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नव पदार्थ
आदि से छूटना द्रव्य मोक्ष है। कर्म-बेड़ी से छूटना भाव मोक्ष है। यहाँ मोक्ष का अभिप्राय भाव मोक्ष से है। धातु और कंचन का संयोग अनादि है पर क्रिया विशेष से उनके सम्बन्ध का वियोग होता है, उसी तरह जीव और कर्म के अनादि संयोग का भी सदुपाय से वियोग होता है। जीव और कर्म का यह वियोग ही मोक्ष है। मोक्ष पुण्य और पाप दोनों प्रकार के कर्मों के क्षय से होता है | __सर्व कर्म विरहित आत्मा के अनेक अभिवचन हैं। उसमें से कुछ नीचे दिये जाते
१. सिद्ध : जो कृतार्थ हो चुके, वे सिद्ध हैं अथवा जो लोकाग्र में स्थित हुए हैं और जिनके पुनरागमन नहीं है, वे सिद्ध हैं अथवा जिनके कर्म ध्वस्त हो चुके हैं जो कर्म-प्रपंच से मुक्त हो चुके हैं, वे सिद्ध हैं।
२. बुद्ध : जिनके कृत्स्न ज्ञान और कृत्स्न दर्शन हैं-जो सकल कर्म-क्षय के साथ इनसे संयुक्त हैं।
३. मुक्त : जिनके कोई बंधन अवशेष नहीं रहा।
४. परिनिवृत्त : सर्वथा सकल कर्मकृत विकार से रहित होकर स्वस्थ होना परिनिर्वाण है। परिनिर्वाण धर्मयोग से कर्मक्षय कर जो सिद्ध होता, वह परिनिवृत्त है।
५. सर्वदुःखप्रहीण : जो सर्व दुःखों का अन्त कर चुका, वह सर्वदुःखप्रहीण है। ६. अन्तकृत : जिसने पुनर्भव का अन्त कर दिया।
७. पारंगत : जो अनादि, अनन्त, दीर्घ, चारगतिरूप संसारारण्य को पार कर चुका, वह पारंगत है।
८. परिनिवृत्त : सर्व प्रकार के शारीरिक मानसिक अस्वास्थ्य से रहित । ३. सिद्ध और उनके आठ गुण (गा० ६-१०) :
उत्तराध्ययन में कहा है . . .
"वेदनीय आदि चार अघाति कर्म और औदारिक आदि शरीरों से छुटकारा पाते ही जीव ऋजु श्रेणि को प्राप्त हो अस्पर्शमानगति और अविग्रह से एक समय में ऊर्ध्व सिद्ध १. ठाणाङ्ग १.१० टीका २. वही १.४६ टीका ३. वही १.४६ टीका ४. वही