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पाप पदार्थ : टिप्पणी ५
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में प्रत्येक के साथ 'दर्शनावरणीय कर्म' जोड़ लेने का कहा गया है।
इस कर्म को 'वित्तिसम'-दरवान के सदृश कहा जाता है, जिस प्रकार दरवान राजा को नहीं देखने देता वैसे ही यह वस्तुओं के समान्य बोध को रोकता है।
दर्शनावरणीय कर्म भी दो कोटि का होता है-(१) देश और (२) सर्व । चक्षु, अचक्षु और अवधि दर्शनावरणीय कर्म देश कोटि के हैं और शेष छह सर्व कोटि के । सर्वघाती दर्शनावरणीय कर्मों में केवलदर्शनावरणीय कर्म प्रगाढ़तम है।
सर्वघाती दर्शनावरणीय कर्मों के उदय से जीव का दर्शन गुण प्रगाढ़ रूप से आच्छादित हो जाता है पर इस गुण का सर्वावरण तो केवलदर्शनावरणीय कर्म के उदय की किसी अवस्था में भी नहीं होता। नन्दीसूत्र में कहा है-“पूर्ण ज्ञान का अनन्तवाँ भाग तो जीव मात्र के अनावृत रहता है, यदि वह आवृत हो जाए तो जीव अजीव बन जाय । मेघ कितना ही गहरा हो, फिर भी चांद और सूर्य की प्रभा कुछ-न-कुछ रहती ही है। यदि ऐसा न हो तो रात-दिन का विभाग ही मिट जाय । सर्वज्ञानावरणीय कर्म के विषय में नंदी में जो बात कही गयी है वही सर्वदर्शनावरणीय कर्म के विषय में भी लागू पड़ती है।
१. तत्त्वार्थसूत्र ८.७ : सर्वार्थसिद्धि :
इह निद्रादिभिर्दर्शनावरणं सामानाधिकारण्येनाभिसम्बध्यते-निद्रादर्शनावरणं निद्रानिद्रा
दर्शनावरणमित्यादि। २. (क) प्रथम कर्मग्रंथ ६ :
दंसणचउ पणनिद्दा वित्तिसमं दंसणावरणं ।। (ख) देखिए पृ० ३०३ पा० टि० २ (ख) (ग) ठाणाङ्ग २.४.१०५ की टीका :
दंसणसीले जीवे दंसणघायं करेइ जं कम्मं ।
तं पडिहारसमाणं दंसणवरणं भवे जीवे।। ३. ठाणाङ्ग : २.४.१०५ :
दरिसणावरणिज्जे कम्मे एवं चेव टीका-देशदर्शनावरणीयं चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनावरणीयम्, सर्वदर्शनावरणी यं तु निद्रापञ्चक
केवलदर्शनावरणीयं चेत्यर्थः, भावना तु पूर्ववदिति ४. नंदी०सूत्र ४३ :
सव्वजीवाणंपि अ णं अक्खरस्स अणंतभागो निच्चुग्घाडिओ, जइ पुण सोऽवि आवरिज्जा तेणं जीवो अजीवत्तं पाविज्जा,-"सुट्ठवि मेहसमुदये होइ पभा चंदसूराणं।"