________________
मोक्ष पदार्थ : टिप्पणी ३
सिद्ध जीव लोकाग्र पर जाकर क्यों रुक जाता है-इसके आगम में चार कारण बतलाए हैं-पहला गति-अभाव, दूसरा निरूपग्रह, तीसरा रूक्षता और चौथा लोकानुभाव-लोकस्वभाव'।
जीव और पुद्गल का ऐसा ही स्वभाव है कि वे लोक के सिवा आलोक में गति नहीं कर सकते। जिस तरह दीपशिखा नीचे की ओर गति नहीं करती उसी प्रकार ये लोकान्त के ऊपर अलोक में गति नहीं करते।
जीव और पुद्गल दोनों ही गतिशील हैं पर वे धर्मास्तिकाय के सहाय से ही गति कर सकते हैं। लोक के बाहर धर्मास्तिकाय नहीं होता अतः वे लोक के बाहर अलोक में गति नहीं कर सकते।
बालू की तरह रूखे लोकान्त में पुद्गलों का ऐसा रूक्ष परिणमन होता है कि वे आगे बढ़ने में समर्थ नहीं होते। कर्म-पुद्गलों की वैसी स्थिति होने पर कर्म-रहित जीव भी आगे नहीं बढ़ सकते। कर्ममुक्त जीव धर्मास्तिकाय के सहाय के अभाव में आगे गति नहीं कर सकते।
लोक की मर्यादा ही ऐसी है कि गति उसके अन्दर ही हो सकती है। जिस प्रकार सूर्य की गति अपने मण्डल में ही होती है उसी प्रकार जीव और पुद्गल लोक में ही गति कर सकते हैं उसके बाहर नहीं।
__ जीव की अवगाहना उसके शरीर के बराबर होती है। जैसे दीपक को बड़े घर में रखने से उसका प्रकाश उस घर जितना फैल जाता है और छोटे आले में रखने से वह छोटे आले जितना हो जाता है; उसी प्रकार जीव कर्म-वश छोटा या बड़ा शरीर जैसा प्राप्त करता है उस समूचे शरीर को अपने प्रदेशों से व्याप्त-सचित्त कर देता है। हाथी का जीव हाथी के शरीर को व्याप्त किए होता है-उसकी ही अवगाहना-फैलाव-कद वाला होता है और चींटी का जीव चींटी के शरीर को व्याप्त किए रहता है-उतनी ही अवगाहना-फैलाव-कदवाला होता है।
१. ठाणाङ्ग ४.३.३३७ :
चउहिं ठाणहिं जीवा यः पोग्गला य णो संचातंति बहिया लोगता गमणताते, तं) गतिअभावेणं णिरुग्गहताते लुक्खताते लोगाणुभावेणं।