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नव पदार्थ
और उसके अस्तित्व को स्वीकार करते हैं । मोक्ष सुख छद्मस्थों की परीक्षा का विषय नहीं
होता' ।
औपपातिक सूत्र में सिद्धों के सुखों का वर्णन इस प्रकार मिलता हैं :
I
"सिद्ध अशरीर - शरीर रहित होते हैं। वे चैतन्यघन और केवलज्ञान, केवलदर्शन से संयुक्त होते हैं । साकार और अनाकार उपयोग उनके लक्षण हैं। सिद्ध केवलज्ञान से संयुक्त होने पर सर्वभाव, गुणपर्याय को जानते हैं और अपनी अनन्त केवल दृष्टि से सर्वभाव देखते हैं । न मनुष्य को ऐसा सुख होता है और न सब देवों को जैसा कि अव्यबाध गुण को प्राप्त सिद्धों को होता है। जैसे कोई म्लेच्छ नगर की अनेक विध विशेषता को देख चुकने पर भी उपमा न मिलने से उसका वर्णन नहीं कर सकताः उसी तरह सिद्धों का सुख अनुपम होता है। उसकी तुलना नहीं हो सकती । जिस प्रकार सर्व प्रकार के पाँचों इन्द्रियों के भोग को प्राप्त हुआ मनुष्य भोजन कर, क्षुधा और प्यास से रहित हो अमृत पीकर तृप्त हुए मनुष्य की तरह होता है, उसी तरह अतुल निर्वाण प्राप्त सिद्ध सदाकाल तृप्त होते हैं। वे शाश्वत सुखों को प्राप्त कर अव्याबाधित सुखी होते हैं । सर्व कार्य सिद्ध कर चुके होने से वे सिद्ध हैं। सर्व तत्त्व के पारगामी होने से बुद्ध हैं । संसार-समुद्र को पार कर चुके अतः पारंगत हैं हमेशा सिद्ध रहेंगे, इसलिए परंपरागत हैं। सिद्ध सब दुःखो को छेद चुके होते हैं। वे जन्म, जरा और मरण के बंधन से मुक्त होते हैं। वे अव्याबाध सुख का अनुभव करते हैं और शाश्वत सिद्ध होते हैं। वे अतुल सुखसागर को प्राप्त होते हैं । अनुपम अव्याबाध सुखों को प्राप्त हुए होते हैं । अनन्त सुखों को प्राप्त हुए वे अनन्त सुखी वर्तमान अनागत सभी काल में वैसे ही सुखी रहते हैं।"
उत्तराध्ययन में सिद्ध-स्थान के सुखों के विषय में निम्न वार्तालाप मिलता है : "हे मुने ! सांसारिक प्राणी शारीरिक और मानसिक दुःखों से पीड़ित हो रहे हैं उनके लिए क्षेम, शिव, अव्याबाध स्थान कौन-सा है ?"
"लोक के अग्र भाग पर एक ध्रुव स्थान है, जहाँ जरा मृत्यु, व्याधि और वेदना नहीं है पर वह दुरारोह है ।"
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तत्त्वा० उपसंहार गा० २३-३२
२. औपपातिक सू० १७८-१८६