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पुण्य पदार्थ : (ढाल : १) टिप्पणी ७
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१. जिस कर्म के उदय से शुभ देव-भव का आयुष्य प्राप्त हो वह 'शुभ देवायुष्य कर्म' है।
२. जिस कर्म के उदय से शुभ मनुष्य-भव का आयुष्य प्राप्त हो वह 'शुभ मनुष्यायुष्य कर्म' है।
३. जिस कर्म के उदय से युगलतिर्यञ्च-भव का आयुष्य प्राप्त हो वह 'शुभ तिर्यचायुष्य कर्म' है।
जो सर्व तिर्यंचायुष्य कर्म को शुभायुष्य की उत्तर प्रकृति मानते हैं उनके सामने प्रश्न आया कि हाथी, अश्व, शुक, पिक आदि तिर्यंचों का आयुष्य शुभ कैसे है जबकि वे. प्रत्यक्ष क्षुधा, पिपासा, तर्जन, ताड़न आदि के दुःखों को बहुलता से भोगता हुए देखे जाते हैं ? इसके समाधान मे दो भिन्न-भिन्न उत्तर प्राप्त हैं :
(१) ये तिर्यंच प्राणी पूर्वकृत कर्मों का फल भोगते हैं, पर उनका आयुष्य अशुभ नहीं है क्योंकि दुःख अनुभव करते हुए भी वे हमेशा जीते रहने की इच्छा करते हैं कभी मरने
की नहीं। नारक हमेशा सोचते रहते हैं-कब हम मरें और कब इन दुःखों से छुटकारा : हो ? इससे उनका आयुष्य अशुभ है पर तिर्यंच ऐसा नहीं सोचते । अतः उनका आयुष्य अशुभ नहीं है।
(२) तिर्यंचों युगलिक तिर्यंच भी आते हैं। उनका आयुष्य शुभ है। उनकी अपेक्षा से तिर्यंचायुष्य को शुभ कहा है।
इस दूसरे स्पष्टीकरण के अनुसार सब तिर्यंचों का आयुष्य शुभ नहीं होना चाहिए।
ठाणाङ्ग में तिर्यंच योग्य कर्मबंध के चार कारण कहे हैं : (१) मायावीपन, (२) निकृतिभाव, (३) अलीक वचन और (४) मिथ्या तोल-माप । ऐसे कारणों से तिर्यंच गति प्राप्त करने वाले तिर्यंच जीवों का आयुष्य शुभ कैसे होगा?
आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं : “अशुभ उपयोग से जीव कुंजर आदि होकर सहस्र दुःखों से पीड़ित होता हुआ संसार-भ्रमण करता है। इससे स्पष्ट है कि वे मनुष्यों के
१. नवतत्त्वप्ररकण (सुमङ्गल टीका) पृष्ठ ५३ : न तेषामायुरशुभमुच्ययते, यतो दुःखमनुभवन्तोऽपि
ते स्वायुषस्समाप्तिपर्यन्तं जिजीविषवो न कदाचनाऽपि मृत्युं समीहन्ते नारकवत् २. श्रीनवतत्त्वप्रकरणम् ६।१६ की वृत्ति (नवतत्त्वसाहित्यसंग्रहः) ननु तिर्यगायुषः कथमुत्तमत्वम् ३. ठाणाङ्ग ४.४.३७३ ४. प्रवचनसार १.१२. (टिप्पणी ४ पा० टि० ३ में उद्धृत)