________________
मोक्ष पदार्थ : टिप्पणी २
पहले मोहनीयकर्म की अठाइस प्रकृतियों का क्षय होता है, फिर पाँच प्रकार के ज्ञानावरणीय, नौ प्रकार के दर्शनावरणीय और पाँच प्रकार के अन्तराय कर्म-इन तीनों का एक साथ क्षय होता है। उसके बाद प्रधान, अनन्त, सम्पूर्ण, परिपूर्ण आवरण-रहित, अज्ञानतिमिर-रहित, विशुद्ध और लोकालोक प्रकाशक प्रधान केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न होते हैं।
७४१
"केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त होते ही जीव के ज्ञानावरणीय आदि चार घनघाती कर्मों का नाश हो जाता है और सिर्फ वेदनीय, आयुष्य नाम और गोत्र- ये कर्म अवशेष रहते हैं। इसके बाद आयु शेष होने में जब अंतर्मुहूर्त (दो घड़ी) जितना काल बाकी रहता है तब केवली मन, वचन और काय के व्यापार का निरोध कर, शुक्लध्यान की तीसरी श्रेणी में स्थित होता है; फिर वह मनोव्यापार को रोकता है; फिर वचन व्यापार को और फिर कायव्यापार को। फिर श्वास-प्रश्वास को रोकता है; फिर पाँच हस्व अक्षरों के उच्चारण करने में जितना समय लगता है उतने समय तक शैलेशी अवस्था में रहकर शुक्लध्यान की चौथी श्रेणी स्थित होता है । वहाँ स्थित होते ही अवशेष वेदनीय आयुष्य, नाम तथा गोत्र कर्म एक साथ नाश को प्राप्त होते हैं । सर्व कर्मों के नाश के साथ ही औदारिक, कार्मण और तैजस- इन शरीरों से भी सदा के लिए छुटकारा हो जाता है। इस प्रकार इस संसार में रहते-रहते ही वह सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाता है एवं सर्व दुःख का अन्त कर देता है ।"
मोक्ष सर्व पदार्थों में श्रेष्ठ है। मोक्ष साध्य है और संवर निर्जरा साधन । साधक की सारी चेष्टाएँ मोक्ष के लिए ही होती हैं। मोक्ष पदार्थ में सर्व गुण होते हैं। उसके सुख अनन्त हैं । परमपद, निर्वाण, सिद्ध, शिव आदि उसके अनेक नाम हैं। मोक्ष के ये नाम
निष्पन्न हैं । मोक्ष के गुणों के सूचक हैं। मोक्ष से ऊंचा कोई पद नहीं, अतः वह 'परमपद' है। कर्म-रूपी दावानल शान्त हो जाने से उसका नाम 'निर्वाण' होता है । सम्पूर्ण कृतकृत्य होने से उसका नाम 'सिद्ध' है। किसी प्रकार का उपद्रव नहीं, इससे मोक्ष का नाम 'शिव' है ।
२. मोक्ष के अभिवचन ( दो० २-५ ) :
मोक्ष का अर्थ - जहाँ मुक्त आत्माएँ रहती हैं, वह स्थान ऐसा नहीं है । "मोचनं कर्मपाशवियोजनमात्मनो मोक्षः" - कर्म- पाश का विमोचन - उसका वियोजन मोक्ष है। बेड़ी
१.
उत्त० २६.७१–७३