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नव पदार्थ
अन्तराय कर्म के भेद कहे गये हैं(१) प्रत्युत्पन्नविनाशी अ० कर्म - जिसके उदय से लब्ध वस्तुओं का विनाश हो और
(२) पिहित-आगामी-पथ अ० कर्म - लभ्य वस्तु के आगामी-पथ का-लाभ-मार्ग का अवरोध।
इस कर्म के पाँच अनुभाव हैं-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय।
श्री नेमिचन्द्र लिखते हैं-"घनघाति होने पर भी अन्तराय कर्म को जो अघाति कर्मों के बाद रखा है उसका कारण यह है कि वह अघाति कर्मों के समान ही है क्योंकि वह कितना ही गाढ़ क्यों न हो जीव के वीर्य गुण को सर्वथा सम्पूर्णतः आच्छादित नहीं कर सकता।
उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम ये जीव के परिणाम विशेष हैं। ये वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से होते हैं।
केवलज्ञानावरणीय आदि पूर्व वर्णित घाति कर्मों के क्षय के साथ ही सर्व वीर्य अन्तराय कर्म का क्षय हो जाता है। इसके क्षय से निरतिशय-अनन्त वीर्य उत्पन्न होता
अन्तराय कर्म की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति ३० कोटा-कोटि सागरोपम की होती है।
१. ठाणाङ्ग २.४,१०५ :
अंतराइए कम्मे दुविहे पं० २०-पडुप्पन्नविणासिए चेव पिहितआगामिपहं। २. प्रज्ञापना २३.१.१२
गोयमा ! अंतराइयस्स कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पंचविधे अणुभावे पन्नत्ते, तंजहा दाणंतराए, लाभंतराए, भोगंतराए, उवभोगंतराए, वीरियंतराए, जं वेदेति पोग्गलं वा जाव
वीससा वा पोग्गलाणं परिणामं वा तेसिं वा उदएणं अंतराइं कम्मं वेदेति ३. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) १७ :
घादीवि अघादिं वा णिस्सेसं घादणे असक्कादो। णामतियणिमित्तादो विग्घं पडिदं अघादिचरिमम्हि।।
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उत्त० ३३.१६