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नव पदार्थ
विशेष है कि जीव द्रव्य की तरह पुद्गल निष्क्रिय कभी भी नहीं होता। जीव शुद्ध होने के उपरानत किसी काल में भी क्रियावान् नहीं होगा। पुद्गल का यह नियम नहीं है। वह परसहाय से सदा क्रियावान् रहता है।
(३) जीव और पुद्गल की हलन-चलन क्रिया का क्षेत्र लोक परिमित है। कहा है : “जितने में जीव और पुद्गल गति कर सकते हैं उतना लोक है। जितना लोक है उतने में जीव और पुद्गल गति कर सकते हैं।"
जीव और पुद्गलों की गति लोक के बाहर नहीं हो सकती-इसके चार कारण बताये गये हैं : (१) गति का अभाव, (२) सहायक का अभाव-(३) रूक्ष होने से और (४) लोक स्वभाव के कारण।
एक बार गौतम ने पूछा : “भन्ते! क्या महान् ऋद्धिवाला देव लोकांत में खड़ा रह अलोक में अपने हाथ आदि के संकोचन न करने अथवा पसारने में समर्थ है ?" महावीर ने जवाब दिया : “नहीं गौतम ! जीवों के आहारोपचित, शरीरोपचित्त और. कलेवरोपचित पुद्गल होते हैं तथा पुद्गलों के आश्रित कर ही जीव और अजीवों (पुद्गलों) के गति पर्याय होती है। अलोक में जीव नहीं है, पुद्गल भी नहीं हैं इस हेतु से देव वैसा करने में असमर्थ है।"
९. धर्म, अधर्म और आकाश के लक्षण और पर्याय (गा० ११-१४)
धर्मास्तिकाय का स्वभाव-जीव और पुद्गल के गमन में सहायक होना है। जीव और पुद्गल ही गमन-क्रिया करते हैं-धर्म-द्रव्य उनसे यह क्रिया नहीं करता फिर भी
१. पञ्चास्तिाय : १.६८ की बालावबोध टीका २. ठाणांग १०.७०४ :
जाव ताव जीवाण त पोग्गलाण त गतिपरिताते ताव ताव लोए जाव ताव लोगे ताव ताव
जीवाण य पोग्गलाण त गतिपरिताते एवंप्पेगा लोगट्टिती। ३. ठा० ४.३.३३७ : चउहिं ठाणेहिं जीवा य पोग्गला य णो संचातेंति बहिया लोगंता गमणताते
तं० गतिअभावेणं णिरुवग्गहताते लुक्खताते लोगाणुभावेणं । ४. भगवती १६.८ ५. उत्त० २८.६ गइलक्खणो उ धम्मो