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निर्जरा पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी १७
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तामली तापस की तपस्या का वर्णन करते हुए स्वामीजी ने लिखा है :
तामलीतापस तप कीधों घणो रे, साठ सहंस वरसां लग जांण रे । बेले बेले निरंतर पारणों रे, वेंराग भावे सुमता आंण रे।। आहार वेहरी ने ल्यायों तेहनें रे, पांणी सूं धोयो इकवीस वार रे । सार काढ़ेनें कूकस राखीयो रे, ऐहवो पारणे कीयों आहार रे ।। तिण संथारो कीयों भला परिणाम सूं रे, जब देवदेवी आया तिण पास रे । त्यां नाटक पोड विवध परकारना रे, पछे हाथ जोडी करें अरदास रे।। म्हे चमरचंचा राजध्यांनी तणा रे, देवदेवी हुआ म्हें सर्व अनाथ रे। इन्द्र हूंतों ते म्हारो चव गयो रे, थे नीहाणों कर हुवों म्हारा नाथ रे।। इम कहे नें देवदेवी चलता रह्या रे, पिण तामली न कीयों नीहाणों तायरे। तिण करम निरजरिया मिथ्याती थकां रे, ते इसांण इन्द्र हुवों में जाय रे ।। ते देव चवी ने होसी मानवी रे, महाविदेह खेतर मझार रे। ते साध थइ ने सिवपुर जावसी रे, संसार नी आवागमण निवार रे।। इण करणी कीधीं जें मिथ्याती थकें रे, तिण करणी सूं घटीयों छे संसार रे।
इन्द्र हुवों में तिण करणी थकी रे, इण करणी सूं हुवों एका अवतार रे। मिथ्यात्वी के सकाम निर्जरा होती है या नहीं, इस विषय की चर्चा 'सेन प्रश्नोत्तर' में भी है। सार इस प्रकार है-"चरक, परिव्राजक, तामल्य आदि मिथ्यात्वी तपश्चर्यादि अज्ञान कष्ट करते हैं उनके सकाम निर्जरा होती है अथवा अकाम? कुछ लोगों का मत है कि उनके अकाम निर्जरा ही होती है। इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है। मिथ्यादृष्टि चरक, परिव्राजक आदि हमारा कर्मक्षय हो-ऐसी बुद्धि से तपश्चरणादि अज्ञान कष्ट करते हैं उनके सकाम निर्जरा सम्भव है। सकाम निर्जरा का हेतु द्विविध तप है। बाह्य तपों को, बाह्य द्रव्य की अपेक्षा होने से, पर-प्रत्यक्षत्व होने से तथा कुतीर्थिकों द्वारा स्वाभिप्राय से आसेव्यत्व प्राप्त होने से, बाह्यत्व माना गया है। इसके अनुसार षट्विध बाह्य तप कुतीर्थिकों द्वारा भी आसेव्य होता है और उनके भी सकाम निर्जरा होती है भले ही वह सम्यग्दृष्टि की सकाम निर्जरा की अपेक्षा थोड़ी हो। भगवती (८.१०) में कहा है-बालतपस्वी-'देसाराउए'-देशाराधक होता है। सम्यग्बोध के न होने से भले ही उसे
१. भिक्षु-ग्रन्थ रत्नाकर (ख० १) : मिथ्याती री करणी री चौपई : ढा० २ गा० २८-३४