य प्रत सूत्रांक ||१-५|| * RECAKACARSA दीप अनुक्रम [२२६-२३०] नाणदसणसंपन्नं, संजमे अ तवे रयं । गणिमागमसंपन्नं, उजाणम्मि समोसढं ॥१॥ रायाणो रायमच्चा य, माहणा अदुव खत्तिआ । पुच्छंति निहुअप्पाणो, कहं भे आयारगोयरो? ॥२॥ तेसिं सो निहुओ दंतो, सव्वभूअसुहावहो । सिक्खाए सुसमाउत्तो, आयक्खइ विअक्खणो ॥३॥ हंदि धम्मत्थकामाणं, निग्गंथाणं सुणेह मे। आयारगोअरं भीम, सयलं दुरहिट्रिअं ॥४॥ नन्नत्थ एरिसं वुत्तं, जे लोए परमदु वरं । विउलट्ठाणभाइस्स, न भूअं न भविस्सइ ॥५॥ अस्य व्याख्या 'ज्ञानदर्शनसंपन्नं ज्ञानं-श्रुतज्ञानादि दर्शन-क्षायोपशमिकादि ताभ्यां संपन्न युक्तं 'संयमें पञ्चाश्रवविरमणादौ तपसिच' अनशनादौ 'रतम्' आसक्तं, गणोऽस्यास्तीति गणीतं गणिनम्-आचार्यम् 'आगमसंपन्न' विशिष्टश्रुतधरं, बह्वागमखेन प्राधान्यस्थापनार्थमेतत्, 'उद्याने' कचित्साधुप्रायोग्ये 'समवमृतं' स्थित धर्मदेशनार्थ वा प्रवृत्तमिति सूत्रार्थः॥१॥ तरिकमित्याह-रायाणों'त्ति सूत्रं, 'राजानों नरपतयः 'राजामा-1 त्याच' मत्रिणः 'ब्राह्मणाः प्रतीताः 'अदुबत्ति तथा क्षत्रियाः' श्रेष्ठ्यादयः पृच्छन्ति 'निभृतात्मानः' असंभ्रान्ता रचिताञ्जलयः कथं में भवताम् 'आचारगोचर' क्रियाकलापः स्थित इति सूत्रार्थः ॥२॥'तेर्सिति सूत्रं, JamEachana ... षष्ठे अध्ययने नास्ति उद्देशकः, अत्र सर्वत्र शिर्षक-स्थाने यत् “२ उद्देश:" लिखितं तत् मुद्रण-दोष: मात्र. ~385~ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१-५|| नियुक्ति: [२४६], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१-५|| तेभ्यो' राजादिश्यः 'असौ' गणी 'निभृतः' असंभ्रान्त उचितधर्मकायस्थित्या, दान्त इन्द्रियनोइन्द्रियाभ्यां, ४|'सर्वभूतसुखावहा' सर्वप्राणिहित इत्यर्थः, 'शिक्षया' ग्रहणासेवनरूपया 'सुसमायुक्त सष्ठ-एकीभावेन यक्त 'आख्याति कथयति 'विचक्षण' पण्डित इति सूत्रार्थः ॥ ३॥ 'हंदि ति सूत्रं, हन्दीत्युपप्रदर्शने, तमेन 'धPार्मार्थकामाना मिति धर्म:-चारित्रधर्मादिस्तस्यार्थः-प्रयोजनं मोक्षस्तं कामयन्ति-इच्छन्तीति विशुद्धविहिता8/नुष्ठानकरणेनेति धर्मार्थकामा-मुमुक्षवस्तेषां 'निर्ग्रन्थानां बाधाभ्यन्तरग्रन्धरहितानां शृणुत मम समीपाद आचारगोचर' क्रियाकलापं 'भीम' कर्मशञ्चपेक्षया रौद्रं 'सकलं' संपूर्ण 'दुरधिष्ठं' क्षुद्रसत्त्वैर्दुराश्रयमिति सूत्रार्थः । धर्मार्थकामानामित्युक्तं, तदेतत्सूत्रस्पर्शनियुक्त्या निरूपयति-तत्र धर्मनिक्षेपो यथा प्रथमाध्ययने, 3/ नवरं लोकोत्तरमाह-- धम्मो बाबीसविहो अगारधम्मोऽणगारधम्मो अ। पढमो अ बारसविहो दसहा पुण बीयओ होइ ॥ २४६ ॥ व्याख्या-धर्मों 'द्वाविंशतिविधा' सामान्येन द्वाविंशतिप्रकार, 'अगारधर्मों गृहस्थधर्मः 'अनगारधर्मश्च साधुधमें, 'प्रथमच' अगारधर्मों द्वादशविधा, दशधा पुनः 'द्वितीया' अनगारधर्मों भवतीति गाधासमासाथैः॥ व्यासार्थं त्वाह- पंच व अणुव्बयाई गुणरुवयाई च होति तिन्नेव । सिक्खावयाई चउरो गिहिधम्मो बारसविहो अ ।। २४७ ॥ व्याख्या-पञ्चाणुव्रतानि-स्थूलपाणातिपातनिवृत्त्यादीनि, गुणवतानि च भवन्ति त्रीण्येव-दिग्वतादीनि CACANCREASE दीप अनुक्रम [२२६-२३०] JamElicahanimary धर्मस्य भेद-प्रभेद प्रदर्शयते ~386~ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||५...|| नियुक्ति: [२४७], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१-५|| SISEX दीप अनुक्रम [२२६-२३०] दशवका० शिक्षापदानि चत्वारि-सामायिकादीनि, गृहिधर्मों द्वादशविधस्तु एष एवाणुव्रतादिः । अणुव्रतादिस्वरूपं महाचाहारि-वृत्तिःचावश्यके चर्चितत्वानोक्तमिति गाथार्थः ॥ साधुधर्ममाह दारकथाध्य० खंती अ महवऽलव मुत्ती तवसंजमे अ बोद्धव्वे । सञ्चं सोचं आकिंचणं च बंभं च जइधम्मो ।। २४८ ॥ २ उद्देश ॥१९२॥ व्याख्या-क्षान्तिश्च मार्दवम् आर्जवं मुक्तिः तपासंयमौ च बोदव्यौ सत्यं शौचमाकिश्चन्यं ब्रह्मचर्यं च यतिधर्म इति गाथाक्षरार्थः। भावार्थः पुनर्यथा प्रथमाध्ययने ॥ धम्मो एसुवइट्ठो अस्थस्स चउव्विहो उ निक्खेवो । ओhण छव्विहऽत्यो चउसद्विविहो विभागेणं ॥ २४९ ॥ &ा व्याख्या-धर्म एष 'उपदिष्टों व्याख्याता, अधुना त्वर्थावसरः, तत्रेदमाह-अर्थस्य चतर्विधस्त निक्षेपो-नामामादिभेदात, तत्र 'ओघेन' सामान्यतः पडिधोऽर्थे आगमनोआगमव्यतिरिक्तो द्रव्याः , चतुःषष्टिविधो| 'विभागेन' विशेषेणेति गाथासमुदायार्थः ॥ अवयवार्थ वाह| धन्नाणि रयण थावर दुपयचउप्पय तहेव कुवि च । ओहेण छब्बिहत्थो एसो धीरेहिं पन्नत्तो ।। २५० ॥ | व्याख्या-'धान्यानि' यवादीनि, रत्न-सुवर्ण स्थावर-भूमिगृहादि द्विपद-गच्यादि चतुष्पदं-गवादि तथैव कुप्यं च-ताम्रकलशाधनेकविधम् । ओघेन पड्डिधोऽर्थ 'एषः' अनन्तरोदितः 'धीरैः' तीर्थकरगणधरैः 'प्रज्ञसः | प्ररूपित इति गाथार्थः ॥ एनमेव विभागतोऽभिधिरसुराह १ चरित्तधम्मो समणधम्मो इत्यत्र पूर्णिकृद्धिर्विकृत्योः संलीनतासयमादी वा व्याख्यानादेवमाहुः, (MIL१९२॥ ~387~ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||५...|| नियुक्ति: [२५०], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१-५|| दीप अनुक्रम [२२६-२३०] चउबीसा चवीसा तिगद्गदसहा अणेगविह एव । सम्वेसिपि इमेसि विभागमयं पक्क्यामि ॥ २५१ ॥ व्याख्या-चतुर्विंशतिः चतुर्विशतीति चतुर्विंशतिविधो धान्यार्थी रत्नार्थश्च, 'त्रिद्विदशघेति त्रिविधः स्थाव-21 रार्थः द्विविधो द्विपदार्थः दशविधश्चतुष्पदार्थ, 'अनेकविध एवेयनेकविधः कुप्यार्थः सर्वेषामप्यमीषां चतुर्विशत्यादिसंख्याभिहितानां धान्यादीनां 'विभागं' विशेषम् 'अर्थ' अनन्तरं संप्रवक्ष्यामीत्यर्थः॥ धन्नाई चउव्वीसं जबगोहुमरसालि ३वीहि४सट्ठीआ५ । कोदव६ अणुया७ कंगू८ रालग९ तिल १० मुग्ग११ मासा१२ व ॥ २५२ ॥ अयसि १३हरिमन्थ१४तिउडग१५निरफाव१६सिलिंद१७रायमासा१८अ । इक्खू १९मसूर२०तुवरी२१कुलत्थर२तह २३धन्नगकलाया२४ ॥ व्याख्या-धान्यानि चतुर्विशतिः, यवगोधूमशालिब्रीहिषष्टिका: कोद्रवाणुकाः कङ्गरालगतिलमुद्गमाषाश्च | अतसीहरिमन्वत्रिपुटकनिष्पावसिलिन्दराजमाषाश्च इक्षुमसूरतुवर्यः कुलस्था धान्यककलायाश्चेति, एतानि | प्रायो लौकिकसिद्धान्येव, नवरं षष्टिकाः-शालिभेदाः कङ्ग:-उदकडः तद्भेदो रालकः हरिमन्धा:-कृष्णचणकाः निष्पावा-वल्लाः राजमाषा:-चवलकाः शिलिन्दा-मकुष्ठाः धान्यक-कुस्तुम्भरी कलायका-वृत्तचणका इति गाथाद्याथैः । उक्तो धान्यविभागः, अधुना रनविभागमाह रवणाणि चडब्बीस सुवण्णतउतंबरययलोहाई । सीसगहिरण्णपासाणवइरमणिमोत्तिअपवालं ।। २५४ ॥ संखो तिणिसागुरुचंदणाणि वस्वामिलाणि कहाणि । तह चम्मदंतवाला गंधा व्योसहाई च ।। २५५ ।। व्याख्या-रत्नानि चतुर्विशतिः, सुवर्णत्रपुताम्ररजतलोहानि सीसकहिरण्यपाषाणवज्रमणिमौक्तिकप्रथा श०३३ ~388~ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||५...|| नियुक्ति: [२५५], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१-५|| दीप अनुक्रम [२२६-२३०] दशवैका लानि । शङ्खतिनिशागरुचन्दनानि वस्त्रामिलानि काष्ठानि तथा चर्मदन्तवाला गन्धा द्रव्योषधानि च धर्मार्थहारि-वृत्तिः एतान्यपि प्रायो लौकिकसिद्धान्येव नवरं रजतं-रूप्यम् हिरण्यं-रूपकादि पाषाणा-विजातीयरत्नानि मणयो- कामा० जात्यानि । तिनिशो-वृक्षविशेषः अमिलानि-कर्णावस्त्राणि काष्ठानि-श्रीपादिफलकादीनि चर्माणि सिं-18|२ उद्देशः ॥१९३॥ हादीनां वन्ता गजादीनां वालाः चमर्यादीनां द्रव्योषधानि-पिप्पल्यादीनीति गाथावयार्थः ॥ उक्तो रनवि-12 भागः, स्थावरादिविभागमाह भूमी घरा य तरुगण तिविहं पुण थावरं मुणेअवं । चकारवद्धमाणुस दुविहं पुण होइ दुपयं तु ॥ २५६ ।। व्याख्या-भूमिगृहाणि तरुगणाश्च, चशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः, त्रिविधं पुनरोघतः स्थावरं मन्तव्यं, पुनाशब्दो विशेषणार्थः, किं चिशिनष्टि?, स्वगतान भेदान , तद्यथा-भूमि:-क्षेत्रं, तच निघा-सेतु केतु सेतुकेतु च, गृहाणि प्रासादाः, तेऽपि त्रिविधाः-खातोत्छुितोभयरूपाः, तरुगणा नालिकेर्याचारामा इति, 'चक्राकारबद्धमानुष'मिति चक्रारबद्धं-गझ्यादि मानुषं-दासादि, एवं द्विपदं पुनर्भवति द्विविधमिति गाथार्थः ॥ उक्तं ४ स्थावरादि, चतुष्पदमाह गायी महिसी उहा अयएलगआसआसतरगा अ । घोडग गदह हत्थी चउप्पयं होइ सहा । ॥ २५७ ॥ व्याख्या-गौर्महिषी उष्ट्री अजा एडका अश्वा अश्वतराश्च घोटका गर्दभा हस्तिनश्चतुष्पदं भवति दशधा ~389~ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||१-५|| दीप अनुक्रम [२२६ -२३०] Jar Education “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [६], उद्देशक [ - ], मूलं [ १५...] / गाथा ||५...|| निर्युक्ति: [२५७ ], भाष्यं [६२...] आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित तु, एते गवादयः प्रतीता एव, नवरमश्वा-वाल्हीकादिदेशोत्पन्ना जात्याः अश्वतरा-वेगंसराः अजात्या घो | टका इति गाथार्थः । उक्तं चतुष्पदं, कुप्यमाह नाणाविवरणं गविहं कुप्पलक्खणं होई। एसो अत्यो भणिओ छन्हि चडसट्टिभेओ ॥ २५८ ॥ व्याख्या- 'नानाविधोपकरणं' ताम्रकलशकडिल्लादि जातितः अनेकविधं व्यक्तितः कुप्यलक्षणं भवति 'एषः' अनन्तरोदितोऽर्थो 'भणित' उक्तः षड्विधः, चतुःषष्टिभेदस्तु ओघविभागाभ्यां प्रकृतोपयोगो द्रव्यार्थ इति गाथार्थः ॥ उक्तोऽर्थः साम्प्रतं काममाह कामो चडवीसविहो संपतो खलु तहा असंपत्तो । संपत्तो चउदसहा दुसहा पुण होअसंपत्तो ॥ २५९ ॥ व्याख्या - कामश्चतुर्विंशतिविधः ओघतः, संप्राप्तः खलु तथा असंप्राप्तो वक्ष्यमाणस्वरूपः, संप्राप्तः 'चतुर्दशधा - चतुर्दशप्रकारः, दशधा पुनर्भवत्यसंप्राप्त इति गाथासमासार्थः ॥ व्यासार्थं त्वाह, तत्राप्यल्पतरवक्तव्यत्वादसंप्राप्तमाह तत्थ असंपत्तो अत्थो ९ चिंता २ वह सद्ध ३ संसरणमेव ४ । विकवय ५ लज्जनासो ६ पमाय ७ उम्माय ८ तब्भावो ९ ।। २६० ॥ व्याख्या- तत्रासंप्राप्तोऽयं कामः, 'अर्थे'ति अर्थनमर्थः अदृष्टेऽपि विलयादौ श्रुत्वा तदभिप्रायमात्रमित्यर्थः, तत्रैवाहो रूपादिगुणा इत्यभिनिवेशेन चिन्तनं चिन्ता, तथा श्रद्धा-तत्संगमाभिलाषः, संस्मरणमेव-संक|ल्पिकतद्रूपस्यालेख्यादिदर्शनं, वियोगतः पुनः पुनरतिविक्लवता - तच्छोकातिरेकेणाहारादिष्वपि निरपेक्षता, For ne&Personal Use City ~390~ **** Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||५...|| नियुक्ति: [२६०], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१-५|| २उद्दशः दीप अनुक्रम [२२६-२३०] दशवैकालज्जानाशो-गुर्वादिसमक्षमपि तद्गुणोत्कीर्तनं, प्रमादः-तदर्थमेव सर्वारम्भेष्वपि प्रवर्तनम् , उन्मादो-नष्टचित्तहारि-वृत्तिः तया आलजालभाषणं, तद्भावना-स्तम्भादीनामपि तवुझ्याऽऽलिङ्गनादिचेष्टेति गाथार्थः ।। IPL मरणं १० च होइ दसमो संपत्तं पित्र समासओ बोच्छं । दिहीए संपाओ १ दिहीसेवा व संभासो २ ॥ २६१ ।। ॥ १९४॥ व्याख्या-मरणं च-शोकाद्यतिरेकेण क्रमेण भवति दशमः असंप्राप्तकामभेदः । संप्राप्तमपि च कामं समासतो वक्ष्य इति, तत्र दृष्टेः पुन: संपातः स्त्रीणां कुचायवलोकनं दृष्टिसेवा च-भावसारं तदृष्टेदृष्टिमेलनं, संभाषणम्-उचितकाले स्मरकथाभिर्जल्प इति गाथार्थः ।। हसिअ ३ललिअ ४उवगूहिअ ५दंत निहनिकाय चुंबणं ८होइ । आलिंगण ९मायाणं १०कर ११ सेवण १२संग १३ किडा १४ ॥२६२॥ व्याख्या-इसितं-वक्रोक्तिगर्भ प्रतीतं ललितं-पाशकादिक्रीडा उपगृहितं-परिष्वक्तं दन्तनिपातो-दशनच्छेद्यविधिः नखनिपातो-नखरदनजातिः चुम्बनं चैवेति-चुम्बनविकल्पः आलिङ्गनम्-ईवस्पर्शनम् आदानकुचादिग्रहणं 'करसेवर्णति प्राकृतशैल्या करणासेवने, तत्र करणं नाम-नागरकादिप्रारम्भयन्त्रम् आसेवनं -मैथुनक्रिया अनङ्गक्रीडा च-अस्यादावक्रियेति गाथार्थः ।। उक्तः कामः, साम्प्रतं धर्मादीनामेव सपत्नतासपनते अभिधित्सुराह धम्मो अत्थो कामो भिन्ने ते पिंडिया पडिसवत्ता । जिणवयणं उत्तिन्ना असबत्ता होंति नायव्वा ॥ २६३ ॥ व्याख्या-धर्मोऽर्थः कामः त्रय एते पिण्डिता युगपत्संपातेन 'प्रतिसपनाः' परस्परविरोधिनः लोके कुप्रवचन 1॥१९४॥ JanEducation.in ~391~ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||५...|| नियुक्ति: [२६३], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१-५|| दीप अनुक्रम [२२६-२३०] S%2595%25-55A3%E5%95 नेषु च, यथोक्तम्-"अर्थस्य मूलं निकृतिः क्षमा च, कामस्य वित्तं च वपुर्षयश्च । धर्मस्य दानं च दद्या दMIमच, मोक्षस्य सर्वोपरमः क्रियाश्च ॥१॥ इत्यादि एते च परस्परविरोधिनोऽपि सन्तो जिनवचनमवतीर्णाः। ततः कुशलाशययोगतो व्यवहारेण धर्मादितत्त्वखरूपतो वा निश्चयेन 'असपत्नाः' परस्पराविरोधिनो भवन्ति ला ज्ञातव्या इति गाथार्थः । तत्र व्यवहारेणाविरोधमाह जिणवयणमि परिणए अवस्थपिहिमाणुठाणओ धम्मो । सच्छासयप्पयोगा अत्थो वीसंमओ कामो ॥ २६४।। व्याख्या-जिनवचने यथावत्परिणते सति अवस्थोचितविहितानुष्ठानात्-खयोग्यतामपेक्ष्य दर्शनादिश्रा-1 वकप्रतिमाङ्गीकरणे निरतिचारपालनाद्भवति धर्मः, खच्छाशयप्रयोगाद्विशिष्टलोकतः पुण्यबलाचार्थः, विश्र-13 म्भत उचितकलनाङ्गीकरणतापेक्षो विश्रम्भेण काम इति गाधार्थः॥ अधुना निश्चयेनाविरोधमाह धम्मस्स फलं मोक्खो सासयमउलं सिर्व अणावाएं । तमभिष्पेया साहू तम्हा धम्मत्वकाम ति ॥ २६५ ॥ व्याख्या-धर्मस्य निरतिचारस्य फलं 'मोक्षों निर्वाणं, किंविशिष्टमित्याह-शाश्वत' नित्यम् 'अतुलम् अनन्यतुलं 'शिव' पवित्रम् 'अनायाधं वाधावर्जितमेतदेवार्थः 'तं' धर्मार्थ मोक्षमभिप्रेता:-कामयन्तः साधवी यस्मात्तस्माद्धर्मार्थकामा इति गाथार्थः॥ एतदेव दृढयन्नाह- परलोगु मुत्तिमग्गो नस्थि हु मोक्सो ति बिति अविहिन् । सो अस्थि अवितहो जिणमयंमि पवरो न अन्नत्थ ॥ २६६ ॥ व्याख्या-'परलोको' जन्मान्तरलक्षणो 'मुक्तिमार्गा' ज्ञानदर्शनचारित्राणि नास्त्येव 'मोक्ष' सर्वकर्मक्षय J Economics ~392~ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ॥६-७॥ दीप अनुक्रम [२३१ -२३२] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [६], उद्देशक [ - ], मूलं [१५] / गाथा ||६-७ || निर्युक्ति: [ २६६ ], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः ॥ १९५ ॥ दशवैका० लक्षण: 'इति' एवं ब्रुवते 'अविधिज्ञा' न्यायमार्गप्रवेदिनः, अत्रोत्तरं - 'स' परलोकादिः अस्त्येव 'अवितथः ' हारि-वृत्तिः ॐ सत्यो 'जिनमते' वीतरागवचने, प्रवरः पूर्वापराविरोधेन, नान्यत्रैकान्तनित्यादौ, हिंसादिविरोधादिति गाथार्थः ॥ ४ ॥ व्याख्याता काचित्सूत्रस्पर्शनियुक्तिः, अधुना सूत्रान्तरावसरः अस्य चायमभिसंबन्ध: - इहा| नन्तरसूत्रे निर्ग्रन्थानामाचारगोचरकथनोपन्यासः कृतः, साम्प्रतमस्यैवार्थतो गुरुतामाह- 'गण्णत्थ'त्ति सूत्रं न 'अन्यत्र' कपिलादिमते 'ईदृशम्' उक्तमाचारगोचरं वस्तु यत् 'लोके' प्राणिलोके 'परमदुश्वरम्' अत्यन्तदुष्करमित्यर्थः, ईदृशं च 'विपुलस्थानभाजिनः' विपुलस्थानं - विपुल मोक्ष हेतुत्वात् संयमस्थानं तद्भजते- सेवते तच्छीलन यस्तस्य न भूतं न भविष्यति अन्यत्र जिनमतादिति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ सखुड्डगविअत्ताणं, वाहिआणं च जे गुणा । अखंडफुडिआ कायव्वा, तं सुणेह जहा तहा ॥ ६ ॥ दस अट्ठय ठाणाई, जाई बालोऽवरज्झइ । तत्थ अन्नयरे ठाणे, निग्गं थत्ताउ भस्सइ ॥ ७ ॥ एतदेव संभावयन्नाह - 'सखुट्टत्ति सूत्रं, सह क्षुल्लकैः- द्रव्यभाववालैर्ये वर्त्तन्ते ते व्यक्ता- द्रव्यभावद्वास्तेषां सक्षुल्लकव्यक्तानां, सबालवृद्धानामित्यर्थः, व्याधिमतां चशब्दादव्याधिमतां च सरुजानां नीरुजानां चेति भावः, ये 'गुणा' वक्ष्यमाणलक्षणास्तेऽखण्डास्फुटिताः कर्तव्याः, अखण्डा देशविराधनापरि Forse & Personal Use City ~393~ ६ धर्मार्थ कामा० २ उद्देशः ॥ १९५ ॥ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६-७|| नियुक्ति: [२६६], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||६-७|| दीप अनुक्रम [२३१-२३२] त्यागेन अस्फुटिताः सर्वविराधनापरित्यागेन, तत् शृणुत यथा कर्तव्यास्तथेति सूत्रार्थः ॥६॥ते चागुणपरिहारेणाखण्डास्फुटिता भवन्तीति अगुणास्तावदुच्यन्ते-'दस'त्ति सूत्रं, दशाष्टौ च 'स्थानानि' असंयमस्थानानि वक्ष्यमाणलक्षणानि 'यानि' आश्रित्य 'बाल' अज्ञः 'अपराध्यति' तत्सेवनयाऽपराधमामोति, कथमपराध्यतीत्याह-तत्रान्यतरे स्थाने वर्तमानः प्रमादेन 'निर्ग्रन्थत्वात् निर्ग्रन्थभावाद् 'भ्रश्यति निश्चयनयेनापैति || बाल इति सूत्रार्थः ॥ अमुमेवार्थ सूत्रस्पर्शनियुक्त्या स्पष्टयति अद्वारस ठाणाई आयारकहाएँ जाई भणिवाई । तेसि अन्नतराग सेवंतु न होइ सो समणो ॥ २६७ ।। व्याख्या-अष्टादशस्थानान्याचारकवायां प्रस्तुतायां यानि भणितानि तीर्थकरैः तेषामन्यतरस्थानं सेवमानो न भवत्यसौ श्रमण आसेवक इति गाथार्थः ॥ कानि पुनस्तानि स्थानानीत्याह नियुक्तिकार: क्यछकं कायछकं, अकप्पो गिहिभायणं । पलियंकनिसेज्जा य, सिणाणं सोहवजणं ।। २६८ ॥ व्याख्या-'व्रतषट् प्राणातिपातनिवृत्यादीनि रात्रिभोजनविरतिषष्ठानि षड् ब्रतानि कायषट्-पृथिव्यादयः षडू जीवनिकायाः 'अकल्प:' शिक्षकस्थापनाकल्पादिर्वक्ष्यमाणः 'गृहिभाजन गृहस्थसंबन्धि कांस्यभाजनादि प्रतीत दा'पर्य' शयनविशेषः प्रतीतः । 'निषद्या च' गृहे एकानेकरूपा 'लान' देशसर्वभेदभिन्नं 'शोभावर्जन' विभूषापरित्यागः, वर्जनमिति च प्रत्येकमभिसंबध्यते, शोभावर्जन लानवर्जनमित्यादीति गाथार्थः ॥७॥ ~ 394~ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ॥८-१० ॥ दीप अनुक्रम [२३३ -२३५] दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ १९६ ॥ “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [६], उद्देशक [ - ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित मूलं [ १५...] / गाथा ||८-१० || निर्युक्तिः [२६८ ], भाष्यं [६२...] आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः तत्थमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसिअं । अहिंसा निउणा दिट्ठा, सव्वभूपसु संजमो ॥ ८ ॥ जावंति लोए पाणा, तसा अदुव थावरा । ते जाणमजाणं वा, न हणे गोवि घाय ॥ ९ ॥ सव्ये जीवावि इच्छंति, जीविडं न मरिजिउं । तम्हा पाणवह घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं ॥ १० ॥ व्याख्याता सूत्रस्पर्शनियुक्तिः, अधुना सूत्रान्तरं व्याख्यायते, अस्य चायमभिसंबन्ध: - गुणा अष्टादशसु स्थानेषु अखण्डास्फुटिताः कर्तव्याः, तत्र विधिमाह 'तत्थिमं' ति सूत्रं । 'तत्र' अष्टादशविधे स्थानगणे व्रतषट्टे वा अनासेवनाद्वारेण 'इदं' वक्ष्यमाणलक्षणं प्रथमं स्थानं 'महावीरेण' भगवता अपश्चिमतीर्थकरेण 'देशित ' कथितं यदुताहिंसेति । इयं च सामान्यतः प्रभूतैर्देशितेत्यत आह-'निपुणा' आधाकर्मा परिभोगतः कृतकारितादिपरिहारेण सूक्ष्मा, न आगमद्वारेण देशिता अपितु 'दृष्टा' साक्षाद्धर्मसाधकत्वेनोपलब्धा, किमितीयमेव निपुणेत्यत आह-यतोऽस्यामेव महावीरदेशितायां 'सर्वभूतेषु' सर्वभूतविषयः संयमो, नान्यत्र, उद्दिश्यकतादिभोगविधानादिति सूत्रार्थः ॥ ८ ॥ एतदेव स्पष्टयन्नाह 'जाति' सूत्रं यतो हि भागवत्याज्ञा यावन्तः | केचन लोके प्राणिननसा-द्वीन्द्रियादयः अथवा स्थावराः - पृथिव्यादयः तान् जानन् रागाद्यभिभूतो व्यापादनबुद्ध्या अजानत्वा प्रमादपारतन्त्र्येण न हन्यात् स्वयं नापि घातयेदन्यैः 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणादू' Forse & Personal Use City ~ 395~ ६ धर्मार्थकामा० २ उद्देशः ॥ १९६ ॥ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||८-१०|| नियुक्ति: [२६८...], भाज्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||८-१०|| 5A5%258454 दीप अनुक्रम [२३३-२३५]] समतोऽप्यन्यान्न समनुजानीयाद्, अतो निपुणा दृष्टेति सूत्रार्थः ॥९॥ अहिंसैव कथं साध्वीखेतदेवाह-'स ब्वेत्ति सूत्रं, सबै जीवा अपि दु:खितादिभेदभिन्ना इच्छन्ति जीवितुं न मर्तु प्राणवल्लभत्वात् , यस्मादेवं तस्मात्याणवधं 'घोरं' रौद्रं दुःखहेतुत्वाद् 'निर्ग्रन्थाः' साधवो वर्जयन्ति भावतः । णमिति वाक्यालङ्कार इति सूत्रार्थः ॥१०॥ अप्पणट्टा परट्रा वा, कोहा वा जइ वा भया। हिंसगं न मुसं चूआ, नोवि अन्नं वयावए ॥ ११ ॥ मुसावाओ उ लोगम्मि, सव्वसाहहिं गरिहिओ । अविस्सासो अ भूआणं, तम्हा मोसं विवजए ॥ १२॥ उक्तः प्रथमस्थानविधिः, अधुना द्वितीयस्थानविधिमाह-'अप्पण?'त्ति सूत्रं, 'आत्मार्थम् आत्मनिमिसमग्लान एव ग्लानोऽहं ममानेन कार्यमित्यादि 'परार्थ वा' परनिमित्तं वा एवमेव, तथा कोषाद्वा त्वं दास इत्यादि, 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहण'मिति मानाद्वा अबहुश्रुत एचाहं बहुश्रुत इत्यादि मायातो भिक्षाटनपरि&ाजिहीर्षया पादपीडा ममेत्यादि लोभाच्छोभनतरान्नलाभे सति प्रान्तस्यैषणीयत्वेऽप्यनेषणीयमिदमित्यादि, यदिवा "भयात्' किश्चिद्वितथं कृत्वा प्रायश्चित्तभयान्न कृतमित्यादि, एवं हास्यादिष्वपि वाच्यम्, अत एवाह'हिंसकं' परपीडाकारि सर्वमेव न मृषा ब्रूयात् स्वयं नाप्यन्य वादयेत्, 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणात्' अवतो ~396~ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||११-१२|| नियुक्ति: [२६८...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: R प्रत कामा० सूत्रांक ||११ AKSSSS -१२|| दशवैका ॥४ा प्यन्यान्न समनुजानीयादिति सूत्रार्थः॥११॥ किमित्येतदेवमित्याह-'मुसाबा'त्ति सूत्रं, मृषावादो हि लोके ||६ धर्मार्थहारि-वृत्तिः सर्वस्मिन्नेव सर्वसाधुभिः 'गर्हितो निन्दितः, सर्वव्रतापकारित्वात् प्रतिज्ञातापालनात, 'अविश्वासश्च' अविश्वसनीयश्च भूतानां मृषावादी भवति, यस्मादेवं तस्मान्मृषावादं विवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ १२ ॥ २ उद्देशः ॥ १९७॥ चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइवा बहुं । दंतसोहणमित्तंपि, उग्गहंसि अजाइया ॥ १३॥ तं अप्पणा न गिण्हति नोऽवि गिण्हावए परं । अन्नं वा गिण्हमाणंपि, ना णुजाणंति संजया ॥१४॥ उक्तो द्वितीयस्थानविधिः, साम्प्रतं तृतीयस्थानविधिमाह-चित्तमंतत्ति सूत्रं, 'चित्सव' द्विपदादि वा 'अहै चित्तबद्वा' हिरण्यादि, अल्पं वा मूल्यतः प्रमाणतश्च, यदिवा बहुमूल्यप्रमाणाभ्यामेव, किंबहुना?-दन्तशो धनमात्रमपि' तथाविधं तृणादि अवग्रहे यस्य तत्तमयाचित्वा न गृह्णन्ति साधवः कदाचनेति सूत्राथें।॥१३॥|| एतदेवाह तंति सूत्रं, 'तत्' चित्तवदादि आत्मनान गृह्णन्ति विरतत्वात, मापि ग्राहयन्ति परं विरतत्वादेव, तथाऽन्यं वा गृह्णन्तमपि खयमेव 'नानुजानन्ति' नानुमन्यन्ते संयता इति सूत्रार्थः ॥१४॥ अबभचरिअं घोरं, पमायं दुरहिट्रिअं । नायरंति मुणी लोए, भेआययणवजिणो दीप अनुक्रम [२३६-२३७] ॥१९७॥ ~397~ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१५-१६|| नियुक्ति: [२६८...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१५-१६|| ॥ १५॥ मूलमेयमहम्मस्स, महादोससमुस्सयं । तम्हा मेहुणसंसर्ग, निग्गंथा वज यंति णं ॥ १६॥ उक्तस्तृतीयस्थानविधिः, चतुर्थस्थानविधिमाह-'अबंभ'त्ति सूत्रं, 'अब्रह्मचर्य प्रतीतं 'घोरं रौद्रं रौद्रानुठानहेतुत्वात्, 'प्रमादं' प्रमादवत् सर्वप्रमादमूलत्वात् 'दुराश्रयं दुस्सेवं विदितजिनवचनेनानन्तसंसारहेतुदत्वात्, यतश्चैवमतो 'नाचरन्ति' नासेवन्ते मुनयो 'लोके' मनुष्यलोके, किंविशिष्टा इत्याह-'भेदायतनव र्जिनों भेदः-चारित्रभेदस्तदायतनं-तत्स्थानमिदमेवोक्तन्यायात्तद्वर्जिन:-चारित्रातिचारभीरव इति सूत्रार्थः ॥१५॥ एतदेव निगमयति-मूलं ति सूत्रं, 'मूलं' बीजमेतद् 'अधर्मस्य पापस्येति पारलौकिकोऽपाय: 'महै. हादोषसमुच्छ्रय महतां दोषाणां-चौर्यप्रवृत्त्यादीनां समुच्छ्रयं-संघातवदित्यैहिकोऽपायः, यस्मादेवं तस्मात् 'मैथुनसंसर्ग मैथुनसंवन्धं योषिदालापाद्यपि निर्ग्रन्था वर्जयन्ति, णमिति वाक्यालङ्कार इति सूत्रार्थः॥१६॥ बिडमुब्भेइमं लोणं, तिलं सप्पिं च फाणिोंन ते संनिहिमिच्छति, नायपुत्तवओरया ॥ १७ ॥ लोहस्सेस अणुप्फासे, मन्ने अन्नयरामवि । जे सिआ सन्निहिं कामे, गिही पव्वइप न से ॥१८॥ जंपि वत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंछणं । तंपि संज SANSACRICCARROCESCRCH दीप अनुक्रम [२४०-२४१] ~398~ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१७-२१|| नियुक्ति : [२६८...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: 454 4-01 प्रत सूत्रांक ||१७-२१|| -51-5- दशबैका० मलजटा, धारंति परिहरंति अ ॥ १९ ॥ न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा। हारि-वृत्तिः मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इअ वुत्तं महेसिणा ॥ २०॥ सव्वत्थुवहिणा बुद्धा, संरक्ख २ उद्देशः ॥१९८॥ णपरिग्गहे । अवि अप्पणोऽवि देहमि, नायरैति ममाइयं ॥ २१॥ प्रतिपादितश्चतुर्थस्थानविधिः, इदानीं पञ्चमस्थानविधिमाह-'बिड'त्ति सूत्रं, 'बिर्ड' गोमूत्रादिपक 'उद्भेद्य सामुदादि यदा 'बिर्ड' प्रासुकम् 'उद्भेद्यम्' अप्रासुकमपि, एवं द्विप्रकारं लवणं, तथा तैलं सर्पिच फाणि-| तम्, तत्र तैलं प्रतीतं, सर्पितं, फाणितं द्वगुडः, एतल्लवणायेवंप्रकारमन्यच न ते साधयः 'संनिधिं कुर्वन्ति। पर्युषितं स्थापयन्ति, 'ज्ञातपुत्रवचोरता' भगवद्बर्धमानवचसि निःसङ्गताप्रतिपादनपरे सक्ता इति सूत्रार्थः ॥१७॥ संनिधिदोषमाह-लोभस्स'त्ति सूत्रं, 'लोभस्य चारित्रविघ्नकारिणश्चतुर्थकषायस्य 'एसोऽणुप्फासत्ति एषोऽनुस्पर्शः-एषोऽनुभावो यदेतत्संनिधिकरणमिति, यतश्चैवमतो 'मन्ये' मन्यन्ते, प्राकृतशैल्या एकवचनम्, एवमाहुस्तीर्थकरगणधराः 'अन्यतरामपि' स्तोकामपि 'यः स्यात्' यः कदाचित्संनिधि 'कामयते। सेवते 'गृही' गृहस्थोऽसौ भावतः प्रबजितो नेति, दुर्गतिनिमित्तानुष्ठानप्रवृत्तः, संनिधीयते नरकादिष्वात्माXऽनयेति संनिधिरिति शब्दार्थात् प्रत्रजितस्य च दुर्गतिगमनाभावादिति सूत्रार्थः ॥ १८॥ आह-यद्येवं वस्त्रादि Aधारयतां साधूनां कथमसंनिधिरित्यत आह 'जंपित्ति सूत्रं, यदप्यागमोक्तं 'वखं वा' चोलपट्टकादि 'पात्रं दीप अनुक्रम [२४२-२४६] ॥ १९८॥ 5*55-7-9-AS JanElicitatli valinabraryaing ~399~ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१७-२१|| नियुक्ति: [२६८...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१७-२१|| वा' अलावुकादि 'कम्बलं' वर्षाकल्पादि, 'पादपुंछन रजोहरणं, तदपि 'संयमलज्जार्थमिति संयमार्थ पानादि, तव्यतिरेकेण पुरुषमात्रेण गृहस्थभाजने सति संयमपालनाभावात् , लज्जार्थ वस्त्रं, तव्यतिरेकेणाङ्गनादौ विशिष्टश्रुतपरिणत्यादिरहितस्य निर्लजतोपपत्तेः, अथवा संयम एव लज्जा तदर्थ सर्वमेतद्वस्त्रादि धारयन्ति, पुष्टालम्बनविधानेन 'परिहरन्ति च परिभुञ्जते च' मूळरहिता इति सूत्रार्थः ॥१९॥ यतश्चैवमत:-'न सो'त्ति सूत्रं, नासौ निरभिष्वङ्गस्य वस्त्रधारणादिलक्षणः परिग्रह उक्तो, बन्धहेतुत्वाभावात्, केन? 'ज्ञातपुत्रेण ज्ञात-उदारक्षत्रियः सिद्धार्थः तत्पुत्रेण वर्धमानेन 'जात्रा' स्वपरपरित्राणसमर्थेन, अपि तु 'मी' असत्स्वपि वस्त्रादिष्वभिष्वङ्गः परिग्रह उक्तो, बन्धहेतुस्वाद, अर्थतस्तीर्थकरेण, ततोऽवधार्य 'इति' एवमुक्तो 'महर्षिणा गणधरेण, सूत्रे सेजंभव आहेति सूत्रार्थः॥ २०॥ आह-वखाद्यभावभाविन्यपि मूर्छा कथं वस्त्रादिभावे साधूनां न भविष्यति?, उच्यते, सम्यग्बोधेन तबीजभूतायोधोपघातादू, आह च-'सब्बत्यत्ति सूत्रं, 'ससर्वत्र' उचिते क्षेत्रे काले च 'उपधिना 'आगमोक्तेन वस्त्रादिना सहापि 'बुडा' यथावद्विदितवस्तुतत्वाः साधवः 'संरक्षणपरिग्रह' इति संरक्षणाय षण्णां जीवनिकायानां वस्त्रादिपरिग्रहे सत्यपि नाचरन्ति ममत्वमिति योगः, किं चानेन?, ते हि भगवन्तः 'अप्पात्मनोऽपि देह' इत्यात्मनो धर्मकायेऽपि विशिष्टप्रतिबन्धसंगति न कुर्वन्ति 'ममत्वम्' आत्मीयाभिधानं, वस्तुतत्वावबोधात्, तिष्ठतु तावदन्यत्, ततश्च देहवदपरिग्रह एव तदिति सूधार्थः ॥ २१॥ ***李二本成中六六六六****41** दीप अनुक्रम [२४२-२४६] वश०३४ ~ 400~ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२२-२५|| नियुक्ति: [२६८...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: % प्रत सूत्रांक दशवैका० हारि-वृत्तिः ॥१९॥ %E5%85 ||२२-२५|| ॐ अहो निच्चं तवो कम्म, सव्वबुद्धेहिं वपिणअं । जाव लज्जासमा वित्ती, एगभत्तं च ६ धर्मार्थभोअणं ॥ २२ ॥ संतिमे सुहुमा पाणा, तसा अदुव थावरा । जाइं राओ अपासंतो, कामा० २ उद्देशः कहमेसणि चरे? ॥ २३ ॥ उदउल्लं बीअसंसत्तं, पाणा निवडिया महिं । दिआ ताई विवजिजा, राओ तत्थ कहं चरे? ॥२४॥ एअंच दोसं दहणं, नायपुत्तेण भासि। सव्वाहारं न भुंजंति, निग्गंथा राइभोअणं ॥ २५॥ उक्तः पञ्चमस्थानविधिः, अधुना षष्ठमधिकृत्याह-'अहो'त्ति सूत्रं, 'अहो नित्यं तपःकर्मे ति अहो-विस्मये नित्यं नामापायाभावेन तदन्यगुणवृद्धिसंभवादप्रतिपात्येव तपाकर्म-तपोऽनुष्ठानं 'सर्वबुद्धैः सर्वतीर्थकरैः 'चर्णितं' देशितं, किंविशिष्टमित्याह-यावल्लज्जासमा वृत्ति' लजा-संयमस्तेन समा-सहशी तुल्या संयमावि-1 रोधिनीत्यर्थः वर्तनं वृत्तिः-देहपालना 'एकभक्तं च भोजनम्' एक भक्तं द्रव्यतो भावतश्च यस्मिन् भोजने तत्तथा, द्रव्यत एकम्-एकसंख्यानुगतं, भावत एकं-कर्मवन्धाभावादद्वितीय, तदिवस एव रागादिरहितस्य अन्यथा भावत एकत्वाभावादिति सूत्राथें ॥ २२॥ रात्रिभोजने प्राणातिपातसंभवेन कर्मवन्धसद्वितीयतां दर्शयति-'संतिमेत्ति सूत्रं, सन्त्येते-प्रत्यक्षोपलभ्यमानस्वरूपाः सूक्ष्माः 'प्राणिनों जीवाः नसा-दीन्द्रियादयः । ॥१९९॥ अथवा स्थावरा:-पृथिव्यादयः यान् प्राणिनो रात्रावपश्यन् चक्षुषा कथम् 'एषणीयं सत्त्वानुपरोधेन चरि दीप अनुक्रम [२४७-२५०] ~401~ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२२-२५|| नियुक्ति: [२६८...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-३] “दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२-२५|| यति भोश्यते च?, असंभव एव रात्रावेषणीयचरणस्येति सूत्रार्थः ॥ २३ ॥ एवं रात्री भोजने दोषमभिधायाधुना ग्रहणगतमाह-'उदउल्लं ति सूत्रं, उदका पूर्ववदेकग्रहणे तजातीयग्रहणात्सस्निग्धादिपरिग्रहः, तथा 'बीजसंसक्तं' बीजैः संसक्तं-मिश्रम्, ओदनादीति गम्यते, अथवा वीजानि पृथगभूतान्येच, संसक्तं | चारनालाद्यपरेणेति, तथा 'प्राणिन' संपातिमप्रभृतयो निपतिता 'मां' पृथिव्यां संभवन्ति, ननु दिवाप्येतत्संभवत्येव, सत्यं, किंतु परलोकभीरुश्चक्षुषा पश्यन् दिवा तान्युदकाादीनि विवर्जयेत्, रात्रौ तु तत्र *कथं चरति संयमानुपरोधेन ?, असंभव एवं शुद्धचरणस्येति सूत्राथेंः ॥ २४ ॥ उपसंहरनाह-एच'त्ति सूर्य, एतं च अनन्तरोदितं प्राणिहिंसारूपमन्यं चात्मविराधनादिलक्षणं दोषं दृष्ट्वा मतिचक्षुषा 'ज्ञातपुत्रेण भगवता 'भाषितम्' उक्तं 'सर्वाहारं चतुर्विधमप्यशनादिलक्षणमाश्रित्य न भुञ्जते 'निर्ग्रन्थाः साधवो रात्रिभोजनमिति सूत्रार्थः ॥२५॥ पुढविकायं न हिंसंति, मणसा वयस कायस । तिविहेणं करणजोएणं, संजया सुसमाहिआ॥२६॥ पुढविकायं विहिंसंतो, हिंसई उ तयस्सिए । तसे अ विविहे पाणे, चक्खुसे अ अचक्खुसे ॥ २७॥ तम्हा एअं विआणित्ता, दोसं दुग्गइवडणं । पुढ१ यद्यप्वपूर्णिदीपिकयोगांतीय तथापि प्रतिग्रहप्रतिलेखनादोषसंपातिमसत्योपरोधप्रहार्थ स्थाचेप्रासंभव इति मन्ये, सर्वादशेषु वर्शनात. दीप अनुक्रम [२४७-२५०] Erotter पृथ्विकाय आदिकायानां हिंसा अकरण-उपदेश: ~ 402~ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२६-३१|| नियुक्ति: [२६८...], भाष्यं [६२...] (४२) हारि-वृत्तिः ६ धर्मार्थकामा २ उद्देश: प्रत सूत्रांक ||२६-३१|| दशका. विकायसमारंभ, जावजीवाइ वजए ॥ २८॥ आउकायं न हिंसंति, मणसा वयस कायसा । तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिआ॥ २९ ॥ आउकार्य विहिंसंतो, हिंसई उ तयस्सिए । तसे अ विविहे पाणे, चक्खुसे अ अचक्खुसे ॥ ३०॥ तम्हा एवं विआणित्ता, दोसं दुग्गइवडणं । आउकायसमारंभं जावजीवाइ वज्जए ॥३१॥ IPI उक्तं व्रतपटम्, अधुना कायषटमुच्यते, तत्र पृथिवीकायमधिकृत्याह--'पुढवि'त्ति सूत्रं, पृथ्वीकार्य न हिं-12 सन्त्यालेखनादिना प्रकारेण मनसा वाचा कायेन, उपलक्षणमेतदत एवाह-'त्रिविधेन करणयोगेन' मनाप्रभृरातिभिः करणादिरूपेण, के न हिंसन्तीत्याह-संयताः साधवः 'सुसमाहिता' उगुक्ता इति सूत्रार्थः ॥२६॥ अत्रैव हिंसादोषमाह-'पुढवित्ति सूत्रं, पृथिवीकार्य हिंसन्नालेखनादिना प्रकारेण 'हिनस्त्येव तुरवधारहीणार्थों व्यापादयत्येव, 'तदाश्रितान्' पृथिवीश्रितान् 'सांश्च विविधान प्राणिनों' द्वीन्द्रियादीन् चशब्दात्स्था-IR |वरांश्चाप्कायादीन् 'चाक्षुषांश्चाचाक्षुषांश्च' चक्षुरिन्द्रियग्राह्यान ग्राह्याश्चेति सूत्रार्थः ॥२७॥ यस्मादेयं 'तम्ह'त्ति सूत्रं, तस्मादेवं विज्ञाय दोषं तत्तदाश्रितजीवहिंसालक्षणं 'दुर्गतिवर्धनं संसारवर्धनं पृथिवीकायसमारंभमालेखनादि 'यावज्जीवं' यावज्जीवमेव वर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ २८॥ उक्तः सप्तमस्थानविधिः, अधुनाऽष्टमस्थानविधिमधिकृत्योच्यते-'आउकार्यति सूत्रं, सूत्रत्रयमकायामिलापेन नेयं, ततश्चायमप्युक्त एव २९-३०-३१॥ दीप अनुक्रम [२५१-२५६] ||२०० Education मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 403~ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||३२-३५|| नियुक्ति : [२६८...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||३२-३५|| जायतेअं न इच्छंति, पावगं जलइत्तए । तिक्खमन्नयरंसत्, सवओऽवि दुरासयं ॥ ३२ ॥ पाईणं पडिणं वावि, उई अणुदिसामवि । अहे दाहिणओ वावि, दहे उत्तरओवि अ॥ ३३॥ भूआणमेसमाघाओ, हव्ववाहो न संसओ । तं पईवपयावट्ठा, संजया किंचि नारभे ॥३४॥ तम्हा एअं विआणित्ता, दोसं दुग्गइवड्वणं । तेउका यसमारंभ, जावजीवाइ वजए ॥३५॥ साम्प्रतं नवमस्थानविधिमाह-'जायतेति सूत्र, जाततेजा-अग्निः तं जाततेजसं नेच्छन्ति मनाप्रभृतिभिरपि 'पापक' पाप एव पापकस्तं, प्रभूतसत्त्वापकारित्वेनाशुभमित्यर्थः, किं नेच्छन्तीत्याह-'ज्वालयितुम्' उत्पादयितुं वृद्धिं वा नेतुं, किंविशिष्टमित्याह-'तीक्ष्णं' छेदकरणात्मकम् 'अन्यतरत्शस्त्रं सर्वशस्त्रम् , एकधारादिशस्त्रव्यवच्छेदेन सर्वतोधारशस्त्रकल्पमिति भावः, अत एव 'सर्वतोऽपि दुराश्रयं सर्वतोधारत्वेनाना-18 श्रयणीयमिति सूत्रार्थः ॥ ३२॥ एतदेव स्पष्टयनाह-पाईणं'ति सूत्रं, 'प्राच्या प्रतीच्यां वापि' पूर्वायां पश्चिमायां चेयर्थः, ऊर्द्धमनुदिक्ष्वपि, 'सुपा सुपो भवन्तीति सप्तम्यर्थे षष्ठी, विदिश्वपीत्यर्थः, अधो दक्षिणत-1 श्वापि 'दहति' दाद्यं भस्मीकरोत्युत्सरतोऽपि च, सर्वासु विक्षु विदिक्षु च दहतीति सूत्रार्थः ॥ ३३ ॥ यतश्चे १ वाचा कायेन घेण्याचकहानिरोधात. २ 'नय पूर्वा बादी' अदिदादी खपि वा पूर्वादयो भव सादिरिति शाकटायनसूपरहस्यामापप्रयोगशका. दीप अनुक्रम [२५७-२६०] JamElecatoan ime TERRORam मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 404~ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्तिः ) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||३६-३९|| नियुक्ति: [२६८...], भाष्यं [६२...] (४२) X दशवैका हारि-वृत्तिः ॥२०१॥ प्रत सूत्रांक ||३६-३९|| वमतो 'भूआण'त्ति सूत्र, 'भूतानां स्थावरादीनामेष 'आघात' आघातहेतुत्वादाघातः 'हव्यवाह अग्निः 'न धर्मार्थसंशय' इत्येवमेवैतद् आघात एवेति भावः, येनैवं तेन तं' हव्यवाहं 'प्रदीपप्रतापनार्थम् आलोकशीतापनो- कामा० दार्थ 'संयता' साधवः 'किञ्चित् संघहनादिनाऽपि नारभन्ते, संयतत्वापगमनप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ ३४ ॥||२ उद्देशः यस्मादेवं 'तम्ह'त्ति सूत्रं, व्याख्या पूर्ववत् ॥ ३५ ॥ अणिलस्स समारंभ, बुद्धा मन्नति तारिसं । सावज्जबहुलं चेअं, नेअं ताईहि सेविअं ॥३६ ॥ तालिअंटेण पत्तेण, साहाविहुअणेण वा । न ते वीइउमिच्छंति, वेआवेऊण वा परं ॥ ३७॥ जंपि वत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंछणं । न ते वायमुईरंति, जयं परिहरंति अ ॥ ३८ ॥ तम्हा एअं विआणित्ता, दोसं दुग्गइवडणं । वाउकायसमारंभ, जावजीवाइ वज्जए ॥ ३९॥ उक्तो नवमस्थानविधिः, साम्प्रतं दशमस्थानविधिमधिकृत्याह–'अणिलस्स'त्ति, 'अनिलस्य' वायोः 'समारम्भ तालवृन्तादिभिः करणं 'बुद्धाः तीर्थकरा 'मन्यन्ते जानन्ति 'तादृशं जाततेजासमारम्भसदृशं ।। 'सावद्यबहुलं' पापभूयिष्ठं चैतमितिकृत्वा सर्वकालमेव नैनं 'त्रातृभिः' सुसाधुभिः 'सेवितम्' आचरितं म XXSACR -4 दीप अनुक्रम [२६१-२६४] २०१॥ -2 Limelicatomim मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 405~ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||३६-३९|| नियुक्ति: [२६८...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||३६-३९|| न्यन्ते बुद्धा एवेति सूत्रार्थः ॥ ३६ ॥ एतदेव स्पष्टयति-तालियंटेण त्ति सूत्रं, तालवृन्तेन पत्रेण शाखाविधूननेन वेत्यमीषां स्वरूपं यथा षड्जीवनिकायिकायां, न ते साधवो वीजितुमिच्छन्त्यात्मानमात्मना, नापि वीजयन्ति परैरात्मानं तालवृन्तादिभिरेव, नापि वीजयन्तं परमनुमन्यन्त इति सूत्रार्थः ॥ ३७॥ उपकरणाहात्तद्विराधनेत्येतदपि परिहरन्नाह-जंपित्ति सून, यदपि वस्त्रं वा पात्रं वा कम्बलं वा पादपुञ्छनम् , अमीषां पूर्वोक्तं धर्मोपकरणं तेनापि न ते वातमुदीरयन्ति अयतप्रत्युपेक्षणादिक्रियया, किंतु यतं परिहरन्ति, परिभोगपरिहारेण धारणापरिहारेण चेति सूत्रार्थः ॥ ३८ ॥ यत एवं सुसाधुवर्जितोऽनिलसमारम्भः, 'तम्ह'त्ति सूत्र, व्याख्या पूर्ववत् ॥ ३९ ॥ उक्तो दशमस्थानविधिः, इदानीमेकादशमाश्रित्य उच्यते इति वणस्सई न हिंसंति, मणसा वयस कायसा । तिविहेण करणजोएणं, संजया सुसमाहिआ ॥ ४०॥ वणस्सई विहिंसंतो, हिंसई अतंयस्सिए । तसे अ विविहे पाणे, चक्खुसे अ अचक्खुसे ॥४१॥ तम्हा एअं विआणित्ता, दोसं दुग्गइवडणं । वणस्सइसमारंभ, जावजीवाइ वजए॥४२॥ तसकायं न हिंसंति, मणसा वयस कायसा । तिविहेण करणजोएणं, संजया सुसमाहिआ॥ ४३ ॥ तसकायं विहिंसंतो, हिंसई उ दीप अनुक्रम [२६१-२६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~406~ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य| वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||४०-४५|| नियुक्ति: [२६८...], भाष्यं [६२...] (४२) दशका. हारि-वृत्तिः ॥२०२॥ ६ धर्मार्थकामा० २ उद्देश: प्रत सूत्रांक ||४०-४५|| तयस्सिए। तसे अ विविहे पाणे, चक्खुसे अ अचक्खुसे ॥ ४४ ॥ तम्हा एअं विआ णित्ता, दोसं दुग्गइवडणं । तसकायसमारंभ, जावजीवाइ वजए ॥४५॥ 'वणस्सई' इत्यादि सूत्रत्रयं वनस्पतेरभिलापेन ज्ञेयं, ततश्चैकादशस्थानविधिरप्युक्त एव ॥४०॥४१॥४२॥ साम्प्रतं द्वादशस्थानविधिरुच्यते-'तसकाय'ति सूत्रं, 'ब्रसकायं' द्वीन्द्रियादिरूपं न हिंसन्त्यारम्भप्रवृत्त्या मनसा वाचा कायेन-तदहितचिन्तनादिना 'त्रिविधेन करणयोयेन' मनाप्रभृतिभिः करणादिना प्रकारेण 'संयताः' साधवः 'सुसमाहिता' उद्युक्ता इति सूत्रार्थः॥४३॥ तत्रैव हिंसादोषमाह-'तसकार्य'ति सूत्रं, त्र-18 सकार्य विहिंसन आरम्भप्रवृत्त्यादिना प्रकारेण हिनस्त्येव तुरवधारणार्थे व्यापादयत्येव तदाश्रितान्' नसान विविधांश्च प्राणिन:-तदन्यदीन्द्रियादीन, चशब्दात्स्थावरांश्च पृधिव्यादीन्, 'चाक्षुषानचाक्षुषांश्च' चक्षुरिन्द्रियग्राधानग्राद्यांश्चेति सूत्रार्थः ॥ ४४ ॥ यस्मादेवं 'तम्हसि सूत्रं, तस्मादेतं विज्ञाय दोषं तदाश्रितजीवहिंसालक्षणं दुर्गतिवर्धन संसारवर्धनं त्रयकायसमारम्भं तेन तेन विधिना 'यावजीवया' यावज्जीवमेव वर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ ४६॥ जाई चत्तारि भुजाई, इसिणाऽऽहारमाइणि । ताई तु विवजंतो, संजमं अणुपालय ॥४६॥ पिंडं सिजं च वत्थं च, चउत्थं पायमेव य । अकप्पिों न इच्छिज्जा, पडि RECEDESCRRESC दीप अनुक्रम [२६५-२७०] 12.२ Edream मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 407~ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||४६-४९|| नियुक्ति: [२६८...], भाष्यं [६२...] (४२) 28-4- 9 प्रत सूत्रांक ||४६-४९|| 5 %%**5554354-54-5 गाहिज कप्पिअं॥४७॥ जे निआगं ममायंति, कीअमुद्देसिआहडं । वह ते समणुजाणंति, इअ उत्तं महेसिणा॥ ४८॥ तम्हा असणपाणाइं, कीअमुद्देसिआहडं । व जयंति ठिअप्पाणो, निग्गंथा धम्मजीविणो ॥ ४९॥ उक्तो द्वादशस्थानविधिः, प्रतिपादितं कायषट्रम्, एतत्प्रतिपादनादुक्ता मूलगुणाः, अधुनैतवृत्तिभूतोत्तरलागुणावसरः, ते चाकल्पादयः षडत्सरगुणाः, यथोक्तम्-'अकप्पो गिहिभायण'मित्यादि, तत्राकल्पो द्विविधः। -शिक्षकस्थापनाकल्प: अकल्पस्थापनाकल्पश्च, तत्र शिक्षकस्थापनाकल्पः अनधीतपिण्डनियुक्त्यादिनाऽऽनीतमाहारादि न कल्पत इति, उक्तं च-"अणहीआ खलु जेणं पिंडेसणसेजवत्थपाएसा । तेणाणियाणि जतिणो कप्पंति ण पिंडमाईणि ॥१॥ उउबलुमि न अणला वासावासे उ दोऽवि णो सेहा । दिक्खिज्जती पायं ठवणाकप्पो इमो होइ ॥२॥" अकल्पस्थापनाकल्पमाह-'जाईति सूत्र, यानि चत्वारि 'अभोज्यानि' संयमापकारित्वेनाकल्पनीयानि 'ऋषीणां' साधूनाम् 'आहारादीनि' आहारशय्यावस्त्रपात्राणि तानि तु विलाधिना वजेंयन् 'संयम' सप्तदशप्रकारमनुपालयेत्, तदत्यागे संयमाभावादिति सूत्रार्थः ।। ४६॥ एतदेव स्पष्ट अनीताः बळ येन विद्वेषणाशयावरूपाषणाः । तेनानीतानि यतेः न कल्पन्ते पिण्डादीनि ॥१॥कबहे नानला पोवासेतु प्रयेऽपि न - क्षकाः । दीक्ष्यन्ते प्रायः स्थापनाकल्पोऽयं भवति ॥ २ ॥ -% CAL दीप अनुक्रम [२७१-२७४] -- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 408~ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य| वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||४६-४९|| नियुक्ति: [२६८...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||४६-४९|| दशवका यति-'पिंड'न्ति सूत्रं, पिण्डं शय्यां च वस्त्रं च चतुर्थ पात्रमेव च, एतत्स्वरूपं प्रकटार्थम् , अकल्पिकं नेच्छेत्, धर्मार्थहारि-वृत्तिः प्रतिगृह्णीयात् 'कल्पिक' यथोचितमिति सूत्रार्थः ॥४७॥ अकल्पिके दोषमाह-'जे'त्ति सूत्र, ये केचन द्र-1 कामा० व्यसाध्वादयो द्रव्यलिङ्गधारिणो 'नियागंति नित्यमामनितं पिण्डं 'ममायन्तीति परिगृह्णन्ति, तथा 'क्रीत-IM२ उद्देशः ॥२०३॥ मौदेशिकाहृतम्' एतानि यथा क्षुल्लकाचारकथायां 'वधं त्रसस्थावराविघातं 'ते' द्रव्यसाध्वादयः 'अनुजानन्ति' दातृप्रवृत्त्यनुमोदनेन इत्युक्तं च 'महर्षिणा' वर्धमानेनेति सूत्रार्थः ॥ ४८ ॥ यस्मादेवं 'तम्ह'त्ति सूत्रं, तस्मादशनपानादि चतुर्विधमपि यथोदितं क्रीतमौदेशिकमाहृतं वर्जयन्ति 'स्थितात्मानों' महासत्वा 'निग्रन्थाः' साधवो 'धर्मजीविनः संयमैकजीविन इति सूत्रार्थः ॥ ४९॥ कंसेसु कंसपाएसु, कुंडमोएसु वा पुणो । भुंजतो असणपाणाई, आयारा परिभस्सइ ॥५०॥ सीओदगसमारम्भे, मत्तधोअणछड्डणे।जाई छंनंति (छिप्पंति) भूआई, दिट्ठो तत्थ असंजमो ॥५१॥ पच्छाकम्मं पुरेकम्म, सिआ तत्थ न कप्पइ । एअमटुं न मुंजंति, निग्गंथा गिहिभायणे ॥ ५२ ॥ उक्तोऽकल्पस्तदभिधानात्रयोदशस्थानविधिः, इदानी चतुर्दशस्थानविधिमाह-कंसेमुत्ति सूत्रं, 'कसेषु करोटकादिषु 'कंसपात्रेषु' तिलकादिषु 'कुण्डमोदेषु हस्तिपादाकारेषु मृन्मयादिषु भुञ्जानोऽशनपानादि तद-14 CAREER दीप अनुक्रम [२७१-२७४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: निर्ग्रन्थानाम् संयम-मर्यादा उपदेश: ~ 409~ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||५०-५२|| नियुक्ति : [२६८...], भाष्यं [६२...] (४२) FA प्रत सूत्रांक ||५०-५२|| न्यदोषरहितमपि 'आचारात्' श्रमणसंबन्धिनः 'परिभ्रश्यति' अपैतीति सूत्रार्थः ॥