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समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. म. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ४१
अन्वयार्थ:--(अह) अथ अतिकूलोपसर्गकथनानन्तरम् (इमे) इमे=अनन्तरं वक्ष्यमाणाः (मुहुमा) सूक्ष्मा-परैरलक्ष्यत्वात् (संगा) संगा मातापित्रादिसंबन्धाः (जे) ये संगाः (मिक्खूर्ण) भिक्षूणांसाधूनामपि (दुरुत्तरा) दुरुत्तरादुर्लध्याः (एगे) एके-केचन पुरुषाः (तस्य) तत्रतस्मिन्ननुकूलोपसर्गे (विसीयंति) विषीदन्ति शिथिलाचारिणो भवन्ति संयम वा त्यजन्ति अथवा (जवित्तये) यापयितुम् = संयमे स्वात्मानं व्यवस्थापयितुं (ण चयंति) न शक्नुवन्तिन समर्थाः भवन्तीति ॥१॥ ____ शब्दार्थ-'अह-अध' प्रतिकूल उपसर्ग के कथनानन्तर 'इमे-इमे' ये अनन्तर कहे जाने वाले 'सुहुमा-सूक्षमाः' सूक्ष्म बहार नहीं दिखने वाले 'संगा-संगा' मातापित्रादि एवं बांधव आदि के साथ का संबंधरूप उपसर्ग होते हैं 'जे-ये ये संग 'भिक्खूण-भिक्षूगां साधुओं के द्वारा 'दुरुत्तरा-दुरुत्सरा' दुरुत्तर-अर्थात् दुस्तर हैं' 'एगे-एके' कोई पुरुष 'तस्थ-तत्र' उस संयंवरूप उपसर्ग में 'विसीयंति-विषीदन्ति' विषाद को प्राप्त होते हैं अर्थात् शिथिलाचारी होते हैं अथवा 'जवित्तये-यापयितुम्' संयमपूर्वक अपना निर्वाह करने में 'न चयंति-न शक्नुवन्ति' समर्थ नहीं होते हैं ॥१॥ ___ अन्वयार्थ-यह जो सूक्ष्म अर्थात् दूसरों को प्रतीत न होने वाले संग माता पिता आदि के सम्बन्ध हैं, वे साधुओं के लिए भी दुर्जेय हैं। कोई कोई साधुजन अनुकूल उपसर्गों के आने पर विषाद युक्त हो जाते हैं-शिथलाचारी बन जाते हैं अथवा संयम का त्याग कर बैठते हैं। वे अपनी आत्मा को संयम में स्थिर रखने में समर्थ नहीं होते हैं।१।
शहा - 'अह-अथ' प्रतिम ५सना यनानन्तर 'इमे-इमे' मा मानन्त२ ४७वामां मा 'सुहुमा-सूक्ष्माः' सूक्ष्म मार नही मापापासंगा-संगा' भाता पासव' मा वगैरेनी साना स ५३५ ५सयाय छ 'जे-ये' मा स 'भिक्खूण-भिक्षणां' साधुयाना द्वा२। 'दुरुत्तरा-दुरुत्तराः' इत्त२ अर्थात् स्तर छ. 'एगे-एके' ७५३५ 'तत्थ-तत्र' ते ३५ पसभा विसीयति -विषीदन्ति' विषाहने प्राप्त थाय छ, अर्थात् शिथियारी मनी नय. भया 'जवित्तये-यापयितुम्' संयमपूर याताना निवाल ३२वामा 'न चयंति-न शक्नुवति' समय यता नथी. । १॥
સૂત્રાર્થ-આ જે આ સૂફમ-અન્યના દ્વારા જાણવામાં આવનારો-સંગ છેમાતાપિતા આદિને સંબંધ છે, તે સાધુઓને માટે પણ દુર્જાય છે. અનુકૂળ ઉપસર્ગો આવી પડે ત્યારે કોઈ કઈ સાધુઓ વિષાદને અનુભવ કરે છે– -શિથિલાચારી બની જાય છે, અથવા સંયમને ત્યાગ કરી નાખે છે. તેઓ પિતાના આત્માને સંયમમાં સ્થિર રાખી શકવાને સમર્થ હોતા નથી. ૧૫
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