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नव पदार्थ
६. आस्रव, संवर, बंध, निर्जरा और मोक्ष (दो० ६-८ ) :
इन दोहों में स्वामीजी ने संक्षेप में, पर बड़े ही सुन्दर ढंग से आस्रव, संवर आदि का स्वरूप और परस्पर सम्बन्ध बतला दिया है।
बन्ध का स्वरूप समझाने के लिए स्वामीजी ने जो तालाब का दृष्टान्त दिया था (दो० ३), उसी को विस्तारित करते हुए वे कहते हैं :
जिस तरह तालाब में नालों द्वारा जल का संचार होता है, उसी तरह जीव के प्रदेशों में आस्रव द्वारा कर्मों का प्रवेश होता है। आस्रव, जीव रूपी तालाब में कर्म रूपी जल आने के नाले हैं। नालों को रोक देने से जिस तरह तालाब में नए जल का संचार होना रुक जाता है, उसी तरह मिथ्यात्वादि आस्रवों के निरोध से संवर होता है-अर्थात् नए कर्मों का आगमन रुक जाता है। जिस तरह नए जल के स्राव को रोक देने से तालाब ऊपर नही उठता, उसी प्रकार आत्मप्रदेशों में नए कर्मों के प्रवेश को रोक देने से फिर बंध नहीं होता ।
जल के नए संचार के अभाव में जिस तरह पूर्व एकत्रित हुआ जल सूरज की गर्मी तथा व्यवहार आदि से क्रमशः घटता जाता है और नीचे तालाब का पेंदा दिखलाई देने लगता है, ठीक उसी तरह संवरयुक्त आत्मा के प्रदेशों में से कर्म कुछ तो फल दे दे कर और कुछ तपस्या आदि क्रियाओं से क्षय को प्राप्त होते हैं । इस तरह कर्मों के कमी पड़ जाने से आत्मा में निर्मलता आ जाती है । आत्मा के प्रदेशों का इस प्रकार अशंरूप उज्ज्वल होना निर्जरा है।
जिस तरह कम होते-होते तालाब का जल सम्पूर्ण सूख जाता है और नीचे से सूखी जमीन निकल आती है, उसी तरह तपस्यादि से जीव के प्रदेशों से कर्मों का परिशाटन होते-होते अन्त में आत्यन्तिक क्षय हो जाता है और आत्मा अपने सम्पूर्ण वैभव के साथ प्रकट हो जाता है। आत्मा का सम्पूर्ण निर्मल हो जाना उसके प्रदेशों में कर्म रूपी पुद्गलों का लेश भी न रहना, यही जीव का मोक्ष है। इस तरह मुक्त आत्मा रिक्त तालाब के तुल्य होती है।
आस्रव से कर्म आत्म-प्रदेशों में प्रवेश पाते हैं। बंध से कर्म आत्म-प्रदेशों के साथ संश्लिष्ट होते हैं। संवर से नवीन कर्मों का प्रवेश रुकता है अतः नया बंध नही हो पाता । आत्मा और कर्मपुद्गलों का पुनः वियोग होता है। जो आंशिक वियोग है, वह निर्जरा है और सम्पूर्ण वियोग है, वह मोक्ष ।