५०॥ कथमित्याह-'सी ओदगं'ति सूत्रं, अनन्तरोद्दिष्टभाजनेषु श्रमणा भोक्ष्यन्ते भुक्तं वैभिरिति शीतोदकेन धावनं कुर्वन्ति, तदा 'शीतोदकसमारम्भे' सचेतनोदकेन भाजनधावनारम्भे तथा 'मात्रकधावनोज्झने कुण्डमोदादिषु क्षालनजलत्यागे यानि 'क्षिप्यन्ते' हिंस्यन्ते 'भूतानि' अपकायादीनि सोऽत्र-गृहिभाजनभोजने 'दृष्ट' उपलब्धः केवल ज्ञानभावता असंयमः तस्य भोक्तरिति सूत्रार्थः ॥५१॥ किंच-पच्छाकम्मति सूत्रं, पश्चात्कर्म पुर:कर्म स्थात्-तत्र कदाचिद्भवेदहिभाजनभोजने, पश्चात्पुरकर्मभावस्तूक्तवदित्येके, अन्ये तु भुञ्जन्तु तावत्सा वो वयं पश्चादोक्ष्याम इति पश्चात्कर्म व्यत्ययेन तु पुरकर्म व्याचक्षते, एतच न कल्पते धर्मचारिणां, यतश्वमतः 'एतदर्थं' पश्चात्कर्मादिपरिहारार्थं न भुञ्जते निग्रन्थाः, केत्याह-'गृहिभाजने' अनन्तरोदित इति सूत्रार्थः ॥५२॥ आसंदीपलिअंकसु, मंचमासालएसु वा । अणायरिअमजाणं, आसइत्तु सइनु वा ॥ ५३॥ नासंदीपलिकेसु, न निसिज्जा न पीढए । निग्गंथाऽपडिलेहाए, बुद्धवुत्तमहिटगा ॥ ५४॥ गंभीरविजया एए, पाणा दुप्पडिलेहगा । आसंदी पलिअंको अ, एअमटुं विवजिआ ॥ ५५॥ दीप अनुक्रम [२७५-२७७] CREX मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 410~ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||५३-५५|| नियुक्ति: [२६८...], भाष्यं [६२...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-३] “दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ॐ % प्रत सूत्रांक ||५३-५५|| % दशका०४ उक्तो गृहिभाजनदोषः, तदभिधानाचतुर्दशस्थानविधिः, साम्प्रतं पञ्चदशस्थानविधिमाह-आसंदित्तिधर्मार्थहारि-वृत्तिः सूत्रं, आसन्दीपर्यको प्रतीतो, तयोरासन्दीपर्ययोः प्रतीतयोः, मचाशालकयोश्च, मञ्चः-प्रतीतः आशाल- कामा० कस्तु-अवष्टम्भसमन्वित आसनविशेषः एतयोः 'अनाचरितम्' अनासेवितम् 'आर्याणां' साधूनाम् 'आसि- २ उद्देश्य ॥२०४॥ तुम् उपवेष्टुं 'स्खप्तुं वा निद्रातिवाहनं वा कर्तु, शुषिरदोषादिति सूत्रार्थः ॥ ५३॥ अत्रैवापवादमाह-'नासंदिति सूत्रं, न 'आसन्दीपर्ययोः प्रतीतयोः न निषद्यायाम-एकादिकल्परूपायां न पीठके-येत्रमयादी SI'निर्ग्रन्थाः' साधवः 'अप्रत्युपेक्ष्य' चक्षुरादिना, निषीदनादि न कुर्वन्तीति वाक्यशेषः, नञ् सर्वत्राभिसंबध्यते, MIन कुर्वन्तीति । किविशिष्टा निर्ग्रन्थाः?, इत्याह-'बुद्धोक्ताधिष्ठातार तीर्थकरोक्तानुष्ठानपरा इत्यर्थः, इह चाप्रत्युपेक्षितासन्धादौ निषीदनादिनिषेधात् धर्मकथादी राजकुलादिषु प्रत्युपेक्षितेषु निषीदनादिविधिमाह, विशेषणान्यथानुपपत्तेरिति सूत्रार्थः ॥ ५४॥ तत्रैव दोषमाह-'गंभीर'ति सूत्र, गम्भीरम्-अप्रकाशं विजय -आश्रयः अप्रकाशाश्रया 'एते' प्राणिनामासन्धादया, एवं च प्राणिनो दुष्प्रत्युपेक्षणीया एतेषु भवन्ति, पीड्यन्ते चैतदुपवेशनादिना, आसन्दः पर्यकश्च चशब्दान्मश्चादयश्च एतदर्थ विवर्जिताः साधुभिरिति सूत्रार्थः॥५६॥ गोअरग्गपविट्रस्स, निसिज्जा जस्स कप्पइ। इमेरिसमणायारं, आवज्जइ अबोहिअं ॥२०४॥ ॥५६॥ विवत्ती बंभचेरस्स, पाणाणं च वहे वहो । वणीमगपडिग्धाओ, पडिकोहो %A5% दीप अनुक्रम [२७८-२८०] Edream ~ 411~ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||५६ -५९|| दीप अनुक्रम [ २८१ -२८४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [६], उद्देशक [-] मूलं [ १५...] / गाथा || ५६-५९ || निर्युक्ति: [ २६८...], भाष्यं [६२...] अगारिणं ॥ ५७ ॥ अगुत्ती बंभचेरस्स, इत्थीओ वावि संकणं । कुसीलवडणं ठाणं, दूरओ परिवज्जए ॥ ५८ ॥ ति०हमन्नयरागस्स, निसिजा जस्स कप्पई । जराए अभिभूअस्स, वाहिअस्स तवसिणो ॥ ५९ ॥ उक्तः पर्यङ्कस्थानविधिः, तदभिधानात्पञ्चदशस्थानम्, इदानीं पोडशस्थानमधिकृत्याह - 'गोअरग्ग'ति सूत्र, गोचराग्रप्रविष्टस्य भिक्षाप्रविष्टस्येत्यर्थः, निषद्या यस्य कल्पते, गृह एवं निषीदनं समाचरति यः साधुरिति भावः, स खलु 'एवम्' ईदृशं वक्ष्यमाणलक्षणमनाचारम् 'आपयते' प्राप्नोति 'अबोधिकं' मिथ्यात्वफलमिति सूत्रार्थः ॥ ५६ ॥ अनाचार माह - 'वित्तित्ति सूत्रं विपत्तिर्ब्रह्मचर्यस्य- आज्ञाखण्डनादोषतः साधुसमाचरणस्य प्राणिनां च वधे वधो भवति, तथा संबन्धादाधाकर्मादिकरणेन, वनीपकप्रतीघातः, तदाक्षेपणाअदित्साभिधानादिना प्रतिक्रोषश्चागारिणां तत्खजनानां च स्यात् तदाक्षेपदर्शनेनेति सूत्रार्थः ॥ ५७ ॥ तथा 'अगुत्ति'ति सूत्रं, अगुतिर्ब्रह्मचर्यस्य तदिन्द्रियाद्यवलोकनेन, स्त्रीतश्वापि शङ्का भवति तदुत्फुल्ललोचनदर्शनादिना अनुभूतगुणायाः, कुशीलवर्धनं स्थानम् उक्तेन प्रकारेणा संयमवृद्धिकारकं, दूरतः 'परिवर्जयेत्' परित्यजेदिति सूत्रार्थः ॥ ५८ ॥ सूत्रेणैवापवादमाह - 'तिन्ह'ति सूत्रं, 'त्रयाणां वक्ष्यमाणलक्षणानाम् 'अन्यतरस्य' एकस्य निषया गोचरप्रविष्टस्य यस्य कल्पते औचित्येन, तस्य तदासेवने न दोष इति वाक्यशेषः, कस्य + पुनः कल्पत इत्याह--' जरयाऽभिभूतस्य' अत्यन्तवृद्धस्य 'व्याधिमतः' अत्यन्तमशक्तस्य 'तपखिनो' विकृष्टक्ष दश० ३५ La Edocanon Far P&Personal Use Chily मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः ~412~ wyg Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६०-६३|| नियुक्ति : [२६८...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक //६० -६३|| दशबैकापकस्य । एते च भिक्षाटनं न कार्यन्त एव, आत्मलब्धिकाद्यपेक्षया तु सूत्रविषयः, न चैतेषां प्राय उक्तदोषाः धर्मार्थहारि-वृत्तिः। संभवन्ति, परिहरन्ति च वनीपकप्रतिघातादीति सूत्रार्थः ॥ ५९॥ कामा० वाहिओ वा अरोगी वा, सिणाणं जो उ पत्थए । वुकतो होइ आयारो, जढो हवइ २ उद्देशः ।। २०५॥ संजमो ॥ ६० ॥ संतिमे सुहमा पाणा, घसासु भिलुगासु अ । जे अ भिक्खू सिणायंतो, विअडेणुप्पलावए ॥ ६१ ॥ तम्हा ते न सिणायंति, सीएण उसिणेण वा । जावज्जीवं वयं घोरं, असिणाणमहिट्ठगा ॥ ६२ ॥ सिणाणं अदुवा ककं, लुद्धं पउम गाणि अ । गायस्सुव्बट्टणटाए, नायरंति कयाइवि ॥ ६३ ॥ उक्तो निषधास्थानविधिः, तदभिधानात्षोडशस्थानं, साम्प्रतं सप्तदशस्थानमाह-वाहिओ वत्ति सूत्रं, व्याधिमान् वा' व्याधिग्रस्तः 'अरोगी वा रोगविषमुक्तो वा 'स्लानम्' अङ्गप्रक्षालनं यस्तु 'प्रार्थयते।। सेवत इत्यर्थः, तेनेत्थंभूतेन व्युत्क्रान्तो भवति 'आचारों बाद्यतपोरूपः, अस्लानपरीषहानतिसहनात्, "जदः' परित्यक्तो भवति 'संयमः' प्राणिरक्षणादिका, अप्कायादिविराधनादिति सूत्रार्थः ॥ ३०॥ मासु-ना दि करनानेन कथं संयमपरित्याग इत्याह-संतिम त्ति सूत्रं, सन्ति 'एते' प्रत्यक्षोपलभ्यमानखरूपाः 'सूक्ष्मा ॥२०५॥ श्लक्ष्णाः 'प्राणिनों' द्वीन्द्रियादयः 'घसासु' शुषिरभूमिषु 'भिलुगासु च' तथाविधभूमिराजीषु च, यांस्तुत दीप अनुक्रम [२८५-२८८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 413~ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६०-६३|| नियुक्ति: [२६८...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक //६० -६३|| भिक्षुः स्लानजलोज्झनक्रियया 'विकृतेन' प्रासुकोदकेनोत्प्लावयति, तथा च तदिराधनातः संयमपरित्याग इति सूत्रार्थः ॥ ३१ ॥ निगमयन्नाह तम्हत्ति सूत्रं, यस्मादेवमुक्तदोषप्रसंगस्तस्मात् 'ते' साधवो न स्लान्ति शीतेन बोष्णेनोदकेन, प्रासुकेनाप्रासुकेन वेत्यर्थः, किंविशिष्टास्त इत्याह-यावज्जीवम्' आजन्म व्रतं 'घोरं'। दुरनुचरमलानमाश्रित्य 'अधिष्ठातार' अस्यैव कतार इति सूत्रार्थः ॥६२॥ किंच 'सिणाणं'ति सूत्र, 'स्लान' पूर्वो-18 दिक्तम्, अथवा 'कल्क' चन्दनकल्कादि''लोधं गन्धद्रव्यं 'पद्मकानि च' कुमकेसराणि, चशब्दादन्यथैवंविधं 13 गात्रस्य 'उद्वर्तनार्थम्' उद्वर्त्तननिमित्तं नाचरन्ति कदाचिदपि, यावज्जीवमेव भावसाधव इति सूत्रार्थः ॥१३॥ नगिणस्स वावि मुंडस्स, दीहरोमनहसिणो । मेहुणा उवसंतस्स, किं विभूसाइ कारिअं? ॥ ६४ ॥ विभूसावत्तिअं भिक्खू , कम्मं बंधइ चिक्कणं । संसारसायरे घोरे, जेणं पडइ दुरुत्तरे ॥६५॥ विभूसावत्ति चेअं, बुद्धा मन्नंति तारिसं । सावज्जबहुलं चेअं, नेयं ताईहिं सेविअं ॥६६॥ उक्तोऽस्नानविधिः, तदभिधानात्सप्तदशस्थानं, साम्प्रतमष्टादशं शोभावर्जनास्थानमुच्यते-शोभायां नास्ति दोषः 'अलङ्कृतश्चापि चरेद्धर्म'मित्यादिवचनाद् (इति) पराभिप्रायमाशङ्कयाह-'नगिणस्सत्ति सूत्रं, 'नग्नस्य ४ वापि' कुचेलवतोऽप्युपचारनग्नस्य निरुपचरितस्य नग्नस्य वा जिनकल्पिकस्येति सामान्यमेव सूत्रं मुण्डस्प दीप अनुक्रम [२८५-२८८] Edrramm.in. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~414~ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६४-६६|| नियुक्ति: [२६८...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||६४-६६|| दशवैका० द्रव्यभावाभ्यां 'दीर्घरोमनखवत' दीर्घरोमवतः कक्षादिषु दीर्घनखवतो हस्तादौ जिनकल्पिकस्य, इतरस्य तु धर्मार्थहारि-पत्तिःप्रमाणयुक्ता एव नखा भवन्ति यथाऽज्यसाधूनां शरीरेषु तमस्यपि न लगन्ति । मैथुनाद् 'उपशान्तस्य' उप-1&| कामा० रतस्य, किं 'विभूषया' राढ्या कार्य?, न किञ्चिदिति सूत्रार्थः ॥ ६४ ॥ इत्थं प्रयोजनाभावमभिधायापाय- २ उद्देशः ॥२०६॥ माह-'विभूसति सूत्रं, 'विभूषाप्रत्ययं' विभूषानिमित्तं 'भिक्षु।' साधुः कर्म बधाति 'चिकणं' दारुणं, संसा रसागरे 'घोरे' रौद्रे येन कर्मणा पतति 'दुरुत्तारें अकुशलानुबन्धतोऽत्यन्तदीर्घ इति सूत्रार्थः ॥ ६॥ एवं बाह्यविभूषापायमभिधाय संकल्पविभूषापायमाह-विभूस'त्ति सूत्रं, 'विभूषाप्रत्ययं विभूषानिमित्तं चेत | एवं चैवं च यदि मम विभूषा संपचत इति, तत्प्रवृत्त्यङ्गं चित्तमित्यर्थः, 'बुद्धा तीर्थकरा'मन्यन्ते' जानन्ति | 'तादृशं रौद्रकर्मबन्धहेतुभूतं विभूषाक्रियासदृशं 'सावद्यबहुलं चैतद्' आर्तध्यानानुगतं चेता, नैतदित्थंभूतं त्रातृभिः' आत्मारामैः साधुभिः 'सेवितम्' आचरितं, कुशलचित्तत्त्वात्तेषामिति सूत्रार्थः ।। ६६ ॥ खवंति अप्पाणममोहदंसिणो, तवे रया संजमअजवे गुणे। धुणंति पावाई पुरेकडाई, नवाई पाबाई न ते करंति ॥ ६७ ॥ सओवसंता अममा अकिंचणा, सविजविजाणु ॥२०६॥ गया जसंसिणो। उउप्पसन्ने विमलेव चंदिमा, सिद्धिं विमाणाई उति ताइणो ॥ ६८॥ तिबेमि ॥ छटुं धम्मत्थकामज्झयणं समत्तं ॥६॥ दीप अनुक्रम [२८९-२९१] 2-3- 4AC Eramine मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 415~ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६७-६८|| नियुक्ति: [२६८...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||६७-६८|| वरॐ** उक्त शोभावर्जनस्थानविधिः, तदभिधानादष्टादशं पदं, तदभिधानाचोत्तरगुणाः, साम्प्रतमुक्तफलप-| दर्शनेनोपसंहरनाह-खर्वति'त्ति सूत्रं, क्षपयन्त्यात्मानं तेन तेन चित्रायोगेनानुपशान्तं शमयोजनेन जीवं,I8 किंविशिष्टा इत्याह-'अमोहदर्शिनः' अमोहं ये पश्यन्ति, यथावत्पश्यन्तीत्यर्थः, त एव विशेष्यन्ते-तपसिअनशनादिलक्षणे रताः-सक्ताः, किंविशिष्टे तपसीत्याह-संयमार्जवगुणे' संयमार्जबे गुणी यस्य तपसस्तस्मिन् , संयमऋजुभावप्रधाने, शुद्ध इत्यर्थः, त एवंभूता 'धुन्वन्ति' कम्पयन्त्यपनयन्ति पापानि 'पुराकृतानि जन्मान्तरोपात्तानि 'नवानि' प्रत्यग्राणि पापानि न 'ते' साधकः कुर्वन्ति, तथाऽप्रमत्तत्वादिति सूत्रार्थः ॥१७॥ किंच-'सदोवसंत'त्ति सूत्रं, 'सदोपशान्ताः सर्वकालमेव क्रोधरहिताः, सर्वत्राममा-ममत्वशून्याः 'अकि ना' हिरण्यादिमिध्यात्वादिद्रव्यभावकिञ्चनविनिर्मुक्ताः, वा-आत्मीया विद्या स्वविद्या-परलोकोपकारिणी केवल श्रुतरूपा तया खविद्यया विद्ययानुगता-युक्ताः, न पुनः परविद्यया इहलोकोपकारिण्येति. त एष विशेष्यन्ते-'यशखिन: शुद्धपारलौकिकयशोवन्तः, त एवंभूता ऋतौ प्रसन्ने' परिणते शरत्कालादौ विमल इव चन्द्रमाः चन्द्रमा इव विमला, इत्येवंकल्पास्ते भावमलरहिताः 'सिद्धिं' निर्वृति तथा सावशेषकर्माणो | विमानानि' सौधर्मावतंसकादीनि 'उपयान्ति' सामीप्येन गच्छन्ति 'त्रातारः' स्वपरापेक्षया साधवः, इति ब्रवीमीति पूर्ववत् । उक्तोऽनुगमः, साम्प्रतं नयाः, ते च पूर्ववत्, ॥ १८॥ व्याख्यातं षष्ठाध्ययनम् इति श्रीहरिभद्रसूरिविरचितायां दशवैकालिकवृत्तौ षष्ठमध्ययनम् ॥६॥ दीप अनुक्रम [२९२-२९३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: अत्र षष्ठं अध्ययनं परिसमाप्तं ~ 416~ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [२९३..] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [७], उद्देशक [ - ], मूलं [ १५...] / गाथा ||६८...|| निर्युक्तिः [२६९], भाष्यं [६२...] दशवैका० हारि-वृत्तिः ॥ २०७ ॥ Jam Education अथ वाक्यशुद्धयाख्यं सप्तममध्ययनम् । साम्प्रतं वाक्यशुद्ध्यायमध्ययनं प्रारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः - इहानन्तराध्ययने गोचरप्रविष्टेन सता स्वाचारं पृष्टेन तद्विदाऽपि न महाजनसमक्षं तचैव विस्तरतः कथयितव्य (आचार) इति, अपि त्वालये गुरबो वा कथयन्तीति वक्तव्यमित्येतदुक्तम्, इह त्वालयगतेनापि तेन गुरुणा वा वचनदोषगुणाभिज्ञेन निरवद्यवचसा कथयितव्य इत्येतदुच्यते, उक्तं च- “सावजणवज्जाणं वयणाणं जो न याणइ विसेसं । वोतुंपि तस्स ण खमं किमंग पुण देसणं कार्ड १ ॥ १ ॥" इत्यनेनाभिसंबन्धेनायातमिदमध्ययनम् अस्य चानुयोगद्वारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्यावन्नामनिष्पन्नो निक्षेपः, तत्र वाक्यशुद्धिरिति द्विपदं नाम, तत्र वाक्यनिक्षेपाभिधानायाह निक्खेवो अ (उ) को वक्के दव्वं तु भासव्वाई । भावे भासासहो तस्स य एगडिआ इणमो ॥ २६९ ॥ व्याख्या - निक्षेपस्तु 'चतुष्को' नामस्थापनाद्रव्यभावलक्षणो 'वाक्ये' वाक्यविषयः, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, 'द्रव्यं तु' ब्रन्यवाक्यं पुनज्ञे शरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तं 'भाषाद्रव्याणि' भाषकेण गृहीतान्यनुच्चार्यमाणानि, 'भाव' इति भाववाक्यं 'भाषाशब्द:' भाषाद्रव्याणि शब्दत्वेन परिणतान्युच्चार्यमाणानीत्यर्थः । तस्य तु वाक्यस्य एकार्थिकानि 'अमूनि' वक्ष्यमाणलक्षणानीति गाथार्थः ॥ वर्क वयणं च गिरा सरस्साई भारही अ गो वाणी । भासा पन्नवणी देसणी अ वयजोग जोगे अ ॥ २७० ॥ १] सावधानयोर्वचनयोर्यो न जानाति विशेषम्। वक्तुमपि न तस्य क्षमं किमङ्ग पुनर्देशनां कर्तुम् ॥१॥ For P&Personal Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४२] मूल सूत्र [३] “दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः अध्ययनं -७- "वाक्यशुद्धि" आरभ्यते | अस्य अध्ययने उद्देशक: नास्ति, शिर्षकस्थाने यत् "२ उद्देश" इति मुद्रितं तत् मुद्रणदोष एव अस्ति ~ 417 ~ ७ वाक्य शुज्य० भाषावरूपम् २ उद्देश ॥ २०७ ॥ niryagy Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६८...|| नियुक्ति: [२७०], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सुत्रांक ||६८..|| व्याख्या-वाक्यं वचनं च गी. सरस्वती भारती च गौर्वाक भाषा प्रज्ञापनी देशनी च वाग्योगो योगश्च, भएतानि निगदसिद्धान्येवेति गाथार्थः ॥ पूर्वोद्दिष्टां द्रव्यादिभाषामाह दल्वे तिविहा गहणे अ निसिरणे तह भवे पराघाए । भावे दव्वे अ सुए चरित्तमाराहणी चेव ।। २७१ ।। व्याख्या-'द्रव्य इति द्वारपरामर्शः, द्रव्यभाषा त्रिविधा-ग्रहणे च निसर्ग तथा भवेत्पराघाते । तत्र ग्रहणं भाषाद्रब्याणां काययोगेन यत् सा ग्रहणद्रव्यभाषा, निसर्गस्तेषामेव भाषाद्रव्याणां वाग्योगेनोत्स-८ गक्रिया, पराघातस्तु निसृष्टभाषाद्रब्यस्तदन्येषां तथापरिणामापादनक्रियावत्प्रेरणम्, एषा त्रिप्रकाराऽपि क्रिया द्रव्ययोगस्य प्राधान्येन विवक्षितत्वात् द्रव्यभाषेति । 'भाव' इति द्वारपरामर्शः, भावभाषा त्रिविधैव, द्रव्ये च श्रुते चारित्र इति, द्रव्यभावभाषा श्रुतभावभाषा चारित्रभावभाषा च, तत्र द्रव्यं प्रतीत्योपयुक्तैर्या भाष्यते सा द्रव्यभावभाषा, एवं श्रुतादिष्वपि वाच्यम्, इयं त्रिप्रकारापि वभिप्रायात्तद्रव्यभावप्राधान्यापेक्षया भावभाषा, इयं चौघत एवाराधनी चैवेति, द्रव्याचाराधनात्, चशब्दाद्विराधना चोभयं चानुभयं च भवति, द्रव्याद्याराधनादिभ्य इति । आह-इह द्रव्यभाववाक्यखरूपमभिधातव्यं, तस्य प्रस्तुतखात्, तत्किमनया भाषयेति, उच्यते, वाक्यपर्यायत्वाद्भाषाया न दोषः, तत्त्वतस्तस्यैवाभिधानादिति गाथासमुदायार्थः, अवयवार्थ तु वक्ष्यति । तत्र द्रव्यभावभाषामधिकृत्याराधन्यादिभेदयोजनामाह आराहणी उ दवे सचा मोसा विराहणी होइ । सचामोसा मीसा असचमोसा य पडिसेहा ॥ २७२ ॥ SACCASEXCOMSANSAR दीप अनुक्रम [२९३..] 44-45-455 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: द्रव्यभाषाया: अर्थ एवं भेदा: ~418~ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६८...|| नियुक्ति: [२७३], भाष्यं [६२...] (४२) शुद्ध प्रत सूत्रांक ||६८..|| दशवैका० व्याख्या-आराध्यते-परलोकापीडया यथावदभिधीयते वस्त्वनयेत्याराधनी तु 'द्रव्य' इति द्रव्यविषया N७वाक्यहारि-वृत्तिः भावभाषा सत्या, तुशब्दात् द्रव्यतो विराधन्यपि काचित्सत्या, परपीडासंरक्षणफलभावाराधनादिति, मृषा हा विराधनी भवति, तद्रव्यान्यधाभिधानेन तद्विराधनादिति भावः, सत्यामृषा मिश्रा, मिश्रेत्याराधनी विरा- भाषास्व धनी च, असत्यामृषा च प्रतिषेध' इति नाराधनी नापि विराधनी, तद्बाच्यद्व्ये तथोभयाभावादिति, आसां । Bाच स्वरूपमुदाहरणैः स्पष्ठीभविष्यतीति गाथार्थः ॥ तत्र सत्यामाह २ उद्देश जणवयसम्मयठवणा नामे रूवे पडुच्च सच्चे अ । ववहारभावजोगे दसमे ओवम्मसचे अ॥ २७३ ॥ व्याख्या-सत्यं तावद्वाक्यं दशप्रकारं भवति, जनपदसत्यादिभेदात्, तत्र जनपदसत्यं नाम नानादेश-18 भाषारूपमप्यविप्रतिपत्त्या यदेकार्थप्रत्यायनव्यवहारसमर्थमिति, यथोदकार्थे कोणकादिषु पयः पिचमुदकं । नीरमित्याद्यदुष्टविवक्षाहेतुत्वान्नानाजनपदेष्विष्टार्थप्रतिपत्तिजनकत्वाद्वयवहारप्रवृत्तेः सत्यमेतदिति, एवं शेष-18 सम्वपि भावना कार्या । संमतसत्यं नाम कुमुदकुवलयोत्पलतामरसानां समाने पङ्कसंभवे गोपादीनामपि सं-Ik मतमरविन्दमेव पङ्कजमिति । स्थापनासत्यं नाम अक्षरमुद्राविन्यासादिषु यथा माषकोऽयं कार्षापणोऽयं शतहै मिदं सहस्रमिदमिति । नामसत्यं नाम कुलमवर्धयन्नपि कुलवर्द्धन इत्युच्यते धनमवर्षयमपि धनवर्द्धन इत्युच्यते अयक्षश्च यक्ष इति । रूपसत्यं नाम अतद्गुणस्य तथारूपधारणं रूपसत्यं, यथा प्रपञ्चयतेः प्रवजितरूपधारण C ॥२०८॥ शामिति । प्रतीत्यसत्यं नाम यथा अनामिकाया दीर्घत्वं हखवं चेति, तथाहि-अस्थानन्तपरिणामस्य द्रव्यस्य दीप अनुक्रम [२९३..] LimElication.in मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: | अथ भाषा स्वरुपम् प्रकाश्यते ~419~ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||ε6..|| दीप अनुक्रम [२९३..] Education in “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [७], उद्देशक [ - ], मूलं [ १५...] / गाथा ||६८...|| निर्युक्तिः [२७३], भाष्यं [६२...] तत्तत्सहकारिकारणसंनिधानेन तत्सद्रूपमभिव्यज्यत इति सत्यता । व्यवहारसत्यं नाम दह्यते गिरिर्गलति भाजनमनुदरा कन्या अलोमा एडकेति गिरिगततृणादिदाहे व्यवहारः प्रवर्तते तथोदके च गलति सति तथा संभोगजबीजप्रभवोदराभावे च सति तथा लवनयोग्यलोमाभावे सति । भावसत्यं नाम शुक्ला बलाका, सत्यपि पञ्चवर्णसंभवे शुक्लवर्णोत्कटत्वाच्छुक्क्रेति । योगसत्यं नाम छन्त्रयोगाच्छत्री दण्डयोगाद्दण्डीत्येवमादि दशममौपम्यसत्यं च तत्रौपम्यसत्यं नाम समुद्रवत्तदाग इति गाथार्थः ॥ उक्ता सत्या, अधुना मृषामाह कोहे माणे माया लोभे पेज्जे सहेब दोसे अ। हासभए अक्वाइय उवघाट निस्सिआ दसमा ।। २७४ || व्याख्या - क्रोध इति क्रोधनिसृता, यथा क्रोधाभिभूतः पिता पुत्रमाह-न त्वं मम पुत्रः, यद्वा क्रोधाभिभूतो वक्ति तदाशयविपत्तितः सर्वमेवासत्यमिति, एवं माननिस्सृता मानाध्मातः कचित्केनचिदल्पधनोऽपि पृष्ट आह- महाधनोऽहमिति मायानिसृता मायाकारप्रभृतय आहुः नष्टो गोलक इति, लोभनिसृता वणि| क्प्रभृतीनामन्यथाक्रीतमेवेत्थमिदं क्रीतमित्यादि, प्रेमनिसृता अतिरक्तानां दासोऽहं तवेत्यादि, द्वेषनिसृता | मत्सरिणां गुणवत्यपि निर्गुणोऽयमित्यादि, हास्यनिस्सृता कान्दर्पिकानां किंचित्कस्यचित्संबन्धि गृहीत्वा पृष्ठानां न दृष्टमित्यादि, भयनिस्सृता तस्करादिगृहीतानां तथा तथा असमञ्जसाभिधानम्, आख्यायिकानिसृता तत्प्रतिबद्धोऽसत्प्रलापः, उपघातनिस्सृता अचौरे चौर इत्यभ्याख्यानवचनमिति गाथार्थः ॥ उक्ता मृषा, साम्प्रतं सत्यामृषामाह For P&Personality मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ४२ ], मूल सूत्र [३] “दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः ~420~ wwayang Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||&6..|| दीप अनुक्रम [२९३..] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [ १५...] / गाथा ||६८...|| निर्युक्ति: [ २७४], भाष्यं [ ६२...] दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ २०९ ॥ Edocanon in उपपन्नविगयमीसग जीवमजीवे अ जीवअज्जीवे । वहणंतमीसग खलु परित्त अद्धा अ अद्धद्धा ।। २७५ ॥ व्याख्या- 'उत्पन्नविगतमिश्र के ति उत्पन्नविषया सत्यामृषा यथैकं नगरमधिकृत्यास्मिन्नद्य दश दारका उत्पन्ना इत्यभिदधतस्तन्यूनाधिकभावे, व्यवहारतोऽस्याः सत्यामुषात्वात् श्वस्ते शतं दास्यामि इत्यभिधाय पञ्चाशत्स्वपि दत्तेषु लोके मृषात्वादर्शनात्, अनुत्पन्नेष्वेवादत्तेष्वेव (च) मृषात्वसिद्धेः, सर्वथा क्रियाभावेन स|र्वथा व्यत्ययादित्येवं विगतादिष्वपि भावनीयमिति, तथाच विगतविषया सत्यामृषा यथैकं ग्राममधिकृत्यास्मिन्नय दश वृद्धा विगता इत्यभिदधतस्तन्यूनाधिकभावे, एवं मिश्रका सत्यामृषा उत्पन्नविगतोभयसत्यामृषा, यथैकं पत्तनमधिकृत्याहास्मिन्नच दश द्वारका जाता दश च वृद्धा विगता इत्यभिदधतस्तश्यूनाधिक भावे, जीवमिश्रा जीवविषया सत्यामृषा यथा जीवन्मृतकृमिराशी जीवराशिरिति, अजीवमिश्रा च-अजीवविषया | सत्यामृषा यथा तस्मिन्नेव प्रभूतमृतकृमिराशावजीवराशिरिति, जीवाजीवमिश्रेति-जीवाजीवविषया सत्यामृषा यथा तस्मिन्नेव जीवन्मृतकृमिराशौ प्रमाणनियमेनैतावन्तो जीवन्त्येतावन्तश्च मृता इत्यभिदधतस्तन्यूनाधिकभावे । 'तथानन्तमिश्रा खल्बिति अनन्तविषया सत्यामृषा यथा मूलकन्दादौ परीतपत्रादिमत्यनन्तकायोऽयमित्यभिदधतः, परीतमिश्रा-परीतविषया सत्यामृषा यथा अनन्तकायले शवति परीतम्लानमूलादौ | परीतोऽयमित्यभिदधतः । अद्धामिश्रा- कालविषया सत्यामृषा यथा कश्चित् कस्मिंश्चित् प्रयोजने सहायांस्त्वरयन् परिणतप्राये वासर एव रजनी वर्तत इति ब्रवीति, अद्धद्धमिश्रा च दिवसरजन्येकदेशः अद्धद्धोच्यते, Far P&Personally मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः ~ 421~ ७ वाक्य शुद्ध्य० भाषास्वरूपम् २ उद्देशः ॥ २०९ ॥ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||ε6..|| दीप अनुक्रम [२९३..] Ja Education in “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [७], उद्देशक [-] मूलं [ १५...] / गाथा ||६८...|| निर्युक्ति: [ २७५], भाष्यं [६२...] तद्विषया सत्यामृषा यथा कस्मिंश्चित् प्रयोजने त्वरयन् प्रहरमात्र एव मध्याह्न इत्याह । एवं मिश्रशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यत इति गाथार्थः । उक्ता सत्यामृषा, साम्प्रतमसत्यामृषामाह आमंतणि आणवणी जायणि तह पुच्छणी अ पनवणी । पञ्चक्खाणी भासा भासा इच्छानुलोमा अ ॥ २७६ ॥ व्याख्या - आमन्त्रणी यथा हे देवदत्त इत्यादि, एषा किलाप्रवर्तकत्वात्सत्यादिभाषात्रयलक्षणवियोगतस्तथाविधदलोत्पत्तेरसत्यामृषेति, एवमाज्ञापनी यथेदं कुरु, इयमपि तस्य करणाकरणभावतः परमार्थेनैकत्राप्यनियमात्तथाप्रतीतेः अदुष्टविवक्षाप्रसृतत्वादसत्यामृषेति, एवं स्वबुद्ध्याऽन्यत्रापि भावना कार्येति । याचनी यथा भिक्षां प्रयच्छेति, तथा प्रच्छनी यथा कथमेतदिति, प्रज्ञापनी यथा हिंसाप्रवृत्तो दुःखितादिर्भवति, प्र| व्याख्यानी भाषा यथाऽदित्सेति भाषा, इच्छानुलोमा च यथा केनचित्कश्चिदुक्तः साधुसकाशं गच्छाम इति, स आह-शोभनमिदमिति गाथार्थः ॥ अभिग्गहि भासा भासा अ अभिग्गमि बोद्धव्वा । संसयकरणी भासा वायड अध्वायडा चेव || २७७ ॥ व्याख्या अनभिगृहीता भाषा अर्थमनभिगृह्य योच्यते डित्थादिवत्, भाषा चाभिग्रहे बोद्धव्या-अर्थमभिगृह्य योच्यते घटादिवत्, तथा संशयकरणी च भाषा-अनेकार्थसाधारणा योच्यते सैन्धवमित्यादिवत्, व्याकृता स्पष्टा प्रकटार्था देवदत्तस्यैष भ्रातेत्यादिवत्, अव्याकृता चैव- अस्पष्टाऽप्रकटार्था बालकादीनां धपनि| केत्यादिवदिति गाथार्थः ॥ उक्ता असत्यामृषा, साम्प्रतमोघत एवास्याः प्रविभागमाह For P&Personal Use City मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः ~ 422 ~ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||ε6..|| दीप अनुक्रम [२९३..] दशवैका० हारि-वृत्तिः ॥ २१० ॥ Ja Edocation “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [७], उद्देशक [ - ], मूलं [ १५...] / गाथा ||६८...|| निर्युक्तिः [२७८], भाष्यं [६२...] सावि असा दुबिहा पत्नत्ता खलु तहा अपजता । पढमा दो पज्जत्ता उवरिला दो अपज्जता ।। २७८ ॥ व्याख्या सर्वाऽपि च 'सा' सत्यादिभेदभिन्ना भाषा द्विविधा पर्याप्ता खलु तथाऽपर्याप्ता, पर्यासा या एकपक्षे निक्षिप्यते सत्या वा मृषा वेति तद्व्यवहारसाधनी, तद्विपरीता पुनरपर्यासा, अत एवाह-प्रथमे द्वे भाषे सत्यामृषे पर्यासे, तथास्वविषयव्यवहार साधनात् तथा उपरितने द्वे सत्यानृषाऽसत्यामृषाभाषे अपर्याप्ते, तथास्त्रविषयव्यवहारासाधनादिति गाथार्थः । उक्ता द्रव्यभावभाषा, साम्प्रतं श्रुतभावभाषामाह अधम्मे पुर्ण तिविहा सच्चा मोसा असथमोसा अ । सम्मदिडी उ सुभवतु सो भासई सक्षं ।। २७९ ।। व्याख्या- 'श्रुतधर्म' इति श्रुतधर्मविषया पुनस्त्रिविधा भवति भावभाषा, तद्यथा-सत्या मृषा असत्यामृषा चेति, तत्र 'सम्पदृष्टिस्तु' सम्यग्दृष्टिरेव 'श्रुतोपयुक्त' इत्यागमे यथावदुपयुक्तो यः स भाषते 'सत्यम्' आगमानुसारेण वक्तीति गाधार्थः ॥ सम्मरिट्ठी उ सुमि अणुवडतो अहेडगं चैव जं भासइ सा मोसा मिच्छादिट्ठीवि अ तहेब || २८० ॥ व्याख्या-'सम्मद्दिट्ठी' सम्यगदृष्टिरेव सामान्येन 'श्रुते' आगमे अनुपयुक्तः प्रमादायत्किंचिदू 'अहेतुकं चैव युक्तिविकलं चैव यद्भाषते तन्तुभ्यः पद एव भवतीत्येवमादि सा सृषा, विज्ञानादेरपि तत एव भा वादिति । मिध्यादृष्टिरपि तथैवेत्युपयुक्तोऽनुपयुक्तो वा यद्भाषते सा मृषैव, घुणाक्षरन्याय ( यात्) संवादेऽपि सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवदिति गाथार्थः ॥ Pr&Personal Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४२], मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः ~ 423 ~ ७ वाक्य शुज्य० भाषास्वरूपम् २ उद्देशः [ ॥ २१० ॥ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६८...|| नियुक्ति: [२८१], भाष्यं [६२...] (४२) 2 प्रत सुत्रांक ||६८..|| हवइ ७ असाघमोसा सुमि उवरिलए तिनाणंमि । जं उवउचो भासइ एत्तो बोच्छं परित्तंभि ।। २८१ ।। व्याख्या-भवति तु असल्यामृषा 'श्रुते आगम एव परावर्तनादि कुर्वतस्तस्यामनण्यादिभाषारूपत्वात्तथा 'उपरितने' अवधिमनःपर्यायकेवललक्षणे 'त्रिज्ञान' इति ज्ञानत्रये यदुपयुक्तो भाषते सा असत्यामृषा, आम-1 ब्रण्यादिवत् तथाविधाध्यवसायप्रवृत्तेः, इत्युक्ता श्रुतभावभाषा । अत ऊर्दू वक्ष्ये 'चारित्र' इति चारित्रविषयां भावभाषामिति गाथार्थः ॥ पढमविदा चरिते भासा दो व होति नायब्वा । सचरित्तस्स उ भासा सक्षा मोसा छ इअरस्स ।। २८२ ॥ व्याख्या-प्रथमद्वितीये' सत्यामृषे 'चारित्र' इति चारित्रविषये भाषे द्वे एव भवतो ज्ञातव्ये, स्वरूपमाह | -'सचरित्रस्य' चारित्रपरिणामवतः, तुशब्दात्तद्धिनिबन्धनभूता च भाषा द्रव्यतस्तथाऽन्यथाभावेऽपि सत्या, सतां हितत्वादिति । मृषा तु 'इतरस्य' अचारित्रस्य तदृद्धिनिवन्धनभूता चेति गाथार्थः ॥ उक्तं वाक्यमधुना शुद्धिमाह_णामंठवणासुद्धी दव्वसुद्धी अ भावसुद्धी । एएसि पत्ते परूवणा होइ कायव्या ।। २८३ ॥ व्याख्या-नामशुद्धिः स्थापनाशुद्धिद्रव्यशुद्धिश्च भावशुद्धिश्च, 'एतेषां नामशुझ्यादीनां प्रत्येक प्ररूपणा भवति कर्तव्येति गाथार्थः ॥ तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वादनङ्गीकृत्य द्रव्यशुद्धिमाह तिविहा उदल्यसुद्धी तहव्वादेसओ पहाणे अ । तहबगमाएसो अणण्णमीसा हवइ सुद्धी ॥ २८४ ॥ दीप अनुक्रम [२९३..] SEXI ROASAN दश०३६ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: अथ “शुद्धि" शब्दस्य नामादि चत्वारः निक्षेपा: दर्शयते ~424~ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६८...|| नियुक्ति : [२८४], भाष्यं [६२...] (४२) हारि-वृत्तिः ॥२११॥ प्रत सुत्रांक ||६८..|| व्याख्या-त्रिविधा तु द्रव्यशुद्धिर्भवति तद्रव्यत' इति तद्रव्यशुद्धिः 'आदेशत' इति आदेशद्रव्यशुद्धिः। प्राधान्यतश्चेति प्राधान्यद्रव्यशुद्धिश्च । तत्र तद्रव्यशुद्धिः 'अनन्ये त्यनन्यद्रव्यशुद्धिः, यड्रव्यमन्येन द्रव्येण शुद्धः सहासंयुक्तं सच्छुद्धं भवति क्षीरं दधि वा असौ तद्रव्यशुद्धिा, आदेशे मिश्रा भवति शुद्धिरन्यानन्यविषया, भाषास्व. एतदुक्तं भवति-आदेशतो द्रव्यशुद्धिर्द्विविधा-अन्यखेनानन्यत्वेन च, अन्यत्वे यथा शुद्धयासा देवदत्ता,का रूपम् अनन्यत्वे शुद्धदन्त इति गाथार्थः॥ प्राधान्यद्रव्यशुद्धिमाह २ उद्देश: ___वण्णरसगंधफासे समणुण्णा सा पहाणओ सुद्धी । तत्थ उ सुकिल महुरा छ संमया चेव उक्कोसा ॥ २८५ ॥ व्याख्या-वर्णरसगन्धस्पर्शेषु या मनोज्ञता-सामान्येन कमनीयता अथवा मनोज्ञता-यथाभिप्रायमनुकू-18 लता सा प्राधान्यतः शुद्धिरुच्यते, "तत्रं चैवंभूतचिन्ताव्यतिकरे शुक्मधुरौ वर्णरसी तुशब्दात्सुरभिमृद। गन्धस्पशौं च संमती, यथाभिप्रायमपि प्रायो मनोज्ञी, बहूनामित्थंप्रवृत्तिसिद्धे, 'उत्कृष्टौ च' कमनीयौ च । चशब्दस्य व्यवहित उपन्यास इति गाथार्थः ।। उक्ता द्रव्यशुद्धिा, अधुना भावशुद्धिमाह एमेव भावसुखी तब्भावाएसओ पहाणे अ । तम्भावगमाएसो अणण्णमीसा हवाइ सुद्धी ।। २८६ ॥ व्याख्या-'एवमेवेति यथा द्रव्यशुद्धिस्तथा भावशुद्धिरपि, त्रिविधेत्यर्थः, 'तद्भाव' इति तद्भावशुद्धिः 'आदेशत' इति आदेशभावशुद्धिः 'प्राधान्यतश्चेति प्राधान्यभावशुद्धिश्च, तत्र तावशुद्धिः 'अनन्ये'त्यनन्यभा-18/ वशुद्धिस्तद्भावशुद्धिः, यो भावोऽन्येन भावेन सहासंयुक्तः सन् शुद्धो भवति बुभुक्षितादेरनाथभिलाषव DANCERTREAM दीप अनुक्रम [२९३..] 1॥२११॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~425~ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६८...|| नियुक्ति: [२८६], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सुत्रांक ||६८..|| दसौ तद्भावशुद्धिः, आदेशे मिश्रा भवति शुद्धिस्तदन्यानन्यविषयेत्यर्थः, एतदुक्तं भवति-आदेशभावशुद्धिहूि विधा-अन्यत्वेऽनन्यत्वे च, अन्यत्वे यथा शुद्धभावस्य साधोगुरुः अनन्यत्वे शुद्धभाव इति गाथार्थः॥ प्रधानभावशुद्धिमाह दसणनाणचरित्ते तवोविसुद्धी पहाणमाएसो । जम्हा उ विसुद्धमलो तेण विमुद्धो हवइ मुद्धो ।। २८७ ॥ व्याख्या 'दर्शनज्ञानचारित्रेषु' दर्शनज्ञानचारित्रविषया तथा तपोविशुद्धिः 'प्राधान्यादेश' इति यद्दर्शना-3 दीनामादिश्यमानानां प्रधानं सा प्रधानभावशुद्धिः, यथा दर्शनादिषु क्षायिकाणि ज्ञानदर्शनचारित्राणि, तपाप्रधानभावशुद्धिः-आन्तरतपोऽनुष्ठानाराधनमिति। कथं पुनरियं प्रधानभावशुद्धिरिति?, उच्यते, एभिर्दर्श18नादिभिः शर्यमाद्विशुद्धमलो भवति साधुः, कर्ममलरहित इत्यर्थः, तेन च मलेन 'विशुद्धों मुक्तो भवति । सिद्ध इत्यतः प्रधानभावशुद्धिर्यथोक्तान्येव दर्शनादीनीति गाथार्थः ॥ उक्ता शुद्धिः, इह च भावशुख्याधिकारः, सा च वाक्यशुद्धेर्भवतीत्याह जं वर्ष वयमाणरस संजयो सुज्झई न पुण हिंसा । न य अत्तकलुसभालो सेण इह बकसुद्धित्ति ।। २८८ ॥ व्याख्या-'यद्' यस्माद्वाक्यं शुद्धं वदतः सतः संयमः शुद्ध्यति, शुद्ध्यतीति निर्मल उपजायते, न पुन-1 हिंसा भवति कौशिकादेवि, न चात्मनः कलुषभावः कालुष्यं-दुष्टाभिसंधिरूपं संजायते, तेन कारणेन 'इह' प्रवचने वाक्यशुद्धिर्भावशुद्धेनिमित्तमित्यतोऽत्र प्रयतितव्यमिति गाथार्थः। ततश्चैतदेव कर्तव्यमित्याह दीप अनुक्रम [२९३..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~426~ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६८...|| नियुक्ति : [२८९], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सुत्रांक ||६८..|| दशवैका० ववणविभत्तीकुसलस संजमंमी समुजुयमइस्स । दुम्भासिएण हुज्जा हु विराहणा तत्थ जइअव्वं ॥ २८९ ॥ ७वाक्यहारि-वृत्तिः व्याख्या-वचनविभक्तिकुशलस्य' वाच्येतरवचनप्रकाराभिज्ञस्य न केवलमित्थंभूतस्यापितु 'संयमे उ(समु)-18| शुद्ध्या चतमतेः' अहिंसायां प्रवृत्तचित्तस्येत्यर्थः तस्याप्येवंभूतस्य कथंचिदुर्भाषितेन कृतेन भवेत् विराधना-परलो- भाषास्व॥२१२॥ कपीडा अतः 'तत्र' दुर्भाषितवाक्यपरिज्ञाने 'यतितव्यं प्रयत्नः कायें इति गाथाथैः। आह-ययेवमलमनेनैव|8| रूपम् प्रयासेन, मौनं श्रेय इति, न, अज्ञस्य तत्रापि दोषाद, आह प बयणविभत्तिअकुसलो वओगयं बहुविहं अयाणतो । जइवि न भासइ किंची न चेव वयगुत्तथं पत्तो ॥ २९० ।। व्याख्या-वचनविभक्त्यकुशलो' वाच्येतरप्रकारानभिज्ञः 'वाग्गतं बहुविधम्' उत्सर्गादिभेदभिन्नमजानानः यद्यपि न भाषते किश्चित् मौनेनैवास्ते, न चैव वाग्गुप्ततां प्राप्तः, तथाप्यसी अवारगुप्त एवेति गाथार्थः॥ व्यतिरेकमाह वयणविभत्तीकुंसलो बओगयं बहुविहं वियाणतो । दिवसंपि भासमाणो तहावि क्यगुत्तयं पत्तो ॥ २९१ ।। दा व्याख्या-वचनविभक्तिकुशलों वाच्येतरप्रकाराभिज्ञः 'वाग्गतम्' बहुविधमुत्सर्गादिभेदाभिन्नं विजानन् दिवसमपि भाषमाणः सिहान्तविधिना तथापि वारगुप्ततां प्राप्ता, वारगुप्त एवासाविति गाथार्थेः ॥ साम्प्रतं R ॥२१२॥ ४ वचनविभक्तिकुशलस्यौघतो क्वनविधिमाह पुलं युद्धीइ पेहिता, पच्छा वयमुयाहरे । अचक्खुओ व नेतार, बुद्धिमन्नेत ते गिरा ॥ २९२ ॥ दीप अनुक्रम [२९३..] SHRASEX CR4 Limelicatom.imah मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: वचनविभक्ति-अकुशलानां उपदेश: ~427~ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१-४|| नियुक्ति : [२९२], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक व्याख्या-'पूर्व प्रथममेव वचनोचारणकाले 'बुद्ध्या प्रेक्ष्य' वाच्यं दृष्ट्वा पश्चाद्वाक्यमुदाहरेत्, अर्थापत्त्या कस्यचिदपीडाकरमित्यर्थः, दृष्टान्तमाह-'अचक्षुष्मानिव' अन्ध इव 'नेतारम्' आकर्षकं 'बुद्धिमन्वेतु ते गी' बुद्ध्यनुसारेण वाक्प्रवर्ततामिति श्लोकार्थः॥ उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्थावसर इत्यादिचर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम् चउण्हं खलु भासाणं, परिसंखाय पन्नवं । दुण्हं तु विणयं सिक्खे, दो न भासिज्ज सव्वसो ॥१॥ जा अ सच्चा अवत्तव्वा, सच्चामोसा अ जा मुसा । जा अ बुद्धेहिं नाइन्ना, न तं भासिज पन्नवं ॥२॥ असञ्चमोसं सच्चं च, अणवजमकक्कसं । समुप्पेहमसंदिद्धं, गिरं भासिज्ज पन्नवं ॥ ३॥ एअं च अट्ठमन्नं वा, जंतु नामेइ सासयं । स भासं सच्चमोसंपि, तंपि धीरो विवज्जए ॥४॥ चतमणां खल्लु भाषाणां, खलुशब्दोऽवधारणे, चतमृणामेव, नातोऽन्या भाषा विद्यत इति, 'भाषाणां' सत्यादीनां परिसंख्याय' सर्वैः प्रकाराखा, स्वरूपमिति वाक्यशेषः 'प्रज्ञावान्' प्राज्ञो बुद्धिमान साधुः, किमित्याह-दाभ्यां सत्यासत्यामृषाभ्यां तुरवधारणेद्वाभ्यामेवाभ्यां 'विनयं शुद्धप्रयोगं विनीयतेऽनेन कर्मेतिकृखा RSEASON ||१-४|| दीप अनुक्रम [२९४-२१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: सूत्रकारेण सूत्रितं भाषा स्वरुपम् ~428~ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१-४|| नियुक्ति: [२९२...], भाष्यं [६२...] (४२) वाक्यशुष्य भाषास्व ॥२१३॥ रूपम् प्रत सूत्रांक ||१-४|| .दशवैका शिक्षेत जानीयात्, 'द्वे' असत्यासत्यामृषे न भाषेत 'सर्वशः सर्वैः प्रकारैरिति सूत्रार्थः॥१॥ विनयमेवाह हारि-वृत्तिः51-जा अ सच'त्ति सूत्र, या च सत्या पदार्थतत्त्वमङ्गीकृत्य 'अवक्तव्या' अनुचारणीया सावद्यत्वेन, अमुत्र |स्थिता पल्लीति कौशिकभाषावत्, सत्यामृषा वा यथा दश दारका जाता इत्यादिलक्षणा, मृषा च संपूर्णेय, चशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः, या च 'वुद्धैः तीर्थकरगणधरैरनाचरिता असत्यामृषा आमश्रण्याज्ञापन्यादिल-* क्षणा अविधिपूर्वकं खरादिना प्रकारेण, 'नैनां भाषेत' नेत्थंभूतां वाचं समुदाहरेत् 'प्रज्ञावान् बुद्धिमान् साधुरिति सूत्रार्थः ॥२॥ यथाभूताऽवाच्या भाषा तथाभूतोक्ता, साम्प्रतं यथाभूता वाच्या तथाभूतामाह- असचमोसं ति सूत्रम्, 'असत्यामृषाम्' उक्तलक्षणां 'सत्यां च उक्तलक्षणामेव, इयं च सावद्यापि कर्क-14 शापि भवत्यत आह-'असावधाम्' अपापाम् 'अकर्कशाम्' अतिशयोक्त्या खमत्सरपूर्वी 'संप्रेक्ष्य' खपरो-15 पकारिणीति बुद्ध्याऽऽलोच्य 'असंदिग्धां' स्पष्टामक्षेपेण प्रतिपत्तिहेतुं 'गिरं वाचं 'भाषेत' ब्रूयात् 'प्रज्ञावान् बुद्धिमान साधुरिति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ साम्प्रतं सत्यासत्यामृषाप्रतिषेधार्थमाह-एअंच'त्ति सूत्रम्, 'एतं । चार्थम्' अनन्तरपतिषिद्धं सावद्यकर्कशविषयम् 'अन्यं वा एवंजातीयं, प्राकृतशेल्या 'यस्तु नामयति शा-15 श्वतं य एव कश्चिदर्थो नामयति-अननुगुणं करोति शाश्वतं-मोक्षं तमाश्रित्य 'स' साधुः पूर्वोक्तभाषाभा|षकत्वेनाधिकृतो भाषां 'सत्यामृषामपि' पूर्वोक्ताम्, अपिशब्दात्सत्यापि या तथाभूता तामपि 'धीरों' बुद्धिमान 'विवर्जयेत्' न ब्रूयादिति भावः। आह-सत्यामृषाभाषाया ओघत एव प्रतिषेधात्सधाविधसत्यायाश्च दीप अनुक्रम [२९४-२१७] ॥२१३॥ E mirtela मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~429~ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक , मूलं [१५...] / गाथा ||५-७|| नियुक्ति: [२९२...], भाष्यं [६२...] (४२) SONG प्रत सूत्रांक ||५-७|| सावद्यत्वेन गतार्थ सूत्रमिति, उच्यते, मोक्षपीडाकर सूक्ष्ममप्यर्थमङ्गीकृत्यान्यतरभाषाभाषणमपि न कर्तव्य-13/ मित्यतिशयप्रदर्शनपरमेतदुष्टमेवेति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ वितहपि तहामुत्ति, जं गिरं भासए नरो । तम्हा सो पुट्रो पावेणं, किं पुणं जो मुसं वए? ॥ ५॥ तम्हा गच्छामो वक्खामो, अमुगं वा णे भविस्सइ । अहं वा णं करिस्सामि, एसो वा णं करिस्सइ ॥६॥ एवमाइ उ जा भासा, एसकालंमि संकिआ। संपयाइअम? वा, तंपि धीरो विवज्जए ॥७॥ . साम्प्रतं मृषाभाषासंरक्षणार्थमाह-'वितहपिसि सूत्र, 'वितथम् अतध्यं 'तधामूर्यपि' कथंचित्तत्खरूपमपि वस्तु, अपिशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः, एतदुक्तं भवति-पुरुषनेपथ्यस्थितवनितावप्यङ्गीकृत्य यां गिरं भाषते नरः, इयं स्त्री आगच्छति गायति वेत्यादिरूपां, 'तस्माद् भाषणादेवंभूतात्पूर्वमेवासी वक्ता भाषणा-18 भिसंधिकाले 'स्पृष्टः पापेन' बद्धः कर्मणा, किं पुनर्यो मृषा वक्ति भूतोपघातिनीं वाचं ?, स सुतरां बद्ध्यत इति सूत्रार्थः ॥ ५॥'तम्ह'त्ति सूत्रं, यस्माद्वितथं तथामूर्त्यपि वस्त्वङ्गीकृत्य भाषमाणो बयते तस्माद्गमिष्याम | एव श्व इतोऽन्यत्र, वक्ष्याम एव श्वस्तत्तदोषधनिमित्तमिति, अमुकं वा नः कार्यं वसत्यादि भविष्यत्येव, अहं18 चेदं लोचादि करिष्यामि नियमेन, एष वा साधुरस्माकं विश्रामणादि करिष्यत्येवेति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ एव-1 C ASGA दीप अनुक्रम [२९८ CARRUST -३००] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~430~ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||८-१०|| दीप अनुक्रम [ ३०१ -३०३] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [७], उद्देशक [ - ], मूलं [ १५...] / गाथा ||८-१०|| निर्युक्तिः [ २९२ ...] भाष्यं [ ६२...] दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ २९४ ॥ La Edocanon in माइति सूत्रम्, एवमाया तु या भाषा, आदिशब्दात् पुस्तकं ते दास्याम्येवेत्येवमादिपरिग्रहः, 'पृष्यत्काले' भविष्यत्कालविषया बहुविप्रत्वात् मुहूर्तादीनां 'शङ्किता' किमिदमित्थमेव भविष्यत्युतान्यथेत्यनिश्चितगोचरा, तथा साम्प्रतातीतार्थयोरपि या शङ्किता, साम्प्रतार्थे स्त्रीपुरुषाविनिश्चये एष पुरुष इति, अतीतार्थेऽप्येवमेव बलीवर्दतत्रूपायनिश्वये तदाऽत्र गौरस्माभिर्दृष्ट इति । याप्येवंभूता भाषा शङ्किता तामपि धीरो विवर्जयेत्, तत्तथाभावनिश्चयाभावेन व्यभिचारतो मृषात्वोपपत्तेः, विनतोऽगमनादौ गृहस्थमध्ये लाघवादिप्रसङ्गात् सर्वमेव सावसरं वक्तव्यमिति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ किंच अमि अ कालंमि, पचप्पण्णमणागए । जमट्टं तु न जाणिज्जा, एवमेअंति नो वए ॥ ८ ॥ अईअंमि अ कालंमि, पचुप्पण्णमणागए । जत्थ संका भवे तंतु, एवमेअंति नो वए ॥ ९ ॥ अईयंमि अ कालंमि, पचप्पण्णमणागए । निस्संकिअं भवे जं तु, एवमेअं तु निद्दिसे ॥ १० ॥ 'अईयमिति सूत्र, अतीते च काले तथा 'प्रत्युत्पन्ने' वर्तमानेऽनागते च यमर्थे तु न जानीयात् सम्यगेवमयमिति, तमङ्गीकृत्य एवमेतदिति न ब्रूयादिति सूत्रार्थः, अथमज्ञातभाषणप्रतिषेधः ॥ ८ ॥ तथा- 'अईयम्मित्ति सूत्रं, अतीते च काले प्रत्युत्पन्नेऽनागते यत्रार्थे शङ्का भवेदिति तमप्यर्थमाश्रित्येवमेतदिति न ब्रूया Far P&Persona मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः ~ 431~ ७ वाक्य शुद्ध्य० भाषास्वरूपम् २. उद्देशः ॥ २१४ ॥ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||११-२०|| नियुक्ति: [२९२...], भाष्यं [६२...] (४२) 545453 प्रत सूत्रांक दिति सूत्रार्थः, अयमपि विशेषतः शकितभाषणप्रतिषेधः ॥ ९॥ तथा-'अईयमित्ति सूत्रं, अतीते च काले प्रत्युत्पन्नेऽनागते निःशङ्कितं भवेत्, यदर्थजातं तुशब्दादनवा, तदेवमेतदिति निर्दिशेत्, अन्ये पठन्ति'स्तोकस्तोक'मिति, तत्र परिमितया वाचा निर्दिशेदिति सूत्रार्थः ॥१०॥ तहेव फरुसा भासा, गुरुभूओवघाइणी । सच्चावि सा न वत्तव्वा, जओ पावस्स आगमो ॥ ११॥ तहेव काणं काणत्ति, पंडगं पंडगत्ति वा । वाहिअं वावि रोगित्ति, तेणं चोरत्ति नो वए ॥ १२ ॥ एएणऽन्नेण अटेणं, परो जेणुवहम्मइ । आयारभावदोसन्नू , न तं भासिज पन्नवं ॥ १३ ॥ तहेव होले गोलित्ति, साणे वा वसुलित्ति अ । दमए दुहए वावि, नेवं भासिज्ज पन्नवं ॥ १४ ॥ अज्जिए पजिए वावि, अम्मो माउसिअत्ति अ । पिउस्सिए भायणिज्जत्ति, धूए णन्तुणिअत्ति अ॥ १५॥ हले हलित्ति अन्नित्ति, भद्दे सामिणि गोमिणि । होले गोले वसुलित्ति, इत्थिों नेवमालवे ॥ १६ ॥ नामधिजेण णं बूआ, इत्थीगुत्तेण वा पुणो । जहारिहमभिगिज्झ, आलविज लविज वा -२०|| ज, परो जेणसाणे वा वसुमिमा माउसिन, ॥ १ ॥ लत्त, साणे वावाधारभावदोसन्न दीप अनुक्रम [३०४-३१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: भाषा, यत् तु नो वदेत् ~ 432~ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||११-२०|| नियुक्ति: [२९२...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक -२०|| दशवैका ॥ १७ ॥ अजए पजए वावि, बप्पो चुल्लपिउत्ति अ। माउलो भाइणिज ति, पुत्ते ७बाक्यहारि-वृत्तिः णतुणिअत्ति अ॥ १८ ॥ हे भो हलित्ति अन्नित्ति, भद्दे सामिअ गोमिअ । होल शुद्ध्य भाषास्व॥२१५॥ गोल वसुलि ति, पुरिसं नेवमालवे ॥ १९ ॥ नामधिज्जेण णं बूआ, पुरिसगुत्तेण वा पुणो । जहारिहमभिगिज्झ, आलविज लविज वा ॥ २० ॥ २ उद्देशः 'तहेवत्ति सूत्रं, तथैव 'परुषा भाषा' निष्ठुरा भावलेहरहिता 'गुरुभूतोपघातिनी' महाभूतोपघातवती, यथा कश्चित्कस्यचित् कुलपुत्रत्वेन प्रतीतस्तदा तं दासमित्यभिदधतः, सर्वथा सत्यापि सा बाद्यार्थातथाभा-151 |वमङ्गीकृस्य न वक्तव्या, 'यतो' यस्या भाषायाः सकाशात् 'पापस्यागमः' अकुशलबन्धो भवतीति सूत्रार्थः। ॥ ११ ॥ 'तहेवत्ति सूत्रं, तथैवेति पूर्ववत् , 'काणति भिन्नाक्षं काण इति, तथा 'पण्डक नपुंसकं पण्डक इति वा, व्याधिमन्तं वापि रोगीति, स्तेनं चौर इति नो वदेत्, अप्रीतिलजानाशस्थिररोगबुद्धिविराधनादिदोपप्रसङ्गादिति गाथार्थः ॥ १२ ॥ 'एएण'त्ति सूत्रं, एतेनान्येन वाऽर्थेनोक्तेन सता परो येनोपहन्यते, येन केन-16 चित्प्रकारेण । आचारभावदोषज्ञो यतिने तं भाषेत प्रज्ञावांस्तमर्थमिति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ 'तहेवत्ति सूत्रं, तथैवेति पूर्ववत्, होलो गोल इति श्वा वा वसुल इति वा द्रमको वा दुर्भगश्चापि नैवं भाषेत प्रज्ञावान् । इह 51 दाहोलादिशब्दास्तत्सदेशप्रसिद्धितो नैष्ठुर्यादिवाचकाः अतस्तत्प्रतिषेध इति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ एवं स्त्रीपुरुषयोद SSSS दीप अनुक्रम [३०४-३१३] ॥२१५॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 433~ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||११-२०|| नियुक्ति: [२९२...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक -२०|| सामान्येन भाषणप्रतिषेधं कृत्वाऽधुना स्त्रियमधिकृत्याह-अजिए'त्ति सूत्रं, आर्जिके प्रार्जिके वापि अम्ब मातृष्वस इति च पितृष्वसः भागिनेयीति दुहितः नष्त्रीति च । एतान्यामश्रणवचनानि वर्तन्ते, तत्र मातुः पितुर्वा माताऽऽर्यिका, तस्या अपि याऽन्या माता सा प्रार्यिका, शेषाभिधानानि प्रकटार्थान्येवेति सूत्रार्थः H॥१५॥ किं च-हले हले'त्ति सूत्रं, हले हले इत्येवमन्ने इत्येवं तथा मह खामिनि गोमिनि । तथा होले गोले वसुले इति, एतान्यपि नानादेशापेक्षया आमन्त्रणवचनानि गौरवकुत्सादिगर्भाणि वर्तन्ते, यतश्चैवमतः स्त्रियं नैवं हलादिशब्दैरालपेदिति, दोषाश्चैवमालपनं कुर्वतः सङ्गगहएतत्पद्वेषप्रवचनलाघवादय इति सूत्रार्थः ॥१६॥ यदि नैवमालपेत् कथं तालपेदित्याह-नामधिलेण ति सूत्रं, 'नामधेयेने ति नाम्नैव एनां ब्रूया|त्रिय कचित्कारणे यथा देवदत्ते! इत्येवमादि । नामास्मरणादौ गोत्रेण वा पुन—यात् स्त्रियं यथा काश्यपगोत्रे! इत्येवमादि, 'यथाई' यथायथं वयोदेशैश्वर्याद्यपेक्षया 'अभिगृह्य गुणदोषानालोच्य 'आलपेल्लपेद्वार ईषत्सकृद्वा लपनमालपनमतोऽन्यथा लपनं, तत्र वयोवृहा मध्यदेशे ईश्वरा धर्मप्रियाऽन्यत्रोच्यते धर्मशीले इत्यादिना, अन्यथा च यथा न लोकोपघात इति सूत्रार्थः ॥ १७॥ उक्तः स्त्रियमधिकृत्यालपनप्रतिषेधो वि-15/ विश्व, साम्प्रतं पुरुषमाश्रित्याह-'अजएत्ति सूत्रं, आर्यकः प्रार्यकश्चापि वप्पश्चुल्लपितेति च, तथा मातुल भागिनेयेति पुत्र नप्त इति च, इह भावार्थः स्त्रियामिव द्रष्टव्यः, नवरं चुल्लबप्पः पितृव्योऽभिधीयत इति सूत्रार्थः॥१८॥ किंच-हे भो त्ति सूत्रं, हे भो हलेति। अन्नेत्ति भर्तः। स्वामिन् गोमिन् होल गोल वसुल इति दीप अनुक्रम [३०४-३१३] RI मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 434~ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||२१ -२५|| दीप अनुक्रम [ ३०४ -३१३] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [७], उद्देशक [-] मूलं [ १५...] / गाथा ||२१- २५ || निर्युक्तिः [ २९२...], भाष्यं [६२...] दशवैका हारि-वृत्तिः ॥ २१६ ॥ Edocanon पुरुषं नैवमालपेदिति, अत्रापि भावार्थः पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ॥ १९ ॥ यदि नैवमालपेत्, कथं तर्खालपेदि| त्याह-- 'नामधिजेण 'त्ति सूत्रं, व्याख्या पूर्ववदेव, नवरं पुरुषाभिलापेन योजना कार्येति ॥ २० ॥ पंचिंदिआण पाणाणं, एस इत्थी अयं पुमं । जाव णं न विजाणिजा, ताव जाइत्ति आलवे ॥ २१ ॥ तव माणुसं पसुं, पक्खि वावि सरीसवं । थूले पमेइले वज्झे, पायमित्ति अ नो वए ॥ २२ ॥ परिवृढत्ति णं बूआ, बूआ उवचिअत्ति अ । संजाए पीणिए वावि, महाकायत्ति आलवे ॥ २३ ॥ तहेव गाओ दुज्झाओ, दम्मा गोरहगत्ति अ । वाहिमा रहजोगिन्त्ति, नेवं भासिज पन्नवं ॥ २४ ॥ जुवं गवित्ति णं बूआ, aj रसदयति अ । रहस्से महलए वावि, वए संवहणित्ति अ ॥ २५ ॥ उक्तः पुरुषमप्याश्रित्यालपनप्रतिषेधो विधिव, अधुना पञ्चेन्द्रियतिर्यग्गतं वाग्विधिमाह-- 'पंचिंदिआ'ति सूत्रं, 'पञ्चेन्द्रियाणां गवादीनां प्राणिनां 'कचिद्' विप्रकृष्टदेशावस्थितानामेषा स्त्री गौरयं पुमान् वलीवर्द:, यावदेतद्विशेषेण न विजानीयात् तावन्मार्गप्रश्नादौ प्रयोजने उत्पन्ने सति 'जाति'मिति जातिमाश्रित्यालपेत्, अस्माद्गोरूपजातात्कियद्दूरेणेत्येवमादि, अन्यथा लिङ्गव्यत्ययसंभवान्मृषावादापत्तिः, गोपाला मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ४२ ], मूल सूत्र [३] “दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः ~ 435~ ७ वाक्यशुद्ध्य० भाषास्यरूपम् २ उद्देशः ॥ २१६ ॥ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२१-२५|| नियुक्ति: [२९२...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||२१-२५|| दीनामपि विपरिणाम इत्येवमादयो दोषाः, आक्षेपपरिहारौ तु वृद्धविवरणादवसेयौ, तच्चेदम्-जइ लिंगवच्चए दोसो ता कीस पुढवादि नपुंसगत्तेवि पुरिसिथिनिद्देसो पयहइ, जहा पत्थरो महिआ करओ उस्सा मुम्मुरो। दिजाला वाओवाउली अंबओ अंपिलिआ किमिओजल्या मकोडओकीडिआ भमरओ मच्छिया इवेवमादि', आयरिओ आह-जणवयसच्चेण चवहारसच्चेण य एवं पयइत्ति ण एत्थ दोसो, पंचिदिए पुण ण एयमगीकीरह, गोवालादीणवि ण सुविठ्ठधम्मत्ति विपरिणामसंभवाओ, पुच्छिअसामायारिकहणे वा गुणसंभवादिति इति सूत्रार्थः ॥ २१॥ किंच-तहेवत्ति सूत्रं, 'तथैव' यथोक्तं प्राक् 'मनुष्यम्' आर्यादिकं 'पशुम्' अजादिकं 'पक्षिर्ण वापि' हंसादिकं 'सरीसृपम् अजगरादिकं स्थूल' अत्यन्तमांसलोऽयं मनुष्यादिः तथा 'प्रमेदुर' प्रकर्षेण मेदःसंपन्नः तथा 'वध्यों' व्यापादनीयः पाक्य इति च नो वदेत्, 'पाक्य' पाकप्रायोग्यः, कालप्राप्त इत्यन्ये, 'नो वदेत् न ब्रूयात् तदप्रीतितव्यापत्त्याशङ्कादिदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ २२॥ कारणे पुनरुत्पन्न एवं वदेदित्याह-परिवूढत्ति सूत्रं, परिवृद्ध इत्येनं-स्थूलं मनुष्यादिं ब्रूयात्, तथा यादुपचित इति च, संजातः प्रीणितश्चापि महाकाय इति चालपेत् परिवृद्धं, पलोपचितं परिहरेदित्यादाविति सूत्राथें। १ यदि लिङ्गव्यत्यये दोषः तदा कर्ष पृष्ठ्यादीनां नपुंसकर वेऽपि श्रीसत्वेन निर्देश प्रवर्तते, यथा प्रसारो मृत्तिका करकोऽवश्यायो मुर्मुरो ज्याला वातो वातूली (वाया) बाम अम्लिका कमिः जलीकाः मत्कोटकः कीटिका भ्रमरो मक्षिका इत्येवमादि ?, आचार्य आह-जनपदसत्येन व्यवहारसत्येन पे प्रवर्तते इति गात्र दोषः, पवेन्द्रियेषु पुन तदीक्रियते, गोपालादीनामपि न सुदृष्टधर्माय इति विपरिणामसंभवाद, पृष्टसामाचारीकपने वा गुणसंभवात. दीप अनुक्रम [३०४-३१३] SAMA दश०३७ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 436~ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२१-२५|| नियुक्ति: [२९२...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||२१-२५|| दशवका० IP॥२३॥ किंच-तहेवत्ति सूत्रं, तथैव गावो 'दोह्या' दोहाही दोहसमय आसां वर्तत इत्यर्थः, 'दम्या वाक्यहारि-वृत्तिः 18 दमनीया गोरथका इति च, गोरथकाः कल्होडाः, तथा वाह्याः सामान्येन ये कचित्तानाश्रित्य रथयोग्याश्चैत शुद्ध्या इति नैवं भाषेत प्रज्ञावान साधुः, अधिकरणलाघवादिदोषादिति सूत्रार्थः ॥ २४ ॥ प्रयोजने तु कचिदेवं भाषास्व॥२१७॥ भाषेतेत्याह-जुर्व ति सूत्रं, युवा गौरिति-दम्यो गौर्युवेति यात्, धेनुं गां रसदेति ब्रूयात्, रसदा गौ- रूपम् रिति, तथा इखं महल्लकं वापि गोरथकं हखं वाचं महल्लकं वदेत्, संवहनमिति रथयोग्य संवहनं वदेत् | K२ उद्देश: कचिद्दिगुपलक्षणादौ प्रयोजन इति सूत्रार्थः ॥ २५॥ तहेव गंतुमुजाणं, पव्वयाणि वणाणि अ। रुक्खा महल्ल पेहाए, नेवं भासिज पन्नवं ॥ २६ ॥ अलं पासायखंभाणं, तोरणाण गिहाण अ । फलिहऽग्गलनावाणं, अलं उदगदोणिणं ॥२७॥ पीढए चंगबेरे (रा) अ, नंगले मइयं सिआ। जंतलठ्ठी व नाभी वा, गंडिआ व अलं सिआ ॥ २८ ॥ आसणं सयणं जाणं, हुज्जा वा किंचुवस्सए । भूओवघाइणि भासं, नेवं भासिज्ज पन्नवं ॥ २९ ॥ तहेव गंतुमुजाणं, पव्वयाणि वणाणि अ । रुक्खा महल्ल पेहाए, एवं भासिज पन्नवं ॥३०॥ जाइमंता इमे रुक्खा, दीप अनुक्रम [३१४-३१८] KRkOGGCK-ki-NCRkRRX ॥२१७॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 437~ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२६-३५|| नियुक्ति : [२९२...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||२६-३५|| दीहवहा महालया । पयायसाला विडिमा, वए दरिसणित्ति अ॥३१॥ तहा फलाई पक्काई, पायखज्जाई नो वए । वेलोइयाइं टालाइं, वेहिमाइ ति नो वए ॥ ३२॥ असंथडा इमे अंबा, बहुनिव्वडिमाफला । वइज बहुसंभूआ, भूअरूवत्ति वा पुणो ॥ ३३ ॥ तहेवोसहिओ पक्काओ, नीलिआओ छवीइ अ। लाइमा भज्जिमाउत्ति, पिहुखज ति नो वए ॥ ३४॥ रूढा बहुसंभूआ, थिरा ओसढावि अ । गम्भिआओ पसूआओ, संसाराउत्ति आलवे ॥ ३५॥ 'तहेवत्ति सूत्रं, 'तथैवेति पूर्ववत्, गत्वा 'उद्यान' जनक्रीडास्थान तथा पर्वतान् प्रतीतान् गत्वा तथा वनानि च, तत्र वृक्षान् 'महतो' महाप्रमाणान 'प्रेक्ष्य' दृष्ट्वा नैवं भाषेत 'प्रज्ञावान् साधुरिति सूत्रार्थः ॥२६॥ किमित्याह-'अलं'ति सूत्रं, 'अलं' पर्याप्ता एते वृक्षाः प्रासादस्तम्भयो, अत्रैकस्तम्भः प्रासादा, स्तम्भस्तु स्तंभ एव, तयोरलम् , तथा 'तोरणानां नगरतोरणादीनां गृहाणां च कुटीरकादीनाम् , अलमिति योगः, तथा 'परिचार्गलानावां वा' तत्र नगरद्वारे परिधः गोपुरकपाटादिष्वर्गला नौः प्रतीतेति आसामलमेते वृक्षाः, १ 'भलं निवारणे । अलङ्करणसामध्यपर्याप्तिष्ववधारणे' इत्युक्तेः अलमितिपयर्याप्त्यर्थग्रहणमित्युकेश्चात्र सामार्थग्रहणान चतुर्थी. दीप अनुक्रम [३१९-३२८] Eramirs मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 438~ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य| वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२६-३५|| नियुक्ति: [२९२...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||२६-३५|| दशवैका०तथा उदकद्रोणीनां अलम् , उदकद्रोण्योऽरहट्टजलधारिका इति सूत्रार्थः ॥ २७ ॥ तथा 'पीढएत्ति सूत्रं, वाक्यहारि-वृत्तिः पीठकायालमेते वृक्षाः, पीठकं प्रतीतं तदर्थम् , 'सुपां सुपो भवन्तीति चतुर्थ्यर्थे प्रथमा, एवं सर्वत्र योजनीयं, शुद्ध तथा 'चंगवेरा येति चङ्गवेरा-काष्ठपात्री तथा 'नंगले'त्ति लागलं-हलं, तथा अलं मयिकाय स्यात्, मयिकम् भाषास्व॥२१८॥ ४-उप्तबीजाच्छादनं, तथा यत्रयष्टये वा, यनयष्टिः प्रतीता, तथा नाभये वा, नाभिः शकटरथाङ्ग, गण्डिकायै | रूपम् वाऽलं स्युरेते वृक्षा इति, नैवं भाषेत प्रज्ञावानिति वर्तते, गण्डिका सुवर्णकाराणामधिकरणी (अहिगरणी) २उद्देश स्थापनी भवतीति सूत्रार्थः ॥ २८ ॥ तथा 'आसणं'ति सूत्रं, 'आसनम् आसन्दकादि 'शयनं' पर्यादि 'यानं' युग्यादि भवेद्बा किश्चिदुपाश्रये-वसतावन्यद्-द्वारपात्राद्येतेषु वृक्षेष्विति 'भूतोपघातिनी' सत्त्वपीडाकारिणी भाषां नैव भाषेत प्रज्ञावान साधुरिति सूत्रार्थः ।। दोषाश्चात्र तदनस्वामी व्यन्तरादिः कुप्येत्, सलक्षणो वा वृक्ष इत्यभिगृह्णीयात्, अनियमितभाषिणो लाघवं चेत्येवमादयो योज्याः॥ २९ ॥ अत्रैव विधिमाह-तहेव'सि सूत्रं, वस्तुतः पूर्ववदेव, मवरमेवं भाषेत ॥ ३०॥ 'जाइमंत'त्ति सूत्रं, 'जातिमन्तः उत्तम-12 जातयोऽशोकादयः अनेकप्रकारा 'एत' उपलभ्यमानस्वरूपा वृक्षा 'दीर्घवृत्ता महालपाः' दीर्घा नालिकेरीप्र-IN भृतयः वृत्ता नन्दिवृक्षादयः महालया वटादयः 'प्रजातशाखा' उत्पन्नडाला 'विटपिन' प्रशाखावन्तो वदेप्रदर्शनीया इति च । एतदपि प्रयोजन उत्पन्ने विश्रमणतदासन्नमार्गकधनादौ वदेशान्यदेति सूत्रार्थः ॥ ३१॥ सपास ॥२१८॥ लतहा फलाणि'त्ति सूत्रं, तथा 'फलानि आम्रफलादीनि 'पकानि' पाकप्राप्तानि तथा 'पाकखाद्यानि दीप अनुक्रम [३१९-३२८] JaElcatarina मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 439~ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२६-३५|| नियुक्ति: [२९२...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||२६-३५|| बद्धास्थीनीति गर्तप्रक्षेपकोद्रवपलालादिना विपाच्य भक्षणयोग्यानीति नो वदेत् । तथा 'वेलोचितानि' पाकातिशयतो ग्रहणकालोचितानि, अतः परं कालं न विषहन्तीत्यर्थः, 'टालानि' अबद्धास्थीमि कोमलानीति तदुक्तं भवति, तथा 'द्वैधिकानीति पेशीसंपादनेन द्वैधीभावकरणयोग्यानीति नो वदेत् । दोषाः पुनरत्रात ऊर्ध्व नाश एवामीषां न शोभनानि वा प्रकारान्तरभोगेनेत्यवधार्य गृहिप्रवृत्तावधिकरणादय इति सूत्रार्थः | &॥ ३२ ॥ प्रयोजने पुनर्मार्गदर्शनादावेवं वदेदित्याह-'असंघत्ति सूत्रं, असमर्था 'एतें आम्राः, अतिभरेण न शक्नुवन्ति फलानि धारयितुमित्यर्थः, आम्रग्रहणं प्रधानवृक्षोपलक्षणम्, एतेन पक्वार्थ उक्तः, तथा बहुनिर्वर्तितफलाः' बहूनि निर्वतितानि-बद्धास्थीनि फलानि येषु ते तथा, अनेन पाकखाद्यार्थ उक्तः, वदेद् 'बहुसंभूता' बहुनि संभूतानि-पाकातिशयतो ग्रहणकालोचितानि फलानि येषु ते तथा, अनेन वेलोचितार्थ उक्तः, तथा भूतरूपा इति वा पुनर्वदेत्, भूतानि रूपाणि-अवद्धास्थीनि कोमलफलरूपाणि येषु ते तथा, 2 अनेन टालायर्थ उपलक्षित इति सूत्रार्थः ॥ ३३ ॥'तहेव'त्ति सूत्रं, तथा 'ओषधयः' शाल्यादिलक्षणाः, पक्का इति, तथा नीलाइछवय इति वा वल्लचवलकादिफललक्षणाः तथा 'लवनवत्यो' लवनयोग्या: 'भजैनवत्या, इति भर्जनयोग्याः तथा 'पृथुकभक्ष्या' इति पृथुकभक्षणयोग्याः, नो वदेदिति सर्वत्राभिसंवध्यते, पृथुका अर्धपकशाल्यादिषु क्रियन्ते, अभिधानदोषाः पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥ ३४ ॥ प्रयोजने पुनर्मार्गदर्शनादावेवमालपेदित्याह-'रूढ'त्ति सूत्रं, 'रूढा' प्रादुर्भूताः 'बहुसंभूता' निष्पन्नप्रायाः 'स्थिरा' निष्पन्नाः 'उत्सृता' इतिk ॐ5555 दीप अनुक्रम [३१९-३२८] CARKA मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~440~ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||३६-३७|| नियुक्ति: [२९२...], भाष्यं [६२...] (४२) दशवैका हारि-वृत्तिः ॥२१९॥ प्रत सूत्रांक ||३६-३७|| शुख्य भाषाव रूपम् २ उद्देश: उपघातेभ्यो निर्गता इति वा, तथा 'गर्भिता' अनिर्गतशीर्षकाः 'प्रसूता' निर्गतशीर्षकाः 'संसाराः संजात-IN तन्दुलादिसारा इत्येवमालपेत्, पक्काद्यर्थयोजना खधिया कार्येति सूत्रार्थः ॥ ३५ ॥ तहेब संखडिं नच्चा, किच्चं कजंति नो वए। तेणगं वावि वज्झित्ति, सुतिस्थिति अ आवगा ॥ ३६ ॥ संखडि संखडिं बूआ, पणिअट्ट त्ति तेणगं । बहुसमाणि तित्थाणि, आवगाणं विआगरे ॥ ३७॥ वाग्विधिप्रतिषेधाधिकारेऽनुवर्तमान इदमपरमाह-तहेवत्ति सूत्रं, तथैव 'संखडिं ज्ञात्वा' संखण्ड्यन्ते । प्राणिनामायूंषि यस्यां प्रकरणक्रियायां सा संखडी तां ज्ञात्वा, 'करणीय'ति पित्रादिनिमित्तं कृत्यैवैषेति नो |वदेत्, मिथ्याखोपवृंहणदोषात्, तथा स्तेनकं वापि वध्य इति नो वदेत, तदनुमतत्वेन निश्चयादिदोषप्रस-1 झात्, सुतीर्थी इति च, चशब्दाहुस्तीर्था इति वा 'आपगा' नद्यः केनचित्पृष्टः सन्नो वदेत, अधिकरणविघातादिदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ।। ३६॥ प्रयोजने पुनरेवं वदेदित्याह-संखडिन्ति सूत्रं, संखडि संखडिं ब्रूयात, साधुकथनादौ संकीर्णा संखडीत्येवमादि, पणितार्थ इति स्तेनकं वदेत, शैक्षकादिकर्मविपाकदर्शनादौ, पणितेनार्थोऽस्येति पणिता, प्राणातप्रयोजन इत्यर्थः, तथा बहुसमानि तीर्थानि 'आपगानां नदीनां व्यागृणीयात् साध्वादिविषय इति सूत्रार्थः ॥ ३७॥ दीप अनुक्रम [३२९-३३०] AXECRECESSARY ॥२१९॥ Limelicatom.in मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~441~ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||३८ -४०|| दीप अनुक्रम [३३१ -३३३] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [७], उद्देशक [-] मूलं [ १५...] / गाथा ||३८-४० || निर्युक्तिः [ २९२...], भाष्यं [६२...] La Edocation in तहा नईओ पुण्णाओ, कायतिज्जति नो वए। नावाहिं तारिमाउत्ति, पाणिपिजत्ति नो वए ॥ ३८ ॥ बहुवाडा अगाहा, बहुसलिलुप्पिलोदगा । बहुवित्थडोदगा आवि, एवं भासिज पन्नवं ॥ ३९ ॥ तहेव सावज्जं जोगं, परस्सट्टा अ निट्टिअं । कीरमाणंति वा नच्चा, सावज्जं न लवे मुणी ॥ ४० ॥ विधिप्रतिषेधाधिकार एवेदमाह - 'तहा नई 'सि सूत्रं, तथा नय: 'पूर्णा' भृता इति नो वदेत्, प्रवृत्तश्रवणनिवर्त्तनादिदोषात्, तथा 'कायतरणीयाः शरीरतरणयोग्या इति नो वदेत्, साधुवचनतोऽविममिति प्रवर्त्तनादिप्रसङ्गात्, तथा नौभिः-द्रोणीभिस्तरणीयाः -तरणयोग्या इत्येवं नो वदेत्, अन्यथा विनशङ्कया तत्प्रवर्त्तनात्, तथा 'प्राणिपेया:' तटस्थप्राणिपेया नो वदेदिति तथैव प्रवर्तनादिदोषादिति सूत्रार्थः ॥ ३८ ॥ प्रयोजने तु साधुमार्गकथनादावेवं भाषेतेत्याह-- 'बहुवाह'त्ति सूत्रं, बहुभृताः प्रायशो भृता इत्यर्थः, तथा 'अगाधा' इति बह्नगाधाः प्रायोगम्भीराः, तथा 'बहुसलिलोत्पीलोदकाः' प्रतिस्रोतोवाहितापरसरित इत्यर्थः तथा 'विस्तीर्णोदकाच' खतीरलायनप्रवृत्तजलाच, एवं भाषेत प्रज्ञावान् साधुः, न तु तदाऽऽगतपृष्टो न वेद्म्यहमिति ब्रूयात्, प्रत्यक्षमृषावादित्वेन तत्प्रद्वेषादिदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ ३९ ॥ वाग्विधिप्रतिषेधाधिकार एवेदमाह - 'तहेब'सि सूत्रं तथैव 'सावयं' सपापं 'योगं' व्यापारमधिकरणं सभादिविषयं 'परस्यार्थाय' For P&Personal Use Cly मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४२], मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः ~ 442~ oryg Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||४१-४२|| नियुक्ति: [२९२...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत शुख्य भाषास्व रूपम् २ उद्देश: सूत्रांक ॥४१-४२|| क दशका०परनिमित्तं निष्ठित निष्पन्न तथा 'क्रियमाणं वा' वर्तमान वाशब्दाङ्गविष्यत्कालभाविनं वा ज्ञात्वा 'साहारि-वृत्तिः वयं नालपेत्' सपापं न ब्रूयात् 'मुनि।' साधुरिप्ति सूत्रार्थः ॥ ४०॥ ॥२२॥ सुकडित्ति सुपक्कित्ति, सुच्छिन्ने सुहडे मडे । सुनिट्रिए सुलट्रित्ति, सावज वजए मुणी ॥४१॥ पयत्तपक्कत्ति व पक्कमालवे, पयत्तछिन्नत्ति व छिन्नमालवे । पयत्तलद्वित्ति व कम्महेउअं, पहारगाढत्ति व गाढमालवे ॥ ४२ ॥ तत्र निष्ठितं नैवं ब्यादित्याह-'सुकडि'सि सूत्रं, 'सुकृत'मिति सुष्ठ कृतं सभादि 'सुपक मिति सुष्टु पार्क सहस्रपाकादि 'सुच्छिन्न मिति सुष्टु छिन्नं तनादि 'सुहत मिति सुष्टु हृतं क्षुद्रस्य वित्तं 'सुमृत' इति | मुष्ठ भृतः प्रत्यनीक इति, अत्रापि मुशब्दोऽनुवर्तते, 'सुनिष्ठित मिति मुष्टु निष्ठितं वित्ताभिमानिनो वित्तं 'मुलहित्ति सुष्टु सुन्दरा कन्या इत्येवं सावद्यमालपनं वर्जयेदू मुनिा, अनुमत्यादिदोषप्रसङ्गात्, निरवयं तु न वर्जयेत्, यथा-'सुकृतमिति मुष्ठ कृतं वैयावृत्त्यमनेन 'सुपक मिति सुष्टु पकं ब्रह्मचर्य साधोः 'सुच्छिनिमिति सुष्टु छिन्नं स्नेहबन्धनमनेन, 'सुहृत'मिति सुष्टु हृतं शिक्षकोपकरणमुपसर्गे 'सुमृत' इति सुष्टु मृतः पण्डितमरणेन साधुरिति, अघ्रापि सुशब्दोऽनुवर्तते, 'सुनिष्ठित'मिति सुष्ठ निष्ठितं कर्माप्रमत्तसंयतस्य | 'मुलट्ठत्ति सुष्टु सुन्दरा साधुक्रियेत्येवमादीति सूत्रार्थः ॥ ४१ ॥ उक्तानुक्तापवादविधिमाह-'पयत्तत्ति दीप अनुक्रम [३३४-३३५] ॥२२०॥ Erami मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~443~ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||४१-४२|| नियुक्ति: [२९२...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ॥४१-४२|| सूत्र, 'प्रयत्नपक मिति चा प्रयत्नपक्कमेतत् 'पर्क' सहस्रपाकादि ग्लानप्रयोजन एवमालपेत्, तथा 'प्रयत्नच्छि 'मिति वा प्रयत्नच्छिन्नमेतत् 'छिन्नं' वनादि साधुनिवेदनादौ एवमालपेत, तथा 'प्रयत्नलष्टेति वा प्रयत्नसु*न्दरा कन्या दीक्षिता सती सम्यक पालनीयेति 'कर्महेतुक'मिति सर्वमेय वा कृतादि कर्मनिमित्तमालपेदिति योगः, तथा 'गाढमहारमिति वा कश्चन गाढमालपेत्-गाढप्रहारं ब्रूयात् कचित्प्रयोजने, एवं हि तदप्रीत्यादयो दोषाः परिहता भवन्तीति सूत्रार्थः ॥४२॥ सव्वुक्कसं परग्धं वा, अउलं नत्थि परिसं । अविक्किअमवत्तव्वं, अचिअत्तं चेव नो वए॥४३ ॥ सव्वमेअं वइस्सामि, सव्वमेअंति नो वए । अणुवीइ सव्वं सव्वत्थ, एवं भासिज पन्नवं ॥४४॥ सुक्की वा सुविक्की, अकिजं किजमेव वा । इमं गिण्ह इमं मुंच, पणीअं नो विआगरे ॥ ४५ ॥ अप्पग्घे वा महग्घे वा, कए वा विक एवि वा । पणिअटे समुप्पन्ने, अणवज विआगरे ॥ ४६॥ कचिट्यवहारे प्रकान्ते पृष्टोऽपृष्टो वा नैवं ब्यादित्याह-'सकस'ति सूत्र, एतन्मध्य इदं 'सर्वोत्कृष्टं। खभावेन सुन्दरमित्यर्थः, 'परार्ध वा उत्तमाघ वा महा क्रीतमिति भावः अतुलं नास्तीदृशमन्यत्रापि कचित्, 'अविकिति असंस्कृतं सुलभमीदृशमन्यत्रापि, 'अबक्तव्य'मित्यनन्तगुणमेतत् अविअर्स वा-अ दीप अनुक्रम [३३४ -३३५] Limelicatom. i N मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 444~ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||४३ -४६|| दीप अनुक्रम [३३६ -३३९] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [७], उद्देशक [-] मूलं [ १५...] / गाथा ||४३-४६ || निर्युक्तिः [ २९२...], भाष्यं [६२...] दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ २२१ ॥ La Edocation प्रीतिकरं चैतदिति नो वदेत्, अधिकरणान्तरायादिदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ ४३ ॥ किं च-- 'सव्वमेअंति सूत्रं, 'सर्वमेतद्वक्ष्यामी'ति केनचित् कस्यचित संदिष्टे सर्वमेतत्त्वया वक्तव्यमिति सर्वमेतद्वक्ष्यामीति ॐ नो वदेत्, सर्वस्य तथाखरव्यञ्जनायुपेतस्य वक्तुमशक्यत्वात्, तथा सर्वमेतदिति नो वदेत्, कस्यचित्संदेशं प्रयच्छन् सर्वमेतदित्येवं वक्तव्य इति नो वदेत्, सर्वस्य तथाखरव्यञ्जनाद्युपेतस्य वक्तुमशक्यत्वात्, असंभ वाभिधाने मृषावादः, यतश्चैवमतः 'अनुचिन्त्य' आलोच्य सर्व वाच्यं 'सर्वत्र' कार्येषु यथा असंभवायभि धानादिना मृषावादो न भवत्येवं भाषेत प्रज्ञावान् साधुरिति सूत्रार्थः ॥ ४४ ॥ किंच- 'मुक्कीअं वत्ति सूत्रं, 'सुक्रीतं वेति किञ्चित् केनचित् क्रीतं दर्शितं सत्सुक्रीतमिति न व्यागृणीयात् इति योग:, तथा 'सुविक्रीतमिति किञ्चित्केनचिद्विक्रीतं दृष्ट्वा पृष्ठः सन् सुविक्रीतमिति न व्यागृणीयात्, तथा केनचित् क्रीते पृष्टः 'अत्रेय' क्रयार्हमेव न भवतीति न व्याग्रणीयात्, तथैवमेव 'क्रेयमेव वा' क्राईमेवेति, तथा 'इदं' गुडादि गृहाणागामिनि काले महार्घे भविष्यति तथा 'इदं' मुञ्च घृताद्यागामिनि काले समर्धे भविष्यतीति कृत्वा 'पणितं' पण्यं नैव व्यागृणीयात्, अप्रीत्यधिकरणादिदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ ४५ ॥ अत्रैव विधिमाह - 'अप्पग्धे वत्ति सूत्रं, अल्पार्धे वा महार्घे वा, कस्मिन्नित्याह-क्रये वा विक्रयेऽपि वा 'पणितार्थे' पण्यवस्तुनि समुत्पन्ने केनचित् पृष्टः सन् 'अनवधम्' अपापं व्यागृणीयात् यथा नाधिकारोऽत्र तपखिनां व्यापाराभावा| दिति सूत्रार्थः ॥ ४६ ॥ For P&Personal Use City मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः ~ 445~ ७ वाक्य शुज्य० भाषास्वरूपम् २ उद्देशः ॥ २२१ ॥ way Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक |४७ -४९|| दीप अनुक्रम [३४० -३४२] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [७], उद्देशक [-] मूलं [ १५...] / गाथा ||४७-४९ || निर्युक्तिः [ २९२...], भाष्यं [६२...] La Edocanon in तवासंजयं धीरो, आस एहि करेहि वा । सय चिट्ठ वयाहित्ति, नेवं भासिज्ज पन्नवं ॥ ४७ ॥ बहवे इमे असाहू, लोए बुच्चंति साहुणो । न लवे असाहु साहुत्ति, साहु साहुति आलवे ॥ ४८ ॥ नाणदंसणसंपन्नं, संजमे अ तवे रयं । एवंगुणसमाउत्तं, संजय साहुमालवे ॥ ४९ ॥ किंच— 'तहेव'त्ति सूत्रं, तथैव 'असंयतं' गृहस्थं 'धीरः' संयतः आस्खेदैव, एहीतोऽत्र, कुरु वेद-संचयादि, तथा शेष्य निद्रया, तिष्ठोर्ध्वस्थानेन, ब्रज ग्राममिति नैवं भाषेत प्रज्ञावान् साधुरिति सूत्रार्थः ॥ ४७ ॥ किंच- 'बहवे'त्ति सूत्रं, बहवः 'एते' उपलभ्यमानखरूपा आजीवकादयः असाधवः निर्वाणसाधकयोगापेक्षया 'लोके तु' प्राणिसंघाते उच्यन्ते साधवः सामान्येन तत्र नालपेदसाधुं साधु, मृषावादप्रसङ्गात्, अपितु साधुं साधुमित्यालपेत्, न तु तमपि नालपेत्, उपबृंहणातिचारदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ ४८ ॥ किंविशिष्टं साधु साधुमित्यालपेदित्यत आह- 'ना'सि सूत्रं, ज्ञानदर्शन संपन्नं समृद्धं संयमे तपसि च रतं यथाशक्ति एवं गुणसमायुक्तं संयतं साधुमालपेत्, न तु द्रव्यलिङ्गधारिणमपीति सूत्रार्थः ।। ४९ ।। देवाणं मणुआणं च, तिरिआणं च बुग्गहे । अमुगाणं जओ होउ, मा वा होउ ति मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४२], मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः ~ 446~ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||५०-५४|| नियुक्ति: [२९२...], भाष्यं [६२...] (४२) दशवैका० हारि-वृत्तिः ॥२२२॥ प्रत सूत्रांक ||५०-५४|| नो वए ॥५०॥ वाओ वुद्रं च सीउण्हं, खेमं धायं सिवंति वा । कया णु हुज्ज ए ७ वाक्यआणि?, मा वा होउ ति नो वए ॥ ५१ ॥ तहेव मेहं व नहं व माणव, न देवदेव शुद्ध त्ति गिरं वइजा । समुच्छिए उन्नए वा पओए, वइज्ज वा वुटु बलाहय त्ति ॥ ५२ ॥ भाषास्व रूपम् अंतलिक्खत्ति णं बूआ, गुज्झाणुचरिअत्ति अ । रिद्धिमंतं नरं दिस्स, रिद्धिमंतंति २ उद्देशा आलवे ॥ ५३॥ तहेव सावजणुमोअणी गिरा, ओहारिणी जा य परोवघाइणी । से कोह लोह भय हास माणवो, न हासमाणोऽवि गिरं वइजा ॥ ५४॥ किंच-'देवाणीति सूत्रं, 'देवानां देवासुराणां 'मनुजानां नरेन्द्रादीनां 'तिरश्चा' महिषादीनां च 'विग्रहे। संग्रामे सति 'अमुकानां देवादीनां जयो भवतु मा वा भवत्विति नो वदे, अधिकरणतत्स्वाम्यादिद्वेषदो प्रसङ्कादिति सूत्रार्थः॥५०॥ किं च–'वाउ'त्ति सूत्रं, 'वातो' मलयमारुतादिः, 'वृष्टं वा वर्षणं, शीतोष्णं प्रतीतं 'क्षेमं राजविड्वरशून्यं 'भातं' सुभिक्षं 'शिव'मिति चोपसर्गरहितं कदा नु भवेयुः 'एतानि वातादीनि, मा वा भवेयुरिति धर्माद्यभिभूतो नो वदेद्, अधिकरणादिदोषप्रसङ्गाद्, वातादिषु सत्सु सत्त्वपीडापत्तेः||॥ २२२॥ तद्वचनतस्तथाभवनेऽप्यातध्यानभावादिति सूत्रार्थः ॥५१॥'तहेव'त्ति सूत्रं, तथैव मेघ वा नभो वा मानव ५-%25R-RRAIMER दीप अनुक्रम [३४३ -३४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~447~ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||५० -५४|| दीप अनुक्रम [ ३४३ -३४७] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [७], उद्देशक [-] मूलं [ १५...] / गाथा ||५०-५४|| निर्युक्तिः [ २९२ ... ], भाष्यं [ ६२...] दश० ३८ Education if वाऽऽश्रित्य नो देवदेवन्ति गिरं वदेत्, मेघमुन्नतं दृष्ट्वा उन्नतो देव इति नो वदेत्, एवं 'नभ' आकाशं 'मानवं' राजानं वा देवमिति नो वदेत्, मिथ्यावादलाघवादिप्रसङ्गात् । कथं तर्हि वदेदित्याह-उन्नतं दृष्ट्वा संमूछित उन्नतो वा पयोद इति वदेद्वा वृष्टो बलाहक इति सूत्रार्थः ॥ ५२ ॥ नभ आश्रित्याह-'अंतलिक्ख'त्ति सूत्र, इह नभोऽन्तरिक्षमिति ब्रूयाद्गुह्यानुचरितमिति वा, सुरसेवितमित्यर्थः एवं किल मेघोऽप्येतदुभयशदिवाच्य एव । तथा 'ऋद्धिमन्तं' संपदुपेतं नरं दृष्ट्वा, किमित्याह- 'रिद्धिमंत' मिति ऋद्धिमानयमित्येवमालपेत्, व्यवहारतो मृषावादादिपरिहारार्थमिति सूत्रार्थः ॥ ५३ ॥ किंच- 'तहेब'त्ति सूत्रं तथैव सावधानुमोदिनी 'गी' वागू यथा सुष्ठु हतो ग्राम इति, तथा 'अवधारिणी' इदमित्थमेवेति संशयकारिणी वा, या च | परोपघातिनी यथा-मांसमदोषाय 'से' इति तामेवंभूतां क्रोधाल्लोभाद्रयाद्धासाद्वा, मानप्रेमादीनामुपलक्षणमेतत्, 'मानवः' पुमान् साधुने हसन्नपि गिरं वदेत्, प्रभूतकर्मबन्धहेतुत्वादिति सूत्रार्थः ॥ ५४ ॥ सकसुद्धिं समुपेहिआ मुणी, गिरं च दुटुं परिवज्जए सया। मिअं अदुडे (टुं) अणुवीइ भासए, सयाण मज्झे लहई पसंसणं ॥ ५५ ॥ भासाइ दोसे अ गुणे अ जाणिआ, तसे अदुट्टे परिवज्जए सया । छसु संजए सामणिए सया जए, वइज्ज बुद्धे हिअ १ एवम समाप्तावित्यु केरेयमथोऽत्रेतिस्तेन न देवमिति विरुद्धम् For P&Personal Use City मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ४२ ], मूल सूत्र [३] “दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि -विरचिता वृत्तिः उपसंहार-रूपेण भाषाशुद्धिः विषयक उपदेशः ~448~ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||५५-१७|| नियुक्ति : [२९२...], भाष्यं [६२...] (४२) दशवैका. हारि-वृत्तिः प्रत |७वाक्यशुद्ध भाषास्व. रूपम् ॥२२३॥ सूत्रांक ||५५-५७|| माणुलोमिअं ॥ ५६ ॥ परिक्खभासी सुसमाहिइंदिए, चउक्कसायावगए अणिस्सिए । से निहुणे धुन्नमलं पुरेकडं, आराहए लोगमिणं तहा परं ॥ ५७॥ ति बेमि ॥ सवक्कसुद्धीअज्झयणं समत्तं ॥७॥ वाक्यशुद्धिफलमाह-सवक्क'त्ति सूत्रं, सद्वाक्यशुद्धिं खवाक्यशुद्धिं वा सवाक्य शुद्धिं वा, सतीं शो-|| भना, खामात्मीयां, स इति वक्ता, वाक्यशुद्धिं 'संप्रेक्ष्य' सम्यग् दृष्ट्वा 'मुनि' साधुः गिरं तु 'दुष्टां यथोक्तलक्षणां परिवर्जयेत् सदा, किंतु 'मित' खरतः परिमाणतश्च, 'अदुष्टं देशकालोपपन्नादि 'अनुविचिन्त्य' पर्यालोच्य भाषमाणः सन् 'सतां' साधूनां मध्ये 'लभते प्रशंसन प्रामोति प्रशंसामिति सूत्रार्थः ॥ ५५ ॥ यतश्चैवमतः–'भासाईत्ति सूत्रं, "भाषाया' उक्तलक्षणाया दोषांश्च गुणांश्च 'ज्ञात्वा' यथावदवेत्य तस्याश्च दुष्टाया भाषायाः परिवर्जकः सदा, एवंभूतः सन् षड्जीवनिकायेषु संयतः, तथा 'श्रामण्ये' श्रमणभावे चरणपरिणामगर्भे चेष्टिते 'सदा यतः' सर्वकालमुटुक्तः सन् वदेद् बुद्धो 'हितानुलोम हितं-परिणामसुन्दरम् अनुलोमं -मनोहारीति सूत्रार्थः ॥५६॥ उपसंहरन्नाह-परिक्ख'त्ति सूत्रं, 'परीक्ष्यभाषी' आलोचितवक्ता तथा 'सुसमाहितेन्द्रिय सुप्रणिहितेन्द्रिय इत्यर्थः, 'अपगतचतुष्कषायः क्रोधादिनिरोधकर्तेति भावः, 'अनिश्रितों दीप अनुक्रम [३४८-३५० मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~449~ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||५५-५७|| नियुक्ति: [२९२...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत द्रव्यभावनिश्रारहितः, प्रतिबन्धविमुक्त इति हृदयम् , स इत्थंभूतो निधूयं प्रस्फोट्य 'धूनमल' पापमलं I'पुराकृतं' जन्मान्तरकृतं, किमिति?-'आराधयति' प्रगुणीकरोति लोकम् 'एनं मनुष्यलोकं वाक्संयतत्वेन, तथा 'पर'मिति परलोकमाराधयति निर्वाणलोकं, यथासंभवमनन्तरं पारम्पर्येण वेति गर्भः। ब्रवीमीति पूर्व|वत् । नयाः पूर्ववदेव ॥ ५७॥ सूत्रांक ||५५-५७|| इति श्रीहरिभद्रसूरिविरचितायां दशवकालिकटीकायां (सप्तमस्य) वाक्यशुद्ध्यध्ययनस्य व्याख्यानं समाप्सम् ॥७॥ दीप अनुक्रम [३४८-३५० मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: अत्र सप्तमं अध्ययनं परिसमाप्तं ~450~ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१७...|| नियुक्ति: [२९३], भाष्यं [६२...] (४२) दशका. हारि-वृत्तिः ॥२२४॥ प्रत सूत्रांक ||५७..|| अथाष्टममाचारप्रणिधिनामाध्ययनं प्रारभ्यते ॥ आचार प्रणिध्यव्याख्यातं वाक्यशुद्ध्यध्ययनम् , इदानीमाचारप्रणिध्यायमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः, इहानन्तरा-16 ध्ययनम् ध्ययने साधुना वचनगुणदोषाभिज्ञेन निरवद्यवचसा वक्तव्यमित्येतदुक्तम्, इह तु तन्निरवयं वच आचारे| २ उद्देश: प्रणिहितस्य भवतीति तत्र यत्नवता भवितव्यमित्येतदुच्यते, उक्तं च-"पणिहाणरहिअस्सेह, निरवलंपि भासि। सावज्जतुल्लं विन्ने, अज्झत्थेणेह संवुडम् ॥१॥” इत्यनेनाभिसंबन्धेनायातमिदमध्ययनम्, अस्य चानुयोगद्वारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्यावन्नामनिष्पन्नो निक्षेपः, तत्र चाचारप्रणिधिरिति द्विपदं नाम, तत्राचारनिक्षेपमतिदिशन प्रणिधिं च प्रतिपादयन्नाह जो पुर्दिव उद्दिटो आयारो सो अहीणमइरितो । दुविहो अ होइ पणिही दव्वे भावे अ नायव्दो ॥ २९३ ॥ व्याख्या-यः पूर्व क्षुल्लिकाचारकथायामुद्दिष्ट आचारः सोहीनातिरिक्त:-तदवस्थ एवेहापि द्रष्टव्य इति || वाक्यशेषा, क्षुण्णत्वासामस्थापने अनाहत्य प्रणिधिमधिकृत्याह-द्विविधश्च भवति प्रणिधिः, कथमित्याह'द्रव्य' इति द्रव्यविषयो 'भाव' इति भावविषयश्च ज्ञातव्य इति गाथार्थः । तत्र १ प्रणिधानरहितस्पेट निरपद्यमपि भाषितम् । सायद्यतुल्य विज्ञेयं अध्यात्मस्नेह संधराम् ॥१॥ दीप अनुक्रम [३५०..] 4%4585 ॥२२४॥ Edrama मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: अध्ययनं -८- "आचारप्रणिधि" आरभ्यते •••अस्य अध्ययने उद्देशक: नास्ति, शिर्षकस्थाने यत् “२ उद्देश" इति मुद्रितं तत् मुद्रणदोष एव अस्ति ~ 451~ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||५७...|| नियुक्ति: [२९४], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||५७..|| दलले निहाणमाई मायपउत्ताणि चेव दब्वाणि । भाविंदिअनोइंदिश दुविहो उ पसस्थ अपसस्थो ॥ २९४ ॥ व्याख्या-'द्रव्य' इति द्रव्यविषयः प्रणिधिः निधानादि प्रणिहितं निधानं निक्षिप्तमित्यर्थः, आदिशब्दः खभेदप्रख्यापका, मायाप्रयुक्तानि चेह द्रव्याणि द्रव्यप्रणिधिः, पुरुषस्य स्त्रीवेषेण पलायनादिकरणं खियो वा| पुरुषवेषेणेत्यादि । तथा 'भाव' इति भावप्रणिधिर्द्विविधः-इन्द्रियाणिधिनॊइन्द्रियप्रणिधिश्च, तत्रेन्द्रियमणि|चिर्द्विविधा-प्रशस्तो प्रशस्तश्चेति गाथार्थः ॥ प्रशस्तमिन्द्रियाणिधिमाह सरेसु अ रूबेसु अ गंधेसु रसेसु तह व फासेसु । नवि रजा न वि दुरसइ एसा खलु इंदिअप्पणिही ।। २९५ ॥ व्याख्या-शब्देषु च रूपेषु च गन्धेषु रसेषु तथा च स्पर्शेषु एतेथिन्द्रियार्थविष्टानिष्टेषु चक्षुरादिभिरिन्द्रियैापि रज्यते नापि द्विष्यते एष खलु माध्यस्थ्यलक्षण इन्द्रियाणिधिः प्रशस्त इति भावार्थः, अन्यथा खप्रशस्तः, तत्र दोषमाह सोइंदिभरस्सीहि उ मुकाहि सहमुच्छिओ जीवो । आइआइ अणाउचो सदगुणसमुहिए दोसे ।। २९६ ॥ व्याख्या-'श्रोत्रेन्द्रियरश्मिभिः' श्रोत्रेन्द्रियरज्जुभिः 'मुक्ताभिः' उच्छ्ड्सलाभिः, किमित्याह-शब्दमूछितः' शब्दगृद्धो जीवः 'आदतें' गृह्णात्यनुपयुक्तः सन् , कानित्याह-शब्दगुणसमुत्थितान् दोषान्-शब्द एवेन्द्रि४यगुणः तत्समुत्थितान् दोषान्-वन्धवधादीन् श्रोत्रेन्द्रियरजुभिरादत्त इति गाथार्थः॥शेषेन्द्रियातिदेशमाह जह एसो सदेसुं एसेव कमो उ सेसएहिं पि । चउहिपि इंदिएहिं रूबे गंधे रसे फासे ।। २९७ ॥ दीप अनुक्रम [३५०..] Limelicatomia ) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: "प्रणिधि" शब्दस्य द्रव्यादि भेद-प्रभेदा: वर्णनं ~ 452~ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||५७...|| नियुक्ति: [२९७], भाष्यं [६२...] (४२) दशवैका आचारप्रणिध्य ध्ययनम् |२ उद्देश: प्रत सूत्रांक ||५७..|| व्याख्या-यथैष 'शब्देषु शब्दविषयः श्रोत्रेन्द्रियमधिकृत्य दोष उक्ता, एष एव क्रमः 'शेरैरपि चक्षुरा- हारि-त्तिः कादिभिश्चतुर्भिरपीन्द्रियैर्दोषाभिधाने द्रष्टव्यः, तद्यथा-चक्विन्दिअरस्सीहि उ, इत्यादि, अत एवाह-रूपे ॥२२५॥ २२पर गन्धे रसे स्पर्श' रूपादिविषय इति गाथार्थः ॥ अमुमेवार्थ दृष्टान्ताभिधानेनाह जरस खलु दुष्पणिहिआणि इंदिआई तवं चरंतस्स । सो हीरइ असहीणेहि सारही वा तुरंगेहिं ।। २९८ ॥ व्याख्या-'यस्य खल्वि'ति यस्यापि दुष्पणिहितानीन्द्रियाणि विश्रोतोगामीनि 'तपश्चरत' इति तपोऽपि कुर्वतः स तथाभूतो 'हियते' अपनीयते इन्द्रियैरेव निर्वाणहेतोश्चरणात्, दृष्टान्तमाह-'अखाधीन' अखवशेः 'सारथिरिव' रचनेतेव 'तुरङ्गमैः अश्वैरिति गाथार्थः । उक्त इन्द्रियाणिधिः, नोइन्द्रियप्रणिधिमाह कोहं माणं मायं लोहं च महब्भयाणि चत्तारि । जो रंभइ सुद्धप्पा एसो नोइंदिअप्पणिही ।। २९९ ॥ व्याख्या-क्रोधं मानं मायां लोभं चेत्येतेषां खरूपमनन्तानुबन्ध्यादिभेदभिन्नं पूर्ववत्, एत एव च महाभयानि चत्वारि, सम्यगदर्शनादिप्रतिबन्धरूपत्वात् । एतानि यो रुणद्धि शुद्धात्मा उदयनिरोधादिना 'एष निरोद्धा क्रोधादिनिरोधपरिणामानन्यत्वानोइन्द्रियप्रणिधिः, कुशलपरिणामत्वादिति गाथार्थः ॥ एतदनिरोधे दोषमाह जस्सवि भ दुष्पणिहिमा होति कसाया तवं चरंतस्स । सो बालतवस्सीविव गयणहाणपरिस्समं कुणइ ॥ ३००॥ १ आवश्यके बिसारेण पूर्व व्याख्यानात, दीप अनुक्रम [३५०..] RELEASE M||२२५॥ Emirat मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 453~ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१७...|| नियुक्ति: [३००], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||५७..|| व्याख्या-यस्यापि कस्यचिद्व्यवहारतपखिनो दुष्प्रणिहिता-अनिरुद्धा भवन्ति 'कषायाः क्रोधादयः 'तप-18 भारतः तपः कुर्वत इत्यर्थः स बालतपखीव उपवासपारणकप्रभूततरारम्भको जीवो (यथा) गजनानपरिश्रमं । करोति, चतुर्थषष्ठादिनिमित्ताभिधानतः प्रभूतकर्मबन्धोपपत्तेरिति गाथार्थः ॥ अमुमेवार्थ स्पष्टतरमाह सामन्नमणुचरंतस्स कसाया जस्स उक्कडा होति । मन्नामि उच्छुफुलं व निष्फलं तस्स सामन्नं ।। ३०१॥ व्याख्या-'श्रामण्यमनुचरतः' श्रमणभावमपि द्रव्यतः पालयत इत्यर्थः, कषाया यस्योत्कटा भवन्ति कोधादयः मन्ये इक्षुपुष्पमिव निष्फलं निर्जराफलमधिकृत्य तस्य श्रामण्यमिति गाथार्थः ॥ उपसंहरन्नाह एसो दुविहो पणिही सुद्धो जइ दोसु तस्स तेसिं च । एत्तो पसस्थमपसत्य लक्षणमहास्थनिष्फर्म ॥ ३०२॥ .. व्याख्या-एषः' अनन्तरोदितो 'द्विविधः प्रणिधिः' इन्द्रियनोइन्द्रियलक्षणः 'शुद्ध' इति निर्दोषो भवति, यदि 'यो' बाह्याभ्यन्तरचेष्टयोः 'तस्य' इन्द्रियकषायवतः तेषां च' इन्द्रियकरायाणां सम्यगयोगो भवति, एतदुक्तं भवति-यदि बाह्यचेष्टायामभ्यन्तरचेष्टायां च तस्य च प्रणिधिमत इन्द्रियाणां कषायाणां च निग्रहो भवति ततः शुद्धः प्रणिधिरितरथा वशुद्धः, एवमपि तत्वनीत्याऽभ्यन्तरैव चेष्टेह गरीयसीस्याह, अत एवमपि तत्वे प्रशस्तं चारु, तथाऽप्रशस्तमचारु लक्षणं प्रणिधेः 'अध्यात्मनिष्पन्नम् अध्यवसानोद्गतमिति गाथार्थः ॥ एतदेवाह मायागारवसहिभो इंदिअनोइंदिपहिं अपसत्यो । धम्मस्था अ पसत्थो इंदिअनोइंदिअप्पणिही ।। ३०३ ॥ दीप अनुक्रम [३५०..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~454~ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||५७...|| नियुक्ति : [३०३], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||५७..|| दशवैका व्याख्या-मायागारवसहितो मातृस्थानयुक्त ऋझ्यादिगारवयुक्तश्चेन्द्रियनोइन्द्रिययोर्निग्रहं करोति, मा- आचारहारि-वृत्तिमातृस्थानत ईर्यादिप्रत्युपेक्षणं द्रव्यक्षान्त्याद्यासेवनं तथा ऋझ्यादिगारवाद्वेति 'अप्रशस्त' इत्ययमप्रशस्तःप्र- प्रणिध्य णिधिः। तथा धर्मार्थ प्रशस्त इति, मायागारवरहितो धर्मार्थमेवेन्द्रियनोइन्द्रियनिग्रहं करोति यः स तदभे- ध्ययनम् ॥ २२६ ॥ दोपचारात् 'प्रशस्तः' सुन्दर इन्द्रियनोइन्द्रियाणिधिनिर्जराफलत्वादिति गाथार्थः ॥ साम्प्रतमप्रशस्तेतरपणि-12 धेर्दोषगुणानाह___अढविहं कम्मरयं बंधइ अपसत्थपणिहिमाउत्तो । तं चेव खवेइ पुणो पसत्यपणिहीसमाउत्तो ।। ३०४॥ व्याख्या-'अष्टविध ज्ञानावरणीयादिभेदात् कर्मरजो 'बध्नाति' आदत्ते, क इत्याह-'अप्रशस्तप्रणिधिमायुक्तः' अप्रशस्तप्रणिधौ व्यवस्थित इत्यर्थः, तदेवाष्टविधं कर्मरजः क्षपयति पुनः, कदेत्याह-प्रशस्तप्रणिधिसट्रमायुक्त इति गाथार्थः ॥ संयमाद्यर्थं च प्रणिधिः प्रयोक्तव्य इत्याह दसणनाणचरित्ताणि संजमो तस्स साहटाए । पणिही पउंजिअव्यो अणायणाई प बजाई ।। ३०५ ।। व्याख्या-दर्शनज्ञानचारित्राणि संयमा संपूर्णः, 'तस्य' संपूर्णसंयमस्य साधनार्थ प्रणिधिः प्रशस्तः प्रयोट्रक्तव्या, तथा 'अनायतनानि च' विरुद्धस्थानानि वर्जनीयानि इति गाथार्थः ॥ एवमकरणे दोषमाह दुप्पणिहिअजोगी पुण लंछिज्जइ संजर्म अवाणतो । वीसत्यनिसटुंगोव्व कंटइल्ले जह पडतो ॥ ३०६॥ व्याख्या-'दुष्पणिहितयोगी पुना' सुप्रणिधिरहितस्तु प्रबजित इत्यर्थः लञ्च्यते-खण्ड्यते संयममजानान: BASEAN RESS दीप अनुक्रम [३५०..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~455~ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१७...|| नियुक्ति: [३०६], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||५७..|| संयत एवेति । दृष्टान्तमाह-विश्रब्धो निसृष्टाङ्गस्तथा अयनपरः कंटकवति श्वनादी यथा पतन् कश्चिल्लञ्छयते ४ तद्बदसौ संयत इति गाथार्थः ।। व्यतिरेकमाह सुप्पणिहिअजोगी पुण न लिप्पई गुन्यमणिभदोसेहिं । निद्दहइ अ कम्माई सुकतणाई जहा अग्गी ।। ३०७ ।। व्याख्या-'सुप्रणिहितयोगी पुनः' सुप्रणिहितः प्रबजितः पुनः न लिप्यते 'पूर्वभणितदोषैः कर्मबन्धादिभिः, संवृताश्रवद्वारत्वात्, निर्दहति च कर्माणि प्राक्तनानि तपाप्रणिधिभावेन, दृष्टान्तमाह-शुष्कतृणानि यथा अग्निर्निर्दहति तद्वदिति गाथार्थः ।। . तम्हा र अपसरथं पणिहाणं उझिऊण समणेणं । पणिहाणमि पसत्थे भणिो आधारपणिहित्ति ॥ ३०८॥ | व्याख्या-यस्मादेवमप्रशस्तप्रणिधिदुःखद इतरश्च सुखदस्तस्माद् 'अप्रशस्तं प्रणिधानम्' अप्रशस्तं प्रणिधिम् 8 'उज्झित्वा' परित्यज्य 'श्रमणेन' साधुना 'प्रणिधाने प्रणिधौ 'प्रशस्ते' कल्याणे, यनः कार्य इति वाक्यशेषः । निगमयन्नाह-भणित आचारप्रणिधिरिति गाथार्थः ॥ उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पनस्यावसर इत्यादिचर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारणीयं, तञ्चेदम् आयारप्पणिहिं लद्धं, जहा कायव्व भिक्खुणा । तं भे उदाहरिस्सामि, आणुपुर्दिव सुणेह मे ॥१॥ KYA दीप अनुक्रम [३५०..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~456~ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [३०८], भाष्यं [६२...] (४२) k आचारप्रणिध्यध्ययनम् २ उद्देश: प्रत सत्राक ॥१॥ दशवैका अस्य व्याख्या-'आचारप्रणिधिम्' उक्तलक्षणं 'लब्ध्वा' प्राप्य 'यथा' येन प्रकारेण कर्तव्यं विहितानुष्ठानं हारि-वृत्तिः भिक्षुणा' साधुनातं' प्रकारं 'भे' भवद्भयः 'उदाहरिष्यामि' कथयिष्यामि 'आनुपूा' परिपाच्या शृणुत हममेति गौतमादयः स्वशिष्यानाहुरिति सूत्रार्थः ॥१॥ ॥२२७॥ पुढविदगअगणिमारुअ, तणरुक्खस्सबीयगा । तसा अ पाणा जीवत्ति, इइ वुत्तं महेसिणा ॥२॥ तेसिं अच्छणजोएण, निच्चं होअव्वयं सिआ । मणसा कायवक्केणं, एवं हवइ संजए ॥ ३॥ पुढविं भित्तिं सिलं लेलं, नेव भिंदे न संलिहे । तिविहेण करणजोएणं, संजए सुसमाहिए ॥ ४ ॥ सुद्धपुढवीं न निसीए, ससरक्खंमि अ आसणे । पमजित्तु निसीइज्जा, जाइत्ता जस्स उग्गहं ॥ ५ ॥ सीओदगं न सेविजा, सिलावुटुं हिमाणि अ । उसिणोदगं तत्तफासुअं, पडिगाहिज्ज संजए ॥६॥ उदउल्लं अप्पणो कार्य, नेव पुंछे न संलिहे । समुप्पेह तहाभूअं, नो णं संघट्टए मुणी ॥७॥ इंगालं अगणिं अचिं, अलायं वा सजोइअं। न उंजिज्जा न घहिज्जा, नो णं निव्वावए मुणी ॥ ८॥ तालिअंटेण पत्तेण, साहाए विहुणेण वा । न वीइजऽप्पणो कार्य, दीप अनुक्रम [३५१] Cccc ॥२२७॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: सूत्रकारेण उक्त आचार-प्रणिधे: वर्णनं आरभ्यते ~ 457~ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२-१२|| नियुक्ति : [३०८], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||२-१२|| SRASACREE बाहिरं वावि पुग्गलं ॥ ९॥ तणरुक्खं न छिंदिजा, फलं मूलं च कस्सई । आमगं विविहं बीअं, मणसावि ण पत्थए ॥ १० ॥ गहणेसु न चिट्ठिज्जा, बीएसु हरिएसु वा । उदगंमि तहा निच्च, उत्तिंगपणगेसु वा ॥ ११ ॥ तसे पाणे न हिंसिज्जा, वाया अदुव कम्मुणा । उवरओ सव्वभूएसु, पासेज विविहं जगं ॥ १२ ॥ तं प्रकारमाह-'पुढवित्ति सूत्रं, पृथिब्युदकाग्निवायवस्तृणवृक्षसवीजा एते पञ्चैकेन्द्रियकायाः पूर्ववत्, त्रसाश्च प्राणिनो द्वीन्द्रियादयो जीवा इत्युक्तं 'महर्षिणा' वर्धमानेन गौतमेन वेति सूत्रार्थः ॥२॥ यतश्चैवमतः 'तेसि'ति सूत्रं, अस्य व्याख्या-'तेषां पृथिव्यादीनाम् 'अक्षणयोगेन' अहिंसाव्यापारेण नित्यं 'भवितव्यं वर्तितव्यं स्यात् भिक्षुणा मनसा कायेन वाक्येन एभिः करणैरित्यर्थः, एवं वर्तमानोऽहिंसकः सन् भवति संपतो, नान्यथेति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ एवं सामान्येन षड्जीवनिकायाहिंसया संयतत्वमभिधायाधुना तद्गतविधीविधानतो विशेषेणाह-'पुढवित्ति सूत्रं, पृथिवीं शुद्धां 'भित्ति' ती 'शिला पाषाणात्मिका 'लेष्टुम् ।। इहालखण्डं नैव भिन्द्यात् नो संलिखेत, तत्र भेदनं द्वैधीभावोत्पादनं 'संलेखनम् ईषल्लेखनं 'त्रिविधेन ककारणयोगेन' न करोति मनसेत्यादिना 'संयतः' साधुः 'सुसमाहितः' शुद्धभाव इति सूत्रार्थः॥ ४ ॥ तथा 'सु-11 'त्ति सूत्रं, 'शुद्धपृथिव्याम्' अशस्त्रोपहतायामनन्तरितायां न निषीदेत्, तथा 'सरजस्के वा' पृथ्वीरजोऽवगु दीप अनुक्रम [३५२-३६२] 5645453 CRESC Limelicatom i मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 458~ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२-१२|| नियुक्ति: [३०८], भाष्यं [६२...] (४२) आचारप्रणिध्यध्ययनम् र उद्देशः प्रत सूत्रांक ||२-१२|| दशका०ण्ठिते वा 'आसने पीठकादौ न निषीदेत, निषीदनग्रहणात्स्थानत्वग्वर्तनपरिग्रहः, अचेतनायां तु प्रमृज्य हारि-वत्तिः तां रजोहरणेन निषीदेत 'ज्ञात्वे सचेतना ज्ञात्वा 'याचयित्वाऽवग्रह'मिति यस्य संबन्धिनी पृथिवी तमवन- हमनुज्ञाप्येति सूत्रार्थः ॥५॥ उक्तः पृथिवीकायविधिः, अधुना अप्कायविधिमाह-'सीओदगंति सूत्रं, ॥२२८॥ शीतोदक' पृथिव्युद्भवं सचित्तोदकं न सेवेत, तथा शिलावृष्टं हिमानि च न सेवेत, तत्र शिलाग्रहणेन करकाः परिगृह्यन्ते, वृष्टं वर्षेणं, हिम प्रतीतं प्राय उत्तरापथे भवति । ययेवं कथमयं वर्त्ततेत्याह-उष्णोदकं| कथितोदकं तप्समासुक' तसं सत्प्रामुकं त्रिदण्डोत्तं, नोष्णोदकमात्र, प्रतिगृह्णीयाहत्यर्थ 'संयतः साधु.. एतच सौवीराद्युपलक्षणमिति सूत्रार्थः ॥६॥ तथा 'उदउल्लंीति सूत्रं, नदीमुत्तीणों भिक्षाप्रविष्टो वा वृष्टिहतः 'उदकाम्' उदकबिन्दुचितमात्मनः 'कार्य' शरीरं निग्धं वा नैव 'पुञ्छयेद्' वस्त्रतृणादिभिः 'न संलिखेत्' पाणिना, अपितु 'संप्रेक्ष्य निरीक्ष्य 'तधाभूतम्' उदकार्दादिरूपं नैव कार्य 'संघयेत्' मुनिर्मनागपि न स्पृशेदिति सूत्रार्थः ॥७॥ उक्तोऽकायविधिः, तेजाकायविधिमाह-इंगालं'ति सूत्रं, 'अङ्गार' ज्वालार-1 हितम् 'अग्निम्' अयापिण्डानुगतम् 'अर्चि' छिन्नज्वालम् 'अलातम्' उल्मुकं वा 'सज्योति' साग्निकमित्यर्थः, किमित्याह-नोत्सिचेत् न घयेत्, तत्रोञ्जनमुत्सेचनं प्रदीपादः, घनं मिथचालनं, तथा नैनम्-अग्निं 'निर्वाट्रापयेद्' अभावमापादयेत् 'मुनिः' साधुरिति सूत्रार्थः ॥ ८॥ प्रतिपादितस्तेजाकायविधिः, वायुकायविधिमाह | -तालिअंटेणत्ति सूत्रं, 'तालवृन्तन' व्यजनविशेषेण 'पत्रेण' पद्मिनीपत्रादिना 'शाखया' वृक्षडालरूपया दीप अनुक्रम [३५२-३६२] ॥२२८॥ Limelicatmi मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 459~ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२-१२|| नियुक्ति: [३०८], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||२-१२|| विधूप(ब)नेन वा' व्यजनेन बा, किमित्याह-न वीजयेद् 'आत्मनः कार्य स्वशरीरमित्यर्थः 'बाह्यं वापि पुगलम्' उष्णोदकादीति सूत्रार्थः ॥९॥ प्रतिपादितो वायुकायविधिः, वनस्पतिविधिमाह-तण'त्ति सूत्रं, तृणवृक्षमित्येकवद्भावः, तृणानि-दर्भादीनि वृक्षा:-कदम्बादयः, एतान्न छिन्द्यात्, फलं मूलं वा कस्यचिदृक्षादेन छिन्द्यात्, तथा 'आमम्' अशस्त्रोपहतं 'विविधम्' अनेकप्रकारं बीजं न मनसाऽपि प्रार्थयेत्, किमुत अनीयादिति सूत्रार्थः ॥१०॥ तथा 'गहणेसुत्ति सूत्रं, 'गहनेषु' वननिकुशेपु न तिष्ठेत्, संघटनादिदोषप्रसङ्गात्, तथा 'बीजेषु' प्रसारितशाल्यादिषु 'हरितेषु वा' दूर्वादिषु न तिष्ठेत्, 'उदके तथा नित्यम्' अनोदकम्-अनतिथनस्पतिविशेषः, यधोक्तम्-'उदएं अवए पणए' इत्यादि, उदकमेवान्ये, तत्र नियमतो बनस्पतिभावात्, उत्तिमपनकयो न तिष्ठेत् , तत्रोसिङ्गः-सर्पच्छत्रादिः पनकः-उल्लिवनस्पतिरिति सूत्रार्थः ॥११॥ उक्तो वनस्पतिकायविधिः, त्रसकायविधिमाह-'तसत्ति सूत्रं, 'त्रसपाणिनों' द्वीन्द्रियादीन् न हिंस्यात्, कथमित्याह-वाचा अथवा 'कर्मणा' कायेन, मनसस्तदन्तर्गतवादग्रहणम् , अपि च-'उपरतः सर्वभूतेषु निक्षिप्तदण्डः सन् पश्येद्विविधं 'जगत् कर्मपरतन्त्रं नरकादिगतिरूपं, निर्वदायेति सूत्रार्थः ॥ १२ ॥ अट्ठ सुहुमाइ पेहाए, जाई जाणित्तु संजए । दयाहिगारी भूएसु, आस चिट्ट सएहि १ उदकं वनस्पतिविशेषः प्र. २ उदकमवकः पनका, दीप अनुक्रम [३५२-३६२] वा०३९ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: आचार-प्रणिधे: स्थूलविधि: उक्तं, अधुना सूक्ष्म विधि: उच्यते ~ 460~ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१३-१६|| नियुक्ति : [३०८], भाष्यं [६२...] (४२) दशका हारि-वृत्तिः । प्रत ॥२२९॥ सूत्रांक ||१३-१६|| वा ॥ १३ ॥ कयराइं अट्ट सुहुमाइं?, जाइं पुच्छिज्ज संजए । इमाई ताई मेहावी, ८आचारआइक्विज विअक्षणो॥१४॥ सिणेहं पुप्फसुहमं च, पाणुतिंगं तहेव य । पणगं प्रणिध्य ध्ययनम् बीअहरिअं च, अंडसुहुमं च अट्ठमं ॥ १५ ॥ एवमेआणि जाणिज्जा, सव्वभावेण सं. २ उद्देश: जए । अप्पमत्तो जए निच्चं, सविदिअसमाहिए ॥ १६ ॥ उक्तः स्थूलविधिः, अथ सूक्ष्मविधिमाह-'अट्टत्ति सूत्रं, अष्टौ 'सूक्ष्माणि वक्ष्यमाणानि प्रेक्ष्योपयोगत आसीत तिष्ठेच्छयीत वेति योगः, किंविशिष्टानीत्याह-यानि ज्ञात्वा संयतो ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया च दयाधिकारी भूतेषु भवति, अन्यथा दयाधिकार्येव नेति, तानि प्रेक्ष्य तद्रहित एवासनादीनि कुर्याद्, अन्यथा तेषांसातिचारतेति सूत्रार्थः॥१३॥आह-'कयराणि सूत्रं, कतराण्यष्टौ सूक्ष्माणि यानि दयाधिकारित्वाभावभयात् पृच्छेत्संयतः?, अनेन दयाधिकारिण एव एवं विधेषु यत्नमाह, स ह्यवश्यं तदुपकारकाण्यपकारकाणि च पृच्छति, तत्रैव भावप्रतिबन्धादिति । 'अमूनि तानि अनन्तरं वक्ष्यमाणानि मेधावी आचक्षीत विचक्षण इति, अनेनाप्येतदेवाह-मर्यादावर्तिना तज्ज्ञेन तत्प्ररूपणा कार्या, एवं हि श्रोतुस्तत्रोपादेयबुद्धिर्भवति, अन्यथा से विपर्यय इति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ 'सिणेहति सूत्रं, 'स्नेह मिति लेहसूक्ष्मम्-अवश्यायहिममहिकाकरकहरत १ सारम्भाणामशक्यं वर्जनं यस्य, निरारम्भैः सूक्ष्मोपयोगेन वर्णनीयं यत्, सरूपेण वा सूक्ष्मताभार, दीप अनुक्रम [३६३-३६६] Limelication. in मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 461~ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१३-१६|| नियुक्ति: [३०८], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||१३-१६|| नुरूपं, पुष्पमूक्ष्म चेति वटोदुम्बराणां पुष्पाणि, तानि तद्वर्णानि सूक्ष्माणीति न लक्ष्यन्ते, 'पाणी'ति प्राणिसूक्ष्ममनुद्धरिः कुन्थुः, स हि चलन विभाव्यते, न स्थितः, सूक्ष्मत्वात् । 'उत्तिंगं तथैव चेत्युत्तिंगसूक्ष्मकीटिकानगरं, तत्र कीटिका अन्ये च सूक्ष्मसत्त्वा भवन्ति । तथा 'पनकामिति पनकलूक्ष्म प्रायः प्रावृट्काले भमिकाष्ठादिष पञ्चवर्णस्तद्रव्यलीनः पनक इति, तथा 'बीजसूक्ष्म शाल्यादिवीजस्य मुखमूले कणिका, या है। लोके तुषमुखमित्युच्यते, 'हरितं चेति हरितसूक्ष्म, तच्चात्यन्ताभिनवोद्भिनं पृथिवीसमानवर्णमेवेति, 'अ-12 दण्डसूक्ष्मं चाष्टम मिति एतच मक्षिकाकीटिकागृहकोलिकाब्राह्मणीकृकलासाद्यमिति सूत्रार्थः ॥१५॥ एवमेआणित्ति सूत्रं, 'एवम्' उक्तेन प्रकारेण एतानि सूक्ष्माणि ज्ञात्वा सूत्रादेशेन 'सर्वभावेन' शक्त्यनुरूपेण स्वरूपसंरक्षणादिना 'संयतः साधुः किमित्याह-'अप्रमत्तों निद्रादिप्रमादरहितः यतेत मनोवाकायः संरक्षणं प्रति 'नित्यं सर्वकालं 'सर्वेन्द्रियसमाहितः' शब्दादिषु रागद्वेषावगच्छन्निति सूत्रार्थः ।। १६ ।। धुवं च पडिलेहिज्जा, जोगसा पायकंबलं । सिजमुच्चारभूमि च, संथारं अदुवाऽऽसणं ॥ १७ ॥ उच्चारं पासवणं, खेलं सिंघाणजल्लिअं । फासुझं पडिलेहिता, परिठ्ठाविज संजए ॥ १८ ॥ पविसित्तु परागारं, पाणटा भोअणस्स वा । जयं चिट्टे मिअं भासे, न य रूवेसु मणं करे ॥ १९ ॥ बहुं सुणेहि कन्नेहिं, वहुं अच्छीहिं पिच्छइ । न य CXCCESSTORY दीप अनुक्रम [३६३-३६६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 462~ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ॥१७ -२८|| दीप अनुक्रम [३६७ -३७८] दशचैका ० हारि-वृत्तिः ॥ २३० ॥ “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [८], उद्देशक [-] मूलं [ १५...] / गाथा ||१७-२८ || निर्युक्ति: [ ३०८ ], भाष्यं [ ६२...] docanon Inn दिट्टु सु सव्वं, भिक्खू अक्खाउमरिहइ ॥ २० ॥ सुअं वा जइ वा दिट्टं, न लवि - जोवधाइअं । न य केणइ उवाएणं, गिहिजोगं समायरे ॥ २१ ॥ निद्वाणं रसनिज्जूढं, भगं पावगति वा । पुट्ठो वावि अपुट्टो वा लाभालाभं न निद्दिसे ॥ २२ ॥ न य भोअमि गिद्धो, चरे उंलं अयंपिरो । अफासुअं न भुंजिज्जा, कीअमुद्देसिआह ॥ २३ ॥ संनिहिं च न कुव्विज्जा, अणुमायंपि संजए । मुहाजीवी असंबद्धे, हविज जगनिस्सिए ॥ २४ ॥ हवित्ती सुसंतुट्टे, अपिच्छे सुहरे सिआ । आसुरतं न गचिच्छज्जा, सुच्चा णं जिणसासणं ॥ २५ ॥ कनसुक्खेहिं सहेहिं, पेम्मं नाभिनिवेसए । दारुणं कसं फासं, कारण अहिआसए ॥ २६ ॥ खुहं पिवासं दुस्सिजं, सीउन्हं अरई भयं । अहिआसे अव्वहिओ, देहदुक्खं महाफलं ॥ २७ ॥ अत्थंगयंमि आइचे, पुरत्था अ अणुग्गए । आहारमइयं सव्वं, मणसावि ण पत्थए ॥ २८ ॥ तथा 'धुवन्ति सूत्रं, तथा 'ध्रुवं च' नित्यं च यो यस्य काल उक्तोऽनागतः परिभोगे च तस्मिन् प्रत्युपेक्षेत P&Personal Use City मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः ~463~ ८ आचारप्रणिध्य ध्ययनम् | २ उद्देशः ॥ २३० ॥ www.g Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१७-२८|| नियुक्ति: [३०८], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||१७-२८|| सिद्धान्तविधिना 'योगे सति' सति सामर्थ्य अन्यूनातिरिक्तं, किं तदित्याह-'पात्रकम्बलम्' पात्रग्रहणादमलाबुदारुमयादिपरिग्रहा, कम्बलग्रहणादूर्णासूत्रमयपरिग्रहः, तथा 'शय्या वसतिं द्विकालं त्रिकालं च उच्चारभुवं ।। च-अनापातवदादि स्थण्डिलं तथा 'संस्तारक' तृणमयादिरूपमथवा 'आसनम्' अपवादगृहीतं पीठकादि प्रत्युपेक्षेतेति सूत्रार्थः ॥१७॥ तथा 'उञ्चाति सूत्रं, उच्चारं प्रस्रवणं श्लेष्म सिंघाणं जल्लमिति प्रती-1 Pातानि, एतानि प्रासुकं प्रत्युपेक्ष्य स्थण्डिलमिति वाक्यशेषः, 'परिस्थापयेत्' व्युत्सृजेत् संयत इति| सूत्रार्थः ॥ १८ ॥ उपाश्रयस्थानविधिरुतो, गोचरप्रवेशमधिकृत्याह-'पविसित्तु' सून, प्रविश्य 'परा-18 गारं' परगृहं पानार्थ भोजनस्य ग्लानादेरौषधार्थ वा यतं-गवाक्षकादीन्यनवलोकयन् तिष्ठेदुचितदेशे, मितं यतनया भाषेत आगमनप्रयोजनादीति, न च रूपेषु' दातृकान्तादिषु मनः कुर्यात, एवंभूतान्येतानीति न मनो निवेशयेत्, रूपग्रहणं रसाशुपलक्षणमिति सूत्रार्थः ॥ १९ ॥ गोचरादिगत एव केनचित्तथाविधं पृष्ट एवं ब्रूयादित्याह-'बहुन्ति सूत्रं, अथवा उपदेशाधिकारे सामान्ये नाह-'बहु'न्ति सूत्रं, 'बहु' अनेकप्रकार शोभनाशोभनं शृणोति कर्णाभ्यां, शब्दजातमिति गम्यते, तथा 'वह' अनेकप्रकारमेव शोभनाशोभनभे देनाक्षिभ्यां पश्यति, रूपजातमिति गम्यते, एवं न च दृष्टं श्रुतं सर्वं खपरोभयाहितमपि 'श्रुता ते रुदती ट्रपत्नीत्येवमादि भिक्षुराख्यातुमर्हति, चारित्रोपघातात् , अर्हति च खपरोभयहितं 'दृष्टस्ते राजानमुपशामय शिष्य' इति सूत्रार्थः ॥२०॥ एतदेव स्पष्टयन्नाह-सुति सूत्रं, श्रुतं वा अन्यतः यदिवा दृष्टं खयमेव दीप अनुक्रम [३६७-३७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~464~ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [4], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१७-२८|| नियुक्ति : [३०८], भाष्यं [६२...] (४२) आचार प्रत सूत्रांक | ध्ययनम् |२ उद्देश: ||१७-२८|| दशवैकानालपेत्न भाषेत, 'औपचातिकम्' उपघातेन निवृत्तं तत्फलं वा, यथा-चौरस्त्वमित्यादि, अतो नालपे- हारि-वृत्तिःदपीति गम्यते, तथा न च केनचिदुपायेन सूक्ष्मयाऽपि भझ्या 'गृहियोग' गृहिसंयन्धं तहालग्रहणादिरूपं ॥ २३॥ व गृहिव्यापारं वा-प्रारम्भरूपं 'समाचरेत् कुर्यानैवेति सूत्रार्थः ॥ २१॥ किं च-णिट्ठाण'ति सूत्रं, 'निष्ठान सर्वगुणोपेतं संभृतमन्नं रसं नियूटमेतद्विपरीतं कदशनम् , एतदाश्रित्याय भद्रकं द्वितीयं पापकमिति वा, पृष्टो| वापि परेण कीदृग् लब्धमिति अपृष्टो चा खयमेव लाभालाभं निष्ठानादेन निर्दिशेद, अद्य साधु लब्धमसाधु वा शोभनमिदमपरमशोभनं वेति सूत्रार्थः ॥ २२ ॥ किं च-'न यति सूत्रं, न च भोजने गृहः सन् विशिपष्टवस्तुलाभायेश्वरादिकुलेषु मुखमङ्गलिकया चरेत्, अपितु उञ्छं भावतो ज्ञाताज्ञातमजल्पन (ग्रन्थानम् ५५००) शीलो धर्मलाभमात्राभिधायी चरेत् , तत्रापि 'अप्रासुक' सचित्तं सन्मिश्रादि कथञ्चिद्गृहीतमपि न भुञ्जीत, तथा क्रीतमीदेशिकाहतं प्रासुकमपि न भुञ्जीत, एतद्विशोध्यविशोधिकोट्युपलक्षणमिति सूत्रार्थः ॥ २३ ॥ 'संनिहिंति सूत्र, 'संनिधि च' प्रानिरूपितस्वरूपां न कुर्यात् 'अणुमात्रमपि' स्तोकमपि 'संयतः साधुः, तथा मुधाजीवीति पूर्ववत्, असंबद्धः पद्मिनीपत्रोदकवद्गृहस्थैः, एवंभूतः सन् भवेत् 'जगनिश्रितः' चराचरदसंरक्षणप्रतिबद्ध इति सूत्रार्थः ॥ २४ ॥ किंच-लूहत्ति सूत्रं, रूक्षैः-वल्लचणकादिभिवृत्तिरस्येति रुक्षवृत्तिः, सुसंतुष्टो येन वा तेन वा संतोषगामी, अल्पेच्छो न्यूनोदरतयाऽऽहारपरित्यागी, सुभरः स्यात् अल्पेच्छत्वा- देव दुर्भिक्षादाविति फलं प्रत्येकं वा स्यादिति क्रियायोगः, रूक्षवृत्तिः स्यादित्यादि । तथा 'आसुरवं क्रो 54- 5356 दीप अनुक्रम [३६७-३७८] 1---- २३१॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~465~ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१७-२८|| नियुक्ति: [३०८], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||१७-२८|| धभावं न गच्छेत् कचित् खपक्षादौ श्रुत्वा 'जिनशासन' क्रोधविपाकप्रतिपादकं वीतरागवचनं । “जहा चउहिं ठाणेहिं जीचा आसुरसाए कम्मं पकरेंति, तंजहा-कोहसीलयाए पाहुडसीलयाए जहा ठाणे जाव ज णं मए एस पुरिसे अण्णाणी मिच्छादिही अकोसइ हणइ वा तं ण मे एस किंचि अवरज्झइत्ति, किं तु मम एयाणि वेयणिजाणि कम्माणि अवरज्झंतित्ति सम्ममहियासमाणस्स निजरा एव भविस्सइति सूत्रार्थः ॥२५॥ तथा 'कपण'त्ति सूत्रं, कर्णसौख्यहेतवः कर्णसौख्याः शब्दा-वेणुवीणादिसंबन्धिनस्तेषु 'प्रेम' राग 'न अभिनिवेशयेत्' न कुर्यादित्यर्थः, 'दारुणम्' अनिष्टं 'कर्कशं' कठिनं स्पर्शमुपनतं सन्तं कायेनाधिसहेत् न तत्र द्वेष कुर्यादिति, अनेनावन्तयो रागद्वेषनिराकरणेन सर्वेन्द्रियविषयेषु रागद्वेषप्रतिषेधो वेदितव्य इति सूत्रार्थः । ॥ २६ ॥ किं च-खुहं पित्ति सूत्रं, 'क्षुधं' बुभुक्षा 'पिपासा' तृपं 'दुशय्यां' विषमभूम्यादिरूपां शीतोष्णं प्रतीतम् 'अरति' मोहनीयोद्भवां 'भयं' व्याघादिसमुत्थमतिसहेदेतत्सर्वमेव 'अव्यथिता' अदीनमनाः सन् देहे दुःखं महाफलं संचिन्त्येति वाक्यशेषः । तथा च शरीरे सत्येतहुःखं, शरीरं चासारं, सम्यगतिसह्यमानं च मोक्षफलमेवेदमिति सूत्रार्थः॥ २७॥ किंच-अत्य'ति सूत्रं, 'अस्तं गत आदित्ये अस्तपर्वतं प्राप्ते अद-| १ यथा पनि स्थान वा मासुरवाय कर्म प्रकुर्वन्ति, सयथा-कोचशीलतया प्राभूतशीलतया यथा स्थानात यावत् यन्मामेष पुरुषोऽक्षानी भिध्यारधि-18 राकोपति हन्ति मा तन्त्र गे एष किनिदपराभ्यतीति, किन्तु ममैतानि वेदनीयानि कर्माणि अपराध्यतीति सम्यगध्यासीनस्य निरव भविष्यतीति. दीप अनुक्रम [३६७-३७८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~466~ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा |२९-४०|| नियुक्ति: [३०८], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत आचारप्रणिध्यध्ययनम् २ उद्देशः सूत्रांक 2-64 ||२९ -४०|| दशवैका०र्शनीभूते वा 'पुरस्ताचानुगते' प्रत्यूषस्यनुदित इत्यर्थः, आहारात्मकं 'सर्व' निरवशेषमाहारजातं मनसापि हारि-वृत्तिः४ान प्रार्थयेत्, किमङ्ग पुनर्वाचा कर्मणा वेति सूत्रार्थः ॥ २८ ॥ ॥ २३२॥ अतितिणे अचवले, अप्पभासी मिआसणे । हविज उअरे दंते, थोवं लद्धं न खिसए॥२९॥ न बाहिरं परिभवे, अत्ताणं न समुक्कसे । सुअलाभे न मजिज्जा, जच्चा तवस्सिबुद्धिए ॥३०॥ से जाणमजाणं वा, कटु आहम्मिों पयं । संवरे खिप्पमप्पाणं, बीअं तं न समायरे ॥३१॥ अणायारं परक्कम्म, नेव गूहे न निण्हवे । सुई सया वियडभावे, असंसते जिइंदिए ॥ ३२ ॥ अमोहं वयणं कुजा, आयरिअस्स महप्पणो । तं परिगिज्झ वायाए, कम्मुणा उववायए ॥ ३३ ॥ अधुवं जीविअं नच्चा, सिद्धिमग्गं विआणिआ। विणिअहिज भोगेसु, आउं परिमिअप्पणो ॥ ३४ ॥ बलं थामं च पेहाए, सद्धामारुग्गमप्पणो । खितं कालं च विनाय, तहप्पाणं निझुंजए ॥ ३५॥ जरा जाव न पीडेई, वाही जाव न वडई। जाविंदिआ न हायंति, ताव धम्म समायरे 55555555 दीप अनुक्रम [३७९ ॥२३२॥ -३९०] १नैषा व्याख्याकृन्मता. Ecaton. M मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 467~ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२९-४०|| नियुक्ति: [३०८], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||२९ -४०|| ॥३६॥ कोहं माणं च मायं च, लोभं च पाववठ्ठणं । वमे चत्तारि दोसे उ, इच्छंतो हिअमप्पणो ॥ ३७॥ कोहो पीइं पणासेइ, माणो विणयनासणो । माया मित्ताणि नासेइ, लोभो सबविणासणो॥३८॥ उवसमेण हणे कोहं, माणं महवया जिणे । मायं चजवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे ॥३९॥ कोहो अमाणो अ अणिग्गहीआ, माया अ लोभो अ पवढमाणा । चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाई पु णव्भवस्स ॥४०॥ दिवाप्यलभमान आहारे किमित्याह-'अतितिणे'त्ति सूत्रं, अतिन्तिणो भवेत्, अतिन्तिणो नामालाकाभेऽपि नेषद्यत्किञ्चनभाषी, तथा अचपलो भवेत, सर्वत्र स्थिर इत्यर्थः । तथा 'अल्पभाषी' कारणे परिमित वक्ता, तथा 'मिताशनो' मितभोक्ता 'भ'दित्येवंभूतो भवेत्, तथा 'उदरे दान्तो' येन वा तेन वा वृत्तिशीलः, तथा 'स्तोकं लब्ध्वा न खिंसयेत् देयं दातारं वा न हीलयेदिति सूत्रार्थः ॥ २९॥ मदवजनाथेमाह-'न बाहिर ति सूत्रं, न 'पाह्यम् आत्मनोऽन्यं परिभवेत्, तथा आत्मानं न समुत्कर्ष-15 येत्, सामान्येनेत्थंभूतोऽहमिति, श्रुतलाभाभ्यां न मायेत, पण्डितो लब्धिमानहमित्येवं, तथा जात्या-ताप दीप अनुक्रम [३७९ -३९०] Economin momyam मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 468~ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [4], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२९-४०|| नियुक्ति : [३०८], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||२९ -४०|| दशवकाव्ये न बुद्ध्या वा, न माद्यतेति वर्तते, जातिसंपन्नस्तपस्वी बुद्धिमानहमित्येवम् , उपलक्षणं चैतत्कुलबलरूपा- Toll आचार होणाम् , कुलसंपन्नोऽहं बलसंपन्नोऽहं रूपसंपन्नोऽहमित्येवं न मायेतेति सूत्रार्थः ॥ ३०॥ ओघत आभोगाना- प्रणिध्य॥२३३॥ भोगसेवितार्थमाह-'से'त्ति सूत्रं, 'स' साधुः 'जानन्नजानन् वा' आभोगतोऽनाभोगतश्चेत्यर्थः 'कृखाऽधा- I ध्ययनम् र्मिक पर्द' कश्चिद्रागद्वेषाभ्यां मूलोसरगुणविराधनामिति भावः 'संवरेत्' 'क्षिप्रमात्मानं' भावतो निवा २ उद्देशः लोचनादिना प्रकारेण, तथा द्वितीयं पुनस्तन्न समाचरेत् , अनुबन्धदोषादिति सूत्रार्थः ॥ ३१ ॥ एतदेवाहअणायारंति सूत्रं, 'अनाचारं सावधयोगं 'पराक्रम्य आसेव्य गुरुसकाश आलोचयन् 'नैव गृहयेत् न निहुवीत' तत्र गहनं किञ्चित्कथनं निलय एकान्तापलापः, किंविशिष्टः सन्नित्याह-शुचिः' अकलुषितमतिः सदा 'विकटभावः' प्रकटभावः 'असंसक्तः' अप्रतिवद्धः क्वचित् 'जितेन्द्रियों जितेन्द्रियप्रमादः सनिति सूत्रार्थः ॥ ३२ ॥ तथा 'अमोहंति सूत्रं, 'अमोघम्' अबन्ध्यं 'वचनम् इदं कुर्वित्यादिरूपं 'कुर्या'दिति &ा एवमित्यभ्युपगमेन, केषामित्याह-आचार्याणां महात्मनां श्रुतादिभिर्गुणैः, तत्परिगृह्य वाचा एवमित्यभ्यु पगमेन 'कर्मणोपपादयेत्' क्रियया संपादयेदिति सूत्रार्थः ॥ ३३ ॥ तथा 'अधुवंति सूत्रं, 'अधुवम्' अनित्यं मरणाशङ्कि जीवितं सर्वभावनिबन्धनं ज्ञात्वा । तथा 'सिद्धिमार्ग' सम्यगदर्शनज्ञानचारित्रलक्षणं विज्ञाय विनिवर्तेत भोगेभ्यो बन्धैकहेतुभ्यः, तथा ध्रुवमप्यायुः परिमितं संवत्सरशतादिमानेन विज्ञायात्मनो विनि-| वर्तेत भोगेभ्य इति सूत्रार्थः ॥ ३४ ॥ उपदेशाधिकारे प्रक्रान्तमेव समर्थयन्नाह-'जर'त्ति सूत्रं, 'जरा' चयोहा दीप अनुक्रम [३७९ -३९०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~469~ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [4], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२९-४०|| नियुक्ति : [३०८], भाष्यं [६२...] (४२) -- प्रत --X सूत्रांक ||२९ -४०|| निलक्षणा यावन्न पीडयति 'व्याधिः क्रियासामर्थ्यशत्रुर्यावन्न वर्द्धते यावद् 'इन्द्रियाणि' क्रियासामोपकारीणि ओबादीनि न हीयन्ते तावदत्रान्तरे प्रस्ताव इतिकृत्वा धर्म समाचरेचारित्रधर्ममिति सूत्रार्थः ॥३५॥ ॥३६ ॥ तदुपायमाह-कोह' गाहा, क्रोधं मानं च मायां च लोभं च पापवर्धनं, सर्व एते पापहेतव इति पापवर्द्धनव्यपदेशः, यतश्चैवमतो वमेचतुरो 'दोषान्' एतानेव क्रोधादीन हितमिच्छन्नात्मनः, एतद्वमने हि [४ सर्वसंपदिति मन्त्रार्थः॥ ३७॥ अवमने लिहलोक एवापायमाह-कोह'सि सूत्रं, क्रोधः प्रीतिं प्रणाशयति.13|| क्रोधान्धवचनतस्तदुच्छेददर्शनात्, मानो विनयनाशनः, अवलेपेन मूर्खतया तदकरणोपलब्धेः, माया मिवाणि नाशयति, कौटिल्यवतस्तत्यागदर्शनात्, लोभः सर्वविनाशन, तत्त्वतस्त्रयाणामपि तद्भावभाविवादिति सूत्रार्थः ॥ ३८ ॥ यत एवमतः-'उवसमेण त्ति सूत्रं, 'उपशमेन' शान्तिरूपेण हन्यात् क्रोधम् , उदयनिरोधोदयमाप्साफलीकरणेन, एवं मानं मार्दवेन-अनुच्छिततया जयेत् उदयनिरोधादिनैव, मायां च फाज-16 भावेन अशठतया जयेत् उदयनिरोधादिनैव, एवं लोभं 'संतोषतः निःस्पृहत्वेन जयेत्, उदयनिरोधोदयप्राप्ताफलीकरणेनेति सूत्रार्थः ॥ ३९ ॥ क्रोधादीनामेव परलोकापायमाह-कोहोत्ति सूत्रं, क्रोधश्च मानश्चा-81 निगृहीती-उच्छृङ्खलौ,माया च लोभश्च 'विवर्धमानी च' वृद्धि गच्छन्ती, 'चत्वार' एते क्रोधादयः 'कृत्स्नात संपूर्णाः 'कृष्णा वा क्लिष्टाः कषायाः सिञ्चन्ति अशुभभावजलेन मूलानि तथाविधकर्मरूपाणि 'पुनर्भवस्या पुनर्जन्मतरोरिति सूत्रार्थः ॥ ४०॥ दीप अनुक्रम [३७९ -३९०] Eramin मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 470~ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||४१-५०|| नियुक्ति : [३०८], भाष्यं [६२...] (४२) S दशका. हारि-वृत्तिः AREERA- प्रत 649 आचारप्रणिध्यध्ययनम् २ उद्देश: सूत्रांक ॥२३४॥ ||४१ -५०|| B रायाणिएसु विणयं पउंजे, धुवसीलयं सययं न हावइजा । कुम्मुव्व अल्लीणपलीणगुत्तो, परक्कमिज्जा तवसंजमंमि ॥४१॥ निई च न बहु मन्निज्जा, सप्पहासं विवज्जए। मिहो कहाहिं न रमे, सज्झायमि रओ सया ॥४२॥ जोगं च समणधम्ममि, जुंजे अनलसो धुवं । जुत्तो अ समणधम्ममि, अटुं लहइ अणुत्तरं ॥४३॥ इहलोगपारत्तहिअं, जेणं गच्छइ सुग्गइं । बहुस्सुअं पज्जुवासिज्जा, पुच्छिज्जत्थविणिच्छयं ॥४४॥ हत्थं पायं च कायं च, पणिहाय जिइंदिए । अल्लीणगुत्तो निसिए, सगासे गुरुणो मुणी ॥ ४५ ॥ न पक्खओ न पुरओ, नेव किच्चाण पिट्रओ। न य ऊरु समासिज्जा, चिट्ठिजा गुरुणंतिए ॥ ४६॥ अपुच्छिओ न भासिज्जा, भासमाणस्स अंतरा । पिट्टिमंसं न खाइज्जा, मायामोसं विवज्जए ॥ ४७ ॥ अप्पत्तिअं जेण सिआ, आसु कुप्पिज वा परो । सव्वसो तं न भासिजा, भासं अहिअगामिणि ॥४८॥ दिटुं मिअं असंदिद्धं, पडिपुन्नं विअं जिअं । अयंपिरमणुव्विग्गं, भास निसिर अत्तवं दीप अनुक्रम [३९१-४००] ॥२३४॥ Limelicatmi मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 471~ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ॥४१ -५०|| दीप अनुक्रम [३९१ -४००] प्रा० ४० “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [८], उद्देशक [-] मूलं [ १५...] / गाथा ||४१-५० || निर्युक्ति: [ ३०८ ], भाष्यं [ ६२...] Education in ॥ ४९ ॥ आयारपन्नत्तिधरं, दिट्टिवायमहिज्जगं । वायविक्खलिअं नञ्चा, न तं उवहसे मुणी ॥ ५० ॥ यतएवमतः कषायनिग्रहार्थमिदं कुर्यादित्याह - 'रायणिए'त्ति, 'रत्नाधिकेषु' चिरदीक्षितादिषु 'विनयम्' अभ्युत्थानादिरूपं प्रयुञ्जीत, तथा 'ध्रुवशीलताम्' अष्टादशशीलाङ्गसहस्रपालन रूपां 'सततम्' अनवरतं यथाशक्त्या (क्ति) न हापयेत्, तथा 'कूर्म इव' कच्छप इवालीनप्रलीनगुप्तः अङ्गोपाङ्गानि सम्यक संयम्येत्यर्थः, 'पराक्रमेत' प्रवर्त्तेत 'तपः संयमे' तपःप्रधाने संयम इति सूत्रार्थः ॥ ४१ ॥ किंच- 'निहं चन्ति सूत्रं, 'निद्रां धन बहु मन्येत' न प्रकामशायी स्यात् । 'सप्रहासं च' अतीवहासरूपं विवर्जयेत्, 'मिथःकथासु' राहस्थिकीषु नं रमेत, 'खाध्याये' वांचनादी रतः सदा, एवंभूतो भवेदिति सूत्रार्थः ॥ ४२ ॥ तथा-'जोगं चन्ति सूत्रं, 'योगं च' त्रिविधं मनोवाक्कायव्यापारं 'श्रमण में क्षान्त्यादिलक्षणे युञ्जीत 'अनलसः' उत्साहवान्, 'भुवं' कालाचौचित्येन नित्यं संपूर्ण सर्वत्र प्रधानोपसर्जन भावेन वा अनुप्रेक्षाकाले मनोयोगमध्ययनकाले वाग्योगं प्रत्युपेक्षणाकाले काययोगमिति । फलमाह-'युक्त' एवं व्यावृतः श्रमणधर्मे दशविधेऽर्थं 'लभते' प्राप्नोत्यनुत्तरं भावार्थ ज्ञानादिरूपमिति सूत्रार्थः ॥ ४३ ॥ एतदेवाह - 'इह लोग 'सि सूत्रं, 'इहलोकपरत्राहितम्' इद्दाकुशलप्रवृत्तिदुःखनिरोधेन परन्न कुशलानुबन्धत उभयलोकहितमित्यर्थः, 'येन' अर्थेन ज्ञानादिना Far Pre & Personal Use City मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ४२ ], मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः ~ 472~ wyg Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||४१-५०|| नियुक्ति: [३०८], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत दशका० हारि-वृत्तिः ॥२३५॥ सूत्रांक -५०|| करणभूतेन गच्छति सुगति, पारम्पर्येण सिद्धिमित्यर्थः, उपदेशाधिकार उक्तव्यतिकरसाधनोपायमाह- ८आचार'बहुश्रुतम्' आगमवृद्धं 'पर्युपासीत' सेवेत, सेवमानश्च पृच्छेद् 'अर्थविनिश्चयम्' अपायरक्षक कल्याणावह प्रणिध्य. वार्थावितथभावमिति सूत्रार्थः॥४४॥ पर्युपासीनश्च 'हत्धति सूत्रं, हस्तं पादं च कायं च 'प्रणिधायेति ध्ययनम् संयम्य जितेन्द्रियो निभृतो भूत्वा आलीनगुप्तो निषीदेत्, ईषल्लीन उपयुक्त इत्यर्थः, सकाशे गुरोर्मुनिरितिक |२ उद्देश सूत्रार्थः ।। ४५॥ किं च-न पक्खओ'त्ति सूत्रं, न पक्षत:-पार्वतःन पुरता-अग्रतः नैव 'कृल्यानाम्' आचायोंणां 'पृष्ठतो'मार्गतो निषीदेदिति वर्तते, यथासंख्यमविनयवन्दमानान्तरायादर्शनादिदोषप्रसङ्गात्। न च'ऊरूं समा-2 श्रित्य' ऊरोरुपयूलं कृत्वा तिष्ठेद्गुर्वन्तिके, अविनयादिदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ ४६ ॥ उक्तः कायप्रणिधिः, | वाकप्रणिधिमाह-'अपुच्छिओत्ति सूत्रं, अपृष्टो निष्कारणं न भाषेत, भाषमाणस्य चान्तरेण न भाषेत, नेदमित्थं किं तवमिति, तथा 'पृष्ठिमांस' परोक्षदोषकीर्तनरूपं 'न खादेत् न भाषेत, 'मायामूषां मायाप्रधानां मृषावाचं विवर्जयेदिति सूत्रार्थः॥४७॥ किंच-अप्पत्तिति सूत्रं, 'अप्रीतिर्येन स्यादिति प्राकृतशैल्या येनेति-यया भाषया भाषितया अप्रीतिरित्यप्रीतिमात्रं भवेत् तथा 'आशु' शीघ्र 'कुप्येवा परोंद रोषकार्य दर्शयेत् 'सर्वशः' सर्वावस्थासु 'ताम् इत्थंभूतां न भाषेत भाषाम् 'अहितगामिनीम्' उभयलोक-1 विरुद्धामिति सूत्रार्थः ॥ ४८॥ भाषणोपायमाह-दिति सूत्र, 'दृष्टां दृष्टार्थविषयां 'मितां खरूपप्रयोजनाभ्याम् 'असंदिग्धो' निशिविता प्रतिपूर्णी खरादिभिः 'व्यक्ताम्' अलल्ला 'जिता' परिचिताम् 'अज-I दीप अनुक्रम [३९१-४००] JamElecaton.in मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 473~ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ॥४१ -५०|| दीप अनुक्रम [३९१ -४००] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [८], उद्देशक [ - ], मूलं [ १५... ] / गाथा ||४१-५० || निर्युक्तिः [ ३०८ ], भाष्यं [ ६२...] Ja Edocapan in ल्पनशीला नोचैर्लग्नविलग्नाम् 'अनुद्विग्न' नोद्वेगकारिणीमेवंभूतां भाषां 'निसृजेद्' ब्रूयाद् 'आत्मवान्' सचेतन इति सूत्रार्थः ॥ ४९ ॥ प्रस्तुतोपदेशाधिकार एवेदमाह - 'आधार'ति सूत्रं, 'आचारप्रज्ञप्तिधर' मित्याचारघरः स्त्रीलिङ्गादीनि जानाति प्रज्ञप्तिधरस्तान्येव सविशेषाणीत्येवंभूतम् । तथा दृष्टिवादमधीयानं प्रकृतिप्रत्ययलोपागमवर्णविकारकालकारकादिवेदिनं 'वागविस्खलितं ज्ञात्वा' विविधम्-अनेकैः प्रकारैर्लिङ्गभेदादिभिः स्खलितं विज्ञाय न 'तम्' आचारादिधरमुपहसेन्मुनिः, अहो नु खल्वाचारादिवरस्य वाचि कौशलमित्येवम्, इह च दृष्टिबादमधीयानमित्युक्तमत इदं गम्यते नाधीतदृष्टिवाद, तस्य ज्ञानाप्रमादातिशयतः स्खलनासंभवाद्, यद्येवंभूतस्यापि स्खलितं संभवति न चैनमुपहसेदित्युपदेशः, ततोऽन्यस्य सुतरां संभवति, नासौ हसितव्य इति सूत्रार्थः ॥ ५० ॥ नक्खत्तं सुमिणं जोगं, निमित्तं मंतभेसजं । गिहिणो तं न आइक्खे, भूआहिगरणं पयं ॥ ५१ ॥ अन्नट्टं पगडं लयणं, भइज्ज सयणासणं । उच्चारभूमिसंपन्नं इत्थीपसुविवजि ॥ ५२ ॥ विवित्ता अ भवे सिज्जा, नारीणं न लवे कहं । गिहिसंथवं न कुज्जा, कुजा साहूहिं संथवं ॥ ५३ ॥ जहा कुक्कुडपोअस्स, निचं कुललओ भयं । एवं खु बंभयारिस्स, इत्थीविग्गहओ भयं ॥ ५४ ॥ चित्तभित्तिं न निज्झाए, नारिं वा सुअल For P&Personal Use City मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ४२ ], मूल सूत्र [३] “दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि -विरचिता वृत्तिः ~474~ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [4], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||५१-६०|| नियुक्ति : [३०८], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||५१-६०|| दशबैका किअं । भक्खरंपिव दहणं, दिद्रिं पडिसमाहरे ॥ ५५ ॥ हत्थपायपलिच्छिन्नं, कण्ण- ८ आचारहारि-वृत्तिः । नासविगप्पि । अवि वाससयं नारिं, बंभयारी विवजए ॥ ५६ ॥ विभूसा इस्थिसं प्रणिध्य ध्ययनम् ॥२३॥ सग्गो, पणीअं रसभोअणं । नरस्सऽत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा ॥ ५७॥ अंग २ रद्देश: पञ्चंगसंठाणं, चारुडविअपेहिअं। इत्थीणं तं न निज्झाए, कामरागविवडणं ॥ ५८॥ विसएसु मणुन्नेसु, पेमं नाभिनिवेसए । अणिञ्चं तेसिं विनाय, परिणामं पुग्गलाण उ॥ ५९॥ पोग्गलाणं परीणाम, तेसिं नच्चा जहा तहा। विणीअतण्हो विहरे, सी ईभूएण अप्पणा ॥६॥ किंच-नक्षतंति सूत्र, गृहिणा पृष्टः सन्नक्षत्रम्-अश्विन्यादि 'ख' शुभाशुभफलममुभूतादि 'योग' वशीकरणादि निमित्तम्' अतीतादि 'मलं' वृश्चिकमन्त्रादि 'भेषजम् अतीसाराघौषधं 'गृहिणाम् असंयतानां तदू नाचक्षीत, किंविशिष्टमित्याह-'भूताधिकरणं पद मिति भूतानि-एकेन्द्रियादीनि संघहनादिनाधिक्रियन्तेऽस्मिन्निति, ततश्च तद्प्रीतिपरिहारार्थमित्थं ब्रूयाद्-अनधिकारोऽत्र तपखिनामिति सूत्रार्थः॥५१॥ किंच-'अन्न8'ति सूत्र, 'अन्यार्थ प्रकृतं न साधुनिमित्तमेव निर्तितं 'लयन' स्थानं वसतिरूपं 'भजेत्। दीप अनुक्रम [४०१-४१०] २ Eramin मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 475~ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ॥५१ -६०|| दीप अनुक्रम [४०१ -४१०] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [८], उद्देशक [-] मूलं [ १५...] / गाथा ||५१-६० || निर्युक्ति: [ ३०८ ], भाष्यं [ ६२...] Ja Education in सेवेत, तथा 'शयनासन' मित्यन्यार्थ प्रकृतं संस्तारकपीठकादि सेवेतेत्यर्थः एतदेव विशेष्यते - 'उच्चारभूमिसंपन्नम् उच्चारप्रस्रवणादिभूमियुक्तं, तद्रहितेऽसकृतदर्थं निर्गमनादिदोषात्, तथा 'स्त्रीपशुविवर्जित'मित्येकग्रहणे तज्जातीयग्रहणात् स्त्रीपशुपण्डकविवर्जितं ख्याद्यालोकनादिरहितमिति सूत्रार्थः ।। ५२ ।। तदित्थंभूतं लयनं सेवमानस्य धर्मकथाविधिमाह - विवित्ता य'त्ति सूत्रं, 'विविक्ता च' तदन्यसाधुभी रहिता च, चश दात्तथाविधभुजङ्गमायैकपुरुषयुक्ता च भवेच्छय्या वसतिर्यदि ततो 'नारीणां स्त्रीणां न कथयेत्कथां, शङ्कादिदोषप्रसङ्गात्, औचित्यं विज्ञाय पुरुषाणां तु कथयेत्, अविविक्तायां नारीणामपीति, तथा 'गृहिसंस्तर्व' गृहिपरिचयं न कुर्यात् तत्स्नेहादिदोषसंभवात् । कुर्यात्साधुभिः सह 'संस्तर्व' परिचयं, कल्याणमित्र योगेन कुशलपक्षवृद्धिभावत इति सूत्रार्थः ॥ ५३ ॥ कथञ्चिदहिसंस्तव भावेऽपि स्त्रीसंस्तवो न कर्तव्य एवेत्यत्र कारणमाह-'जह'त्ति सूत्रं यथा 'कुक्कुटपोतस्य' कुक्कुटचेल्लकस्य 'नित्यं' सर्वकालं 'कुललतो' मार्जारात् भयम्, एवमेव 'ब्रह्मचारिणः' साधोः 'स्त्रीविग्रहात्' स्त्रीशरीराद्भयम् । विग्रहग्रहणं मृतविग्रहादपि भयख्यापनार्थमिति सूत्रार्थः ॥ ५४ ॥ यतश्चैवमतः - 'चित्त'त्ति सूत्रं, 'चित्तभित्ति' चित्रगतां स्त्रियं 'न निरीक्षेत' न प श्येत् नारी वा सचेतनामेव खलङ्कृताम् उपलक्षणमेतदलङ्कृतां च न निरीक्षेत कथञ्चिद्दर्शनयोगेऽपि 'भास्करमिव' आदित्यमिव दृष्ट्वा दृष्टि 'प्रतिसमाहरेद्' द्रागेव निवर्तयेदिति सूत्रार्थः ॥ ५५ ॥ किं बहुना ?'हत्य'त्ति सूत्रं, 'हस्तपादप्रतिच्छिन्ना मिति प्रतिच्छिन्नहस्तपादां 'कर्णनासाविकृत्ता' मिति विकृत्तकर्णना Far P&Personal Use Chily मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४२], मूल सूत्र -[३] “दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः ~476~ wyg Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [4], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||५१-६०|| नियुक्ति : [३०८], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||५१ -६०|| दशवैका सामपि वर्षशतिका नारीम्, एवंविधामपि किमङ्ग पुनस्तरुणी?, तां तु सुतरामेव, 'ब्रह्मचारी' चारित्रधनोद आचारहारि-वृत्तिः महाधन इव तस्करान् विवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥५६॥ अपिच-'विभूस'त्ति सूत्रं, 'विभूषा' वस्त्रादिराढा 'स्त्रीसं- प्रणिध्य ४ सर्गः' येन केनचित्प्रकारेण खीसंबन्धः 'प्रणीतरसभोजन' गलनेहरसाभ्यवहारः, एतत्सर्वमेय विभूषादि| ध्ययनम् ॥२३७॥ नरस्य 'आत्मगवेषिण' आत्महितान्वेषणपरस्य 'विषं तालपुटं यथा' तालमात्रव्यापत्तिकरविषकल्पमहित- २ उद्देश: मिति सूत्रार्थः ॥५७॥ 'अंग'त्ति सूत्रं, 'अङ्गप्रत्यङ्गसंस्थान'मिति अङ्गानि-शिरप्रभृतीनि प्रत्यङ्गानि-नय-| नादीनि एतेषां संस्थान-विन्यासविशेष, तथा चारु-शोभनं 'लपितपेक्षितं' लपितंजल्पित्तं प्रेक्षित-निरी-18 AIक्षितं स्त्रीणां संबन्धि, तदङ्गप्रत्यङ्गसंस्थानादि 'न निरीक्षेत न पश्येत्, किमित्यत आह-कामरागविवर्द्धनमिति, एतद्धि निरीक्ष्यमाणं मोहदोषात् मैथुनाभिलाषं वर्द्धयति, अत एवास्य प्राक् स्त्रीणां निरीक्षणप्रतिषेधागतार्थतायामपि प्राधान्यख्यापनार्थों भेदेनोपन्यास इति सूत्रार्थः॥५८॥ किंच-'विसएसुत्ति सूत्रं, 'विषयेषु' शब्दादिषु 'मनोज्ञेषु' इन्द्रियानुकूलेषु 'प्रेम' रागं 'नाभिनिवेशयेत्' न कुर्यात्, एवममनोज्ञेषु द्वे षम्, आह-उक्तमेवेदं प्राक 'कण्णसोक्खेही त्यादौ किमर्थं पुनरुपन्यास इति?, उच्यते, कारणविशेषाभिधादूनेन विशेषोपलम्भार्थमिति, आह च-'अनित्यमेव परिणामानित्यतया 'तेषां पुद्गलानां, तुशब्दाच्छन्दादि-| विषयसंबन्धिनामिति योगः, 'विज्ञाय' अवेत्य जिनवचनानुसारेण, किमित्याह–'परिणाम' पर्यायान्तराप-11 त्तिलक्षणं, ते हि मनोज्ञा अपि सन्तो विषयाः क्षणादमनोज्ञतया परिणमन्ति अमनोज्ञा अपि मनोज्ञतया| दीप अनुक्रम [४०१-४१०] ॥२३७॥ Eramin मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 477~ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [4], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६१-६४|| नियुक्ति : [३०८], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||६१ -६४|| इति तुच्छ रागद्वेषयोनिमित्समिति सूत्रार्थः ॥ ५९॥ एतदेव स्पष्टयन्नाह-पोग्गलाण'ति सूत्रं, 'पुद्गलानां | शब्दादिविषयान्तर्गतानां परिणामम्' उक्तलक्षणं तेषां ज्ञात्वा' विज्ञाय यथा मनोज्ञेतररूपतया भवन्ति तथा ज्ञात्वा 'विनीततृष्ण' अपेताभिलाषा शब्दादिषु विहरेत् 'शीतीभूतेन' क्रोधाद्यन्युपगमात्मशान्तेनास्मनेति सूत्रार्थः ।। ६०॥ जाइ सद्धाइ निक्खंतो, परिआयट्टाणमुत्तमं । तमेव अणुपालिजा, गुणे आयरिअसंमए । ६१ ॥ तवं चिमं संजमजोगयं च, सज्झायजोगं च सया अहिट्टए । सुरे व सेणाइ समत्तमाउहे, अलमप्पणो होइ अलं परेसिं ॥ ६२ ॥ सज्झायसज्झाणरयस्स ताइणो, अपावभावस्स तवे रयस्स । विसुज्झई जंसि मलं पुरेकडं, समीरिअं रुप्पमलं व जोइणा ॥ १३ ॥ से तारिसे दुक्खसहे जिइंदिए, सुएण जुत्ते अममे अकिंचणे । विरायई कम्मघणमि अवगए, कसिणब्भपुडावगमे व चंदिमि ॥ ६४ ॥ त्ति बेमि ॥ आयारपणिही णाम अज्झयणं समत्तं ८॥ किंच-'जाइति सूत्रं, यया 'श्रद्धया' प्रधानगुणखीकरणरूपया निष्क्रान्तोऽविरतिजम्बालात् 'पर्याय दीप अनुक्रम [४११-४१४] CAXXX मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 478~ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ॥६१ -६४|| दीप अनुक्रम [४११ -४१४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [८], उद्देशक [-] मूलं [ १५...] / गाथा ||६१-६४ || निर्युक्ति: [ ३०८ ], भाष्यं [ ६२...] दशवैका० हारि-वृत्तिः ।। २३८ ।। Education | स्थानं' प्रव्रज्यारूपम् 'उत्तमं प्रधानं प्राप्त इत्यर्थः, तामेव श्रद्धामप्रतिपतिततथा प्रवर्द्धमानामनुपालयेद्यत्नेन, क इत्याह-'गुणेषु' मूलगुणादिलक्षणेषु, 'आचार्यसंमतेषु' तीर्थकरादिवमतेषु, अन्ये तु श्रद्धाविशेषणमेतदिति व्याचक्षते, तामेव श्रद्धामनुपालयेद्गुणेषु, किंभूताम् ? - आचार्यसंमतां, न तु स्वाग्रहकलङ्कितामिति सूत्रार्थः ॥ ६१ ॥ आचारप्रणिधिफलमाह - 'तवं चिति सूत्रं तपश्चेदम्- अनशनादिरूपं साधुलोकप्रतीतं 'संयमयोगं च' पृथिव्यादिविषयं संयमव्यापारं च 'स्वाध्याययोगं च' वाचनादिव्यापारं 'सदा' सर्वकालम् 'अधिष्ठाता' तपःप्रभृतीनां कर्तेत्यर्थः इह च तपोऽभिधानात्तग्रहणेऽपि खाध्याययोगस्य प्राधान्यख्यापनार्थ भेदेनाभिधानमिति । 'स' एवंभूतः 'शूर इव' विक्रान्तभट इव 'सेनया' 'चतुरङ्गरूपया इन्द्रियकषायादिरूकृपया निरुद्धः सन् 'समाप्तायुधः' संपूर्णतपःप्रभृतिखगाद्यायुधः 'अलम्' अत्यर्थमात्मनो भवति संरक्षणाय अलं च परेषां निराकरणायेति सूत्रार्थः ॥ ६२ ॥ एतदेव स्पष्टयन्नाह - 'सज्झाय'त्ति सूत्रं, स्वाध्याय एव सद्ध्यानं स्वाद्ध्याय सद्ध्यानं तत्र रतस्य-सक्तस्य 'त्रातुः' खपरोभयत्राणशीलस्य 'अपापभावस्य' लब्ध्यायपेक्षारहिततथा शुद्धचित्तस्य 'तपसि' अनशनादौ यथाशक्ति रतस्य 'विशुद्धयते' अपैति यद् 'अस्य' साधोः 'मलं' कर्ममलं 'पुराकृतं' जन्मान्तरोपात्तं दृष्टान्तमाह-'समीरितं' प्रेरितं रूपयमलमिव 'ज्योतिषा' अग्निनेति सूत्रार्थः ॥ ६३ ॥ ततः - 'से तारिसे'त्ति सूत्रं, 'स तादृशः' अनन्तरोदितगुणयुक्तः साधुः 'दुःखसहः' परीषहजेता 'जितेन्द्रियः' पराजितश्रोत्रेन्द्रियादि: 'श्रुतेन युक्तो' विद्यावानित्यर्थः 'अममः' सर्वत्र ममत्वरहितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४२] मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः ~479~ ८ आचारप्रणिध्यध्ययनम् २ उद्देशः ॥ २३८ ॥ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ॥६१ -६४|| दीप अनुक्रम [४११ -४१४] Education in “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + | भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [८], उद्देशक [ - ], मूलं [ १५... ] / गाथा ||६१-६४ || निर्युक्तिः [ ३०८ ], भाष्यं [ ६२...] 'अकिञ्चनो' द्रव्यभावकिञ्चनरहितः 'विराजते' शोभते, 'कर्मघने' ज्ञानावरणीयादिकर्ममेघे अपगते सति, निदर्शनमाह - 'कुत्लाभ्रपुटापगम इव चन्द्रमा इति' यथा कृत्स्ने कृष्णे वा अभ्रपुढे अपगते सति चन्द्रो विराजते शरदि तद्वदसावपेतकर्मघनः समासादितकेवलालोको विराजत इति सूत्रार्थः ॥ ६४ ॥ ब्रवीमीति पूर्ववत्, उक्तोऽनुगमः, साम्प्रतं नयाः, ते च पूर्ववदेव । व्याख्यातमाचारप्रणिध्यध्ययनम् ॥ ८ ॥ इति श्रीहरिभद्रसूरिविरचितायां दशवैकालिकगृहद्वृत्तावष्टमाध्ययनम् संपूर्णम् ॥ ८ ॥ For P&Personal City मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ४२ ], मूल सूत्र [३] “दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः अत्र अष्टमं अध्ययनं परिसमाप्तं ~ 480~ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [९], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६४...|| नियुक्ति: [३०९], भाष्यं [६२...] (४२) * प्रत सुत्रांक ||६४..|| दशवैका अथ नवमं विनयसमाधिनामाध्ययनं प्रारभ्यते ॥ ९विनयहारि-वृत्तिः समाध्यअधुना विनयसमाध्याख्यमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः-इहानन्तराध्ययने निरवयं वच आचारे प्र ध्ययनम् ॥२३९॥ /णिहितस्य भवतीति तत्र यत्नवता भवितव्यमित्येतदुक्तम्, इह त्वाचारप्रणिहितो यथोचितविनयसंपन्न एव । विनयभवतीत्येतदुच्यते, उक्तं च-"आयारपणिहाणंमि, से सम्म बद्दई बुहे । णाणादीण विणीए जे, मोक्खट्ठादा भेदाः निबिगिच्छए ॥१॥" इत्यनेनाभिसंबन्धेनायातमिदमध्ययनम्, अस्य चानुयोगद्वारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्या- २ उद्देशः वन्नामनिष्पन्नो निक्षेपः, तत्र च विनयसमाधिरिति द्विपदं नाम, तनिक्षेपायाह विणयस्स समाहीए निक्खेवो होइ दोहवि चउको । दव्वविणयंमि तिणिसो सुवण्णमिचेवमाईणि ॥ ३०९॥ PI व्याख्या-'विनयस्य' प्रसिद्धतत्वस्य 'समाघेश्च प्रसिद्धतत्वस्यैव निक्षेपो-ग्यासो भवति द्वयोरपि चतुष्को नामादिभेदात्, तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य द्रव्यविनयमाह-द्रव्यविनये ज्ञशरीरभव्यशरीरब्यतिरिक्त 'तिनिशों' वृक्षविशेष उदाहरणं, स रथाङ्गादिषु यत्र यत्र यथा यथा विनीयते तत्र तत्र तथा तथा परिण-1 मति, योग्यत्वादिति । तथा सुवर्णमित्यादीनि कटककुण्डलादिप्रकारेण विनयनादू द्रव्याणि द्रव्यविनयः। आदिशब्दात्तत्तद्योग्यरूप्यादिपरिग्रह इति गाधार्थः ॥ साम्प्रतं भावविनयमाह आचारप्रणिधाने स सम्पवर्तते चुः । ज्ञानादिषु विनीतो यो मोक्षार्भ निविचिकित्सकः ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [४१४..] ॥२३९॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: अध्ययनं -९- "विनयसमाधि" आरभ्यते ~481~ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ॥६४..॥ दीप अनुक्रम [ ४१४..] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [९], उद्देशक [-] मूलं [ १५...] / गाथा ||६४...|| निर्युक्तिः [ ३१०-३१३], भाष्यं [६२...] Education in लोगोवयारचिणओ अत्थनिमित्तं च कामडं च । भवविणय मुक्खविणओ विणओ खलु पंचहा होइ ॥ ३१० ॥ अम्मुडाणं अंजलि आसणदाणं अतिहिपूआ य । लोगोवयारविणओ देवयपूआ व विहवेणं ।। ३११ ।। अवभासवितिछंदानुवन्तणं देसकालदाणं च । अभुट्टा अंजलिआसणदाणं च अत्थकए । ३१२ ।। एमेव कामविणओ भए अ नेअव्वमाणुपुब्बीए मोक्शंसिऽवि पंचविहो परूवणा तस्सिमा होइ ।। ३१३ ।। व्याख्या - लोकोपचारविनयो लोकप्रतिपत्तिफलः 'अर्थनिमित्तं च' अर्थप्रात्यर्थं च 'कामहेतुव' कामनिमितश्च तथा 'भयविनयो' भयनिमित्तो 'मोक्षविनयों' मोक्षनिमित्तः, एवमुपाधिभेदाद्विनयः खलु 'पञ्चधा' पञ्चप्रकारो भवतीति गाथासमासार्थः ॥ व्यासार्थाभिधित्सया तु लोकोपचार विनयमाह - 'अभ्युत्थानं' तदुचितस्यागतस्याभिमुखमुत्थानम् 'अञ्जलिः' विज्ञापनादौ, आसनदानं च गृहागतस्य प्रायेण अतिचिपूजा चाहारादिदानेन 'एच' इत्थंभूतो लोकोपचारविनयः, देवतापूजा च यथाभक्ति बल्याग्रुपचाररूपा 'विभवेनेति यथाविभवं विभवोचितेति गाथार्थः । उक्तो लोकोपचारविनयः, अर्थविनयमाह - 'अभ्यासवृत्तिः नरेन्द्रादीनां समीपावस्थानं 'छन्दोऽनुवर्तनम्' अभिप्रायाराधनं 'देशकालदानं च कटकादी विशिष्टनृपतेः प्रस्तावदानं, तथाऽभ्युत्थानमञ्जलिरासनदानं च नरेन्द्रादीनामेव कुर्वन्ति 'अर्थकृते' अर्थार्थमिति गाथार्थः ॥ उक्तोऽर्थविनयः, कामादिविनयमाह – 'एवमेवं यथाऽर्थविनय उक्तोऽभ्यासवृत्त्यादिः तथा कामविनयः 'भये चेति भयविनयश्च 'ज्ञातव्यो' विज्ञेयः 'आनुपूर्व्या' परिपाठ्या, तथाहि -कामिनो For P&Personal Use City मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ४२ ], मूल सूत्र [३] “दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि -विरचिता वृत्तिः अथ "भावविनय" प्रकाश्यते ~ 482~ way.g Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक -], मूलं [१५...] / गाथा ||६४...|| नियुक्ति: [३१०-३१३], भाष्यं [६२...] (४२) 94- - दशवैका० हारि-वृत्तिः ॥२४ ॥ ध्ययनम् प्रत सुत्रांक ||६४..|| विनय: भेदाः वेश्यादीनां कामार्थमेवाभ्यासवृत्त्यादि यथाक्रम सर्व कुर्वन्ति प्रेष्याश्च भयेन स्वामिनामिति, खक्ती कामभ-II विनययविनयौ, मोक्षविनयमाह-'मोक्षेऽपि' मोक्षविषयो विनयः 'पञ्चविधा' पञ्चप्रकारः 'प्ररूपणा' निरूपणा समाध्यतस्यैषा भवति वक्ष्यमाणेति गाथार्थः ॥ दसणनाणचरिते तवे अ तह ओवयारिए चेवं । एसो अ मोक्खविणओ पंचविहो होइ नायथ्यो ॥ ३१४ ॥ दव्याण सव्वभावा उबइहा जे जहा जिणवरेहिं । ते वह सद्दहइ नरो ईसणविणओ हवइ तम्हा ।। ३१५ ॥ नाणं सिक्खइ नाणं गुणेइ नाणेण कुणइ किच्चाई । नागी नवं न बंधइ नाणविणीओ हवइ तम्हा ।। ३१६ ॥ २ उद्देशः अट्ठविहं कम्मचर्य जम्हा रित्तं करेइ जयमाणो । नवमन्नं च न बंधइ चरित्तविणओ हवइ तम्हा ॥ ३१ ॥ अवणेइ तवेण तम उवणेइ अ सग्गमोक्खमप्पाणं । तबविणयनिच्छयमई तवोविणीओ हवइ तम्हा ।। ३१८ ॥ अह ओवयारिओ पुण दुविहो विणो समासओ होइ । पडिरूवजोगजुंजण तह य अणासायणाविणओ ॥ ३१९ ।। पडिरूवो खलु विणो काइभजोए य बाइ माणसिओ । अट्ठ चउब्विह दुविहो परूवणा तस्सिमा होइ ।। ३२०॥ अब्भुट्ठाणं अंजलि आसणवाणं अभिगाह किई अ । सुस्सूसणमणुगच्छण संसारण काय अढविहो ।। ३२१ ॥ हिअमिअअफरुसवाई अणुवीईभासि वाइओ विणओ । अकुसलचित्तनिरोहो कुसलमणउदीरणा चेव ।। ३२२ ॥ व्याख्या-दर्शनज्ञानचारित्रेषु' दर्शनज्ञानचारित्रविषयः 'तपसि च' तपोविषयश्च तथा 'औपचारिकश्चैव ॥२४०॥ प्रतिरूपयोगव्यापारश्चैव, एष तु मोक्षविनयो-मोक्षनिमित्तः पञ्चविधो भवति ज्ञातव्य इति गाथासमासार्थः॥ दीप अनुक्रम [४१४..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: मोक्षविनयस्य पंच प्रकारा: सव्याख्या प्रकाश्यते ~483~ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्तिः ) अध्ययनं [१], उद्देशक -], मूलं [१५...] / गाथा ||६४...|| नियुक्ति: [३१४-३२२], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||६४..|| व्यासार्थे दर्शनविनयमाह-'द्रव्याणां धर्मास्तिकायादीनां 'सर्वभावाः' सर्वपर्याया: 'उपदिष्टाः कथिता 'ये' अगुरुलध्यादयो 'या' येन प्रकारण जिनवरैः' तीर्थकरैः 'तान् भावान् 'तथा' तेन प्रकारेण श्रद्धसे | नर, प्रधानन्य कर्म विनयति यस्मादर्शनविनयो भवति तस्माद, दर्शनाद्विनयो दर्शनविनय इति गाथार्थ ज्ञानविनयमाह-'ज्ञानं शिक्षति' अपूर्व ज्ञानमादत्ते, 'ज्ञानं गुणयति' गृहीतं सत्प्रत्यावर्तपति, ज्ञानेन करोति कृत्यानि' संयमकृत्यानि, एवं ज्ञानी नवं कर्म न बनाति प्राक्तनं च विनयति यस्मात् 'ज्ञानविनीतों ज्ञानेनापनीतकर्मा भवति तस्मादिति गाथार्थः॥ चारित्रविनयमाह-'अष्टविधम्' अष्टप्रकारं 'कर्मचय' कर्मसंघातं प्रागवद्धं यस्माद् 'रिक्तं करोति' तुच्छतापादनेनापनयति 'यतमानः' क्रियायां यत्नपर तथा नवमन्यं च कर्मचयं न बनाति यस्मात् 'चारित्रविनय' इति चारित्राद्विनयश्चारित्रविनयः चारित्रेण विनीतकर्मा भवति तस्मादिति गाथार्थः ॥ तपोविनयमाह-अपनयति तपसा तमः' अज्ञानम् उपनयति च खर्ग मोक्षम् 'आत्मानं जीवं तपोविनयनिश्चयमतिः, यस्मादेवंविधस्तपोविनीतो भवति तस्मादिति गाथार्थः॥ उपचारविनयमाह-अधौपचारिकः पुनर्द्विविधो विनयः समासतो भवति, द्वैविध्यमेवाह-प्रतिरूपयोगयोजनं। तथाऽनाशातनाविनय इति गाथासमासार्थः॥ व्यासार्थमाह-प्रतिरूप' उचितः खलु विनयस्त्रिविधः, डाकापयोगे च वाचि मानस' कायिको वाचिको मानसश्च, अष्टचतुर्विधद्विविधा, कायिकोऽष्टविधः वाचिक-1X चतुर्विधः मानसो द्विविधः। प्ररूपणा तस्य कायिकाष्टविधादेरियं भवति वक्ष्यमाणलक्षणेति गाथार्थः॥ दीप अनुक्रम [४१४..] 68BS दवा०४१ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~484~ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक -], मूलं [१५...] / गाथा ||६४...|| नियुक्ति: [३१४-३२२], भाष्यं [६२...] (४२) दशबैका हारि-वृत्तिः -42 ॥२४॥ प्रत सुत्रांक ||६४..|| 5 %-45- 4 कायिकमाह-अभ्युत्थानमर्हस्य, अञ्जलि: प्रश्नादौ, आसनदानं पीठकागुपनयनम् , अभिग्रहो गुरुनियोगकर ९विनयणाभिसंधिः, कृतिश्चेति कृतिकर्म वन्दनमित्यर्थः, 'शुश्रूषणं विधिवददूरासन्नतया सेवनं, 'अनुगमनम्। समाध्यआगच्छतः प्रत्युद्गमनं, 'संसाधनं च' गच्छतोऽनुब्रजनं चाष्टविधः कायविनय इति गाथार्थः ॥ वागादिवि- ध्ययनम् नयमाह-हितमितापरुषवा'गिति हितवाक-हितं वक्ति परिणामसुन्दरं, मितवाग-मितं स्तोकैरक्षरैः, अप-1K १उहंशः रुषवागपरुषम्-अनिष्ठरं, तथा 'अनुविचिन्त्यभाषी' खालोचितवक्तेति वाचिको विनयः । तथा अकुशलमनोनिरोध: आर्तध्यानादिप्रतिषेधेन, कुशलमनउदीरणं चैव धर्मध्यानादिप्रवृत्त्येति मानस इति गाथार्थः ॥ आह-किमर्थमयं प्रतिरूपविनयः ?, कस्य चैष इति?, उच्यते पडिरूको खलु विणो पराणुअत्तिमइओ मुअव्वो । अप्पढिरूवो विणओ नायव्यो केवलीणं तु ।। ३२३॥ एसो भे परिकहिभो विणओ पडिरूवलक्षणो तिविहो । बावन्नविहिबिहाणं ति अणासायणाविणयं ॥ ३२४ ।। तित्थगरसिद्धकुलगणसंघकियाथम्मनाणनाणीणं । आयरिभयेरओज्झागणीणं तेरस पयाणि ॥ ३२५ ॥ अणसायणा व भत्ती बहुमाणो तहय बन्नसंजलणा । तित्वगराई तेरस चउग्गुणा होति बावन्ना ॥ ३२६॥ व्याख्या-'प्रतिरूपः' उचितः खलु विनयः 'परानुवृश्यात्मकः' तत्तद्बस्त्वपेक्षया प्राय आत्मव्यतिरिक्तप्रधानानुवृश्यात्मको मन्तव्यः । अयं च बाहुल्येन छद्मस्थानां । तथा अप्रतिरूपो विनय' अपरानुवृत्त्यात्मका, स ॥२४१॥ च ज्ञातव्यः केवलिनामेव, तेषां तेनैव प्रकारेण कर्मविनयनात्, तेषामपीवरः प्रतिरूपोऽज्ञातकेवलभावानां - -- दीप अनुक्रम [४१४..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~485~ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ॥६४..॥ दीप अनुक्रम [४१४..] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [९], उद्देशक [-], मूलं [ १५...] / गाथा ||६४...|| निर्युक्ति: [ ३२३-३२६], भाष्यं [६२...] La Edocanon | भवत्येवेति गाथार्थः ॥ उपसंहरन्नाह - 'एषः' अनन्तरोदितो 'में' भवतां परिकथितो विनयः प्रतिरूपलक्षणः 'त्रिविधः' कायिकादि: 'द्विपञ्चाशद्विधिविधानम्' एतावत्मभेदमित्यर्थः 'ब्रुवते' अभिदधति तीर्थकरा 'अनाशातनाविनयं वक्ष्यमाणमिति गाथार्थः ॥ एतदेवाह - तीर्थकर सिद्धकुलगणसङ्घक्रियाधर्मज्ञानज्ञानिनां तथा आचार्यस्थविरोपाध्यायगणिनां संबन्धीनि त्रयोदश पदानि अत्र तीर्थकरसिद्धौ प्रसिद्धी, कुलं नागेन्द्रकुलादि, गणः कोटिकादिः, सङ्घः प्रतीतः क्रियाऽस्तिवादरूपा, धर्मः श्रुतधर्मादिः, ज्ञानं मत्यादि, ज्ञानिनस्तद्वन्तः, आचार्यः प्रतीतः, स्थविरः सीदतां स्थिरीकरणहेतुः, उपाध्यायः प्रतीतः, गणाधिपतिर्गणिरिति गाथार्थः ॥ एतानि त्रयोदश पदानि अनाशातनादिभिश्चतुर्भिर्गुणितानि द्विपञ्चाशद्भवन्तीत्याह- अनाशातना च तीर्थकरादीनां सर्वथा अहीलनेत्यर्थः तथा भक्तिस्तेष्वेवोचितोपचाररूपा, तथा बहुमानस्तेष्वेवान्तरभावप्रतिबन्धरूपः, तथा च वर्णसंज्वलना-तीर्थकरादीनामेव सद्भूतगुणोत्कीर्तना । एवमनेन प्रकारेण तीर्थकरादयस्त्रयोदश चतुर्गुणा अनाशातनाद्युपाधिभेदेन भवन्ति द्विपञ्चाशद्भेदा इति गाथार्थः ॥ उक्तो विनयः, साम्प्रतं समाधिरुच्यते, तत्रापि नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य द्रव्यादिसमाधिमाह— दुब्वं जेण व दुब्वेण समाही आहिअं च जं दव्वं । भावसमाहि चडश्विह दंसणनाणे तवचरिते ।। ३२७ ॥ व्याख्या- 'द्रव्य मिति द्रव्यमेव समाधिः द्रव्यसमाधिः यथा मात्रकम् अविरोधि वा क्षीरगुडादि तथा येन वा द्रव्येणोपयुक्तेन समाधित्रिफलादिना तद् द्रव्यसमाधिरिति । तथा आहितं वा यद्रव्यं समतां करोति Far P&Personality मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ४२ ], मूल सूत्र [३] “दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः समाधे: द्रव्यादि भेदाः कथयते ~ 486~ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [३२७], भाष्यं [६२...] (४२) विनयसमाध्यध्ययनम् |१ उद्देश प्रत सत्राक ॥१॥ दशवैका तुलारोपितपलशतादिवत्वस्थाने तद् द्रव्यं समाधिरिति । उक्तो द्रव्यसमाधिः, भावसमाधिमाह-भाव- हारि-वृत्तिः समाधिः प्रशस्तभावाविरोधलक्षणश्चतुर्विधः, चातुर्विध्यमेवाह-दर्शनज्ञानतपश्चारित्रेषु । एतद्विषयो दर्शना-1 मादीनां व्यस्तानां समस्तानां वा सर्वथाऽविरोध इति गाथार्थः ॥ उक्तः समाधिः, तदभिधानान्नामनिष्पन्नो ॥२४२॥ निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसर इत्यादिचर्चः पूर्ववत् तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारणीयं, तच्चेदम थंभा व कोहा व मयप्पमाया, गुरुस्सगासे विणयं न सिक्खे । सो चेव उ तस्स अभूइभावो, फलं व कीअस्स वहाय होइ ॥१॥ 'थंभा 'ति, अस्य व्याख्या-स्तम्भावा' मानाद्वा जात्यादिनिमित्तात् 'क्रोधाद्वा' अक्षान्तिलक्षणात् ला'मायाप्रमादादिति मायातो-निकृतिरूपायाः प्रमादाद-निद्रादेः सकाशात्, किमित्याह-'गुरोः सकाशे' आचार्यादेः समीपे 'विनयम्' आसेवनाशिक्षाभेदभिन्नं 'न शिक्षते' नोपादत्ते, तत्र स्तम्भात्कथमहं जात्यादिमान जात्यादिहीनसकाशे शिक्षामीति, एवं क्रोधात्वचिद्वितथकरणचोदितो रोषाद्वा, मापातः शूलं मे क्रियत इत्यादिव्याजेन, प्रमादात्मक्रान्तोचितमनवबुद्ध्यमानो निद्रादिच्यासङ्गेन, स्तम्भादिक्रमोपन्यासश्चेत्थमेवामीषां विनयविघ्नहेतुतामाश्रित्य प्राधान्यख्यापनार्थः । तदेवं स्तम्भादिभ्यो गुरोः सकाशे विनयं न शि दीप अनुक्रम [४१५] M ॥२४२ Eramin मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 487~ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||१|| नियुक्ति : [३२७...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सत्राक ॥१॥ क्षते, अन्ये तु पठन्ति-गुरोः सकाशे 'विनये न तिष्ठति' विनये न वर्तते, विनयं नासेवत इत्यर्थः । इह च स एव तु स्तम्भादिविनयशिक्षाविघ्नहेतु: तस्य' जडमतेः 'अभूतिभाव' इति अभूतेर्भावोऽभूतिभावः, असंपद्भाव इत्यर्थः, किमित्याह-वधाय भवति गुणलक्षणभावप्राणविनाशाय भवति, दृष्टान्तमाह-फलमिव कीचकस्य' कीचको-वंशस्तस्य यथा फलं वधाय भवति, सति तस्मिंस्तस्य विनाशात्, तद्वदिति सूत्रार्थः॥१॥ जे आवि मंदित्ति गुरुं विइत्ता, डहरे इमे अप्पसुअत्ति नच्चा । हीलंति मिच्छं पडिवजमाणा, करति आसायण ते गुरूणं ॥२॥ पगईइ मंदावि भवंति एगे, डहरावि अ जे सुअबुद्धोववेआ । आयारमंतो गुणसुट्रिअप्पा, जे हीलिआ सिहिरिव भास कुजा ॥३॥जे आवि नागं डहरंति नच्चा, आसायए से अहिआय होइ। एवायरिश्रपि हु हीलयंतो, निअच्छई जाइपहं खु मंदो॥४॥ आसीविसो वावि परं सुरुट्रो, किं जीवनासाउ परं नु कुज्जा? । आयरिअपाया पुण अप्पसन्ना, अबोहिआसायण नत्थि मुक्खो॥ ५॥ जो पावगं जलिअमवक्कमिज्जा, आसीविसं वावि हु कोव दीप अनुक्रम [४१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 488~ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||२-१०|| नियुक्ति: [३२७...], भाष्यं [६२...] (४२) ९विनयसमाध्यध्ययनम् १उद्देश: प्रत सूत्रांक ||२-१०|| दसवैका० इजा । जो वा विसं खायइ जीविअट्ठी, एसोवमाऽऽसायणया गुरूणं ॥६॥ सिआ हारि-वृत्तिः हु से पावय नो डहिज्जा, आसीविसो वा कुविओ न भक्खे । सिआ विसं हालहलं ॥२४॥ न मारे, न आवि मुक्खो गुरुहीलणाए ॥ ७॥ जो पव्वयं सिरसा भित्तुमिच्छे, सुत्तं व सीहं पडिवोहइजा । जो वा दए सत्तिअग्गे पहारं, एसोवमाऽऽसायणया गुरूणं ॥८॥सिआ हु सीसेण गिरिपि भिंदे, सिआ हु सीहो कुविओ न भक्खे । सिआ न भिंदिज व सत्तिअग्गं, न आवि मुक्खो गुरुहीलणाए ॥९॥ आयरिअपाया पुण अप्पसन्ना, अबोहिआसायण नत्थि मुक्खो। तम्हा अणाबाहसुहाभिकंखी, गुरुप्पसा याभिमुहो रमिजा ॥१०॥ BI किंच-जे आवित्ति सूत्रं, ये चापि केचन द्रव्यसाधवोऽगम्भीराः, किमित्याह-मन्द इति गुरुं विदिदित्वा'क्षयोपशमवैचित्र्यात्तत्रयुक्त्यालोचनाऽसमर्थः सत्यज्ञाविकल इति स्वमाचार्य ज्ञात्वा । तथा कारणा न्तरस्थापितमप्राप्तवयसं 'डहरोऽयम् अप्राप्तवयाः खल्वयं, तथा 'अल्पश्रुत' इत्यनधीतागम इति विज्ञाय, 8 किमित्याह-'हीलयन्ति' सूययाऽसूपया वा खिंसयन्ति, सूयया अतिप्रज्ञस्त्वं वयोवृद्धो बहुश्रुत इति, असू दीप अनुक्रम [४१६-४२४] ॥२४३॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 489~ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||२-१०|| नियुक्ति : [३२७...], भाष्य [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||२-१०|| यया तु मन्दप्रजस्त्वमित्यायभिदधति, 'मिथ्यात्वं प्रतिपद्यमाना' इति गुरुन हीलनीय इति तत्वमन्यथाMऽवगच्छन्तः कुर्वन्ति 'आशातना' लघुतापादनरूपा 'ते' द्रव्यसाधवः 'गुरूणाम्' आचायोंणां, तत्स्थापनाया है अबहुमानेन एकगुर्वाशातनायां सर्वेषामाशातनेति बहुवचनम् , अथवा कुर्वन्ति 'आशाता स्वसम्यग्दर्श-10 नादिभावापहासरूपां ते गुरूणां संवन्धिनी, तन्निमित्तत्वादिति सूत्रार्थः ॥२॥ अतो न कार्या हीलनेति, से आह च-पगईत्ति सूत्रं, 'प्रकृत्या' खभावेन कर्मवैचित्र्यात् 'मम्दा अपि सद्बुद्धिरहिता अपि भवन्ति । 'एके' केचन वयोवृद्धा अपि तथा 'डहरा अपि च अपरिणता अपि च वयसाऽन्येऽमन्दा भवन्तीति वाक्यशेषः, किंविशिष्टा इत्याह-येच 'श्रुतबुझ्यपपेता तथा सत्मज्ञावन्तः श्रुतेन बुद्धिभावेन चा, भाविनी वृत्ति-पटू माश्रित्याल्पश्रुता इति, सर्वथा 'आचारवन्तों' ज्ञानाद्याचारसमन्विताः 'गुणसुस्थितात्मानों गुणेषु-संग्रहोपग्रहादिषु सुष्टु-भावसारं स्थित आत्मा येषां ते तथाविधा न हीलनीयाः, ये 'हीलिता' खिसिताः 'शि-| खीव' अग्निरिवेन्धनसंघातं 'भस्मसात्कुयुः ज्ञानादिगुणसंघातमपनयेयुरिति सूत्रार्थः॥३॥ विशेषेण डहरहीलनादोषमाह-जे आवित्ति सूत्र, यश्चापि कश्चिदज्ञो 'नाग' सपै 'डहर इति' बाल इति 'ज्ञाखा' वि ज्ञाय 'आशातयति' किलिञ्चादिना कदर्थयति 'स' कर्थ्यमानो नागः 'से' तस्य कदर्थकस्य 'अहिताय भद्रवति' भक्षणेन प्राणनाशाय भवति, एष दृष्टान्तोऽयमोंपनयः-एवमाचार्यमपि कारणतोऽपरिणतमेव स्था पितं हीलयन निर्गच्छति 'जातिपन्थान द्वीन्द्रियादिजातिमार्ग 'मन्दः' अज्ञः, संसारे परिभ्रमतीति सूत्रार्थः दीप अनुक्रम [४१६-४२४] LARGACADKA SCR Eramirm मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 490~ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||२-१०|| नियुक्ति: [३२७...], भाष्यं [६२...] (४२) का समाध्य प्रत १ उद्देश सूत्रांक ||२-१०|| दशवैका.12॥४॥ अत्रैव दृष्टान्तदाष्टान्तिकयोर्महदन्तरमित्येतदाह-आसित्ति सूत्रं, 'आशीविपश्चापि' सोऽपिपरा विनयहारि-वृत्तिः सुरुष्ट' सुक्रुद्धः सन् किं 'जीवितनाशात् मृत्योः परं कुर्यात्, न किंचिदपीत्यर्थः, आचार्यपादाः पुनः 'अ-II प्रसन्ना' हीलनयाऽननुग्रहे प्रवृत्ताः, किं कुर्वन्तीत्याह-'अबोधि' निमित्तहेतुत्वेन मिथ्यात्वसंहर्ति, तदाशा- ध्ययनम् ॥२४४॥ तनया मिथ्यात्ववन्धात, यतश्चैवमत आशातनया गुरोनास्ति मोक्ष इति, अबोधिसंतानानुबन्धेनानन्तससारिकत्वादिति सूत्रार्थः ॥५॥ किं च-'जो पावर्ग'ति सूत्रं, या 'पायकम्' अग्निं ज्वलितं सन्तम् 'अपना-| मेद' अवष्टभ्य तिष्ठति, 'आशीविषं वापि हि भुजङ्गमं वापि हि 'कोपयेत्' रोषं ग्राहयेत, यो वा विष खादति 'जीवितार्थी जीवितुकामः, 'एषोपमा अपायमाप्ति प्रत्येतदुपमानम्, आशातनया कृतया गुरूणां संब-13 न्धिन्या तद्वदपायो भवतीति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ अत्र विशेषमाह-'सिआ हुत्ति सूत्रं, 'स्यात् कदाचिन्मत्रादिप्रतिबन्धादसौ 'पावकः' अग्निः 'न दहेत्' न भस्मसात्कुर्यात्, 'आशीविषो वा' भुजङ्गो वा कुपितो 'न भक्षयेत्' न खादयेत्, तथा 'स्यात्' कदाचिन्मन्त्रादिप्रतिबन्धादेव विषं 'हालाहलम्' अतिरौद्रं 'न मारयेत्' न प्राणांस्त्याजयेत्, एवमेतत्कदाचिद्भवति न चापि मोक्षो 'गुरुहीलनया' गुरोराशातनया कृतया भवतीति सूत्रार्थः ॥७॥ किंच-'जो पब्बयंति सूत्रं, यः पर्वतं 'शिरसा' उत्तमाङ्गेन भेत्तुमिच्छेत्, सुप्तं वा सिंह गिरिगुहायां प्रतिबोधयेत्, यो वा ददाति 'शक्त्यग्रे प्रहरणविशेषाग्रे प्रहारं हस्तेन, एषोपमाऽऽशातनया | मि ॥२४४॥ गुरूणामिति पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः॥८॥ अत्र विशेषमाह-सिआ हुत्ति सूत्रं, 'स्यात् कदाचित्कश्चिद्वासु दीप अनुक्रम [४१६-४२४] ACCON imedication मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~491~ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||२-१०|| नियुक्ति : [३२७...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||२-१०|| देवादिः प्रभावातिशयाच्छिरसा 'गिरिमपि' पर्वतमपि भिन्द्यात्, स्यान्मन्त्रादिसामर्थ्यात्सिहः कुपितो न || भक्षयेत्, स्यादेवतानुग्रहावेर्न भिन्याद्वा शक्त्यग्रं प्रहारे दत्तेऽपि, एवमेतत्कदाचिद्भवति, न चापि मोक्षो 'गुरुहीलनया' गुरोराशातनया भवतीति सूत्रार्थः ॥९॥ एवं पावकाद्याशातनाया गुर्वाशातना महतीत्यतिशयप्रदर्शनार्थमाह-आयरित्ति सूत्रं, आचार्यपादाः पुनरप्रसन्ना इत्यादि पूर्वार्ध पूर्ववत्, यस्मादेवं तस्माद् 'अनावाधसुखाभिकाही मोक्षसुखाभिलाषी साधुः 'गुरुप्रसादाभिमुखः' आचार्यादिप्रसाद उद्युक्तः सन् रमेत' वर्तेत इति सूत्रार्थः ॥ १०॥ जहाहिअग्गी जलणं नमसे, नाणाहुईमंतपयाभिसित्तं । एवायरिअं उवचिट्रइज्जा, अणंतनाणोवगओऽवि संतो॥ ११॥ जस्संतिए धम्मपयाई सिक्खे, तस्संतिए वेणइयं पउंजे । सकारए सिरसा पंजलीओ, कायग्गिरा भो मणसा अनिच्च ॥ १२ ॥ लज्जा दया संजम बंभचेरं, कल्लाणभागिस्स विसोहिठाणं । जे मे गुरू सययमणुसासयंति, तेऽहं गुरू सययं पूअयामि ॥ १३ ॥ जहा निसंते तवणच्चिमाली, पभासई केवल भारहं तु । एवायरिओ सुअसीलबुद्धिए, विरायई सुरमझे व इंदो ॥१४॥ दीप अनुक्रम [४१६-४२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~492~ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||११ -१७|| दीप अनुक्रम [ ४२५ -४३१] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||११-१७ || निर्युक्तिः [ ३२७...], भाष्यं [६२...] दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ २४५ ॥ जहा ससी कोमुइजो जुत्तो, नक्खत्ततारागण परिवुडप्पा । खे सोहई विमले अन्भमुक्के, एवं गणी सोहइ भिक्खुमज्झे ॥ १५ ॥ महागरा आयरिआ महेसी, समाहिजोगेसुअसीलबुद्धिए । संपाविउकामे अणुत्तराई, आराहए तोसइ धम्मकामी ॥ १६ ॥ सुचाण मेहावि सुभासिआई, सुस्सूसए आयरिअप्पमत्तो । आराहइत्ताण गुणे अणेगे, से पावई सिद्धिमन्तरं ॥ १७॥ ति बेमि । विषयसमाहीए पढमो उद्देसो समत्तो ॥ ९- १॥ केन प्रकारेणेत्याह-- 'जहाहि अग्गि'त्ति सूत्रं यथा 'आहिताभिः कृतावसथादिर्ब्राह्मणो 'ज्वलनम्' अग्निं नमस्यति, किंविशिष्टमित्याह - 'नानाहृतिमन्त्र पदाभिषिक्तं' तत्राहुतयो घृतप्रक्षेपादिलक्षणा मन्त्रपदानि - अग्नये स्वाहेत्येवमादीनि तैरभिषिक्तं- दीक्षासंस्कृतमित्यर्थः, 'एवम्' अग्रिमिवाचार्यम् 'उपतिष्ठेत्' विनयेन सेवेत, किंविशिष्ट इत्याह- 'अनन्तज्ञानोपगतोऽपीति अनन्तं खपरपर्यायापेक्षया वस्तु ज्ञायते येन तदनन्तज्ञानं तदुपगतोऽपि सन्, किमङ्ग पुनरन्य इति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥ एतदेव स्पष्टयति- 'जस्स'त्ति सूत्रं, 'यस्यान्तिके' यस्य समीपे 'धर्मपदानि' धर्मफलानि सिद्धान्तपदानि 'शिक्षेत' आदयात् 'तस्थान्तिके' तत्समीपे किमित्याह- 'वैनयिकं प्रयुञ्जीत' विनय एव वैनयिकं तत्कुर्यादिति भावः, कथमित्याह-सत्कारयेदभ्युत्था Educatioremation Personal Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४२], मूल सूत्र [३] “दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः ~ 493~ ९ विनय समाध्य ध्ययनम् १ उद्देशः ॥ २४५ ॥ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्तिः ) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||११-१७|| नियुक्ति: [३२७...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||११ -१७|| नादिना पूर्वोक्तेन 'शिरसा' उत्तमाङ्गेन 'प्राञ्जलिः' प्रोद्गताञ्जलिः सन् 'कायेन' देहेन 'गिरा' वाचा मस्तकेन वन्दे इत्यादिरूपया "भो' इति शिष्यामन्त्रणं 'मनसा च भावप्रतिवन्धरूपेण 'नित्यं सदैव सत्कारयेत्, न तु सूत्रग्रहणकाल एच, कुशलानुवन्धव्यवच्छेदप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ १२ ॥ एवं च मनसि कुर्यादित्याह'लज्जा दय'त्ति सूत्रं, 'लज्जा' अपवादभयरूपा 'दया' अनुकम्पा 'संयमः' पृथिव्यादिजीवविषयः 'ब्रह्मचर्य विशुद्धतपोऽनुष्ठानम्, एतल्लज्जादि विपक्षव्यावृत्त्या कुशलपक्षप्रवर्तकत्वेन कल्याणभागिनो जीवस्य 'विशोदधिस्थान कर्ममलापनयनस्थानं वर्तते, अनेन ये मां 'गुरव' आचार्याः 'सततम्' अनवरतम् 'अनुशासयन्ति कल्याणयोग्यतां नयन्ति तीनहमेवंभूतान् गुरून सततं पूजयामि, न तेभ्योऽन्यः पूजाह इति सूत्रार्थः ॥ १३॥ इतश्चैते पूज्या इत्याह-'जह'त्ति सूत्रं, यथा 'निशान्ते रात्र्यवसाने दिवस इत्यर्थः, तपन् 'अर्चिाली' सूर्यः 'प्रभासयति' उद्योतयति केवलं संपूर्ण 'भारत' भरतक्षेत्रं, तुशब्दादन्यच्च क्रमेण एवम्-अर्चिालीवाचार्यः 'श्रुतेन' आगमन 'शीलेन' परद्रोहविरतिरूपेण 'बुद्ध्या च' स्वाभाविक्या युक्तः सन् प्रकाशयति जीवादिभावानिति । एवं च वर्तमानः सुसाधुभिः परिवृतो विराजते 'सुरमध्य इव' सामानिकादिमध्यगत इव इन्द्र इति सूत्रार्थः॥१४॥ किंच-'जह 'त्ति सूत्र, यथा 'शशी' चन्द्रः 'कौमुदीयोगयुक्त' कार्तिकपौर्णमास्यामुदित इत्यर्थः, स एव विशेष्यते-'नक्षत्रतारागणपरिवृतात्मा' नक्षत्रादिभिर्युक्त इति भावः, खे' आकाशे शोभते, किविशिष्टे खे?-'विमलेऽनमुक्ते' अभ्रमुक्तमेवात्यन्तं विमलं (तत्) भवतीति ख्यापनार्थमेतत, एवं चन्द्र इव 'गणी दीप अनुक्रम [४२५-४३१] Limelicatom.in मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 494~ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||११-१७|| नियुक्ति: [३२७...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक (तत्) आचार्यः शोभते 'भिक्षुमध्ये' साधुमध्ये, अतोऽयं महत्त्वात्पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ १५॥ किंच-'महाग-1 हारि- सित्ति सूत्रं, महाकरा ज्ञानादिभावरत्नापेक्षया आचार्या 'महैषिणों' मोक्षैषिणः, कथं महैषिण इत्याह-'समा समाध्याधियोगश्रुतशीलबुद्धिभिः' समाधियोग:-ध्यानविशेषैः श्रुतेन-द्वादशाङ्गाभ्यासेन शीलेन-परद्रोहविरतिरूपेण[3ध्ययनम ॥२४६॥ लवजया च औत्पत्तिक्यादिरूपया, अन्ये तु व्याचक्षते-समाधियोगश्रुतशीलवुद्धीनां महाकरा इति । तानेवाशा भूतानाचार्यान् संप्राप्नुकामोऽनुत्तराणि ज्ञानादीनि आराधयेद्विनयकरणेन, न सकृदेव, अपि तु 'तोषयेद्'। असकृत्करणेन तोषं ग्राहयेत् धर्मकामो-निर्जराथ, न तु ज्ञानादिफलापेक्षयाऽपीति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ 'सोचाण'त्ति सूत्रं, श्रुत्वा मेधावी सुभाषितानि गुर्वाराधनफलाभिधायीनि, किमित्याह-शुश्रूषयेदाचार्यान् 'अप्रमत्तो' निद्रादिरहितस्तदाज्ञां कुर्वीतेखः, य एवं गुरुशुश्रूषापरःस आराध्य 'गुणान' अनेकान ज्ञानादीन प्रामोति सिद्धिमनुत्तरां, मुक्तिमित्यर्थः, अनन्तरं सुकुलादिपरम्परया वा । ब्रवीमीति पूर्ववदयं सूत्रार्थः ॥१७॥ इति श्रीदशवैकालिकटीकायां श्रीहरिभद्रसूरिविरचितायां नवमाध्ययने प्रथम उद्देशकः ॥१॥ -१७|| दीप अनुक्रम [४२५-४३१] ||॥२४६॥ अथ द्वितीय उद्देशः। मूलाउ खंधप्पभवो दुमस्स, खंघाउ पच्छा समुर्विति साहा । साहप्पसाहा विरुहंति Eramin मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: अत्र नवमे अध्ययने प्रथम उद्देशकः परिसमाप्त: तथा द्वितिय उद्देशक: आरब्ध: ~ 495~ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [९], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||१-२|| नियुक्ति: [३२७...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक 5-%25A ||१-२|| दीप अनुक्रम [४३२-४३३] पत्ता, तओ सि पुप्फ च फलं रसो अ॥१॥ एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो से मुक्खो। जेण कित्तिं सुअं सिग्घ, नीसेस चाभिगच्छइ ॥२॥ विनयाधिकारवानेव द्वितीय उच्यते, तत्रेदमादिमं सूत्रं-मूलाउ' इत्यादि, अस्य व्याख्या-मूलाद्' आदिप्रबन्धात् 'स्कन्धप्रभवः' स्थुडोत्पादः, कस्येत्याह-'द्रुमस्य' वृक्षस्य । 'ततः स्कन्धात् सकाशात् पश्चात्तदनु 'समुपयान्ति' आत्मानं प्रामुवन्त्युत्पद्यन्त इत्यर्थः, कास्ता इत्याह-शाखा' त जाकल्पाः । तथा 'शाखाभ्य' उक्तलक्षणाभ्यः प्रशाखास्तदंशभूता 'विरोहन्ति' जायन्ते, तथा तेभ्योऽपि 'पत्राणि पर्णानि विरो|हन्ति । 'ततः तदनन्तरं 'से' तस्य द्रुमस्य पुष्पं च फलं च रसश्च फलगत एवैते क्रमेण भवन्तीति सूत्रार्थः। ॥१॥ एवं दृष्टान्तमभिधाय दाष्टोन्तिकयोजनामाह-एवं ति सूत्रं, 'एवं दुममूलबत् धर्मस्य परमकल्पवृ-12 क्षस्य विनयो 'मूलम्'आदिप्रबन्धरूपं 'परम' इत्यग्रो रसः 'से' तस्य फलरसवन्मोक्षा, स्कन्धादिकल्पानि तु| दादेवलोकगमनसुकुलागमनादीनि, अतो विनयः कर्तव्यः, किंविशिष्ट इत्याह-'येन' विनयेन 'कीति' सर्वत्र PIशुभप्रवादरूपां तथा 'श्रुतम्' अङ्गमविष्टादि 'लम्यं प्रशंसास्पदभूतं 'निःशेष संपूर्णम् 'अधिगच्छति' प्रा-1 मोतीति ॥२॥ जे अ चंडे मिए थद्धे, दुव्बाई नियडी सढे । वुज्झइ से अविणीअप्पा, कद्रं सोअगयं SH दश०४२ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[२] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~496~ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ॥३-४|| दीप अनुक्रम [ ४३४ -४३५] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [९], उद्देशक [२], मूलं [ १५...] / गाथा ||३-४ || निर्युक्ति: [ ३२७...], भाष्यं [ ६२...] दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ २४७ ॥ Law Education जहा ॥ ३ ॥ विणपि जो उवाएणं, चोइओ कुप्पई नरो । दिव्वं सो सिरिमिज्जतिं, दंडेण पडिसेहए ॥ ४ ॥ अविनयवतो दोषमाह - 'जे अत्ति सूत्रं यः 'चण्डो' रोषणो 'मृगः' अज्ञः हितमप्युक्तो रुष्यति तथा 'स्तब्धो' जात्यादिमदोन्मत्तः 'दुर्वाग' अप्रियवक्ता 'निकृतिमान' मायोपेतः 'शठः' संयमयोगेष्वनादृतः, एभ्यो दोषेभ्यो विनयं न करोति यः उत्यतेऽसौ पापः संसारस्रोतसा 'अविनीतात्मा' सकलकल्याणैकनिबन्धनविनयविरहितः । किमिवेत्याह-काष्ठं 'स्रोतोगतं' नयादिवहनीपतितं यथा तद्वदिति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ किं च'विषयंपी'ति सूत्रं, 'विनयम्' उक्तलक्षणं यः 'उपायेनापि एकान्तमृदुभणनादिलक्षणेनापि अपिशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः 'चोदित' उक्तः 'कुप्यति' रुष्यति नरः । अत्र निदर्शनमाह - 'दिव्याम्' अमानुषीम् 'असो' नरः श्रियं लक्ष्मीम् 'आगच्छन्तीम्' आत्मनो भवन्तीं 'दण्डेन' काष्ठमयेन 'प्रतिषेधयति' निवारयति । एतदुक्तं भवति-विनयः संपदो निमित्तं, तत्र स्खलितं यदि कश्चिचोदयति स गुणस्तत्रापि रोषकरणेन वस्तुतः संपदो निषेधः, उदाहरणं चात्र दशारादयः कुरूपागतश्रीप्रार्थनाप्रणयभङ्गकारिणस्तद्रहितास्तद्भङ्गकारी च तयुक्तः कृष्ण इति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ तहेव अविणीअप्पा, उववज्झा हया गया । दीसंति दुहमेहंता, आभिओगमुवट्टिआ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४२ ], मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः ~ 497~ ९ विनय समाध्य ध्ययनम् २ उद्देशः ॥ २४७ ॥ www.yg Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [९], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||५-६|| नियुक्ति : [३२७...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||५-६|| ॥५॥ तहेव सुविणीअप्पा, उववज्झा हया गया । दीसंति सुहमेहता, इढि पत्ता महायसा ॥६॥ अविनयदोषोपदर्शनार्थमेवाह-तहेवत्ति सूत्रं, 'तथैवेति तथवैते 'अविनीतात्मानों विनयरहिता अ-12 नात्मज्ञाः, उपवाथानां-राजादिवल्लभानामते कर्मकरा इत्यौपवाद्याः 'हया' अश्वाः 'गजा' हस्तिनः, उपलक्षणमेतन्महिषकादीनामिति । एते किमित्याह-दृश्यन्ते' उपलभ्यन्त एव मन्दुरादौ अविनयदोषेण उभयलो. कवर्सिना यवसादिवोढारः 'दुःखं' संक्लेशलक्षणम् 'एधयन्तः अनेकार्थत्वादनुभवन्तः 'आभियोग्य' कर्मकहारभावम् उपस्थिताः' प्राप्ता इति सूत्रार्थः ॥५॥ एतेष्वेव विनयगुणमाह-तहेब'त्ति सूत्रं. 'तथैवेति तथैवैते। 'सुविनीतात्मानो' विनयवन्त आत्मज्ञा औपवाह्या राजादीनां हया गजा इति पूर्ववत् । एते किमित्याह दृश्यन्ते' उपलभ्यन्त एव सुखम्-आहादलक्षणम् 'एधमाना' अनुभवन्तः 'शुद्धि प्राप्ता' इति विशिष्टभूषदाणालयभोजनादिभावतः प्राप्तईयो 'महायशसो' विख्यातसद्गुणा इति सूत्रार्थः ॥६॥ तहेव अविणीअप्पा, लोगंमि नरनारिओ । दीसंति दुहमेहता, छाया विगलितेंदिआ ॥ ७॥ दंडसत्थापरिजुन्ना, असम्भवयणेहि अ। कलुणाविवन्नच्छंदा, खुप्पि दीप अनुक्रम [४३६-४३७] Jamelicationa l श मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 498~ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||७-९|| नियुक्ति : [३२७...], भाष्यं [६२...] (४२) दशवैका० हारि-वृत्तिः ॥२४८॥ प्रत सूत्रांक ||७-९|| वासाइपरिगया ॥ ८॥ तहेव सुविणीअप्पा, लोगंसि नरनारिओ । दीसंति सुहमे ९विनय समाध्यहंता, इड्डि पत्ता महायसा ॥ ९॥ ध्ययनम् एतदेव विनयाविनयफलं मनुष्यानधिकृत्याह-तहेव'त्ति सूत्रं, 'तथैव' तिर्यश्च इव अविनीतात्मान इतिही पूर्ववत्। 'लोके' अस्मिन्मनुष्यलोके, नरनार्य इति प्रकटार्थ दृश्यन्ते दुःखमेधमाना इति पूर्ववत् 'छारा(ता.)' कस घातव्रणाङ्कितशरीराः 'विगलितेन्द्रिया' अपनीतनासिकादीन्द्रियाः पारदारिकादय इति सूत्रार्थः ॥७॥ तथा दंडत्ति सूत्रं, दण्डा-बेत्रदण्डादयः शस्त्राणि-बगादीनि ताभ्यां परिजीर्णाः-समन्ततो दुर्बलभावमापा|दिताः तथा 'असभ्यवचनैश्च' खरकर्कशादिभिः परिजीर्णाः, त एवंभूताः सतां करुणाहेतुत्वात्करुणा-दीना व्यापनच्छन्दसा-परायत्ततया अपेतखाभिप्रायाः, क्षुधा-बुभुक्षया पिपासया-तृषा परिगता-व्याप्ता अन्नादिनिरोधस्तोकदानाभ्यामिति । एवमिह लोके प्रागविनयोपात्तकर्मानुभावत एवंभूताः परलोके तु कुशलाप्रवृत्तेर्तुःखिततरा विज्ञेया इति सूत्रार्थः ॥८॥ विनयफलमाह-'तहेवत्ति सूत्रं, 'तथैव विनीततिर्यश्च इव सविनीतात्मानो लोकेऽस्मिन्नरनार्य इति पूर्ववत् । दृश्यन्ते सुखमेधमानाः शुद्धि प्राप्ता महायशस इति पूर्ववदेव, नवरं खाराधितनृपगुरुजना उभयलोकसाफल्यकारिण एत इति सूत्रार्थः ॥९॥ ॥२४८॥ तहेव अविणीअप्पा, देवा जक्खा अ गुज्झगा । दीसंति दुहमेहंता, आभिओगमुव दीप अनुक्रम [४३८-४४०] RACK Eramin मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 499~ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [९], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||१०-११|| नियुक्ति: [३२७...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ११|| ट्रिआ ॥ १०॥ तहेव सुविणीअप्पा, देवा जक्खा अ गुज्झगा । दीसंति सुहमेहंता, इद्धि पत्ता महायसा ॥ ११॥ एतदेव विनयाविनयफलं देवानधिकृत्याह-तहेवत्ति सूत्रं, 'तथैव' यथा नरनार्यः 'अविनीतात्मानो भवान्तरेऽकृतविनयाः 'देवा' वैमानिका ज्योतिष्का 'यक्षाच' व्यन्तराश्च 'गुह्यका भवनवासिनः, त एते दृश्यन्ते आगमभावचक्षुषा दुःखमेधमानाः पराज्ञाकरणपरबृद्धिदर्शनादिना, आभियोग्यमुपस्थिता:-अभि-13 योगः-आज्ञाप्रदानलक्षणोऽस्यास्तीत्यभियोगी तद्भाव आभियोग्यं कर्मकरभावमित्यर्थः उपस्थिताः-प्राप्ता इति सूत्रार्थः ॥१०॥ विनयफलमाह तहेवत्ति सूत्रं, 'तथैवेति पूर्ववत्, 'सुविनीतात्मानों जन्मान्तरकृतविनया निरतिचारधर्माराधका इत्यर्थः, देवा यक्षाश्च गुह्यका इति पूर्ववदेव, दृश्यन्ते सुखमेधमाना अर्हत्कल्याणादिषु 'ऋद्धिं प्राप्ता' इति देवाधिपादिप्राप्सर्द्धयो ‘महायशसों विख्यातसद्गुणा इति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥ जे आयरिअउवज्झायाणं, सुस्सूसावयणकरा । तेसिं सिक्खा पवइंति, जलसित्ता इव पायवा ॥ १२ ॥ अप्पणट्रा परट्रा वा, सिप्पा उणिआणि अ । गिहिणो उवभोगद्रा, इहलोगस्स कारणा ॥ १३ ॥ जेणं बंधं वहं घोरं, परिआवं च दारुणं । सिक्खमाणा दीप अनुक्रम [४४१-४४२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~500~ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [९], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||१२-१६|| नियुक्ति : [३२७...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||१२१६|| दशवैका निअच्छंति, जुत्ता ते ललिइंदिआ ॥ १४॥ तेऽवि तं गुरुं प्रअंति, तस्स सिप्पस्स ९विनयहारि-वृत्तिः समाध्यकारणा । सकारंति नमसंति, तुट्टा निदेसवत्तिणो ॥ १५॥ किं पुणं जे सुअग्गाही, ध्ययनम् ॥२४९॥ अणंतहिअकामए । आयरिआ जं वए भिक्खू, तम्हा तं नाइवत्तए ॥ १६ ॥ २ उद्देश: एवं नारकापोहेन व्यवहारतो येषु सुखदुःखसंभवस्तेषु विनयाविनयफलमुक्तम्, अधुना विशेषतो लोकोहोत्तरविनयफलमाह-'जे आयरिति सूत्र, य आचार्योपाध्याययोः-प्रतीतयोः 'शुश्रूषावचनकरा' पूजाप्र धानवचनकरणशीलास्तेषां पुण्यभाजां 'शिक्षा ग्रहणासेवनालक्षणा भावार्थरूपाः 'प्रवर्द्धन्ते' पृद्धिमुपयान्ति, दृष्टान्तमाह-जलसिक्ता इव 'पादपा' वृक्षा इति सूत्रार्थः ॥ १२ ॥ एतच्च मनस्याधाय विनयः कार्य इत्याहMI'आत्मार्थम्' आत्मनिमित्तमनेन मे जीविका भविष्यतीति, एवं 'परार्थ वा परनिमित्तं वा पुनमहमेतशाहयिष्यामीत्येवं 'शिल्पानि' कुम्भकारक्रियादीनि 'नैपुण्यानि च' आलेख्यादिकलालक्षणानि 'गृहिणः' असं-| यता 'उपभोगार्थम्' अन्नपानादिभोगाय, शिक्षन्त इति वाक्यशेषः 'इहलोकस्य कारणम्' इहलोकनिमित्त-15 मिति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ 'येन' शिल्पादिना शिक्ष्यमाणेन 'वन्धं निगडादिभिः 'वध कषादिभिः 'घोर' रौद्रंट परितापं च 'दारुणम् एतजनितमनिष्टं निर्भर्त्सनादिवचनजनितं च शिक्षमाणा गुरोः सकाशात् 'निय- ॥२४९ ॥ च्छन्ति' प्राप्नुवन्ति 'युक्ता' इति नियुक्ताः शिल्पादिग्रहणे ते 'ललितेन्द्रिया' गर्भश्वरा राजपुचादय इति दीप अनुक्रम [४४३-४४७]] Jamedicalami मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~501~ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||१२ १६|| दीप अनुक्रम [४४३ -४४७] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [९], उद्देशक [२] मूलं [१५...] / गाथा || १२-१६ || निर्युक्तिः [ ३२७...], भाष्यं [ ६२...] La Edocanon in सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ तेऽपीत्वरं शिल्पादि शिक्षमाणास्तं गुरुं बन्धादिकारकमपि पूजयन्ति सामान्यतो मधुरवचनाभिनन्दनेन तस्य शिल्पस्येत्वरस्य कारणात्, तन्निमित्तत्वादिति भावः, तथा 'सत्कारयन्ति' वस्त्रादिना 'नमस्यन्ति' अञ्जलिप्रग्रहादिना । तुष्टा इत्यमुत इदमवाप्यत इति हृष्टा 'निर्देशवर्त्तिन' आज्ञाकारिण इति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ यदि तावदेतेऽपि तं गुरुं पूजयन्ति अतः - 'किं' सूत्रं किं पुनर्यः साधुः 'श्रुतग्राही' परमपुरुपप्रणीतागमग्रहणाभिलाषी 'अनन्तहितकामुकः' मोक्षं यः कामयत इत्यभिप्रायः तेन तु सुतरां गुरवः पूजनया इति, यतश्चैवमाचार्या यद्वदन्ति किमपि तथा तथाsनेकप्रकारं 'भिक्षुः' साधुस्तस्मात्तदाचार्यवचनं नातिवर्त्तेत, युक्तत्वात्सर्वमेव संपादयेदिति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ नीअं सिजं गईं ठाणं, नीअं च आसणाणि अ । नीअं च पाए वंदिजा, नीअं कुज्जा अ अंजलिं ॥ १७ ॥ संघट्टइत्ता काएणं, तहा उवहिणामवि । खमेह अवराहं मे, व इज्ज न पुत्ति अ ॥ १८ ॥ दुग्गओ वा पओएणं, चोइओ वहई रहं । एवं दुबुद्धि किच्चाणं, वृत्तो वृत्तो पकुव्वई ॥ १९ ॥ "आलवंते लवंते वा न निसिजाइ पडिस्सुणे । मुत्तूण आसणं धीरो, सुस्साए पडिस्सुणे ॥” कालं छंदोवयारं च, पडिलेहित्ता पण हे उहिं । तेण तेण उवाएणं, तं तं संपडिवायए ॥ २० ॥ प्रक्षेपगाथा-१ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[४२], मूल सूत्र [३] “दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि- विरचिता वृत्ति: : ~ 502~ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ॥१७ -२०|| दीप अनुक्रम [ ४४८ -४५२] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [९], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||१७-२० || निर्युक्तिः [ ३२७... ], भाष्यं [६२...] Casto हारि-वृत्तिः ॥ २५० ॥ La Edocation in विनयोपायमाह - नीचां 'शय्यां' संस्तारकलक्षणामाचार्य शय्यायाः सकाशात्कुर्यादिति योगः, एवं नीचां गतिं आचार्यगतेः, तत्पृष्ठतो नातिदूरेण नातिद्रुतं यायादित्यर्थः, एवं नीचं स्थानमाचार्यस्थानात्, पत्राचार्य आस्ते तस्मान्नी चतरे स्थाने स्थातव्यमिति भावः । तथा 'नीचानि' लघुतराणि कदाचित्कारणजाते 'आस नानि' पीठकानि तस्मिन्नुपविष्टे तदनुज्ञातः सेवेत, नान्यथा, तथा 'नीच' च सम्यगवनतोत्तमाङ्गः सन् पादावाचार्य सत्कौ वन्देत, नावज्ञया, तथा कचित्प्रनादी 'नीचं' नम्रकार्य 'कुर्यात्' संपादयेचाञ्जलिं न तु स्थाणुवत्स्तब्ध एवेति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ एवं कायविनयमभिधाय वाग्विनयमाह - 'संघहिय' स्पृष्ट्रा 'कायेन' देहेन कथंचित्तथाविधप्रदेशोपविष्टमाचार्य तथा 'उपधिनापि कल्पादिना कथंचित्संघक्ष्य मिध्यादुष्कृतपुरःसरमभिवन्द्य 'क्षमख' सहख 'अपराध' दोषं मे मन्दभाग्यस्यैवं 'वदेद्' ब्रूयात् 'न पुनरिति च' नाहमेनं भूयः | करिष्यामीति सूत्रार्थः ॥ १८ ॥ एतच्च बुद्धिमान् स्वयमेव करोति, तदन्यस्तु कथमित्याह - 'दुगौरिव' गलिबलीवईवत् 'प्रतोदेन' आरादण्डलक्षणेन 'चोदितो' विद्धः सन् 'वहति' नयति कापि 'रथं' प्रतीतम्, 'एवं' दुगौरिव 'दुर्बुद्धिः' अहितावहबुद्धिः शिष्यः 'कृत्यानाम्' आचार्यादीनां 'कृत्यानि वा' तदभिरुचितकार्याणि 'उक्त उक्तः पुनः पुनरभिहित इत्यर्थः, 'प्रकरोति' निष्पादयति प्रयुङ्क्ते चेति सूत्रार्थः ॥ १९ ॥ एवं च कृतान्यमूनि न शोभनानीत्यतः (आह) - 'काल' शरदादिलक्षणं, 'छन्द:' तदिच्छारूपम् 'उपचारम्' आराधनाप्रकारं, चशब्दादेशादिपरिग्रहः, एतत् 'प्रत्युपेक्ष्य' ज्ञात्वा 'हेतुभिः' यथानुरूपैः कारणैः किमित्याह तेन तेनोपायेन Far P&Personally मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ४२ ], मूल सूत्र [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः ~ 503~ ९ विनय समाध्य ध्ययनम्र २ उद्देशः ॥ २५० ॥ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्तिः ) अध्ययनं [९], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||२१-२३|| नियुक्ति: [३२७...], भाष्यं [६२...] (४२) NCE प्रत % सूत्रांक E ||२१-२३|| गृहस्थावर्जनादिना तत्तत् पित्तहरादिरूपमशनादि संप्रतिपादयेत् , यथा काले शरदादौ पित्तहरादिभोजनं प्रवातनिवातादिरूपा शय्या इच्छानुलोमं वा यद्यस्य हितं रोचते च आराधनामकारोऽनुलोमं भाषणं ग्रन्थाभ्यासवैयावृत्यकरणादि देशे अनूपदेशाशुचितं निष्ठीवनादिभिर्हेतुभिः श्लेष्माद्याधिक्यं विज्ञाय तदुचितं संपादयेदिति सूत्रार्थः ॥ २०॥ विवत्ती अविणीअस्स, संपत्ती विणिअस्स य । जस्सेयं दुहओ नाय, सिक्खं से अभिगच्छइ ॥ २१ ॥ जे आवि चंडे मइइडिगारवे, पिसुणे नरे साहसहीणपेसणे । अदिधम्मे विणए अकोविए, असंविभागी न हु तस्स मुक्खो ॥ २२ ॥ निद्देसवित्ती पुण जे गुरूणं, सुअत्थधम्मा विणयंमि कोविआ । तरित्तु ते ओघमिणं दुरुत्तरं, खवित्तु कम्मै गइमुत्तमं गय ॥ २३ ॥ त्ति बेमि ॥ विणयसमाहिअज्झयणे बीओ उद्देसो समत्तो ॥२॥ किंच-विपत्तिरविनीतस्य ज्ञानादिगुणानां, संप्राप्तिर्विनीतस्य च ज्ञानादिगुणानामेव, 'यस्यैतत् ज्ञानादि-1 प्राप्स्यपासिद्धयम् 'उभयतः' उभयाभ्यां विनयाविनयाभ्यां सकाशात् भवतीत्येवं 'ज्ञातम्' उपादेयं चैतदिति दीप अनुक्रम [४५३-४५५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 504~ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [९], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||२१-२३|| नियुक्ति: [३२७...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत विनयसमाध्यध्ययनम् २ उद्देशः सूत्रांक ||२१-२३|| दशवैका भवति 'शिक्षा ग्रहणासेवनारूपाम् 'असौं' इत्थंभूतः अधिगच्छति-प्रामोति, भावत उपादेयपरिज्ञानादिति हारि-वृत्तिः सूत्रार्थः ॥ २१॥ एतदेव दृढयन्नविनीतफलमाह-यश्चापि 'चण्ड' प्रजितोऽपि रोषणः 'ऋद्धिगौरवमतिः' - द्विगौरवे अभिनिविष्टः पिशुनः पृष्ठिमांसखादकः 'नरों' नरव्यञ्जनो न भावनरः 'साहसिकः' अकृत्यकरण॥२५ ॥ परः 'हीनप्रेषण' हीनगुर्वाज्ञापरः 'अदृष्टधर्मा' सम्यगनुपलब्धश्रुतादिधर्मा 'विनयेऽकोविदों' विनयविषयेऽप-14 *ण्डितः 'असंविभागी' यत्र कचन लाभेन संविभागवान् । य इत्थंभूतोऽधमो नैव तस्य मोक्षः, सम्यग्दृष्टेखा-IN रित्रवत इत्थंविधसंक्लेशाभावादितिसूत्रार्थः ॥२२॥ विनयफलाभिधानेनोपसंहरन्नाह-निर्देश-आज्ञा तद्वर्तिनः पुनर्ये 'गुरूणाम्' आचार्यादीनां 'श्रुतार्थधर्मा' इति प्राकृतशैल्या श्रुतधर्मार्था गीतार्था इत्यर्थः, विनये कर्तव्ये कोविदा-विपश्चितो य इत्थंभूतास्ती| ते महासत्त्वा 'ओघमेन' प्रत्यक्षोपलभ्यमानं संसारसमुद्रं दुरुत्तारं । तीवैव तीवा, चरमभवं केवलित्वं च प्राप्येति भावः, ततः क्षपयित्वा कर्म निरवशेषं भवोपनाहिसंज्ञितं द गतिमुत्तमां सिद्ध्याख्यां 'गता प्राप्ताः । इति ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥ २३ ॥ ॥ इति विनयसमाधौ व्याख्यातो द्वितीय उद्देशः॥२॥ Act दीप SANSAAMSABSOCCUSA अनुक्रम [४५३-४५५] ॥२५१॥ १ब पेसर्ग भावरिएहि दिणं तं देसकालादीहिं ही करेइ. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: अत्र नवमे अध्ययने द्वितीय उद्देशक: परिसमाप्त: ~ 505~ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [९], उद्देशक [३], मूलं [१५...] / गाथा ||१-७|| नियुक्ति : [३२७...], भाष्यं [६२...] (४२) अथ तृतीय उद्देशः। प्रत सूत्रांक ||१-७|| दीप अनुक्रम [४५६-४६२ आयरिअं अग्गिमिवाहिअग्गी, सुस्सूसमाणो पडिजागरिजा । आलोइअं इंगिअमेव नच्चा, जो छंदमाराहयई स पुजो ॥१॥ आयारमट्ठा विणयं पउंजे, सुस्सूसमाणो परिगिज्झ वकं । जहोवइट्ठ अभिकंखमाणो, गुरुं तु नासाययई स पुजो ॥२॥ रायणिएसु विणयं पउंजे, डहराऽवि अ जे परिआयजिट्टा । नीअत्तणे वट्टइ सच्चवाई, उवायवं वक्ककरे स पुज्जो ॥ ३॥ अन्नायउंछं चरई विसुद्धं, जवणट्टया समुआणं च निच्छ । अलढुअं नो परिदेवइजा, लड्डुन विकत्थई स पुजो ॥४॥ संथारसिज्जासणभत्तपाणे, अप्पिच्छया अइलाभेऽवि संते। जो एवमप्पाणभितोसइजा, संतोसपाहन्नरए स पुज्जो ॥ ५॥ सका सहेउं आसाइ कंटया, अओमया उच्छहया नरेणं । अणासए जो उ सहिज कंटए, वईमए कन्नसरे स पुज्जो ॥६॥ मुहुत्तदुक्खा उ ह मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: अथ नवमे अध्ययने तृतीय उद्देशक: आरब्ध: ~ 506~ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||१-७|| दीप अनुक्रम [४५६ -४६२] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) अध्ययनं [९], उद्देशक [३], मूलं [ १५...] / गाथा ||१-७|| निर्युक्ति: [ ३२७...], भाष्यं [६२...] दशबैका० हारि-वृत्तिः ॥ २५२ ॥ La Edocation ति कंटया, अओमया तेऽवि तओ सुउद्धरा । वायादुरुत्ताणि दुरुद्धराणि, वेराणुबंधीणि महभयाणि ॥ ७ ॥ साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते, इह च विनीतः पूज्य इत्युपदर्शयन्नाह - 'आचार्य' सूत्रार्थप्रदं तत्स्थानीयं वाऽन्यं ज्येष्ठायै, किमित्याह- 'अग्निमिव' तेजस्कायमिव 'आहिताग्निः' ब्राह्मणः 'शुश्रूषमाणः' सम्यक्सेवमानः 'प्रतिजागृयात्' तत्तत्कृत्य संपादनेनोपचरेत् । आह-यथाऽऽहिताग्निरित्यादिना प्राणिदमुक्तमेव, सत्यं, किंतु तदाचार्यमेवाङ्गीकृत्य इदं तु रत्नाधिकादिकमप्यधिकृत्योच्यते, वक्ष्यति च- 'रायणीएस विणय' मित्यादि, प्रतिजागरणोपायमाह - 'आलोकितं' निरीक्षितम् 'इङ्गितमेव च' अन्यधावृत्तिलक्षणं 'ज्ञात्वा' विज्ञायाचार्याय 'यः' साधुः 'छन्दः' अभिप्रायमाराधयति । यथा शीते पतति प्रावरणावलोकने तदानयने, इङ्गिते वा निष्ठीवनादिलक्षणे शुण्ड्यायानयनेन 'स पूज्यः' स इत्थंभूतः साधुः पूजार्हः, कल्याणभागिति सूत्रार्थः ॥ १ ॥ प्रक्रान्ताधिकार एवाह-- 'आचारार्थे' ज्ञानायाचारनिमित्तं 'विनयम्' उक्तलक्षणं 'प्रयुद्धे' करोति यः 'शुश्रू पन्' श्रोतुमिच्छन्, किमयं वक्ष्यतीत्येवम् । तदनु तेनोक्ते सति परिगृह्य वाक्यम् आचार्ययं ततश्च 'यथोपदिष्टं यथोक्तमेव अभिकाङ्गन, मायारहितः श्रद्धया कर्तुमिच्छन् विनयं प्रयुङ्क्ते, अतोऽन्यथाकरणेन 'गुरुं वि'ति आचार्यमेव 'नाशातयति' न हीलयति यः स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ २ ॥ किं च- 'रत्नाधिकेषु' ज्ञाना P&Personal Use City मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ४२ ], मूल सूत्र [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः विनीतस्य पूज्यता प्रदर्श्यते ~ 507~ ९. विनय समाध्यध्ययनम् उद्देशः ।। २५२ ।। yam Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||१-७|| दीप अनुक्रम [४५६ -४६२] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [९], उद्देशक [३] मूलं [ १५...] / गाथा ||१७|| निर्युक्ति: [ ३२७...], भाष्यं [६२...] दश० ४३ Education दिभावरत्नाभ्युच्छ्रितेषु 'विनय' यथोचितं 'प्रयुङ्क्ते' करोति, तथा डहरा अपि च ये वयः श्रुताभ्यां 'पर्यायज्येष्ठाः' चिरप्रव्रजितास्तेषु विनयं प्रयुङ्के, एवं च यो 'नीचत्वे' गुणाधिकान् प्रति नीचभावे वर्त्तते 'सत्यवादी' | अविरुद्धवक्ता तथा 'अवपातवान्' वन्दनशीलो निकटवर्ती वा एवं च यो 'वाक्यकरो' गुरुनिर्देशकरणशीलः स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ किं च- 'अज्ञातोन्छे' परिचयाकरणेनाज्ञातः सन् भावोञ्छं गृहस्थोद्धरितादि 'चरति' अटित्वाऽऽनीतं मुझे, न तु ज्ञातस्तइहुमतमिति, एतदपि 'विशुद्धम् उद्गमादिदोषरहितं न तद्विपरीतम्, एतदपि 'यापनार्थ संयमभरोद्वाहिशरीरपालनाय नान्यथा 'समुदानं च' उचितभिक्षालब्धं च 'नित्यं' सर्वकालं न तूञ्छमप्येकत्रैव बहुलब्धं कादाचित्कं वा, एवंभूतमपि विभागतः 'अलब्ध्वा' अनासाथ 'न परिदेवयेत्' न खेदं यायात्, यथा- मन्दभाग्योऽहमशोभनो वाऽयं देश इति, एवं विभागतश्च 'लब्ध्वा' प्राप्योचितं 'न विकत्थते' न श्लाघां करोति-सपुण्योऽहं शोभनो वाऽयं देश इत्येवं स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ किं च संस्तारकशय्यासनभक्तपानानि प्रतीतान्येव, एतेषु 'अल्पेच्छता' अमूर्च्छया परिभोगोऽतिरिक्ताग्रहणं वा अतिलाभेऽपि सति संस्तारकादीनां गृहस्येभ्यः सकाशात् य एवमात्मानम् 'अभितोषयति' येन वा तेन वा यापयति 'संतोषप्राधान्यरतः' संतोष एवं प्रधानभावे सक्तः स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ इन्द्रियसमाधिद्वारेण पूज्यतामाह-शक्याः सोदुम 'आशयेति इदं मे भविष्यतीति प्रत्याशया, क इत्याह-कण्टका 'अयोमया' लोहात्मका: 'उत्सहता नरेष' अर्थोद्यमवतेत्यर्थः तथा च कुर्वन्ति केचिदयोमयकण्टकास्तरणशय Far P&Personal Use City मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ४२ ], मूल सूत्र [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः ~508~ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [९], उद्देशक [३], मूलं [१५...] / गाथा ||१-७|| नियुक्ति : [३२७...], भाष्यं [६२...] (४२) दशवैका० हारि-वृत्तिः प्रत ॥२५३॥1 सूत्रांक ||१-७|| नमप्यर्थलिप्सया, न तु वाक्कण्टकाः शक्या इत्येवं व्यवस्थिते 'अनाशया' फलप्रत्याशया निरीहः सन् यस्तु विनयसहेत कण्टकान 'वानयान' खरादिवागात्मकान् 'कर्णसरान्' कर्णगामिनः स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ ६॥ समाध्य. एतदेव स्पष्टयति-मुहूर्तदुःखा' अल्पकालदुःखा भवन्ति कंटका अयोमयाः, वेधकाल एव प्रायो दुःखभावात्, ध्ययनम् तेऽपि 'ततः' कायात् 'सद्धरा' सुखेनैवोड्रियन्ते व्रणपरिकर्म च क्रियते, वाग्दुरुक्तानि पुनः 'दुरुद्धराणि' दु:-II उद्देशः खेनोद्रियन्ते मनोलक्षवेधनाद 'वैरानुवन्धीनि' तथाश्रवणद्वेषादिनेह परत्र च वैरानुवन्धीनि भवन्ति, अत एच महाभयानि, कुगतिपातादिमहाभयहेतुत्वादिति सूत्रार्थः ॥७॥ समावयंता वयणाभिघाया, कन्नंगयां दुम्मणि जणंति । धम्मुत्ति किच्चा परमग्गसूरे, जिइंदिए जो सहई स पुज्जो ॥८॥ अवण्णवायं च परम्मुहस्स, पञ्चक्खओ पडिणीअं च भास । ओहारणिं अप्पिअकारिणिं च, भासं न भासिज सया स पुज्जो ॥९॥ अलोलुए अकुहए अमाई, अपिसुणे आवि अदीणवित्ती । नो भावए नोऽविअ भाविअप्पा, अकोउहल्ले अ सया स पुज्जो ॥१०॥ गुणेहि साहू अगुणेहिऽसाहू, गिण्हाहि साहू गुण मुंचऽसाह । विआणिआ अप्पगमप्पएणं, जो रागदोसेहिं समो दीप अनुक्रम [४५६-४६२ CACANCE ॥२५३॥ Liam Elecasemind मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~509~ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ॥८- १५|| दीप अनुक्रम [४६३ -४७०] La Edocation “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः अध्ययनं [९], उद्देशक [३] मूलं [१५...] / गाथा ||८ - १५ || निर्युक्तिः [ ३२७...], भाष्यं [६२...] स पुजो ॥ ११ ॥ तव डहरं च महडगं वा, इत्थीं पुमं पव्वइअं गिहिं वा । नो ator नोऽवि अ खिंसइजा, थंभं च कोहं च चए स पुज्जो ॥ १२ ॥ जे माणिआ सययं माणयंति, जत्तेण कन्नं व निवेसयंति। ते माणए माणरिहे तवस्सी, जिइंदिए सच्चरएस पुजो ॥ १३ ॥ तेसिं गुरूणं गुणसायराणं, सुच्चाण मेहावि सुभासिआई । चरे मुणी पंचरए तिगुत्तो, चउकसायावगए स पुज्जो ॥ १४ ॥ गुरुमिह सययं पडिअरिअ मुणी, जिणमयनिउणे अभिगमकुसले । धुणिअ रथमलं पुरेकर्ड, भासुरमउलं गई वइ ||१५|| ति बेमि ॥ विषयसमाहीए तइओ उद्देसो समत्तो ॥ ३ ॥ किं च- 'समापतन्त' एकीभावेनाभिमुखं पतन्तः क इत्याह- 'वचनाभिघाताः खरादिवचनप्रहाराः कगताः सन्तः प्रायोऽनादिभवाभ्यासात् 'दौर्मनस्यं' दुष्टमनोभावं जनयन्ति, प्राणिनामेवंभूतान् वचनाभिघातान् धर्म इतिकृत्वा सामायिकपरिणामापन्नो न त्वशक्त्यादिना 'परमाग्रशूरो' दानसंग्रामशूरापेक्षया प्रधानः शूरो जितेन्द्रियः सन् यः सहते न तु तैर्विकारमुपदर्शयति स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ ८ ॥ तथा-'अवर्णवादं च' अश्लाघावादं च 'पराबुखस्य' पृष्ठत इत्यर्थः 'प्रत्यक्षतश्च' प्रत्यक्षस्य च 'प्रत्यनीकाम्' अपकारिणीं ची मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४२], मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः ~510~ royang Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति: अध्ययनं [९], उद्देशक [3], मूलं [१५...] / गाथा ||८-१५|| नियुक्ति: [३२७...], भाष्यं [६२...] (४२) दशवैका० हारि-वृत्तिः प्रत ॥२५४॥ सूत्रांक ||८-१५|| रस्त्वमित्यादिरूपां भाषां तथा 'अवधारिणीम् अशोभन एवायमित्यादिरूपाम् 'अप्रियकारिणी च' श्रोतु- विनय. मृतनिवेदनादिरूपां "भाषां वाचं 'न भाषेत सदा' यः कदाचिदपि नैव ब्रूयात्स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥९॥ समाध्यतथा-'अलोलुप आहारादिष्वलुब्धः 'अकुहक' इन्द्रजालादिकुहकरहितः 'अमायी' कौटिल्यशून्यः 'अपि-18 ध्ययनम् शुनश्चापि' नो छेदभेदको 'अदीनवृत्तिा' आहाराद्यलाभेऽपि शुद्धवृत्तिः (ग्रन्थानम् ६०००) नो भाव ३ उद्देशः येद् अकुशलभावनया परं, यथाऽमुकपुरतो भवताऽहं वर्णनीयः 'नापि च भावितात्मा' खयमन्यपुरतः स्वगुणवर्णनापरः अकौतुकब सदा नटनकादिषु यः स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ १०॥ किंच-'गुणैः' अनन्तरोदितैर्विनयादिभिर्युक्तः साधुर्भवति, तथा 'अगुणैः' उक्तगुणविपरीतेरसाधुः, एवं सति गृहाण साधुगुणान् | मुञ्चासाधुगुणानिति शोभन उपदेशः, एवमधिकृत्य प्राकृतशैल्या 'विज्ञापयति' विविधं ज्ञापयस्यात्मानमास्मना पा तथा 'रागद्वेषयोः समः' न रागवान द्वेषवानिति स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ ११॥ किंच-तथैवेति| पूर्ववत्, डहरं वा महलकं वा, वाशब्दान्मध्यमं वा, स्त्रियं पुमांसमुपलक्षणस्वान्नपुंसकं वा प्रबजितं गृहिणं वा, वाशब्दादन्यतीर्थिकं वा 'न हीलयति नापि च खिंसयति' तत्र सूयया असूयया वा सकृदुष्टाभिधान हीलनं, तदेवासकृतिवसनमिति । हीलनखिंसनयोश्च निमित्तभूतं 'स्तम्भं च' मानं च 'क्रोधं च रोष। च त्यजति यः स पूज्यो, निदानत्यागेन तत्त्वतः कार्यत्यागादिति सूत्रार्थः ॥ १२॥ किं च-ये मानिता अभ्युत्थानादिसत्कारैः 'सततम्' अनवरतं शिष्यान् 'मानयन्ति' श्रुतोपदेशं प्रति चोदनादिभिा, तथा 'यत्नेन क- ॥२५४।। दीप अनुक्रम [४६३-४७० मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~511~ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ॥८- १५|| दीप अनुक्रम [४६३ -४७०] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः अध्ययनं [९], उद्देशक [३] मूलं [१५...] / गाथा ||८ - १५ || निर्युक्तिः [ ३२७...], भाष्यं [६२...] Ja Edocation in न्यामिव निवेशयन्ति यथा मातापितरः कन्यां गुणैर्वयसा च संवर्द्धा योग्यभर्त्तरि स्थापयन्ति एवमाचार्याः शिष्यं सूत्रार्थवेदिनं दृष्ट्रा महत्याचार्यपदेऽपि स्थापयन्ति तानेवंभूतान् गुरून्मानयति योऽभ्युत्थानादिना 'मानाहान' मानयोग्यान् तपस्वी सन् जितेन्द्रियः सत्यरत इति, प्राधान्यख्यापनार्थ विशेषणद्वयं स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ तेषां 'गुरूणाम्' अनन्तरोदितानां 'गुणसागराणां' गुणसमुद्राणां संबन्धीनि श्रुत्वा मेधावी 'सुभाषितानि' परलोकोपकारकाणि 'चरति' आचरति 'मुनिः' साधुः 'पञ्चरतः' पञ्चमहाव्रतसक्तः 'त्रिगुप्तो' मनोगुहयादिमान् 'चतुः कषायापगत' इत्यपगतक्रोधादिकषायो यः स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ प्रस्तुतफलाभिधानेनोपसंहरन्नाह-'गुरुम्' आचार्यादिरूपम् 'इह' मनुष्यलोके 'सततम्' अनवरतं 'परिचर्य' विधिनाऽऽराध्य 'मुनिः' साधुः, किंविशिष्टो मुनिरित्याह- 'जिनमतनिपुणः' आगमे प्रवीणः 'अभिगमकुशलो' लोकप्राघूर्णकादिप्रतिपत्तिदक्षः, स एवंभूतः विधूय रजोमलं पुराकृतं क्षपयित्वाऽष्टप्रकारं कर्मेति भावः, किमित्याह- भाखरां ज्ञानतेजोमयत्वात् 'अतुलाम्' अनन्यसदृशी 'गति' सिद्धिरूपां 'व्रजती'ति गच्छति तदा जन्मान्तरेण वा सुकुलप्रजात्यादिना प्रकारेण । ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ ॥ इति विनयसमाधौ व्याख्यातस्तृतीय उद्देशः ॥ ३ ॥ Far P&Personal Use City मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४२], मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः अत्र नवमे अध्ययने तृतीय उद्देशकः परिसमाप्तः ~512~ way Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [3] [3] दीप अनुक्रम [४७१ -४७२] दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ २५५ ॥ “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः अध्ययनं [९], उद्देशक [४], मूलं [१] / गाथा [१] निर्युक्ति: [ ३२७...], भाष्यं [६२...] अथ चतुर्थ उद्देशः । सुअं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं - इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं चत्तारि वियसमाहिट्टाणा पत्ता, कयरे खलु ते थेरेहिं भगवंतेहिं चत्तारि विणयसमाहिठाणा पन्नता?, इमे खलु ते रेहिं भगवंतेहिं चत्तारि विणयसमाहिट्टाणा पन्नत्ता, तंजहाविणयसमाही सुअसमाही तवसमाही आयारसमाही । विणए सुए अ तवे, आयारे निच्चपंडिआ । अभिरामयंति अप्पाणं, जे भवंति जिइंदिआ ॥ १ ॥ अथ चतुर्थ आरभ्यते, तत्र सामान्योक्तविनयविशेषोपदर्शनार्थमिदमाह श्रुतं मया आयुष्मंस्तेन भगवता एवमाख्यातमित्येतद्यथा षड्जीवनिकायां तथैव द्रष्टव्यम्, इह 'खल्वि'ति इह क्षेत्रे प्रवचने वा खलु| शब्दो विशेषणार्थः न केवलमत्र किं त्वन्यत्राप्यन्यतीर्थकृत्प्रवचनेष्वपि 'स्थविरैः' गणधरैः 'भगवद्भिः' परमैश्वर्यादियुक्तैश्चत्वारि 'विनयसमाधिस्थानानि' विनयसमाधिभेदरूपाणि 'प्रज्ञप्तानि' प्ररूपितानि, भगवतः | सकाशे श्रुखा ग्रन्थत उपरचितानीत्यर्थः, कतराणि खलु तानीत्यादिना प्रश्नः, अमूनि खलु तानीत्यादिना निर्वचनं, 'तद्यथे' त्युदाहरणोपन्यासार्थः, विनयसमाधिः १ श्रुतसमाधिः २ तपः समाधिः ३ आचारसमाधिः Ja Education intematona मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४२], मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः अथ नवमे अध्ययने चतुर्थ उद्देशक: आरब्धः ~ 513~ ९ विनय समाध्य ध्ययनम् ४ उद्देशः ।। २५५ ।। Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य वृत्ति: अध्ययनं [९], उद्देशक [४], मूलं [१] / गाथा [१] नियुक्ति: [३२७...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत प, तत्र समाधानं समाधिः-परमार्थत आत्मनो हितं सुखं खास्थ्य, विनये विनयादा समाधिः विनयस-11 माधिः, एवं शेषेष्वपि शब्दार्थो भावनीयः ॥ एतदेव श्लोकेन संगृह्णाति-विनये यथोक्तलक्षणे 'श्रुते अ झादौ तपसि' वाह्यादौ 'आचारे च मूलगुणादी, चशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः, 'नित्यं सर्वकालं 'पण्डि-7 Clताः सम्यक्परमार्थवेदिनः, किं कुर्वन्तीयाह-अभिरमयन्ति अनेकार्थत्वादाभिमुख्येन विनयादिषु युञ्जते 'आत्मानं' जीवं, किमिति?, अस्योपादेयत्वात् , क एवं कुर्वन्तीत्याह-ये भवन्ति जितेन्द्रिया' जितचक्षुरादिभावशत्रवः, त एव परमार्थतः पण्डिता इति प्रदर्शनार्थमेतदिति सूत्रार्थः ॥ १॥ चउठिवहा खलु विणयसमाही भवइ, तंजहा-अणुसासिजंतो सुस्सूसइ १ सम्म संपडिवजइ २ वेयमाराहइ ३ न य भवइ अत्तसंपग्गहिए १ चउत्थं पयं भवइ । भवइ अ इत्थ सिलोगो-पेहेइ हिआणुसासणं, सुस्सूसई तं च पुणो अहिट्ठए । न य मा णमएण मजई, विणयसमाहि आययटिए ॥२॥ विनयसमाधिमभिधित्सुराह-चतुर्विधः खलु विनयसमाधिर्भवति, 'तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, 'अणु-12 सासिज्जतो' इत्यादि, 'अनुशास्यमानः' तत्र तत्र चोद्यमानः 'शुश्रूपति' तदनुशासनमर्थितया श्रोतुमिच्छति | १, इच्छाप्रवृत्तितः तत् 'सम्यक संपतिपद्यते' सम्यग-अविपरीतमनुशासनतत्त्वं यथाविषयमवबुद्ध्यते २, स CASSSSSRCASSACROR दीप अनुक्रम [४७१ -४७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 514~ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [२] ||R|| दीप अनुक्रम [४७३ -४७५] दशवेका० हारि-वृत्तिः ।। २५६ ।। Education “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + | भाष्य |+वृत्तिः अध्ययनं [९], उद्देशक [४] मूलं [२] / गाथा ||२|| निर्युक्तिः [ ३२७...], भाष्यं [६२...] चैवं विशिष्टप्रतिपत्तेरेव वेदमाराधयति, वेद्यतेऽनेनेति वेदः - श्रुतज्ञानं तद् यथोक्तानुष्ठानपरतया सफलीकरोति ३, अत एव विशुद्धप्रवृत्तेः न च भवत्यात्मसंप्रगृहीतः आत्मैव सम्यक प्रकर्षेण गृहीतो येनाहं विनीतः सुसाधुरित्येवमादिना स तथाऽनात्मोत्कर्षप्रधानत्वाद्विनयादेः न चैवंभूतो भवतीत्यभिप्रायः, 'चतुर्थी पदं भवतीत्येतदेव सूत्रक्रमप्रामाण्यादुत्तरोत्तरगुणापेक्षया चतुर्थमिति, भवति च 'अत्र श्लोकः' अत्रेति विनय| समाधौ 'श्लोकः' छन्दोविशेषः ॥ स चायम्- 'प्रार्थयते हितानुशासनम्' इच्छतीह लोक परलोकोपकारिणमाचार्यादिभ्य उपदेशं, 'शुश्रूषती 'त्य नेकार्थत्वाद्यथाविषयमवबुध्यते तच्चावबुद्धं सत्पुनरधितिष्ठति यथावत् करोति, न च कुर्वपि 'मानमदेन' मानगर्वेण 'मायति' मदं याति 'विनयसमाधी' विनयसमाधिविषये 'आयतार्थिको मोक्षार्थीति सूत्रार्थः ॥ २ ॥ चव्विा खलु सुअसमाही भवइ, तंजहा सुअं मे भविस्सइत्ति अज्झाइअन्यं भ as १, एगग्गचित्तो भविस्सामित्ति अज्झाइअव्वयं भवइ २, अप्पाणं ठावइस्सामित्ति अझ अव्वयं भवइ ३, ठिओ परं ठावइस्लामित्ति अज्झाइअव्वयं भवइ ४, चउत्थं पयं भवइ । भवइ इत्थ सिलोगो - नाणमेगग्गचित्तो अ, ठिओ अ ठावई परं । आणि अ अहिजित्ता, रओ सुअसमाहिए ॥ ३ ॥ Far P&Persona मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४२], मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः ~515~ ९ विनय समाध्य ध्ययनम् ४ उद्देशः | ।। २५६ ।। away Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [3] ||3|| दीप अनुक्रम [४७६ -४७८] Edocapan in “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः अध्ययनं [९], उद्देशक [४] मूलं [३] / गाथा ||३|| निर्युक्तिः [ ३२७...], भाष्यं [६२...] उक्तो विनयसमाधिः, श्रुतसमाधिमाह - चतुर्विधः खलु श्रुतसमाधिर्भवति, 'तद्यथे' त्युदाहारणोपन्यासार्थः । श्रुतं मे आचारादि द्वादशाङ्गं भविष्यतीत्यनया बुद्ध्याऽध्येतव्यं भवति, न गौरवाचालम्बनेन १, तथाऽध्ययनं कुर्वन्नेकाग्रचित्तो भविष्यामि न विलुतचित्त इत्यध्येतव्यं भवत्यनेन चालम्बनेन २, तथाऽध्ययनं कुर्वन्विदितधर्मतत्त्व आत्मानं स्थापयिष्यामि शुद्धधर्म इत्यनेन चालम्बनेनाध्येतव्यं भवति ३. तथाऽध्ययनफलात् स्थितः स्वयं धर्मे 'परं' विनेयं स्थापयिष्यामि तत्रैवेत्यध्येतव्यं भवत्यनेनालम्बनेन ४ चतुर्थ पदं भवति । भवति चात्र श्लोक इति पूर्ववत् । स चायम् — 'ज्ञान' मित्यध्ययनपरस्य ज्ञानं भवति 'एकाग्रचित्तश्च' तत्परतया एकाग्रालम्वनश्च भवति 'स्थित' इति विवेकाद्धर्मस्थितो भवति स्थापयति पर मिति स्वयं धर्मे स्थितत्वादन्यमपि स्थापयति, श्रुतानि च नानाप्रकाराण्यधीतेऽधीत्य च 'रतः' सक्तो भवति श्रुतसमाधाविति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ चव्विा खलु तवसमाही भवइ, तंजहा -नो इहलोगट्टयाए तवमहिट्टिज्जा १ नो परलोट्टयाए तवमहिट्टिज्जा २, नो किन्तिवण्णसद सिलोगट्टयाए तवमहिट्टिजा ३, नन्नत्थ निज्जरट्टयाए तत्रमहिट्टिजा ४, चउत्थं पयं भवइ । भवइ अ इत्थ सिलोगोविविहगुणतaire निचं, भवइ निरासए निज्जरट्टिए । तवसा धुणइ पुराणपावगं, जुत्तो सया तवसमाहिए ॥ ४ ॥ Far Pr&Personal Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ४२ ], मूल सूत्र [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः ~516~ wway Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति: अध्ययनं [९], उद्देशक [४], मूलं [४] / गाथा ||४|| नियुक्ति: [३२७...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रता ॥४|| दशवैका उक्तः श्रुतसमाधिः, तपासमाधिमाह-चतुर्विधः खलु तपासमाधिर्भवति, 'तयथे'त्युदाहरणोपन्यासार्थः, विनयहारि-वृत्तिः दिन 'इहलोकार्थम्' इहलोकनिमित्तं लब्ध्यादिवाञ्छया 'तप' अनशनादिरूपम् 'अधितिष्ठेत्' न कुर्याहम्मि- समाध्य॥ २५७॥ लवत् १, तथा न 'परलोकार्थ जन्मान्तरभोगनिमितं तपोऽधितिष्ठेहह्मदत्तवत्, एवं न 'कीर्तिवर्णशब्दला-10 ध्ययनम् विधार्थ मिति सर्वदिव्यापी साधुवादः कीर्तिः एकदिगव्यापी वर्ण: अर्द्धदिग्व्यापी शब्दः तत्स्थान एवं 8/४ उद्देशः है श्लाघा, नैतदर्थ तपोऽधितिष्ठेत् , अपि तु 'नान्यत्र निर्जरार्थमिति न कर्मनिर्जरामेकां विहाय तपोऽधिति-द ठेत्, अकामः सन् यथा कर्मनिर्जरैव फलं भवति तथाऽधितिष्ठेदिस्यर्थः चतुर्थं पदं भवति । भवति चात्र टू श्लोक इति पूर्ववत् ॥ स चायम्-विविधगुणतपोरतो हि नित्यम्-अनशनाद्यपेक्षयाऽनेकगुणं यत्तपस्तद्वत एव | सदा भवति 'निराशो' निष्प्रत्याश इहलोकादिषु 'निर्जरार्थिकः कर्मनिर्जरार्थी, स एवंभूतस्तपसा विशुद्धेन 'धुनोति' अपनयति 'पुराणपापं चिरन्तनं कर्म, नवं च न बनायेवं युक्तः सदा तपासमाधाविति सूत्रार्थः ॥४॥ चउव्विहा खल्लु आयारसमाही भवइ, तंजहा-नो इहलोगट्टयाए आयारमहिद्विजा १, नो परलोगट्टयाए आयारमहिट्रिजा २, नो कित्तिवण्णसहसिलोगट्टयाए आयारमहिद्विजा ३, नन्नत्थ आरहंतेहिं हेऊहिं आयारमहिटिजा ४ चउत्थं पयं भवइ । भवइ - अ इत्थ सिलोगो-जिणवयणरए अतिंतिणे, पडिपुन्नाययमाययट्ठिए । आयारसमा दीप अनुक्रम [४७९-४८१] SSAGAR मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~517~ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति: अध्ययनं [९], उद्देशक [४], मूलं [४] / गाथा ||५-७|| नियुक्ति: [३२७...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||५-७|| हिसंवुडे, भवइ अ दंते भावसंधए ॥५॥ अभिगम चउरो समाहिओ, सुविसुद्धो सुसमाहिअप्पओ। विउलहिअं सुहावहं पुणो, कुम्वइ अ सो पयखेममप्पणो ॥६॥ जाइमरणाओ मुच्चइ, इत्थंथं च चएइ सव्वसो । सिद्धे वा हवइ सासए, देवे वा अप्परए महड्डिए ॥७॥ त्ति बेमि ॥ चउत्थो उद्देसो समत्तो॥ ४॥ विणयसमाही णामज्झयणं समत्तं ॥९॥ उक्तस्तपासमाधिः, आचारसमाधिमाह-चतुर्विधः खल्वाचारसमाधिर्भवति, 'तयधे'त्युदाहरणोपन्यासार्थः, नेहलोकार्थमित्यादि चाचाराभिधानभेदेन पूर्ववद्यावन्नान्यत्र 'आर्हतैः' अर्हत्संबन्धिभिर्हेतुभिरनाश्रवस्वादिभिः 'आचार' मूलगुणोत्तरगुणमयमधितिष्ठेन्निरीहः सन् यथा मोक्ष एव भवतीति चतुर्थं पदं भवति । भवति चात्र श्लोक इति पूर्ववत् ॥ स चायम्-'जिनवचनरत' आगमे सक्तः 'अतिन्तिन' न सकृत्किञ्चिदुक्तः सन्नसूपया भूयो भूयो वक्ता प्रतिपूर्णः सूत्रादिना, 'आयतमायतार्धिक' इत्यत्यन्तं मोक्षार्थी 'आचारसमाधिसंवृत' इति आचारे यः समाधिस्तेन स्थगिताश्रवद्वार सन् भवति दान्त इन्द्रियनोइन्द्रियदमाभ्यां 'भावसंधकः' भावो-मोक्षस्तत्संधक आत्मनो मोक्षासन्नकारीति सूत्रार्थः॥५॥ सर्वसमाधिफलमाह-'अ-1 भिगम्य' विज्ञायासेव्य च 'चतुरः समाधीन्' अनन्तरोदितान्, सुविशुद्धो मनोवाकायैः, सुसमाहितात्मा दीप अनुक्रम [४८२-४८४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 518~ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति: अध्ययनं [९], उद्देशक [४], मूलं [४] / गाथा ||५-७|| नियुक्ति: [३२७...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||५-७|| दशका- सप्तदशविधे संयमे, एवंभूतो धर्मराज्यमासाद्य 'विपुलहितसुखावहं पुन'रिति विपुलं-विस्तीर्ण हितं तदावेदार हारि-वृत्तिः आयत्यां च पथ्यं सुखमावति-पापयति यत्तत् तथाविधं करोत्यसौ साधुः पद-स्थानं क्षेमं-शिवम् आत्मन | समाध्यइत्यात्मन एव न त्वन्यस्य इत्यनेनैकान्तक्षणभङ्गव्यवच्छेदमाहेति सूत्रार्थः॥६॥ एतदेव स्पष्टयति-'जाति-18 ध्ययनम् ॥२५८॥ दामरणात्' संसारान्मुच्यते असौ सुसाधुः 'इत्थंस्थं चेती दंप्रकारमापन्नमित्वम् इत्थं स्थितमिस्र्थस्थं-नार कादिव्यपदेशबीजं वर्णसंस्थानादि तच त्यजति 'सर्वशः सर्वैः प्रकारैरपुनर्ग्रहणतया एवं 'सिद्धो वा' कर्म-1 क्षयात्सिद्धो भवति 'शाश्वतः' अपुनरागामी सावशेषकर्मा देवो वा 'अल्परतः कण्डूपरिगतकण्डूयनक-18 हैल्परतरहितः 'महर्द्धिकः' अनुत्तरवैमानिकादिः । ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः, उक्तोऽनुगमः, नयाः पूर्ववत् ८ P॥७॥ इति चतुर्थः ॥४॥ अब नवमे अध्ययने चतर्थ उद्देशकः परिसमाप्त: । इति श्रीमद्भरिभद्रसूरिविरांचतायां दशवेकालिकटीकाया व्याख्यात विनयसमाध्यध्ययनं नाम नवममध्ययनम् ॥९॥ दीप अनुक्रम [४८२ CASAN -४८४] ॥२५८॥ अथ दशमं सभिक्ष्वध्ययनम् । अधुना सभिक्ष्वाख्यमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः, इहामन्तराध्ययन आचारप्रणिहितो यथोचितवि Liam Elecatomimi मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] "दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: अध्ययनं -१०- "सभिक्षु" आरभ्यते ~519~ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [४८४..] रा० ४४ Edocanon in “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः अध्ययनं [१०], उद्देशक [ - ], मूलं [४...] / गाथा ||७...|| निर्युक्ति: [ ३२८ ], भाष्यं [६२...] नयसंपन्नो भवति एतदुक्तम्, इह त्वेतेष्वेव नवस्वध्ययनार्थेषु यो व्यवस्थितः स सम्यगभिक्षुरित्येतदुच्यते, इत्यनेनाभिसंबन्धेनायातमिदमध्ययनम् अस्य चानुयोगद्वारोपन्यासः पूर्ववन्तावद्यावन्नामनिष्पन्नो निक्षेपः, तत्र च सभिक्षुरित्यध्ययननाम, अतः सकारो निक्षेप्तव्यो भिक्षु, तत्र सकारनिक्षेपमाहनामंठवणसयारो ब्बे भावे अ होइ नायन्त्रो । दव्वे पसंसमाई भावे जीवो तदुवउत्तो ॥ ३२८ ॥ नामसकारः सकार इति नाम, स्थापनासकारः सकार इति स्थापना, 'द्रव्ये भावे च भवति ज्ञातव्यः' द्रव्यसकारो भावसकारश्च तत्र द्रव्य इत्यागमनो आगमज्ञशरीर भव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तः प्रशंसादिविषयो द्रव्यसकारः, भाव इति भावसकारो जीवः 'तदुपयुक्त:' सकारोपयुक्तः तदुपयोगानन्यत्वादिति गाथार्थः ॥ | प्रकृतोपयोगी त्यागमनोआगमज्ञशरीर भव्यशरीरातिरिक्तं प्रशंसादिविषयं द्रव्यसकारमाहनिदेसपसंसाए अत्यीभावे अ होइ उ सगारो । निद्देसपसंसाए अहिगारो इत्व अज्झवणे ३२९ ।। निर्देशे प्रशंसायामस्तिभावे चेत्येतेष्वर्थेषु त्रिषु भवति तु सकारः । तत्र निर्देशे यथा सोऽनन्तरमित्यादि, प्रशंसायां यथा सत्पुरुष इत्यादि, अस्तिभावे यथा सद्भूतममुकमित्यादि । तत्र 'निर्देशप्रसंशाया' मिति निर्देशे प्रशंसायां च यः सकारस्तेनाधिकारोऽत्राध्ययने प्रक्रान्त इति गाथार्थः ॥ एतदेव दर्शयति जे भावा दसवेअलिअम्मि करणिज्ज वण्णि जिणेहिं । तेसिं समावर्णमिति (भी) जो भिक्खू भन्नइ स भिक्खु ॥ ३३० ॥ ये 'भावा:' पदार्थाः पृथिव्यादि संरक्षणादयो 'दशवैकालिके' प्रस्तुते शास्त्रे 'करणीया' अनुष्ठेया 'वर्णिताः' Far P&Personal Use Chily मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४२], मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः 'स' एवं 'भिक्षु' शब्दयोः निक्षेपाः ~ 520~ airy Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४...] / गाथा ||७...|| नियुक्ति : [३३०], भाष्यं [६२...] (४२) वध्य० प्रत सूत्रांक ||७..|| दशबैकाकथिता जिन:-तीर्थकरगणधरैः, 'तिषां' भावानां 'समापने यथाशत्त्या(क्ति) द्रव्यतो भावतश्चाचरणेन पर्यन्त-| 18 नयनेन 'यो भिक्षुः तदर्थं यो भिक्षणशीलो न तूदरादिभरणार्थ भण्यते स भिक्षुरिति, इसिशब्दस्य व्यव- [हित उपन्यासः । स भिक्षुरित्यत्र निर्देशे सकार इति गाथार्थः ॥ प्रशंसायामाह॥२५९॥ चरगमरुगाइआणं भिक्खुजीवीण काउणमपोहं । अज्झयणगुणनिउत्तो होइ पसंसाइ उ समिक्सू ।। ३३१ ।। 'चरकमरुकादीना मिति चरकाः-परिव्राजकविशेषाः मरुका-धिग्वर्णाः आदिशब्दाच्छाक्यादिपरिग्रहः, अ-र हामीषां भिक्षोपजीविना भिक्षणशीलानामगुणवत्त्वेनापोहं कृत्वा 'अध्ययनगुणनियुक्तः प्रक्रान्तशास्त्रनिष्यन्दभूतप्रक्रान्ताध्ययनाभिहितगुणसमन्वितो भवति । प्रशंसायामवगम्यमानायां सद्भिक्षुः-संश्वासौ भिक्षुश्च तत्तदन्यापोहेन सद्भिक्षुरिति गाधार्थः ।। उक्तः सकारः, इदानी भिक्षुमभिधातुकाम आह भिक्खुस्स व निक्षेवो निरुत्तएगहिआणि लिंगाणि । अगुणढिओ न मिक्खू अवयवा पंच दाराई ।। ३३२॥ है भिक्षोः 'निक्षेपों' नामादिलक्षणः कार्यः, तथा निरुक्तं वक्तव्यं भिक्षोरेव, तथा 'एकाधिकानि' पर्यायश-18 ब्दरूपाणि वक्तव्यानि, तथा 'लिङ्गानि' संवेगादीनि, तथा अगुणस्थितो न भिक्षुरपि तु गुणस्थित एवेत्येतद्वाच्यम् । अत्र च 'अवयवाः पञ्च' प्रतिज्ञादयो वक्ष्यमाणा इति, द्वाराण्येतानीति गाथासमासार्थः ॥ यथाक्रम व्यासार्थमाह णामठवणाभिक्खू दवभिक्खू अ भावमिक्खू अ । दवम्मि आगमाई अन्नोऽवि अ पजनो इणमो ॥ ३३३ ।। दीप अनुक्रम [४८४..] ॥२५९॥ Eran.in मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~521~ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४...] / गाथा ||७...|| नियुक्ति : [३३३], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||७..|| 'नामस्थापनाभिक्षुरिति भिक्षुशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, नामभिक्षुः स्थापनाभिक्षुः द्रव्यभिक्षुश्च भावभिक्षुश्चेति । तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य द्रव्यभिक्षुमाह-'द्रव्य' इति द्रव्यभिक्षुः 'आगमादिः आगमनोआगमज्ञशरीरभव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तैकभविकादिभेदभिन्नः, अन्योऽपि च 'पर्यायो' भेदः 'अयं' व्यभिक्षोर्वक्ष्यमाणलक्षण इति गाथार्थः॥ भेजओ मेमणं चेष, भिविअब्ब तहेव व । एएसि तिहपि अ, पत्तेअपरूवर्ण योच्छे ॥ ३३४ ॥ भेदकः पुरुषः भेदनं चैव परश्वादि भेत्तव्यं तथैव च काष्ठादीति भावः। एतेषां 'ब्रयाणामपि भेदकादीनां 'प्रत्येक पृथक्पृथक प्ररूपणां वक्ष्य इति गाथार्थः ॥ एतदेवाह जह दारुकामगारो भेअणमित्तम्बसंजुओ मिक्खू । अन्नेवि दवमिक्खू जे जायणगा अविरया अ ।। ३३५ ।। यथा 'दारुकर्मकरों' वर्धक्यादिः भेदनभेत्तव्यसंयुक्तः सन्-क्रियाविशिष्टविदारणादिदारुसमन्वितो द्रव्य-18 भिक्षुः, द्रव्यं भिनत्तीतिकृत्वा, तथाऽन्येऽपि द्रव्यभिक्षवः-अपारमार्थिकाः, क इत्याह-ये 'याचनका' भिक्षणशीला 'अविरताश्च' अनिवृत्ताश्च पापस्थानेभ्य इति गाथार्थः ॥ एते च द्विविधा:-गृहस्था लिङ्गिनश्चेति, तदाह गिहिणोऽवि सयारंभग उजुप्पन्नं जणं विमग्गंता । जीवणिअ वीणकिविणा ते विजा दवभिक्खुत्ति ॥ ३३६ ।। 'गृहिणोऽपि सकलत्रा अपि 'सदारंभका' नित्यमारम्भकाः षण्णां जीवनिकायानामृजुप्रज्ञं जनं अनालो दीप अनुक्रम [४८४..] Eramin मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~522~ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ॥७..॥ दीप अनुक्रम [ ४८४..] दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ २६० ॥ Ja docanon in “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [ ४...] / गाथा ||७..|| निर्युक्ति: [ ३३६ ], भाष्यं [६२...] चकं विमृगयन्तः - अनेकप्रकारं द्विपदादि भूमिदेवा वयं लोकहितायावतीर्णा इत्यभिधाय याचमानाः, द्रव्यभिक्षणशीलत्वाद्रव्यभिक्षवः, एते च विवर्णाः, तथा ये च 'जीवनिकायै' जीवनिकानिमित्तं 'दीनपणाः कार्पेटिकादयो भिक्षामदन्ति तान् 'विद्याद्' विजानीयाद्रव्यभिक्षूनिति, द्रव्यार्थ भिक्षणशीलत्वादिति गाथार्थः ॥ उक्ता गृहस्थद्रव्यभिक्षवः, लिङ्गिनोऽधिकृत्याह मिच्छट्टिी तस्थावराण पुढवाइविंदिआईणं । निचं बहकरणरया अवभवारी अ संचइआ ॥ ३३७ ॥ शाक्यभिक्षुप्रभृतयो हि 'मिध्यादृष्टयः' अतस्वाभिनिवेशिनः प्रशमादिलिङ्गशून्याः, सस्थावराणां प्राणिनां पृथिव्यादीनां द्वीन्द्रियादीनां च अत्र पृथिव्यादयः स्थावराः द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः, नित्यं वधकरणरता:सदैतदतिपाले सक्ताः, कथमित्यत्राह - अब्रह्मचारिणः संचयिनश्च यतः, अतोऽप्रधानत्वाद्रव्यभिक्षवः, चराव्दस्य व्यवहित उपन्यास इति गाथार्थः । एते चाब्रह्मचारिणः संचयादेवेति संचयमाह दुपयचढप्पयधणधन्नकुविअतिअतिअपरिग्गहे निरया । सचितमोइ पयमाणगा अ उद्दिट्टभोई अ ॥ ३३८ ॥ द्विपदं दास्यादि चतुष्पदं गवादि धनं हिरण्यादि धान्यं शाल्यादि कुप्यम्-अलिञ्जरादि एतेषु द्विपदादिषु क्रमेण मनोलक्षणादिना करणत्रिकेण त्रिकपरिग्रहे - कृतकारितानुमतपरिग्रहे निरताः सक्ताः । न चैतदनार्थम् — “विहारान् कारयेद्रस्यान्वासयेच बहुश्रुतान्” इतिवचनात् सद्भूतगुणानुष्ठायिनो नेत्थंभूता इत्याशङ्कयाह-सचिन्तभोजिनः, तेऽपि मांसापकायादिभोजिनः, तदप्रतिषेधात्, 'पचन्तश्च' स्वयंपचास्तापसा For P&Personal City मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ४२ ], मूल सूत्र [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः ~523~ १० सभि ध्वध्य० ॥ २६० ॥ www.oxyg Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४...] / गाथा ||७...|| नियुक्ति: [३३८], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||७..|| S दया, उद्दिष्ट भोजिनश्च सर्व एव शाक्यादयः, तत्प्रसिद्ध्या तपखिनोऽपि, पिण्डविशुद्ध्यपरिज्ञानादिति गा-12 थार्थः ॥ त्रिकत्रिकपरिग्रहे निरता इत्येतद्व्याचिख्यासुराह करणतिए जोभतिए साबले आयहेउपरउभए । अट्ठाणटुपवत्ते ते विजा व्यभिक्खुत्ति ॥ ३३९ ॥ करणत्रिक इति 'सुपा सुपो भवन्तीति 'करणत्रिकेण मनोवाकायलक्षणेन 'योगत्रितय' इति कृ-12 तकारितानुमतिरूपे 'सावये' सपापे आत्महेतोः-आत्मनिमित्तं देहाशुपचयाय, एवं परनिमित-मित्रायुप-10 भोगसाधनाय एवमुभयनिमित्तम्-उभयसाधनार्थम् , एवमर्थायात्माद्यर्थम् अनर्थाय वा-विना प्रयोजनेन आर्तध्यानचिन्तनखरादिभाषणलक्षवेधनादिभिः प्राणातिपातादौ प्रवृत्तान्-तत्परान् तानेवभूतान् 'विद्याहैद-विजानीयात् द्रब्यभिक्षुनिति, प्रवृत्ताश्चैवं शाक्यादयः, तव्यभिक्षव इति गाधार्थः ॥ एवं ख्यादिसंयोगाद्विशुद्धतपोऽनुष्ठानाभावाचाब्रह्मचारिण एत इत्याह इत्थीपरिग्गहाओ आणादाणाइभावसंगाओ । सुद्धतबाभावाओ कुतिस्थिभाऽयंभचारित्ति ।। ३४०॥ है 'स्त्रीपरिग्रहादिति दास्यादिपरिग्रहात् 'आज्ञादानादिभावसङ्गाच परिणामाशुद्धरित्यर्थः न च शाक्या है भिक्षवः, 'शुडतपोऽभावादिति शुद्धस्य तपसोऽभावात् तापसादयः कुतीर्थिका अब्रह्मचारिण इति, ब्रह्मशब्देन शुद्धं तपोऽभिधीयते, तदचारिण इति गाथार्थः ।। उक्तो द्रव्यभिक्षुः, भावभिक्षुमाह आगमतो उवउत्तो लग्गुणसंवेअओ अ (उ) भावंनि । तस्स निरुत्तं भेगमेमणभेत्सम्बएण तिहा ।। ३४१ ॥ दीप अनुक्रम [४८४..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~524~ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४...] / गाथा ||७...|| नियुक्ति : [३४१], भाष्यं [६२...] (४२) दशवका १० सभिश्वध्य प्रत सूत्रांक ||७..|| भावभिक्षुर्द्विविधः-आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमत 'उपयुक्त' इति भिक्षुपदार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्तः, हारि-वृत्तिा 'तद्गुणसंवेदकस्तु' भिक्षुगुणसंवेदकः पुनर्नोआगमतो भवति भावभिक्षुरित्युक्तो भिक्षुनिक्षेपः । साम्प्रतं ॥२६॥ निरुक्तमभिधातुकाम आह-तस्य निरुक्त मिति तस्य' भिक्षोनिश्चितमुक्तमन्वर्थरूपं भेदकभेदनभेत्तव्यैरे-| सभिर्भदैर्वक्ष्यमाणैत्रिधा भवतीति गाथार्थः ॥ एतदेव स्पष्टयति भेत्ताऽऽगमोवउत्तो दुविह तवो भेअणं च भेत्तव्यं । अट्ठविहं कम्मखुह तेण निरुत्तं स भिक्खुत्ति ।। ३४२ ॥ है 'भेत्ता'भेदकोऽत्रागमोपयुक्तः साधुः, तथा 'द्विविधं' बाह्याभ्यन्तरभेदेन तपो भेदनं वर्तते, तथा 'भेत्तव्यं विदारणीयं चाष्टविध कर्म च-अष्टप्रकारं ज्ञानावरणीयादि कमें, तब क्षुदादिदुःखहेतुखात् क्षुच्छब्दवाच्य, हायतश्चैवं तेन निरुतं-यः शाखनीत्या तपसा कर्म भिनत्ति स भिक्षुरिति गाथार्थः ।। किं च भिदंतो अजह खुह भिक्खू जयमाणओ जई होइ । संजमचरओ घरओ भवं खिवंतो भवंतो उ ।। ३४३ ॥ 'भिन्दंश्च विदारयंश्च यथा 'क्षुधं कर्म भिक्षुर्भवति, भावतो यतमानस्तथा तथा गुणेषु स एव यतिर्भवति। इनान्यथा, एवं 'संयमचरकः' सप्तदशप्रकारसंयमानुष्टायी चरकः, एवं 'भवं' संसारं 'क्षपयन्' परीतं कुर्वन् स एव भवान्तो भवति नान्यथेति गाथार्थः ।। प्रकारान्तरेण निरुक्तमेवाह जं भिक्खमत्तवित्ती तेण व भिक्खू खवेइ जं व अणं । नवसंजमे तवस्सित्ति वावि अनोऽवि पञ्जाओ ।। ३४४ ।। 'यद' यस्माद 'भिक्षामात्रवृत्तिः' भिक्षामात्रेण सर्वोपधाशुद्धेन वृत्तिरस्येति समासः, तेन वा भिक्षु दीप अनुक्रम [४८४..] GREH ॥२६१॥ Erami मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 525~ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४...] / गाथा ||७...|| नियुक्ति: [३४४], भाष्यं [६२...] (४२) R प्रत सूत्रांक ||७..|| दिभिक्षणशीलो भिक्षुरितिकृत्वा, अनेनैव प्रसङ्गेन अन्येषामपि तत्पर्यायाणां निरुक्तमाह-क्षपयति 'यद्। यस्माद्वा 'ऋणं कर्म तस्मात्क्षपणः, क्षपयतीति क्षपण इतिकृत्वा, तथा संयमतपसीति संयमप्रधानं तपः संयमतपः तस्मिन् विद्यमाने तपस्वीति वापि भवति, तपोऽस्यास्तीतिकृत्वा, अन्योऽपि पर्याय इति-अन्योऽपि भेदोऽर्थतो भिक्षशब्दनिरुक्तस्येति गाथार्थः । उक्तं निरुक्तद्वारम् , अधुनकार्थिकद्वारमाह तिने ताई दविए वई अ खंते अ दंत विरए अ 1 मुणितावसपन्नवगुजुभिक्खू बुद्धे जइ विऊ अ ।। ३४५ ॥ तीर्णयत्तीर्ण: विशुद्धसम्यग्दर्शनादिलाभाद्भवार्णवमिति गम्यते, तायोऽस्यास्तीति तायी, तायः सुदृष्टमागौंक्तिः, सुपरिज्ञातदेशनया विनेयपालयितेत्यर्थः, द्रव्यं रागद्वेषरहिता, व्रती च हिंसादिविरतश्च, क्षान्तश्च क्षाम्यति क्षमा करोतीति क्षान्तः, बहुलवचनात् कर्तरि निष्ठा, एवं दाम्यतीन्द्रियादिदमं करोतीति दान्तः, विरतश्च विषयसुखनिवृत्तश्च, मुनिर्मन्यते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिः, तपःप्रधानस्तापसा, प्रज्ञा|पकोऽपवर्गमार्गस्य प्ररूपका, ऋजुः-मायारहितः संयमवान् वा, भिक्षुः पूर्ववत्, बुद्धोऽवगततत्त्वा, यतिरुत्तमा& श्रमी प्रयत्नवान वा, विद्वांश्च-पण्डितश्चेति गाथार्थः ॥ तथा पवइए अणगारे पासंडी चरग बंभणे चेव । परिवायगे अ समणे निग्गंथे संजए मुत्ते ॥ ३४६ ।। प्रव्रजितः-पापानिष्क्रान्तः, अनगारो-द्रव्यभावागारशून्यः, पाषण्डी-पाशाड्डीनः, चरकः पूर्ववत्, 'बाल AAAAAACK दीप RCOACANCECAUS अनुक्रम [४८४..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: 'भिक्षु' शब्दस्य एकार्थिक शब्दा: ~526~ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४...] / गाथा ||७...|| नियुक्ति: [३४६], भाष्यं [६२...] (४२) १० सभिश्वध्य प्रत सूत्रांक ||७..|| दशवैका०ाणव' विशुद्धब्रह्मचारी चैव, परिबाजकश्च-पापवर्जकश्च, श्रमणः पूर्ववत्, निर्ग्रथः संयतो मुक्त इस्येतदपि हारि-वृत्तिःपूर्ववदेवेति गाथार्थः ॥ तथा साहू लहे अ तहा तीरद्धी होइ चेव नायबो । नामाणि एवमाईणि होति तबसंजमरयाणं ॥ ३४७ ।। ॥२६॥ साधू रूक्षश्च तथेति निर्वाणसाधकयोगसाधनात्साधुः खजनादिषु स्नेहविरहादूक्षः 'तीरार्थी चैव भवति ज्ञातव्य' इति तीरार्थी भवार्णवस्य, 'नामानि एकार्थिकानि पर्यायाभिधानान्येवमादीनि यथोक्तलक्षणानि ४ भवन्ति । केषामित्याह-तपःसंयमरतानां भावसाधूनामिति गाथार्थः ॥ प्रतिपादितमेकार्थिकद्वारम् , इदानीं| लिङ्गद्वारं व्याचिख्यासुराह संवेगो निवेओ विसयविवेगो सुसीलसंसग्गो । आराहणा तवो नाणदसणचरित्तविणो अ॥ ३४८ ॥ 'संवेगों मोक्षसुखाभिलाषा, 'निर्वेदः' संसारविषयः, 'विषयविवेको' विषयपरित्यागः, 'सुशीलसंसर्गः शीलवद्भिः संसर्गः, तथा 'आराधना' चरमकाले निर्यापणरूपा, 'तपो' यथाशक्त्यनशनाद्यासेवन, 'ज्ञान' यथावस्थितपदार्थविषयमित्यादि 'दर्शन' नैसर्गिकादि 'चारित्र' सामायिकादि 'विनयश्च ज्ञानादिविनय इति गाथार्थः ॥ तथा___ खंती अमहवऽजब विमुत्तया तह अदीणव तितिक्खा । आवस्सगपरिसुद्धी अ होति भिक्खुस्स लिंगाई ॥ ३४९ ।। 'क्षान्तिश्च' आक्रोशादिश्रवणेऽपि क्रोधत्यागश्च 'मार्दवार्जवविमुक्ततेति जात्यादिभावेऽपि मानत्यागा IDEOKAR दीप अनुक्रम [४८४..] ॥२६२॥ S मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: | भिक्षो: लिङ्गद्वारम् प्रतिपाद्यते ~ 527~ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४...] / गाथा ||७...|| नियुक्ति: [३४९], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||७..|| न्मार्दवं, परस्मिन्निकृतिपरेऽपि मायापरित्याग आर्जवं, धर्मोपकरणेष्वप्यमूर्छा विमुक्तता, तथाऽशनाचलाभेऽप्यदीनता, क्षुदादिपरीषहोपनिपातेऽपि तितिक्षा, तथा 'आवश्यकपरिशुद्धिश्च' अवश्यंकरणीययोगनिरतिचारता च, भवन्ति 'भिक्षोः' भावसाधोः 'लिङ्गानि' अनन्तरोदितानि संवेगादीनीति गाथार्थः ॥ व्याख्यातं लिङ्गद्वारम् , अवयवद्वारमाह अज्झयणगुणी भिक्खू न सेस इइ णो पइन्न-को हेऊ । अगुणत्ता इइ हेऊ-को विलुतो ? सुवण्णमिव ।। ३५० ॥ 'अध्ययनगुणी' प्रक्रान्ताध्ययनोक्तगुणवान् 'भिक्षुः' भावसाधुर्भवतीति, तत्स्वरूपमेतत्, 'न शेषः। तद्गुणरहित इति 'नः प्रतिज्ञा' अस्माकं पक्षः, 'को हेतुः कोऽत्र पक्षधर्म इत्याशङ्कयाह-'अगुणत्वादिति हेतुः अविद्यमानगुणोऽगुणस्तद्भावस्तत्त्वं तस्मादित्ययं हेतुः, अध्ययनगुणशून्यस्य भिक्षुखप्रतिषेधः साध्य साहति, 'को दृष्टान्तः? किं पुनरब निदर्शनमित्याशङ्कयाह-सुवर्णमिव' यथा सुवर्ण स्वगुणरहितं सुवर्ण न भवति तद्वदिति गाथार्थः ।। सुवर्णगुणानाह विसधाइ रसायण मंगलत्थ विणिए पयाहिणायत्ते । गुरुए अडज्झऽकुरथे अह सुवण्णे गुणा भणिआ ॥ ३५१ ॥ विषघाति विषघातनसमर्थ 'रसायन' वयस्तम्भनकर्तृ 'मङ्गलाई मङ्गलप्रयोजनं 'विनीत' यथेष्टकटकाविप्रकारसंपादनेन 'प्रदक्षिणावर्त तप्यमानं पादक्षिण्येनावर्त्तते 'गुरु' सारोपेतम् 'अदा' नाग्निना दद्यते। 5 दीप अनुक्रम [४८४..] * * मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~528~ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४...] / गाथा ||७...|| नियुक्ति: [३५१], भाष्यं [६२...] (४२) वध्य प्रत सूत्रांक ||७..|| दशवैका० 'अकुथनीय' न कदाचिदपि कुथतीत्येतेऽष्टावनन्तरोदिताः 'सुवर्णे' सुवर्णविषया गुणा भणितास्तत्स्वरूपज्ञैरिति | (१० सभिहारि-वृत्तिगाथार्थः ॥ उक्ताः सुवर्णगुणाः, साम्प्रतमुपनयमाह चउकारणपरिसुद्ध कसछेअणतावतालणाए अ । जं तं विसघाइरसायणाइगुणसंजु होइ ।। ३५२ ।। ॥२६३॥ 'चतुष्कारणपरिशुद्ध' चतुःपरीक्षायुक्तमित्यर्थः, कथमित्याह-कषच्छेदतापताडनया चेति कषेण छेदेन तापेन ताडनया च, यदेवंविधं तद्विषघाति रसायनादिगुणसंयुक्तं भवति, भावसुवर्ण स्वकार्यसाधकमिति गाथार्थः । यचैवंभूतम् संकसिणगुणोवे होइ सुवणं न सेसयं जुत्ती । नहि नामरूवमेतेण एवमगुणो हवाइ मिक्खू ।। ३५३ ॥ 'तद्' अनन्तरादितं 'कृत्स्नगुणोपेतं' संपूर्णगुणसमन्वितं भवति सुवर्ण यथोक्तं, न 'शेष' कषायशुद्ध, 'युक्ति रिति वर्णादिगुणसाम्येऽपि युक्तिसुवर्णमित्यर्थः, प्रकृते योजयति-पथैतत्सुवर्ण न भवति, एवं न हि नामरूपमात्रेण-रजोहरणादिसंधारणादिना "अगुणः' अविद्यमानप्रस्तुताध्ययनोक्तगुणो भवति भिक्षुः, भिक्षामटन्नपि न भवतीति गाथार्थः ॥ एतदेव स्पष्टयन्नाह जुत्तीसुवणर्ग पुण सुवण्णवण्णं तु जइवि कीरिज्जा । न हु होइ सुवणं सेसेहि गुणेहि संतेहिं ।। ३५४ ॥ युक्तिसुवर्ण कृत्रिमसुवर्णमिह लोके 'सुवर्णवर्ण तु जात्यसुवर्णवर्णमपि यद्यपिक्रियेत पुरुषनैपुण्येन तथापि नैय ॥२६३ ॥ भवति तत् सुवर्ण परमार्थेन 'शेषगुणैः कषादिभिः 'असद्भिः अविद्यमानैरिति गाथार्थः । एवमेव किमित्याह MASSAGESCANCERTACAN दीप अनुक्रम [४८४..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~529~ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ॥७..॥ दीप अनुक्रम [ ४८४..] Educationa “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [ ४...] / गाथा ||७..|| निर्युक्ति: [ ३५५ ], भाष्यं [६२...] जे अझवणे भणि भिक्खुगुणा तेहि होइ सो भिक्खू । वण्णेण जनसुवण्णगं व संते गुणनिहिंमि ॥ ३५५ ।। serer भणिता भिक्षुगुणा अस्मिन्नेव प्रक्रान्ते जिनवचने चित्तसमाध्यादयः तैः करणभूतैः सद्भिर्भत्यसौ भिक्षुर्नामस्थापनाद्रव्यभिक्षुव्यपोहेन भावभिक्षु, परिशुद्धभिक्षावृत्तित्वात् । किमिवेत्याह- 'वर्णेन' पीतलक्षणेन 'जात्यसुवर्णमिव' परमार्थसुवर्णमिव 'सति गुणनिधी' विद्यमानेऽन्यस्मिन् कषादी गुणसंघाते, एतदुक्तं भवति यथाऽन्यगुणयुक्तं शोभनवर्ण सुवर्ण भवति तथा चित्तसमाध्यादिगुणयुक्तो भिक्षणशीलो भिक्षुर्भवतीति गाथार्थः ॥ व्यतिरेकतः स्पष्टयति जो भिक्खू गुणरहिओ भिक्खं गिण्डइ न होइ सो मिक्सू । वोण जुत्तिसुवण व असई गुणनिहिम्मि ॥ ३५६ ॥ यो भिक्षुः 'गुणरहितः' चित्तसमाध्यादिशून्यः सन् भिक्षामटति न भवत्यसौ भिक्षुर्भिक्षाटनमात्रेणैव, अपरिशुद्धभिक्षावृत्तित्वात् किमिवेत्याह-वर्णेन युक्तिसुवर्णमिव यथा तद्वर्णमात्रेण सुवर्ण न भवत्य सति 'गुणनिधी' कपादिक इति गाथार्थः ॥ किंच उदिकयं भुंजइ छकायपमदओ घरं कुणइ पलक्खं च जलगए जो पियइ कह तु सो मिक्यू ? || ३५७ ॥ after कृतं भुक इत्यौदेशिकमित्यर्थः, षट्रकायप्रमर्दक:-यत्र कचन पृथिव्याद्युपमईकः, गृहं करोति संभवत्येवैषणीयालये मूर्च्छया वसतिं भाटकगृहं वा, तथा 'प्रत्यक्षं च' उपलभ्यमान एवं 'जलगतान' मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ४२ ], मूल सूत्र [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः ~530~ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४...] / गाथा ||७...|| नियुक्ति: [३५७], भाष्यं [६२...] (४२) १०सभिक्ष्यध्यक प्रत सूत्रांक ||७..|| दशवैका० अप्कायादीन् यः पिबति, तत्त्वतो विनाऽऽलम्बनेन, कथं न्वसौ भिक्षुः, नैव भावभिक्षुरिति गाथार्थः ॥ उक्त हारि-वृत्तिः । उपनयः, साम्प्रतं निगमनमाह तम्हा जे अझयणे भिक्खुगुणा तेहिं होइ सो मिक्खू । तेहि अ सउत्तरगुणेहि होइ सो भाविभतरो छ । ३५८ ।। ॥२६४॥ यस्मादेतदेवं यदनन्तरमुक्तं तस्माद येऽध्ययने प्रस्तुत एव 'भिक्षुगुणा' मूलगुणरूपा उक्तास्तैः करणभूतैः सद्भिर्भवत्यसी भिक्षुः, तैश्च 'सोत्तरगुणैः पिण्डविशुद्धयागुत्तरगुणसमन्वितैर्भवत्यसौ 'भावितत' चारित्रधर्मे तु प्रसन्नतर इति गाथार्थः ॥ उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसर इत्यादिचर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तवेदम् निक्खम्ममाणाइ अ बुद्धवयणे, निच्चं चित्तसमाहिओ हविज्जा । इत्थीण वसं न आवि गच्छे, वंतं नो पडिआयइ जे स भिक्खू ॥१॥ पुढविं न खणे न खणावए, सीओदगं न पिए न पिआवए । अगणिसत्थं जहा सुनिसिअं, तं न जले न जलावए जे स भिक्खू ॥ २॥ अनिलेण न वीए न वीयावए, हरियाणि न छिदे न छिंदावए । बीआणि सया विवजयंतो, सञ्चित्तं नाहारए जे स भिक्खू ॥३॥ वहणं त AACROSSEX दीप अनुक्रम [४८४..] ॥२६४ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~531~ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-, मूलं [४...] / गाथा ||१-५|| नियुक्ति: [३५८...], भाष्यं [६२...] (४२) *% %%% प्रत सूत्रांक सथावराण होइ, पुढवीतणकट्टनिस्सिआणं । तम्हा उद्देसिअं न भुंजे, नोऽवि पए न पयावए जे स भिक्खू ॥४॥रोइअ नायपुत्तवयणे, अत्तसमे मन्निज छप्पि काए। पंच य फासे महव्वयाई, पंचासवसंवरे जे स भिक्खू ॥५॥ 'निष्क्रम्य द्रव्यभावगृहात् प्रवज्यां गृहीत्वेत्यर्थः 'आज्ञया तीर्थकरगणधरोपदेशेन योग्यतायां सत्यां, निष्क्रम्य किमित्याह-'बुद्धचचने' अवगततत्त्वतीर्थकरगणधरवचने 'नित्यं सर्वकालं 'चित्तसमाहितः चित्तेनातिप्रसन्नो भवेत्, प्रवचन एवाभियुक्त इति गर्भः, व्यतिरेकतः समाधानोपायमाह-स्त्रीणां' सर्वासत्कार्यनिबन्धनभूतानां वशं तदायत्ततारूपं न चापि गच्छेत्, तद्वशगो हि नियमतो वान्तं प्रत्यापियति, 'अतो' बुद्धवचनचित्तसमाधानतः सर्वथा स्त्रीवशत्यागादू, अनेनैवोपायेनान्योपापासंभवात्, भावान्त' परित्यक्तं सद्विषयजम्यालं 'न प्रत्यापिवति' न मनागप्याभोगतोऽनाभोगतश्च तत्सेवते यः स भिक्षुः -भावभिक्षुरिति सूत्रार्थः॥१॥ तथा-'पृथिवीं सचेतनादिरूपां न खनति स्वयं न खानयति परैः, 'एकनहणे तज्जातीयग्रहण'मिति खनन्तमप्यन्यं न समनुजानाति, एवं सर्वत्र वेदितव्यं । 'शीतोदक' सचित्तं पानीयं न पियति खयं न पाययति परानिति, अग्निः षड्जीवघातकः, किंवदित्याह-शस्त्रं खङ्गादि यथा सुनिशितम्' उजवालितं तद्वत्,तं न ज्वालयति खयं न ज्वालयति परैः, य इत्थंभूतः स भिक्षुः । आह दीप अनुक्रम [४८५-४८९] दश०४५ Edream मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~532~ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४...] / गाथा ||१-५|| नियुक्ति: [३५८...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||१-५|| E% दशवैका षड्जीवनिकायादिषु सर्वाध्ययनेष्वयमोऽभिहितः किमर्थं पुनरुक्त इति, उच्यते, तदुक्तार्थानुष्ठानपर एव । १० सभिहारि-वृत्तिः भिक्षुरिति ज्ञापनार्थ, ततश्च न दोष इति सूत्रार्थः ॥२॥ तथा 'अनिलेन' अनिलहेतुना चेलकर्णादिना न वीज-51 वध्य यत्यात्मादि स्वयं न वीजयति परैः। 'हरितानि शष्पादीनि न छिनत्ति खयं न छेदयति परैः, 'बीजानि' ॥२६५॥ हरितफलरूपाणि ब्रीद्यादीनि 'सदा' सर्वकालं विवर्जयन संघटनादिक्रियया, सचित्तं नाहारयति यः कदा-1 चिदप्यपुष्टालम्बनः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥३॥ औद्देशिकादिपरिहारेण सस्थावरपरिहारमाह-वधनी हननं 'बसस्थावराणां द्वीन्द्रियादिपृथिव्यादीनां भवति कृतोद्देशिके, किंविशिष्टानाम् ?-पृथिवीतृणकाष्ठनिश्रितानां तथासमारम्भात्, यस्मादेवं तस्मादौद्देशिकं कृताद्यन्यच्च सावद्यं न भुते, न केवलमेतत्, किंतु नापि पचति खयं न पाचयति अन्पैने पचन्तमनुजानाति यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ ४॥ किंच-रोच-. यित्वा' विधिग्रहणभावनाभ्यां प्रियं कृत्वा, किं तदित्याह-ज्ञातपुत्रवचनं भगवन्महावीरवर्धमानवचनम् 'आत्मसमान्' आत्मतुल्यान् मन्यते 'षडपि कायान् पृथिव्यादीन्, 'पञ्च चेति चशब्दोऽप्यर्थः पश्चापि 'स्टशति' सेवते महाव्रतानि 'पञ्चाश्रवसंवृतश्च' द्रव्यतोऽपि पञ्चेन्द्रियसंवृतश्च यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥५॥ चत्तारि वमे सया कसाए, धुवजोगी हविज बुद्धवयणे । अहणे निजायरूवरयए, ॥२६५॥ गिहिजोगं परिवजए जे स भिक्खू ॥ ६॥ सम्मट्टिी सया अमूढे, अस्थि हु नाणे दीप -% 7 अनुक्रम [४८५-४८९] 246%9 KR मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~533~ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४...] / गाथा ||६-१०|| नियुक्ति: [३५८...], भाष्यं [६२...] (४२) COM प्रत सूत्रांक ||६-१०|| तवे संजमे अ । तवसा धुणइ पुराणपावगं, मणवयकायसुसंवुडे जे स भिक्खू ॥७॥ तहेव असणं पाणगं वा, विविहं खाइमसाइमं लभित्ता । होही अट्टो सुए परे वा, तं न निहे न निहावए जे स भिक्खू ॥ ८॥ तहेव असणं पाणगं वा, विविहं खाइमसाइमं लभित्ता । छदिअ साहम्मिआण भुंजे, भुच्चा सज्झायरए जे स भिक्खू ॥९॥ न य बुग्गहिअं कहं कहिज्जा, न य कुप्पे निहुइंदिए पसंते । संजमे धुवं जो गेण जुत्ते, उवसंते अविहेडए जे स भिक्खू ॥१०॥ किं च-चतुर क्रोधादीन वमति तत्प्रतिपक्षाभ्यासेन 'सदा' सर्वकालं कषायान , ध्रुवयोगी च-उचितनित्ययोगांश्च भवति, बुद्धवचन इति तृतीयाथै सप्तमी, तीर्थकरवचनेन करणभूतेन, ध्रुवयोगी भवति यथागम| मेवेति भावः, 'अधन चतुष्पदादिरहितः 'निर्जातरूपरजतो' निर्गतसुवर्णरूच्य इति भावः, 'गृहियोग मूर्छया गृहस्थसंबन्धं परिवर्जयति' सर्वैः प्रकारैः परित्यजति यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ ६॥ तथा 'सम्यगदृष्टिः' भावसम्यगदर्शनी सदा 'अमूढः अविप्लतः सन्नेवं मन्यते-अस्त्येव ज्ञानं हेयोपादेयविषयमतीन्द्रियेध्वपि तपश्च बाह्याभ्यन्तरकर्ममलापनयनजलकल्पं संयमच नवकर्मानुपादानरूपः, इत्थं च दृढभावस्तपसा दीप अनुक्रम [४९०-४९४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~534~ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४...] / गाथा ||६-१०|| नियुक्ति: [३५८...], भाष्यं [६२...] (४२) दशवैका. हारि-वृत्तिः ॥२६६॥ प्रत सूत्रांक ||६-१०|| धुनोति पुराणपापं भावसारया प्रवृत्त्या 'मनोवाक्कायसंवृतः' तिसृभिर्गुप्तिभिर्गुसो यः स भिक्षुरिति मूत्रार्थः१० सभि॥७॥'तथैवेति पूर्वर्षिविधानेन 'अशनं पानं च प्रागुक्तखरूपं तथा 'विविधम् अनेकप्रकारं 'खाद्य खाद्य वध्य च' प्रागुक्तखरूपमेव 'लब्ध्वा' प्राप्य, किमित्याह-भविष्यति 'अर्थः' प्रयोजनमनेन श्वः परश्वो वेति तद्' अशनादि 'न निधत्ते न स्थापयति खयं तथा 'न निधापपति' न स्थापयत्यन्यैः स्थापयन्तमन्यं नानुजानाति, यः सर्वथा संनिधिपरित्यागवान् स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥८॥ किं च-तथैवाशनं पानं च विविध खाद्यं खायं च । लन्ध्वेति पूर्ववत्, लब्ध्वा किमित्याह-छन्दित्वा' निमलय 'समामधार्मिकान्' साधून भुले, स्वात्मतुल्यतया तद्वात्सल्यसिद्धः, तथा भुक्त्वा खाध्यायरतश्च यः चशब्दाच्छेपानुष्ठानपरब यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥९॥भिक्षुलक्षणाधिकार एवाहन च 'वैग्रहिकी कलहप्रतिवद्धां कां कथयति, सद्बादकथादिष्वपि न च कुप्यति परस्य, अपितु 'निभृतेन्द्रियः' अनुद्धतेन्द्रियः 'प्रशान्तो' रागादिरहित एवास्ते, तथा 'संयमें पूर्वोक्त व सर्वकाल 'योगेन' कायवाचनःकर्मलक्षणेन युक्तो योगयुक्ता प्रतिभेदमौचित्येन प्रवृत्तेः, तथा 'उपशान्त' अनाकुलः कायचापलादिरहित: 'अविहेठक: न कचिदुचितेऽमादरवान्, क्रोधादीनां विश्लेषक इत्यन्ये, य इत्थंभूतः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥१०॥ जो सहइ हु गामकंटए, अक्कोसपहारतज्जणाओ अ। भयभेरवसदसप्पहासे, समसु ॥२६६॥ दीप अनुक्रम [४९०-४९४] Eramine मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~535~ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४...] / गाथा ||११-१५|| नियुक्ति: [३५८...], भाष्यं [६२...] (४२) +SAKAL प्रत सूत्रांक -१५|| हदुक्खसहे अ जे स भिक्खू ॥ ११॥ पडिमं पडिवजिआ मसाणे, नो भीयए भयभेरवाई दिस्स । विविहगुणतबोरए अ निच्चं, न सरीरं चाभिकंखए जे स भिक्खू ॥ १२ ॥ असई वोसट्टचत्तदेहे, अकुटे व हए लूसिए वा । पुढविसमे मुणी हविज्जा, अनिआणे अकोउहल्ले जे स भिक्खू ॥ १३ ॥ अभिभूअ कारण परीसहाई, समुद्धरे जाइपहाउ अप्पयं । विइत्तु जाईमरणं महन्भयं, तवे रए सामणिए जे स भिक्खू ॥ १४ ॥ हत्थसंजए पायसंजए, वायसंजए संजइंदिए । अज्झप्परए सुसमाहिअप्पा, सुत्तत्थं च विआणइ जे स भिक्खू ॥ १५॥ किंच-यः खलु महात्मा सहते 'सम्यग्ग्रामकण्टकान्' ग्रामा-इन्द्रियाणि तहुःखहेतवः कण्टकास्तान , स्वरूकापत एवाह-आक्रोशान् प्रहारान् तर्जनाश्चेति, तत्राकोशो यकारादिभिः प्रहाराः कशादिभिः तर्जना असूछयादिभिः, तथा 'भैरवभया' अत्यन्तरौद्रभयजनकाः शब्दाः सप्रहासा यस्मिन् स्थान इति गम्यते तत्तथा तस्मिन् , वैतालादिकृतार्तनादाट्टहास इत्यर्थः, अनोपसर्गेषु सत्सु समसुखदुःखसहश्च-यः अचलितसामा दीप अनुक्रम [४९५-४९९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 536~ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४...] / गाथा ||११-१५|| नियुक्ति: [३५८...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक -१५|| दशबैका पिकभावः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥११॥ एतदेव स्पष्टयति-प्रतिमा' मासादिरूपां 'प्रतिपय विधिना- १० सामन हारि-वृत्तिङ्गीकृत्य 'श्मशाने' पितृवने 'न बिभेति' न भयं याति 'भैरवभयानि दृष्टा' रौद्रभयहेतुनुपलभ्य वैतालादि-15 ॥२६७॥ रूपशब्दादीनि 'विविधगुणतपोरतश्च नित्यं मूलगुणाघनशनादिसक्तश्च सर्वकालं, न शरीरमभिकाइते निःस्पृहतया वार्समानिकं भावि च, य इत्थंभूतः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ १२॥ न सकृदसकृत्सर्वदेत्यर्थः, किमित्याह-व्युत्सृष्टत्यक्तदेह व्युत्सृष्टो भावप्रतिबन्धाभावेन त्यक्तो विभूषाकरणेन देहः-शरीरं येन स तथाविधा, आक्रुष्टो वा यकारादिना हतो वा दण्डादिना लूषितो वा खगादिना भक्षितो वा श्वशृगालादिना 'पृथिवीसमः' सर्वसहो मुनिर्भवति, न च रागादिना पीयते, तथा 'अनिदानों' भाविफलाशंसार|हिता, अकुतूहलच नटादिषु, य एवंभूतः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥१३॥ भिक्षुस्वरूपाभिधानाधिकार एवाह| -'अभिभूय' पराजित्य 'कायेन शरीरेणापि, न भिक्षुसिद्धान्तनीत्या मनोवाग्भ्यामेव, कानानभिभवेटू तत्वतस्तदनभिभवात, 'परीषहान' क्षुदादीन, 'समुद्धरति उत्तारयति 'जातिपथात्' संसारमार्गादात्मानं, कथमित्याह-विदित्वा' विज्ञाय जातिमरणं संसारमूलं 'महाभयं' महाभयकारण, 'तपसि रतः' तपसि सक्तः किंभूत इत्याह- श्रामण्ये' श्रमणानां संबन्धिनि, शुद्ध इति भावः, य एवंभूतः स भिक्षुरिति सूत्रायः ॥१४॥ vi॥२६७॥ तथा हस्तसंयतः पावसंयत इति-कारणं विना कूर्मवल्लीन आस्ते कारणे च सम्यग्गच्छति, तथा वाक्संयतः अकुशलवाग्निरोधकुशलबागुदीरणेन, 'संयतेन्द्रियो' निवृत्तविषयप्रसरः, 'अध्यात्मरतः' प्रशस्तभ्यानासक्ता, दीप अनुक्रम [४९५-४९९] Limelicatom.imMMI मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~537~ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४...] / गाथा ||१६-२१|| नियुक्ति: [३५८...], भाष्यं [६२...] (४२) CATEGAR प्रत सूत्रांक SC ||१६-२१|| द सुसमाहितात्मा ध्यानापादकगुणेषु, तथा सूत्रार्थं च यथावस्थितं विधिग्रहणशुद्धं विजानाति यः सम्यग्यथाविषयं स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥१५॥ उबहिमि अमुच्छिए अगिद्धे, अन्नायउंछं पुलनिप्पुलाए । कयविक्कयसंनिहिओ विरए, सव्वसंगावगए अ जे स भिक्खू ॥ १६ ॥ अलोल भिक्खू न रसेसु गिज्झे, उंछं चरे जीविअ नाभिकंखे । इडिं च सकारणपूअणं च, चए ठिअप्पा अणिहे जे स भिक्खू ॥ १७ ॥ न परं वइजासि अयं कुसीले, जेणं च कुप्पिज न तं वइज्जा । जाणिअ पत्तेअं पुण्णपावं, अत्ताणं न समुक्कसे जे स भिक्खू ॥ १८॥ न जाइमत्ते न य रूवमत्ते, न लाभमत्ते न सुएण मत्ते । मयाणि सव्वाणि विवजइत्ता, धम्मज्झाणरए जे स भिक्खू ॥ १९॥ पवेअए अजपयं महामुणी, धम्मे ठिओ ठावयई परं पि । निक्खम्म वजिज कुसीललिंगं, न आवि हासंकुहए जे स भिक्खू ॥ २० ॥ तं देहवासं असुई असासयं, सया चए निच्चहिअद्विअप्पा । छिंदित्तु जाईमरणस्स D दीप अनुक्रम [५००-५०५] SC0% मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 538~ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४...] / गाथा ||१६-२१|| नियुक्ति: [३५८...], भाष्यं [६२...] (४२) सभि प्रत सूत्रांक दशवका० बंधणं, उवेइ भिक्खू अपुणागमं गई ॥ २१ ॥ ति बेमि ॥ सभिक्खुअज्झयणं दसमं हारि-वृत्तिः समत्तं ॥१०॥ ॥२६८॥ तथा-'उपधी' वस्त्रादिलक्षणे 'अमूछितः' तद्विषयमोहत्यागेन 'अगृद्धः' प्रतिबन्धाभावेन, अज्ञातोछ । चरति भावपरिशुद्धं, स्तोकं स्तोकमित्यर्थः, 'पुलाकनिष्पुलाक' इति संयमासारतापादकदोषरहिता, 'क्रय-18 विक्रयसंनिधिभ्यो विरतः' द्रव्यभावभेदभिन्नक्रयविक्रयपर्युषितस्थापनेभ्यो निवृत्ता, 'सर्वसङ्गापगतच यः। अपगतद्रव्यभावसङ्गश्च यः, स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ किंच-अलोलो नाम नाप्राप्तप्रार्थनपरो 'भिक्षुः। साधुःन रसेषु गद्धा, प्राप्तेष्वप्यप्रतिबद्ध इति भावः, उछ चरति भावोज्छमेवेति पूर्ववत्, नवरं तत्रोपधिमाश्रियोक्तमिह वाहारमित्यपौनरुत्य, तथा जीवितं नाभिकाढते, असंयमजीवितं, तथा 'करि च' आ-| मर्पोषध्यादिरूपां सत्कार वस्त्रादिभिः पूजनं च स्तवादिना त्यजेति, नैतदर्थमेव यतते, स्थितात्मा ज्ञानाBादिषु, 'अनिभ' इत्यमायो यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ १७॥ तथा न 'परं' स्वपक्षविनेयव्यतिरिक्तं वदति-13 अयं कुशीला, तदपीत्यादिदोषप्रसङ्गात् , खपक्षविनेयं तु शिक्षाग्रहणबुड्या बदत्यपि, सर्वथा येनान्यः कश्चित् / कुप्यति न तद् ब्रवीति दोषसद्भावेऽपि, किमित्यत आह-ज्ञात्वा प्रत्येकं पुण्यपापं, नान्यसंबन्ध्यन्यस्य भवति अग्निदाहवेदनावत्, एवं सत्स्वपि गुणेषु नात्मानं समुत्कर्षति-न खगुणैर्गर्वमायाति यः स भिक्षुरिति सू-A EARNASABHARAT ||१६-२१|| दीप अनुक्रम [५००-५०५] ॥२६८॥ Erammire मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~539~ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४...] / गाथा ||१६-२१|| नियुक्ति: [३५८...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||१६-२१|| भत्रार्थः ॥ १८॥ मद्प्रतिषेधार्थमाह-न जातिमत्तो यथाऽहं ब्राह्मणः क्षत्रियो वा, न च रूपमत्तो यथाऽहं रू पवानादेयः, न लाभमत्तो यथाऽहं लाभवान्, न श्रुतमत्तो यथाऽहं पण्डितः, अनेन कुलमदादिपरिग्रहः, | अत एवाह-मदान् सर्वान् कुलादिविषयानपि परिवयं परित्यज्य 'धर्मध्यानरतों' यो यथागमं तत्र सक्तः स भिक्षुरिति सूत्राधः ॥ १९॥ किंच-प्रवेदयति' कथयति 'आर्यपद शुद्धधर्मपदं परोपकाराय 'महामुनि Xोशीलवान ज्ञाता एवंभूत एव वस्तुतो नान्यः, किमित्येतदेवमित्यत आह-धर्मे स्थितः स्थापयति परमपि-1 श्रोतारं, तत्रादेयभावप्रवृत्तेः, तथा निष्क्रम्य वर्जयति 'कुशीललिङ्गम् आरम्भादि कुशीलचेष्ठितं, तथा 'नट चापि हास्यकुहकों' न हास्यकारिकुहकयुक्तो यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ २० ॥ भिक्षुभावफलमाह-तं देहवास मित्येवं प्रत्यक्षोपलभ्यमानं चारकरूपं शरीरावासम् अशुचिं शुक्रशोणितोद्भववादिना अशाश्वतं प्रतिक्षणपरिणत्या सदा त्यजति ममत्वानुवन्धत्यागेन, क इत्याह-नित्यहिते' मोक्षसाधने सम्यगदर्शनादी स्थितात्मा अत्यन्तसुस्थितः, स चैवंभूतविछत्वा 'जातिमरणस्य' संसारस्य 'बन्धन' कारणम् 'उपैति' सामी-IN मप्येन गच्छति 'भिक्षुः' यतिः 'अपुनरागमा पुनर्जन्मादिरहितामित्यर्थः, गतिमिति-सिद्धिगति, ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥ २१ ॥ उक्तोऽनुगमो, नयाः पूर्ववत्, इति व्याख्यातं सभिवध्ययनम् ॥१०॥ इति श्रीहरिभद्रसूरिविरचितार्या श्रीवशवकालिकबृहत्तौ दशममध्ययनम् ॥१०॥ SLCOMSACSCR C * दीप अनुक्रम [५००-५०५] 6 + - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: अत्र अध्ययनं -१० परिसमाप्तं ~540~ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) चूलिका [१], मूलं [-]. / गाथा |-II. नियुक्ति: [३५९], भाष्यं [६२...] (४२) * % प्रत सुत्रांक ||--|| दशका अथ चूलिके। रतिवाहारि-वृत्तिः । क्यचूला ॥२६९॥ अधुनौघतथूडे आरभ्येते, अनयोश्चायमभिसंवन्धः-इहानन्तराध्ययने भिक्षुगुणयुक्त एव भिक्षुरुक्ता, स चैवंभूतोऽपि कदाचित् कर्मपरतनत्वात् कर्मणश्च बलवत्त्वात् सीदेद्, अतस्तत्स्थिरीकरणं कर्त्तव्यमिति तदर्थाIIधिकारचचूडाद्वयमभिधीयते, तत्र चूडाशब्दार्थमेवाभिधातुकाम आह दवे खेते काले भावमि अचूलिआय निक्खेवो । तं पुण उत्तरततं सुअगहिमस्थं तु संगहणी ।। ३५९ ।। नामस्थापने क्षुपणत्वादनादृत्याह-'द्रव्ये क्षेत्रे काले भावे च' द्रव्यादिविषयः चूडाया 'निक्षेपो न्यास इति तत्पुनडाद्वयम् 'उत्तरतंत्र' दशवकालिकस्य आचारपञ्चचूडावत्, एतचोत्तरतनं 'श्रुतगृहीतार्थमेव' ददशवकालिकाख्यश्रुतेन गृहीतोऽर्थोऽस्येति विग्रहः, यद्येवमपार्थकमिदं, नेत्याह-संग्रहणी' तदुक्तानुक्तार्थसं-1 क्षेप इति गाथार्थः । द्रव्यचूडादिव्याचिख्यासयाऽऽह दब्बे सचित्ताई कुकडचूडामणीमऊराई । खेतमि लोगनिकुड मंदरचूडा अ कूडाई ॥ ३६० ।। 'द्रव्य' इति द्रव्यचूडा आगमनोआगमज्ञशरीरेतरादि, व्यतिरिक्ता त्रिविधा 'सचित्ताद्या सचित्ता अ-18 ॥२६९ ॥ चित्ता मिश्रा च, यथासंख्यं दृष्टान्तमाह-कुक्कुटचूडा सचिसा मणिचूडा अचित्ता मयूरशिखा मिश्रा । 'क्षेत्र' 2ॐॐ45-45625%258- OCCASSCIENCotebookG दीप अनुक्रम [-] Eramine मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] "दशवैकालिक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: चूलिका -१- "रतिवाक्य" आरभ्यते | ... 'चूडा'शब्दस्य नामादि षड् निक्षेपा: ~541~ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) चूलिका [१], मूलं [-]. / गाथा |-II. नियुक्ति: [३६०], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सुत्रांक ||--|| इति क्षेत्रचूडा लोकनिष्कुटा उपरिवर्तिना,मन्दरचूडा च पाण्डुकम्बला कूटादयश्च तदन्यपर्वताना, क्षेत्रप्राधान्यात्, आदिशब्दादधोलोकस्य सीमन्तकः तिर्यगलोकस्य मन्दर ऊर्वलोकस्येषत्माग्भारेति गाथार्थः॥ आइरित्त अहिगमासा अहिगा संवच्छरा अ कालंमि । भावे सओवसमिए इमा उ चूढा मुणेभव्या ॥ ३६१ ॥ 'अतिरिक्ता' उचितकालात् समधिका अधिकमासका प्रतीताः, अधिकाः संवत्सराश्च षष्ट्यब्दाद्यपेक्षया| 'काल' इति कालचूडा, 'भाव' इति भावचूडा क्षायोपशमिके भावे इयमेव द्विप्रकारा चूडा 'मन्तव्या' विज्ञेया क्षायोपशमिकत्वाछुतस्येति गाथार्थः ॥ तत्रापि प्रथमा रतिवाक्यचूडा, अस्याश्चानुयोगद्वारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्यायनामनिष्पन्ने निक्षेपे रतिवाक्येति द्विपदं नाम, तत्र रतिनिक्षेप उच्यते-तत्रापि नामस्थापने अनादृत्य द्रव्यभावरत्यभिधित्सयाऽऽह दव्ये दुहा उ कम्मे नोकम्मरई अ सददम्बाई । भावरई तस्सेब उ उदए एमेव अरवि ॥ ३६२ ॥ द्रव्यरतिरागमनोआगमज्ञशरीरेतरातिरिक्ता द्विधा-कर्मद्रव्यरतिर्नोकर्मद्रव्यरतिश्च, तत्र कर्मद्रव्यरती रति| वेदनीयं कर्म, एतच बद्धमनुदयावस्थं गृह्यते नोकर्मद्रव्यरतिस्तु शब्दादिद्रव्याणि, आदिशब्दात् स्पर्शरसादादिपरिग्रहः रतिजनकानि-रतिकारणानि । भावरतिः 'तस्यैव तु रतिवेदनीयस्य कर्मण उदये भवति, एच मेवारतिरपि द्रव्यभावभेदभिन्ना यथोक्तरतिप्रतिपक्षतो विज्ञेयेति गाथार्थः । उक्ता रतिः, इदानीं वाक्यमतिदिशन्नाह दीप अनुक्रम [-] Limelicatom.in मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: द्रव्य-भावौ रति-अरत्यो: विवेचनं क्रियते ~542~ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक II--II दीप अनुक्रम [ दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ २७० ॥ La docapan ini “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) चूलिका [१] . मूलं [-] / गाथा || II, निर्युक्ति: [३६२], भाष्यं [६२...] वकं तु पुव्यभणिअं धम्मे रइकारगाणि वचाणि । जेणमिभीए तेणं रइवकेसा हवइ चूडा ॥ ३६३ ।। वाक्यं तु पूर्वभणितं वाक्यशुद्ध्यध्ययनेऽनेकप्रकारमुक्तं 'धर्मे' चारित्ररूपे 'रतिकारकाणि' रतिजनकानि तानि च वाक्यानि येन कारणेन 'अस्यां' चूडायां तेन निमित्तेन रतिवाक्यैषा चूडा, रतिकर्तृणि वाक्यानि यस्यां सा रतिवाक्येति गाथार्थः । इह च रत्यभिधानं सम्यक्सहनेन गुणकारिणीत्वोपदर्शनार्थम् । आह चजह नाम आउरसिह सीवणछेज्जेसु कीरमाणेसु । जंतणमपत्थकुच्छा ऽऽमदोसविरई हिअकरी उ ।। ३६४ ॥ • यथा नामेति प्रसिद्धमेतत् 'आतुरस्य' शरीरसमुत्थेन आगन्तुकेन वा व्रणेन ग्लानस्य 'इह' लोके 'सीवनच्छेदेषु' सीवनच्छेदनकर्मसु क्रियमाणेषु सत्सु किमित्याह-यन्त्रणं गलयन्त्रादिना 'अपथ्यकुत्सा' अपथ्यप्रतिषेधः 'आमदोषविरतिः' अजीर्णदोषनिवृत्तिः हितकारिण्येव विपाकसुन्दरत्वादिति गाथार्थः ॥ दाट|न्तिकयोजनामाह अट्ठविकम्मरोगाउरस्स जीअस्स तह तिगिच्छाए। धम्मे रई अधम्मे अरई गुणकारिणी होइ ।। ३६५ ।। 'अष्टविधकर्मरोगातुरस्य' ज्ञानावरणीयादिरोगेण भावग्लानस्य 'जीवस्य' आत्मनः 'तथा' तेनैव प्रकारेण 'चिकित्सायां संयमरूपायां प्रक्रान्तायामस्लानलोचादिना पीडाभावेऽपि 'धर्म' श्रुतादिरूपे 'रतिः' आसक्तिः 'अधर्मे' तद्विपरीते 'अरतिः' अनासक्तिर्गुणकारिणी भवति, निर्वाणसाधकत्वेनेति गाथार्थः ॥ एतदेव स्पष्टयति For P&Personal Use City मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ४२ ], मूल सूत्र [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि - विरचिता वृत्तिः ~ 543~ १ रतिवा क्यचूला ॥ २७० ॥ wyg Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) चूलिका [१], मूलं [-]. / गाथा |-II. नियुक्ति: [३६५], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सुत्रांक सज्झायसंजमतवे वेआवचे अ झाणजोगे अ । जो रमइ नो रमइ अस्संजमम्मि सो बच्चई सिद्धिं ॥ ३६६ ॥ खाध्याये-वाचनादौ संयमे-पृथिवीकायसंयमादौ तपसि-अनशनादौ वैयावृत्त्ये च-आचार्यादिविषये ध्यानयोगे च-धर्मध्यानादौ यो 'रमते स्वाध्यायादिषु सक्त आस्ते, तथा 'न रमते' न सक्त आस्ते 'असंयमें प्राणातिपातादौ स 'ब्रजति सिद्धिं' गच्छति मोक्षम् । इह च संयमतपोग्रहणे सति खाध्यायादिग्रहणं प्रा-1 धान्यख्यापनार्थमिति गाथार्थः । उपसंहरन्नाह तम्हा धम्मे रइकारगाणि अरइकारगाणि (य) अहम्मे । ठाणाणि ताणि जाणे जाई भणिआई अज्झयणे ।। ३६७ ॥ । तस्माद् 'धर्मे चारित्ररूपे 'रतिकारकाणि' रतिजनकानि 'अरतिकारकाणि च' अरतिजनकानि च 'अधमें असंयमे स्थानानि 'तानि वक्ष्यमाणानि जानीयात् यानि "भणितानि' प्रतिपादितानि इह अध्ययने प्रक्रान्त इति गाधार्थः ॥ उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसर इत्यादि पूर्ववत्तावयावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारणीयं, तच्चेदम् इह खल्लु भो! पव्वइएणं उप्पन्नदुक्खेणं संजमे अरइसमावन्नचित्तेणं ओहाणुप्पेहिणा अणोहाइएणं चेव हयरस्सिगयंकुसपोयपडागाभूआई इमाइं अट्ठारस ठाणाई सम्म संपडिलेहिअब्वाई भवंति-तंजहा-हंभो! दुस्समाए दुप्पजीवी १, लहुसगा इत्त SAKSCACANCE ||--|| दीप अनुक्रम [-] REG दा०४६ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 544~ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) चूलिका [१], मूलं [१], / गाथा ||-II, नियुक्ति: [३६७...], भाष्यं [६२...] (४२) दशवैका हारि-वृत्तिः ॥२७॥ १रतिया क्पचूला० प्रत सत्राक रिआ गिहीणं कामभोगा २, भुजो अ साइबहुला मणुस्सा ३, इमे अ मे दुक्खे न चिरकालोवढाई भविस्सई ४, ओमजणपुरकारे ५, वंतस्स य पडिआयणं ६, अहरगइवासोवसंपया ७, दुल्लहे खलु भो! गिहीणं धम्मे गिहवासमज्झे वसंताणं ८, आयके से वहाय होइ ९, संकप्पे से वहाय होइ १०, सोवक्केसे गिहवासे निरुवक्केसे परिआए ११, बंधे गिहवासे मुक्खे परिआए १२, सावजे गिहवासे अणवजे परिआए १३, बहुसाहारणा गिहीणं कामभोगा १४, पत्तेअं पुण्णपावं १५, अणिञ्चे खलु भो! मणुआण जीविए कुसग्गजलबिंदुचंचले १६, बहुं च खलु भो! पावं कर्म पगडं १७, पावाणं च खलु भो! कडाणं कम्माणं पुटिव दुच्चिन्नाणं दुप्पडिकंताणं वेइत्ता मुक्खो, नत्थि अवेइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता १८ । अट्ठारसमं पयं भवइ । भवइ अ इत्थ सिलोगो'इह खलु भोः प्रबजितेन' इहेति जिनप्रवचने खलुशब्दोऽवधारणे स च भिन्नक्रम इति दर्शयिष्यामः, भो 22% % दीप अनुक्रम [५०६] ॥२७१॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~545~ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) चूलिका [१], मूलं [१], / गाथा ||-II, नियुक्ति: [३६७...], भाष्यं [६२...] (४२) * % .5% 1 प्रत 1 सत्राक इत्यामश्रणे, प्रबजितेन-साधुना, किंविशिष्टेनेस्याह-उत्पन्नदुःखेन' संजातशीतादिशारीरखीनिषद्यादिमानसदुःखेन 'संयमें' व्यावर्णितखरूपे 'अरतिसमापन्नचित्तेन' उद्वेगगताभिप्रायेण संयमनिर्विष्णभावेनेत्यर्थः, स एवं विशेष्यते-'अवधानोत्प्रेक्षिणा' अवधानम्-अपसरणं संयमादुत्-प्राबल्येन प्रेक्षितुं शीलं यस्य स तथाविधस्तेन, उत्पत्रजितुकामेनेति भावः, 'अनवधावितेनैव' अनुत्मबजितेनैव 'अमूनि वक्ष्यमाणलक्षणान्यष्टादश स्थानानि 'सम्यम्' भावसारं 'मुष्ठ प्रेक्षितव्यानि' सुष्टालोचनीयानि भवन्तीति योगः, अवधावितस्य तु प्रत्युपेक्षणं प्रायोऽनर्थकमिति । तान्येव विशेष्यन्ते-हयरश्मिगजाङ्कशपोतपताकाभूतानि' अश्वखलिनगजाकुशवोहित्यसितपटतुल्यानि, एतदुक्तं भवति-यथा हयादीनामुन्मार्गप्रवृत्तिकामानां रइम्यादयो नियमनहेतवस्तथैतान्यपि संयमादुन्मार्गप्रवृत्तिकामानां भव्यसत्त्वानामिति, यतश्चैवमतः सम्यक संप्रत्युपेलक्षितव्यानि भवन्ति, खलुशब्दोऽवधारणे, योगात्सम्यक-सम्यगेव संप्रत्युपेक्षितव्यान्येवेत्यर्थः 'तय-13 त्यादि, तद्यथेत्युपन्यासार्थः, 'हंभो दुष्षमायां दुष्पजीविन' इति हंभो-शिष्यामनणे दुष्षमायाम्-अधमकालाख्यायां कालदोषादेव दुःखेन-कृच्छ्रेण प्रकर्षणोदारभोगापेक्षया जीवितुं शीला दुष्पजीविना, प्राणिन इति गम्यते, नरेन्द्रादीनामप्यनेकदुःखप्रयोगदर्शनात्, उदारभोगरहितेन च विडम्बनाप्रायेण कुगतिहेतुना किं ग्रहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति प्रथम स्थानम् १ तथा 'लघव इस्वरा गृहिणां कामभोगाः, दुष्षमायामिति वर्तते, सन्तोऽपि 'लघव' तुच्छाः प्रकृत्यैव तुषमुष्टिवदसाराः 'इत्वरा' अल्पकाला: 'गृहिणां' गृह दीप अनुक्रम [५०६] 4-94 Limilcalamir मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~546~ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) चूलिका [१], मूलं [१], / गाथा ||-II, नियुक्ति: [३६७...], भाष्यं [६२...] (४२) रतिवाक्यचूला. प्रत सत्राक दशवैका स्थानां 'कामभोगा' मदनकामप्रधानाः शब्दादयो विषया विपाककटवश्च, न देवानामिव विपरीताः, अतः हारि-वृत्तिः किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति द्वितीय स्थानम् २ तथा 'भूयश्च खातिबहुला मनुष्याः' दुष्षमाया मिति वर्तत एव, पुनश्च 'स्वातिबहुला' मायाप्रचुरा 'मनुध्या' इति प्राणिनो, न कदाचिद्विम्भहेतवोऽमी, ॥ २७ ॥ तद्रहितानां च कीहक्सुखं?, तथा मायावन्धहेतुत्वेन दारुणतरो बन्ध इति किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति तृतीय स्थान ३ तथा 'इदं च मे दुःखं न चिरकालोपस्थायि भविष्यति' 'इदं च अनुभूयमानं मम श्रामण्यमनुपालयतो 'दुःखं' शारीरमानसं कर्मफलं परीषहजनितं न चिरकालमुपस्थातुं शीलं भविष्यति, श्रामण्यपालनेन परीषहनिराकृतेः कर्मनिर्जरणात्संयमराज्यप्राप्तेः, इतरथा महानरकादौ विपर्ययः, अतः किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति चतुर्थ स्थानं ४। तथा 'ओमजणपुरस्कार मिति न्यूनजनपूजा, प्रबजितो हि धर्मप्रभावाद्राजामात्यादिभिरभ्युत्थानासनाञ्जलिप्रग्रहादिभिः पूज्यते, उत्प्रवृजितेन तु न्यूनजनस्थापि स्वव्यसनगुप्तयेऽभ्युत्थानादि कार्यम् , अधार्मिकराजविषये वा वेष्टिप्रयोक्तुः खरकर्मणो नियमत एव इहैवेदमधर्मफलम् अतः किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति पञ्चमं स्थानम् ५। एवं सर्वत्र क्रिया योजनीया, तथा 'वान्तस्य प्रत्यापानं भुक्तोज्झितपरिभोग इत्यर्थः, अयं च श्वशृगालादिक्षुद्रसत्वाचरितः सतां निन्यो| व्याधिदुःखजनका, वान्ताश भोगाः प्रवज्याङ्गीकरणेन, एतत्प्रत्यापानमप्येवं चिन्तनीयमिति षष्ठं स्थानम् ६॥ तथा 'अधरगतिवासोपसंपत्' अधो(घर)गतिः-नरकतिर्यग्गतिस्तस्यां वसनमधोगतिवासः, एतन्निमित्तभूतं कर्म दीप अनुक्रम [५०६] CANC4562 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~547~ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [५०६ ] Education in “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) चूलिका [१], मूलं [१], / गाथा ||- || निर्युक्तिः [३६७...], भाष्यं [ ६२...] गृह्यते, तस्योपसंपत्-सामीप्येनाङ्गीकरणं यदेतदुत्प्रव्रजनम्, एवं चिन्तनीयमिति सप्तमं स्थानं ७ | तथा 'दुर्लभः खलु भो ! गृहिणां धर्म' इति प्रमाद बहुलत्वादुर्लभ एव 'भो' इत्यामन्त्रणे गृहस्थानां परमनिर्वृतिजनको धर्मः, किंविशिष्टानामित्याह - 'गृहपाशमध्ये वसता' मित्यत्र गृहशब्देन पाशकल्पाः पुत्रकलत्रादयो गृह्यन्ते, तन्मध्ये वसताम्, अनादिभवाभ्यासादकारणं स्नेहबन्धनम् एतचिन्तनीयमित्यष्टमं स्थानं ८ । तथा 'आतइस्तस्य बधाय भवति' 'आतङ्कः' सयोघाती विषूचिकादिरोगः 'तस्य' गृहिणो धर्मबन्धुरहितस्य 'वधाय' विनाशाय भवति, तथा वधवानेकवधहेतुः, एवं चिन्तनीयमिति नवमं स्थानं ९ । तथा 'संकल्पस्तस्य वधाय भ वति' 'संकल्प' इष्टानिष्टवियोगप्रासिजो मानस आतङ्कः, 'तस्य' गृहिणस्तथा चेष्टायोगान्मिथ्याविकल्पाभ्यासेन ग्रहादिप्रासेर्वधाय भवति, एतच्चिन्तनीयमिति दशमं स्थानं १० । तथा 'सोपक्लेशो गृहिवास' इति सहोपक्लेशैः सोपक्लेशो ग्रहिवासो-गृहाश्रमः, उपक्लेशाः कृषिपाशुपाल्यवाणिज्याद्यनुष्ठानानुगताः पण्डितजनगर्हिताः शीतोष्णश्रमादयो घृतलवणचिन्तादयश्चेति, एवं चिन्तनीयमित्येकादशं स्थानं ११ । तथा 'निरुपक्लेशः पर्याय' इति, एभिरेवोपक्लेश रहितः प्रव्रज्यापर्यायः, अनारम्भी कुचिन्तापरिवर्जितः श्लाघनीयो विदुषामित्येवं चिन्तनीयमिति द्वादशं स्थानं १२ । तथा 'बन्धो गृहवासः' सदा तद्धेखनुष्ठानात्, कोशकारकीटवदिति, एतचिन्तनीयमिति त्रयोदशं स्थानं १३ । तथा 'मोक्षः पर्यायः' अनवरतं कर्मनिगडविगमान्मुक्तवदित्येवं चिन्तनीयमिति चतुर्दशं स्थानम् १४ । अत एव 'सावधो गृहवास' इति सावयः - सपापः प्राणातिपातमृषावादादि मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ ४२ ], मूल सूत्र [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः ~ 548~ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) चूलिका [१], मूलं [१], / गाथा ||-II, नियुक्ति: [३६७...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सुत्राक दशवैका०प्रवृत्तेरेतचिन्तनीयमिति पञ्चदशं स्थानम् १५ । एवम् 'अनवद्यः पर्याय' इति अपाप इत्यर्थः, अहिंसादिपाल-दरतिवाहारि-वृत्तिः नात्मकत्वाद, एतचिन्तनीयमिति षोडशं स्थानं १६ । तथा 'बहुसाधारणा गृहिणां कामभोगा' इति बहसा-II क्यचूला ॥२७॥ धारणा:-चीरराजकुलादिसामान्या 'गृहिणां' गृहस्थानां कामभोगा: पूर्ववदिति, एतचिन्तनीयमिति सप्त-18 दशं स्थानं १७। तथा 'प्रत्येक पुण्यपाप मिति मातापितृकलत्रादिनिमित्तमप्यनुष्ठितं पुण्यपापं 'प्रत्येकं प्रत्येक' साधक पृथक येनानुष्ठितं तस्य कर्तुरेवैतदिति भावार्थः, एवमष्टादशं स्थानम् १८ । एतदन्तर्गतो वृद्धाभिमा-1 येण शेषग्रन्थः समस्तोऽत्रैव, अन्ये तु व्याचक्षते-सोपक्लेशो गृहिवास इत्यादिषु षट्सु स्थानेषु सप्रतिपक्षेषु स्थानत्रयं गृह्यते, एवं च बहुसाधारणा गृहिणां कामभोगा इति चतुर्दशं स्थानम् १४, प्रत्येकं पुण्यपापमिति पञ्चदशं स्थानम् १५, शेषाण्यभिधीयन्ते, तथा 'अनित्यं खलु' अनित्यमेव नियमतः भो इत्यामन्त्रणे 'मनुष्याणां' पुंसां 'जीवितम् आयुः, एतदेव विशेष्यते-कुशाग्रजलबिन्दुचञ्चलं सोपक्रमस्वादनेकोपद्रवविषयवादत्यन्तासारं, तदलं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति षोडशं स्थानं १६, तथा 'बहुं च खलु भोः! पापं कर्म प्रकृतम्' बहु च चशब्दात् क्लिष्टं च खलुशब्दोऽवधारणे बढेव पापं कर्म-चारित्रमोहनीयादि 'प्रकृतं निवर्तितं, मयेति गम्यते, श्रामण्यप्राप्तावप्येवं क्षुद्रबुद्धिप्रवृत्तः, नहि प्रभूतक्लिष्टकर्मरहितानामेवमकुशला बुद्धिर्भवति, अतो न किञ्चित् गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति सप्तदर्श स्थानं १७, तथा 'पापानां चेत्यादि, 'पापानां च' अपुण्यरूपाणां चशब्दात्पुण्यरूपाणां च खलु भोः कृतानां कर्मणां खलुशब्दः कारितानुमत 6 दीप अनुक्रम [५०६] Erami मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~549~ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) चूलिका [१], मूलं [१], / गाथा ||-II, नियुक्ति: [३६७...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सत्राक विशेषणार्थः, भो इति शिष्यामन्त्रणे, 'कृतानां मनोवाकाययोगैरोघतो निर्वसितानां 'कर्मणां' ज्ञानावरणीयायसातवेदनीयादीनां 'पाक' पूर्वमन्यजन्मसु 'दुश्चरितानां प्रमादकषायजदुश्चरितजनितानि दुश्चरितानि, कारणे कार्योपचारात, दुचरितहेतूनि वा दुश्चरितानि, कार्य कारणोपचारात्, एवं 'दुष्पराकान्ताना' मिथ्या-IN दर्शनाविरतिजदुष्पराक्रान्तजनितानि दुष्पराक्रान्तानि, हेतौ फलोपचारात्, दुष्पराक्रान्तहेतूनि वा दुष्परा-13 क्रान्तानि, फले हेतूपचारात् , इह च दुचरितानि मद्यपानाश्लीलानृतभाषणादीनि, दुष्पराक्रान्तानि वधवधनादीनि, तदमीषामेवभूतानां कर्मणां 'वेदायित्वा' अनुभूय, फलमिति वाक्यशेषः, किम् ?–'मोक्षो भवति । प्रधानपुरुषार्थों भवति 'नास्त्यवेदायित्वा' न भवत्यननुभूय, अनेन सकर्मकमोक्षव्यवच्छेदमाह, इष्यते च खल्प-13 कोपेतानां कैश्चित्सहकारिनिरोधतस्तत्फलादानवादिभिस्तत्, तदपि नास्त्ययेदयित्वा मोक्षा, तथारूपत्त्वात् कर्मणः, स्वफलादाने कर्मत्वायोगात्, 'तपसा वा क्षपयित्वा' अनशनप्रायश्चित्तादिना वा विशिष्टक्षायोपशमिकशुभभावरूपेण तपसा प्रलयं नीखा, इह च वेदनमुदयप्राप्तस्य व्याघेरिवानारब्धोपक्रमस्य क्रमशः, अन्या-18 निबन्धनपरिक्लेशेन, तपाक्षपणं तु सम्यगुपक्रमेणानुदीर्णोदीरणदोषक्षपणवदन्यनिमित्तप्रक्रमेणापरिक्लेशमिति, अतस्तपोऽनुष्ठानमेव श्रेय इति न किंचिद्गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति 'अष्टादशं पदं भवति' अष्टादशं स्थानं भवति १८ । 'भवति चात्र श्लोका' अत्रेत्यष्टादशस्थानार्थव्यतिकरे, उक्तानुक्तार्थसंग्रहपर इत्यर्थः, श्लोक इति च जातिपरो निर्देशः, ततः श्लोकजातिरनेकभेदा भवतीति प्रभूतश्लोकोपन्यासेऽपि न विरोधः ।। दीप अनुक्रम [५०६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~550~ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) चूलिका [१], मूलं [१...], / गाथा ||१-८|| नियुक्ति: [३६७...], भाष्यं [६२...] (४२) दशवैका. हारि-वृत्तिः रतिवाक्यचूला. 5453454643 प्रत सूत्रांक ||१८|| ॥२७४॥ जया य चयई धम्म, अणज्जो भोगकारणा । से तत्थ मुच्छिए बाले, आयई नावबुज्झइ ॥१॥ जया ओहाविओ होइ, इंदो वा पडिओ छमं । सव्वधम्मपरिब्भट्ठो, स पच्छा परितप्पइ ॥२॥ जया अ वंदिमो होइ, पच्छा होइ अवंदिमो । देवया व चुआ ठाणा, स पच्छा परितप्पइ ॥३॥ जया अपूइमो होइ, पच्छा होइ अपूइमो। राया व रजपब्भट्ठो, स पच्छा परितप्पइ ॥४॥ जया अ माणिमो होइ, पच्छा होइ अमाणिमो । सिद्धि व्व कब्बडे छुढो, स पच्छा परितप्पइ ॥ ५॥ जया अ थेरओ होइ, समइकंतजुव्वणो । मच्छु व्व गलं गिलित्ता, स पच्छा परितप्पड़ ॥६॥ जया अ कुकुडुंबस्स, कुतत्तीहिं विहम्मइ । हत्थी व बंधणे बद्धो, स पच्छा परितप्पइ ॥७॥ पुत्तदारपरीकिण्णो, मोहसंताणसंतओ। पंकोसन्नो जहा नागो, स पच्छा परितप्पड़ ॥८॥ यदा चैवमप्यष्टादशसु ग्यावर्तनकारणेषु सत्खपि 'जहाति' त्यजति 'धर्म' चारित्रलक्षणम् 'अनार्य' इत्य-12 दीप अनुक्रम [५०७ -५१४] WI॥२४॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~5514 Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति:) चूलिका [१], मूलं [१...', / गाथा ||१-८|| नियुक्ति: [३६७...],_भाष्यं [६२...] (४२) E- प्रत सूत्रांक ||१८|| भनार्य इवानार्यो-म्लेच्छचेष्टितः, किमर्थमित्याह-भोगकारणात् शब्दादिभोगनिमित्तं 'स' धर्मत्यागी तत्र तेषु भोगेषु 'मूच्छितो' गृद्धो बाला' मन्दः 'आयतिम् आगामिकालं 'नाववुद्ध्यते' न सम्यगवगच्छतीति मूवार्थः॥१॥ एतदेव दर्शयति-यदा 'अवधाचितः' अपमृतो भवति संयमसुखविभूतेः, उत्पवजित इत्यर्थः, इन्द्रो वेति देवराज इव 'पतितः क्षमा मां गतः, स्खविभवभ्रंशेन भूमी पतित इति भावः, मा-भूमिः ।। 'सर्वधर्मपरिभ्रष्टा' सर्वधर्मेभ्य:-क्षान्त्यादिभ्य आसेवितेभ्योऽपि यावत्प्रतिज्ञमननुपालनात् लौकिकेभ्योऽपि वा गौरवादिभ्यः परिभ्रष्ट:-सर्वतश्युतः, स पतितो भूत्वा 'पश्चात्' मनाग मोहावसाने 'परितप्यते' किमिदमकार्य मयाऽनुष्ठितमित्यनुतापं करोतीति सूत्रार्थः॥२॥ यदा च वन्द्यो भवति श्रमणपर्यायस्थो नरेन्द्राकादीनां पश्चाद्भवत्युनिष्क्रान्तः सनवन्धः तदा देवतेव काचिदिन्द्रवर्जा स्थानच्युता सती स पश्चास्परितप्यत | इत्येतत्पूर्वेचदेवेति सूत्रार्थः ॥ ३॥ तथा यदा च पूज्यो भवति-वनभक्तादिभिः श्रामण्यसामथ्योल्लोकानां पश्चाद्भवत्युत्प्रवजितः सन्मपूज्यो लोकानामेव तदा राजेच राज्यप्रनष्टः महतो भोगाद्विपमुक्तः स पश्चास्परितप्यत इति पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ॥ ४॥ यदा च मान्यो भवत्यभ्युत्थानाज्ञाकरणादिना माननीयः शीलप्रभावेण पश्चाद्रवत्यमान्यस्तत्परित्यागेन तदा श्रेष्ठीव 'क' महाक्षुद्रसंनिवेशे क्षिप्सः सन, पश्चात्परितप्यत इत्येतत्समानं पूर्वेणेति सूत्रार्थः ॥५॥ यदा च स्थविरो भवति स वक्तसंयमो चयापरिणामेन, एत|द्विशेषप्रतिपादनायाह-समतिक्रान्तयौवना, एकान्तस्थविर इति भावः, तदा विपाककटुकवादोगानां मत्स्य RENA दीप अनुक्रम [५०७ 645 -५१४] Eramin मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~552~ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति:) चूलिका [१], मूलं [१...], / गाथा ||१-८||. नियुक्ति: [३६७...]. भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||१८|| दशवैकाइव 'गलं' पडिशं 'गिलित्वा' अभिगृह्य तथाविधकर्मलोहकण्टकविद्धः सन् स पश्चास्परितप्यत इत्येतदपि१रतिवाहारि-वृत्तिः समानं पूर्वेणेति सूत्रार्थः ॥६॥ एतदेव स्पष्टयति-यदा च 'कुकुटुम्बस्य' कुत्सितकुटुम्बस्य कुतप्तिभिः-कु त्सितचिन्ताभिरात्मनः संतापकारिणीभिर्विहन्यते-विषयभोगान् प्रति विघातं नीयते तदा स मुक्तसंयमः ॥२७५॥ सन् परितप्यते पश्चात्, क इव ?-यथा हस्ती कुकुटुम्बवन्धनयद्धः परितप्यते ॥ ७॥ एतदेव स्पष्टयति-पुहैत्रदारपरिकीर्णो' विषयसेवनात्पुत्रकलबादिभिः सर्वतो विक्षिप्तः 'मोहसंतानसंततो' दर्शनादिमोहनीयकर्म प्रवाहेण व्याप्तः, क इव-पावसनो नागो यथा' कर्दमावमग्नो वनगज इव स पश्चात्परितप्यते-हा हा* ४/किं मयेदमसमञ्जसमनुष्ठितमिति सूत्रार्थः ॥ ८॥ अज आहं गणी हुँतो, भाविअप्पा बहुस्सुओ । जइऽहं रमतो परिआए, सामण्णे जिणदेसिए ॥९॥ देवलोगसमाणो अ, परिआओ महेसिणं । रयाणं अरयाणं च, महानरयसारिसो ॥ १०॥ अमरोवमं जाणिअ सुक्खमुत्तम, रयाण परिआइ तहाऽरयाणं । निरओवमं जाणिअ दुक्खमुत्तम, रमिज तम्हा परिआइ पंडिए ॥ ११ ॥धम्माउ भटुं सिरिओ अवेयं, जन्नग्गिविज्झाअमिवऽप्पते । हीलंति णं दुविहिअं दीप अनुक्रम [५०७ CA -५१४] ॥२७५ Eramin मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~553~ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) चूलिका [१], मूलं [...], / गाथा ||९-१४||, नियुक्ति: [३६७...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||९-१४|| कुसीला, दाढहि घोरविसं व नागं ॥ १२॥ इहेवऽधम्मो अयसो अकित्ती, दुनामधिजं च पिहुजणंमि । चुअस्स धम्माउ अहम्मसेविणो, संभिन्नवित्तस्स य हिट्रओ गई ॥ १३ ॥ भुंजिनु भोगाई पसज्झचेअसा, तहाविहं कडु असंजमं बहुं । गई च गच्छे अणभिज्झिअं दुहं, बोही अ से नो सुलहा पुणो पुणो ॥१४॥ कश्चित् सचेतनतर एवं च परितप्यत इत्याह-'अव तावदहम्' अद्य-अस्मिन् दिवसे अहमित्यात्मनिर्देशे गणी स्याम्-आचार्यों भवेयम् “भावितात्मा' प्रशस्तयोगभावनाभिः 'बहुश्रुत उभयलोकहितवहागमयुक्ता, यदि किं स्थादित्यत आह-ययहम् 'अरमिष्यं रतिमकरिष्यं 'पर्यायें प्रव्रज्यारूपे, सोऽनेकभेद इत्याहIMI श्रामण्ये श्रमणानां संबन्धिनि, सोऽपि शाक्यादिभेदभिन्न इत्याह-'जिनदेशिते' निर्ग्रन्थसंबन्धिनीति सूत्रार्थः ॥९॥ अवधानोत्प्रेक्षिणः स्थिरीकरणार्थमाह-देवलोकसमानस्तु देवलोकसदृश एवं 'पर्याय प्रत्रज्यारूप: 'महर्षीणां सुसाधूनां 'रताना सक्तानां, पर्याय एवेति गम्यते, एतदुक्तं भवति-पथा देवलोके देवाः प्रेक्षणकादिव्यापृता अदीनमनसस्तिष्ठन्त्येवं सुसाधवोऽपि ततोऽधिकं भावतः प्रत्युपेक्षणादिक्रियायां व्यापूताः, उपादेयविशेषत्वात् प्रत्युपेक्षणादेरिति देवलोकसमान एव पर्यायो महर्षीणां रतानामिति । 'अरतानां च भावतः सामाचार्यामसक्तानां च, चशब्दाद्विषयाभिलाषिणां च भगवल्लिङ्गविडम्बकानां क्षुद्रस दीप अनुक्रम [५१५-५२० ESSAGAR Liam Ekatan.in मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~554~ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) चूलिका [१], मूलं [१], / गाथा ||९-१४||, नियुक्ति: [३६७...], भाष्यं [६२...] (४२) दशवैका० हारि-वृत्तिः ॥२७६॥ प्रत सूत्रांक ||९-१४|| वानां 'महानरकसदृशो' रौरवादितुल्यस्तत्कारणत्वान्मानसदुःखातिरेकात् तथा विडम्बनाचेति सूत्रार्थः४१रतिवा॥१०॥ एतदुपसंहारेणैव निगमयन्नाह-अमरोपमम्' उक्तन्यायाद्देवसदृशं 'ज्ञात्वा विज्ञाय 'सौख्यमुत्तम क्यचूला० प्रशमसौख्यं, केषामित्याह-'रतानां पर्याये सक्तानां सम्यक्प्रत्युपेक्षणादिक्रियाव्यङ्गये श्रामण्ये, तथा अर-12 तानां पर्याय एव, किमित्याह-'नरकोपमं नरकतुल्यं ज्ञात्वा दुःखम् 'उत्तम प्रधानमुक्तन्यायात्, यस्मादेवं रतारतविपाकस्तस्माद् 'रमेत सक्तिं कुर्यात्, केत्याह-'पर्यायें उक्तखरूपे 'पण्डितः शास्त्रार्थज्ञ इति सूत्रार्थः ॥२१॥ पर्यायच्युतस्यैहिक दोषमाह-'धर्मात्' श्रमणधर्माद 'भ्रष्टं' कयुतं श्रियोऽपेतं तपोलक्ष्म्या अपगतं | 'यज्ञाग्निम् अग्निष्टोमाद्यनलं विध्यातमिव यागावसानेऽल्पतेजसम्, अल्पशब्दोऽभावे, तेजःशून्यं भस्मकल्पमित्यर्थः 'हीलयन्ति' कदर्थयन्ति, पतितस्त्वमिति पयपसारणादिना, एनम् उन्निष्क्रान्तं 'दुर्विहितम्' उन्निष्क्रमणादेव दुष्टानुष्ठायिनं 'कुशीला तत्सङ्गोचिता लोकाः, स एव विशेष्यते-'दादुहिति प्राकृत |शैल्या उद्धृतदंष्ट्रम्-उत्खातदंष्ट्र 'घोरविषमिव' रौद्रविषमिव 'नाग' सर्प, यज्ञाग्निसोपमानं, लोकनीत्या प्रधानभावादप्रधानभावण्यापनार्थमिति सूत्रार्थः ॥१२॥ एवमस्य भ्रष्टशीलस्यौघत ऐहिकं दोषमभिधायैहिकामुष्मिकमाह-इहैच' इहलोक एव 'अधर्म' इत्ययमधर्मः, फलेन दर्शयति-यदुत 'अयश' अपराक्रमकृतं ॥२७६॥ न्यूनत्वं तथा 'अकीर्सि:' अदानपुण्यफलप्रवादरूपा तथा 'दुर्नामधेयं च पुराणः पतित इति कुत्सितनामधेयं च भवति, केत्याह-'पृथग्जने' सामान्यलोकेऽप्यास्तां विशिष्टलोके, कस्पेत्याह-'कयुतस्य धर्मादू' उ दीप अनुक्रम [५१५-५२० SANA SCHACRESCROR imElicathani मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~555~ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) चूलिका [१], मूलं [१], / गाथा ||९-१४||, नियुक्ति: [३६७...], भाष्यं [६२...] (४२) प्रत सूत्रांक ||९-१४|| मात्प्रवजितस्येत्यर्थः, तथा 'अधर्मसेविनः' कलत्रादिनिमित्तं षट्कायोपमईकारिणः, तथा 'संभिन्नवृत्तस्य च अखण्डनीयखण्डितचारित्रस्य च क्लिष्टकर्मवन्धाद् 'अधस्ताद्गतिः नरकेधूपपात इति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ अस्यैव विशेषप्रत्यपायमाह-'स' उत्पवजितो भुक्त्वा 'भोगान्' शब्दादीन् 'प्रसह्यचेतसा धर्मनिरपेक्षतया प्रकटेन चित्तेन तथाविधम् अज्ञोचितमधर्मफलं 'कृत्वा' अभिनिर्वर्त्य 'असंयम कृष्याद्यारम्भरूपं 'बहुम्' असंतोपात्प्रभूतं स इत्थंभूतो मृतः सन् गतिं च गच्छति 'अनभिध्याताम्' अभिध्याता-इष्टा न तामनिष्टामित्यर्थः, काचित्सुखाऽप्येवंभूता भवत्यत आह–'दुःखां प्रकृत्यैवासुन्दरां दुःखजननी, 'बोधिश्चास्य' जिनधर्मप्राप्तिधायोनिष्क्रान्तस्य न सुलभा 'पुनः पुनः' प्रभूतेष्वपि जन्मसु दुर्लभैव, प्रवचनविराधकत्वादिति सूत्रार्थः ॥१४॥ इमस्स ता नेरइअस्स जंतुणो, दुहोवणीअस्स किलेसवत्तिणो । पलिओवमं झिज्झइ सागरोवमं, किमंग पुण मज्झ इमं मणोदुहं ? ॥ १५॥ न मे चिरं दुक्खमिणं भविस्सइ, असासया भोगपिवास जंतुणो। न चे सरीरेण इमेणऽविस्सइ, अविस्सई जीविअपज्जवेण मे ॥ १६ ॥ जस्सेवमप्पा उ हविज निच्छिओ, चइज देहं न हु धम्मसासणं । तं तारिस नो पइलंति इंदिआ, उविंतवाया व सुदंसणं गिरिं ॥ १७ ॥ दीप अनुक्रम [५१५-५२० दश०४७ Edream मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~556~ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) चूलिका [१], मूलं [१], / गाथा ||१५-१८||, नियुक्ति: [३६७...], भाष्यं [६२...] (४२) १रतिवाक्यचूला प्रत सूत्रांक ||१५-१८|| दशवैका इच्चेव संपस्सिअ बुद्धिमं नरो, आयं उवायं विविहं विआणिआ । कारण वाया अदु हारि-वृत्तिः माणसेणं, तिगुत्तिगुत्तो जिणवयणमहिट्ठिजासि ॥ १८॥ त्ति बेमि ॥ रइवक्का पढमा ॥२७७॥ चूला समत्ता ॥१॥ यस्मादेवं तस्मादुत्पन्नदुःखोऽप्येतदनुचिन्त्य नोत्पबजेदित्याह-'अस्य ताव'दित्यात्मन एव निर्देशः, 'नारकस्य जन्तोः' नरकमनुप्राप्तस्येत्यर्थः 'दुःखोपनीतस्य सामीप्येन प्राप्तदुःखस्य 'क्लेशवृत्तेः' एकान्तक्लेशचेष्टितस्य |सतो नरक एच पल्योपमं क्षीयते सागरोपमं च यथाकर्मप्रत्ययं, किमङ्ग पुनर्ममेदं संयमारतिनिष्पन्नं मनोदुःखं है तथाविधक्लेशदोषरहितम्, एतत्क्षीयत एच, एतचिन्तनेन नोत्पवजितव्यमिति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ विशेषेणै तदेवाह-न मम 'चिरं' प्रभूतकालं 'दुःखमिदं संयमारतिलक्षणं भविष्यति, किमित्यत आह–'अशाश्वती' मायो यौवनकालावस्थायिनी 'भोगपिपासा' विषयतृष्णा 'जन्तोः पाणिनः, अशाश्वतीत्व एव कारणान्तरमाह-'न चेच्छरीरेणानेनापयास्यति' न यदि शरीरेणानेन करणभूतेन वृद्धस्यापि सतोऽपयास्यति, तथापि किमाकुलत्वम् ?, यतोऽपयास्यति 'जीवितपर्ययेण' जीवितस्थापगमेन-मरणेनेत्येवं निश्चितः स्यादिति सूत्रा) ॥१६॥ अस्यैव फलमाह-'तस्येति साधोः 'एवम् उक्तेन, 'आत्मा तु' तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् आत्मैव है भवेत् 'निश्चितो' दृढः यः स त्यजेद्देहं कचिद्विप्न उपस्थिते, 'न तु धर्मशासनं न पुनर्धाज्ञामिति, तं 'तादृशं' LOGANSCORGk दीप अनुक्रम [५२१-५२४] Eramirar मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~557~ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ॥१५ -१८|| दीप अनुक्रम [५२१ -५२४] Education inte “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) चूलिका [१], मूलं [१], / गाथा ||१५-१८]], निर्युक्ति: [३६७...], भाष्यं [६२...] धर्मे निश्चितं 'न प्रचालयन्ति' संगमस्थानान्न कम्पयन्ति 'इन्द्रियाणि' चक्षुरादीनि । निदर्शनमाह – 'उत्पतद्वाता इव संपतत्पवना इव 'सुदर्शनं गिरिं' मेरुम्, एतदुक्तं भवति-यथा मेरुं न वाताश्चालयन्ति तथा तमपीन्द्रियाणीति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ उपसंहरन्नाह - 'इत्येवम्' अध्ययनोक्तं दुष्प्रजीवित्वादि 'संप्रेक्ष्य' आदित आरभ्य यथावद्दृष्ट्वा 'बुद्धिमान्नरः' सम्यग बुद्ध्युपेतः 'आयमुपायं विविधं विज्ञाय' आयः सम्यग्ज्ञानादेः उपायः तत्साधनप्रकारः कालविनयादिर्विविधः - अनेकप्रकारस्तं ज्ञात्वा, किमित्याह-कायेन वाचाऽथ मनसा-त्रिभिरपि करणैर्यथाप्रवृत्तैखिगुप्सिगुप्तः सन् 'जिनवचनम्' अर्हदुपदेशम् 'अधितिष्ठेत्' यथाशक्त्या तदुक्तैकक्रियापालनपरो भूयात् भावायसिद्धौ तत्त्वतो मुक्तिसिद्धेः । ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥ १८ ॥ उक्तोऽनुगमः, साम्प्रतं नयाः, ते च पूर्ववदेव । समाप्तं रतिवाक्याध्ययनमिति ॥ १ ॥ ॥ इति श्रीदशवैकालिके श्रीहरिभद्रसूरिविरचितवृहद्वृत्यां प्रथमा चूलिका ॥ १ ॥ अथ द्वितीया चूलिका । व्याख्यातं प्रथमचूडाध्ययनम्, अधुना द्वितीयमारभ्यते, अस्य चौघतः संबन्धः प्रतिपादित एव, विशेषतस्त्वनन्तराध्ययने सीदतः स्थिरीकरणमुक्तम्, इह तु विविक्तचर्योच्यत इत्ययमभिसंबन्धः, एतदेवाह भाष्यकारः Far P&Personal Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४२], मूल सूत्र - [3] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः चूलिका -२ "विविक्तचर्या" आरभ्यते ~558~ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ॥१-४|| दीप अनुक्रम [ ५२५ -५२८] दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ २७८ ॥ Ja Edocanon) “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य |+वृत्तिः) चूलिका [२], मूलं [१...], / गाथा ||१-४||, निर्युक्तिः [३६७...], भाष्यं [ ६३ ] अहिगारो yoga हो विभचुलिअज्झयणे । सेसाणं दाराणं अह्कर्म फासणा होइ ॥ ६३ ॥ (भाष्यम्) 'अधिकार' - ओतः प्रपञ्चप्रस्तावरूपः 'पूर्वोक्तों' रतिवाक्यचूडायां प्रतिपादितः 'चतुर्विधो' नामचूडा स्थापनाचूडेत्यादिरूपो यथा द्वितीयचूडाध्ययने आदानपदेन चूलिकाख्येन, सानुयोगद्वारोपन्यासस्तथैव वक्तव्य इति वाक्यशेषः 'शेषाणां द्वाराणां सूत्रालापकगत निक्षेपादीनां 'यथाक्रमं यथाप्रस्ताव स्पर्शना- ईषद् व्याख्यादिरूपा भवतीति गाथार्थः ॥ अत्र च व्यतिकरे सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारणीयं तच्चेदम्चूलिअं तु पवक्खामि, सुअं केवलिभासिअं । जं सुणित्तु सुपुण्णाणं, धम्मे उप्पज्जए मई ॥ १ ॥ अणुसोअपट्टिअबहुजणंमि, पडिसोअदलक्खेणं । पडिसोअमेव अप्पा, दायव्वो होउकामेणं ॥ २ ॥ अणुसोअसुहो लोओ, पडिसोओ आसवो सुविहिआणं । अणुसोओ संसारो, पडिसोओ तस्स उत्तारो ॥ ३ ॥ तम्हा आयारपरक्कमेणं संवरसमाहिबहुलेणं । चरिआ गुणा अ नियमा अ हुंति साहूण दट्टव्वा ॥ ४ ॥ 'चूडां तु प्रवक्ष्यामि' चूडां प्राग्व्यावर्णित शब्दार्थी तुशब्दविशेषितां भावचूडां प्रवक्ष्यामीति - प्रकर्षेणावसरप्राप्ताभिधानलक्षणेन कथयामि, 'श्रुतं केवलिभाषित मिति इयं हि चूडा 'श्रुतं' श्रुतज्ञानं वर्त्तते, कारणे कार्योपचारात्, एतच केवलिभाषितम्- अनन्तरमेव केवलिना प्ररूपितमिति सफलं विशेषणम् । एवं च वृ Far P&Pasal City मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४२], मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः ~559~ २ विविक्तचर्याचूला ॥ २७८ ॥ way Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) चूलिका [२], मूलं [१... / गाथा ||१-४||, नियुक्ति: [३६७...], भाष्यं [६३...] (४२) प्रत सूत्रांक ||१-४|| &ाबाद:-कयाचिदार्ययाऽसहिष्णुः कुरगडकमायः संयतश्चातुर्मासिकादावुपवासं कारितः, स तदाराधनया| मृत एव, ऋषिघातिकाऽहमित्युद्विग्ना सा तीर्थकरं पृच्छामीति गुणावर्जितदेवतया नीता श्रीसीमन्धरस्वामिसमीपं, पृष्टो भगवान् , अदुष्टचित्ताऽघातिकेत्यभिधाय भगवतेमां चूडां ग्राहितेति । इदमेव विशेष्यते-'य छुत्वे ति यच्छ्रुत्वाऽऽकार्य 'सुपुण्यानां कुशलानुबन्धिपुण्ययुक्तानां प्राणिनां 'धर्म' अचिन्त्यचिन्तामणिककल्पे चारित्रधर्मे 'उत्पद्यते मतिः' संजायते भावतः श्रद्धा । अनेन चारित्रं चारित्रवीजं चोपजायत इत्येतदुक्तं भवतीति सूत्रार्थः ॥ १॥ एतद्धि प्रतिज्ञासूत्रम्, इह चाध्ययने चर्यागुणा अभिधेयाः, तत्प्रवृत्तौ मूलपादभूहै तमिदमाह-'अनुस्रोतःपस्थिते' नदीपूरप्रवाहपतितकाष्ठव विषयकुमार्गद्रव्यक्रियानुकूल्येन प्रवृत्ते 'बहुजन तथाविधाभ्यासात् प्रभूतलोके तथाप्रस्थाने नोदधिगामिनि, किमित्याह-'प्रतिस्रोतोलब्धलक्ष्येण' द्रव्यतस्तस्थामेव नद्यां कथञ्चिद्देवतानियोगात्मतीपस्रोतःप्राप्तलक्ष्येण, भावतस्तु विषयादिवपरीत्यात्कथंचिदवाप्तसंयमलक्ष्येण 'प्रतिस्रोत एवं' दुरपाकरणीयमप्यपाकृत्य विषयादि संयमलक्ष्याभिमुखमेव 'आत्मा' जीवो 'दातव्यः'। प्रवर्त्तयितव्यो 'भवितुकामेन' संसारसमुद्रपरिहारेण मुक्ततया भवितुकामेन साधुना, न क्षुद्रजनाचरितान्यु-17 दाहरणीकृत्यासन्मार्गप्रवर्ण चेतोऽपि कत्तेंव्यम्, अपित्वागमैकमवणेनैव भवितव्यमिति, उक्तंच-"निमि-16 तमासाद्य पदेव किश्चन, स्वधर्ममार्ग विसृजन्ति बालिशाः । तपाश्रुतज्ञानधनास्तु साधयो, न यान्ति कृच्छ परमेऽपि विक्रियाम् ॥१॥ तथा-कपालमादाय विपन्नवाससा, वरं द्विषद्वेश्मसमृद्धिरीक्षिता । विहाय लज्जा दीप अनुक्रम [५२५-५२८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 560~ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य|+वृत्ति:) चूलिका [२], मूलं [१...], / गाथा ||१-४||, नियुक्ति: [३६७...], भाष्यं [६३...] (४२) प्रत सूत्रांक ||१-४|| दशबैका न तु धर्मवैशसे, सुरेन्द्रता(सा)र्थेऽपि समाहितं मनः ॥२॥ तथा-पापं समाचरति वीतघृणो जघन्यः, प्राप्यापदं २ विविक्तहारि-वृत्तिः सघृण एव विमध्यबुद्धिः। प्राणाल्ययेऽपि न तु साधुजनः खवृत्तं, वेला समुद्र इव लयितुं समर्थः ॥३॥" चयोचूला इत्यलं प्रसनेनेति सूत्रार्थः ॥२॥ अधिकृतमेव स्पष्टयन्नाह–अनुस्रोतःसुखो लोकः' उदकनिम्नाभिसर्पणवत् ॥२७९॥ प्रवृत्त्याऽनुकूलविषयादिसुखो लोका, कर्मगुरुत्वात्, 'प्रतिस्रोत एव' तस्माद्विपरीतः 'आश्रवः' इन्द्रियजया-10 |दिरूपः परमार्थपेशला कायवाङ्मनोव्यापार: 'आश्रमो वा' व्रतग्रहणादिरूपः 'सुविहितानां साधूनाम् , उभ-12 टायफलमाह-'अनस्रोतः संसार' शब्दादिविषयानुकूल्यं संसार एव, कारणे कार्योपचारात्, यथा विष8 मृत्युः दधि त्रपुषी प्रत्यक्षो ज्वरः, 'प्रतिस्रोतः' उक्तलक्षणः, तस्येति पञ्चम्यर्थे षष्ठी 'सुपा सुपो भवन्तीति वच-16 नात्, 'तस्मात् संसाराद् 'उत्तारः' उत्तरणमुत्तारः, हेती फलोपचारात् यथाऽऽयुर्घतं तन्दुलान्वर्षति पर्जन्य इति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ यस्मादेतदेवमनन्तरोदितं तस्मात् 'आचारपराक्रमेणे'त्याचारे-ज्ञानादौ पराक्रमः-प्रवृतिबलं यस्य स तथाविध इति, गमकत्वाहहुव्रीहिः, तेनैवंभूतेन साधुना 'संवरसमाधियाहुलेनेति संवरे-इ|न्द्रियादिविषये समाधिः-अनाकुलवं बहुलं-प्रभूतं यस्य स इति, समासः पूर्ववत्, तेनैवंविधन सता अप्र-19 दातिपाताय विशुद्धये च, किमित्याह-चयों भिक्षुभावसाधनी वाद्याऽनियतवासादिरूपा गुणाध-मूलगुणो-18 तरगुणरूपाः नियमाश्च-उत्तरगुणानामेव पिण्डविशुद्धयादीनां खकालासेवननियोगाः भवन्ति साधूनां द्रष्टव्या' इत्येते चर्यादयः साधूनां द्रष्टव्या भवन्ति, सम्यग्ज्ञानासेवनप्ररूपणारूपेणेति सूत्रार्थः ॥ ४॥ दीप अनुक्रम [५२५-५२८] Eri मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 561~ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) चूलिका [२], मूलं [...]. / गाथा ||५-९||, नियुक्ति: [३६७...], भाष्यं [६३...] (४२) प्रत सूत्रांक ||५-९|| अनिएअवासो समुआणचारिआ, अन्नायउंछ पइरिक्कया अ । अप्पोवही कलहविवजणा अ, विहारचरिआ इसिणं पसत्था ॥ ५॥ आइन्नओमाणविवजणा अ, ओसनदिद्वाहडभत्तपाणे । संसट्रकप्पेण चरिज भिक्खू, तजायसंसट जई जइजा ॥६॥ अमजमसासि अमच्छरीआ, अभिक्खणं निविगई गया अ । अभिक्खणं काउस्सग्गकारी, सज्झायजोगे पयओ हविजा ॥ ७॥ण पडिन्नविजा सयणासणाई, सिर्ज निसिजं तह भत्तपाणं । गामे कुले वा नगरे व देसे, ममत्तभावं न कहिँपि कुज्जा ॥८॥ गिहिणो वेआवडिअं न कुजा, अभिवायणवंदणपूअणं वा । असंकिलिटेहिं समं वसिज्जा, मुणी चरित्तस्स जओ न हाणी ॥९॥ चर्यामाह-अनियतवासो मासकल्पादिना 'अनिकेतवासो वा' अगृहे-उद्यानादी वासः, तथा 'समुदान|चर्या' अनेकत्र याचितभिक्षाचरणम् 'अज्ञातोञ्छ' विशुद्धोपकरणग्रहणविषय, 'पइरिक्कया य' विजनैकान्तसेविता च 'अल्पोपधित्वम् अनुल्बणयुक्तस्तोकोपधिसेवित्वं 'कलहविवर्जना च' तथा तद्बासिना भण्डनविव दीप अनुक्रम [५२९-५३३]] 5-48 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~562~ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) चूलिका [२], मूलं [१..], / गाथा ||५-९||, नियुक्ति: [३६८], भाष्यं [६३...] (४२) प्रत सूत्रांक ||५-९|| दशवका जना, विधर्जनं विवर्जना श्रवणकथनादिना परिवर्जनमित्यर्थः। विहारचर्या विहरणस्थितिर्विहरणमर्यादा हयम र विविक्तहारि-वृत्तिःएवंभूता 'ऋषीणां साधूनां प्रशस्ता-व्याक्षेपाभावात् आज्ञापालनेन भावचरणसाधनात्पवित्रेति सूत्रार्थःचोचूला MINI॥५॥ इयं साधूनां विहारचर्येति सूत्रस्पर्शनमाह दव्ये सरीरभविओ भावेण थ संजओ इहं तस्स । पगहिआ पगहिआ विहार चरिआ मुणेभव्या । ३६८ ॥ साधूनां विहारचर्याऽधिकृतेति साधुरुच्यते, स च द्रव्यतो भावतश्च, तत्र 'द्रव्य इति द्वारपरामर्शः, 'शरीरभव्य' इति मध्यमभेदत्वादागमनोआगमज्ञशरीरभव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तद्रव्यसाधूपलक्षणमे तत्, "भावेन चेति द्वारपरामर्शः, स एव 'संयत' इति संयतगुणसंवेदको भावसाधुः । इह' अध्ययने 'तस्य' इभावसाधोः 'अवगृहीता' उद्यानारामादिनिवासायनियता 'प्रगृहीता' तत्रापि विशिष्टाभिग्रहरूपा उत्कटुकासनादिविहारचयों 'मन्तव्या' बोद्धव्येति गाथार्थः ॥ सा चेयमिति सूत्रस्पर्शनाह अणिए पइरिक अण्णायं सामुआणिों उंछं । अप्पोवही अकलहो विहारचरिआ इसिपसत्था ।। ३६९ ।। XI व्याख्या सूत्रवदवसेया । अवयवाक्रमस्तु गाथाभङ्गभयाद्, अर्थतस्तु सूत्रोपन्यासवद्रष्टव्य इति ॥ 'विहा-3 रचर्या ऋषीणां प्रशस्ते'त्युक्तं तद्विशेषोपदर्शनायाह-'आकीर्णावमानविवर्जना चं' विहारचर्या ऋषीणां प्रशस्तेति, तत्राकीर्ण-राजकुलसंखड्यादि अवमानं-खपक्षपरपक्षमाभूख्य लोकाचहुमानादि, अस्य विवर्जना, १ कथादिना बि० । परिव प्र. दीप अनुक्रम [५२९-५३३]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 563~ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) चूलिका [२], मूलं [...], / गाथा ||१-९||, नियुक्ति: [३६९], भाष्यं [६३...] (४२) प्रत सूत्रांक ||५-९|| आकीर्णे हस्तपादादिलूषणदोषात् अवमाने अलाभाधाकर्मादिदोषादिति । तथा 'उत्सन्नदृष्टाहत' प्राय उप-13 लब्धमुपनीतम् , उत्सन्नशब्दः प्रायो वृत्ती वर्तते, यथा-"देवा ओसन्नं सायं वेयणं वेएंति" किमेतदित्याह-8 भक्तपानम्' ओदनारनालादि, इदं चोत्सन्नदृष्टाहृतं यत्रोपयोगः शुद्ध्यति, त्रिगृहान्तरादारत इत्यर्थः, 'मिमक्खग्गाही एगत्य कुणइ बीओ अ दोसुमुवओग'मिति वचनात्, इत्येवंभूतमुत्सन्नं दृष्टाहतं भक्तपानमृषीणां प्रशस्तमिति योगः, तथा 'संसृष्टकल्पेन' हस्तमात्रकादिसंसृष्टविधिना चरेझिक्षुरित्युपदेशः, अन्यथा पुरःकमादिदोषात्, संसृष्टमेव विशिनष्टि-तनातसंसृष्ट' इत्यामगोरसादिसमानजातीयसंसृष्टे हस्तमात्रकादौ यतिः 'यतेत' यत्नं कुर्यात्, अतजातसंसृष्टे संसर्जनादिदोषादित्यनेमाष्टमङ्गसूचनं, तद्यथा-संसट्टे हत्थे संसट्टे मत्ते सायसेसे दव्वे' इत्यादि, अत्र प्रथमभङ्गः श्रेयान, शेषास्तु चिन्त्या इति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ उपदेशाधिकार एवेदमाह-अमद्यमांसाशी भवेदिति योगः, अमद्यपोऽमांसाशी च स्यात्, एते च मद्यमांसे लोकागमप्रतीते एव, ततश्च यत्केचनाभिदधति-आरनालारिष्ठांद्यपि संधानाद ओदनाद्यपि प्राण्यङ्गत्वात्त्याज्यमिति, तदसत्, अमीषां मद्यमांसवायोगात्, लोकशास्त्रयोरप्रसिद्धत्वात्, संधानप्राण्यङ्गखतुल्यत्वचोदना त्वसाध्वी, अतिप्रसङ्गदोषात्, द्रवस्वस्त्रीत्वतुल्यतया मूत्रपानमातृगमनादिप्रसङ्गादित्यलं प्रसङ्गेन, अक्षरगमनि देवा उत्सनं सातवेदनां वेदसन्ति. २ भिक्षाग्राही एकत्र करोति द्वितीयष दूयोरुपयोगम्, ३ संसृष्टो इस्तः संसान मात्र गावशेष इलाम्. ४तके इभेने इत्युक्तेलकम् आदिना दध्यादि. दीप अनुक्रम [५२९-५३३]] Liam Elicatem.indi मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~564~ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) चूलिका [२], मूलं [१..], / गाथा ||५-९||, नियुक्ति: [३६९], भाष्यं [६३...] (४२) प्रत सूत्रांक ||५-९|| - दशका०13कामात्रप्रकमात् । तथा 'अमत्सरी च'न परसंपद्वेषी च स्यात्, तथा 'अभीक्ष्ण' पुनः पुनः पुष्टकारणाभावे | २ विविक्तहारि-वृत्तिनिर्विकृतिकश्च' निर्गतविकृतिपरिभोगश्च भवेत्, अनेन परिभोगोचितविकृतीनामप्यकारणे प्रतिषेधमाह. चयोचूला तथा 'अभीक्ष्णं' गमनागमनादिषु, विकृतिपरिभोगेऽपि चान्ये, किमित्याह-कायोत्सर्गकारी भवेत्' ई-प॥२८१॥ थप्रतिक्रमणमकृत्वा न किश्चिदन्यत् कुर्याद, तदशुद्धतापत्तेरिति भावः । तथा 'खाध्याययोगे' वाचनागुपचा-13 रव्यापार आचामाम्लादी 'प्रयतः' अतिशययनपरो भवेत्, तथैव तस्य फलवत्वादू विपर्यय उन्मादादिदोषिप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥७॥ किंच-'न प्रतिज्ञापयेत्' मासादिकल्पपरिसमाप्ती गच्छन् भूयोऽप्यागतस्य ममैवैतानि दातव्यानीति न प्रतिज्ञा कारयेद्गृहस्थं, किमाश्रित्येत्याह-शयनासने शय्यां निषद्यां तथा भ-1 तपान मिति तत्र शयनं-संस्तारकादि आसनं-पीठकादि शय्या-वसतिः निषद्या-स्वाध्यायादिभूमिः 'तथा तेन प्रकारेण तत्कालावस्थौचित्येन 'भक्तपानं' खण्डखाद्यकद्राक्षापानकादि न प्रतिज्ञापयेत्, ममत्वदोषात् ।। सर्वत्रैतनिषेधमाह-'ग्राम' शालिग्रामादी 'कुले वा' श्रावककलादी 'नगरे' साकेतादी 'देशे वा' मध्यदे-1 दशादौ 'ममत्वभाव' ममेदमिति लेहमोहं न 'कचित् उपकरणादिष्वपि कुर्यात् , तन्मूलत्वादुःखादीनामिति | Pln८॥ उपदेशाधिकार एवाह-'गृहिणों' गृहस्थस्य 'वैयावृत्त्यं गृहिभावोपकाराय तत्कर्मस्वात्मनो व्यावृत्तदभावं न कुर्यात्, खपरोभयात्रेयासमायोजनदोषात, तथा अभिवादन-वाङ्गमस्काररूपं वन्दनं-कायप्रणा-18 दामलक्षणं पूजनं वा-वनादिभिः समभ्यर्चनं वा गृहिणो न कुर्याद्, उक्तदोषप्रसङ्गादेव, तथैतदोषपरिहारायचा दीप अनुक्रम [५२९-५३३]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~5654 Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) चूलिका [२], मूलं [...], / गाथा ||१-९||. नियुक्ति: [३६९], भाष्यं [६३...] (४२) प्रत सूत्रांक ||५-९|| A-CA P'असंक्लिष्टेः' गृहिवैयावृत्त्यकरणसंक्लेशरहितैः साधुभिः समं वसेन्मुनिः 'चारित्रस्य' मूलगुणादिलक्षणस्य | 'यतो' येभ्यः साधुभ्यः सकाशान हानिः, संवासतस्तदकृत्यानुमोदनादिनेति, अनागतविषयं चेदं सूत्रं, प्रणयनकाले संक्लिष्टसाध्वभावादिति सूत्रार्थः ॥९॥ ण या लभेज्जा निउणं सहायं, गुणाहिअं वा गुणओ समं वा । इक्कोऽवि पाबाई विवजयंतो, विहरिज कामेसु असज्जमाणो ॥ १०॥ संवच्छरं वाऽवि परं पमाणं, बीअं च वासं न तहिं वसिज्जा । सुत्तस्स मग्गेण चरिज भिक्खू , सुत्तस्स अत्थो जह आणवेइ ॥ ११॥ जो पुव्वरत्तावररत्तकाले, संपेहए अप्पगमप्पगेणं । किं मे कडं किं च मे किच्चसेस, किं सक्कणिजं न समायरामि ? ॥ १२ ॥ किं मे परो पासइ किंच अप्पा, किं वाऽहं खलिअं न विवज्जयामि । इच्चेव सम्म अणुपासमाणो, अणागयं नो पडिबंध कुज्जा ॥ १३ ॥ जत्थेव पासे कइ दुप्पउत्तं, काएण वाया अदु माणसेणं । तत्थेव धीरो पडिसाहरिजा, आइन्नओ खिप्पमिव क्खलीणं ॥ १४॥ जस्सेरिसा जोग दीप अनुक्रम [५२९-५३३]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~566~ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति:) चूलिका [२], मूलं [१...], / गाथा ||१०-१६||, नियुक्ति: [३६९...], भाष्यं [६३...] (४२) दशवैका० हारि-वृत्तिः प्रत ॥२८२॥ सूत्रांक -१६|| जिइंदिअस्स, धिईमओ सप्पुरिसस्स निच्चं । तमाहु लोए पडिबुद्धजीवी, सो जी र विविक्तअई संजमजीविएणं ॥ १५॥ अप्पा खलु सययं रक्खिअव्वो, सविदिएहिं सुसमा चर्याचूला हिएहिं । अरक्खिओ जाइपहं उबेइ, सुरक्खिओ सव्वदुहाण मुच्चइ ॥ १६ ॥ त्ति बेमि ॥ विवित्तचरिआ चूला समत्ता ॥२॥ ॥इइ दसवेआलिअं सुत्तं समत्तं ॥ असंक्लिष्टैः समं वसेदित्युक्तमत्र विशेषमाह-कालदोषाद् 'न यदि लभेत' न यदि कथञ्चित् प्राप्नुयात् 'निपुणं' संयमानुष्ठानकुशल 'सहायं' परलोकसाधनद्वितीय, किंविशिष्टमित्याह-गुणाधिकं वा ज्ञानादि-IN गुणोत्कटं वा, 'गुणतः समं वा तृतीयाथै पश्चमी गुणैस्तुल्यं वा, वाशब्दाद्धीनमपि जात्यकाश्चनकल्पं विनीतं वा, ततः किमित्याह-एकोऽपि संहननादियुक्तः 'पापानि' पापकारणान्यसदनुष्ठानानि 'विवर्जयन' विविधमनेकै प्रकारैः सूत्रोरीः परिहरन् विहरेदुचितविहारेण 'कामेषु' इच्छाकामादिषु 'असज्यमान' सङ्गमगच्छन्नेकोऽपि विहरेत् , नतु पार्श्वस्थादिपापमित्रसङ्गं कुर्यात, तस्य दुष्टत्वात्, तथा चान्यैरप्युक्तम्-“वरं विहा सह पन्नगर्भवेच्छठात्मभिर्या रिपुभिः सहोषितुम् । अधर्मयुक्तैश्चपलैरपण्डितैनं पापमित्रैः सह वर्तितुं क्षमम् दू ॥१॥ इहैव हन्युर्भुजगा हि रोषिताः, धृतासयश्छिद्रमवेक्ष्य चारयः । असत्प्रवृत्तेन जनेन संगतः, परत्र । दीप अनुक्रम [५३४-५४०] ACCORRECRECCA ॥२८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~567~ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति:) चूलिका [२], मूलं [१...], / गाथा ||१०-१६||, नियुक्ति: [३६९...], भाष्यं [६३...] (४२) प्रत सूत्रांक -१६|| चैवेह च हन्यते जनः ॥२॥ तथा-परलोकविरुद्धानि, कुर्वाणं दूरतस्त्यजेत् । आत्मानं योऽभिसंधत्ते, सोऽन्यस्मै स्यात्कथं हितः ॥३॥ तथा-ब्रह्महत्या सुरापानं, स्तेयं गुर्वङ्गानागमः । महान्ति पातकान्याहुरेभिश्च सह संगमम् ॥ ४॥” इत्यलं प्रसङ्गेनेति सूत्रार्थः ॥१०॥ विहारकालमानमाह-संवत्सरं वापि' अत्र संवत्सर| शब्देन वर्षासु चातुर्मासिको ज्येष्ठावग्रह उच्यते तमपि, अपिशब्दान्मासमपि, परं प्रमाण-वर्षाऋतुबद्धयो*त्कृष्टमेकत्र निवासकालमानमेतत्, 'द्वितीयं च वर्षम्' चशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः, द्वितीय वर्ष वर्षासु चशब्दान्मासं च ऋतुबद्धे न तत्र क्षेत्रे वसेत् यत्रको वर्षाकल्पो मासकल्पश्च कृतः, अपितु सङ्गदोषाद् द्वितीयं तृतीयं च परिहत्य वर्षादिकालं ततस्तत्र वसेदित्यर्थः, सर्वथा, किंबहुना?, सर्वत्रैव 'सूत्रस्य मार्गेण 3 चरेद्भिक्षुः' आगमादेशेन वर्त्ततेति भावः, तत्रापि नौघत एव यथाश्रुतग्राही स्यात् अपि तु सूत्रस्य 'अर्थः' पूर्वोपराविरोधितत्रयुक्तिघटितः पारमार्थिकोत्सर्गापवादगर्भो यथा 'आज्ञापयति' नियुके तथा वसंत, ना-II ४ न्यथा, यथेहापबादतो नित्यबासेऽपि बसतावेव प्रतिमासादि साधूनां संस्तारगोचरादिपरिवर्तेन, नान्यथा.51 शुद्धापवादायोगादित्येवं वन्दनकप्रतिक्रमणादिष्वपि तदर्थ प्रत्युपेक्षणेनानुष्ठानेन वर्तेत, न तु तथाविधलोकहेर्या तं परित्यजेत् तदाशातनाप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥ एवं विविक्तचर्यावतोऽसीदनगुणोपायमाह-यः साधुः पूर्वरात्रापररात्रकाले, रात्री प्रथमचरमयोः प्रहरयोरित्यर्थः, संप्रेक्षते सूत्रोपयोगनीत्या 31 आत्मानं कर्मभूतमात्मनैव करणभूतेन, कथमित्याह-किं मे कृतमिति छान्दसत्वात्तृतीयार्थे षष्टी, किं दीप अनुक्रम [५३४-५४०] दश०४८ Edream मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 568~ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक ||१० -१६|| दीप अनुक्रम [५३४ -५४०] दशवैका ० हारि-वृत्तिः ॥ २८३ ॥ “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) चूलिका [२], मूलं [१...], / गाथा ||१०-१६ ||, निर्युक्ति: [३६९...], मया कृतं शक्त्यनुरूपं तपश्चरणादियोगस्य 'किं च मम कृत्यशेषं कर्तव्यशेषमुचितं?, किं शक्यं वयोऽवस्थानुरूपं वैयावृत्त्यादि 'न समाचरामि' न करोमि, तदकरणे हि तत्कालनाश इति सूत्रार्थः ॥ १२ ॥ तथाकिं मम स्खलितं 'पर' खपक्षपरपक्षलक्षणः पश्यति? किं वाऽऽत्मा कचिन्मनाक संवेगापन्नः १, किं वाऽहमोघत एव स्खलितं न विवर्जयामि इत्येवं सम्यगनुपश्यन् अनेनैव प्रकारेण स्खलितं ज्ञात्वा 'सम्यम्' आगमोक्तेन विधिना भूयः पश्येत् 'अनागतं न प्रतिबन्धं कुर्यात् आगामिकालविषयं नासंयमप्रतिबन्धं करोतीति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ कथमित्याह - 'यत्रैव पश्येत्' यत्रैव पश्यत्युक्तवत्परात्मदर्शनद्वारेण 'कचित् संयमस्थानावसरे धर्मोपधिप्रत्युपेक्षणादी 'दुष्प्रयुक्त' दुर्व्यवस्थितमात्मानमिति गम्यते, केनेत्याह-कायेन वाचा अथ मानसेनेति, मन एव मानसं करणत्रयेणेत्यर्थः 'तत्रैव' तस्मिन्नेव संयमस्थानावसरे 'घीरो' बुद्धिमान् 'प्रतिसंहरेत्' प्रतिसंहरति य आत्मानं, सम्यग् विधिं प्रतिपद्यत इत्यर्थः, निदर्शनमाह-आकीर्णो जवादिभिगुणैः, जात्योऽश्व इति गम्यते असाधारणविशेषणात् तचेदम्- 'क्षिप्रमिव खलिनं' शीघ्रं कविकमिव, यथा जात्योऽश्वो नियमितगमननिमित्तं शीघ्रं खलिनं प्रतिपद्यते, एवं यो दुष्प्रयोगत्यागेन खलिनकल्पं सम्यगवि धिम् एतावताशेन दृष्टान्त इति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ यः पूर्वरात्रेत्याद्यधिकारोपसंहारायाह-यस्य साधोः 'ईदृशाः' स्वहितालोचनप्रवृत्तिरूपा 'योगा' मनोवाक्कायव्यापारा 'जितेन्द्रियस्य' वशीकृतस्पर्शनादीन्द्रियकलापस्य 'धृतिमतः संयमे सधृतिकस्य 'सत्पुरुषस्य' प्रमादजयान्महापुरुषस्य 'नित्यं' सर्वकालं सामायिकप्रति Jocation intemation भाष्यं [ ६३...] ~ 569~ | २ विविक्तचर्याचूला Pr&Personal Use Cly मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४२], मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः ॥ २८३ ॥ yug Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति:) चूलिका [२], मूलं [१...], / गाथा ||१०-१६||, नियुक्ति: [३६९...], भाष्यं [६३...] (४२) प्रत सूत्रांक *SAKARTANT -१६|| पत्तेरारभ्यामरणान्तम् 'तमाहुललॊके प्रतिबुद्धजीविनं' तमेवंभूतं साधुमाहुः-अभिदधति विद्वांसः लोकेप्राणिसंघाते प्रतिबुद्धजीविनं-प्रमादनिद्रारहितजीवनशीलं, 'स' एवंगुणयुक्तः सन् जीवति 'संयमजीवितेन कुशलाभिसंधिभावात् सर्वथा संघमप्रधानेन जीवितेनेति सूत्रार्थः ॥१५॥ शास्त्रमुपसंहरनुपदेशसर्वस्वमाह -आत्मा खस्थिति खलुशब्दो विशेषणार्थः, शक्तौ सत्यां परोऽपि 'सततं सर्वकालं 'रक्षितव्यः' पाल-8] नीयः पारलौकिकापायेभ्यः, कथमित्युपायमाह-सन्द्रियः' स्पर्शनादिभिः 'सुसमाहितेन निवृत्तविषयव्यापारणेल्यर्थः, अरक्षणरक्षणयोः फलमाह-अरक्षितः सन् 'जातिपन्धान' जन्ममार्ग संसारमुपैति-सामीप्येन गच्छति । सुरक्षितः पुनर्यधागममप्रमादेन 'सर्वदुःखेभ्यः शारीरमानसेभ्यो 'विमुच्यते' विविधम्-अनेक प्रकार-18 रपुनर्ग्रहणपरमस्वास्थ्यापादनलक्षणैर्मुच्यते । इति ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ श्री हरिभद्रसूरिविरचितटीकोपसंहारः । यं प्रतीत्य कृतं तद्वक्तब्यताशेषमाह हिं मासेहिं अही अज्झयणमिणं तु अज्जमणगेणं । छम्मासा परिआओ अह कालगओ समाहीए ॥ ३७० ।। षड्भिर्मासैः 'अधीतं पठितम् 'अध्ययनमिदं तु' अधीयत इत्यध्ययनम्-इवमेव दशवकालिकाख्यं शास्त्र, वेनाधीतमित्याह-आर्यमणकेन-भावाराधनयोगात् आराद्यातः सर्वहेयधर्मेश्य इत्यायः आर्यश्चासौ मणक-18 |श्चेति विग्रहस्तेन, 'षण्मासाः पर्याय' इति तस्यार्यमणकस्य षण्मासा एव प्रव्रज्याकाला, अल्पजीवितत्वात्, COCRACANCATI दीप अनुक्रम [५३४-५४०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: | अथ वृत्तिकारः उपसंहारः क्रियते ~570~ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक II--II दीप अनुक्रम [ दशवैकाo हारि-वृत्तिः ॥ २८४ ॥ Ja docanon in “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं / चूलिका [-] मूलं [-] / गाथा || || निर्युक्ति: [ ३७० ], भाष्यं [६३...] अत एवाह--अथ 'कालगतः समाधिनेति 'अर्थ' उक्तशास्त्राध्ययनपर्यायानन्तरं कालगत-आगमोक्तेन विघिना मृतः, समाधिना-शुभलेश्याध्यानयोगेनेति गाथार्थः ॥ ३९ ॥ अत्र चैवं वृद्धवाद: यथा तेनैतावता श्रुतेनाराधितम् एवमन्येऽप्येतदध्ययनानुष्ठानत आराधका भवन्त्विति ।। आनंदसुपायं कासी सिजंभवा सर्दि धेरा जसभहस्स य पुच्छा कहणा अ विजाला संघे ।। ३७९ ।। 'आनन्दाश्रुपातम्' अहो आराधितमनेनेति हर्षाश्रमोक्षणम् 'अकार्षुः' कृतवन्तः 'शय्यम्भवाः' प्राग्व्याव|र्णितवरूपाः 'त' तस्मिन् कालगते 'स्थविरा:' श्रुतपर्यायवृद्धाः प्रवचनगुरवः, पूजार्थं बहुवचनमिति, यशो| भद्रस्य च शय्यम्भवप्रधानशिष्यस्य गुर्वश्रुपातदर्शनेन किमेतदाश्वर्यमिति विस्मितस्य सतः पृच्छा-भगवन्! किमेतदकृतपूर्वमित्येवंभूता, कथना च भगवतः संसारलेह ईदृशः, सुतो ममायमित्येवंरूपा, चशब्दादनुता| पञ्च यशोभद्रादीनाम् अहो गुराविव गुरुपुत्र के वर्तितव्यमिति न कृतमिदमस्माभिरिति एवंभूतप्रतिबन्धदोषपरिहारार्थ न मया कथितं नात्र भवतां दोष इति गुरुपरिसंस्थापनं च । 'विचारणा संघ' इति शय्यम्भवेनाल्पायुषमेनमवेत्य मयेदं शास्त्रं निर्यूढं किमत्र युक्तमिति निवेदिते विचारणा संधे कालहासदोषात् | प्रभूतसत्त्वानामिदमेवोपकारकमतस्तिष्ठत्येतदित्येवंभूता स्थापना चेति गाधार्थः ॥ ४० ॥ उक्तोऽनुगमः, सास्प्रतं नयाः, ते च नैगमसंग्रह व्यवहार ऋजुसूत्र शब्दसमभिरूदेवम्भूत भेदभिन्नाः खल्वोघतः सप्त भवन्ति । स्वरूपं चैतेषामध आवश्यके सामायिकाध्ययने न्यक्षेण प्रदर्शितमेवेति नेह प्रतन्यते । इह पुनः स्थानाशून्या Far Pro Personal Use City मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४२], मूल सूत्र - [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः ~571~ २ विविक्तचर्याचूला ॥ २८४ ॥ ayy Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं | चूलिका [-], मूलं [-] / गाथा ||| नियुक्ति: [३७१], भाष्यं [६३...] (४२) प्रत सुत्रांक 84545 ||--|| मेते ज्ञानक्रियानयान्तर्भावद्वारेण समासतः प्रोच्यन्ते-ज्ञाननयः क्रियानयश्च, तत्र ज्ञाननयदर्शनमिदम्-ज्ञा नमेव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारण, युक्तियुक्तत्त्वात्, तथा चाह-णायंमि गिहि अब्बे अगिहिअ-II || ब्वंमि चेव अस्थम्मि । जइअब्बमेव इह जो उवएसो सो नओ नाम ॥१॥ 'णायंमिति ज्ञाते सम्यक्प रिच्छिन्ने 'गिणिहअब्बत्ति ग्रहीतव्य उपादेये 'अगिहिअन्वेत्ति अग्रहीतव्येऽनुपादेये हेय इत्यर्थः, चशब्दः खलूभयोर्ग्रहीतव्याग्रहीतव्ययोतित्वानुकर्षणार्थ उपेक्षणीयसमुच्चयार्थों था, एवकारस्ववधारणार्थः, तस्य ट्राचैवं व्यवहितः प्रयोगो द्रष्टव्यः-ज्ञात एव ग्रहीतव्ये तथाऽग्रहीतव्ये तधोपेक्षणीये च ज्ञात एव नाज्ञाते, 'अ थम्मि'त्ति अर्थे ऐहिकामुष्मिके, तत्रैहिको ग्रहीतव्यः स्रक्चन्दनाङ्गनादिः अग्रहीतव्यो विषशस्त्रकपट- 6 कादिः उपेक्षणीयस्तृणादिः, आमुष्मिको ग्रहीतव्यः सद्दर्शनादिरग्रहीतव्यो मिथ्यात्वादिरुपेक्षणीयो विवक्षया अभ्युदयादिरिति तस्मिन्नर्थे, 'यतितव्यमेवेति अनुवारलोपाद्यतितव्यम् 'एवम् अनेन प्रकारेणैहिकामुष्मि-13 कफलप्रात्यर्थिना सत्त्वेन प्रवृत्त्यादिलक्षणः प्रयत्नः कार्य इत्यर्थः । इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यं, सम्यगज्ञाते प्रवर्त्तमा-8 नस्य फलाविसंवाददर्शनात्, तथा चान्यैरप्युक्तम्-"विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता । मि-2 Xथ्याज्ञानात्प्रवृत्तस्य, फलप्राप्तेरसंभवात् ।। १॥” तथाऽऽमुष्मिकफलप्राप्त्यर्थनाऽपि ज्ञान एव यतितव्यं, तथा है चागमोऽप्येवमेव व्यवस्थितः, यत उक्तम्-"पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए । अण्णाणी किं काही, किंवा णाहीइ छेअपावर्ग? ॥ १॥” इतश्चैतदेवमङ्गीकर्तव्यं, यस्मात्तीर्थकरगणधरैरगीतार्थानां केव _ दीप अनुक्रम 555555 __ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~572~ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य +वृत्ति:) अध्ययनं | चूलिका [-], मूलं [-] / गाथा ||H|| नियुक्ति: [३७१], भाष्यं [६३...] (४२) CASS प्रत सुत्रांक ||--|| दशकादालानां विहारक्रियाऽपि निषिद्धा, तथा चागमः-"गीअत्थो अ विहारो बिइओ गीअस्थमीसिओ भ-18नयाधिहारि-वृत्तिः । णिओ। एत्तो तहअविहारो णाणुण्णाओ जिणवरेहिं ॥१॥" न यस्मादन्धेनान्धः समाकृष्यमाणः सम्यक- कार: ॥ २८५॥ का पन्धान प्रतिपद्यत इत्यभिप्रायः । एवं तावत्क्षायोपशमिकं ज्ञानमधिकृत्योक्तं, क्षायिकमप्यङ्गीकृत्य विशिष्टफ-1 Fालसापकत्वं तस्यैव विज्ञेयं, यस्मादहतोऽपि भवाम्भोधितटस्थस्य दीक्षाप्रतिपन्नस्योत्कृष्टतपश्चरणवतोऽपि न || तावदपवर्गप्राप्तिर्जायते यावज्जीवाजीवाद्यखिलवस्तुपरिच्छेदरूपं केवलज्ञानं नोत्पन्नमिति, तस्माज्ज्ञानमेव प्र धानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्सिकारणमिति स्थितम् , 'इति जो उवएसो सो णो णाम'ति 'इति' एवमुक्तेन न्या-|| दायेन य 'उपदेशो' ज्ञानप्राधान्यख्यापनपरः स नयो नाम, ज्ञाननय इत्यर्थः, अयं च ज्ञानवचनक्रियारूपेऽस्मि-18 नध्ययने ज्ञानरूपमेवेदमिच्छति, ज्ञानात्मकत्वादस्य, वचनक्रिये तु तत्कार्यत्वात्तदायत्तत्वान्नेच्छति गुणभूते हैं ठाचेच्छतीति गाथार्थः ।। उक्तो ज्ञाननया, अधुना क्रियानयावसरः, तदर्शनं चेदम्-क्रियैव प्रधानमैहिकामुष्मि कफलप्रासिकारणं, युक्तियुक्तत्वात्, तथा चायमप्युक्तलक्षणामेव खपक्षसिद्धये गाथामाह-'णायंमि गिहि अव्वे इत्यादि, अस्याः क्रियानयदर्शनानुसारेण व्याख्या-ज्ञाते ग्रहीतव्ये अग्रहीतव्ये चैव अर्थे ऐहिकामुSIमिकफलप्रात्यर्थिना यतितव्यमेवेति, न यस्मात्प्रवृत्त्यादिलक्षणप्रयतव्यतिरेकेण ज्ञानवतोऽप्यभिलषितार्था-12 ॥२८५॥ वासिदृश्यते, तथा चान्यैरप्युक्तम्-"क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात्सुखितो भवेत् ॥१॥" तथाऽऽमुष्मिकफलप्रात्यर्थिनाऽपि कियैव कर्तव्या, तथा च मौनीन्द्रवचनमप्ये दीप अनुक्रम Limelicatom.indi मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~ 573~ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं | चूलिका [-], मूलं [-] / गाथा ||H|| नियुक्ति: [३७१], भाष्यं [६३...] (४२) SENCE प्रत सुत्रांक ||--|| वमेव व्यवस्थित, यत उक्तम्-"चेइअकुलगणसंघे आयरिआणं च पवयणसुए अ । सब्बेसुवि तेण कयं| तवसंजममुजमतेणं ॥१॥" इतश्चैतदेवमङ्गीकर्तव्यं, यस्मात्तीर्थकरगणधरैः क्रियाविकलानां ज्ञानमपि विफलमेवोक्तं, तथा चागमः-"सुबहुंपि सुअमहीअं किं काही चरणविष्पमुफस्स? । अंधस्स जह पलित्ता दीवसयसहस्सकोडीवि ॥१॥" दृशिक्रियायिकलस्वात्तस्येत्यभिप्रायः, एवं तावत्क्षायोपशमिकं चारित्रमड़ी६ कृत्योक्तं, चारित्रं क्रियेत्यनर्थान्तरं, क्षायिकमप्यङ्गीकृत्य प्रकृष्टफलसाधकत्वं तस्यैव विज्ञेयं, यस्मादहतोऽपि भगवतः समुत्पन्नकेवल ज्ञानस्यापि न तावन्मुत्त्यवाप्तिः संजायते यावदखिलकर्मेन्धनानलभूता हखपश्चाक्षरोगिरणमात्रकालावस्थायिनी सर्वसंबररूपा चारित्रक्रिया नावाप्तेति, तस्मारिक्रयैव प्रधानमैहिकामुष्मिकफ-2 लप्राप्तिकारणमिति स्थितम् 'इति जो उवएसो सो णओ णामति इत्येवमुक्तेन न्यायेन य उपदेशः क्रियाप्राधान्यख्यापनपरः स नयो नाम, क्रियानय इत्यर्थः, अयं च ज्ञानवचनक्रियारूपेऽस्मिन्नध्ययने क्रियारूपमेवेदमिच्छति, तदात्मकत्वादस्य, ज्ञानवचने तु तदर्थमुपादीयमानत्वादप्रधानत्वान्नेच्छति गुणभूते चेच्छतीति गाथार्थः । उक्तः क्रियानया, इत्थं ज्ञानक्रियानयखरूपं श्रुत्वाऽविदिततदभिप्रायो विनेयः संशयापन्नः सन्नाह I-किमन्न तत्त्वम् ?, पक्षद्येऽपि युक्तिसंभवात् , आचार्यः पुनराह-"सवेसिपि नयाणं बहुविहवत्तव्वयं निसाकामेत्ता । तं सव्वनयविसुद्धं जं चरणगुणहिओ साहू ॥१॥" अथवा ज्ञानक्रियानयमतं प्रत्येकमभिधायाधुना स्थितपक्षमुपदर्शयन्नाह-'सब्वेसि गाहा' 'सर्वेषामपि' मूलनयानाम्, अपिशब्दात्तद्भेदानां च 'नयानां दीप अनुक्रम [-] Era मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~574~ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४२) प्रत सूत्रांक II--II दीप अनुक्रम [ दशवका० हारि-वृत्तिः ॥ २८६ ॥ Edocation in 643649 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं / चूलिका [-] मूलं [-] / गाथा || || निर्युक्ति: [३७१], भाष्यं [ ६३...] द्रव्यास्तिकादीनां 'बहुविधवक्तव्यतां' सामान्यमेव विशेषा एव उभयमेव वाऽनपेक्षमित्यादिरूपाम् अथवा नामादीनां नयानां कः कं साधुमिच्छतीत्यादिरूपां 'निशम्य' श्रुत्वा तत् 'सर्वनयविशुद्धं' सर्वनयसंमतं वचनं यञ्चरणगुणस्थितः साधुः यस्मात्सर्वनया एव भावविषयं निक्षेपमिच्छन्तीति गाथार्थः ॥ नमो वर्द्धमानाय भगवते, व्याख्यातं चूडाध्ययनं तद्व्याख्यानाच्च समाप्ता दशवैकालिकटीका । समाप्तं दशवैकालिकं चूलिकासहितं निर्युक्तिटीकासहितं च ॥ ॥ इत्याचार्य श्रीहरिभद्रसूरिविरचिता दशवैकालिकटीका समासा ॥ महत्तराया याकिन्या, धर्मपुत्रेण चिन्तिता । आचार्यहरिभद्रेण, टीकेयं शिष्यबोधिनी ॥ १ ॥ दशकालिके टीकां विधाय यत्पुण्यमर्जितं तेन । मात्सर्यदुःखविरहागुणानुरागी भवतु लोकः ॥ २ ॥ ARRRRRR इति श्रीमद्धरिभद्राचार्यविरचिता सचूलिकदशचैकालिक व्याख्या समाप्ता ॥ 352525-25 12655. इति श्रेष्ठ देवचन्द्र लालभाई जैनपुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्कः ४७. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ४२ ], मूल सूत्र [३] “दशवैकालिक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि विरचिता वृत्तिः मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुनः संपादित: (आगमसूत्र ४२ ) “दशवैकालिक” परिसमाप्तं ~ 575~ नयाधिकारः | ॥ २८६ ॥ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरूभ्यो नमः 42 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च। “दशवैकालिकं मूलसूत्रं” (मूलं + नियुक्ति: + भाष्यं + हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः] | (किंचित वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: “दशवैकालिक” मूलं एवं वृत्ति: नामेण परिसमाप्तं Remember it's a Net Publications of 'jain_e_library's' ~576~